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दानाऽधिकारः।
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घाल्या, विभूषा कियां, पीठी मर्दन कियां, अनाचार कह्यो ते साधु ने अनाचार छै। ते गृहस्थ रा सर्व बोल सेवे तेहनें धर्म किम हुवे। जे साधु तो ३ करण ३ जोग सूं ५२ अनाचार सेवे तो व्रत भांगे। अनें गृहस्थ ए ५२ बोल सेवे तेहनो व्रत भाँगे नहीं, परं पाप तो लागे। अने जे कहे-गृहस्थ नी वैयावच साधु करे तो अणाचार पिण गृहस्थ में धर्म छै। तो तिण रे लेखे मूलो आदो पिण साधु भोगव्यां अनाचार अने गृहस्थ भोगवे तो धर्म कहिणों। इम ५२ बोल साधु सेव्यां अणाचार अने गृहस्थ सेवे तो तिण रे लेखे धर्म कहिणो। अनें और बोल गृहस्थ सेव्यां धर्म नहीं तो व्यावच पिण गृहस्थ री गृहस्थ करे तिण में धर्म नहीं। इणन्याय पडिमाधारी पिण गृहस्थ छै। तेहनें अशनादिक नों देवो. ते व्यावच छै. तेहमें धर्म नहीं। अनें जे “समणभुए" ते श्रमण सरीखो ए पाठ रो अर्थ बतावी लोकां रे भ्रम पाडे छै ते तो उपमा वाची शब्द छै। उपमा तो घणे ठामे चाली छै। अन्तगढ दशांगे तथा बन्हि दशा उपांगे सूत्रे द्वारिका ने “पञ्चक्ख देवलोक भुया" कही। ए द्वारिका प्रत्यक्ष देवलोक सरीखी कही। तो किहां तो देवलोक, अनें किहाँ द्वारिका नगरी, पिण ए उपमा छै। तिम पडिमाधारी ने कह्यो “समणभुए" ए पिण उपमा छै। किहां साधु सर्व व्रती अनें किहां श्रावक देशव्रती। तथा वली स्थविरां रा गुणा में पहवा पाठ कह्या
"अजिणा जिण संकासा जिणा इव अवितहवा गरेमाणा"
इहां पिण स्थविरां ने केवली सरीखा कह्या। तो किहां तो केवली रो ज्ञान अनें किहां छद्मस्थ रो ज्ञान। केवली ने अनन्त मे भांगे स्थविरां पासे ज्ञान छै। पिण जिन सरीखा कह्या। अनन्त गुणो फेर शान में छै । तेहनें पिण जिन सरीखा कह्या ते ए देश उपमा छै। तिम आनन्द नें “समणभुए" कह्यो। ए पिण देश उपमा छै ।
तथा वली "जम्बू द्वीप पणत्ति" में भरत जी रा अश्व रत्न ना वर्णन में एहवो पाठ छ। “इसिमिव खमाए" ऋषि (साधु ) मी परे क्षमायान् छै। तो किहां साधु संयती अनें किहां ए अश्व असंयती ए पिण देश उपमा छै। तिम पडिमाधारी ने “समणभुए कह्यो। एपिर देशधकी उपमा छै! परं सर्वथकी