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४ बोल पृष्ठ ३६८ से ३६६ तक। साधु आहार कियां पाप न बंधे ( दशवै० अ० ४ गा० ८)
५ बोल पृष्ठ ३६६ से ३६६ तक । साधु नो आहार मोक्ष नों साधन कह्यो ( दशवै० अ० ५ उ० १ गा० १२)
६ बोल पृष्ठ ४०० से ४०० तक। निर्दोष आहार ना लेणहार शुद्ध गति ने विषे जावे (द० अ०५ उ० १ गा० १००)
७ बोल पृष्ठ ४०० से ४०२ तक। ६ स्थानके करी श्रमण आहार करतो आज्ञा अतिक्रमे नहीं (ठा० ठा० . उ० १)
इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने निम्रन्थाहाराऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
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निर्ग्रन्थ निद्राऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ४०३ से ४०३ तक । जयणा थी सूतां पाप न बंधे ( दशवै० अ० ४ गा० ८)
२ बोल पृष्ठ ४०३ से ४०४ तक। सुत्ते नाम निद्रावन्तनों छै ( दश० अ० ४ )
३ बोल पृष्ठ ४०४ से ४०५ तक । द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही (भ० श० १६ उ० ६ )
४ बोल पृष्ठ ४०५ से ४०७ तक । तीजी पौरसी में निद्रा ( उत्त० अ० २६ गा० १८ )
५ बोल पृष्ठ ४०६ से ४०६ तक। निद्रा पाणी तीरे वर्जी पिणं और जागां नहीं ( वृ० क० उ० १)