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वम विध्वंसनम् ।
श्रीजाचार्य विरचितम् ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
2000
श्रीमत्तेरापन्थनायक भिक्षुगणि चतुर्थ पट्ट स्थित मुनिराज श्री “जयाचार्य' विरचितम्
तच्च - गङ्गाशहर ( बीकानेर ) स्थेन _ "ईसरचन्द” चौपड़ाऽभिधेन मुद्रापितम्। शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिका न गजे गजे । साधवो नहि. सर्वत्र चन्दनं न बने बने ।
000
विक्रमाब्द
वीर निवार्णाब्द
२४५०
कलकत्ता
N
न. १, सिनामा स्वीटर इमाम गली के
ओलचाल प्रेस में बाबू सहालगन्द आयेद द्वारा मुछित । १०
OTE-Paa
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द्वितीयावृति २०००]
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| मूल्य ५) ***bye
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अति रमणीये काव्ये
अति रमणीये वपुषि
पिशुनो दूषण मन्वेषयति बणमिव मक्षिका निकर:
अति सुन्दर काव्य में भी विशुन ( धूर्त्त पुरुष ) दोषों को ही खोजता रहता है । जैसे कि अति सुन्दर शरीर में भी मक्षिकाएं केवल व्रण ( घाव ) को ही खोजतीं हैं ।
94310427/01/2
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भूमिका।
ना
ऐसा कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य संसार में न होगा जिसने कि धर्म और अधर्म की विचारणा में अपना थोड़ा बहुत समय न लगाया हो। धर्म क्या है और अधर्म क्या है प्रायः इसी विवेचना में नाना सम्प्रदायों के नाना ही प्रन्थ बन चुके हैं और समय २ पर भिन्न २ मतावलम्बियों के इसी विषय पर लम्बे २ व्याख्यान
और चौड़े २ वादविवाद भी होते रहते हैं। एक समाज जिसको धर्म कहता है दूसरा समाज उसीको अधर्म कह कर पुकारता है। इस धर्माऽधर्म की ही चर्चा में स्वार्थ देवका साम्राज्य होने के कारण निर्णय के स्थान में वितण्डावाद हो जाता है और शास्त्रार्थी शस्त्रार्थी बन जाते हैं। निर्मल हृदय वाले महात्माओं का अपमान होता है और पाषण्डियों का जय २ कार होने लगता है। "धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः" धर्म के बिना मनुष्य पशु समान है, इस न्याय के आधार पर कोई भी पुरुष पशुओं की सड्डया में सम्मिलित होना नहीं चाहता । किसी अज्ञानी से भी पशु कहना उसको चिढ़ाना है। परन्तु सुख भो भोगना और धर्म भी हो जाना ये दोनों बातें कैसे हो सक्ती हैं। धर्म २ कहना केवल जीभ हिलाना है और धर्म करना सांसारिक सुखों को जलाञ्जलि देना है। धर्म कोई पैतृक (पिता सम्बन्धी) व्यवसाय नहीं है यदि कोई अनभिज्ञ पुरुष शुद्ध महात्माओं के उपदेश को यह कह कर कि "यह उपदेश हमारे पितृ धर्म से विपरीत है" नहीं मानता है वह केवल अन्ध परम्परा का ही अनुयायी है "तातस्य कूपोऽय मिति वाणाः क्षारं जलं का पुरुषाः पिवन्ति" यह कूआ हमारे पिता का है यह कहकर खारी होनेपर भी मूर्ख पुरुष ही उसका जल पीते हैं। शुद्ध साधुओं का उपदेश संसार से तारने का है धर्म के विषय में अपना पराया समझना एक बड़ी भूल है। यदि एक बड़ी नदी से पार होने के लिये चि.सी की टूटी हुई नावकाम नहीं देती तो किसी दूसरे के जहाजसे पार हो जाना क्या बुद्धिमानी का काम नहीं है। धर्म कोष के अध्यक्ष शुद्ध साधु ही हैं धर्म की प्राप्त करने के लिये साधुओं की ही शरण लेना अत्यावशकीय है। किन्तु
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साधुओं के समान वेष धारण करने से ही साधु नहीं होता अथच भगवान् की आज्ञानुसार ही आचार विचार पालनेवाला साधु कहा जाता है। सिंह की चर्म पहिन कर गर्धव तभीतक सिंह माना जाता है जब तक कि वह अपने मधुर स्वर से गाना नहीं आरम्भ करता है । वेषधारी तभीतक साधु- प्रतीत होता है जबतक कि उसकी पञ्च महाव्रत पालना में शिथिलता नहीं दीख पड़ती है।
जब कि आप एक छोटी सी भी नदी पार करने के लिये नाव को ठोक पीट कर उसकी दृढ़ता की परीक्षा करने के पश्चात् चढ़ने को उद्यत होते हैं तो क्या यह आवश्यकीय नहीं है कि संसार जैसे महासागर के पार करने के लिये पोत ( जहाज़ ) रूपी साधुओं की भले प्रकार परीक्षा कर लें। मान लिया कि साधुसाधुओं का वेष बनाय हुए है। और दूसरों के पराजय करने के लिये उसने कुयुतियां भी बहुत सी पढ़ रक्खी हैं तथापि यदि भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध चलता, है और "इस समय में पूरा साधुपना नहीं पल सक्ता" ऐसी शास्त्र विरुद्ध बातें कह २ कर लोगों को भ्रमाता रहता है तो वह केवल पत्थर की नाव के समान है न स्वयं तर सक्ता है न दूसरों को तार सक्ता है ।
1
।
साधुओं का आचार विचार भगवान् की वाणी से विदित होता है सूत्र ही भगवान् की वाणी हैं। सूत्रों का विषय गम्भीर होने से तथा गृहस्थ समाज का सूत्र पढ़ने का अनधिकार होने से सर्व साधा रण को भगवान् की वाणी विदित हो जावे और संसार सागर से पार होनेके लिये साधु असाधु की पक्षा हो जावे यह विचार कर ही जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ नायक पूज्य श्री १००८ जयाचार्य महाराज ने इस " भ्रम विध्वंसन" ग्रन्थ को बनाया है इस ग्रन्थ में जो कुछ लिखा है। वह सब सूत्रों का प्रमाण देकर ही लिखा गया है. अतः यह ग्रन्थ कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है किन्तु सर्बसूत्रों का ही सार है । भगवान् के वाक्यों के अर्थ का अनर्थ जहां कहीं जिस किसी स्वार्थ लोलुपी ने किया है उसके खंडन और सत्य अर्थ के मण्डन में जय महाराज ने जैसी कुशलता दिखलायी है वैसी सहस्र लेखनियों से भी वर्णन नहीं की जा सक्ती । यद्यपि आपके बनाये हुए अनेक ग्रन्थ हैं तथापि यह आपका ग्रन्थ मिथ्यात्व अन्धकार मिटाने के लिये साक्षात् सूर्यदेव के ही समान है । एकवार भी जो पुरुष इस ग्रन्थ का मनन कर लेगा उसको शीघ्र ही साधु असाधु की परीक्षा हो जायेगी और शुद्ध साधु की शरण में आकर इस असर
संसार से अवश्य तर जायेगा ।
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यद्यपि यह ग्रन्थ पहिले भी किसी मुम्बई के प्राचीन ढङ्ग के यन्त्रालय में छप चुका है । तथापि वह किसी प्रयोजन का नहीं हुआ छपा न छपा एकसा ही रहा। एक तो टायप ऐसा कुरूप था, दीख पड़ता था कि मानों लियो का ही छपा हुआ है। दूसरे प्रूफ संशोधन तो नाममात्र भी नहीं हुआ समस्त शब्द विपरीत दशा में ही छपे हुए थे। कई २ स्थान पर पंक्तियां हो छोड़ दी थीं दो एक स्थान पर एक दो पृष्ठ भी छूटा हुआ मिला है । सारांश यह है कि एक पंक्ति भी शुद्ध नहीं छापी गई। ऐसी दशा में जयाचार्य का सिद्धान्त इस पूर्व छपे हुर पुस्तक से जानना दुर्लभ ही हो गया था। ऐसी व्यवस्था इस अपूर्व ग्रन्थ की देख कर तेरापन्थ समाज को इसके पुनरुद्धार करने की पूर्ण ही चिन्ता थी । परन्तु होता क्या मूल पुस्तक जो कि जयाचार्य की हस्तलिखित है साधुओं के पास थी बिना मूल पुस्तक से मिलाये संशोधन कैसे होता । शुद्ध साधुओं की यह रीति नहीं कि गृहस्थ ! समाज को अपनी पुस्तक छपाने को अथवा नक़ल करने को देवें । ऐसी अवस्था में इस ग्रन्थ का संशोधन असम्भव सा ही प्रतीत होने लगा था । समय वलवान् है पूज्य श्री १००८ कालू गणिराज का चतुर्मास सं० १९७६ में बीकानेर हुआ । वहां पर साधुओं के समीप मूल पुस्तकमें से धार धार कर अपने स्थानमें आकर त्रुटियां शुद्ध कीं । ऐसे गमनागमन में संशोधन कार्य के लिये जितना परिश्रम और समय : लगा उसको धारनेवाले का हो आत्मा वर्णन कर सक्ता है। इसमें कुछ संशोधक. की प्रशंसा नहीं किन्तु यह प्रताप श्रीमान् कालू गणिराज का ही है जिन के कि शासन में ऐसे अनेक २ दुर्लभ कार्य सुलभता को पहुंचे हैं । कई भाइयों की ऐसी इच्छा थी कि इस ग्रन्थ को खड़ी बोली में अनुवादित किया जावे परन्तु जैसा रस असल में रहता है वह नकुल में नहीं । इस ग्रन्थ की भाषा मारवाड़ी है थोड़े पढ़े लिखे भी अच्छी तरह समझ सकते हैं यद्यपि इस ग्रन्थ के प्रूफ संशोधन में अधिक से are भी परिश्रम किया गया है. तथापि संशोधक की अल्पज्ञता के कारण जहां कहीं कुछ भूलें रह गई हों तो विज्ञ जन सुधार कर पढ़ें। भूल होना मनुष्यों का स्वभाव है । टायप भी कलकत्ते का है छापते समय भी मात्राऐं टूट फूट जाती हैं. कहीं २ अक्षर भी दबनेके कारण नहीं उघड़ते हैं अतः शुद्ध किया हुआ भी असंशो धित सा ही दीखने लगता हैं इतना होनेपर भी पाठकों को पढ़ने में कोई अड़चन नहीं होगी। इस में सब से मोटे २ अक्षरों में सूत्र पाठ दिया गया है और सबसे छोटे अक्षरों में अर्थ है । मध्यस्थ अक्षरों में वार्त्तिक अर्थात् पाठ का न्याय
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है। टब्बा अथ में पाठके शब्द के प्रथम • ऐसा चिन्ह लगाया गया है जो कि समस्त शब्द का बोधक है। संस्कृत टीका इटालियन (टेढ़े ) अक्षरों में छापी गई है । जैसा क्रम छापने का है उसीके अनुसार इस ग्रन्थ के छपाने में पूरा ध्यान दिया गया है। तथापि कोई महोदय यदि दोष देंगे तो पारितोषिक समझ कर सहर्ष स्वीकार किया जायगा । प्रथम वार इस ग्रन्थ की २००० प्रतियां छपाई गई हैं । लागत से भी मूल्य कम रक्खा गया है। इस ग्रन्थ के छपाने का केवल उद्देश्य भगवान् के सत्य सिद्धान्त का घर २ प्रचार होना है । समस्त जैन समाजों का कर्त्तव्य है कि पक्षपात रहित होकर इस ग्रन्थ का अवश्य मनन करें। यह ग्रन्थ जैसा निष्पक्ष और स्पष्ट वक्ता है दूसरा नहीं । तेरापन्थ समाज का तो ऐसा एक भी घर नहीं होना चाहिये जिसमें कि यह जयाचार्य का ग्रन्थ भ्रमविध्वंसन न विराजता हो । यह ग्रन्थ तेरापन्थ समाज का प्राण है बिना इस ग्रन्थ के देखे कभी सूक्ष्म बातों का पता नहीं लग सक्ता । इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में जो आयुर्वेदाचार्य पं० रघुनन्दनजी ने सहायता दी है उसके लिये हम पूर्ण कृतज्ञ हैं । समस्त परिश्रम तभी सफल होगा जब कि आप ग्रन्थ के लेने में विलम्ब न लगायेंगे और अपने इष्ट मित्रों को लेने के लिये प्रेरित करेंगे । इसकी अनुक्रमणिका भी अधिकार. बोल. और पृष्ठ की सङ्ख्या देकर के भूमिका के ही आगे लगाई गई है जो कि पाठकों को पाठ खोजने में अतीव सहायिका होगी । प्रथम छपे हुए भ्रम विध्वंसन में सूत्रों की साख देने में अतीव भूलें हुईं २ थी अबके वार यथाशक्ति सूत्र की ठीक २ साख देने में ध्यान दिया गया है तथापि यदि किसी२ पुस्तक में इस साख के अनुसार पाठ न मिले तो उसीके आसपास में पाठक खोज लेवें। क्योंकि कई पुस्तकों में साखों में तो भेद देखा ही जाता है । विशेष करके निशीथ के बोलों की संख्या में तो अवश्य ही भेद पाया जावेगा क्योंकि उसकी संख्या हस्तलिखित प्रतियों में तो कुछ और और छपी हुई पुस्तकोंमें कुछ और ही मिली है । पहिले छपे हुए " भ्रम विध्वंसन" में और इस में कुछ भी परिवर्त्तन नहीं है किन्तु २-४ स्थलों में नोट देकर संशोधक की ओर से जो खड़ी वोलीमें लिखा गया है वह पहले भ्रम विध्वंसन से अधिक है। आज का हम सौभाग्य दिवस समझते हैं जब कि इस अमूल्य ग्रन्थ की पूर्ति हमारे दृष्टि गोचर होती है । कई भ्रातृवर इस ग्रन्थकी, "चातक मेघ प्रतीक्षा घत् " प्रतीक्षा कर रहे थे अत्र उनके करः कमलों में इसप्रन्य को समर्पित कर हम भी कृत कृत्य होंगे ।
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पाठकों को पहिले बतलाया जा चुका है कि इस प्रन्थ के कर्ता जयाचार्य अर्थात् श्री जीतमलजी महाराज हैं। परन्तु केवल इतने ही विमरण से पाठकों की अभिलाषा पूर्ण नहीं होगी। अतः श्रीजयाचार्य महाराज जिस जैन श्वेताम्बर तेरा. पन्थ समाज के चतुर्थ पट्ट स्थित पूज्य रह चुके हैं उस समाज की उत्पत्ति और उस समाज के स्थापक श्री "भिक्षु' गणिराज की संक्षेप जीवनी प्रकाशित की “जाती है। - नित्य स्मरणीय पूज्य "भिक्षु" स्वामी की जन्म भूमि मरुधर (मारवाड़) देश में "कण्टालिया" नामक प्राम है। आपका अवतार पवित्र ओसवाल वंश की "सुखलेचा" जाति में पिता साह “घलुजी' के घर माता "दीपदि” की कुक्षि में विक्रम सम्बत् १७८३ आषाढ शुक्ला सर्वसिद्धा त्रयोदशी के दिन हुआ। आपके कुलगुरु “गच्छ वासी' नामक सम्प्रदाय के थे अतः उनके ही समीप आपने धर्म कथा श्रवणार्थ आना जाना प्रारम्भ किया। परन्तु वहां केवल बाह्याडम्बर ही देख कर आपने "पोतिया बन्ध” नामक किसी सम्प्रदाय का अनुसरण किया। वहां भी उसी प्रकार धर्म भावका अभाव और दम्भ का हो स्तम्भ खड़ा देख कर आपकी इष्ट सिद्धि नहींहुई । अथ इसी धर्म प्राप्तिकीगवेषणामें वाईससम्प्रदायके किसी विभाग के पूज्य 'रघुनाथ' जी नामक साधु के समीप आपका गमनाऽऽगमन स्थिर हुमा । आप की धर्म विषय में प्रवल उत्कण्ठा होने लगी और इसी अन्तर में आपने कुशील को त्याग कर शील प्रत का भी अनुशीलन कर लिया। और "मैं अवश्य ही संयम धारण करूंगा" ऐसे आपके भायी संस्कार जगमगाने लगे। यह ही नहीं किन्तु आपने संयमी होने का दृढ अभिप्रह ही धार लिया। भावी वलवती है-इसी अवसर में आपको प्रिय प्रिया का आपसे सदा के लिये ही वियोग हो गया। यद्यपि आपके सम्बन्धियों ने द्वितीय विवाह करने के लिये अति आग्रह किया तथापि भिक्ष के सदय हृदय ने अ. सार संसार त्यागने का और संयम ग्रहण करने का दृढ संकल्प ही करलिया। भिक्षु दीक्षा के लिये पूर्ण उद्यत हो गये परन्तु माताजी की अनुमति नहीं मिली । जवरघुनाथजीन भिक्षु की माता से दीक्षा देने के विषय में परामर्स किया तो माताजीने रघुनाथजी से उस * सिंह स्वप्न का विवरण कह सुनाया जो कि भिक्षु की गर्भावस्थिति में देखा था । और कहा कि इस स्वप्न के अनुसार मेरा पुत्र किसी राज्य विशेष - का अधिकारी होना चाहिए मिक्षार्थी वनने के लिये मैं कैसे आज्ञा दू। रघुनाथजी
सिंहका स्थान मण्डलीक राजा की माता अथवा भावितात्म भनगार की माता देखती है।
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ने इस स्वप्न को सहर्ष स्वीकार किया और कहा कि यह स्वप्न चतुर्दश १४ स्वप्नों के अन्तर्गत है। अतः यह तुम्हारा पुत्र देश देशान्तरों में भ्रमण करता हुआ सिंह समान ही गर्जेगा इसकी दीक्षा होने में विलम्ब मत करो। माता जीका विचार पवित्र हुआ और आत्मज ( भिक्षु ) के आत्मोद्धार के लिये आज्ञा दे दी।
उस समय भगवान् के निर्मल सिद्धान्तों को स्वार्थान्ध पुरुषों ने विगाड़ रक्खाथा । भिक्षु किस के समीप दीक्षा लेते निग्रन्थ गुरु होनेका कोई भी अधिकारी नहीं था । तथापि अप्राप्ति में रघुनाथ जी के ही सभीप भिक्षु द्रव्य दीक्षा लेकर अपने भावि कार्य में प्रवृत्त हुए। यह द्रव्यदीक्षा द्रब्यगुरु रघुनाथ जी से भिक्षु स्वामी ने सम्वत् १८०८ में ग्रहण की। आपको बुद्धि भावितात्म होनेके कारण वाः ही तीव्र थी अतः आपने अनायास ही समस्त सूत्र सिद्धान्तका अध्ययन कर लिया। केवल अध्ययन ही नहीं किया किन्तु सूत्रों के उन २ गम्भीर विषयों को खोज निकाला जिनको कि वेषधारी साधु स्वप्न में भी नहीं समझते थे। और विचारा कि ये सम्प्रदाय जिन में कि मैं भी सम्मिलित हूं पूर्णतया ही जिन आज्ञा पर ध्यान नहीं देते और केवल अपने उदर की ही पूर्ति करने के लिये नाम दीक्षा धारण किये हुए हैं । ये लोक न स्वयं तर सक्त हैं न दूसरों को ही तार सक्त हैं। वना बनाया घर छोड़ दिया है और अव स्थान २ पर स्थानक वनवाते फिरते हैं। भगवान् की मर्यादा के उपरान्त उपधि वस्त्र. पात्र. भादिक अधिकतया रखते हैं। आधा कर्मी आहार भोगते और आज्ञा विना हो दीक्षा देते दीख पड़ते हैं। एवं प्रकार के अनेक अनाचार देख करके भिक्षु का मन सम्प्रदाय से विचलित होने लगा। इसके अनन्तर-इसी अवसर में मेवाड़ के “राजनगर" नामक नगर में पठित महाजनो ने सूत्र सिद्धान्त पर विचार किया और वर्तमान गुरुओंके आचार विचार सूत्र विरुद्ध समझ कर उनकी वन्दना करनी छोड़ दी। मारवाड़ में जब यह वात रघुनाथजी को विदित हुई तो सर्व साधुओंमें परम प्रवीण भिक्षु स्वामी को ही समझकर और उनके साथ टोकरजी. हरनाथजी. बीरभाणजी.
और भारीमालजी. को करके भेजा। राजनगर में यह भिक्षु स्वामीका चौमासा सम्बत् १८१५ में हुआ। चर्चा हुई लोकों ने स्थानकवास. कपाट जड़ना खोलना. आदिक अनेक अनाचारों पर आक्षेप किया और यही कारण वन्दना न करने का बतलाया। भिक्षु खामी ने अपने द्रव्य गुरु रघुनाथजी के पक्ष को रखने के लिये अपनी बुद्धि चातुर्यता से लोगों को समझाया और वन्दना कराई । किन्तु लोगों ने
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( 1 )
यही कहा कि महाराज ! यद्यपि हमारी शङ्काओं का पूर्ण समाधान नहीं हुआ है तथापि हम केवल आपके विलक्षण पाण्डित्य पर ही विश्वास रख कर आपके अनुगामी बनते हैं । इसी अवसर में असातावेदनीय कर्म के योग से भिक्षु स्वामी किसी ज्वर बिशेष से पीड़ित हुए और ऐसी अस्वस्थ व्यवस्था में आपके शुद्ध अध्यवसाय उत्पन्न होने लगे । भिक्षु स्वामी को महान् पश्चात्ताप हुआ और विचारा कि मैंने बहुत बुरा काम किया जो कि द्रव्यगुरु के कहने से श्रावकों के शुद्ध विचार को झूठा कर दिया । यदि मेरी मृत्यु हो जावे तो अन्तिम फल बहुत अनिष्ट होगा । द्रव्यगुरु परलोक में कदापि सहायक न होंगे। यदि मैं आरोग्य हो जाऊंगा तो अवश्य सत्य सिद्धान्त की स्थापना करूंगा। वं आरोग्य होनेपर अपने विचार को पवित्र करते हुए भिक्षु स्वामी ने श्रावकों से स्पष्ट कह दिया कि भ्रातृवरो ! आप लोगों का विचार ठीक है और हमारे द्रव्यगुरु केवल दुराग्रह करते हुए अनाचार सेवन करते हैं। ऐसा भिक्षु मुख से अमूल्य निर्णय सुन कर श्रावक लोक प्रसन्न हुए। और कहने लगे कि महाराज ! जैसी सत्य की आशा आप थी वैसी ही
हुई ।
अथ चतुर्मास समाप्त होने पर राजनगर से विहार किया और मार्ग में छोटे २ ग्राम समझ कर दो साथ कर लिये और भिक्षु स्वामी ने वीरभाणजी से कहा कि यदि आप गुरु के समीप पहिले पहुंचे तो कोई इस विषय की बात नहीं करना नहीं तो गुरु एक साथ भड़क जायेंगे। मैं आकर विनय कला से समझाऊंगा और शुद्ध श्रद्धा धारण करानेका पूरा प्रयत्न करूंगा। वीरभाग जी ही आगे पहुंचे और रघुनाथ जी ने राज नगर के श्राबकों की शङ्का दूर होने के बारे में प्रश्न किया। वीरभाणजी ने वह सव वृतान्त कह सुनाया और कहा कि जो हम आधाकर्मी आहार स्थानकवास आदि अनाचार का सेवन करते हैं वह अशुद्ध ही है और श्रावकों की शङ्काएं सत्य ही थीं। रघुनाथजी बोले कि वीरभाण ! ऐसी क्या विपरीत बातें कहते हो तब वीरभाणजी ने कहा कि महाराज ! यह तो केवल बानगी ही है पूरा वर्णन तो भिक्षु स्वामी के पास है । इसी अन्तर में भिक्षु स्वामी का आगमन हुआ और गुरु को वन्दना की । गुरु की दृष्टि से ही भिक्ष समझ गये कि वीरभाणजी ने आगे से ही बात कर दी है। गुरु का पहिला सा भाव न देखकर भिक्षु ने गुरु से कहा, गुरुजी ! क्या बात है आपकी पहले सो कृपा दृष्टि नहीं विदित होती है।
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(1)
I
रघुनाथजी बोले कि भाई ! तुम्हारी बातें सुन कर हमारा मन फट गया है और अब हम तुम्हारे आहार पानीको सम्मिलित नहीं रखना चाहते। यह सुन कर भिक्षु ने मन में विचारा कि वास्तव में तो इनमें साधुपने का कोई आचार विचार नहीं है तथापि इस समय बेंचातान करनी ठीक नहीं है पुनः इनको समझा लूंगा । यह विचार कर गुरु कहा कि गुरुजी ! यदि आप को कोई सन्देह हो तो प्रायचित्त दे दीजिये । इस युक्ति से आहार पानी सम्मिलित कर लिया। समय पाकर रघुनाथजी को बहुत समझाया और शुद्ध श्रद्धा धराने का पूरा प्रयत्न किया और यह भी कहा कि अब का चतुर्मास साथ २ ही होना चाहिये जिससे चर्चा की जावे और सत्य श्रद्धा की धारणा हो । क्योंकि हमने घर केवल आत्मोद्धार के लिये ही छोड़ा है। रघुनाथजीने यह कहकर कि "तू और साधुओं को भी फटालेगा" चौमासा साथ २ नहीं किया । एवं पुनः द्वितीयवार भिक्षु स्वामी रघुनाथजी से वगड़ी नामक नगर में मिले और आचार विचार शुद्ध करने के वारे में बहुत समझाया । परन्तु द्रव्य गुरु ने एक वात भी नहीं मानी तव भिक्षु स्वामीने यह विचार कर कि अब ये विलकुल नहीं समझते हैं और केवल दम्भजाल में ही फंसे रहेंगे अपना आहार पृथक् कर लिया । और प्रातःकाल के समय स्थानक से बाहर निकल पड़े । रघुनाथ जी ने यह समझ कर के कि “जब भिक्षु को नगर में स्थान ही नहीं मिलेगा तो विवश हो कर स्थानक में ही आजावेगा " सेवक द्वारा नगरवासियों को सङ्घ की शपथ देकर सूचना दे दी कि कोई भी भिक्षु के ठहरने के लिये स्थान नहीं देना । । भिक्षु ने जब यह सब प्रपञ्च सुना तो मन में विचारा कि नगर में स्थान न मिलने पर यदि मैं पुनः स्थानक ही में गया तो फिर फन्दे में ही पड़ जाऊंगा । एवं अपने मन में निर्णय कर विहार किया और वगड़ी नगर के बाहर जैतसिंहजी की छत्रियों में स्थित हो गये । जब यह बात नगर में फैली और रघुनाथजी ने भी सुना कि भिक्षु स्वामी छत्रियों में ठहरे हुए हैं तो बहुत से मनुष्यों को साथ लेकर छत्रियों में गये. और भिक्षु स्वामी को टोला से बाहर न निकलने के लिये बहुत समझाया । परन्तु
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भिक्षु स्वामी ने एक भी नहीं सुनी और कहा कि मैं आपकी सूत्र विरुद्ध वातों को कैसे मान सक्ता हूं। मैं तो भगवान् की आज्ञानुसार शुद्ध संयम का ही पालन करूगा । ऐसी भिक्षु की बातें सुन कर रघुनाथजो की आशा टूट गई और मोहक वश होकर अश्रुधारा भी बहाने लगे । उदद्यभाणजी नामक साधु ने कहा कि आप टोला के धनी होकर के भी मोह में अवलिप्त हुए अश्रु बहाते हैं । तब रघुनाथजी
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बोले कि भाई ! किसी का एक मनुष्य भी जावे तो भी वह अत्यन्त विलाप करता है मेरे तो पांच एक साथ जाते हैं और टोला म खलबली मचती है मैं कैसे न विलाप करू । ऐसा द्रव्यगुरु का मोह देखकर भिक्षु स्वामी का मन किञ्चिदपि विचलित नहीं हुआ और विचारा कि इसी तरह जव मैं घर से निकला था तव मेरी माता भी रोई थी। इन वेषधारियों में रहने से तो पर भव में अतीव दुःख उठाना पड़ेगा। अन्त्य में रघुनाथजी ने भिक्षु स्वामी से कहा कि तू जावेगा कहाँतक तेरे पीछे२ मनुष्य लगा दूंगा। और मैं भी पीछे २ ही विहार करूंगा। इत्यादिक भयावह वातोंपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और भिक्षु ने वगड़ी से विहार किया। द्रव्यगुरु को अपने पीछे २ ही आता देखकर के “वरल” नामक ग्राम में चर्चा की। आदि में रघुनाथजी ने कहा कि भिक्षो ! आजकल पूरा साधुपना नहीं पल सक्ता है। यह सुनकर भिक्षने कहा कि-आचारांग सूत्र में कहा है कि "आजकल साधुपना नहीं पल सक्ता" ऐसी प्ररूपणा भागल साधु करेंगे इत्यादिक वातें भगवान ने कई सलोपर पहिले से ही कह दी हैं। ऐसा उत्तर सुनकर द्रव्यगुरु को उस समय अत्यन्त कष्ट हुआ और बोले कि यदि कोई दो घड़ी भी शुभ ध्यान धर कर शुद्ध ओचार पाल लेगा वह केवल ज्ञान को प्राप्त कर सक्ता है। यह सुनकर भिक्षु ने कहा कि यदि दो घड़ी में ही केवलज्ञान मिले तो मैं श्वास रोक कर के भी दो घड़ी ध्यान धर सक्ता हूं। परन्तु ये वात नहीं यदि दो घड़ी में ही केवलज्ञान मिल सक्ता तो क्या प्रभव आदिक ने दो घड़ी भी शुद्ध चारित्र नही पाला था किन्तु उनको तो केवलज्ञान नहीं हुआ।वीर भगवान्के १४ सहस्र शिष्यों में से केवलज्ञानी तो केवल ७ सौ ही हुए क्या शेष १३ सहस्र ३ सौ ने २घड़ी भी शुद्ध संयम नहीं पाला जो कि छद्भस्थ ही रहे आये । और १२ वर्ष १३ पक्ष तक वीर भगवान् छद्भस्थ अवस्था में रहे तो क्या उस अवसर में वीर ने दो घड़ी भी शुद्ध संयम की पालना नहीं की। इत्यादिक अनेक सत्य प्रमाणों से भिक्षु ने रघुनाथजी को निरुत्तर करते हुए बहुत समय पर्य्यन्त चर्चा की। तथापि दुराग्रह के कारण रघुनाथजी ने शुद्ध पथ का अवलम्बन नहीं किया। इसके अनन्तर किसी वाईस टोला के विभाग के पूज्य जयमलजी नामक साधु भिक्षु स्वामी से मिले। भिक्षु ने प्रमाणित युक्तियों से जयमलजी के हृदय में शुद्ध श्रद्धा वैठाल दी और जयमलजी भिक्ष के साथ जाने को तयार भी हो गये। अव यह वात रघुनाथजी ने सुनी कि जयमलजी भिक्ष के अनुयायी होना चाहते हैं तव जयमलजी से कहा कि जयमलजी ! आप एक टोला के धनी होकर यह क्या
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काम करते हैं। आप यदि भिक्षु के साथ हो जायेंगे तो इसमें आपका कुछ भी नाम नहीं होवेगा केवल भिक्षु का ही सम्प्रदाय कहा जावेगा। इत्यादिक अनेक कुयुक्तियों से रघुनाथजी ने जयमलजी का परिणाम ढीला कर दिया। अथ जयमलजी ने भिक्षु से कह भी दिया कि भिक्षु स्वामिन् ! आप शुद्ध संयम पालिए हम तो गले तक दवे हुए हैं हमारा तो उद्धार होना असम्भवसा ही है।
