Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्री मिश्रीमल 'मधुकर': जीवन-वृत्त : ४५ पंचमी के दिन माता चम्पादेवी की पुण्यकुक्षि से जन्म हुआ. श्रीअमोलकचन्द्रजी श्रीश्रीमाल को आपके पिता होने का गौरव प्राप्त हुआ. वैशाख शुक्ला द्वादशी विक्रम सं० १९७१ के दिन स्वामी श्रीजोरावरमलजी से आपने ब्यावर में दीक्षा अंगीकार की.
गुरु ने शिष्य को अपना विद्यावैभव प्रदान किया. शिष्य ने गुरु की अपूर्व निष्ठापूर्वक सेवा की. गुरु के आदेशनिर्देश से एक इंच भी इधर-उधर होना आपके सेवापरायण मन ने कभी स्वीकार नहीं किया. गुरु म० के समक्ष जैसी संयमनिष्ठा थी वैसी ही निष्ठा आज तक विद्यमान है. दीक्षा के बाद आज तक संयम में पराक्रम दिखाते हुये, साधुता की मस्ती का आनन्दोपभोग करते हुये संयमशील जीवन की नैया को कर्त्तव्यशील मांझी की तरह खेते चले जा रहे हैं. आपको दीक्षा धारण किये ५० वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो गया है. इस बीच अल्हड़ जवानी आई, और गई. परन्तु संयम में हिमालय-सी अचलता, समुद्र-सी गम्भीरता और इस्पात -सी कठोरता जैसी प्रारम्भ में रही वैसी ही आज भी विद्यमान है.
थोकड़ों का ज्ञान आपका अद्भुत है. कितने ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया या किसी ने कितने ग्रंथ पढ़ लिये, इस बात को आपने कभी महत्त्व नहीं दिया. आपने सदैव एक ही सिद्धांत को अपने जीवन का आदि, मध्य और अन्त का केन्द्र माना है कि जो हम पढ़ते हैं, समझते हैं वह हमारे जीवन को कितना स्पर्श कर पाया है. यही कारण है कि आपने पढ़ पढ़कर पठित ग्रंथों की संख्या बढ़ाने में कभी विश्वास नहीं किया, जो पढ़ा उसे जीवन की प्रयोगशाला में ढाला है.
आपके जीवन की सर्वाधिक विशेषता है-सेवा सेवा को आपने साधुता का श्रृंगार माना है. इसलिए आप सेवाव्रती के रूप में साधु समाज में विख्यात हैं. सेवा परम धर्म है. यह धर्म, योगियों की योगसाधना से भी दुष्कर है, क्योंकि इसके पालन करने में अपनी मनोवृत्तियों का दृढ़तापूर्वक दमन करना पड़ता है. मन पर विजय प्राप्त करने वाला ही सेवा-जैसे महान् गुण को जीवन में साकार कर पाता है. भर्तृहरि ने भी कहा है- 'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' गुरु की सेवा करना उतना प्रशंसनीय नहीं है जितना प्रशंसनीय है प्रत्येक छोटे-बड़े सन्त की सेवा करना. गुरु की सेवा समाज में सम्मान पाने एवं गुरु का प्रिय बनने को भी मनुष्य कर लेता है. किन्तु आप समान भाव से छोटेबड़े सभी मुनियों की सेवा कर अपूर्व प्रसन्नता का अनुभव करते हैं. अपने उपकारी के प्रति विनम्र भाव से सेवकत्व जतलाना एक बात है और आकांक्षा रहित होकर गुणी जनों की सेवा में प्रवृत्त रहना जीवन की दुष्प्राप्य सिद्धि है. आपकी पुनीत सेवावृत्ति के परिणामस्वरूप ही मैं ( मधुकर मुनि) साधु जीवन में एकदम निर्द्वन्द्व और निश्चिन्त रह कर एकाग्रभाव से अध्ययन में तत्पर रह सका. वस्तुतः मेरे जीवन के निर्माण में स्वामीजी म० की अनुग्रहपूर्ण सद्भावना एक प्रधान कारण रही है, गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज की और फिर स्वामी श्रीहजारीमल जी म० की सेवा के अवसरों को आप स्वयं ओट आ लेते और मुझे सदैव ज्ञान-ध्यान करते रहने की प्रेरणा प्रदान करते रहे. जीवन के ६३ वर्ष पूर्ण कर चुकने पर भी आप में आज भी सन्तों की सेवा के प्रति वही तीव्र वेग है. आपके भाल पर ब्रह्मचर्य का तेज आज भी देदीप्यमान है. आप अपनी धुन के धनी हैं. आपमें साधुता की सहज मस्ती है. श्रावक समाज पर आपका प्रभाव पर्याप्तमात्रा में विद्यमान है.
स्वामीजी म० के स्वर्गवास के बाद आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है तथापि आपकी वाणी में जो कड़क है उसके पीछे विशुद्ध साधुत्व का बल बोलता दिखाई देता है. आपने सौन्दर्यात्मक लेखन में खूब प्रगति की है. वर्तमान में आपका चैनलिपि (प्राचीन शास्त्रों की पडीमात्रा लिपि) में सुन्दर लेखन साधु-समाज में प्रसिद्ध है.
मुनि मिश्रीमल 'मधुकर'
( स्वामीजी म० के वर्तमान परिवार का परिचय यहाँ दिया जा रहा है. मैं भी उसका एक सदस्य हूँ. इसी नाते निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखने की विवशता है— स्वयं अपने बारे में ) जन्म, तिवरी सं० १९७० में माता तुलसा जी. पिता जमनालालजी धाडीवाल. गुरुदेव श्रीजोरावरमल जी म० की कृपा
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