Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ॥ अपने पर मारणान्तिक प्रहार करने वाले को भी सहज क्षमा कर आपने उसके प्राणों की रक्षा कर 'क्षमा' का आदर्श उपस्थित किया। आपके प्रमुख चार शिष्य हुए पूज्य श्री रघुनाथजी म.सा., पूज्य श्री जयमलजी म.सा., पूज्य श्री जेतसी जी म.सा. एवं पूज्य श्री कुशलोजी म.सा. । कहा भी है -
भूधर के सिख दीपता, चारों चातुर वंश।
धन रघुपत धन जतसी, जयमल न कुशलश ।। पूज्य श्री कुशल चन्द जी म.सा. (कुशलोजी म.सा.) रत्नसंघ-परम्परा के मूल पुरुष हुए।
“रीया शहर रलियामणो, लादुराम साहूकार ।
कानूद मां जनमिया, धनधन कुशल कुमार ।।" युवावस्था में ही सहधर्मिणी धर्मपत्नी के आकस्मिक अवसान से आपको संसार की असारता व विनश्वरता का बोध हुआ व आप अपने शिशु पुत्र को अपनी मां को सौंप कर पूज्य श्री भूधर जी म.सा. की सेवा में दीक्षित हुए। आप उच्च कोटि के साधक सन्त हुए। आपने अपने पूज्य गुरुवर्य की और उनके देवलोक गमन के पश्चात् अपने बड़े गुरु भ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. की अहर्निश सेवा की । जब तक पूज्य श्री जयमलजी म.सा. विराजे, स्वयं का सुयोग्य शिष्य समुदाय होते हुए भी आपने पृथक् विचरण विहार न कर समर्पण, सेवा, प्रेम व उदारता का आदर्श उपस्थित किया। पूज्य श्री गुमानचन्द जी म.सा. एवं दुर्गादास जी म.सा. आपके प्रमुख शिष्य थे। वि.सं. १८४० में नागौर में ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी को आपका संथारापूर्वक देवलोक गमन हुआ।
पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा. के पश्चात् उनकी पट्टपरम्परा में पूज्य श्री गुमानचन्द जी म.सा. प्रथम पट्टधर आचार्य बने। आप जोधपुर निवासी माहेश्वरी गोत्रीय श्री अखेराजजी लोहिया के सुपुत्र थे। आपकी माता का देहावसान होने पर कुल-परम्परा के अनुसार आप अपने पिताश्री के साथ गंगा में फल प्रवाहित करने हेतु हरिद्वार गये। वहाँ से लौटते समय संयोगवश आप मेड़ता रुके। वहाँ पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा. के पावन दर्शन व मंगलमय प्रवचन सुनकर आपके शिशु मन में वैराग्य का बीज वपित हुआ और आप अपने पिताश्री के साथ पूज्य श्री की सेवा में दीक्षित हुए। आपकी दीक्षा वि.सं. १८१८ मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को मेड़ता शहर में सम्पन्न हुई। उस समय आपकी वय १० वर्ष थी। आप प्रबल मेधा के धनी थे। गुरु सेवा में दीक्षित होकर आपने अपने आपको ज्ञानाराधना व संयम-साधना में समर्पित कर दिया। आप प्रबल पराक्रमी महापुरुष थे। वि.सं. १८४० में आप चतुर्विध संघ के नायक बने एवं आपके कुशल नेतृत्व में यह यशस्वी परम्परा सुदृढ बनी। आपके आज्ञानुवर्ती संत श्री ताराचन्दजी म.सा. के देवलोक गमन के पश्चात् आपको स्वप्न में आभास हुआ मानो ताराचन्दजी म.सा. कह रहे हों “गुरुदेव आप समर्थ पुरुष हैं। साधु समुदाय में आई हुई शिथिलता को दूर करने के लिये आपके पुरुषार्थ की आवश्यकता है। आहार, वस्त्र, पात्र, स्थानक आदि की निर्दोषता की ओर अधिक ध्यान अपेक्षित है। आहारादि की विशुद्धि में आई हुई कमजोरियों को दूर करना आप जैसे समर्थ आचार्यों का कर्तव्य है।"
आपने अपने शिष्य समुदाय के साथ चिन्तन-मनन कर अपने समर्थ शिष्य श्री रत्नचंदजी म.सा. के सहयोग से वि.सं. १८५४ आषाढ कृष्णा द्वितीया को बड़लू (सम्प्रति-भोपालगढ) के उद्यान में क्रियोद्धार किया एवं मर्यादा के २१ बोल बनाये। तदनुसार दृढ वैराग्य व मर्यादा के अक्षुण्ण पालन के संकल्प के साथ आप व १३ अन्य कुल १४ संतों ने इस दिन नवीन दीक्षा धारण की।