इस अवसर के पश्चात् भिक्षु ने भारीमालजी से कहा कि भारीमाल ! तेरा पिता कृष्णजी तो शुद्ध संयम पालने में असमर्थ सा प्रतीत होता है अतः उसका निर्वाह हमारे साथ नहीं हो सका। तू हमारे साथ रहेगा अथवा अपने पिता का सहगामी वनेगा। ऐसा सुनकर विनीत भाव से भारीमालजी ने उत्तर दिया कि महाराज ! मैं तो आपके चरण कमलों में निवास करता हुआ शुद्ध चारित्र्य पालूंगा मुझको अपने पिता से क्या काम है। ऐसा सुन्दर उत्तर सुनकर भिक्षु प्रसन्न हुए पश्चात् भिक्ष ने कृष्णजीसे कहा कि आपका हमारे सम्प्रदाय में कुछ भी काम नहीं है। यह सुनकर कृष्णजी भिक्षु से बोले कि यदि आप मुझ को नहीं रक्खेंगें तो मैं अपने पुत्र भारीमालको आपके पास नहीं छोडूंगा अतः आप भारीमाल को मुझे सोंप दीजिए। यह सुनकर भिक्षु स्वामी ने कृष्णजी से कहा कि यदि तुम्हारे साथ भारीमाल जावे तो लेजावो मैं कव रोकता हूं। कृष्णजी ने एकान्तमें लेजा कर अपने साथ चलने के लिये भारीमालजी को बहुत सयझाया साथ जाना तो दूर रहा किन्तु अपने पिता के हाथ का यावज्जीव पर्यन्त भारीमालजीने आहार करनेका त्याग और कर दिया। तत्प. श्चात् विवश होकर कृष्णजी ने भिक्षु से कहा कि महाराज ! अपने शिष्य को लीजिए यह तो मेरे साथ चलने को तयार नहीं है कृपया मेरा भी कहीं ठिकानालगा दीजिए। भथ भिक्षु ने कृष्णजी को जयमलजी के टोले में पहुचा कर तीन स्थानों पर हर्ष कर दिया । जयमलजी तो प्रसन्न हुए कि हमको चेला मिला कृष्णजीसमझे कि हम को ठिकाना मिला भिक्षु समझे कि हमारा उपद्रव गया। इसके पश्चात् भिक्षु ने भारीमालजी आदि साधुओं को साथ ले कर विहार किया और जोधपुर नगर में आ विराजमान हुए। जव दीवान फतहचन्दजी सिंघीने वाज़ार में श्रावकों को पोषा करते देखा तव प्रश्न किया कि आज स्थानक में पोषा क्यों नहीं करते हो। तव श्राव कों ने वह सव कथा कह सुनायी जिस कारण से कि भिक्षु स्वामी रघुनाथजी के टोले से पृथक् हुए और स्थानक वास आदिक विविध अनाचारों को छोड़ कर शुद्ध श्रद्धा धारण की। सिंघोजी बहुत प्रसन्न हुए और भिक्षुके सदाचारकी बहुत प्रशंसा
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( ६ ) की। उस समय १३ ही श्रावक पोषा कर रहे थे और १३ ही साधु थे अतः भिक्षु के सम्प्रदाय का "तेरापन्थ" नाम पड़ गया। अथवा भिक्षु ने भगवान् से यह प्रार्थना की कि प्रभो! यह तेरा ही पन्थ है अतः "तेरापन्थ" नाम पड़ा । वास्तव में तो १३ बोल अर्थात् ५ सुमति ३ गुप्ति ५ महाव्रत पालने से ही "तेरापन्थ" नाम पड़ा। इसके अनन्तर भिक्षु ने मेवाड़ देशस्थ "केलवा” नगर में संम्वत् १८१७ में आषाढ शुक्ला १५ के दिन भगवान अरिहन्त का स्मरण कर भावदीक्षा ग्रहण की।और अन्य साधुओंको भी दीक्षा देकर शुद्ध पथ में प्रवाया । वेषधारियों की अधिकता होने से उस समय में भिक्षु को सत्य धर्मके प्रचार में यद्यपि अधिक परिश्रम सहना पड़ा तथापि निर्भीक सिंह के समान गर्जते हुए भिक्षु ने मिथ्यात्वका विनाश करके शुद्ध श्रद्धा की स्थापना की। एवं श्रीभिक्षु शुद्ध जिन धर्मका प्रचार करते हुए विक्रम सम्वत् १८६० भाद्र शुक्ला १३ के दिन सप्त प्रहर का संन्थारा करके स्वर्ग पन्था के पथिक वने।
यह "भिक्षु जीवनी" ग्रन्थ वढ़ जाने के भयसे संक्षिप्त शब्दों से ही लिखी गई है पूर्ण विस्तार श्री जयाचार्य कृत भिक्षजसरसायन में ही मिलेगा। कई धूर्त पुरुषों ने ईर्षा के कारण जो "भिक्षु जीवनी" मन मानी लिखमारी है वह सर्वथा विरुद्ध समझनी चाहिये।
अथ श्री भिक्षुके अनन्तर द्वितीय पट्ट पर पूज्य श्री भारीमालजी विराजमान हुए आप साक्षात् शान्ति के ही मूर्ति थे। आपका अवतार मेवाड़ देशके "महों" नामक ग्राम में सम्वत् १८०३ में हुआ था। आपके पिताका नाम "कृष्ण" जी और माता का नाम "धारणी" जी था । आप ओश वंशस्थ "लोढा" जातीय थे। आपका वर्ग वास सम्वत् १८७८ माघ कृष्ण ८ को हुआ।
पूज्य श्रीभारीमालजी के अनन्तर तृतीय पट्टपर श्री ऋषिरायजी महाराज (रायचन्द्रजी) विराजमान हुए। आपका शुभ जन्म सम्वत् १८४७ में मेवाड़ देशके "वड़ी रावत्यां" नामक ग्राम में हुआ था । आपकी ओशवंशस्थ "बंद" नामक जाति थी आपके पिता का नाम चतुरजी और माता का नाम कुसालांजी था आप सम्प्रदाय के कार्य की वृद्धि करते हुए सम्वत् १६०८ माघ कृष्ण १४ के दिन स्वर्ग स्थलको पधारे।
श्रीऋषिरायजी महाराज के अनन्तर चतुर्थ पट्ट पर इस ग्रन्थ के रचयिता श्रीजयाचार्यजी (जीतमलजी) महाराज विराज मान हुए। आपको कविता करने का
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अद्वितीय अभ्यास था। आपने अपने नवीन रचित ग्रन्थों से जैसी जिन धर्म की महिमा वढ़ाई है उसका वर्णन नहीं हो सक्ता । आपकाशुभ जन्म मारवाड़ में “रोयट" नामक ग्राम में ओशवंशस्थ गोलछा जाति में सम्बत् १८६० आश्विन शुक्ला २ के दिन हुआ था। आपके पिता का नाम आईदानजी और माता का नाम कलुजी था। आपने कल्प कल्पान्तरों के लिये "श्रीभगवती की जोड़" आदि अनेक रचना द्वारा भूमिपर अपना यश छोड़ कर सम्वत् १९३८ भाद्रपद कृष्ण १२ के दिन स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया।
पूज्य श्रीजयाचार्य के अनन्तर पञ्चम पट्ट पर थी मघवा गणी (मघराजजी) सुशोभित हुए। आपकी शान्ति मूर्ति और ब्रह्मचर्यका तेज देख कर कवियों ने आपको मघवा ( इन्द्र ) की ही उपमा दी है। आप व्याकरण काव्य कोषादि शास्त्रों में प्रखर विद्वान थे । आपका शुभ जन्म बीकानेर राज्यान्तर्गत बीदासर नामक नगर में ओशवंशस्थ वेगवानी नामक जाति में संम्वत् १८६७ चैत्र शुक्ला ११ के दिन हुआ। आपके पिताका नाम पूरणमलजी और माता का नाम वन्नाजी था। आप आनन्द पूर्वक जिन मार्गकी उन्नति करते हुए सम्बत् १९४६ चैत्र कृष्ण ५ के दिन स्वर्ग के लिए प्रस्थित हुए।
पूज्य श्रीमघवा गणी के अनन्तर छठे पट्ट पर श्रीमाणिकचन्द्रजी महाराज विराजमान हुए । आपका शुभ जन्म जयपुर नामक प्रसिद्ध नगर में संवत् १९१२ भाद्र कृष्ण ४ के दिन ओशवंशस्थ खारड श्रीमाल नामक जाति में हुआ। आपके पिता का नाम हुकुमचन्द्रजी और माता का नाम छोटांजी था। आप थोड़े ही समय में समाजको अपने दिव्य गुणों से विकाशित करते हुए संवत् १९५४ कार्तिक कृष्ण ३ के दिन स्वर्ग वासी हुए।
पूज्य श्रीमाणिक गणी के अनन्तर सप्तम पट्टपर श्री डालगणी महाराज विराजमान हुए आपका शुभ जन्म मालवा देशस्थ उज्जयिनी नगर में ओशवंशस्थ पीपाड़ा नामक जाति में संवत् १६०६ आषाढ़ शुक्ला ४ के दिन हुआ। आपके पिता का नाम कनीराजी और माता का नाम जडावांजी था जिनलोगोंने आपका दर्शन किया है वे समझते ही हैं कि आपका मुख मण्डल ब्रह्मचर्यके तेज के कारण मृगराज मुख सम जगमगाता था। आप जिनमार्ग की पर्ण उन्नति करते हुए संवत् १९६६ भाद्र पद शुक्ला १२ के दिन स्वर्ग को पधार गये।
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पूज्य श्रीडाल गणीके अनन्तर अष्टम पट्ट पर वर्तमान समय में श्रीकालूगणी महाराज विराजते हैं। जिन मनुष्यों ने आपका दर्शन किया होगा वे अवश्य ही निष्पक्ष रूप से कहेंगे कि आपके समान बालब्रह्मचारी तेजस्वी और शान्ति मूर्ति इस समय में और दूसरा कोई नहीं है। आपकी मूर्ति मङ्गल मयी है अतः आपने जिस समय से शासन का भार उठाया है तभी से इस समाजकी दिन प्रति दिन उन्नति ही हो रही है। आपके अपूर्व पुण्य पुञ्ज को देख कर अनेक नर नारी "महाराज तारोमहाराज तारो" इत्यादि असङ्ख्य कारुण्य शब्दों से दीक्षा ग्रहण करने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं तथापि आप उनकी विनय. क्षमा. पूर्ण वैराग्य. कुलीनता. आदि गुणों की जव तक भले प्रकार परीक्षा नहीं कर लेते हैं दीक्षा नहीं देते। आपकी सेवा में सर्वदा ही नाना देशों से आये हुए अनेक उच्च कोटि के मनष्य उपस्थित रहते हैं । और आपके व्याख्यानामृत का पान करके कृत कृत्य हो जाते हैं। आपने समस्त जिनागम का भले प्रकार अध्ययन किया है यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि यदि ऐसा गुण वाला साधु चौथे आरे में होता तो अवश्य ही केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता। आप संस्कृत व्याकरण काव्य कोष आदिक विविध विषयों में पूर्ण विद्वान् हैं। और व्याकरण में तो विशेष करके आपका ऐसा पूर्ण अनुभव हो गया है कि जैन व्याकरण और पाणिनि आदि व्याकरणों की समय २ पर आप विशेष समालोचना किया करते हैं। कई संस्कृत के कवीश्वर और पूर्ण विद्वान् आपकी बुद्धि विलक्षणता को देखकर आपकी कीर्ति ध्वजा को फहराते हैं । और दर्शन करके अतिशः कृतार्थ होते हैं । यह ही नहीं आपनें वैष्णव धर्मावलम्बी गीता आदि ग्रन्थों का भी अवलोकन किया हुआ है। और अन्य सम्प्रदायकी भी भली बातों को आप सहर्ष स्वीकार करते हैं। आप अपने शिष्य साधुओंको संस्कृत भी भले प्रकार पढ़ाते हैं । आपके कई साधु विद्वान् और संस्कृत के कवि हो गये हैं। आपके शासन में विद्या की अतीव उन्नति हुई है । आपका ऐसा क्षण मात्र भी समय नहीं जाता जिसमें कि विद्या संबन्धी कोई विषय न चलता हो।
आपकी पञ्च महाबत दृढता की प्रशंसा सुनकर जैन शास्त्रोंका धुरन्धर विज्ञाता जर्मन देश निवासी डाकर हर्मन जैकोबी आपके दर्शनार्थ लाडणं नामक नगर में आया और आपसे संस्कृत भाषा में वार्तालाप किया आपके मुखारविन्द से जिनोक्त सूत्रों के उन गम्भीर विषयों को सुनकर जिनमें कि उसको भ्रम था अति प्रसन्न हुआ ! और कहने लगा कि महागज ! मैने आचाराङ्ग के अंग्रेजी
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अनुवाद में किसी यति निर्मित संस्कृत टीका की छाया कर जो मांस विधान लिख दिया है उसका खण्डन कर दूंगा । आपके सत्य अर्थ को सुनकर डाकर हर्मन का आत्मा प्रसन्न हो गया । और वह कई दिन तक आपकी सेवाकर अपने यथा स्थान को चला गया ।
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लेजिस्लेटिव कोंनसिल के सभासद और मुजप्फर नगर के रईस लाला सुखबीरसिंहजी भी आपके दर्शन दो बार कर चुके हैं और आपकी प्रशंसा में आपने कई लेख भी लिखे हैं । जो कोई भी योग्य विद्वान् और कुलीन पुरुष आपके दर्शन करते हैं समझ जाते हैं कि आपके समान सच्चा त्याग मूर्त्ति आजकल और कोई भी शुद्ध साधु नहीं है । आपकी जन्म भूमि बीकानेर राज्यान्तर्गत छापर नामक नगर है | आपका पवित्र जन्म ओशवंश के चौपड़ा कोठारी नामक जाति में श्री मूलचन्द्रजी के गृह में सं० १९३३ फाल्गुण शुक्ला २ के दिन श्री श्री श्री १०८ महासती छोगांजी की पवित्र कुक्षि में हुआ था । आपकी माताजीने भी आपके साथ ही दीक्षा ली थी । उक्त आपकी माताजी अभी बीदासर नगर में विद्यमान हैं जोकि अति बृद्ध हो जाने के कारण विहार करने में असमर्थ हैं।
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" हि कस्तूरिका गन्ध: शपथेनाऽनुभाव्यते” कस्तूरीके सुगन्धित्व सिद्ध करनेमें शपथ खाने की कोई आवश्यकता नहीं है । उसका गन्ध ही उसकी सिद्धि का पर्याप्त प्रमाण है । यद्यपि श्री भिक्षुगणी से लेके श्रीकालू गणी तक का समय और उसका जाज्वल्यमान तेज स्वतः ही तेरापन्थ समाज के धर्माचार्यों को क्रमानुक्रम भगवान् का पदाधिकारी होना सिद्ध कर रहा है । तथापि उसकी सिद्धि की पुष्टि में शास्त्रोंका भी प्रमाण दिया जाता है । पाठक गण पक्षपात रहित हृदयसे इसका विचार करें।
भगवान् श्रीमहावीरजी स्वामीके मुक्ति पधारनेके पश्चात् १००० वर्ष पर्यन्त पूर्वका ज्ञान रहा । ऐसा “भगवती श० २० उ० ८” में कहा है ।
तत्पश्चात् २००० वर्ष के भस्मग्रह उतरनेके उपरान्त श्रमण निर्ग्रन्थ की उदय २ पूजा होगी। ऐसा “कल्प सूत्र” में कहा है ।
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सारांश यह है कि - भगवान् के पश्चात् २६१ वर्ष पर्यन्त शुद्ध प्ररूपणा रही । और पश्चात् १६६६ वर्ष पर्यन्त अशुद्ध वाहुल्य प्ररूपणा रही । अर्थात् दोनोंको मिलाने से १६६० बर्ष हुआ ! उस समय धूमकेतु ग्रह ३३३ वर्षके लिये लगा । विक्रम सम्बत् १५३१ में "लंका" मुंहता प्रकट हुआ । २००० वर्ष पूर्ण हो जाने से
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भस्म ग्रह उतर गया। इसका मिलान इस प्रकार कीजिये कि ४७० बर्ष पर्यन्त नन्दी वर्द्धनका शाका और १५३० बर्ष पर्यन्त विक्रम सम्बत् एवं दोनोंको मिलानेसे २००० बर्ष हो गए। उस समय भस्म ग्रह उतर जानेसे और धूम केतुके बाल्यावस्थाके कारण बल प्रकट न होनेसे ही "लूका" मुहता प्रकट हो गया और शुद्ध प्ररूपणा होने लगी। तत्पश्चात् क्रमानुक्रम धूम केतुके बलकी वृद्धि होनेसे शुद्ध प्ररूपणा शिथिल हो गई । जव धूमकेतुका बल क्षीण होने पर आया तब सम्बत् १८१७ में श्री भिक्षगणीका अबतार हुआ और शुद्ध प्ररूपणाका पुनः श्रीगणेश हुआ। परन्तु धमकेतुके बिलकुल न उतरनेसे जिन मार्ग की विशेष बृद्धि नहीं हुई। पश्चात् सम्बत् १८५३ में धूमकेतु प्रहके उतर जानेके कारण श्रीस्वामी हेमराजजी की दीक्षा होने के अनन्तर क्रमानुक्रम जिन मार्गकी वृद्धि होने लगी।
___अस्तु आज कल जैसे कि साधुओं का सङ्गठन और एक ही गुरु की माशा में सञ्चलन आदिक तेरापन्थ समाज में है स्पष्ट वक्ता अवश्य कह देंगे कि वैसा अन्यत्र नहीं । आज कल पूज्य कालू गणी की छत्रछाया में रहते हुए लगभग १०४ साधु और २४३ साध्वीयां शुद्ध चारित्र्य पाल रहे हैं । इस समाज का उद्देश्य वेष बढ़ाना नहीं किन्तु निष्कलङ्क साधुता का ही बढ़ाना है। यदि साधु समाज के समस्त आचार विचार वर्णन किये जावे तो एक इतनी ही बड़ी पुस्तक और बन जावेगी। हम पहिले भी लिख आये हैं कि इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में आयुवेदाचार्य पं० रघुनन्दनजी ने विशेष सहायता की है अतः उनकी कृतज्ञता के रूप में हम इस पुस्तक के छपाने में निजी व्यय करते हुए भी पुस्तकों की समस्त रक्खे हुए मूल्य की आय को उनके लिये समर्पण करते हैं । यद्यपि “भिक्षु जीवनी” लिखी जा चुकी है तथापि वही विद्वजनों के अनुमोदनार्थ संस्कृत कविता में परिणत की जाती है। परन्तु समस्त कथा का क्रम ग्रन्थ की वृद्धि के भय से नहीं लिया जाता है। किन्तु संक्षेपातिसंक्षेप भाव का ही आश्रय लेकर साहित्य का अनुशीलन किया गया है। प्रेमिजन अवगुणों को छोड़कर गुणों पर ध्यान दें।
नाना काव्य रसाधारां भारतीन्ता मुपास्महे द्विपदोऽपि कविर्यस्याः पादाब्जे षट्पदायते ॥१॥
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कूप भेकायितः क्वाहं क भिक्षूणां यशोनिधिः तथापि मम मात्सर्य्य विदुरै नै विलोक्यताम् ॥२॥
अभक्तो भक्ततां याति यस्य भक्ति मुपाश्रयन् अकविर्न कविः किंस्यां तत्कीर्ति कवयन्नहम् ॥३॥
नाम्ना 'कण्टालिया” ग्रामः कश्चिदस्ति मरुस्थले भिक्षु भानूदयाद्धेतो यो वाच्य उदयाचलः ॥४॥
"वल्लुजी'' त्यभिधस्तत्र साहोपाधि विभूषितः “सुक्खलेचा" विशेषायाम् अोश जाता वुपाजनि ॥५॥ "दीपांदे'' नामिका तेन पय॑णायि प्रिया प्रिया यत्कुक्षि कुहर स्थायी मृगेन्द्रो गर्जनांगतः॥६॥
अन्ध ध्वान्त विनाशाय विकाशाय जिनोदितेः धर्म संस्थापनार्थाय प्रेरितः पूर्व कर्मणा ॥७॥
तस्यां सत्व गुणो जीवः कोऽपि गर्भ मिषं वहन् भावि संस्कार संयोगा दिवि देव इवाऽविशत् ॥८॥
एकदाऽथ शयाना सा सिंह स्वप्न मवैक्षत पुष्पोपमं फलस्यादौ शोभनं शास्त्र सम्मतम् ॥६॥
एतमालोकते माता मण्डलीकस्य भूपतेः अनागारस्य वा माता भावितात्मस्य पश्यति ॥१०॥
त्रयष्टसप्तैबर्षस्थे आषाढस्य सिते दले ततः सर्वत्र संसिद्धां सर्व सिद्धां त्रयोदशीम् ॥११॥
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लक्षीकृत्य लषत्कुक्षि भविधर्मोपदेशकम्
तेजःपुञ्जमिव प्राची
वंशाकाशे चकाशेऽथ
शुक्ल पक्ष द्वितीयास्थः
गद्गदै र्वचनै रेष लालितो ललनांकेषु
असारेऽपि च संसारे सार धर्म मवैहिष्ट
भावेन सुसाधूनां
धर्म्म मन्वेषयामास
अनाथं जिन सिद्धान्ते
टोलाऽऽव जनता नाथं
बाल रत्न मजीजनत् ॥१२॥
-गृहस्थ रीत्याऽथ विवाहितोऽपि संसार चक्रे न चकार बुद्धिम् नाशीविषाणां विषयेऽपि जातो न लिप्यते स्वच्छ मणि र्विषेण ||१६||
वन्धोऽपि निर्गुणः कापि
निर्विषोSपि फणी मान्यः
एतस्मिन्नन्तरे भिक्षो
भावि संयोगतो लेभे
बर्द्धमानः शनैः शनैः
शशीव शरदः शिशुः || १३ ||
चकर्ष पथिकानपि
वालको ललितालकः || १४ ||
भिक्षु नाम्नाऽवनामित:
क्षार सिन्धा विवामृतम् ||१५|
केवलं वेषधारिषु
पल्वल्वेष्विव हीरकम् ||१७||
सनाथं वेष धारगो
रघुनाथ मथो ययौ ॥ १८ ॥
बहिराडम्वरायितः
फणाsscोपैर्हि केवलैः ॥ १६ ॥
दक्षा भिक्षार्थिन स्ततः
वियोगं सहयोगिनी ॥२०॥
रघुनाथ समीपेऽयं
दीक्षितो द्रव्य दीदाया
कचिसँगै र्मरन्दार्थ रोहीतोऽपि निषेव्यते ॥ २१॥
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अधीत्य सूत्रान् सु विचिन्त्य भावान् विलोक्य दोषांश्च बहून् समाजे कुशाग्रबुद्धे विचचाल चित्तं "न किंशुकेषु भ्रमरा रमन्ते" ॥२२॥
श्रावका “राजनगरे” तस्मिन्नवसरे ततः सूत्र सिद्धान्त मालोक्य नावन्दन्त गुरू निमान् ॥२३॥
तच्छावकाणा मुपदेशनाय सुबीरभाणादि जनेन साकम् दक्षं गुरुं प्रेषयतिस्म भिन्तुं विचार्य हंसेष्विव राजहंसम् ॥२४॥
ततो जनै स्तैः सह युक्तिवादं विधाय भित्तु गुरुपक्षपाती सन्देह सत्तामपि तान्दधानान् चकार सर्बान् निज पाद नम्रान् ॥२५॥
अथोऽवदन्मुनिजनः नहि भ्रमोज्झितं मनः तथापि ते विचित्रताः प्रकुर्वते पवित्रताः ॥२६॥
तदैव भिक्षावे ज्वरः चुकोप कोऽपि गह्वरः तदति पीडिते सति स्थिता शुभा मुने मतिः ॥२७॥
मनस्य चिन्तयत्स्वयं मृषाऽवदाम हा वयम् इमे जनाःसदाशया विरोधिता बृथा मया ॥२८॥
स्फुट त्यदः क्षणा दुरो विलोकयन् छलं गुरोः अरोगता महं यदा भजे, ब्रुवे स्फुटं तदा ॥२६॥
गुरु विरुद्ध गायकः परत्र नो सहायकः इति स्फुटं विचारयन् जगाद न्दन् निशामयन् ॥३०॥
अहो जना भवन्मतं जिनोक्त शास्त्र सम्मतम् असत्य माश्रिता वयं विदन्तु सत्य निर्णयम् ॥३१॥
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(
मुने रिमां परां गिरं
निपत्थ पादयो स्तदा
हो मुनीश ! तावकं
वयं प्रसन्नतां गता:
१ )
निशम्य ते जना श्चिरम् बभाषिरे प्रियम्वदाः ॥३२॥
विलोक्य शुद्ध भावकम्
वयैव कुप्रथा हता ॥३३॥
ततः समागत्य तदीय वृत्तं गुरुं बभाषे सकलं सशान्ति :
परन्तु स स्वार्थ विलिप्त चेता गुरु विरुद्धं कथयाम्बभूव ||३४||
न पाल्यते सम्प्रति शुद्ध भावः केनापि कुत्रापि मुनीश्वरेण
भिक्षो ! रतस्त्वं किल काल मेतं वेदय तूष्णीं भव दूषणेषु ||३५||
यः पालये त्कोऽपि घटी द्वयेऽपि शुद्धं च
यदि साधु वर्य्य: स केवलज्ञान मुपैतु तर्हि त्वं तेन तूष्णीं भव दूषणेषु || ३६ || कर्यसूलैर्विपरीत मेतत् भिक्षु गुरुन्तं विशदं जगाद
गुरो नेति कुहापि दृष्टं शास्त्रान्तरे पद्मवताऽभ्यवादि ३७
एतत्तु सूत्रेषु मयाव्यलोकि एवं वचो वक्ष्यति वेषधारी
"न पाल्यते सम्प्रति शुद्ध भाव: केनापि कुत्रापि मुनीश्वरेण” ३८ स्यात् केवलत्वं घटिका द्वयेन यदा तदाहं श्वसनं निरुद्वय
अपि दाम : पालयितुं चरित्रं "परन्तु सूत्रे विहितं नही ३६
वीरस्य पार्श्वेपि पुरा मुनीद्रा गृहीतवन्तो बहवः सुदीक्षाम्
केवलं सकला नैषुः नाऽपालि किन्तै र्घटिका द्वयेऽपि ४०
गुरो ! विमुच्येति वृथा प्रपञ्चं श्रद्धां सुशुद्धां तरसा गृहीष्व
न शोभन: स्थानकवास एष न्त्यक्तं स्वकीयं गृहमेव यहि ४१
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ज्ञात्वापि शुद्धां मुनि भिन्तु वाणी तत्याज नैजं न दुराग्रहं सः ।
- भिक्षु स्तदैतं कुगुरुं विहाय यथोचितायां विजहार भूमौ ४२
स्वतः प्रवृत्तां शुभ भाव दीक्षां बीरं गुरुं चेतसि मन्यमानः
गृहीतवान् सूत्र विशिष्ट धन्में प्रवर्त्तयामास तथान्य साधून् ४३
विपक्ष रत्र संक्षेपे नाक्षेपः क्षिप्यतां क्षणं एतं रघुः समुद्रं किं घटे पूरयितुं क्षमः ४४
जपतु जपतु लोकः-श्रील वीर विशोकः भवतु भवतु भिक्षु:-कीर्तिमान् सर्ब दिनु ।
जयतु जयतु कालु:-कान्तिः कान्तः कृपालुः मिलतु मिलतु योग:-सन्मुनीना मरोगः ४५
प्रूफ संशोधकःअलीगढ़ सुनामयीस्थ, श्राशुकविरत्न
पं० रघुनन्दन आयुर्वेदाचार्य। अस्तु-तेरापन्थ समाजस्थ साधुओं के संक्षेपतया आचार विचार पढ़ कर पाठकों को यह भ्रम अवश्य हुआ होगा कि जब साधु अपनी पुस्तक छपाने को अथवा नकल करने को किसी को नहीं देते तो यह इतनी बड़ी पुस्तक कैसे छपी।
पाठकों ! पहिला छपा हुआ "भ्रमविध्वंसन" तो इस द्वितीय वार छपे हुए "भ्रमविध्वंसन" का आधार है। पहिली वार कैसे छपा इसकी कथा सुनिये।
एक कच्छ देशस्थ बेला ग्राम निवासी मूलचन्द्र कोलम्बी तेरापन्थी श्रावक था। साधुओं में उसकी अतुल भक्ति थी। और तपस्या करने में भी सामर्थ्यवान् था। साधुओं की सेवा भक्ति साधुओं के स्थान में आ आ कर यथा समय किया करता था। एक समय साधुओं के पास इस "भ्रम विध्वंसन" की प्रति को देखकर उसका मन ललचा आया और इस प्रन्थ की छपाने की उसने पूरी ही मन में ठान ली।
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( ११- > समय पाकर किसी साधु के पूठे में रक्खी हुई भ्रम विध्वंसन की प्रति को रात में चुरा ले गया और जैसे तैसे छपा डाला । पाठकों को यह भी ज्ञात होना चाहिये । कि वह भ्रम विध्वंसन जिसको कि वह चुरा ले गया था खरड़ा मात्र ही था कहीं कटी हुई पंक्तियां थीं कहीं पृष्टों के अङ्क भी क्रम पूर्वक नहीं थे। कहीं बीच का पाठ पत्त्रों के किनारों पर लिखा हुआ था । अतः उसने वह छपाया तो सही परन्तु अण्डवण्ड छपा डाला कई बोल आगे पीछे कर दिये कहीं किनारों पर लिखा हुआ छपाना ही छोड़ दिया । इतने पर भी फिर प्रूफ नाम मात्र भी नहीं देखा अतः ग्रन्थ एक विरूपता में परिणत हो गया। उस पहिले छपे हुए और इस द्वितीय वार छपे हुए भ्रम विध्वंसन में जहां कहीं जो आपको परिवर्त्तन मालूम होगा वह परिवर्त्तन नहीं है किन्तु जयाचार्य की हस्तलिखित प्रति में से धार धार कर वह ठीक किया हुआ है।
साखों में जो भूलें रह गई हैं उनको शुद्ध करने के लिये शुद्धाशुद्धि पत्र लगा दिया है। सो पाठकों का पुस्तक पढ़ने से पहिले यह कर्त्तव्य होगा कि साखों को शुद्ध कर लें । पाठ में भी नये टाइप के योग से कहीं २ अक्षर रह गये हैं उनको पाठक मूल सूत्रों में देख सकते हैं।
नोट- भूमिका में भगवान् से आदि ले श्री कालूगणी तक की जो पट्ट परम्परा बांधी है उसमें वङ्ग चूलिया का भी प्रमाण समझना चाहिये ।
पाठकों को वस इतना ही सामाजिक दिग्दर्शन करा कर अपनी लेखनी को विश्राम भवन में भेजा जाता है । और आशा की जाती है कि आबाल वृद्ध सब ही इस ग्रन्थ को पढ़कर आशातीत फल को प्राप्त करेंगे । इति शम्
भवदीय
"ईसरचन्द " चौपड़ा ।
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शुद्धाशुद्धि पत्रम् |
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३
१७
आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ६ उ० १ गा० ११ आचाराङ्ग श्रु० २ अ० १५
भगवती श० १४ उ० ७
भगवती श०६ उ० ३१
२३
१५
११
१६
२१
सूयगडाङ्ग श्रु० २ अ० ५ गा० ३३ उत्तराध्ययन अ० १२ गा० १४ भगवती श० ६ उ० ३१
सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० १० गा० ३ सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० २३०१ गा० १
ठाणाङ्ग ठा० ४ उ० ४
ठाणाङ्ग ठा० ३ उ० ३ अन्तगड व० ३ अ० ८ भगवती १५
भगवती श० १८ उ० २
पन्नवणा पद १७ उ० १
पनवणा पद ११
भगवती श० १८ उ०८
आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ६ उ० ४
भगवती श० ७ उ० ६
आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ३ उ० १
सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ०४ उ०१ गा० १
उत्तराध्ययन अ० १५ गा० १६
उत्तराध्ययन अ० १ गा० ३५
सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० २ उ०२ गा० १३
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अनुक्रमणिका ।
मिथ्यात्विक्रियाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ १ से ६ तक। बाल तपस्वी पिण सुपात्रदान. दया. शीलादि करी मोक्ष मार्ग मा देश थकी भाराधक कहा है। पाठ (भग० श० ८ उ० १०)
२ बोल पृष्ठ ६ से८ तक। प्रथम गुणठाणा रोधणी सुमुख गाथापतिई सुपात्र दान देई परीत संसार करी मनुष्य मो मायुषो बांध्यो पाठ ( विपाक सु० वि० अ० १)
३ बोल पृष्ठ ८ से ११ तक। मिथ्यात्वी थके हाथी सूसला री दया थी परीत संसार कियो पाठ (हाता ०१)
४ बोल पृष्ठ ११ से १२ तक। शकाल पुत्र भगवान ने वांद्या पाठ ( उपा० अ०७)
५ बोल पृष्ठ १२ से १३ तक । मिथ्यात्वी ते भली करणी रे लेखे सुनती कह्यो ? पाठ (उत्स० म०. गा. २०)
६ बोल पृष्ठ १३ से १५ तक । सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यश्च एक वैमानिक डाल और भायुषो न बांधे पाठ (भग० ० ० उ०१)
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७ बोल पृष्ठ १५ से १७ तक । मिथ्यात्वी ने सोलमी कला पिण न आवे एहनों न्याय पाठ ( उ०म०१ गा०४४)
८ बोल पृष्ठ १७ से १८ तक। प्रथम गुणठाणा ना धणी रो तप आज्ञा बाहिरे थापवा सूयगटाङ्ग नो नाम लेवे ते झूठा छै। पाठ ( सूय० श्रु० १ ० २ उ० १ गा० ६)
है बोल पृष्ठ १८ से १६ तक। मिथ्यात्वी ना पचखाण किण न्याय दुपचखाण छै ( भ० श०७ उ० २)
१० बोल पृष्ठ २० से २० तक। प्रथम गुणठाणे शील व्रत रे ऊपर महावीर स्वामी रो न्याय ( मा० ध्रु०१ म०६)
११ बोल पृष्ठ २१ से २२ तक । मिथ्यात्वी रो अशुद्ध पराक्रम संसार नो कारण छै पिण शुद्ध पराक्रम संसार नो कारण न थी। पाठ (सूय० श्रु० १ ० ८ गा० २३ )
१२ बोल पृष्ठ २३ से २३ तक। सम्यग्दष्टि में पिण पाप लागे। वीर भगवान् रो कथन पाठ ( आचा. अ०१५)
१३ बोल पृष्ठ २४ से २४ तक। . सम्यगदुष्टि ने पाप लागे। ते वली पाठ ( भ० श० १४ उ०१) .
