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भ्रम विध्वंसनम् ।
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दिक पूछयां थकां. ण सावद्य वचन न बोले. जिन कल्पी निरवद्य वचन पिण न बोले. ण तिहां रहितो तृण कचरादि न प्रमार्जे. णो० तृणादिक पाथरे नहीं. ए प्राचार जिन कल्पी नों है.
अथ अठे इम कह्यो और जगां न मिले तो सूना घर ने विषे रह्यो साधु पिण किमाड़ जड़े उघाड़े नहीं तो प्रामादिक में रह्यो किमोड़ किम जड़े उघाड़े ए तो मोटो दोष छै। तिवारे केई अज्ञानी इम कहे । ए आचार तो जिन कल्पी नों छै। स्थविर कल्पी नों नहीं । इम कहे तेहनों उत्तर–इहां पाठ में तो जिन कल्पी नों नाम कहो न थी। अनें अर्थ में ३ पदों में जिन कल्पी अनें स्थविर कल्पी नों भेलो आचार कह्यो छै। अनें चौथा पद में जिन कल्पी नों आचार कह्यो छै। अनें शीलाडाचार्य कृत टीका में पिण इम हिज कह्यो । ते टीका लिखिये छ।
केन चिच्छयनादि निमित्तेन शून्यगृह माश्रितो भिक्षु स्तद्वारं कपाटादिना स्थगयेन्नापि तचालयेत्-यावत्. “णावपंगुणेति' नोद्घाटयेत्तत्रस्थो न्यत्र वा केनचिद्धर्मादिकं मार्गादिकं पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेत् । श्राभिग्राहिको जिन कल्पिकादि निरवद्यामपि न ब्रूयात् । तथा न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं वा प्रमार्जनेन नापनयेत् । नापि शयनार्थी कश्चि दाभिग्रहिकस्तृणादिकं संस्तरेत् । तृणैरपि संस्तारं न कुर्यात् । कम्बलादिना न्योवा सुषिरतृणां न संस्तारेदिति ।
अथ इहां कह्यो शयनादिक ने कारणे सूना घर में रह्यो साधु ते घरना किमाड़ जड़े उघाड़े नहीं। अनें कोई धर्म नी बात पूछै तो पूछयां थकां सावध पाप कारी वचन बोलै नहीं। ए आचार स्थविरकल्पी नों जाणवो। अनें वली जिन कल्पी तो निरवद्य वचन पिण नहीं बोले । तथा तृणादिक कचरो पिण बुहारे नहीं। ए आचार जिन कल्पिकादिक अभिप्रहधारी नो जाणवो। जे पूर्वे ३ पद कह्या, तिण में जिन कल्पी स्थविर कल्पी नों आचार भेलो कह्यो । अनें चौथा पद में केवल जिन कल्पी नों आचार कह्यो। ते माटे इहां सगली गाथा में जिन कल्पी नों नाम लेई स्थविर कल्पी ने किमाड़ जड़णो उघाड़णो थापे ते जिन मार्ग ना अजाण एकान्त मृषावादी अन्यायी छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।