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दशम अध्याय
पुरोहितोंके भीतर प्रधान बृहस्पति ( बृहताम् पतिः बृहस्पतिः ) ही मुझको जानो । यहाँ जीव, ईश्वर और "मैं" इन तीनोंके भीतर मैं ही प्रधान हूं * ।
“सेनानीनामहस्कन्दः” - सेना कहते हैं जन समूहको अर्थात् जो लोग जनम ले चुके; वह लोग सब कोई "मैं" और "मेरे" इन दोनो को लेकर लड़ाई कर रहे हैं; इस लड़ाईका परिचालक वासना है । वास होता है योनिमें अर्थात् स्थितिके स्थानमें; जिसका स्थितिका स्थान भी नहीं है ऐसी अलीक जो, वही वासना है; यह वासना ही सेनानी है । स्कन्दः =स्+क+न्+द+: ( स ) यह हलन्त स युक्त हो करके अर्द्धस्फुरण दिखाता है । स = सूक्ष्मश्वास, क = मस्तक, न = नास्ति, द = योनि; तबही हुआ सूक्ष्मश्वास भी अति सूक्ष्मत्व लेकर मस्तक में शून्ययोनि हो करके मुक्तिभाक् मात्र रहता है जिस समय, अर्थात् वासना नीचे दिशामें नाना भावसे परिचालित न हो करके सकल प्रकार कम्पनको त्याग करके जब एकाग्र भावसे मुक्ति के ऊपर लक्ष्य करके चलता रहता है, तब जो अवस्था होती है, उसीका नाम स्कन्दः है । इस अवस्था में और "मैं" में घनिष्ठ संक्रम है, इसलिये : विसर्ग युक्त है । अतएव मैं स्कन्दः हूं ( ८म अः ३ श्लोक में 'विसर्गः' देखो ) ।
" सरसामस्मि सागरः" । सरसां - स+र+स+श्रां । स = सूक्ष्मस्वास, र = प्रकाश, स= सूक्ष्मश्वास, आं= आसक्ति; सूक्ष्मश्वास का प्रकाश होनेसे सूक्ष्मश्वास में आसक्ति होती है । साधक ! तुम देखो, वही आसक्ति सागरमें परिणत होती है; ( सागर - सा = सूक्ष्मश्वास में आसक्ति, गर = 'विष' ), अर्थात् बही आसक्ति विषके सदृश विस्तार गति लेती है। निःश्वास और प्रश्वासके ऊपर लक्ष्य
* साधक ! तुम देखो, जीव भी पुरोधस्, चित्त - प्रतिविम्ब भी पुरोधस्, फिर मैं भी पुरोधस् इन तीनोंके भीतर "मैं" ही प्रधान हूँ ॥ २४ ॥