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"जय हो.........
माँ धरती को बरदान, तुम्हारी जय हो ! हे मूर्तिमान सद्ज्ञान, तुम्हारी जय हो !
जब-जब सूरज का ताप प्रखर हो जाता। मानव-मन जल-थल, गर्मी से घबराता। तब-तब नभ से जल धार, धरा पर आती,
हो तृषा-तृप्त, सूखी धरती हरषाती। वैसे ही सुगुरु महान् तुम्हारी जय हो। हे मूर्तिमान सद्ज्ञान, तुम्हारी जय हो ।
है धन्य बंग-भू पा तव पद की छाया। सौभाग्य प्रथम दर्शन का जिसने पाया। पर अब वियोग की घड़ी निकट जब आई।
अन्तर-पट पर है श्याम घटा लहराई । हे परम पूज्य महमान तुम्हारी जय हो । हे मूर्तिमान सद्ज्ञान, तुम्हारी जय हो ।
तुम वीतराग, हम मोह न कम कर पाये। इसलिये भाव मन में हैं ऐसे आये । दर्शन सदैव उपवन-मन्दिर में पाये।
आचार्य देशभूषण न यहाँ से जायें। यह है अन्तर का गान, तुम्हारी जय हो। हे मूर्तिमान सद्ज्ञान, तुम्हारी जय हो !
स्वयमेव प्रकाशित सूर्य गगन में जैसे । निज ज्ञान ज्योति से, तब मुखमण्डल वैसे। यदि धूल सूर्य पर कोई मूर्ख उछाले । तो अपने मुख को कलुषित स्वयं बना ले।
तमहर 'प्रकाश' मय ज्ञान तुम्हारी जय हो । हे मूर्तिमान सद्ज्ञान, तुम्हारी जय हो। मां धरती को वरदान, तुम्हारी जय हो।"
एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, "आचार्य श्री चल रहे थे, हम दौड़ रहे थे। सिंह की सी निर्भयता, सूर्य का तेज, चन्दा की सी शीतलता, बादलों का सलोनापन, पर्वत की अडिगता, सागर की गम्भीरता सभी कुछ एक व्यक्ति में एक साथ परिलक्षित हो रही थी। एक छोटी-सी लड़की भीड़ से निकली। उसके हाथ में था फूल । आचार्यश्री को देखकर उनके चरणों पर रख दिया और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। पाँच वर्ष की बालिका के सिर पर कोमल मयूर पंखों की पिच्छी ने मूक ही कहा-तुम्हें धर्म की प्राप्ति हो। बालिका के बंगाली माता-पिता कर जोड़े पंक्ति में खड़े थे। हजारों व्यक्ति जिन्होंने किसी दिगम्बर जैनसाधु का प्रथम दर्शन किया था, बालकों जैसी निर्विकारी छवि को सश्रद्ध प्रणाम कर रहे थे। जल थल नभ मानो बाली पुल पर एक साथ बोले-आचार्य श्री देशभूषण महाराज की जय।"
(दिव्य ध्वनि, वर्ष १, अंक १)
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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