® १५ बोल पृष्ठ २५ से २७ तक। प्रथम गुणठाणे शुद्ध करणी छै आज्ञामाहि छै एहनों प्रमाण ।
इस मिथ्यात्विक्रियाऽधिकार में प्रेस के भूतों को कृपा से १४ बोल की संख्या के स्थानपर १५ बोल हो गया है। अतः पागे सर्व संख्या ही इसी क्रम के अनुसार हो चुकी है अधिकार में ३० बोल हो गये हैं वास्तव में २६ बोल ही हैं। उसी प्रकार यहां अनुक्रमणिका में यो १४ बोल की संख्या छोड़नी पड़ी है।
संशोधक
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( ग >
१६ बोल पृष्ठ २७ से २६ तक ।
प्रथम गुणठाणो निरवद्य कर्म नो क्षयोपशम किहां कह्यो छै (सम० स० १४ ) १७ बोल पृष्ठ २६ से ३१ तक ।
अप्रमादी साधु ने अनारंभी कह्या छै ( भग० श० १३०१ ) १८ बोल पृष्ठ ३१ से ३५ तक ।
सोचाधिकारी तपस्यादि थी सम्यग्दृष्टि पावे पाठ ( भ० श० ६ ० १ ) १६ बोल पृष्ठ ३५ से ३६ तक ।
सूर्याभ ना अभियोगिया देवता भगवान् ने वांद्या (रापाप० दे० अ० ) २० बोल पृष्ठ ३६ से ३७ तक ।
स्कन्दक ने भगवद्वन्दना री गोतम री आज्ञा पाठ ( भ० श० २ उ०२ ) २१ बोल पृष्ठ ३८ से ३६ तक । स्कन्द ने आज्ञा से पाठ (भग० श० २ उ०१ )
२२ बोल पृष्ठ ३६ से ३६ तक । तामली री शुद्ध चिन्तवना पाठ ( भ० श० ३ उ० १ ) २३ बोल पृष्ठ ३० से ४० तक । सोमलऋषिनी चिन्तावना पाठ ( पुष्फिय० अ० ३ ) २४ बोल पृष्ठ ४० से ४१ तक । अनित्य चिन्तवना रे ऊपर सूत्र नों न्याय ( भ० श० १५ )
२५ बोल पृष्ठ ४१ से ४१ तक ।
ध्यान नी ४ चिन्तवना पाठ ( उवाई )
२६ बोल पृष्ठ ४२ से ४३ तक । बाल तप अकाम निर्जरा आज्ञामाही पाठ ( भ० श०८ उ०६ ) २७ बोल गोशाला रे पिण तपना करणहार स्थविर पाठ (डा० डा० ४ उ०२ )
पृष्ठ ४३ से ४४ तक ।
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२८ बोल पृष्ठ ४४ से ४४ तक। मन्य दर्शनी पिण सत्य वचन ने आदखो ( प्रश्न व्या० सं०२)
___ २६ बोल पृष्ठ ४४ से ४६ तक। बाणज्यन्तर ना भला पराक्रम ना वर्णन पाठ (जम्बू०प०)
३० बोल पृष्ठ ४६ से ४६ तक । डबाई में माता पिता नो विनय नों न्याय ( उवाई प्रश्न ७) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने मिथ्यात्विक्रियाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
दानाऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ ५० से ५२ तक । मसंयती ने दीधां पुण्य पाप नो न्याय
२ बोल पृष्ठ ५२ से ५४ तक। भानन्द श्रावक नो अभिग्रह पाठ (उपा० ३० अ०१)
३ बोल पृष्ठ ५४ से ५८ तक । असंयती ने दियां पाप को छै (भ० श० ८ उ०६) सुखशय्या (ठा ०४)
४ बोल पृष्ठ ५८ से ५६ तक। "पडिलाममाणे" पाठ नो न्याय (भ० श०५ उ०६-ठा० ठा०३)
५ बोल पृष्ठ ५६ से ६० तक। "पडिलाभमाणे" पाठ नो वली न्याय (भग श०५ उ०६)
६ बोल- पृष्ठ ६० से ६२ तक । "पडिलाभित्ता" पाठ नो न्याय (ज्ञाता स० १४)
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________________
कु
•
पृष्ठ ६१
६२ तक ।
७. बोल पडिला भेजा दलपज्जा, पाठ नों न्याय ( आचा० श्रु० २ अ० १३००
-
बोल पृष्ठ ६१
से
६४ तक ।
पडिला भेजा - पड़िलाभ माणे पाठनो न्याय ( शा० अ० ५ )
६ बोल पृष्ठ ६४ से ६५ तक ।
"पड़िलाभ " नाम देवानों छै गाथा ( सूय० ध्रु० २ म० ५ गा०-३३ )
से
६७ तक ।
१० बोल पृष्ठ ६६ से भाद्र कुमार विप्रां ने जिमाड्यां पाप कह्यो (सूय० श्रु० २ अ० ६ गा० ४३ ) ११ बोल पृष्ठ ६७ से ६८ तक । भग्गु ने पुत्र को - विप्र जिमायां तमतमा ( उत्त० अ० १४ गा० १२ )
१२ बोल पृष्ठ ६६ से ७० तक ।
भावक पिण विप्र जिमाडे छै पहनो न्याय ( भग० श० ८ उ० ६ )
१३ बोल पृष्ट ७० से ७३ तक ।
बर्तमान में इज मौन कही छै । ( सूय० श्रु० १ ० ११ गा० २०-२१ ) १४ बोल
पृष्ठ ७३ से ७४ तक ।
( सूय० श्रु० २ अ० ५ गा० ३३ )
चली पूर्व नों इज न्याय १५. बोल पृष्ठ ७४ से ७५ तक । नन्दन मणिहारा री दानशाला रो वर्णन ( ज्ञाता अ० १३ )
१६ बोल पृष्ठ ७५ से ७६ तक ।
सूत्र में दश दान ( ठा० ठा० १० )
१७ बोल पृष्ठ ७७ से ७८ तक ।
दश प्रकार धर्म (ठा० ठा० १०) दश स्थविर ( ठा० ठा० १० )
१८
नवविध पुण्य बन्ध (ठा० ठा० ६१)
बोल पृष्ठ ७८ से ७६ तक ।
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१६ बोल पृष्ठ ७ से ८० तक।। कुपात्रां ने कुक्षेत्र कह्या चार प्रकार रा मेह (ठा. ठा० ४ उ०४)
२० बोल पष्ठ ८० से८१ तक। गोशाला ने शकडाल पुत्र पीठ फलक आदि दियां धर्म तप नहीं ( उपा० ६० अ०७)
२१ बोल पष्ठ ८१ से ८३ तक। असंयती ने दियां कडुआ फल (विपा० अ० १):प्रत्युत्तरदीपिका का विचार (नोट)
२२ बोल पृष्ठ ८३ से ८४ तक। ब्राह्मणा में पापकारी क्षेत्र कह्या ( उत्त० म० १२ गा० २४ )
२३ बोल पृष्ठ ८४ से ८५ तक। १५ फर्मादान ( उपा० ६० अ० १)
२४ बोल पृष्ठ ८५ से ८७ तक । भात पाणी थी पोष्यां धर्माधर्म नो न्याय ( उपा० ६० अ० १)
२५ बोल पृष्ठ ८७ से ८६ तक। तुंगिया नगरी ना श्रांवकां ना उघाड़ा वारणा ना न्याय टीका (भ० श०५ उ०५)
२६ बोल पृष्ठ ८६ से १२ तक। श्रावक रा त्याग व्रत आगार अब्रत ( उवाई प्र० २० सूय० अ० १८)
२७ बोल पष्ठ ६२ से ३ तक। भनत ने भाव शस्त्र कह्यो-दशविध शस्त्र ( ठा० ठा० १०॥
२८ बोल पृष्ठ ६३ से १४ तक। अम्रत थी देवता न हुवे व्रत थी पुण्य पुण्य थी देवता हुवे (भ० श० १ उ०८)
___२६ बोल पृष्ठ ६५ से १६ तक। साधु ने सामायक में वहिरायां सामायक न भांगे भ० श० ८ उ०५)
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( छ ) ..३० बोल पृष्ठ ६८ से ६६ तक । धायक ने जिमायाँ ऊपरे महावीर पार्श्वनाथ ना साधु नो न्याय मिले नहीं (उत्त०१० २३ गा० १७)
३१ बोल पृष्ठ ६६ से १०० तक । असोचा केवली मी.रीति (भग० श० ६ उ० ३१)
३२ बोल पृष्ठ १०० से १०२ तक। अभिग्रहधारी परिहार विशुद्ध चारित्रिया में अनेरा साधु नी रीति (बृह. रकल्प उ० ४ बो० २६)
३३ बोल पृष्ठ १०२ से १०२ तक । साधु गृहस्थ ने देवो संसार मो हेतु जाण छोड्यो (सूय० श्रु० १ ०६ गा० २३)
३४ बोल पष्ठ १०२ से १०४ तक। गृहस्थ ने दान देणा अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त (निशी० उ० १५ बो०७८-७६)
३५ बोल पृष्ठ १०४ से १०६ तक । सन्थारा में पिण आनन्द ने गृहस्थ कह्यो छै ( उ० द० अ० १)
३६ बोल पृष्ठ १०६ से १०८ तक। गृहस्थ नी व्यावच कियां अनाचार ( दशा श्रु० अ०६)
३७ बोल पृष्ठ १०८ से १०८ तक । पड़िमाधारी रे प्रेमबन्धन बेट्यो न थी (दशा श्रु० अ०६)
३८ बोल पष्ठ १०६ से १११ तक । अम्बर सन्यासी नो कल्प ( उवाई प्र० १४ ) अनेरा सन्यासीनो कल्प (उवाई प्र. १२)
___ ३६ बोल पृष्ठ ११२ से ११३ तक । वर्णनाग नाग नतुमाना अभिग्रह (भ. श७ ७ उ०६)
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४० बोल पृष्ठ ११३ से ११३ तक । सर्व श्रावक थकी पिण साधु चरित्र करी प्रधान छै ( उत्त० भ० ५ गा० २०)
४१ बोल पृष्ठ ११४ से ११६ तक । धावक री आत्मा शस्त्र कही छै (भग० श०७ उ० १)
४२ बोल पृष्ठ ११६ से ११८ तक । श्रावक रा उपकरण भला नहीं-साधु रा भला (ठा० ठा० ४ उ०१) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने दानाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
अनुकम्पाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ११६ से १२१ तक । भगवान् पोता ना कर्म खपावा मनुष्या में तारिवा धर्म कहै पिण असंयती जीषांने वचावा अर्थे नहीं (सूय० श्रु० २ ० ६ गा० १७-१८)
२ बोल पृष्ठ १२२ से १२४ तक। भसंयम जीवितव्या नों न्याय ।
३ बोल पृष्ठ १२४ से १२७ तक । नेमिनाथ जीना जिन्तवन ( उत्त० अ० २२ गा० १८)
४ बोल पृष्ठ १२७ से १३० तक। मेघ कुमार रे जीव हाथी भवे सुसला री अनुकम्पा (हाता० म०१)
५ बोल पृष्ठ १३० से १३४ तक। पडिमाधारी रो कल्प (दशा० दशा०७)
६ बोल पृष्ठ १३४ से १३५ तक । साधु उपदेश देवे पिण जीवां रो राग भाणी जीवण रे मर्थे नहीं (सू. श्रु. २०५गा० ३०)
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पृष्ठ १३५ से १३६ तक ।
७ बोल गृहस्थां ने लड़ता देखी साधु मार तथा मतमार इम न चिन्तवे (आ० श्रु० २ अ० २३०१ )
८ बोल पृष्ठ १३६ से १३७ तक ।
साधु गृहस्थ में अग्नि प्रज्वाल वुझाव इम न कहै ( आ० श्रु० २ अ० २
उ० १)
( झ )
ह
बोल
पृष्ठ १३७ से १३८ तक ।
संयम जीवित वयों छै । ( ठा० ठा० १०
पृष्ठ १३८ से १३६ तक ।
१० बोल संयम जीवितव्य वांछणो नहीं ( सू० श्रु० १ ० १ गा० २४ )
११ बोल पृष्ठ १३६ से १३६ तक ।
असंयम जीवणो मरणो वांछणो वज्यों (सू० श्रु० १ अ० १३ गा० २३ )
१२ बोल पृष्ठ १४० से १४० तक ।
भसंयम जीवितव्य वांछणो वयों ( सू० श्रु० १ अ० १५ गा० १० ) १३ बोल पृष्ठ १४० से १४९ तक |
असंयम जीवणो वांछणो वयों ( सु० श्रु० १ अ० ३ उ० ४ गा० १५ ) १४ बोल पृष्ठ १४१ से १४१ तक ।
असंजम जीवितव्य वांछणो वज्यों (सू० श्रु० १ अ० ५ उ० १ गा० ३ ) १५ बोल पृष्ठ १४१ से १४२ तक ।
असंजम जीवितव्य वांछणो नहीं ( सू० श्रु० १ अ० १ गा० ३ )
१६ बोल पृष्ठ १४२ से १४३ तक
संयम जीवितव्य वांछणो वयों ( सू० श्रु० १ अ० २ उ० २ गा० १६ ) १७ बोल पृष्ठ १९४३ से १४४ तक ।
संयम जीवितव्य धारणो कह्यो (उत्त० अ० ४ गा० ७ )
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( अ ) १८ बोल पृष्ठ १४४ से १४४ तक। संयम जीवितव्य दुर्लभ कह्यो (सू० श्रु०१ अ० २ गा० १ )
१६ बोल पृष्ठ १४४ से १४६ तक । नमी राजर्षि मिथिला वलती देख साहमो जोयो नहीं ( उत्त० आ० ६ गा. २१-१३-१४-१५)
___२० बोल पृष्ठ १४६ से १४६ तक । साधु जय-पराजय न वांछै । ( दशवै० अ० ७ गा० ५०)
२१ बोल पृष्ठ १४६ से १४७ तक। ७ बोल हुवो इम न वांछै (दशवै० अ० ७ गा० ५१)
____ २२ बोल पृष्ठ १४७ से १४८ तक । घ्यार पुरुष जाति (ठा० ठा० ४)
२३ बोल पृष्ठ १४८ से १४८ तक । समुद्रपाली चोरने मारतो देखी छोडायो नहीं ( उत्त० अ० २१ गा०६)
२४ बोल पृष्ठ १४८ से १४६ तक। गृहस्थ रस्तो भूला ने मार्गवतायां साधु ने प्रायश्चित्त (निशी उ० १३)
२५ बोल पृष्ठ १४६ से १५० तक। धर्म तो उपदेश देइ समझायाँ कह्यो (ठा० ठा० ३ उ०४)
२६ बोल पृष्ठ १५० से १५१ तक । भय उपजायां प्रायश्चित्त ( निशीथ उ० ११ बो० १७०)
२७ बोल पृष्ठ १५१ से १५२ तक। गृहस्थनी रक्षा निमित्त मन्त्रादिक कियां प्रायश्चित्त (निशी० उ० १३)
२८ बोल पृष्ठ १५२ से १५६ तक । सामायक पोषा में पिण गृहस्थनी रक्षा करणी वर्जी ( उपास० अ०३)
२६ बोल पृष्ठ १५६ से १६१ तक । साधु ने नाथा में पाणी आवतो देखी ने वतावणो नहीं (आ० श्रु० २ ० ३ उ०१)
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( ट ) ३० बोल पृष्ठ १६१ से १६३ तक। सावध-निरवद्य अनुकम्पा ऊपर न्याय ( नि० उ० १२ बो० १.२) __ ३१ बोल पृष्ठ १६४ से १६५ तक । "कोलुण वड़ियाए" पाठ रो अर्थ (नि० उ० १७ बो० १-२ )
३२ बोल पृष्ठ १६५ से १६७ तक । "कोलुण" शब्द रो अर्थ ( आ० श्रु० २ अ० २ उ० १)
__३३ बोल पृष्ठ १६७ से १६८ तक। भनुकम्पा ओलखना ( अन्तगड़ ३ वा ८ अ० )
३४ बोल पृष्ठ १६८ से १६६ तक । कृष्णजी डोकरानी अनुकम्पाकीधी ( अन्त० व०३)
३५ बोल पृष्ठ १६६ से १६६ तक। Y यक्षे हरिकेशी मुनि नी अनुकम्पा कीधी ( उत्त० अ० १३ गा० ८)
___३६ बोल पृष्ठ १७० से १७० तक। "धारणी राणी गर्भनी अनुकम्पा कीधी ( ज्ञाता अ० १)
३७ बोल पृष्ठ १७० से १७१ तक । 7 अभय कुमार नी अनुकम्पा करी देवता मेहवरसायो (ज्ञाता अ० १)
३८ बोल पृष्ठ १७१ से १७२ तक। जिन ऋषि रयणा देवी री अनुकम्पा कीधी ( ज्ञाता अ०६)
___३६ बोल पृष्ठ १७२ से १७३ तक। . करुणानों न्याय-प्रथम आश्रव द्वार ( प्रश्न० अ० १)
४० बोल पृष्ठ १७३ से १७४ तक। - रपणा देवी करुणा हित जिन ऋषि ने हण्यो (शाता० अ० ६)
४१ बोल पृष्ठ १७५ से १७५ तक। सूर्या भे नाटक पाड्यो ते पिण भक्ति कही छै ( राज प्र०)
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४२ बोल पृष्ठ १७६ से १७७ तक । यक्षे छात्रा ने अंधा पाड्या ते पिण व्यावच ( उत्त० अ० १२ गा० ३२)
४३ बोल पृष्ठ १७७ से १७६ तक । गोशालाने भगवान् वचायो ते ऊपर न्याय (भग० श० १५) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने ऽनुकम्पाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
लब्धि-अधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ १८० से १८२ तक । लब्धि फोड्यां पाप ( पन्न० प० ३६ )
२ बोल पृष्ठ १८२ से १८३ तक । आहारिक लब्धि फोड्यां ५ क्रिया लागे ( पन्न० ५० ३६ ) . ३ बोल पृष्ठ १८३ से १८४ तक । आहारिक लब्धि फोडवे ते प्रमाद आश्री अधिकरण (भ० श० १६ उ०१)
४ बोल पृष्ठ १८४ से १८६ तक । लब्धि फोड़े तिण ने मायी सकषायी कह्यो (भग० श० ३ उ०४)
५ बोल पृष्ठ १८६ से १८८ तक। जंघा चारण. विद्या चारण लब्धि कोड़े आलोयां विना मरे तो विराधक (भ० श० २० उ०६)
६ बोल पृष्ठ १८८ से १६० तक। छद्भस्थ तो सात प्रकारे चूके (ठा० ठा०७)
७ बोल पृष्ठ १६० से १६३ तक। अम्वर वैक्रिय लब्धि फोड़ी (उवाई प्र०१४)
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________________
८ बोल पृष्ठ १९३ से १९४ तक । विस्मय उपजायां चौमासिक प्रायश्चित्त (नि० उ० ११ वो० १७२ ) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने लब्ध्यधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
प्रायश्चित्ताऽधिकार।
१ बोल पृष्ठ १६५ से १६६ तक । सीहो अनगार मोटे मोटे शब्दे रोयो (भ० श० ५१)
२ बोल पृष्ठ १६६ से १६७ तक । - महमुत्ते साधु पाणी में पानी तराई (भ० श० ५ उ०४)
३ बोल पृष्ठ १६७ से १६८ तक । रहनेमी राजमती ने विषय रूप पचन वोल्यो ( उत्त० अ० २२ गा० ३८
४ बोल पृष्ठ १९८ से १६६ तक । धर्मघोष ना साधां नागश्री में निन्दी ( ज्ञाता अ० १६ )
५ बोल पृष्ठ १६६ से २०२ तक । सेलक ऋषि ढोलो पड्यो ( ज्ञाता अ०५)
६ बोल पृष्ठ २०२ से २०४ तक । सुमङ्गल अनगार मनुष्य मारसी ( भ० श० १५)
७ बोल पृष्ठ २०४ से २०५ तक। "भालोइय पडिकन्ते” पाठ नो न्याय ( भ० श० २ उ०१)
८ बोल पृष्ठ २०५ से २०६ तक। तिसक अनगार संथारो कियो तेहनें “आलोइय” पाठ कह्यो (भ० श०३ उ०१)
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( द )
६ बोल पृष्ठ २०६ से २०८ तक ।
कार्त्तिक सेठ संथारो कियो तेहने आलोइय पाठ कह्यो ( भ० श० १८
उ० ३ )
बोल पृष्ठ २०८ से २१३ तक ।
१० कषाय कुशील नियण्ठारा वर्णन ( भग० श० २५ उ० ६ )
११ बोल पृष्ठ २१३ से २१६ तक ।
पुलाक वक्लुस पड़िसेवणादि रो वर्णन. संबुडा संबुडरो वर्णन ( भ० श० १६ उ० ६ )
१२ बोल पृष्ठ २१६ से २१७ तक ।
अनुत्तर विमान ना देवता उदीर्ण मोह न थी ( भ० श० ५ उ०४ )
पृष्ठ २१७
२१८ तक ।
१३ बोल से हाथी - कुथुआ रे अब्रत नी क्रिया वरोवर कही ( भग० श० ७ उ० ८ ) १४ बोल पृष्ठ २१८ से २१६ तक । सर्ब भवी जीव मोक्ष जास्ये ( भ० श० १२ उ०२ )
१५ बोल पृष्ठ २१६ से २२२ तक ।
पुग्दलास्तिकाय में ८ स्पर्श । अङ्ग अनुक्रम ( भ० श० १२ उ०५ ) ( उपा०
अ० १ )
इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने प्रायश्चित्ताऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
गोशालाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ २२३ से २२५ तक ।
गोशाला नी दीक्षा ( भग० श० १५ )
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________________
( ण )
२ बोल पृष्ठ २२५ से २२७ तक । सर्वानुभूति गोशाला ने कह्यो ( भग० श० १५ )
३ बोल पृष्ठ २२७ से २२६ तक । भगवान् गोशाला ने कह्यो ( भग० श० १५ )
४ बोल पृष्ठ २२६ से २३० तक । गोशाला ने कुशिष्य कह्यो ( भग० श० १५ )
इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने गोशाला ऽधिकाराऽनुक्रमणिका समाप्ता ।
गुण वर्णनाऽधिकारः
१ बोल पृष्ठ २३१ से २३१ तक ।
गणधरां भगवान् गुण वर्णन कीधा-अवगुण वर्णन नहीं ( आ० श्रु० १ म० ६ ० ४ गा० ८ )
२ बोल पृष्ठ २३१ से २३३ तक ।
साधां गुण (वाई)
३ बोल पृष्ठ २३३ से २३३ तक ।
कोणक राजाना गुण ( उवाई )
४ बोल पृष्ठ २३४ से २३४ तक ।
श्रावकांना गुण ( वाई प्र० २० )
५ बोल पृष्ठ २३५ से २३६ तक ।
गोतम रा गुण ( भग० श० १ उ०१ )
इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने गुणवर्णनाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
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________________
( त ) लेश्याऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ २३७ से २३८ तक । भगवान् में कषाय कुशील नियण्ठो कह्यो छै ( भग० श० २५ उ० ६)
२ बोल पृष्ठ २३८ से २३६ तक। ६ लेश्या ( आव० अ० ४)
३ बोल पष्ठ २३६ से २४१ तक। मनपर्यवज्ञानी में ६ लेश्या ( पन्न० ५० १७ उ० ३)
४ बोल पृष्ठ २४१ से २४३ तक । लेश्या विशेष (भग० श० १ उ० १)
५ बोल पृष्ठ २४३ से २४८ तक। नारकी रा नव प्रश्न (भग० श०१ उ०२) मनुष्य ना नव प्रश्न ( भ० श० १७०२)
६ बोल पृष्ठ २४८ से २५० तक । कृष्ण लेशी मनुष्य रा ३ भेद ( पन्न०प०१७-२३० ) इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने लेश्याऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
वैयारत्ति-अधिकारः।
१ बोल पष्ठ २५१ से २५२ तक। हरिकेशी मुनि ब्राह्मणा ने कह्यो ( उत्त० अ० १२ गा० ३२)
२ बोल पृष्ठ २५२ से २५३ तक । सूर्याभ नाटक पाइयो ते पिण भक्ति (राजप्र०)
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( थ )
३ बोल
पृष्ठ २५३ से २५४ तक ।
ऋषभदेव निर्वाण पहुन्ता इन्द्र दाढ़ा लीधी देवता हाड़ लीघा (जम्बू० प०) से २५६ तक ।
४ बोल पृष्ठ २५४ aai घोल तीर्थङ्कर गोत्र ( ज्ञाता अ० ८ )
पृष्ठ २५६ से २५७ तक ।
५. बोल सावध सातां दीघां साता कहै तिनें भगवान् निषेध्यो (सू० अ० ३ उ० ४) ६ बोल पृष्ठ २५७ से २५६ तक ।
कुल. गण, सङ्घ साधर्मो. साधु नें इज कह्या ( ठा० ठा० ५० १) ७ बोल पृष्ठ २५६ से २६० तक ।
दश व्यावच साधुनीज कही ( ठा० ठा० १०)
बोल
१० व्यावच (उवाई)
τ
पृष्ठ २६०
६ बोल पृष्ठ : २६२ से २६६ तक |
भिक्षु मुनिराज कृत वार्त्तिक
११
१० बोल
पृष्ठ २६७ से २६६ तक ।
साधुना अर्श वैद्य द्यां स्यूं हुवे ( भग० श० १६ उ० ३ )
बोल
पृष्ठ २६६ से २७० तक ।
साधुने अर्श छेशव्यां तथा अनुमोद्यां प्रायश्चित्त कह्यो । ( निशाँ० उ०१५ बो० ३१)
१२
से २६२ तक ।
बोल
पृष्ठ २७० से २७२ तक ।
सारा व्रण छेदे तेहनें अनुमोदे नहीं ( आचा० अ० १३ श्रु० २ )
इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने वैयावृत्ति अधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ॥
K
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विनयाऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ २७३ से २७४ तक । सावध विनय नों निर्णय ( ज्ञाता अ०५)
२ बोल पृष्ठ २७४ से २७६ तक। पाण्डु पाण्डव नारद नों विनय कियो (ज्ञाता अ. १६)
३ बोल पृष्ठ २७६ से २७७ तक । अम्बडनो चेलां विनय कियो ( उवाई प्र० १३)
४ बोल पृष्ठ २७८ से २८० तक। धर्माचार्य साधु नें इज कह्यो ( राय प०),
५ बोल पृष्ठ २८० से २८१ तक। सूर्याभ प्रतिमा आगे नमोत्थुणं गुण्यो (जम्बू द्वी० )
६ बोल पृष्ठ २८२ से २८४ तक। तीर्थङ्कर जन्म्यां इन्द्र घणो विनय करे (ज० द्वी)
७ बोल पृष्ठ २८४ से २८५ तक। इन्द्र तीर्थङ्कर जन्म्यां विचार (ज० द्वी)
८ बोल पृष्ठ २८५ से २८६ तक । इन्द्र तीर्थङ्कर नी माता ने नमस्कार करै ( ज० द्वी० )
बोल पृष्ठ २८६ से २८७ तक। नवकार ना ५ पद ( चन्द्र० गा०२)
१० बोल पष्ठ २८७ से २८८ तक। सर्वानुभूत्रि-सुनक्षत्र मुनि गोशाला ने कह्यो (भग० श० १५)
११ बोल पृष्ठ २८८ से २८६ तक। पाहण साधु नें इज कह्यो (सूय० श्रु० १ ० १६ )
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१२ बोल पृष्ठ २८६ से २६० तक । साधु नें इज माहण कह्यो ( सूय० श्रु० २ अ० १)
१३ बोल पृष्ठ २६१ से २६४ तक । माहण ना लक्षण ( उत्त० अ० २५ गा० १६ से २६ ) . १४ बोल पृष्ठ २६४ से २६७ तक ।
श्रमण मा हण अतिथि नो नाम कह्यो ( अनु० द्वा) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने विनयाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता !
