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___ श्रीमद्भगवद्गीता करनेसे ही धीरे धीरे निश्वास-प्रश्वास छोटी होते होते निरोध अवस्थाकी प्राप्ति कराती है, तब वह सीमाबद्ध सूक्ष्मत्व धीरे धीरे उड़ (मिट) कर अपरिसीम सूक्ष्म होकर खड़ा होता है। वह अपरिसीम. सूक्ष्म ही "अस्मि” अर्थात् “मैं” हूँ। यह भीतरकी बात हुई। फिर बाहरमें जहां जितना जल रहता हैं, ताल, तलैया, नाला, तडाग. नद, नदी, जो कुछ, समस्त जल ही समुद्रका है। और वह छोटे छोटे आकार भी सब समुद्रका ही अंश-विकाश; परन्तु सीमाबद्ध है । समुद्र असीम और अनन्त है। इसलिये जलाधार रूपसे समुद्रमें ही "मैं" की विभूतिका पूर्ण विकाश है ॥२४॥
· महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकंमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५॥ अन्वयः। अहं महर्षीणां ( मध्ये ) भृगुः, गिरा ( मध्ये ) एकं अक्षरं अस्मि,. यज्ञानां ( मध्ये ) जपयज्ञः अस्मि, स्थावराणां ( मध्ये) हिमालयः (अस्मि) ॥ २५॥
अनुवाद। मैं महर्षिगणों के भीतर भृगु, वाक्यके भीतर एकाक्षर, जपके भीतर जपयज्ञ, और स्थावरोंके भीतर हिमालय हूँ ॥ २५ ॥
व्याख्या। महर्षि ( १०म अः ६ष्ठ श्लोक ) उनको कहते हैं, जो लोग साधन-बलसे ऐसी शक्ति समुदयको अपने आयत्त कर चुके हैं। उनके भीतर मैं 'भृगु हूँ। 'भृ' = भरण करना और "गु" = अन्धकार। अन्धकारमें किसी वस्तुका परिज्ञान नहीं होता, इसलिये साधु लोग अज्ञानताको भी अन्धकार कह करके निर्देश किये हैं। भृगु भी अज्ञानी असुरोंको पालन करते हैं। ब्रह्मज्ञानके पास कर्मकाण्ड ही अज्ञानता है, तबही हुआ, साधन-बलसे समुदय ऐसी शक्तिको प्राप्त हो करके भी जो पुरुष कर्मकाण्ड लेकर चलते फिरते हैं, उन्हीं की आख्या "भृगु" है। परन्तु कर्मकाण्ड लेकर खेल करते रहनेसे भी "भृगु” कभी ब्रह्मज्ञानसे विच्छिन्न नहीं होता। अविच्छिन्न ब्रह्मज्ञानमें