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(१४) जो जीव सयोगी है वह नियमतः सलेशी है तथा जो जीव सलेशी है वह
नियमित सयोगी है।
प्रतीत होता है कि परिणाम, (भावयोग ) अध्यवसाय व लेश्या में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं, अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है। कर्मों की निर्जरा के समय ( सयोगी अवस्था में ) में परिणामों का शुभ होना, अध्यवसायों का प्रशस्त होना तथा लेश्या का विशुद्धमान होना आवश्यक है। जब वैराग्य का भाव प्रकट होता है तब इन तीनों में क्रमशः शुभता, प्रशस्तता और विशुद्धता होती है। यहाँ परिणाम शब्द से जीव के मूल दस परिणामों में किसी परिणाम की ओर इंगित किया गया है यह विवेचनीय है । अतः प्रतीत होता है कि मन व चित्त के परिणामों का (योग) का, लेश्या का और अध्यवसाय का सम्मिलित रूप से कर्म बंधन में पूरा योगदान है। इसी प्रकार कम की निर्जरा में भी इन तीनों का पूरा योगदान होना चाहिए। यह ध्यान देने की बात है। चौदहवें गुणस्थान में-अयोगी अवस्था में लेश्या-योग-अध्यवसाय के अभाव में भी शुक्ल ध्यान से परम निर्जरा होती है। अतः योग के बिना भी निर्जरा होती है। योगत्व को कहीं पर संसारस्थत्व-असिद्धत्व की तरह अष्ट कर्मों का उदयजन्य माना है लेकिन इससे द्रव्ययोग के ग्रहण की प्रक्रिया एक विचारणीय विषय है।
उत्तराध्ययन ३४/२१ में तीन योगों की अगुप्ति को कृष्ण लेश्या का लक्षण कहा है। मन-वचन-काय के योगों को सलेशी कहा है अतः अशुभ लेश्याओं का समावेश तीनों योगों में होता है । केवली के तेरहवें गुणस्थान में शुक्ल लेश्या होती है। वह भाव शुक्ल लेश्या भी होती है व द्रव्य शुक्ल लेश्या भी होती है। केवली के योग तीनों होते हैं । योग शरीर नाम कर्म की परिणति विशेष है। अन्यत्र ठाणांग के टीकाकार कहते है कि योग वीर्य अंतराय के क्षय-क्षयोपशम से होता है ।
द्रव्यतः मनोयोग तथा वाक योग के पुदगल चतुःस्पी है (शीत-ऊष्ण-रूक्ष-स्निग्ध) तथा द्रव्य काययोग के पुद्गल अष्टस्पर्शी है। द्रव्यतः भी योग और लेश्या भिन्न-भिन्न है । योग वीर्य से प्रवाहित होता है ( भग० श १ । उ ३ । सू १३० ।
तेरहवें गुणस्थान के शेष के अन्तमहूर्त में मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्धनिरोध हो जाता है तब लेश्या परिणाम तो होता है लेकिन काययोग की अर्धता-क्षीणता के कारण द्रव्य लेश्या के पुद्गलों की रुक जाना चाहिए। १४वें गुणस्थान के प्रारम्भ में जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब लेश्या का परिणमन भी सर्वथा रूक जाता है अतः तब जीब अयोगी-अलेशी हो जाता है।
जब केवली समुद्घात करते हैं उस समय तीसरे, चौथे व पाँचवे समय में कामण काययोग होता है। कामण काययोग की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय की होती है।
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