पुण्याऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ २६८ से ३०० तक। मर्य भोगादिनी वांछा आज्ञा में नहीं ( भग० श० १ उ० ७)
२बोल पृष्ठ ३०० से ३०१ तक। चित्त जी ब्रह्मदत्त ने कह्यो ( उत्त० अ० १३ गा० २१)
३ बोल पृष्ठ ३०१ से ३०२ तक। पुण्य नो हेतु ते पुण्य पद ( उत्त० उ० १८)
४ बोल पृष्ठ ३०२ से ३०३ तक । मकृत पुण्य जीव संसार भमे ( प्रश्न न्या० ५ आश्र०)
५ बोल पृष्ठ ३०३ से ३०३ तक। यश नो हेतु. संयम विनय. यश शब्दे करी ओलखायो ( उत्त० अ०३ पा० १३)
६ बोल पृष्ठ ३०४ से ३०४ तक। जीव नरके आत्म भयशे करी उपजे ( भग० श० ४१ उ०१)
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७ बोल पृष्ठ ३०४ से ३०५ तक। धन धान्यादिक ने आदरे नहीं ( उत्त० ० ६ गा० ८)
८बोल पृष्ठ ३०५ से ३०६ तक। अविनीत ने मृग कह्यो ( उत्त० अ० १ गा०५) इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने पुण्याऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
आश्रवाऽधिकार।
१ बोल पृष्ठ ३०७ से ३०८ तक । ५ आश्रय (ठा० ठा० ५ उ०१) (सम० स०५)
२ बोल पृष्ठ ३०८ से ३०६ तक । ५ अश्रावांने कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या (उत्त० अ० ३४ गा० २१-२२)
३ बोल पृष्ठ ३०१ से ३११ तक। क्रिया भेद (ठा० ठा० २ उ०१)
४ बोल पृष्ठ ३११ से ३११ तक। मिथ्यात्व नों लक्षण ( ठा० ठा० १०)
५ बोल पृष्ठ ३१२ से ३१२ तक । प्राणतिपात ने विषे जोव (भग० श० १७ उ०२)
६ बोल पृष्ठ ३१२ से ३१४ तक । दश विध जीव परिणाम ( ठा० ठा० १२)
७ बोल पृष्ठ ३१४ से ३१५ तक। आठ आत्मा ( भग० श० १२ उ० १०)
८वोल पृष्ठ ३१५ से ३१७ तक । कषाय अनें योग में जीव कह्या छै ( अनुयोग द्वार)
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६ बोल पृष्ठ ३१७ से ३१८ तक। उत्थान. कर्म. वल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम अरूपी (भ० १२ उ०५)
१० बोल पृष्ठ ३१८ से ३२० तक। १० नाम ( अनुयोग द्वार)
११ बोल पृष्ठ ३२० से ३२१ तक। भाव लाभ रा २ भेद ( अनुयो० द्वा०)
१२ बोल पृष्ठ ३२२ से ३२३ तक । अकुशल मन मधवो कह्यो ( उवाई )
१३ बोल पृष्ठ ३२३ से ३२५ तक। भवणा ते खपावणा ( अनुयो० द्वा० )
१४ बोल पृष्ठ ३२५ से ३२७ तक । माधव. मिथ्या दर्शनादिक. जीव ना परिणाम ( ठा० ठा०६) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने श्राश्रवाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
सम्वराऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ ३२८ से ३२८ तक । ५ संवर द्वार ( 310 ठा० ५ उ० २ तथा सम.)
२ बोल पृष्ठ ३२६ से ३२६ तक। शान. दर्शन. आदिक जीवना लक्षण ( उत्त० अ० २८ गा० ११-१२)
३ बोल पृष्ठ ३३० से ३३१ तक। गुण प्रमाण. जीव गुण प्रमाण. ( अनुयो० द्वा०)
४ बोल पृष्ठ ३३१ से ३३३ तक।... संवर ने आत्मा कही (भ० श० १ उ०६)
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( फ )
५. बोल पृष्ठ ३३३ को ३३५ तक ।
प्राणातिपाताऽदिकना वेरमण अरूपी ( भग० श० १२ उ०५ ) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने संवराऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
जीवभेदाऽधिकारः ।
पृष्ठ ३३६ से ३३८ तक ।
बोल
१ मनुष्य ना भेद ( पन्न० प० १५ उ० १ )
बोल
२ सन्नी असन्नी ( पन० पद १ )
पृष्ठ ३३८ से ३३६ तक ।
३ बोल पृष्ठ ३३६ से ३४० तक ।
८ सूक्ष्म ( दशवे० अ० ८गा० १५ )
०८)
४ बोल पृष्ठ ३४० से ३४१ तक । ३ प्रस ३ स्थावर ( जीवा० १ प्र० )
५ बोल पृष्ठ ३४१ से ३४२ तक । सम्मूर्च्छिम मनुष्य पर्याप्तो अपर्याप्तो बिहूं ( अनुयोग० ) ६ बोल पृष्ठ ३४२ से ३४४ तक |
देवता में बे वेद (भग० श० १३ उ० २ )
इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने जीव भेदऽधिकारा नुक्रमणिका समाप्त ।
आज्ञाऽधिकारः ।
१
बोल
पृष्ठ ३४५ से ३४६ तक ।
वीतराग ना पग थी जीव मरे तेहने ईरिया वहिया क्रिया ( भ० श० १२
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________________
( ब )
२ बोल पृष्ठ ३४६ से ३४६ तक ।
जिन भाशा सहित आलोची करतां विपरीत थयो ते पिण शुद्ध छै ( आ० अ० ५० ५ )
३ बोल
नदी उतरवारो कल्प (वृहत्कल्प उ०४ )
४ बोल
पृष्ठ ३५२ से ३५३ तक ।
नदी उतरवारी आज्ञा ( आ० श्रु० २ अ० ३ उ० ५ ) ५ . बोल पृष्ठ ३५३ से ३५४ तक । साध्वी पाणी में डूबती नें साधु वाहिर काढे ( वृ० क० उ० ६ ) ६ बोल पृष्ठ ३५४ से ३५५ तक ।
साधु रो दिशा भनें स्वाध्याय रो कल्प ( वृ० क० उ० १ )
इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने श्राज्ञाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
पृष्ठ ३५० से ३५२ तक ।
शीतल आहाराऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ३५६ से ३५६ तक ।
ठण्डी आहार लेणो को ( उत्त० अ० ८गा० १२ ) २ बोल
पृष्ठ ३५६ से ३५७ तक ।
वली ठण्डी आहार लेणो कह्यो ( आचा० ० १ अ० उ०४ ) ३ बोल
पृष्ठ ३५७ से ३५६ तक ।
नगर से अभिग्रह ( अनु० उ० )
४
बोल
शीतल आहार लेणो कह्यो ( प्र० व्या० अ० १० )
इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने शीतलाहाराऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
पृष्ठ ३५६ से ३६० तक ।
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( भ )
सूत्र पठनाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ३६९ से ३६१ तक । साधु नें इज सूत्र भणवारी आज्ञा ( प्र० व्या० आ० ७ ) २ बोल पृष्ठ ३६२ से ३६३ तक ।
साधु सुत्र भणे तेहनी पिण मर्यादा ( व्य० १० उ० )
३ बोल पष्ठ ३६३ से ३६४ तक ।
साधु गृहस्थ ने सूत्र री वाचणी देवे तो प्रायश्चित्त (नि० उ०१६ ) ४ बोल पृष्ठ ३६४ से ३६४ तक । अणदीधी याचणी आचरतां दण्ड ( नि० उ० १६ )
५ बोल पृष्ठ ३६४ से ३६५ तक । ३ वाणी देवा योग्य नहीं ( ठा० ठा० ३ उ० ४ )
६ बोल पृष्ठ ३६५ से ३६६ तक । श्रावकां ने अर्था रा जाण कह्या ( उवा० प्र० २० )
७ बोल पृष्ठ ३६६ से ३६७ तक । सिद्धान्त भणवारी आज्ञा साधु ने छै ( सू० अ० १८ ) ८ बोल पृष्ठ ३६७ से ३६७ तक ।
आत्मगुप्त साधु इज धर्म नो परूपण हार छे ( सू० श्रु० १ ० १२ ) ६ बोल पृष्ठ ३६७ से ३६८ तक ।
सूत्र अभाजन नें सिखावे ते सङ्घ वाहिरे छै ( सू० प्र० २० पा० ) १० बोल पृष्ठ ३६६ से ३६६ तक ।
धर्म सूत्र ना २ भेद ( ठा० ठा० २ उ० १ )
११
बोल
सूत्र आश्री ३ प्रत्यनीक ( भ० श०८ उ०१८ )
पृष्ठ ३६६ से ३७० तक ।
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( म ) १२ बोल पृष्ठ ३७० से ३७१ तक। सूत्र ना० १० नाम ( अनु० द्वा०)
१३ बोल पृष्ठ ३७१ से ३७३ तक। श्रुत नाम सिद्धान्त नो छ (पन्न० प० २३ उ०२) इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविधंसने सूत्रपठनाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्त ।
निरवद्य क्रियाऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ ३७४ से ३७५ तक । पुण्य बंधे तिहां निर्जरा री नियमा छै ( भग० श० ७ उ० १०) - २ बोल पृष्ठ ३७६ से ३७६ तक । • माझा माहिली करणी सूं पुण्य नो बन्ध कह्यो ( उत्त० अ० २६)
३ बोल पृष्ठ ३७६ से ३७७ तक। धर्म कथाई शुभ कर्म नो बन्ध कह्यो ( उत्त० अ० २६)
४ बोल पृष्ठ ३७७ से ३७७ तक । गुरु नी व्यावच कियां तीर्थङ्कर नाम गोत्र कर्म नो बन्ध कयो (उत्त० अ० २६)
५ बोल पृष्ठ ३७७ से ३७८ तक। श्रामण माहण में चन्दनादि करी शुभदीर्घ आयुषानो बन्ध कह्यो ( भग स०५ उ० ६)
६ बोल पृष्ठ ३७८ से ३७६ तक। १० प्रकारे कल्याण करी कर्मबन्ध कह्यो (ठा० ठा० १०)
७ बोल पृष्ठ ३७६ से ३८० तक। १८ पाप सेच्या कर्कश वेदनी कर्म बन्धे ( भग० श० ७ उ०६)
८ बोल पृष्ठ ३८० से ३८१ तक। मार्कश वेदनी आज्ञा माहिली करणी थी बंधे (भग० श० ६ उ०७)
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( य ) ६ बोल पृष्ठ ३८१ से ३८२ तक । २० बोला करी तीर्थङ्कर गोत्र बंधतो कह्यो ( ज्ञाता अ० ८)
१० बोल पृष्ठ ३८२ से ३८४ तक। निरवद्य करणी सूं पुण्य नीपजे छे ( भ० श० ७ उ० ६)
११ बोल पृष्ठ ३८४ से ३८६ तक। आठुइ कर्म निपजवारी करणी (भग० श० ८ उ०६)
१२ बोल पष्ठ ३८६ से ३६२ तक । धर्भरुचि नो कडुवो तुम्वो परठणो ( ज्ञाता भ० १६ )
१३ बोल पृष्ठ ३६२ से ३६४ तक । भगवन्ते सर्वानुभूति में प्रशंस्यो (भ० श० १५ ) भगवान् साधानें कह्यो (भ० श० १५)
१४ बोल पृष्ठ ३६४ से ३६५ तक। जाज्ञा प्रमाणे चाले ते विनीत उत्त० अ० १ गा० २) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने निरवद्य क्रियाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
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निर्ग्रन्थाहाराऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ ३६६ से ३६७ तक । साधु-आहार. उपकरण आदिक भोगवे ते निर्जरा धर्म छै (भ० श० १ उ०१)
२ बोल पृष्ठ ३६७ से ३६७ तक। ज्ञान. दर्शन. चरित्र वहवाने अर्थे आहार करणो कह्यो ( ज्ञाता अ०२)
३ बोल पष्ठ ३६८ से ३९८ तक। वर्ण रूप. वल विषय हेते आहार न करिवो (ज्ञातो अ०१८)
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४ बोल पृष्ठ ३६८ से ३६६ तक। साधु आहार कियां पाप न बंधे ( दशवै० अ० ४ गा० ८)
५ बोल पृष्ठ ३६६ से ३६६ तक । साधु नो आहार मोक्ष नों साधन कह्यो ( दशवै० अ० ५ उ० १ गा० १२)
६ बोल पृष्ठ ४०० से ४०० तक। निर्दोष आहार ना लेणहार शुद्ध गति ने विषे जावे (द० अ०५ उ० १ गा० १००)
७ बोल पृष्ठ ४०० से ४०२ तक। ६ स्थानके करी श्रमण आहार करतो आज्ञा अतिक्रमे नहीं (ठा० ठा० . उ० १)
इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने निम्रन्थाहाराऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
recccceecca
निर्ग्रन्थ निद्राऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ४०३ से ४०३ तक । जयणा थी सूतां पाप न बंधे ( दशवै० अ० ४ गा० ८)
२ बोल पृष्ठ ४०३ से ४०४ तक। सुत्ते नाम निद्रावन्तनों छै ( दश० अ० ४ )
३ बोल पृष्ठ ४०४ से ४०५ तक । द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही (भ० श० १६ उ० ६ )
४ बोल पृष्ठ ४०५ से ४०७ तक । तीजी पौरसी में निद्रा ( उत्त० अ० २६ गा० १८ )
५ बोल पृष्ठ ४०६ से ४०६ तक। निद्रा पाणी तीरे वर्जी पिणं और जागां नहीं ( वृ० क० उ० १)
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६ बोल पृष्ठ ४०७ से ४०८ तक । निद्रा ना कल्प (वृ० क० ३)
७ बोल पृष्ठ ४०८ से ४०६ तक। द्रव्य निदा ( आचा० अ० ३ उ०१) इति श्रीजयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने निर्ग्रन्थ निद्राऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
एकाकि साधु-अधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ४१० से ४१० तक। एकाकी पणो न कल्पे (व्यव० उ० ६)
२ बोल पृष्ठ ४११ से ४११ तक । अगडसुया ना कलप ( व्यव० उ०६)
३ बोल पृष्ठ ४११ से ४१२ तक । वली कल्प (वृह० उ०१ बो० ११)
__४ बोल पृष्ठ ४१२ से ४१४ तक। एकला में ८ अघगुण (आचा० श्रु. १ अ० ५ उ०१)
५ बोल पृष्ठ ४१४ से ४१६ तक। एकला नो कल्प (अ० श्रु० १ अ० ५ उ० ४)
६ बोल पृष्ठ ४१७ से ४१८ तक । ८ गुणा सहित ने एकल पडिमा योग्य कह्यो ( ठा० ठा०८)
७ बोल पृष्ठ ४१८ से ४१६ तक । बहुस्सुए नो भावार्थ ( उवाई प्र० २०-२१)
८बोल पृष्ठ ४१६ से ४२० तक । घली कल्प (वृ० क० उ० १ बो० ४७)
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( व >
६ बोल पृष्ठ ४२० से ४२३ तक ।
चलो न मिले तो एकलो रहे एह नो निर्णय ( उत्त० अ० ३२ ) १० बोल पृष्ठ ४२३ से ४२३ तक । राग द्वेष ने अभावे एकलो कह्यो ( उत्त० अ० १ )
पृष्ठ ४२४ से ४२४ तक ।
११ बोल
राग द्वेष ने अभावे ऊभोर हे ( उत्त० अ० १ )
१२ बोल पृष्ठ ४२४ से ४२५ तक ।
राग द्वेष ने अभावे एकलो विचर स्यूं ( सू० अ० ४ उ० १ गा० ) १३ बोल
पृष्ठ ४२५ से ४२८ तक ।
राग द्वेष नें अभाव एकलो विचरणो कह्यो ( उत्त० अ० १५ )
इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने एकाकि साधु - अधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
उच्चारपासवणाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ४२६ से ४२६ तक ।
उच्चार, पालवण, परठणो बज्यों ते उच्चार आश्री वज्यों (निशीथ उ० ४ )
२ बोल पृष्ठ ४२६ से ४३० तक ।
पूर्वलो इज न्याय (निशीथ उ०४ )
३ बोल पृष्ठ ४३० से ४३१ तक । पूर्वलो इज न्याय (निशीथ उ०४ )
४ बोल पृष्ठ ४३१ से ४३२ तक । पठण नाम करवानों छै ( निशीथ उ० ३ )
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( श ) ५ बोल पृष्ठ ४३२ से ४३३ तक। परठणो नाम करवानों छै (शाता० अ० २) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने उच्चारपासवणाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता।
कविताऽधिकारः।
१ बोल पृष्ठ ४३४ से ४३५ तक । जेतला हुई। साधु-४ बुद्धिइ तेतला पइन्ना करे ( नन्दी प० ज्ञा० व० )
२ बोल पृष्ठ ४३५ से ४३६ तक। चली जोड़ करवानों न्याय ( नन्दी)
३ बोल पृष्ठ ४३६ से ४३७ तक। चली जोड़ करवा नों न्याय।
४ बोल पृष्ठ ४३७ से ४३६ तक । चतुर्विध काव्य ( ठा० ठा० ४ उ०४ )
५ बोल पृष्ठ ४३६ से ४४० तक। गाथा करी वाणी कथी ते गाथा छन्द रूप जोड़ छै (उत्त० अ० १३ गा० १२)
६ बोल पृष्ठ ४४० से ४४२ तक । बाजारे लारे गावै तेहनों इज दोष कह्यो छै (निशीथ अ० १७ बो० १४०) इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने कविताऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
अल्पपाप बहु निर्जराधिकारः ।
C
१ बोल पृष्ठ ४४३ से ४४३ तक । अल्पपाप बहु निर्जरा (भग० श० ८ उ०६)
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२ बोल पृष्ठ ४४४ से ४४४ तक। साधु ने अप्राशुक आहारादियां अल्प आयुषो बंधे ( भ० श० ५ उ०)
३ बोल पृष्ठ ४४४ से ४४६ तक । धान सरसव ना बे भेद ( भ० श० १८ उ० १०)
४ बोल पृष्ठ ४४६ से ४४७ तक। श्रावका रा गुण वर्णन ( उवाई प्रश्न २० )
५ बोल पृष्ठ ४४७ से ४४६ तक । आनन्द रो अभिग्रह ( उपा० द० उ० १)
६ बोल पृष्ठ ४४६ से ४५० तक। . बली पूर्वलो इज न्याय ( सू० श्रु० २ उ० ५ गा० ८-६)
७ बोल पृष्ठ ४५० से ४५१ तक । अल्प प्रभाव वाची छै ( भग० श० १५)
___८ बोल पृष्ठ ४५१ से ४५२ तक । बली अल्प अभाववाची ( उत्त० अ० ६ गा० ३५)
बोल पृष्ठ ४५२ से ४५३ तक। बली अल्प अभाववाची ( आ० श्रु० २ अ० १ उ० १ )
१० बोल पृष्ठ ४५३ से ४५५ तक। बली पहनों न्याय ( आ० ध्रु० २ अ० २ उ० २ ) इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारानुक्रमणिका
समाप्ता।
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( स >
कपाटाऽधिकारः ।
१ बोल पृष्ठ ४५६ से ४५६ तक । किमाड़ सहित स्थानक साधु नें मन करी पिण न वांछणो ( उ० अ० ३५ ) २ बोल पृष्ठ ४५७ से ४५७ तक ।
किमाड़ उघाड़वो ते अजयणा ( आ० आ० ४ )
३ बोल पृष्ठ ४५७ से ४५८ तक ।
सूने घर रह्यो साधु पिण न जड़े न उघाड़े ( सू० ) टीका ४ बोल पृष्ठ ४५६ से ४५६ तक ।
कण्टक बोदिया ते कांटा नी शाखा ना वारणा । आ० श्रु० २ अ० ५ उ० १) ५ बोल पृष्ठ ४६० से ४६१ तक ।
किमाड़ उघाड़वो पड़े एहवी जायगां में साधु नें रहिवो वज्यों छै । ( आ० श्रु० २ अ० २ उ०२ )
६ बोल पृष्ठ ४६१ से ४६३ तक ।
साध्वी ने अभङ्गदुवार रहिवो कल्पे नहीं साधु ने कल्पे ( वृ० क० उ० १ इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने कपाटाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता । इत्यनुक्रमणिका ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
अथ मिथ्यात्वि क्रियाधिकारः।
भ्रम विध्वंसन कुमति कुहेतु खंडन सुमति सुहेतु मुखमंडन मिथ्यात्व. मत विहंडन. सिद्धान्त न्याय सहित. श्री भिक्षु महा मुनिराज कुत सिद्धान्त हुंडी तेहना सहाय्य थकी संक्षेप मात्र वली विशेषे करी परवादी ना कुहेतुनी शङ्का ते भ्रम तेहनूं विध्वंसन ते नाश करीवू ए ग्रन्थे करि. ते माटे ए ग्रन्थ नूं नात "भ्रम विध्वंसन” छै। ते सूत्र न्याय करी लिखिये छ।
भगवान् रो धर्म तो केवली री आज्ञा माही छै। ते धर्मरा २ भेद संवर, निर्जरा. ए बिहूं भेदा में जिन आज्ञा छै। ए संवर निर्जरा बेहुं इ धर्म छै। एसंवर निर्जरा टाल अनेरो धर्म नहीं छै। केइ एक पाषण्डी संवर ने धर्म शुद्ध पिण निर्जरा ने धर्म श्रद्ध नहीं। त्यारे संवर निर्जरांरी भोलखणा नहीं। ते संवर निर्जरा रा अजाण थका निर्जरा धर्म ने उथापरा अनेक कुहेतु लगाये। जिम अनाण वादी ( अज्ञान वादी ) पाषण्डो ज्ञान ने निषेधे तिस केई पापण्डो साधुरा वेष माहि साधु रो नाम धरावे छै। अने निर्जरा धर्म ने निषेध रक्षा है। अने भगवान तो ठाम २ सूत्र में संयम. तप. ए बिहू धर्म कह्या छै।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥
(दशवकालिक अध्ययन १ गाथा १)
इहां धर्म मंगलीक उत्कृष्ट कह्यो, ते अहिंसा ने संयम ने अने तपने धर्म कयो छै। संयम ते संवर धर्म, अने तप ते निर्जा धर्म है। अने त्याग विना जीवरी दया पाले ते अहिंसा धर्म छ। अने जीव हणवारा त्याग ते संयम पिण कहीजे, अने अहिंसा पिण कहीजै। अहिंसा तिहां तो संयम नी भजना छै। अने संगम तिहां अहिंसा नी नियमा छ ।
ए अहिंसा धर्म अने तप धर्म तो पहिला चार गुण ठाणा (गुणस्थान) पिण पावे छै। पहिले गुणठाणे अनेक सुलभ बोधी जीवां सुपात्र दान देइ जीवदया. तपस्या. शीलादिक. भली उत्तम करणी. शुभ योग, शुभ लेश्या निरवद्य घ्यापार थी परीतसंसार कियो छ । ते करणी शुद्ध आज्ञा मांहिली छै। ते करणी रेलेखे देश थकी मोक्ष मार्ग नो आराधक को छै ते पाठ लिखिये छै।
अहं पुण गोयमा! एव माइक्खामि जाव परूवेमि. एवं खलु मए चत्तारि पुरिस जाया पणत्ता। तंजहा-सील संपणणे नामं एगे नो सुय संपरणे. सुयसंपराणे नामं एगे नो सील संपते. एगे सील संपरोवि सुय संपगो वि. एगे नो सील संपण्णो नो सुय संपरागो. ॥ १ ॥
तत्थणं जे से पढ़मे पुरिस जाए सेणं पुरिस सीलवं अनुय उवरए अविण्णायधम्मे एलणं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पराणत्ते ॥२॥
__ तत्थणं जे से दोच्चे पुरिस जाए सेणं पुरिसे असीलवं सुतवं अरणवरए विणणाय धम्मे एसणं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पगाते ॥३॥
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मिथ्यारिव क्रियाऽधिकारः ।
तत्थ जे से तच्चे पुरिस जाए सेां पुरिसे सीलवं सुत उवर विणाय धम्मे एस गोयमा ! मए पुरिसे सब्बाराहए पण्णत्ते ॥ ४ ॥
तत्थणं जे से चउत्थे पुरिस जाए से पुरिसे असीलवं असुतवं अणुवरए अविरणाय धम्मे एसणं गोयमा ! मए पुरिसे सन्त्र विराह पराणत्ते ॥
( भगवती शतक ८ उद्देश्य १० )
जा० यावत इम परू. ए० इम निश्चय म्हे सी० शीलते क्रिया ते करी सम्पन्न पिया. सु पिथ शील कहितां क्रिया सम्पन्न नथी. एक एक नथी शीले करी सहित अने
অ पिया हे गोतम ! ए० इस कहूं छं. व० चार पुरुष ना प्रकार प्ररूप्या. तं ते कहै छै. ज्ञान सम्पन्न नयी स० एक श्रज्ञाने करी सम्पन्न है, ए० एक गीले करी सहित अने शाने करी पियय सहित गधी ज्ञाने करी सहित ॥ १ ॥
त० तिहां जे ते प्रथम पुरुष नों प्रकार. से ० ते पुरुष. सी० शोल कहितां क्रिया सहित पिय अ० श्रुत ज्ञान सहित नथी. उ० पोतानी बुद्धिइ पाप थी निवत्यों है. थ० न जागयो धर्म. ए० हे गौतम! म्हे ते पुरुष देश प्राराधक प्ररूप्यो एव बाल तपस्वी ॥ २ ॥
० ति जे ते बोजौ पुरुष प्रकार. से० ते पुरुष. अ० क्रियारहित के विण. सु० श्रुतपाथी वि० अने ज्ञान धर्म ने जायें है सम्यक दृष्टि ए हे गौतम ! भवती सम्यग् दृष्टि जावो ॥ ३ ॥
थी.
