Book Title: Bhram Vidhvansanam
Author(s): Jayacharya
Publisher: Isarchand Bikaner
View full book text
________________
४१४
भ्रम विश्वसनम्।
-
पिण स्यूं बोले ते कहे छै. मु. पापणपे धर्म आचरण ने विषे उठ्यो उद्यमवन्त. इम वाद बोलतो एतावता हू "चरित्रियो छु” एहवो बोलतो परं अशुद्ध वर्ते इम करतो आजीविकाय नों बहितो किम प्रवर्ते. ते कहे छै. मा० मुझनें. के० केइ अकार्य करता देखे एह भणी छानों अकार्य करे. अ० अज्ञान प्रमाद ने दो० दोषे करी. स. निरन्तर मू० मूढ़ मूर्ख मोह्यो छतो. ध धर्म न जाणे अधम्म प्रवर्ते. अ. विषय कषायादिक री आर्त व्याकुल एहवा थया जीव. भा० अहो मानव ! क. ते कर्म अष्ट प्रकार बांधवा में विषे. को० पण्डित परं धम अनुष्ठान ने विषे पण्डित न थी. जे० पाप अनुष्ठान थकी भनिवृत्त. भ० ज्ञान चारित्र थको विपरीत मार्गे. प० संसार नों उत्तरण मोक्ष. मा० कहे ते पर सत्य धर्म न जाणे. ते धर्म अजाण तो स्यूं पामे. ते भाव कहे छै. प्रा० ससार तेहने विष अरहद घटिका ने न्याय प्रण तेणे नरकादि गति ते विषे वली २ भ्रमण करे. श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी प्रति कहे छै.
अथ इहां पिण एकलो रहे तिण में आठ दोष कह्या । बहुक्रोधी, मानी. मायी. लोभी. कह्यो। घणो पाप करवे रक्त घगो नटनी परे वेष धरे. घणो धूर्त. पणो सङ्कल्प. कलेश. घणो कह्यो। वली पाप कर्म बाँधण में पण्डित कह्यो ।
चित् कोई माहरो अकार्य देखे इम जाणो ने छाने २ अकार्य करे। इत्यादिक एकला में अनेक अवगुण कह्या । ते माटे एकलो रहे तिण ने साधु किम कहिए । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ५ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ ।
गामाणु गामं दूइज माणस्स दुजातं दुप्परिक्कतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥१॥ वयसावि एग चोइया कुप्पंति माणवा उन्नय माणेय णरे महता मोहेण मुज्झति संबाह बहवो भुजो दुरतिकमा अजाणतो अपासतो एयंते माउ होउ एयं कुसलस्स दंसणं ॥२॥ तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तपुरकारे तस्सनी तन्नीवेसणे जयं विहारी चित्त णिवाति पंथ णि

Page Navigation
1 ... 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524