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दशम अध्याय जो मतवारा रहता है, वही पुरुष ही "मैं” है। भृगुमें कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड दोनों ही अविच्छेद वर्तमान रहनेसे महर्षियोंके भीतर मैं "भृगु” हूँ।
"गिरा” कहते हैं वाक्यको। समुदय वाक्यके भीतर एकाक्षर प्रणव ही मेरा वाचक है। इसलिये वाक्यके भीतर एकाक्षर प्रणव ही
__ “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"-यज्ञके भीतर अजपाजपरूप यज्ञ मैं हूँ। क्योंकि, इसीसे ही ब्राह्मीस्थिति लाभ होती है। अग्निमें साकल्यके
आहुतिका नाम यज्ञ है। (तिल, यव, ब्रीहि, और गव्य घृत इकट्ठा मिलानेसे साकल्य होता है ।। भूरि भोजनमें आदान-प्रदानको भी यज्ञ कहते हैं। निश्वास और प्रश्वासके त्याग-ग्रहणको भी यज्ञ कहते हैं। संसारमें नाना प्रकारके यज्ञ हैं, उनके भीतर अजपारूप जपयज्ञ "मैं" हूँ। जप उसको कहते हैं जो अभ्यासके जापकको, अभीष्ट देवके साथ मिलाकर एक कर देवे। यह भीतरको बात है। साधकमें
और “मैं” में बाहर बाहर जो विच्छिन्न भाव है, इस विच्छिन्नताको ( गुरूपदिष्ट ) क्रियासे मिटाकर जो "स्वयमेवात्मनात्मान" अवस्था करा दे, उसीको जपयज्ञ कहते हैं। अतएव वहो “मैं” हूं।
"स्थावराणां हिमालयः”-स्थावर कहते हैं तीन कालमें जो हिलता डोलता नहीं। "स्था” शब्दमें स्थिति, "वर" शब्दमें श्रेष्ठ, अर्थात् जितने प्रकारका श्रेष्ठ स्थिति ( साधकका विश्राम ) है, उन सबके भीतर “मैं” हिमालय हूं। हिम कहते हैं शीतलको (जिसमें उष्णतामात्रका प्रभाव; उष्णतामें ही चचलता); ालय कहते हैं घर-मुकामको अर्थात् जहां रहनेसे उत्कण्ठा रहती नहीं । आ-शून्य, लय परिणाम, जो अचल, अटल, स्थिर, शान्त, शीतल, परिणमनता शून्य है, उसीको ही हिमालय कहते हैं । और तादृश ( सोई ) हिमालय ही 'मैं हूँ ॥२५॥