हे ते पुरुष दे० देशविराधक कह्यो
० तिहां जे बीज पुरुष प्रकार. से० ते पुरुष. सी० शीलवंत ( क्रियावंत ) छ. सु० धनें श्रुतवंत ते ज्ञानवन्त है पाप थी निवत्यों है. वि० धर्म जाण है. ए० हे गौतम! देते पुरुष सः सर्वाराधक कह्यो सर्ब प्रकार ते मोक्ष नो साधक जाणवो एक गीतार्थ साधु ॥ ४ ॥ हां जे ते चौथा प्रकार नो पुरुष. से० ते पुरुष अ० क्रिया करी ने रहित. अ० अने श्रुतज्ञान रहित पाप थी निवर्त्यो नथी. अ० धर्म मार्ग जाणतो. नथी. ए० हे गोतम! म्हे ते पुरुष. स सर्व विराधक को घवती बाल तपस्वी ॥
अथ इहां भगवन्ते चार प्रकार ना पुरुष कह्या । : तिहां पहिला पुरुष नी जाति शील ते क्रिया आचार सहित अने ज्ञान सम्यक्त्व रहित पाप थकी निवत्य पिण धर्म जाग्यो नथी, ते पुरुष ने देश आराधक को प्रथम भांगो ए वाल
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तपस्वी नी आश्रय । बीजो भांगो शील क्रिया रहित अने ज्ञान शक्ति सहित ए अती सम्यग्दृष्टि ते देश विराधक ते दूजो भांगो । ज्ञान अने शील क्रिया सहित साधु सर्वत्र सर्व आराधक ए तीजो भांगो । अने ज्ञान क्रिया रहित अत्रती बाल पापी ए सर्वविराधक चौथो भांगो। इहां प्रथम भांगा में ज्ञान सम्यक्त्व रहित शील क्रिया सहित ते बाल तपस्वी ने भगवन्ते देश अराधक को है । अने केतला एक अजाण मिथ्यात्वी नी शुद्ध करणी ने आज्ञा वाहिरे कहे छै । ते करणी थी एकान्त संसार बनतो कहै छै एकान्त झूठ रा बोलणहार छै । जो मिथ्यात्वी री शुद्ध भली निरवय करणी आज्ञा बाहिरे हुवे तो वीतराग देव मिथ्या दृष्टि बाल तपस्वी ने देश अराधक क्यूं कह्यो । ए तो प्रत्यक्ष पहिला गुणठाणा वाला नों प्रथम भांगो ते बाल तपस्वी ने देशभराधक कह्यो । ते लेखे तेहनी शुद्ध करणी आज्ञा मांहि छै ते करणी निरवद्य छै । तिवारे कोई कहे ते मिथ्या दृष्टि बाल तपस्वी रे संवर वर्ततो तो किञ्चित् मात्र नहीं तो व्रत बिना देशआराधक किम हुवे ।
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इम पूछे तेहनो उत्तर - व्रती ने तो सर्व आराधक कहीजे । अनें ए बाल तपस्वी ने व्रत नहीं पिण निर्जरा रे लेखे देशआराधक कह्या छै । ए करणी थी घणी कर्मानी निर्जरा हुवे छै । इम घणी २ कर्मा नी निर्जरा करतां घणा जीव सम्यग्दृष्टि पाय मुक्ति गामी थया छै । तामलीतापस ६० हजार वर्ष ताई वेले २ तपस्या कीधी तेही घणा कर्म क्षय किया । पछे सम्यग्दृष्टि पाय मुक्तिगामी एकावतरी थयो । जो ए तपस्या न करतो तो कर्मक्षय न हुन्ता. ते कर्मानी निर्जरा विना सम्यग्दृष्टि किस पावतो । अनें एकावतारी किम हुन्तो । वली पूरण तापस १२ वर्ष वेले २ तप करी घणा कर्म खपाया चमरेन्द्र थयो सम्यग्दृष्टि पामी एकावतरी थयो । इत्यादिक घणा जीव मिथ्यात्वी थका शुद्ध करणी थकी कर्म खपाया ते करणी शुद्ध छै । मोक्षनो मार्ग छै । ते लेखे भगवन्त देश अराधक को छै । तिवारे कोई अज्ञानी जीव इम कहे एतो देश आराधक को छै । ते मिध्यात्वीरी करणी से देश आराधक कह्यो छै, पिण मोक्ष मार्ग रो देश आराधक नहीं । तेहनो उत्तर—जो ए प्रथम भांगावाला बाल तपस्वी ने देश आराधक मुक्ति मार्ग नो न का तो बाकी तीन भांगा में अग्रती सम्यग्दृष्टि ने देश विराधक कह्या, ते पिण तेही करणी से कहिणो । मोक्ष मार्ग रो विराधक न कहिणो । अनें तीजे भांगे साधु ने सर्व आराधक को पिण तिण रे लेखे मोक्ष मार्ग रो सर्व
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकार।
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आराधक न कहिणो। ए पिण तिण री करणी रो कहिणो। अनें चौथे भांगे अनार्य ने सर्व विराधक कह्यो। ए पिण तिण रे लेखे अनार्य री करणी रो सर्वविराधक कहिणो। पिण मोक्ष मार्ग रो सर्वविराधक न कहिणो। अने जो या तीना ने मोक्ष मार्ग रा आराधक तथा विराधक कहे, तो प्रथम भांगे वाल तपस्वी ने पिण मोक्ष मार्ग रो देशआराधक कहिणो। ए तो प्रत्यक्ष पाधरो भगवन्ते कहो । जे साधु ने तो सर्वक्षराधक मोक्ष मागे नो क.यो. तिण रो देश मोक्ष रो मार्ग तपरूप बाल तपस्वी आराधे ते भणी बाल तस्थी नेमोक्ष मार्ग से देश आराधक कह्यो छ। अने जे अजाण कहे---तेजनी करणी रो देश अराधक कह्यो है। त विरुद्ध कहै छ। जे तेहणी करणी से तो सईआराधक है। जे पोता नी करणी रो देश आराधक किम हुवे। जे पोतारी करणी रो देशभरावक कहे ते अण विभास्या ना बोलण हारा छ। मद पीधां मतवालां नी परे बिना विचासां बोले छै। ए तो प्रत्यक्ष मोक्ष रो मार्ग तपरूप आराधे ते भणी देश अराधक कह्यो छै। भगवती नी टीका में पिण ज्ञान तथा सम्यक्त्व रहित क्रिया सहित बाल तपस्वी ने मोक्षमार्ग नों देश आराधक कह्यो छै। ते टीका लिखिये छ।
देसाराहाति-स्तोक मंशं मोक्ष मार्गस्याराधयती त्यर्थः ।
सम्यग्बोध रहितत्वात् क्रिया परत्वात् ।
एहनो अर्थ-स्तोक कहतां थोड़ो अंश मोक्ष मार्ग रो आराधे ते सम्यग्वोध ते सम्यग्दष्टि रहित छै। अने क्रिया कारवा तत्पर छै। ते भणी देश आराधक रह्यो । वली टीका में "सुयसंपण्णे" कहितां ध्रुत शव्दे ज्ञान दर्शन ने कह्यो छै। ते टीका लिखिये छ।
श्रुत शब्देन ज्ञान दर्शनयोर्गृहीतत्वात् ।
एहनों अर्थ-श्रुत शब्दे करि ज्ञान दर्शन बेहंनो ग्रहण करिये। इहां शान दर्शन में श्रुत कह्या छै ते श्रुते करी रहित कह्यां माटे मिथ्यावृष्टि, अने शील क्रिया सहित ते भणी देश आराधक कह्यो. एतो चौड़े मोक्ष मार्ग रो: अराधक कटीका में तथा बड़ा टत्रा में पिण कह्यो। अने इण करणी ने आज्ञा वाहिर कहे ते वीतराग
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भ्रम विध्वंसनम्।
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रा वचन रा उत्थापण हार छै। मृषावादो छै। एतला न्याय सूत्र अर्थ बतायां पिण न समझे तेहने कुमार्ग रो पक्षपात ज्यादा दीसै छै । दर्शन मोहरो उदय विशेष :छै। डाहा होय तो विचारि जोय जो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
वली प्रथम गुण ठाणा रो धणी सुपाल दान देइ परीत संसार करि मनुष्य मो आयुषो बांध्यो सुवाहुकुमार ने पाछिले भवे सुमुख गाथापति ई। ते पाठ लिखिए छै।
तेणं कालेणं. तेणं समएण. धम्म घोसाणं. थेराणं. अन्तेवासी. सुदत्तेनाम अणगारे. उराले जाव तेय लेसे. मासं मासेणं खममाणे विहरति । ततेणं से सुदत्ते अणगारे, मास खमण पारणगंसि. पढ़माए पोरसीए सज्झायं करेति जहा गोयम सामी. तहेब सुधम्मे थेरे. आपुच्छति । जाव अडमाणे सुमुहस्स. गाहावतिस्स. गिहं अणुपविटे. ततेणं से सुमुहे गाहावतो. सुदत्तं अणगारं एजमाणं. पास तिपासित्ता. हट्ठतु पासणाओ. अभुट्ठति २. पादपीठाओ पञ्चोरुहति। पाोयानोमुयइ. एग साडियं उत्तरा संगं करे ति २। सुदत्तं अणगारं सत्तट्ट फ्याइं पच्चू गच्छइ तिक्खुचो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २। वंदइ णमंसइ २ ता । जेणेव भत्त घरे तेणे व उवागच्छइ २ ता। सय हत्थेणं विउलेणं असण पाण खाइम साइम पडिलाभे सामीत्ति । तुट्टे ३ तत्तेणं तस्स सुमुहस्स तेणं दब्ब सुद्धणं तिविहेणं. तिकरण सुद्धणं
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकार।
२। सुदत्ते अणगारे पडिलाभए समारो संसारे परित्ति कऐ मनुस्साउए निवद्धे।
___ (विपाक सूत्र उन विपाक अध्ययन १ )
ते० तेणे काले तेणे समय. ध० धर्म घोषनामें. थे० स्थविर ने. प्र. समोप नों रहण हार. १० दत्तनामा भणगार. उ० उदार जा० यावतू गोपत्री सखी . तेज लेश्या. मा० ते मास मास खमण करतो. वि० विचरै छ। त० तिबारे पछे. हे ते सुदत्त नामे अणगार. मा० मास चमण ना पारणा ने विषय. ५० पहिली पौरसीइ. स० सम्माय करे. ज० जिम गोतम स्वामो.त. तिम. मु धर्मघोष बीजो नाम सधर्म. थे० स्थविर ने पूछी ने जा यावत् वलि गोधरी करतां म० सुमुख नामे. गा० गाथापति ने. गि० घर प्रवेश कीधो त० तिवारे ते. सु० मुमुख नामे गायापति सु० सुदत्त भणगार साधुने. १० भांवतां. पा० देखे. पा० देखी ने ६० हयों • सन्तोष पाम्यो थोघ्र पणे भासण थी. अ० उठै उठी नै पा० वाजोट थी हेठो उतरयो उतरी ने. पा० पगनी पानही मूकी ने. ए० एक शाटिक उतरासग कोषो करी ने. १० सुदत्त भणगार. H० सात भाठ पग साहमो पावै प्राचीने. ति० त्रिणवार श्रा० प्रदक्षिण पासा थी थारभी ने प्रदसिय करै करीने. वं० वांदे नमस्कार करै करीने. जे० जिहां, भ० भातघर छ त० तिहाँ उ० पाव्या भावोने. स० भापना हाथ थकी वहराव्या. अ० अशन पाण खादिम सादिम. ५० पहराव्या वहिराबीने तु० सतोषप्राण्यो. त० तिवारे समुख गाथापति. ते० ते. द० द्रव्य शुद्ध ते मनोश माहार १ दातारना शुद्ध भाव २ लेणहार पिण पात्र शुद्ध. ३ ति० तिहं प्रकार मन वचन काया करो ने. सुदत्त अणगार ने ५० प्रति नाभ्या थके समुख सं० संसार परीत कीधो. म० भने मनुष्य नो आयुषो वांध्यो.।।
. अथ इहां सुवाहु ने पाहिल भवे सुमुख गाथापति सुदत्त अणगार ने मावतो देखी अत्यन्त हर्ष सन्तोष पायो। आसन छोड़ उत्तरासन करी सात आठ पाउण्डा सामो आवी त्रिण प्रदक्षिणा देइ बन्दना मल्कार करी अनादिक वहिरावी ने घणो हो। तो एतलो विनत्र कियो इन्दना करी ए करणी आज्ञा पाहिरे किम कहिये। ए करणी अशुद्ध किम कहिये। ए तो प्रत्यक्ष भली शुद्ध निर्दोष आज्ञा माहिली करणी छै । वली अशनादिक देवे करी परीत ससार कियो । अनन्तो संसार छेदी मनुष्य नो आउयो वांध्यो, तो ए. अनन्तो संसार छेद्यो ते निदोष सुपात्र दाने करि, ए करणी अत्यन्त विशुद्ध निर्मली ने अशुद्ध किम कहिये । आज्ञा बाहिरे किम कहिये। ए तो प्रत्यक्ष प्रथम गुण ठाणे थकां ए करणी सू परीत संसार कियो मनुष्य नो आयुषो बांध्यो। सो सम्यग्दृष्टि हुवे तो देवता रो
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भ्रम विध्वंसनम् ।
आयुषो बांधतो । सम्यग्दृष्टि हुवे तो मनुष्य मरी मनुष्य हुवे नहीं। भगवती शतक ३ उद्देश्य १ कह्यो–सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यञ्च एक वैमानिक टाल और आयुषो बांधे नहीं अने इण सुमुखे मनुष्य नो आयुषो बांध्यो। ते भणी ए प्रथम गुण ठाणे हुन्तो ते दान ने-भगवन्त शुद्ध कह्यो छै। दातार शुद्ध, ते सुमुख ना तीन करण अनैं मन वचन कायाना ३ योग शुद्ध कह्या तो तिण ने अशुद्ध किम कहीजे ए करणी आशा बाहिरे किम कहीजे । ए शुद्ध करणी आज्ञा बाहिरे कहे ते आज्ञा बाहिरे जाणवा। केइ एक अज्ञानी कहै सुमुख गाथापति साधु ने देखतां सम्यग्दृष्टि पामी । ते सम्पग्दृष्टि सूं परीत संसार कियो। ते सम्यग्दृष्टि अन्तमुहूर्त में वमीने मनुष्य नो आयुषो बांध्यो । इम अयुक्ति लगावे ते एकान्त झूठ रा बोलण हार छै। इहां तो सम्यग्दृष्टि नो नाम कांइ चाल्यो नहि । इहां तो पाधरो कह्यो। सुपात्र दाने करी परीत संसार करी. मनुष्य नो आयुषो बाध्यो। पिण इम न कह्यो सम्यग्दृष्टि करी परीत संसार करि पछे सम्यग्दृष्टि वमी ने मनुष्य नो आयुषो वांध्यो। एतो मन सू गाला रा गोला चलाधै छै। सूत्र में तो सम्यग्दृष्टि रो नाम पिण चाल्यो नहिं तो पिण भारी कर्मा आपरा मन सूं इज खोरा मतरी टेक सूं सम्यग्दृष्टि 'पमावै अने वली वमा छ। ते न्यायवादी हलुककर्मी तो माने नहीं एतो प्रत्यक्ष उघाड़ो झट छै। ते उत्तम तो न माने । ए तो सुमुखे शुद्ध दाने करि परीत संसार करी मनुष्य नो आयुषो बांध्यों ते करणी शुद्ध छै आज्ञा माहि छै। अशुद्ध करणी सूं तो परीत संसार हुवे नहीं । अशुद्ध करणी सूं तो संसार बधे छै। साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
वली मेधकुमार रो जीव पाछिले भवे हाथी, सूसला री दया पाली परीतसंसार मिथ्यात्वी थके. कियो । ते पाठ लिखिये हैं।
___तएणं तुम मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाऐ ४ संसार परित्तीकए मणुस्साउए निवद्धे ।
(शाता अध्ययन १)
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
स० तिवारे तु तु. मे हे मेव ! ता० ते सुसला पा० प्राण भूत जीव सत्वनो अनुकम्पा करो. सं० संसार योगेवाको करणो रह्यो. म० मनुष्य नो अायुषो बांध्यो ।
अथ अठे ते सुसला प्राण. भूत. जीव. सत्व.री अनुकम्पा करी ने हाथी परीत संसार करी मनुष्य नो आयुषो बांध्यो कह्यो। ए पिण मिथ्यावृष्टि थके परीत संसार कियो। ते शुद्ध करणी आज्ञा में छ। सम्यगद्रष्टि हुचे तो मनुष्य नो मायुषो बांधे नहीं। सम्यगदृष्टि तिथंच रे निश्चय एक वैमानिक रो आयुषो बंधे। यहां को एक पापण्डो अयुक्ति लगावी कहै-तिण वेला हाथी ने उपशम सम्यक्त्व माज्या तिण सम्यगद्रुष्टि थी परीत संसार कियो । अन्तर्मुहूर्त में ते सम्यग्दृष्टि घमी ने मनुष्य नो आयुषो वांध्यो, एहवो झूठ बोले । इहां तो सम्यग्दृष्टि नो नाम चाल्यो नहीं। सूत्र में पाधरो कह्यो छ । जे सूसलारी दया थी परीत संसार करी मनुष्य मो आयुषो बांध्यो । पिण इम न कह्यो-जे सम्यग्दृष्टि थी परीत संसार करी पछे सम्यग्दृष्टि वमी ने मनुष्य नो आयुषो वांध्यो, पहवो बोल तो चाल्यो नहीं। वली मेघकुमार ने भगवन्ते कह्यो। हे मेघ ! ते तिर्यञ्च रा भव में तो सम्यक्त्व रत्न रो लाभ न पायो । जद पिण दया थी परीत संसार कियो तो दिवसानो स्यूं कहियो पहवो कह्यो । ते पाठ लिखिये छ ।
तंजइ ताव तुमे मेहा ! तिरिकत्र जोगाय भाव मुवागएणं अपडिलद्ध सम्मत्तरयण लभेणं से गए पाण्णाणु कंपयाए जाव अन्तरा चेव संधारिये णो चेवणं गिखित्ते कि मंग पुण तुमे मेहा ! इयाणिं बिपुल कुल समुद्भवणं ।
। ज्ञाता अध्ययन १)
सं० ते माटे सार प्रथम. ज. जो. त० तुमे. मे० हे मेघ ! ति तियंचनो गति नो भाष पाम्यो तिहां अन लाध्यो न पाम्यो. स० सम्यक्त्व रत्न नो लाभ से. ते. पा. प्राणी जो अनुकंपाए करी जा. ज्यां लगे. अ० पगरे बिचाले सुसला बैठो छै मो० नहीं निधय ऊपर पग मूक्यो मुसला उपर. कि तो किसू कहिवो. हे मेघ! इ. हिवड़ा वि. विस्तीर्ण F कुसरे विषे स. उपनो हे मेघ !
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भ्रम विध्वंसनम् ।
इहां श्री भगबन्ते इम कह्यो। हे मेघ ! ते तिर्यञ्च रे भवे तो “अपडिलद्ध" कहितां न लाध्यो “समत्त रयणं" कहिता सम्यक्त्व रत्न नों “लभेण" कहता लाभ । यहां तो चौड़े सम्यक्त्व वजी छै। ते माटे ते हाथी मिथ्यात्वो थके दया थो परीत संसार कियो। ते करणी शुद्ध छ । निरवद्य निर्दोष आज्ञा माहिली छ। केइ एक अजाण “अपडिलद्ध समत्तरयण लभेणं" ए पाठ नो ऊधो अर्थ करें छ। ते पाठ ना मरोडण हार छै। वली त्यांमें इज * दलपत रायजो प्रश्न पूछ्या तेहना उत्तर दौलतरामजी दीधा छ। ते प्रश्नोत्तर मध्ये पिण हाथी ने तथा सुमुख गाथापति ने प्रथम गुण ठाणे कह्या छै। वली ते प्रश्नोत्तर मध्ये दलपतराय जी पूछयो । “अपडिलद्ध सम्मत्तरयण लंभेणं" ए पाठ नो अर्थ स्यूं, तिवारे तेणे दौलतरामजी अर्थ इम कियो । “अपडिलद्ध" कहतां न लाध्यो “समत्तरयण लंभेणं" कहतां सम्यक्त्व रत्न रो लाभ, एहवो अर्थ कियो छै । ते अर्थ शुद्ध छ। के बिपरीत अर्थ करे ते एकान्त मृषावादी छै। तिवारे कोई इम कहै तुमे ए दौलतराम जी रो शरणो किम लेवो छो । तुम्हें तो तिण दौलतरामजी ने मानो नहीं। ते माटे तेहनी नाम किम लेवो । तेहनो उत्तर-भगवती शतक १८ उ० १० कह्यो । जे सोमल ब्राह्मण श्री महावीर ने पूछ्यो, हे भगवन् ! सरिसव ( सर्षप ) भक्ष्य के अभक्ष्य तिवारे भगवान् बोल्या। “से गणं भे सोमिला बम्हण ! एसु दुविहा सरिसवा प० तं मित्त सरिसवाय. धण्ण सरिसवाय" एहनो अर्थ- “सेणूणं" कहितांते निश्चय करि “भे" कहतां तुम्हारा “वम्हण" कहतां ब्राह्मण संबंधिया शास्त्र ने विषे सरिसबना बे भेद प्ररूप्या । इहां भगवान् कह्यो, हे सोमिल ! तुम्हारा ब्राह्मण संबन्धिया शास्त्र ने विषे सरिसबना दो भेद कह्या। मित्र सरिसव-धान सरिसव पछे तेहना भेद कह्या, इम मासा कुलथारा पिण भेद तेहना शास्त्र नो नाम लेइ बताया तो तेणे श्री महावीरे ते ब्राह्मण नो मत मान्यो नथी । पिण तेहमा शास्त्र थी बताया, ते अनेरा ने समझावा भणो । तिम इहां दौलतरामजी रो नाम लेइ पाठरो अर्थ बतायो। ते पिण तेहनी श्रद्धा वालांने समझावा भणी। अने जे
ॐ ये दलपतरायजी. और दौलतरामजी. कोटाबन्दीके आसपास बिचरने वाले बाइस सम्प्रदायके साधु थे। इनर्की बनाई हुई १ प्रश्नोत्तरी है। उसका हो यह १३८ वा प्रश्न है। पूर्ण तया ये विदित नहीं है कि ये प्रश्नोत्तरी छपी हुई है वा नहीं।
“संशोधक"
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मिथ्यात्व क्रियाऽधिकारः ।
न्यायवादी होसी ते तो सूत्र नो वचन उथापे नहीं । अते अयायवादी सूत्र नो for वचन उद्यापतो न शंके अने तेहना बड़ेरां ने पिग उथापने हाथी ने सम्यक्त्व थारे है। ओक विरुद्ध अर्थ करतां शंके नहीं । तेहनें परलोक में पिग सम्पादृष्टि पायी दुर्लभ है। डाहा होवे तो विचारि जोइजो १
इति ३ बोल सम्पूर्ण
वी शाल पुत्र भगवान् ने बांधा । ते पाठ कहे छै ।
तर से सद्दालपुत्ते आजीविय उवासय इमीसे कहाए लख समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरंति तं गच्छामि सम भगवं महावीरं वंदामो नमसामी जाव पज्जुवासामि एव संपेहति २ चा रहाए जाव पायव्छित्त शुद्धपवेसाई जाव अप महध्या भराणालंकीय सरीरे मरणस्स वरा परिगते सातो गिहातो पडिनिगच्छति २ त्ता पोलासपुर नगरं ममलं निगच्छति २ चा जेणेव सहस्सं
अजाणे जेणेव समणे भगवं महाबारे तेणेव उवागछ २ ता । तितो याहीणं पयाही करेइ २ चंदइ २ गमंसइ २ जाब पज्जुवासइ ।
( उपासक दशा अध्ययन
० तिवारे से० ले स० शेकडाल पुत्र च्या० आजीविका उपासक. ए० एह (भगवन्त ना पधारनेरी) कथा (वार्ता) ० सांभली ने बिचार करे छे. ए० ए ख० निश्वय. स० श्रमण. भगवान् महावीर पवारया दे तं ते माटे. ग० जाबू स० श्रमण भगवान् महावीर ने वांद्रेन नमस्कार करू. यावत् प० पर्युपासना (सेवा) करूं. ए० इम. सं० विचार करे. विचार करो में गहा० न्हांव्यो यावत् शुद्ध हुवो सुन्दर स्थान ने विषे प्रवेश करवा योग्य. यावत्.
भारवन्त श्रनं बहुमूल्य वन्त बबाल डारे करी सुशोभित है शरीर जेहनों एहवो के म
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भ्रम विश्वसनम् ।
मनुष्य ना परिवार सहित. सा० आपने. गि० घरसू. निकले. नि० निकली ने. पो• पोलासपुर नगरमा. म. मध्यो मध्य थई. जाधे. जावी में. जि० जिहाँ स. सहस्त्राम्ब उद्यान में विषे. जे. जिहाँ. स० श्रमण भगवन्त श्री महावीर. ते तिहां. उ० पाव्या भावीने. ति त्रिणवार डावा पासा थकी लेइने. ५० जीमण पासे प्रदक्षिणा. क० करै करी ने०. व० बांद. य. नमस्कार करे वांदो ने नमस्कार करीने जा० यावत सेवा भक्ति करतो हुवे ।
अथ अठे कह्यो, शकडाल पुत्र गोशाला रो श्रावक मिथ्यात्वी हुन्तो । तिवारे भगवान ने त्रिण प्रदक्षिणा देइ बंदणा नमस्कार कीधी । ए वदणारी करणी शुद्ध के अशुद्ध । ये शुभ योग रूप करणी छै के अशुभ योग रूप करणी छ । ए करणी आज्ञा मांही छै के वाहिरे हैं। ए तो साम्प्रत निरवद्य छै, आज्ञा मांहि छै, शुद्ध छ, अशुद्ध कहै छै ते महा मूर्ख जाणवा । डाहा हुवे तो बिचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
वली मिथ्यात्वी ने भली करणी १ लेखे सुती कह्यो छ । ते पाठ लिखिये छ।
वेमायाहिं सिक्खाहिं जेनरा गिहि सुब्बया । उति माणसंजोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥
(उत्तराध्ययन. अध्यन ७ गाथा २० )
. वे जे मनुष्य योनि माहि अनेक प्रकारे. सि० भद्रपणादिक शिष्याइ. जे जे मनुष्य गि० ग्रहस्थ छतां. सु० सुव्रती. उ० पामै उपजे. मा० मनुष्यनी योनि. क० कर्म ते करणी. स० सत्य बचन. वोले दयावन्त एहबा. पा० प्राणी हुई ते मनुष्य पणु पामें ।
अथ इहां इम कह्यो। जे पुरुष गृहस्थ पणे प्रकृति भद्र परिणाम क्षमादि गुण सहित एहवा गुणा ने सुव्रती कहा। परं १२ व्रत धारी नथी । ते जाव मनुष्य मरि मनुष्य में उपजे । एतो मिथ्यात्वी अनेक भला गुणां सहित ने सुव्रती कह्यो। ते करणी भली आज्ञा माहीं छै। अने जे क्षमादि गुण आज्ञा में नहीं हुवे तो सुव्रती क्यूं कह्यो । ते क्षमादिक गुणारी करणी अशुद्ध होवे तो कुब्रती कहता।
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मि यात्वि क्रियाऽधिकारः।
ए तो सांप्रत भली करणी आश्रय मिथयात्वी ने सुव्रती कह्यो छ । अने जो सम्यग्दृष्टि हुवे तो मरी ने मनुष्य हुवे नहीं। अने इहां कह्यो ते मनुष्य मरी मनुष्य में उपजे ते न्याय प्रथम गुण ठाणे छै। तेहनें सुव्रती कह्यो। ते निर्जरा रो शुद्ध करणी आश्रय कह्यो । तेहने अशुद्ध किम कहोजे। डाहा हुवे तो विचारि जोजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक एड्व कहे-जे सम्यगदृष्टि मनुष्य तिर्यञ्च एक वैमानिक टाल और आयुषो न वांधे। ते पाठ किहां कह्यो छै। ते सूत्र पाठ लिखिये छै ।।
मय पजव णाणीणं भत्ते पुच्छा. गोयमा ! णो नेरइया उयं पकोति णो तिरिक्ख जोणिया णोमणस्स देवा उयं पकरेन्ति जइ देवा उयं पकरेन्ति किं भवन वासि पुच्छा गोयमा ! णो भवनवासि देवा उयं पकरन्ति णो वाणमन्तर णो जोतिसिय. वेमाणिय देवा उयं पकरेन्ति ।
. (भग श० ३० उ०१)
म० मन पर्यवज्ञानी नी. भ. हे भगवन्त ! पु० पृच्छा. हे गौतम ! णो० नारकी ना प्राथुषा प्रते करे नहीं. णो नहीं तियंचना आयु प्रते करे णो नहीं मनुष्य नो प्रायु प्रते करे. दे देवता वायु प्रते करे, तो कि० कि सू भवनवासो देव श्रायुः प्रते करे ए प्रश्न. हे गौतम ! णो० नहीं भवनवासी आयु प्रते करे. णो नहीं व्यन्तर देव आयुः प्रते करे. णो नहीं ज्योतिषो देव प्रायु प्रते करे. वे वैमानिक देव प्रायु प्रते करे ।
इहां मन पर्यव ज्ञानी एक वैमानिक नो आयुषो बांधे. ए तो मन पर्याय ज्ञानी नो कह्यो। हिचे सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च आयुषो वांधे. ते पाठ लिखिये छ।
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भ्रम विध्वसनम् ।
किरिया वादीणं भंते ! पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया किं णेरइया उयं पकरेन्ति पुन्छा गोयमा ! जहा मणपज्जवणाणी।
(भग श०३० उ०१)
कि० क्रियावादी. भ. हे भावन्त पं० पंचेन्द्रिय तियंच योनिया किं० स्यू नारको ना आयुगे प्रते करे. हे गौतम ! ज० जिम. मनपर्यव झानो नो परे जाणवा ।।
. इहां क्रियावादी ते सम्यग्दृष्टि ने कह्यो छ। ते माटे क्रियावादी ते सम्यद्विष्टि रे आयुषा रो बंध मन पर्याय ज्ञानी ने कह्यो । ते इण रे पिण बंधे इम कह्यो ते भणी सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च पिण वैमानिक रो आयुषो बांधे और न वांधे। हिवे सम्यग्दृष्टि मनुष्य किलो आयुयो वांधे ते पाठ लिखिये छै। .
जहा पंचिन्दिय तिरिक्ख जोणियाणं. वत्तम्बया भणिया. एवं मणस्साणवी वत्तव्वया भाणियब्वा. णवर मणपजवणाणी. णो सरणावउत्ताय. जहा सम्मदिट्ठी तिरिक्ख जोणिया तहेव भाणियबा ।
(भगवत्ती शतक ३० उद्दे०१)
ज: जिम. ५० पंचेन्द्रियः ति० तिथंच योनिया नो. ३० वक्तव्यता. भ० भणी है. ए इममा म तुष्य नी पिण भणवो. ण एतलो विशेष. न. मन पर्पत्र ज्ञानी. णो नहीं संज्ञोपयुक्त ज. जिम सम्यग्दृष्टि. तिथंच योनियानीपरे. भ० कहिवा ।
___ अथ क्रियावादी सम्पगन्दष्टि मनुष्य तिर्यञ्च रे एक वैमानिक रो बंध कह्यो भौर आयुगो बांधे नहीं इम कह्यो । ते माटे सुमुख गाथापति तथा हाथी तथा सुबती मनुष्य इहा कह्या ते सर्व में मनुष्य ना आयुषा नो बंध करो। ते भणी ए सर्व सम्यग्दृषि नहीं । ते माटे मनुष्य नो आयुषो बांधे छै । सम्यग्दृष्टि हुवै तो वैमानिक रो बंध कहता।
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मिथधात्वि क्रियाऽधिकारः।
कई अज्ञानी इम कहे । मिथ्यात्वी ने एकान्त वाल कह्यो। जो तेहनी करणी आहामाही होवे तो तेहने एकान्त वाल क्यूं कह्यो । तत्रोत्तर --जो एकान्त बालनी करणी आज्ञा वाहिरे हुवे तो अव्रती सम्यगदृष्टि ने पिण एकान्त बाल कहीजे भगवती श० ८ उ० ८ एकान्त वाल एकान्त पंडित अने वाल पंडित ए तीन भेद समचे कया छ। तिहां संसार रा सर्व जीव तेह तीन भेदां में विचार लेवा । एकान्त पंडित ते साधु छठा गुण ठाणा थी चौदमा ताई सर्व व्रत माटे एकान्त पंडित । एलान्त बाल पहिला गुण ठाणा थी चौथा गुण ठाणा सुधी सर्वथा अव्रत माटे एकान्त वाल । बाल पण्डित ते श्रावक पांचमे गुण ठाणे कांयतो ब्रत कायक भात ते भणो वाल पण्डित। इहां बाल नाम मिथ्यात्व नो नहीं, वाल नाम मिथ्यात्वनो हुवे सो श्रावकने बाल पण्डित कह्यां माटे श्रावकरे पिण मिथ्यात्व हुवे । मने श्रावक रे मिथयात्व री क्रिया भगवन्ते सर्वथा प्रकारे वर्जी छै । ते भणी बाल नाम मिथयात्व नो नहीं । ए बाल नाम अत्रत नो छै। अने पण्डित नाम व्रत नो छ। ते एकान्त वाल तो चौथा गुण ठाणा सुधी छै। तिहां किञ्चिन्मात्र व्रत नहीं छ। ते भणी सम्यगद्रष्टि चौथा गुण ठाणा रा धणो ने पिण एकान्त बाल कहोजे । जो एकान्त बालनो करणी आज्ञा बाहिरे कहे तिणरे लेखे अव्रती शीलादिक पाले सुपात्र दान तप साधां ने बन्दनादिक भली करणी करे, ते सर्व करणी आशा वाहिरे कहिणो । एकान्त बाल कह्या ते तो किश्चिन्मात्र व्रत नहीं ते आश्रय कया, पिण करणी आश्रय एकान्त बाल न कह्या छै । करणी आश्रय बाल कहें ते महा मूर्ख जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक इम कहे-जे अन्य मती मास २ क्षमण तप करे, ते सम्यगदृष्टि रा धर्म रे सोलमी कला पिण न आवे । श्री भगन्ते इम कह्यो छ । ते भणी ते मिथयात्वी नी करणी सर्व आज्ञा वाहिरे छै । ते गाथा न्याय सहित
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भ्रम विध्वंसनम् ।
मासे मासे तुजो वालो कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुयक्खाय धम्मस्स कलं अन्यइ सोलसिं॥
( उत्तराध्ययन. अध्ययन गाथा ४४ )
मा० मासे मासे निश्चय निरन्तर. जो कोई बाल अविवेकी. कु. डाभ ने अग्रे भावे सेतलाज भन्न नो पारणो. भु० भोगधे करे तोही पिण. न० नहीं. सो० ते अज्ञानी नो तप. सु० भलू तीर्थकरादिके-भ० पारव्यातो कह्यो सर्व प्रत रूप चारित्र. ध० जे धर्म ने पासे क० कलायें अर्धे नहीं सोलमी ए ।
अथ इहां तो मिथयात्वी नो मास २ क्षमण तप सम्यग्दृष्टि ना चारित्र धर्म ने सोलमी कला न आवे एहवू कह्यो छै। ते चारित्र धर्म तो संवर छै तेहने सोलमी कलाई न आवे कयो। ते सोलमी कला नो इज नाम लेइ वतायो । पिण हजारमें इ भाग न आवे । तेहने संवर धर्म छै इज नथी । पिण निर्जरा धर्म आश्रय कह्यो नथी। तिवारे कोई कहै ए मिथयात्वी नो मास क्षमण सम्यग्दृष्टि रा निर्जरा धर्म ने सोलमे भाग नथो । इम निर्जरा धर्म आश्रय कह्यो छै। तो तिण रे लेखे सम्यग्दृष्टि रा निर्जरा धर्म रे सोलमे भाग न आवे । तो सतरमे भाग तो भावे । जो सम्यग्दृष्टि रा धर्म रे सतरमे भाग तेहना मास क्षमण हुवे तो तिणरे लेखे पिण आज्ञा में ठहर गयो । पिण एतो संवर चारित्र धर्म आश्रय कह्यो छ । ते चारित्र धर्म रे कोडमें ही भाग न आवे । पिण सोलमा रो इज नाम लेइ बतायो छै । वली उत्तराध्ययन री अवचूरी में पिण चारित्र धर्म रे सोलमे भाग न आवे इम कह्यो । पिण निर्जरा धर्म आश्रय न कह्यो । ते अवचूरी लिखिये छै ।
"न इति निषेधे स एवंविध कष्टानुयायी। सुष्टुः शोभनः सर्व सावध विराति रूपत्वा दाख्यातो जिनः स्वाख्यातो धर्मो यस्य स तथा तस्य चारित्रण इत्यर्थः कला भागम्-अर्घति अर्हति षोडशी ।" ।
इहां अवचूरी में पिण इम कह्यो। मिथयात्वी नो मास क्षमण तप चारित्र धर्म सर्व सावद्य ना त्याग रूप धर्म ने सोलमी कला पिण न आवे । पिण निर्जरा आश्रय न कह्यो । जे मिथयात्वी मास २ क्षमण करे। पिण तेहने चारित्र धर्म
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সিৰি দিগিন্ধা।
म कहिये । निर्जरा धर्म निर्मल छै । ते करणी तपस्या शुद्ध छ, आज्ञा माहि छ । पं. निर्जरा धर्म ने आज्ञा बाहिर कहे ते आज्ञा वाहिरे जाणवा । डाहा हुवे तो विवारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
- वली केइ पहिला गुण ठाणा धणी री करणी आज्ञा वाहिरे थापवा "सूयगडाङ्ग" रो नाम लेइ कहै छै । जे प्रथम गुण ठाणे मास २ क्षमण तप करे तिन सू अनन्ता जन्म मरण वधावे, ते भणी तेहनो तप आज्ञा वाहिरे छै। इम कहे ते गाथा रो न्याय कहै छै ।
जइ विय णिगणे किसेचरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो॥ जे इह मायाइमिजइ, आगन्ता गब्भायणंतसो ॥
(सूयगडाग. श्रुतस्कंध १ अ० २ उ०१ गाथा ६ )
... ज० यदपि पर तीथि तापसादिक तथा जैन लिंगी पासत्थादिक. णि नग्न सब बाह्य परिग्रह रहित कि० दुर्बल छतो. च० बिचरे. ज० यर्दाप तर घणों करे. भु. जीमे. मा. मास सामने. मं० अन पारणो करे , जीवे त्यां लगे. जे कोई. इ० संसार ने विषे. मा० माया सहित. मि. संयोग करे बुगल ध्यानी ने माया नो फल कहै छै प्रा० से आगमीये काले गर्भादिक ना दुःख पामस्ये गं. मगन्त संसार परि भ्रमण करे । - अथ इहां केई कहै-ते बाल तपस्वी मास २ क्षमण तप करे तो पिण अनन्त जन्म मरण कह्या। अने ए करणी आज्ञा में हुये तो अनन्त जन्म मरण क्यूं कहा। तेहनो उत्तर-इहां सूत्र में तो इम कह्यो । जे मास ने छेड़े भोगवे, तो पिण माया करे, ते माया थी अनन्त संसार भमे, ए तो माया ना फल कह्या है, पिण तपने खोटो कह्यो नथी। इहां तो अपूठो तपने विशिष्ट कह्यो छै। ते किम-जे मास क्षमण करे तो पिण माया थी संसार भमे । ए मास क्षमण री करणी शुद्ध छै तिणसू इम कह्यो छै भने तेहनो तप शुद्ध न होवे तो इम क्या में
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भ्रम विलसनम् ।
कहता “ए मास क्षमण इसी करणी करे तो पिण माया थी रुले" इहां माया में अत्यन्त खोटी देखाड़वा तेहनी शुद्ध करणी रो नाम कह्यो, अने माया थी गर्भाः दिकना दुःख कह्या छै । अने तेहना तप थी तो दुःख हुवे नहीं । तेहना तप थी पुण्य तो ते पिण कहै छै । अने पुण्य थको तो दुःख पामे नहीं । अर्ने इहां अनन्त दुःख कह्या. ते तो माया ना फल छै, परं तपस्या ना फल नहीं, तपस्या तो निरवद्य छै। तिवारे कोई कहै—ए आज्ञा माहिली करणी छै, तो मोक्ष क्यूं वजों तेहनो उत्तर-पहने श्रद्धा ऊधी ते माटे मोक्ष नथी । परं मोक्ष नो मार्ग वज्यों नथी। जे अव्रती सम्यग्दृष्टि ज्ञान सहित छ, तेहने पिण चारित्र विण मोक्ष नथो। परं मोक्ष नो मार्ग कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक इम कहै । जे मिथ्यात्वी ना पचखाण (प्रत्याख्यान ) दुपचखाण ( दुष्प्रत्याख्यान ) कह्या छै। तेहनी करणी जो आज्ञा में हुवे तो ते दुपचखाण क्यूं कह्या। तेहनो उत्तर-दुपचखाण कह्या ते तो ठीक छै। जे जीप. अजीव. बस. स्थावर. ने जाणे नहीं । अनें सर्व जीव हणवारा त्याग किया, ते जीव जाण्यां बिना किण ने न हणे, केहना त्याग पाले। जे जीव ने जाणे नहीं, जीव हणवारा त्याग करे ते किम पाले । ते न्याय दुपचखाण कह्या छै। ते पाठ लिखिये छै। __ सेणणं भंते ! सब्ब पाणेहिं. सब्ब भूएहिं सब जीवेहिं. सब सत्तेहिं. पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ तहा दुपञ्चक्खायं गोयमा! सब पाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पञ्चक्खाण मिति वदमाणस्स सिय सुपञ्चक्खार्य भवइ. सिय दुपच्चखायं भवइ । सेकेण?णं भंते ! एवं वुच्चइ सब्ब पाणेहिं जाव सबसत्तेहिं जाव सिय दुपच्चक्खायं भवइ। गोयमा! जस्सणं सब पाणेहिं जाव सब्ब सत्तेहिं पञ्चवखामिति वद
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मिथयात्वि क्रियाऽधिकारः।
माणस्य नो एवं अभि समण्णागयं भवइ-इमे जीवा. इमे अजीवा. इमे तसा. इमे थावरा. तस्सणं सबपाणेहिं जाव सब्वसत्तेहिं पच्चक्खाय मिति वदमाणस्स नो सु पच्चक्वाय दुपच्चक्खायं भवइ ।
(भगवती श० ७ उ० )
से ते. भगवन् ! स. सर्व प्राण. स. सर्व भूत. स. सर्व जीव. सर्व सत्व में विषे प्रत्याख्यात. मि० इम कहिण वाला ने. सु० सुप्रत्याख्यान हुई. त० अथवा दु० दुष्प्रत्यास्थान हुइ'. गो० हे गौतम ! स. सर्व प्राण. भूत. जीव. सत्व. में विषे. ५० प्रत्याख्यान है मि इम कहिस वाला ने. सि ववित. सु० सुप्रत्याख्यान हुई. सि० क्वचित. दु० दुष्प्रसिख्यान हुई. से० ते के कौण कारण. भ. हे भगवन् ! ए० इम कहिइ. स. सर्व प्राद. भूस सत्व. में विषे. जा० यावत् क्वचित सुप्रत्याख्यान. सि० क्वचित् दुष्प्रस्वाख्यान भ० हुई. हे गौतम ! ज० जेहनें. स. सर्व प्राण साथे. जा० यावत्. स० सर्वसत्व सायें. ५० पचखाण मि० एहदू'. व० कहते छते. नो० नहीं. ए० एहवू. अ० जाण्यू हुई शावें करीने. इ० ए जीव इ० ए अजीव. इ० ए स. इ० ए स्थावर. त० तेहनें. स० सब प्राथ साथे. जा. यावतू सर्व सत्य साथे. पवख्यू. मि० इम. व० कहतांने नो० नहीं. सु पखाण हुइ. दु० दुपच्खाण हुई।
. अथ अठे तो इम कह्यो जे जीव. अजीव. स. स्थावर. तो जाने नहीं, अनें कहै-म्हारे सर्व जीव हणवारा त्याग छ। ते जीव जाण्यां बिना किणनें न हने, केहना त्याग पाले । ते न्याय-मिथ्यात्वी ना दुपचखाण कह्या छै । तथा चली मिथ्यात्वी बस जाण ने उस हणवारा त्याग करे तेहने संवर न हुवे, ते माटे दुपरस्त्राण कहीजे। पचखाण नाम संवर नो छै । तेहनें संवर नहीं। ते भणी तेहना पचखाण दुपचखांण छै । पिण निर्जरा हो शुद्ध छ । ते निर्जरा रे लेखे निर्मल पचखाण छै। मिथ्यात्वी शीलादिक आदरे, से पिण निर्जरा रे लेखे निर्मल पचखाण छै । तेहना शीलादिक आज्ञा माहीं :जाणवा । जाहा हुवे तो विचारि जोईजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
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-भ्रम विध्वंसनम् ।
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__ वली केइ ऊधो तर्क सूं पूछे। जे प्रथम गुगठाणे शील व्रत नोपजे के नहीं । तेहनें इम कहिणो-अव्रती सम्पग्दृष्टि त्याग बिना शील पाले तेहने शीलबत निपजे कि नहीं। जब कहै तेहनें तो व्रत निपजे नहीं, निर्जरा धर्म हुवे छै। तो जोवौनी जे अब्रती सम्यग्दृष्टिरे त्याग बिना शीलादिक पाल्यां व्रत निपजे नहीं तो मिथयात्वी रे ब्रत किम निपजे । जिम अव्रती सम्यग्दृष्टि रे शीलादिक थी घणी निर्जरा हुवे छ। तिम प्रथा गुण ठाणे पिण सुपात्र दान देवे. शील पाले. दयादिक भली करणी तूं निर्जरा हुवे छै । तिवारे कोइ कहै-जे चौथा गुणठाणा रोधणी शीलादिक पाले, प्राणाति पातादिक आश्रव टाले, एहवो किहां कह्यो छै। तेहनो उत्तर–श्री महावीर दीक्षा लियां पहिला बे वर्ष झाझरा ( अधिक) घरमें रह्या । पिण विरक्त पणे रह्या, काचो पाणी न भोगव्यो। पहy कह्यो ? ते पाठ लिखिये छ।
अवि साहिये दुवेवासे सीतोदं अभोच्चा णिक्खन्ते एगन्तगएपिहि यच्चे से अहिन्नाय दंसणे सन्ते ।
___(आचारांग श्रु० १ ० ६ गा० ११ )
अ० झाझरा. दु० वे वर्ष गृहवास में विषे. सो० काचो पाणी न पोधो. णि गृहवास छोड़ी ने. ए० तथा गृहवास थकां एकत्व पणो भावतां. पि० क्रोधादिक थकी उपशान्त तथा. से० ते तीर्थकर अ० जाण्यो छै. त० ते ज्ञान सम्यक ते करी पोताना आत्माने भावे. इन्द्रिय नो इन्द्रिय करी प्रशान्त । ...
.
अथ अठे कह्यो भगवान् श्री महावीर स्वामी दीक्षा लियां पहिला माझा ( अधिक ) दो बर्ष ताइ विरक्त पणे रह्या। सचित्त पाणी भोगव्यो नहीं तो त्यारे व्रत तो हुवे नहीं । पिण निर्जरा शुद्ध निर्मल छै । तो जोवोनी चौथे गुणठाणे पिण व्रत नहीं तो प्रथम गुणठाणे व्रत किम हुवे । डाहा हुवे तो विचारि जोईजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण।
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
प
.... , केतली एक कहै--मिथ्यादृष्टि ने आज्ञा बाहिरे कहीजे। तिवारे तेहनी करणी पिण माझा वाहिरे छै । मिथयात्वी अने मिथयात्वी रो करणी एक कही, ते ऊपर कुहेतु लगावो कहै- “अनुयोग द्वार" में कह्यो छै, गुण अनें गुणीभूत एक है। तिण न्याय मिथयात्वी अनें मिथ्यात्वी री करणी एक छ, आज्ञा वाहिरे है। इम कहे तत्रोत्तरं-इम जो मिथ्यात्वी अनें मिथयात्वो नी शुद्ध करणी एक हुवे आशा वाहिरे हुवे तो सम्यग्दृष्टि अनें सम्यग्दृष्टि नी अशुद्ध करणी ए पिण तिणरे लेखे एक कहिणी । इहां पिण गुण अनें गुणीभूत नो न्याय मेलणो। अनें जो सम्यग्दृष्टि ना संग्राम. कुशीलादिक. ए अशुद्ध करणी न्यारी गिणस्यो, आज्ञा वाहिरे कहिस्यो, तो प्रथम गुणठाणे मिथ्यात्वी रा सुपात्रदान. शीलादिक ए पिण भला गुण आज्ञा माहीं कहिणा पड़सी।
वली केतला एक "सूयगडाङ्ग" रो नाम लेइ प्रथम गुणठाणा रा धणी री करणी सर्व अशुद्ध कहे । तेहना सुपात्र दान. शील. तप. आदिक ने बिषे पराक्रम सर्व अशुद्ध कर्म बन्धन रो कारण कहे । ते गाथा लिखिये छ ।
जेया बुद्धा 'महाभागा वीरा असमत्त दंसिणो । अशुद्धं तेस्सिं परक्कंतं सफलं होइ सम्बसो ॥
(सूयगडाङ्ग श्रुतस्कंध १ अध्ययन ८ गाथा २३ ) ..
- जेजे कोई. अवु. अबुद्ध तत्व ना अजाण छै. म०परं लोकमांहे ते पूज्य कहिवाई वो० वीरसुभट कहियाई एहवा पिण. अ० असम्यक्त्व, ज्ञान दर्शण विकल देवगुरु धर्म न जानें. म अशुद्ध तेहनों जे दान शील तप आदि अध्ययनादि विषे उद्यम पराक्रम. स० संसार ना पाल सहित. हो हुई. स. सर्वथा प्रकारे कर्म बन्धन रो कारण परं निर्जरा रो कारण नथी।
. अथ अड़े, तो इम कह्यो --जे तत्व ना अजाण मिथयात्वी नो जेतलो अशुद्ध पराक्रम छ, ते सर्व संसार नो कारण छै । अशुद्ध करणी रोकथन इहां कह्यो । भनें शुद्ध करणी रो कथन तो इहां चाल्यो नथी। वली ते मिथयात्वी ना दान शीलादिक अशुद्ध कह्या । तेहनो न्याय इम छै- अशुद्ध दान ते कुपात्र ने देवो. कुशील ते खोटो आचार. तप ते अग्नि नो तापवो. भावना ते खोटी भावना.
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भ्रम विध्वसनम् ।
भणवो ने कुशास्त्रनो. ए सर्व अशुद्ध छै, ते कर्मबन्धन रा कारण छै। पिण सुपाल दान देवो. शील पालवो. मास खमणादिक तप करवो. भली भावनानुभाविवो. सिद्धान्त नो सुणवो. ए अशुद्व नहीं छै, ए तो आशा माही छै । अनें जो तेहनी सर्व करणी अशुद्ध हुवे तो तिणरे लेखे सम्यग्दृष्टि री सर्व करणी शुद्ध कहिणी । तिहाँ इज दूजी गाथा इम कही छै ते लिखिये छ ।
जेय वुद्धा महाभागा वीरा समत्त दंसिणो । शुद्धं तेस्सिं परकन्तं अफलं होइ सब्बसो ॥
(सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० ८ गा० २४ ) ..
, जे जे कोई. बु० तीर्थकरादि. म० महा भाग्य पूज्य तथा. वी० वीर कर्म विदारवा समर्थ स० सम्यग्दृष्टि एहवानों जेतला अनुष्ठान ने विषे उद्यम ते. अ० सर्व प्रकारे संसार ना फल रहित ते अफल कर्म बंधनो कारण नथो किन्तु निर्जरा रो कारण ।
: अथ इहां सम्यग्दृष्टि रो शुद्ध पराक्रम छ. सर्व निर्जरा नो कारण है. पिण संसार नो कारण नथी. इम कह्यो। इहां सम्यग्दृष्टि रे अशुद्ध पराक्रम रो कथन चाल्यो नथी। जो मिथ्यावृष्टि रो पराक्रम सर्ब अशुद्ध हुवे तो सम्यग्दृष्टि रो पराक्रम सर्व शुद्ध कहिणो, त्यारे लेखे तो सम्यग्दृष्टि कुशीलादिक. संग्राम. वाणिज्य व्यापार. अनेक पाप करे ते सर्व शुद्ध कहिणा । अनें सम्यग्दृष्टि रा सावध कुशीलादिक ने अशुद्ध कहे तो मिथयात्वी रा निरवद्यदान शीलादिक पिण अशुद्ध होवे नहीं । ए तो पाधरो न्याय छ । मिथयात्वी रो मिथ्यात्वपणा नो पराक्रम अशुद्ध छ, अनें सम्यग्दृष्टि नो सम्यग्दृष्टि पणानो भलो पराक्रम शुद्ध छ । मिथ्यात्वी नी अशुद्ध करणी रो कथन अने सम्यग्दृष्टि नी शुद्ध करणी रो कथन तो इहां चाल्यो छ । अनें मिथ्यात्वी नी शुद्ध करणी नो कथन अनें सम्यग्दृष्टि री अशद्ध करणो रो कथन इहां चाल्यो नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोईजो। '
-
इति ११ बोल सम्पूर्ण ।
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
२३
3.........
केतला एक पाखंडी कहे-सम्यग्दृष्टि कुशीलादिक अनेक सावध कार्य करे ते सर्व शुद्ध छ। सम्यगदृष्टि में पाप लागे नहीं। सम्यगदृष्टि ने पाप.लागे तो ते सम्यगदृषि रो-पराक्रम शुद्ध क्या ने कहै । तत्रोत्तर-जो सम्यगद्रष्टि ने पाप लागे नहीं तो भगवान महावीर स्वामी दीक्षा लीधी जद इम क्यूं कह्यो “जे हूं आज थकी सर्व पाप न करू" इम कही चारित्र पटिवजो छै । ते पाठ लिखिये छ।
.. . ..
तओणं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दहिणं वामेण वामं पंचमुट्टियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोकारं करेइ करेत्ता “सब्बं मे अकरिणिज्ज पापकम्म” तिकटु सामाइयं. चरितं. पड़िवजइपड़िवजइत्ता ।
(श्रावारांग. अ०१५)
स० तिवारे. स० श्रमण भगवन्त महावीर दा० जीमणे हाथसू. दा० जीमणे पासा रो. पा० डावा हाथ सू डावा पासा रो. ५० पंचमुष्टिक लोचकरो में. सि. सिद्धां नें. . नमस्कार की करीने स० सर्व. मे मुझने. अ० करनो योग्य नथी. पा० पाप कर्म. ति० इम करीने. सा० सामायक. च० चारित्र. ५० पड़िबज्ने आदरे. ५० अादरी ने तिण अवसरे ।
अथ इहाँ भगवन्त दीक्षा लेतां कह्यो--"जे आज थकी सर्वथा प्रकारे पाप मोने न करिवो" इम कही सामायक चारित्र आदलो। जो सम्यग्दृष्टि में पाप लागे नहीं तो भगवन्त सम्यग्दृष्टि था जो आगे पाप लागतो न हुन्तो तो “है आज पकी सर्व पाप न करू" इम कहिवारो कांइ काम । डाहा हुचे तो विचारि जोईजो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा सम्यग्दृष्टि ने पाप लागे ते वली सूत्र पाठ लिखिये छै ।
- अणुत्तरोववाइयाणं भंते! देवा केवइएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइय देवत्ताए उववण्णा । गोयमा! जाव इये छ? भत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवं इएणं कम्माबसेसेणं अणुत्तरोववाइय उववरणा ।
(भ० श० १४ उ०१)
• अनुत्तरोपातिक भ० हे मगवन्त ! दे० देवपणे. के. केतलाई. क० कर्म अवशेष अ० अनुत्तरोपपातिका दे० देवपणे. उ० अवतार हुई. हे गौतम ! जा० जेतलू. छ० छठ भक्ति स० श्रमण नि निन्य. क. कर्मप्रति. णि निर्जी. ए. एतले. क. कर्म अवरोये थको श्र अनुत्तर विमाने ऊपणा । ..
अथ अरे भगवन्ते इम कह्यो-एक बेला रा कर्म बाकी रह्या । अणुत्तर विमान में उपजेतो ऋषभदेव स्वामी सर्वार्थसिद्ध थी चवी नवमास गर्भरा दुःख सही पछे दीक्षा लीधी, १ वर्ष ताइ भूखा रह्या, देव मनुष्य तियेच नी उपसर्ग सही केवल ज्ञान उपजायो। जो सम्यगदष्टि में पाप लागे इज नहीं तो ऋषभदेवजी पहवा दुःख भोगव्या ते कर्म किहां उपजाव्या । सर्वार्थसिद्ध में गया जिवारे तो एक वेला रा कर्म बाकी रह्या, तठा पछे सम्यक्त तो गई नथी । जो सम्यगदृष्टि ने पाप न लागे तो एतला कर्म किहां लाग्या । पिण सम्यगदृष्टि रे पाप लागे छै । अनें सम्यगदृष्टि रो सा पराक्रम शुद्ध कड़े--ते सात सूत्र ना अजाण छै, मृगवादी छै। सम्पादृष्टि रा कुगोलादिक आज्ञा वाहिरे छै । डाहा हुवे तो विचारि जोईजो।
इति १३ बोल सम्पूर्ण।
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
वली केतला एक कहे जे प्रथम गुणठाणे शुद्ध करणी छै आज्ञा माहि छै तो "उवाई" सूत्र में कह्यो। जे विना मन शीलादिक पाले ते देवता थाइ ते परलोक ना अनआराधक कह्या । ते माटे तेहना शीलादिक आज्ञा बाहिर छै । जे आज्ञा माहि हुवे तो. परलोक ना आराधक कहिता । इम कहै तत्रोत्तरं इहां "उवाई' में कह्यो जे विगय (घृतादिक ) न लेवे पुष्प अलंकार न करे। शीलादिक पाले, इत्यादिक हिंसारहित निरवद्य करणी करे ते करणी आशा मांहि छै। ते करणी अशुद्ध किम कहिये। अनें परलोक ना आराधक कह्या छै, ते सर्व थकी माराधक आश्रय कहा। तथा सम्यक्त्व नी आराधना आश्री ना कह्यो पिण देशमाराधना आश्री तथा निर्जरा धर्म आश्री आराधना नोना जी कहो। जिम भगवती श० १० उ० १ कह्यो. पूर्व दिशे “धम्मत्थिकाए" धर्मास्तिकाय नथी एहवू का। अनें धर्मास्तिकाय नो देश प्रदेश तो छै, तो पूर्व दिशे धर्मास्तिकाय नो ना कह्यो ते तो सर्वथकी धर्मास्तिकाय बों छै । पिण धर्मास्तिकाय नो देश वयों मथी। तिम अकाम शील उपशान्त पणो ए करणी रा धणी ने परलोक ना आराधक नथी, इम कह्या । ते पिण सर्वथकी आराधक नथी। परं निर्जरा आश्री देशमाराधक तो ते छै । जिम पूर्व दिशे धर्मास्तिकाय सर्व थकी नथी। तिम प्रथम गुणठाणे शुद्ध करणी करे ते पिण सर्वथकी आराधक नथी । जिम पूर्व दिशे धर्मास्तिकाय नो देश छै, ते भणी देशथकी धर्मास्तिकाय काहइ तिम प्रथम गुणठाणे शुद्ध करणी करे, ते निर्जरा लेखे तो देशआराधक कहिइ । ते देशआराधक नी साक्षी. भगवती श० ८ उ० १० का छै विचारि ले। जिम भगवती श० उ० ६ तो साधु ने निदोष दीधां एकान्त निर्जरा कही पर पुण्य नों नाम चाल्यो नहीं। अनें “ठाणांग" ठाणे : “अन्नपुन्ने" ते साधु ने निधि अन्न दीधां पुण्य नो बंध कटो, पिण निर्जरा रो नाम चाल्यो नहीं। तो उत्तम विचारी ए विद्रं पाठ मिलावै । जे साधु में दीधां निर्जरा पिण हुवे अनें पुण्य पिण बंधे। तिम प्रथम गुणठाणा रो धणी शुद्ध करणी करे तेहनें “उवाई" में तो कलो परलोक ना भाराधक नथी । अनें भगवती श० ८ उ० १०' कह्यो । ज्ञान बिना जे दरणी करे ते देशमाराधक छै । ए बिहूं पाठ रो न्याय मिलावणो । सर्वथकी तथा संवर आश्री तो आराधक नथी । अनें निर्जरा आश्री तथा देश थकी आराधक तो छ । पिण जावक किश्चिन्मात्र पिण भाराधक नथी, पहवी घी थाप करपी नहीं
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भ्रम विध्वंसमम् ।
जो मिथ्यात्वी नी शुद्ध करणी आज्ञा वाहिरे हुवे, तो देशआराधक फ्यूं कह्यो । ए तो पाधरो न्याय छै। तथा घली “उवाई" मध्ये अम्बसु ने परलोक नो आराधक कह्यो छै। वली सर्व श्रावका में "उवाई" प्रश्न २० परलोक ना आराधक कह्या छ। अने मिथ्यात्वी तापसादिक ने परलोक ना अनाराधक कह्या छै। जो परलोक मा अनाराधक कयां माटे ते प्रथम गुणठाणा रे धणी रा सर्व कार्य आज्ञा वाहिरे कहे तिणरे लेखे अम्बड सन्यासीने तथा सर्व श्रावका ने परलोक ना आराधक कह्या छै ते भणी ते श्रावकां ना पिण सर्व कार्य आज्ञामें कहिणा । तो चेष्ठो राजा संग्राम कीधो, घणा मनुष्य मासा, तेहने लेख ए पिण कार्य आशामें कहिणो। "वर्णनागनतुयो" ए पिण श्रावक हुन्तो, ते परलोक नो आराधक थयो तो तेहने लेखे ए पिण संग्राम करि मनुष्य मासा, ए पिण कार्य आज्ञामें कहिणो । अम्बड कायो पाणी नदीमें वहतो आशा थी लेतो ते पिण आज्ञामें कहिणो। वली श्रावक अनेक वाणिज्य व्यापार हिंसा झूठ चोरी कुशीलादिक सेवे छै। अनें उवाई प्रश्न २० सर्प श्रावका ने परलोक ना आराधक कह्या छै। जो आराधक वाला री सर्व फरणो आज्ञा में कहे तो ए श्रावकां रा हिंसादिक सर्व सावध कार्य आशामें कहिणा। अने परलोक ना आराधक कह्या त्यां श्रावका री अशुद्ध करणी संग्राम कुशीलादिक आशा बाहिरे कहे तो प्रथम गुणठाणा रा धणी ने परलोक ना अनाराधक कह्या, तेहनी शुद्ध करणी शील तपस्या क्षमा सन्तोषादिक भला गुण आज्ञामाहि कहिणा। ए तो पाधरो न्याय छ। तथा. वली “रायपसेणी" सूत्र में सूर्याभदेव ने भगवन्ते आराधक कह्यो–जो आराधकवाला री करणी सर्वआशामें कहै तो तिणरे लेखे सूर्याभ पिण सावधकामा राज्य वैसतां ३२ थाना पूज्या। बली कुशीलादि तेहना सर्बआशामें कहिणा। वली भगवती श० ३ उ० ८ सनस्कुमार तीजा देवलोकना इन्द्रने पिण "आराहए नो विराहए" एहवा पाठ कह्यो। पतले अधिक कह्यो, तो तिणरे लेखे तेहनी सावद्यकरणी पिण आशामें कहिणी । भक्त्येन्द्र-ईशानेन्द्र-चनरेन्द्र इत्यादिक अनेक देवता ने आराधक कया छै। पिण तेड्नी सावधकरणी आज्ञामें नहीं, ए आराधक छै ते सम्यग्दृष्टिरे लेखे छै, पिण करणी लेखे नहीं । तिम मिथ्यात्वी ने आराधक नथी इम कहा तेपिण सम्यक्त्व तथा संवर नथी, ते लेखे अनाराधक कहा। पिण करणोरे लेने नथी कझा । वली "मानन्द'' आदिक श्रावकारे धरे घणा
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freurfer feers fuकारः ।
मारम्भ समारम्भ हुन्ता - कर्षण (खेती) आदिक कुशील वाणिज्य व्यापारादिक सावद्यकरणो करता हुन्ता, तेहने पिण परलोकना आराधक कह्या । ते पण सम्यक्त्व तथा श्रावक रा व्रतां रे लेखे आराधक कह्या, पिण तेहनी सावद्य करणी आज्ञामें नहीं । तिम प्रथम गुण ठाणा रा धणीने "परलोकना आराधक म थी" इम कह्या ते सम्यक्त्व नथी ते आश्री कह्या पिण तेहनी निरवद्य करणी आज्ञा वाहिरे नहीं । विराधकवालां री सर्वकरणी आज्ञा वाहिरे कह विराधक कह्यां माटे, तो तिणरे लेखे आराधकवाला सम्यग्दृष्टि श्रावकांरी करणी सर्व आशा कहिणी आराधक कह्यां माटे । अने जो आराधक वाला सम्यग्दृष्टि rasi री अशुद्ध करणी आज्ञा वाहिरे कहे तो अनाराधक वाला प्रकृतिभद्रकादि मनुष्य मिथ्यात्वीरी शुद्ध करणी जे छे, ते भाज्ञामाहीं कहिणी एतो वीतराग रो सरल सूत्र मार्ग छै । जिण मार्ग में कपटाई रो काम छै नहीं । वली विराधक आराधक रो नाम लेइ शुद्ध करणी आज्ञा वाहिरे थापे तेहने पूछा कीजे--कृष्ण श्रेणकादिकने आराधक कहीजे, विराधक कहीजे, : आराधक कहे तो तेहना संग्राम कुशीलादिक आशामें कहिणा तिण रे लेखे । अनें जो विराधक कहै तो तिण लेखे कृष्णादिक धर्म दलाली करी श्री जिन वांद्या ए करणी आज्ञा वाहिरे कहिणी । ये न्याय वतायां शुद्ध जाव देवा असमर्थ तिवारे अक वक बोले । केइ क्रोधरो शरण गहै । तेहने सांची श्रद्धा भवणी घणी दुर्लभ छे । अनें जो वादी कम्म न्याय सुणी शुद्ध श्रद्धा धारे खोटी श्रद्धा छांडे पिण ऊधो श्रद्धा रीटेक म राखे ते उत्तम जीव जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि
1
जोईजो I
इति १५ बोल सम्पूर्ण ।
२७
haar एक इन है जो प्रथम गुण ठाणा रा धणीरी करणी आज्ञामाही छै - मिथ्यात्व
तो तिने मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व गुण ठाणे क्यूं कह्यो । है, जेहने तिणने मिथ्यात्वी कह्यो तेहने कतियक श्रद्धा बक बोळ ऊभा छै, तिहां जे जे बोल ऊधा ते तो मिथ्यात्व
तेहनो उत्तर--1 संवली छे अने के
भने जे केतल
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२८
भ्रम विध्वंसनम् ।
एफ बोल संउली श्रद्धारूप शुद्ध छै ते प्रथम गुण ठाणों छै। निथ्यात्वीना जेतला गुण ते मिथ्यात्व गुण ठाणो छै। जिम छठा गुण ठाणा रो नाम प्रमादी है, तो ए प्रमाद छै ते तो गुण ठाणा नहीं छै ए प्रमाद तो सावध छ। अने छठो गुण ठाणा निरवद्य छै। पिण प्रमादे करि ओलखायो छै। जे प्रमादी नो सर्वचरित्र रूपगुण ते प्रमादी गुण ठाणो छै। तथा बली दशवां गुण ठाणा रो नाम सूक्ष्म-सम्पराय छ। ते सूक्ष्म तो थोड़ो सम्पराय ते लोभने सूक्ष्म संपराय थोड़ो लोभ ते तो सावध छै । एतो गुणा ठाणा नहीं। दशमो गुण ठाणो तो निरवद्य छ। ते किम सूक्ष्म संपराय वाला नों जे चरित्र रूप गुण ते सूक्ष्म संप. राय गुण ठाणो छ। तिम मिथ्यात्वी राजे केतला एक शुद्ध श्रद्धा रूप गुण ते मिथ्यात्व गुण ठाणो छै। तिवारे कोई कहै-प्रथम गुण ठाणे किसा बोल संवला छ । तेहनो उत्तर-जे मिथ्यात्वी 'गाय ने गाय श्रद्ध. मनुष्य ने मनुष्य. श्रद्धे. दिनने दिन श्रद्ध. सोना ने सोनो श्रद्ध. इत्यादि जे संवली श्रद्धा छै ते क्षयोपशम भाव छै। अने मिथ्यादृष्टि में क्षयोपशम भाव अनुयोग द्वार सूत्र में कही छै। ते संवली श्रद्धा रूप गुणने प्रथम गुणठाणो कहिजे। ए तो निरवद्य छ । कर्म नो क्षयोपशम कह्यो छै। जद कोई कहे-ए प्रथम गुण ठाणो निरवद्य कर्म नो क्षयोपशम किहां कह्यो छै । तेहनो उत्तर-समवायांगे १४ जीव ठाणा कह्या छै। त्या एहयो पाठ छ।
कम्म विसोहिय मग्गणं. पडुच्च. चोदस जीवठाणा. प० तं० मिच्छदिट्ठी. सासायण सम्मदिट्ठी सम्ममिच्छदिट्ठी, अविरयसम्मदिट्ठी, विरयाविरए. पम्हत्त संजए. अप्पमत्त संजए. नियहि अनिट्टिबायरे, सुहुमसंपराए उवसमएबा खवएवा, उवसंतमोहेवा, खीणमोहे, सजोगी केवली, अजोगी केवली ॥ ५ ॥
समयायांग. स. १४
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
क० कर्म विशोधं विशेषण. ५० आश्री ने. घो० चवदह जीवना स्थानक भेद कहा १४ गुणठाणा. ते कहै छै. मि. मिथ्यात्व गुण ठाणे. सास्वादन. सम्यग्दृष्टि. सम्यगमिथ्यादृष्टि. भवति सम्यग्दृष्टि. व्रताप्रती. प्रमत्तसंयत. अप्रमत्तसंयत. नियट्टिवादर. अनियट्रिटवादर सूत्म सम्पराय ते उवशाम्या थी अने क्षीण थी. उपशान्त मोह, क्षीण मोह, सजोगी केवली, प्रजोगी केवली।
इहां इम कह्या-जे कर्मनी विशुद्धि ते क्षयोपशम तथा क्षायक आश्री १४ जीवठाणा परूप्या। इहां चौदह जीवठाणा कर्मनी विशुद्धि आश्री कह्या पिण कर्म उदय न कह्यो। मोह कर्मना उदय आश्री कहिता तो सावध, अने कर्मनी विशुद्धि भाश्री कह्या ते भणी निरवद्य छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १६ बोल सम्पूर्ण।
वली केतला एक घणी अयुक्ति लगाय ने मिथ्यात्व गुणठाणे भली करणी शील संतोष क्षमादिक मास क्षमणादिक तप करे ते करणी सर्व आज्ञा बाहिरे कहे छ। तेहनो उत्तर-जो मिथयात्वी री भली करणी आज्ञा बाहिरे हुवे तो मिथ्यात्वी रो सम्यग्दृष्टि किम हुवे, घणा जीव मिथ्यात्यो थकां शुद्ध करणी करतां कर्म खपाया सम्यग्दृष्टि पाया छ, जो अशुद्ध करणी हुवे तो अशुद्ध आज्ञा बाहिर ली करणी सं सम्यग्दृष्टि किम पावे। तिवारे कोई इम कहे-जो प्रथम गुणठाणा रो धणी करणी करतां सम्यग्दृष्टि पामें ते आज्ञा माहि छै. तो ग्यारमा गुणठाणा रो धणी पहिले गुणठाणे आवे तेहनी करणी आज्ञा वाहिरे कहिणी। तेहनो उत्तरग्यारमा गुणठाणा रो धणी ग्यारमा थी तो पहिले गुणठाणे आवे नहीं, ग्यारमा थी तो दशमे आवे, अने मरे तो चौथे आवे इम दशमा थी नवमें नवमा थी आठमें आठमा थो सातमें, सातमा थी छठे आये। या सर्व गुणठाणा थी मरे तो चउथे आवे। प तो विशेष निर्मल परिणाम थी उतरतो आयो पिण सावध मशुभ योग सूं न आयो। जिम किणही महीनों पचख्यो ते शुद्ध पाली पनरे १५ पचख्या इम १० पचख्या जाव 'शुद्ध पाली उपवास पचख्यो जे मास क्षमण कीधो । शिवारे धर्म घणो अनें उपवास रो धर्म थोड़ो थयो। परं उपवास रो पाप नहीं।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पाप तो महीना भांग्यां हुवे । ते महीनादिक उपवास ताई तपस्या में दोष लगायो नहीं तिणसूं उपवास से पाप नहीं । तिम ग्यारमें गुणठाणे निर्मल परिणाम था ते गुणठाणा री स्थिति भोगवी दशमें आयां थोड़ा निर्मल परिणाम परं पाप नहीं । इम दशवां री स्थिति भोगवी नवमें आयां वली थोड़ा शुभ योग निर्मल, इस नवना थी आठमे, आठमा थी सातमे, सातमा थी छठे आयां थोड़ा शुभ योग निर्मल छै । पिण अशुभ योग थी छठे नथी आया । ते किम सातमा थी आगे अणारम्भी शुभयोगी कह्या छै तिहाँ अशुभ योग छै इज नथी । आशा हिरे किम कहिए । वळी सूत्र पाठ लिखिये छै ।
३०
प० तं० पमत्त
तत्थणं जे ते संजया. ते दुबिहा. संजयाय, अपमत्त संजयाय । तत्थणं जे ते अपमत्त संजया ते णो यारंभा णो परारंभा जाव अणारंभा । तत्थ जे ते पमन्त संजया ते सुहं जोगं पडुच्च सो आयारंभा णो परारंभा जाव णारंभा । असुहं जोगं पडुच्च आयारंभावि जाव णो अारंभा ।
( भगवतो. श० १ ० १ )
त० तिहां जे ते. सं० संयमी. ते० ते दु० वे प्रकारे प० कह्या. तं ते कहै है. प० प्रमतसंयमो. श्र० अप्रमतसंयमी त० तिहां. जे० जे ते अ० श्रप्रमत्त संयमी. ते ते. गो० प्रारंभी नहीं. गो० परारंभी नहीं. जा० यावत्. अ० अनारम्भी त० तिहां जे ते. प० प्रमत्त संयमी शु० शुभयोग प० प्रति अंगीकार करी ने गो० श्रात्मारंभी नहीं. जा० यावत् श्रणारंभी ० अशुभयोग मन बघ काया करीने. श्र० घारमारंभी परारंभी तदुभयारंभी यावत्. गो० अनारंभी नहीं.
यहां अमादी साधुने
अप्रमादी छै तेहने अशुभ योग तो छडे गुणठाणे शुभ योग आश्री तो तो हेठे पड़े नहीं । अनें अशुभ योग दोष लागे छै
अनारंभी कह्या छै । ते माटे सातमा थी आगे नथी तो अशुभ योग थी छठे किम आवे अने अनारंभी कला छे, शुभ योग वर्ते deat आश्री आरंभी कह्या छै, ते अशुभ योग थी । छठा गुण ठाणा थी विपरीत श्रद्धयां प्रथम गुणठाणे भावे पिण
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मिथयात्वि क्रियाऽधिकारः।
म्यारमा थी प्रथम गुणठाणे न आवे, अने ग्यारमा थी प्रथम गुणठाणे आवे-- इम कहे ते मृषावादी छ । ए तो पाधरो न्याय छै, जिम छठे गुणठाणे अशुभ योग पा दोष लागे हेठो पड़े तिम प्रथम गुणठाणे शुभयोग वा कर्म निर्जरा करता ऊँचौ चढ़ि सम्यग्दृष्टि पावे छै । तामली पूर्णादिक शुभ करणी तपस्या थी घणा कर्म खपाया ए तो चौड़े दीसै छ। साहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १७ बोल सम्पूर्ण।
घलो असोचा केवलीने अधिकारे तपस्यादिक भली करणी करतां सम्यगइष्टि पाघे एहवो कह्यो छै । ते सूत्र पाठ लिखिये छ ।
तस्सणं भंते ! छटुं छटेणं अनिखित्तेणं. तवोकम्मेणं, उड्ढे वाहाम्रो पगिझिय २ सूराभिमुहस्स आयावण भूमीए, आयावेमाणस्य पगढ़ भदयाए. पगय उवसंतयाए. पयइ पगण कोह माण माया लोभयाए. मिउमदव संपन्नयाए अल्लीणयाए भदयाए. विणीययाए अन्नया कयाई सुभेणं अज्झवसाणेणं. सुभेणं परिणामेणं. लेखाहिं विसुज्झमारणीहिं. तयादरणिजाणं कम्माणं खोवसमेणं ईहापोह मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नागं अन्नाणे समुपज्जा सेणं तेणं विभंगनाण समुःपन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उकोसेणं असंखेजाई जोअण सहस्साई जाणइ पासइ सेणं तेणं विभंगनाणे समुप्पन्नेणं जीवेविजाणइ अजोवेविजाणइ पासंडत्थेसारम्भे सपरिग्गहे साकल
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३२
भ्रम विश्वसनम् ।
स्समारणेवि जाणइ विसुज्झमाणेवि जाणइ सेणंपुव्वाभेव सम्मत्तं पड़िवज्जइ. समण धम्म राएइ २ चरित्तं पड़िवजइ २ लिंगं पड़िवज्जइ.।
(भगवती श० ६ उ०१)
व० ते अण सांभल्यां केवल ज्ञान प्रति उपार्जे तेहने हे भगवन्त ! छ० छठे छठे. अणि निरन्तर. त० तप करे एतले छठ सपवन्त बाल तपस्वी ने विभगनाण उपजै ए जाणववाने. उ. ऊंचा बाहुप्रति. प० धरी ने. सू० सूर्यने सन्मुख साहमें मुखई प्रा० श्रातपनानी भूमि ने विषे. श्रा० श्रातपना. लेता ने. ५० प्रकृति भद्रक पणा थी. ५० प्रकृति स्वभावई. उ० उपशान्त पणा थी. ५० स्वभावे प० स्तोक बैक्रोध मान माया लोभ तेणें करीने. मि० मृदुमार्दव तेणें करी सम्पन्न पणा थी श्र० इन्द्री ने गोपवा श्री. भ० भद्रक पणा थी. वि. विनीत पणा थी. अ० एकदा प्रस्ताव ने विषे. सु० शुभ अध्यवसाय करीने. मु० भले. ५० परिणामें करीने. ले० लेश्याने वि० विशुद्ध माने करो. शुद्ध लेश्याइं करो. त० विभंग ज्ञानावरणीय कमनो ख० क्षयोपशम छतई इ० अर्थ चेष्टा ज्ञान सन्मुखविचारणा. अप्पे० धमध्यान वीजा पज्ञ रहित निर्णय करतो. न० धर्मनी आलोचना. ग. अधिक धर्मनी आलोचना करतां छते. वि० विभग. णा नामे अ० अज्ञान. स. उपजई. से० ते बाल तपस्वी तेणे विभगणा० नामे. स. उषजवै करोने ज० जघन्य. अ० अंगुल नो असंख्यात मो भाग. उ० उत्कृष्टो. अ० असंख्याता योजन ना सहस्र ने. जा० जाण पा० देखे. से० ते बाल तपस्वी. ते० तेणे विभगअज्ञान स० उपने छतइ. जी० जीवप्रति जा० जाणे अजीव प्रति पिण जा० जाणे पा० पाषंडी में प्रारंभ सहित. तप परिग्रह सहित जाणे. सं० ते० महा क्लेशे करी ने क्लेश मान थका जाणई. वि० थोड़ी विशुद्ध ताई करी ने विशुद्ध मान थका जाणई. से० ते विभाग अज्ञानो चारित्र प्रति पत्ति थको पूर्व. स. सम्यक्त्व प्रति पड़िवज्जे, सम्यक्त्व पडिवज्जां पछै. स० श्रमण धर्म नी री० रुचि करे. श्रमण धर्म नी रूचि हुआ पर्छ । च० चारित्र पड़िवज्जे च० चारित्र पड़िवज्जां पछै. लि. लिंग पडिवज्जे ।
__ अथ इहां असोचा केवली ने अधिकारे इम कहा जे कोई बालतपस्वी साधु श्रावक पासे धर्म सुण्यां विना वेले २ तप करे, सूर्य साहमी आतापना लेवे, ते प्रकृति भद्रीक विनीत उपशान्त स्वभावे पतला क्रोध मान माया लोभ मृदु कोमल अहंकाररहित एहवा गुण कह्या । गुण शुद्ध छै के अशुद्ध छ, ए गुण निरवद्य छै के सावध छै, ते एहवा गुणां सहित तपस्या करतां घणा कर्मक्षय कीया। तिवारे एकदा प्रस्ताचे शुभ अध्यवसाय. शुभ परिणाम. अत्यन्त विशुद्ध लेश्या. आयां
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मिथ्यात्व क्रियाऽधिकारः ।
विज्ञानावरणीय कर्म से क्षोपराम करे, इहां शुभ अव्यवसाय शुभ परिणाम विशुद्ध लेखा थी कर्म खपाया। ए शुद्ध करणोथी कर्म खपाया के अशुद्ध करणी थी कर्म खपाया । ए भला परिणाम विशुद्ध लेश्या सावय है के निरवद्य है शुभ योग छै के अशुभ योग है आज्ञा में छे के आज्ञावाहिरे छे । इहां विशुद्ध लेश्या कही ते भाव लेश्या छै । द्रव्य लेपायी तो कर्म खये नहीं लेखा तो अठफश छै ते माटे । अते कर्म खपाया ते धर्मलेश्या जीव ना परिणाम छै तेहथी कर्म
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हुये छै । तैजल ( तेजू ) पद्म शुक्ल ए तीन भली लेश्या छै ते विशुद्ध लेश्या कही है । अतें उत्तराध्ययनः अ० ३४ गाथा ५७ ए तीन भी लेखाने नर्मळे कही छै | अने इहां वraat विशुद्ध लेश्याथी कर्म खपाया ते धर्माथी खाया छै अधर्म लेश्याथी तो कर्म क्षय हुवे नहीं । अने धर्मलेश्या तो आज्ञामें छै तेही कर्म खपाया है । वली “ईहापोह मग्गण गवेसणं करे भाणस्तु" ए पाठ कह्या. "ईहा" कहितां भला अर्थ जाणवा सन्मुख थयो "अपोह" कहितां धर्मध्यान वीजा पक्षपात रहित "मगण" कहिनां समूचे धर्मनी आलोचना "गयेसणं" कहितां अधिक धर्मनी आलोचना ए करतां विभंग अज्ञान उपजे । इहां तो धर्मज्ञान धर्मनी आलोचना अधिक धर्मनी आलोचना प्रथम गुण ठाणे कही तो धर्मनी आलोचना ने असे धर्मध्यान में आज्ञा वाहिरे किम कहिये तो आशामाहि है । पछै विभंग अज्ञान थी जघन्यअंगुलने असंख्यात भाग जो देखे । उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन. जाणीने देखे ते विनेरी जीव अजीव जाण्या | तिवारे सम्यग्दृष्टि पामे सम्यग्दृष्टि पामतां विभंग से अधि । पछे चारित लेइ लिङ्ग पड़िवज्जे । एतले गुणारी प्राप्ति थई ते निस्वद्य करणी करतां सम्यग्दृष्टि अनें चारित्र पाया है । जो अशुद्ध करणी हुवे तो सम्यग्दृष्टि अने चारित किम पामे इणे आलावे चौड़े कह्यो प्रथम तो वेलेर तप सूर्यदी आतापना मृदु कोमल उपशान्त निरहंकार सगुण कला पछे शुभ परिणाम शुभ अध्यवसाय विशुद्ध लेश्या कहीं, वली "अपोहन " अर्थ धर्मध्यान कह्यो, धर्म नी आलोचना कही पहवा उत्तम गुण कथा तेहने अवगुण किम कहिए । पहवा गुणा करी सम्यक्त्व पात्रां एहवो कह्यो तो त्यां गुणा ने आज्ञा वाहिरे किम कहिये । जो ए बाल तपस्वी बेले २ तप न करतो तो पतला गुण किम प्रकटता अनें यां गुणा विना शुद्ध अध्यवसाय भला परिणाम भली लेश्या किम आवती । अने यां गुणा विना धर्म ध्यान न ध्यावतो भली विचा
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भ्रम विध्वंसनम् ।
रणा न आवती तो सम्यग्दृष्टि किम पामतो । ते माटे ए करणी थी सम्यग्दृष्टि पामी ते करणी शुद्ध आज्ञा माहिली छै पहवी शुद्ध करणीने आज्ञा वाहिर कहे ते आज्ञा बाहिरे जावा । केतला एक जीव प्रथम गुण ठाणे धर्म ध्यान न कहे छै, अनें इहां बाल तपस्वीने धर्मध्यान कह्यो छै, वली धर्मनी आलोचना कही छै तिवारे कोई कहे ए धर्मध्यान अर्थ में कह्यो छै पिण पाठमें न कह्यो तेहनो उत्तर- "ए अपोह" नो अर्थ धर्म ध्यान पक्षपात रहित एहवूं का ते अर्थ मिलतो है । वली विशुद्ध परिणाम विशुद्ध लेश्या कही छै, विशुद्ध लेश्या कहिवे तैजस ( तेजू ) पद्म शुक्ल. लेश्या प्रथम गुण ठाणे कहिगी । अनें उत्तराध्ययन अ० ३४ गा० ३१ शुक्ल लेश्या ना लक्षण कह्या छै ।
"रुवाणि वज्जित्ता - धम्मसुक्काइ कायए ।"
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इहां कह्यो आद्र ध्यान वरजे- और धर्मशुक्ल ध्यान ध्यावे प शुक्ल लेश्या ना लक्षण कह्या ते शुक्ल ध्यान तो ऊपरले गुण ठाणे छे अने प्रथम गुण ठाणे शुक्ल लेश्या व ते वेलां आर्त्तरुद्र ध्यान तो वयों छै अनें धर्मध्यान पावे छै एतो पाठ शुक्ल लेश्या ना लक्षण धर्मध्यान कह्या । ते माटे प्रथम गुण ठाणे शुक्ल लेश्या पिण पावे छे ज्ञान नेत्रे करि विचारि जोइजो । वली एहनों न्याय दृष्टान्ते करी दिखाड़े छै।
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जिम एक तलाव नो पागी. एक घड़ो तो ब्राह्मण भर ले गयो । अनें एक घड़ो भंगी भर ले गयो भंगी रा घड़ामें भंगी रो पाणी वाजे । अर्ने ब्राह्मण रा घड़ा में ब्राह्मण से पाणी वाजे पिण पाणी तो मीठो शीतल छै भंगीरा घड़ामें आयां खारो थयो नथी तथा शीतलता मिट्टी नहीं पाणी तो तेहिज तलाव नों छै पिण भाजन लारे नाम बोलवा रूप छै । तिम शील. दया. क्षमा तपस्यादिक. रूप पाणी ब्राह्मण समान सम्यग्दृष्टि आदरे । भंगी समान मिथ्यादृष्टि आदरे तो ते तप. शील. दया. वों गुण जाय नहीं । जिम पाणी ब्राह्मण तथा भंगी रो वाजे पिण पाणी मीठा में फेर नहीं पाणी मीठो एक सरीखो छै । तिम मिथ्यादृष्टि शीलादिक पाले ते मिथ्यादृद्धिरी करणी वाजे । सम्यग्दृष्टि शोलादिक पाले ते सम्यग्दृष्टि री करणी वाजे । पण करणी दोनूं निर्मल मोक्ष मार्ग नी छे । पाप रूप आताप मो
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
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मेटणहारी छै । पुण्य रूप शीतलताई नी करणहारी छै । ते करणो आज्ञा माहि छै तेहनी आज्ञा साधु प्रत्यक्ष देवे छै । जे मिथ्यादृष्टि साधु ने पूछे हूं सुपात्र दान देवू, शील पालू, वेला तेलादिक तप करू। जब साधु तेहने आज्ञा देवे के नहीं, जो आज्ञा देवे तो ते करणी आज्ञा माहींज थई। अने जे आज्ञा बाहिरे कहे. तेहने लेखे तो आज्ञा देणी हो नहीं । अशुद्ध आज्ञा वाहिरे हुवे तो ते करणी करावगी नहीं मुखसूं तो आज्ञा देवे छै जे तू शीलपाल म्हारी आज्ञा छै इम आज्ञा देवे छै। अनें वली इम पिण कहे ए करणी आज्ञा वाहिरे छै इम कहे ते आपरी भाषा रा आप अजाण छै जिम कोई कहे म्हारी माता बांझ छै ते सरीखा मूर्ख छै.! माहरी माता छै इम पिण कहे. अने वांझ पिण कहे, तिम आज्ञा पिण ते करणी री देवे, अने आज्ञा वाहिरे पिग कहे, ते महा मूर्ख जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १८ बोल सम्पूर्ण।
बली शुद्ध करणोनी आज्ञा तो ठाम २ सूत्रमें चाली छ। 'रायपसेणी" सूत्रमें सूर्याभ ना. "अभिओगिया" देवता भगवान्ने बांद्या तिवारे भगवान् आज्ञा दीधी छै ते सूत्रपाठ कहे छ।
जेणेव आमलकप्याए णयरी जेणेव अंवसालवणे चेइये जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २ त्ता वंदइ नमंसह. २त्ता एवं वयासी. अम्हेणं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स अभिप्रोगिया देवा देवाणुप्पियं वंदामो णमंस्सामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। देवाइ समणे भगवं महावीरे ते देवे एवं वयासी-पोराण
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भ्रम विध्वंसनम् ।
मेयं देवा ! जीय मेयं देवा ! किच्च मेयं देवा ! करणिज मेयं देवा ! आणि मेयं देवा ! अभगुप्पारण मेयं देवा !
( राय पसेणी- देवताऽधिकार )
जे० जिहां श्रा० श्रामलकंपा नगरी जे० जिहां अंबसाल वे० चैत्यबाग जे० जिहां. स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तिहां उ० आवे आवीनें स० श्रमण. भ० भगवान् म० महावीरने सि० तीन वार. प्रा० जीमणा पासा थी. प० प्रदक्षिण. क० करे करीनें वं० वांदें. न० नमस्कार करे करीनें ए० इम वोले. अ० अम्है भ० हे भगवान् ! सू० सूर्याभ देव ना श्र० अभि योगिया देवता. दे० देवानुप्रिय तु० तुम्हेंप्रति वं० वांदां ण० नमस्कार करां. स० सत्कार देवां स सन्मान देवां क० कल्याणकारी. म० मंगलीक दे० तीन लोकना अधिपति. दे० भला मन ना हेतु ते माटे चैत्य. व तुम्हारी सेवा करां. तिवारे दे० हे देवां ! स० श्रमण. भ० भगवन्त म० महावीर ते० ते देव प्रते. ए० इम बोल्या पो० जूनो कार्य तुम्हारू. ए० ए. दे० हे देवां ! जी० जीत आचार तुम्हा हे देवां ! क० ए कर्त्तव्य तुम्हारूं हे देवा ! आ० ए तुम्हारूं आचरण हे देवा ! ० म्हें अने अनेरे तीर्थकरे अनुज्ञा दोधी श्राज्ञा दीधी हे देवां !
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इहां कह्यो -- सुर्याभ ना अभियोगिया देवता भगवान्ने वंदना नमस्कार कियो तिवारे भगवान् वोल्या । ए बन्दनारूप तुम्हारो पुराणो आचार छै. ए तुम्हारो जीत आचार है. ए तुम्हारो कार्य छै. ए वंदना करवा योग्य छै. ए तुम्हारो आचरण छै. ए वंदनारी म्हारी आज्ञा छे । इहां तो भगवान् कह्यो म्हारी आज्ञा छै - तो तिम करणीने आज्ञा वाहिरे किम कहिये, इम सूर्याभे भगवन्त वांद्या तेहने पिण आज्ञा दीधी । अने सूर्या नाटक नो पूछयो तिवारे मौन साधी पिण आज्ञा न दीधी तो ए नाटकरूप करण सम्यग्दृष्टि रीपिण आज्ञा वाहिरे छे। अने वंदनारूप करणी री सूर्याभ सम्यग्दृष्टि ने भगवन्त आज्ञा दीधी । तिमज तेहना अभियोगिया ने पिण आज्ञा दीधी छै । तो ते करणी आज्ञा बाहिरे किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १६ बोल सम्पूर्ण |
वली स्कंदक सन्यासीने प्रथम गुणठाणे छतां भगवान् में वंदना करण री गौतम स्वामी आज्ञा दोधी ते पाठ लिखिये छै ।
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
तए से खंदए कच्चायण गोत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-गच्छामोणं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो जाव पज्जुवासामो अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेह ।
(भगवती श० २ उ० १)
___त. तिवारे. से० ते. खं० स्कंदक. का० कात्यायन गोत्री छईने भ० भगवत गौतमने ए. इम कहै ज० जईइं. हे गौतम ! त० तुम्हारा धर्माचार्यप्रति धर्मोपदेशक. स० श्रमण भगवन्त महावीर प्रति. वं. वांदो. ण नमस्कार करां. जा० यावत. प० सेवा करां जिम सुख हे देवानुप्रिय ! मा० प्रतिबन्ध अन्तराय व्याधात मत करो।
अथ अठे स्कंदके कह्यो हे गौतम ! तांहरा धर्माचार्य भगवान् महावीर ने वांदा यावत् सेवा करां । तिवारे गौतम बोल्या–जिम सुख होवे तिम करो हे देवानुप्रिय ! पिण प्रतिबन्ध विलम्ब (जेज ) मत करो। इसी शीघ्र आज्ञा वंदना नी दीधी तो ते बंदना रूप करणी प्रथम गुण ठाणा रो धणी करे, तेहने आज्ञा बाहिरे किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २० बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे इहां तो जिम सुख होवे तिम करो इम कह्यो पिण आज्ञा न दीधी। तेहनो उत्तर- स्कन्दक दीक्षा लियां पछे तपस्या नी आज्ञा मांगी तिहां एहवो पाठ छे ।
इच्छामिणं भंते ! तुज्झेहिं अभणुगणाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उबसंपनित्ताणं विहरित्तए अहातुहं देवाणु
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भ्रम विध्वसनम् ।
प्पिया मापड़िबंधं तएणं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणगणाए समाणे हटतुट्टे ।
( भगवतो श० २ उ०१)
इ० वांछू छू. भ० हे भगवन्त. तु तुम्हारी आज्ञाई करीने. मा० मास नों परिमाण. भि० भिक्षुने योग्य प्रतिमा अभिग्रह विशेष ते प्रति अंगीकार करीने. वि० विचरव.. तिवारे भगवान् कह्यो अ० जिम सुख उपजे तिम करो. दे. हे देवानुप्रिय ! मा० प्रतिबंध व्याघात मत करस्यो. त० तिवारे ते स्कंदक अणगार. स० श्रमण भगवन्त. म० महावीर देव. अ० एहवी प्राज्ञा आपे थकें. ह. हर्ष पाम्या तोष पाम्या ।
इहां कह्यो स्कंदके तपस्या नी आज्ञा मांगी तिवारे “अहासुह" एहवो पाठ कह्यो ते आज्ञा रो पाठ छ। तिम स्कंदके वीर वंदन री धारी तिवारे गौतम पिण "अहासुह" एहवो पाठ कह्यो ते आज्ञा रो पाठ छै । ते वंदना करण री आज्ञा दीधी छै। तथा “पुष्फ चूलिया" उपंगे भूतादारिका ने माता पिता पार्श्वनाथ भगवंत ने कह्यो। ए भूता वालिका संसार थी भय पामी ते माटे तुम्हाने शियिणी रूप भिक्षा देवां छां। ते आप ल्यो तिबारे भगवान् “अहासुहं' पाठ कह्यो छै ते लिखिये छ।
- "तं एयणं देवाणुप्पिये सिस्सिणी भिक्खं दलयंति पहिच्छंतुणं देवाणुप्पिया सिस्सिणी भिक्खं ! अहासुहं देवाणुप्पिया ।”
इहां पिण दीक्षा ना आज्ञा ऊपर "अहासुह" पाठ कह्यो-तिम स्कन्दक सन्यासी ने पिग गौतमे "अहासुई" पाठ कह्यो. ते आज्ञा दीधी छै। ए तो ठाम २ शुद्ध करणी नी आज्ञा चाली तेहने अशुद्ध आज्ञा बाहिरे कहे ते सिद्धान्त रा अजाण छै। ए तो प्रत्यक्ष पाठमें आशा चाली ते पिण न माने ते गुढ मिथ्यात्व राधणी अन्यायवादी जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २१ बोल सम्पूर्ण।
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मिथ्यात्व क्रियाऽधिकारः ।
३६
तथा वली तामली तापस नी अनित्य जागरणा कही छे । ते पाठ प्रते लिखिये छै ।
तरणं तस्स तामलिस्स वालतवस्सिस्स अरण्याकया ' पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंस्सि बिजागरियं जागरमा णस्स इमे या थिए । चिन्तिए जावसमुप्प जित्था ।
( भगवती श० ३ उ० १ )
त० तिवारे. त० ते. ता० तामली. वा० बाल तपस्वीने श्र० एकदा समयने विधे पु० मध्यरात्री ना कालने विषे. ० अनित्य जागरणा. जा० जागता थके इ० एतदा रूप एहवो ० अध्यात्म. जा० यावत् एहवो चित्त में भाव उपज्यो ।
अथ इहां तामली बाल तपस्वी री अनित्य चिन्तवना कही छै । ए संसार अनित्य छै पहवी चिन्तवना ते तो शुद्ध छे । निरवद्य छै तेहने सावध किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २२ बोल सम्पूर्ण |
तथा वली सोमल ऋषि नी अनित्य चिन्तवना कही छै ते पाठ लिखिये छै ।
तत्तेणं तस्स सोमिलरस माहरिसिस्स. अण्णयाकयाई पुव्वरत्तावरन्त काल समयंसि प्रणिच्च जागरिथं जागर माणस इमे वा मत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ।
(पुप्पियोपाङ्ग श्र० ३ )
स० [तिवारे. त० ते. सो० सोमिल ब्राह्मण ऋषिने. श्र० एकदा प्रस्तावे पु० मध्य रात्रि ना काल ने विषे. ० अनित्य जागरण. जा० जागते थके. इ० एहवा. अ० अध्यवसाय. जा०
यावत स० ऊपमा
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४०
भ्रम विध्वंसनम् ।
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अथ इहाँ सोमल ऋषि नी अनित्य चिन्तवना कही ए अनित्य चिन्तवना शुद्ध करणी छै निरवद्य छै तेहनें आज्ञा बाहिरे किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २३ बोल सम्पूर्ण।
अन कोई कहै—ए अनित्य चिन्तवना आज्ञा बाहिरे छ, अशुद्ध छै. सावध छै. निरवद्य हुवे तो धर्म जागरण कहिता। साधु श्रावक री किहांइ अनित्य चिन्तवना कही हुवे तो बताओ। ते ऊपर वली भगवान् री अनित्य चिन्तवना रोपाठ लिखिये छै ।
तएणं अहं गोयमा! गोसाले णं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं परिणय भूमीए। छव्वासाइ लाभं अलामं सुहं दुक्ख सकारं असकारं अणिच्चजागरियं विहरित्था ।
(भगवतो. शतक १५ )
त० तिवारे. अ० हूँ. गो० हे गौतम ! गो० गोशाला मंखलिपुत्र. स० संघाते. ५० प्रणीत भूमिका ने प्रारम्भी ने छ० छ। वर्ष लगें. ला० लाभ प्रति. अ० अलाभ प्रति. सु० मुख प्रति. दु० दुःख प्रति. स० सत्कार प्रति. अ० असत्कार प्रति. अ० अनित्य छै सर्ब एहवी चिन्ता करतां थकां. वि० विहार करूं छु। .
अथ अठे भगवान् कह्यो-हे गौतम ! मैं गोशाला साथे छव वर्ष ताई लाभ अलाभ सुख दुःख सत्कार अप्सत्कार भोगवतो. हूं अनित्य चिन्तवना करतो विचसो तिहां छद्मस्थ पणे भगवान् री अनित्य चिन्तवना कही। तो ए अनित्य चिन्तवना ने आज्ञा बाहिरे किम कहिए। ए तो अनित्य चिन्तवना शुद्ध निरवद्य आज्ञा माहे छै। तिणसूं भगवान् पिण अनित्य चिन्तवना कीधी। अने अनित्य चिन्तवना ने अशुद्ध आज्ञा बाहिरे कहे आर्त रुद्र ध्यान कहे। तेहने लेखे तो ए अनित्य चिन्तवना भगवान् ने करणी नहीं। पिण अनित्य संसार छै एहवी चिन्त
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
धना तो धर्म ध्यान रो भेद छै। ते माटे आज्ञा माहे छै अने भगवान् पिण ए अनित्य चिन्तवना करी छै। अने अशुद्ध हुवे तो ए चिन्तवना भगवान करे नहीं। हाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २४ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई एक कहे -अनित्य चिन्तवना धर्म ध्यान रो भेद किसा सूत्र में कह्य छै तेहनो पाठ कहै छ ।
धम्मस्सणं माणस्स चत्तारि अगुप्पेहा. प० तं०. अणिचाणुष्पहाए असरणाणुप्पेहाए. एगत्ताणुप्पेहाए संसाराणुप्पेहाए ।
( उवाई सूत्र)
ध० धर्मध्यान नी चार अनुप्रक्षाविधारणा चित्त माही चिन्तन रूप. प. कह्या. त० ते को छ। अ० ए सांसारिक सर्व पदार्थ अनित्य है। एहबी विचारणा चिंतन १. ० संसार माही कोई केहने शरण नथी एहवी त्रिवारणा चिंतन २. ए० ए जीव एकलो आयो एदालो जाये एहवी विचारणा चिन्तन ३. सं० संसार गति आगति रूप फिरवो छ ।
___ इहां धर्म ध्यान नी ४ अनुप्रेक्षा ते चिन्तवना कही। तिहाँ पहिली अनित्या. नुप्रेक्षा ए संसार अनित्य छै एहवी चिन्तवना करे ते अनित्यानुप्रेक्षा कहिए। इहाँ तो अनित्य चिन्तवना धर्मध्यान रो भेद कहो तो ए अनित्य चित्तवना ने आशा वाहिरे किम कहिए। ए. अनित्य चिन्तवना भगवान् चिन्तवी । वली अनित्य चिन्तवना धर्म ध्यान रो भेद चाल्यो, तेहिज अनित्यचिन्तवना तामली. सोमल ऋषि, प्रथम गुणठाणे थके कांधी । तेहने अधर्म किम कहिये। ए धर्म ध्यान रो भेद माशा बाहिरे किम कहिये । डाहाहुचे तो विचारि जोइजो ।
इति २५ बोल सम्पूर्ण।
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४३
प्रेम वियसनम् ।
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वली बाल तप. अकाम निर्जरा. ने आज्ञा माही कह्या ते पाठ लिखिये छ।
मणुस्साउयकम्मा सरीर पुच्छा. गोयमा ! पगइ भइयाए, पगइ विणीययाए, साणुकोसणयाए. अमच्छरियताए. मणुस्साउयकम्मा जावप्पओगबंधे. देवाउयकम्मा. शरर पुच्छा गोथमा ! सराग संजमेणं. संजमासंजमेणं. हालतवो करनेणं. अकामणिजाए. देवाउयकम्मा सरीर जावप्पओगबंधे।
( भगवती शतक
)
म. मनुथ्यां ना भायु कर्म शरीर नो पृच्छा. हे गौतम ! ५० स्वभावे भद्रकपणू परमें परिसापे नहिं ५० स्वभाषे विनीत शो करीने. सा० दगाने परिणाम करीने. अ० अमामच्छरमा तेथे करीने. म मनुष्य नू श्रायु कर्म यावत प्रयोगबंध हुई. दे० देवला ना श्रायु कर्म शरीर नी पृच्छा. हे गोतम ! भराग संयमे करीने. स० संयमार्सयम ते दे० देशप्रती तेणे करीने. बाद वाल तप करपे करीने. अ० अकाम निर्जराई. दे० देवता नू आयु कर्म. नाम शरीर यावत् प्रयोग 4ध हुई ।
अथ वहां चार प्रकारे मनुष्य नो आयुषो बंधे कह्यो। जे प्रकृति भद्रीक. विनीत. दयायान्. अमरसर भाव. ५ चार करणी शुद्ध छै, आज्ञा माहि छै। ए. तो दयादिक परिणाम सामात आशामें छै। तेहते आज्ञा बाहिरे किम कहिए । मने मनुष्य तिर्यश्चरे मनुष्य रो आयुगो बंधे। ते तो च्यार कारणे करि बंधे छ । ते तो मनुष्य तिर्यश्च प्रथम गुण ठाणे छै। सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यञ्च रे चैमानिक रो आयुषो बंधे ते माटे । अने जे दयादिक परिणाम अमत्सर भाव आज्ञा बाहिरे कहे तो तेहने लेखे हिंसादिक परिणाम मत्सर भाव आज्ञामें कहिणो। अनें जो हिंसादिक परिणाम मत्सर भाव कपटाई आज्ञा बाहिरे कहे तो दयादिक परिणाम अमत्सर भाव सरल पणो आशामें कहिणो। ५ तो पाधरो न्याय छै। बली सराग संयम १संयमार्सयम ते श्रावक पणो २ बाल तप ३ अकाम निर्जरा ४. ए चार कारणे करी देव आयुषो बंधे । इम कह्यो तो ए ४ च्यार कारण शुद्ध के अंशुद्ध, सावध छ के निरवद्य है, आज्ञामें छै के आना बाहिरे छ। ए. तो चार करणी शुद्ध आज्ञा
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः ।
४३
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माहिली देव आयुषो बंधे छै। अनें जे वालतप. अकाम निर्जरा. ने आज्ञा दाहिरे कडे-तेहने लेखे सरागसंयम. संयमासंयम. पिण आज्ञा बाहिरे कहिणा। भने जो सरागसंयम. संयमा संयम ने आशामें कहे तो बालतप. अकान-निर्जरा. से पिण आज्ञा में कहिणा । ए बालतप. अकामनिर्जरा. शुद्ध आज्ञा माहि छै ते माटे सरागसंयम. संयमासंयम. रे भेला कया। जो अशुद्ध होने तो भेला न कहिता! भने जे सरागसंयम. संयमासंयम. तो आज्ञामें कहे । अने बालतप अकाम निर्जरा माझा बाहिरे कहे ते आप रा मन सूं थाप करे, ते अन्यायवादी जाणमा । डाहा हुके तो विचारि जोइको ।
इति २६ बोल सम्पूर्ण।
यली गोशाला रे पिण एहवा तपना करणहार स्थविर कह्या छ । ते पाठ लिखिये छै ।
आजीवियाणं चउबिहे तवे प० त० उग्गतवे. घोर सवे. रसनिज्जुहणया. जिभिंदिय पडिसंलीया. ।
(टाणांगठाणा ४ उ०२)
प्रा० गोशाला ना शिष्यनें. घा० चार प्रकारनो तप. १० परूप्यो. २० ते कहे है। 3. इह लोकादिकनी वांछा रहित शोभनतप. १ घो० श्रात्मानी अपेक्षा रहिस तप २ र० घृताहिक रसनों परित्यार ३ जि० मनोज्ञ अमनोज्ञ आहारने विषे रागद्वेष रहित ४ ॥
अथ गोशाला रे स्थविर एहवा तपना करणहार कह्या छै । उग्र तप १ घोर तप २ रसना त्याग ३ जिहन्द्रिय वशकीधी ४। तेहनी खोटी श्रद्धा अशुद्ध छै पिण ए तप अशुद्ध नहीं ए तप तो शुद्ध छै आज्ञा मांहि छै। ए जिह्वेन्द्रिय प्रति संलीनता जो "भगवन्ते वारह भेद निर्जराना कह्या": तेहमे कही छे । उचाई में प्रति संलीनता मा ४ भेद किया । इन्द्रियप्रतिसंलीनता १ कषायप्रति संलीनता २ योगप्रति संली.
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भ्रम विध्वंसनम् ।
नता ३ विविक्त सयणासण सेवणया ४ । अनें इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ना ५ भेदा में रस इन्द्रियप्रति संलीनता "निर्जरा ना वारह भेद चाल्या" ते मध्ये कही छे । ते निर्जरा ने आज्ञा बाहिरे किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २७ बोल सम्पूर्ण ।
४४
1
वली बीजे संवरद्वार प्रश्न व्याकरण में श्रीवीतरागे सत्य वचन ने घणो प्रशंस्यो छे ते सत्य निरवद्य आज्ञा माही छै । तिहां एहवो पाठ छै ।
अग पाखंड परिग्गहियं जं तिलोकम्मि सारभूयं गंभीरतरं महासमुद्धा थिरतरगं मेरु पञ्चचाओ ।
( प्रश्न व्याकरण संवरद्वार २)
० अनेक पाखंडी ग्रन्य दर्शनी तेणे. प० परिग्रह्यो आदरयो । जं० जे. त्रिलोक माही सा० सारभूत प्रधान वस्तु है। तथा गं० गाढ़ोगंभीर अज्ञोभित थकी म० महासमुद्र थकी हवा सत्यवचन थि स्थिरतरगाढ़ो. मे० मेरुपर्बत थकी अधिक अचल ।
इहां कह्यो- सत्यवचन साधुने आदरवा योग्य छै । वे साथ अनेक पापंडी अन्य दर्शनी पण आदो कह्यो ते सत्यलोक में सारभूत कह्यो । सत्य महासमुद्र थकी पिग गम्भीर को मेरु थकी स्थिर कह्यो एहवा श्रीभगवन्ते सत्यने बखाणयो । ते सत्यने अन्यदर्शनी पण धालो । तो ते सत्यने खोटो अशुद्ध किम कहिये । आज्ञा वाहिरे किम कहिये । आज्ञा वाहिरे कहे तो तेहनी ऊधी श्रद्धा छै पिण निरवद्य सत्य श्री वीतरागे सरायो ते आज्ञा वाहिरे नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २८ बोल सम्पूर्ण |
वली जीवाभिगमे जम्बूद्वीप नी अगतीने ऊपर पद्मवर वेदिका भने वनखंडने विषे वाणव्यन्तर क्रीड़ा करे तिहाँ पहवा. पाठ कथा है । .
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मिथयात्वि क्रियाऽधिकारः
तत्थणं वाणमन्तरा देवा देवीप्रोय प्रासयंति. स्यन्ति. चिटुंति. णिसीयंति. तुयटुंति. रमंति. ललंति. कोलंति. मोहन्ति, पुरा पोराणाणं सुचिमणाणं सुपरिक ताणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लारणं फलवित्ति विशेषपञ्चणुभवमाणा विहरंति।
( जम्बूद्वीप पणत्ति)
त० तिहां. वा. वाणव्यन्तर ना. देवी देवता अने देवांगना. प्रा० सुख पामी घसे छ। स. सूवे लांवी कायाई चि० वैसे ऊंचा चढ़ी ने णि पासा पालटे छै तु० सुखे सूत्रे. २० रमे छै अक्षादिके. ल० लीला को छै को क्रीड़ा करे ? मो० मैथन सेवा करे. पु० पूर्व भवना कीधा सु० सुवीर्णरूडा कीधा. सु० सुपरिपक्व रूडा कोधा धर्मानुष्ठानादि का कल्याणकारी. क० कीधा. क० कर्म क कल्याण फलविपाक प्रते. प० अनुभवतां भोगतां थकां. वि. विचरे है। ___ अथ अठै इम कह्यो। ते वनखंडने विष वाण व्यन्तर देवता देवी पैसे सूवे क्रीडा करे । पूर्व भवे भला पराक्रम फोडव्या तेहना फल भोगवे एहवा श्रीतीर्थकर देवे कह्यो। तो जे वाण व्यन्तर में तो सम्यग्दृष्टि उपजे नहीं व्यन्तर में तो मिथ्वात्वीज उपजे छै । अनें जो मिथ्यात्वीरो पराक्रम सर्वअशुद्ध होवे तो श्रोतीर्थकर देवे इम क्यूं कह्यो । जे वाण व्यन्तरे पूर्वभये भला पराक्रम किया तेहना फल भोगवे छै। ए तो मिथ्यात्वी रा शील तपादिकने विषे भलो पराकम कह्यो छै । जो तिणरो पराक्रम अशुद्ध हुवे तो भगवन्त भलो पराक्रम न कहिता । ए तो भली करणी करे ते आज्ञा माहि छै ते माटे मिथ्यात्वीरो भलो पराक्रम कह्यो। ते ब्यन्तर पूर्वले भवे मिथ्यादृष्टि पणे तप शीलादिक भला पराक्रमे करि व्यन्तर पणे ऊपना । ते भणी श्रीतीर्थंकरे ब्यन्तर ना पूर्वना भवनो भलों पराक्रम करो। तेभला पराक्रमरूप भली करणी ते आज्ञामाहि छ ते करणीने आज्ञा बाहिरे कहे ते महा मूर्ख जाणवा।
जे श्रीजिन आज्ञा ना अजाण छै ते प्रथम गुणठाणा रा धणी री शुद्ध करणीने अशुद्ध कहै, साबद्य कहै आज्ञा वाहिरे कहे संसार वधतो कहे। तेहने सावद्य निरबद्य आशा अनाज्ञा री ओलखना नही तिणसू शुद्ध करणीने आज्ञा बाहिरे कह छ ।
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भ्रम विध्वसनम् ।
अनें श्रीवीतराग देव तो प्रथम गुण ठाणा रा धणी री निरवद्य करणी ठाम २ शुद्ध कही छै आशामें कही छै ते करणी थी संसार घटायां संक्षेप साक्षीरूप केतला एक बोल कहे छै । भगवती श० ८ उ० १० सम्यक्त्व विना करणी करे तेहने देश आराधक कह्यो तथा ज्ञाता अ० १ मेघकुमारने जीवे हाथीभवे दया करी परीत संसार करी मनुष्य नो आयुषो वांध्यो कह्यो । (२) तथा सुख विपाक अध्ययन १ में सुमुखगाथापति सुदत्त अनगारने दान देय परीत संसारकरी मनुष्य नो आयुषो बांध्यो कह्यो। ( ३ ) तथा उत्तराध्ययन अ०७ गा० २० मिथ्यात्वीने निर्जरा लेखे सुव्रती कह्यो। (४) तथा भगवती श० ३ उ० १ तामलीनी अनित्य चिन्तवना कही । (५) तथा पुफिया उपांगे अ० ३ सोमल ऋषिनी अनित्य चिन्तवना कही। (६) कोई अनित्य चिन्तवना ने अशुद्ध कहे तो भगवती श० १५ छमस्थपणे भगवन्तमी भनित्य चिन्तवना कही (७) तथा उवाई में अनित्य चिन्तावनाने धर्मध्यान रो तेरहमो भेदकह्यो (८) तथा भगवती श० : उ० ३१ असोच्चा केवलीने अधिकार-प्रथम गुणठाणारे धणीरा शुभ अध्यवसाय. शुभपरिणाम. विशुद्धलेश्या. धर्मरी चिन्तवना. अमें अर्थ में धर्मध्यान कह्यो। (६) तथा जीवाभिगमे तथा जम्बूद्वीप पणति में पाणव्यन्तर मुखपाम्या ते भलापराक्रमथी पाम्या कथा । ते वाणव्यन्तर में मिथ्यादूष्टि इज उपजै छै। (१०) तथा ठाणाङ्ग ठाणा ४ उ० २ गोशाला रे. स्थविरां रे ४ प्रकार रो तप ऋह्यो । उग्रतप. घोरतप. रसपरित्याग. जिह्वा इन्द्रिय पटि संलीनता। (११) तथा दश वैकालिक अ० १ में संयम. तप. ए बिहूं धर्म कह्या (१२) तथा सूत्र रायपसेणीमें सूर्याभ ना अभियोगिया वीतराग ने वंदना कीधी । ते वन्दना करण री आज्ञा भगवान् दीधी. (१३) तथा भगवती श०२ उ० १ भगवन्त ने वंदना करण री स्कंदक सन्यासी ने गौतम स्वामी आज्ञा दीधी। (१४) इत्यादिक अनेक ठामे निरवद्य करणो ने शुद्ध कही। ते करणी ने अशुद्ध कहे आज्ञा वाहिरे कहे ते एकान्त मृषा. घादी जाणवा। छाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २६ बोल्न सम्पूर्ण।
चली केतला एक अजाणजीव इम कहे-जे उवाई में कह्यो छ। मातापिता सविनय थी देवता थाय। तो मातापिता रो विमय करे ते सापद्य छै भाशा
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
बाहिरे छै। पिण तिण सावध थी पुण्यबंधे अने देवता थाय छै । इम ऊधी थाप करे तेहनो उत्सर । जे उबाई में धणा पाठ कह्या छै। हाथी मारी खाय ते हाथी तापस पिण मरी देवता थाय इम कहो। मृग सायम मृग मारी खाय ते पिण मरी देवता थाय इम कह्यो । तो जे हायीताएस. मृगतापस देवता थाय । ते हाथी मृग मारे तेहथी तो थावै नहीं। पुण्यवंधै ते तापसादिक में अनेरा शील तप आदिक गुण छै तेहथी तो पुण्यबंधे अने देवता हुवे । तिम मातापिता नो विनय को तेहया जीवां में पिण और भद्रकादि भलागुणाधी पुण्यबंधे देवता थाय । पिण मातापिता री शुश्रूषा यो देवता हुवे नहीं । गुण थी देवता हुवे छै। तिहां एहवो पाठ कह्यो छ ।
से जे इमे गासागर नगर जाव सन्निवसेसु मणुआ भवंति–पगति भदका पगति उपसंता. पगति पत्तणु कोह माण माया लोभा मिउ मदव संपन्ना अलीणा वीणिया अम्मा पिनो उसुस्सुसका अम्मापित्ताणं अतिकमणिजवयणा अप्पिच्छा अपारंभा अप्प परिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अपेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभ समारंभेणं वित्तिक-पेमाणा बहूई वासाई आउयं पालंति पालित्ता कालमासे कालं किचा अनुत्तरेसु वाणमंतरेसु देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति, तच्चेय सव्वंणवरं-ठिति चोदसवास सहस्साई॥
( सूत्र उवाई प्रब
से ते. जे जे गा० ग्राम प्रागर. नगर. यावत. स. सन्निया ने विपे. म० मनुष्य हुवे छै (ते कहै छ) ५० प्रकृति भद्रा कुटिलपणा रहित प० प्रकृति स्वभावे जे क्रोधादिक उपशाम्या छ । ५० प्रकृति स्वभावे पतला की० क्रोधमान माया लोभ मूळ रूप छै जेहनें मिल मृदुसुकोमल, म० 'अहंकार नो जीतबो तेणेकरी ने सहित ऋ० गुरु ना चरण आश्रीते रह्या वि० विनीत सेवा भक्ति ना करणहार अ० मातापिता ना सेवाभक्ति ना करथ हार. मातापिता नो वचन कथन उल्ल'धे नहीं. अल्पाइ-छा मोटीवांचा जेहनें नहीं । अ० अलायोगे प्रारंभ प्रथिव्यादिक ना उपद्रव्य कनादिक जेहने. अ० अल्पथोड़ो परिग्रह धाधान्यादि कली सूची जेहने । अ० अस्पोडो भारंस जोको विमाश जेइने देशकरी. अ अप थोड़ो हमारभ जीवने परितापन,
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भ्रम विध्वंसनम् ।
उपजावि जेहने छै तेणेकरी अ० अल्प थोड़ो जीवनो विनाश अनें समारंभ जीवने परितापरूप छै जेहनें तेणेकरी. वि० वृत्ति आजीविका क० करतां धका. व० घणा वर्ष लगी आयुषो जीवितव्यपाले एहवो आयुषो प्रतिशलीने का० काल मरण ना अवसर ने विषे कालमरण करो ने अ० घणा ठाम छै तेमाही अनेरो कोई एक. वा० व्यन्तरना देवलोक रहिवाना ठाम ने विषे दे० देवतापण उ० उपपात सभाइ उपजीवो लहै तं० गतिजाययो अायुषानी स्थिति उपपात सर्ब पूर्वली परै ण. एतलो विशेष ठि० स्थिति चौदह सहस्र वर्ष लगी हुई।
अथ इहां तो भद्रकादि घणा गुण कह्या । सहजे क्रोधमान मायालोभ पतला अल्प इच्छा अल्प आरंभ अल्प समारंभ एहवा गुणा करि देवता हुवे छै । तिवारे कोई कहे एतला गुणा में कह्या जे मातापिता रो बचन लोपै नहि ए पिण गुणामें कह्यो ते गुणइज छै। पिण अवगुण नहीं । अवगुण हुवे तो गुणामें आणे नहीं । एपिण गुणा में कह्यो। इम कहे तेहनो उत्तर--अहो महानुभावो ! ए गुण नहीं ए तो प्रतिपक्ष वचन छे। जे इहां इम कह्यो सहजे पतला क्रोध मान माया लोभ, ए क्रोध. मान माया लोभ पतला थोड़ा ते तो अवगुणइज छै। थोड़ा अवगुण छै पिण क्रोधादिक तो गुण नहीं पिण प्रतिपक्ष बचने करि ओलखायो छै। पतला क्रोधादिक कह्या तिवारे जाडा क्रोधादिक नहीं, एगुण कह्या छै। वली कह्यो अल्प इच्छा अल्प आरंभ अल्प समारंभ ए पिण प्रतिपक्ष वचने करी ओलखायो छै। परं अस्स आरंभ अल्प समारंभ अल्प इच्छा कही। तिवारे इम जाणीई जे घणी इच्छा नहीं ए गुण छै । एपिण प्रतिपक्ष वचने ओलखायो छै । तिम ए पिण कह्यो मातापिता रो विनीत मातापिता रो वचन लोपै नहीं. एपिण प्रतिपक्षे वचने करि ओलखायो छै. जे मातापिता रा विनीत कह्या । तिवारे इम जाणीई मातापिता रा अविनीत नहीं क्षुद्र नहीं अयोग्यता न करे कजियाखोड़ वथोकड़ा खंडवंड नहीं एगुण छ। एपिण प्रतिपक्ष वचन छै। अनें जो मातापिता रो विनीत तेहीज गुणथाय तो तिणरे लेखे अल्प इच्छा अल्प अरंभ अप समारंभ ए पिण गुण कहिणा। जिम थोड़ो आरंभ कह्यां घणों आरंभ नहीं इम जाणीइ। तिस मातापिता रा विनीत कह्यां अविनीत कजियाखोड नहीं. इम जाणिये। अगे जो मातापिता रा विनीत कह्या-तेहिज गुण थायसे तो इहां इभ को मातापितारो वचन उल्लंधे नहीं। तिणरे लेखे एपिण गुण कहिणो। जो ए गुण छै तो धर्म करता मातापिता वर्जे, अने न माने तो ए वचन लोप्पो ते माटे तिणरे लेखे अवगुण कहिणो। साधुपणो लेतां श्रावक पणूं
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मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
४६
भादरतां सामायकपोषा करतां मातापिता वर्जे तो तिणरे लेखे धर्म करणो नहीं। अने सामायकादि करे तो अविनीत थयो ते अवगुण हुवे तेहथी तो धर्म हुवे नहीं। इम कह्यां पाछो सूधो जबाब न आवे जब अकबक बोले मतपक्षी हुवे ते लीधी टेक छोड़े नहीं । अने न्याय विचारी ने खोटी टेक मिथ्यात्व छांडी साँचो श्रद्धा धारे ते न्यायवादी हलुकम्मी उत्तम जीव जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो
इति ३० बोल सम्पूर्ण। इति मिथ्यात्वि क्रियाऽधिकारः।
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or दानाऽधिकारः ।
कोई कहे असंयती ने दीर्घा पुण्य पाप न कहिणो । मौन राखणी । भने जे 1 पाप कहे ते आगला रे अन्तराय से पाटुणहार छै। उपदेश में पिण पाप न कहिणो । उपदेश में पिण पाप कह्यां आगलो देसो नहीं जद अन्तराय पड़े, ते भणी उपदेश में पिण पाप कहिणो नहीं, मौन राखणी । इम कहे तेहनो उत्तर- - साधुरे मौन कही ते वर्त्तमानकाल आश्री कही छै । देतो लेतों इसो वर्त्तमान देखी पाप न कहे। उ वेलां पाप कह्यां जे लेवे छै तेहनें अन्तराय पड़े ते माटे साधु वर्त्तमाने मौन राखे । तथा कोई अभिग्रह मिथ्यात्व नो धणी पूछे—तठे पिण द्रव्य क्षेत्र काल भाव भवसर देखने वोलणो । पिण अवसर बिना न बोले। जद आगलो कहै --जे वर्तमान में अन्तराय न पाडणी, अन्तराय तो तीनुहीं काल में पाहुणी नहीं । अने उपदेशमें पाप कह्यां आगलों देसी नहीं जद आगमिया काल में अन्तराय पड़ी इम कह तेहने इम कहिणो । इम अन्तराय पड़े नहीं अन्तराय तो वर्त्तमानकाल में इज कही छै । पिण और वेलां अन्तराय कही नहीं । अनें उपदेशमें हुवे जिसा फल बतायां अन्तराय श्रद्ध तिरे लेखे तो किणही ने दीघां पाप कहिणो नहीं । कसाई चोर भाल मेर मेंणा अनार्य म्लेच्छ हिंसक कुपात्रा ने दीघां पाप कहे तो तिणरे लेखे अन्तराय से प्राणहार छै । वली अधर्मदान में पिण पाप किणही काल में कहिणो नहीं । पाप कह्यो आगलो देवे नही तो त्यारे लेखे उठे पिण अन्तराय पाड़ी, वेश्या नें कुकर्म करवा देवे, तिण में पिण पाप कहिणो नहीं । पाप कह्यां वेश्या नें देसी नहीं जद आगामी काले अत्तराय पड़ती । धुर नें वाघिसाटे धान दीघां उपदेश में पाप कहिणो नहीं, पाप कह्यां देसी नहीं, तो तिणरे लेखे अन्तराय पड़सी । वली खर्च वरोटी जीमणवार मुकलावो पहिरावणी मुसालादिक नाटकियादिक ने दीघां-पिण पाप कहिणो नहीं, इहां पिण तिणरे लेखे अन्तराय पड़े छे । वली सगाई कियाँ पिण पाप कहिणो नहीं
।
पाप कह्याँ पुत्रादिक नी सगाई करे नहीं, जद पिण त्यांरे लेखे अन्तराय पड़े। इण श्रद्धा रे लेखे कुपात्रदान में पिण पाप
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दामाऽधिकारः।
कहिणों नहीं । घली कोई ने सामायक पोषो करावणो नहीं । सामायक पोषा में कोई में देवे नहीं । जद पिण इहां अन्तराय कर्म बंधे छै, इम अन्तराय श्रद्ध छै। तो ते पाछे बोल कह्या ते क्यूं सेवे छै । अन्तराय पिण कहिता जाय. अने पोते पिण सेवता जाय। त्यां जीवां में किम समझाविये। अर्ने सूयगडाङ्ग अ० ११ गा० २० अर्थमें वर्तमानकाले निषेध्या अन्तराय कही छै । परं और काल में न कही। साधु गोचरी गयो गृहस्थ रा घर रे वाहिरने भिख्यारी ऊभो छै । ते वर्तमानकाले देखी साधु तिण घरे गोचरी न जाय अनें साधु गोचरी गयां पछे भिख्यारी आवे तो तेहनी अन्तराय साधु रे नहीं । तिम वर्तमानकाले देतो लेतो देखी पाए कह्यां अन्तराय लागे। अनें उपदेश में हुवे जिसा फल बतायां अन्तराय लागे नहीं उपदेश में तो श्री तीर्थङ्करे पिण ठाम २ सूत्रां में असंयती ने दियां कडुआ फल कह्या छै। ते साक्षीरूप कहे छ। भगवती श० ८ उ० ६ असंयती ने अशनादिक ४ सचित्त अचित्त सूझता असूझता दियाँ एकान्त पाप कह्यो ( १ ) तथा सूयगमाङ्ग श्रु० ख०१ अ० ६ मा० ४५ आद्र मुनि विप्र जिमायां नरक कह्या (२) तथा उत्तराध्ययन अ० १२ गा० १४ हरि केशी मुनि ब्राह्मणां ने पाप कारिया क्षेत्र कह्या (३) तथा उत्तराध्ययन अ० १४ गा० १२ पुरोहित भग्गु ने पुत्रां कह्यो विप्र जिमायां तमतमा जाय। (४) तथा उपासक दशा अ० १ आनन्द श्रावक अभिग्रह धास्सो. जे हूं अन्य तीर्थयांने दान देवू नहीं देवावू नहीं। (५) तथा ठाणाङ्ग ठा० ४ उ० ४ कुपात्रा ने कुक्षेत्र कह्मा (६) तथा उपासक दशा अ०७ शकडाल पुत्र गोशाला ने सेज्या संथारो दियो तिहां “णो चेवणं धम्मोतिया तवोतिवा" का (७) तथा विपाक अ० १ गालोढा ने दुःखी देखि गोतम स्वामी पूज्यो । इण कांई कुपात्र दान दीधो तेहना ए फल भोगवै
इम कह्यो । (८) तथा सूयगडाङ्ग श्रु०१ अ० ११ गा०२० सावद्य दान प्रशंस्यां छव काय रो घाती कह्यो। (६) तथा सूयगडाङ्ग श्रु १ अ. ६ गा० २३ गृहस्थ ने देवो साधां त्याग्यो ते संसार भ्रमण हेतु जाणो ने छोड्यो इम कह्यो। (१०) तथा निशीथ उ०१५ साधु गृहस्थ ने अशनादिक देवे देतां ने अनुमोदे तो चौमासी प्रायश्चित कह्यो । (११) तथा सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० २ श्रावक रौ खाणौ पीणौ गेहणौ अग्रतमें कह्यौ। ( १२ ) तथा ठाणाङ्ग ठाणा १० अव्रत ने भावशस्त्र कह्यो । । १३ ) इत्यादिक भनेक ठामे असंयतो ने दान देवे तेहना कडुआ फल उपदेश में श्री तीथंङ्करे कह्या छ। ते भणी उपदेश में पाप कह्यां भन्तराय लागै नहीं। उपदेश में छै जिसा फल
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५२
भ्रम विध्वंसनम्।
च
बतायां अन्तराय लागे तो मिथ्या दृष्टिरो सम्यग्दृष्टि किम हुवे । धर्म अधर्म री ओल. खना किम आवे ओलखणा तो साधुरी बताई आवे छै। डाहा हुवे तो विद्यारिः जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
हिवे जे असंयती अन्यतीथीं ना दान रा फल कडुआ सूत्र में कह्या छ । ते पाठ मरोड़ी विपरीत अर्थ केतला एक कर छ। ते ऊधा अर्थरूप भ्रम मिटावा ने सिद्धान्त ना पाठ न्याय सहित देखाड़े छै। प्रथम तो आनन्द श्रावक नो अभिग्रह कहे छ।
ताएणं से आणंदे गाहावइ समणस्स भगवो महावीररस अंतिए पंचाणबईयं सत्त सिक्खावइयं दुवाल सविहं. सावागधाम पडिवजहि २ तासमणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–णो खलु मे भंते ! कप्पइ अजप्पभइओ अण्ण उस्थिएवा अणउत्थिय देव यारिणवा अण उत्थिय परिग्गहियाणिवा अरिहन्त चेइयाति १ बंदित्तएवा नससित्तएवा पुब्बिं अणालवित्तेणं आलवित्त:: एवा संलवित्त एवा तेसिं असणं वायाणंवा खाइमंवा साइमंवा दाउवा अणुप्पदाउवा नन्नस्थ रायाभिओगेणं, गणाभियोगेणं, वलाभिन्नोगेणं देवाभियोगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्ती कतारेणं । .
(उपासक दशा ०१)
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दानाऽधिकार:
त तिवारे प्रा० अानन्द नामक गाथा पति. स० श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी रे. निकटे. पं० ५ अनुप्रत. स. ७ शिक्षारूप. दु० १२ प्रकार रा सा० श्रावक धर्म. प० अंगीकार कीधो. करी ने स० श्रमण भावान् महावीर स्वामी वांद्या. नमस्कार कीधी. वांदीने. न नमस्कार करी ने. ए० इम. व० वोल्या. णो नहीं. ख० निश्चय करी ने. मे० मोनें. भ० हे भगवन्त ! क० कल्पई. अाज पछे अ० अन्य तीर्थी शाक्यादिक. अ० अन्य तीर्थी ना देव हरि हरादिक श्रः अन्यतीर्थिये १० श्रापण करी ने ग्रह्या. अ० अरिहन्त ना. चे साधु-ते में. वं वन्दना करवी न कल्पई पू० पहिल. अविना बोलायां ते हने. अ० एकबार बोलाविवो न कल्पे. स. बार बार बोलाविवो न कल्धे दे० तेह ने अ० अशनादिक ४ श्राहार दा० देवू नहीं. अ० अनेरा पाहे दिवरावू नहीं. ण एतलो विशेष. रा० राजाने आदेशे आगार ग० घणा कुटुम्ब ना समवाय ने आदेशे आगार २०० कोई एक बलवन्त ने परवश पणे आगार ३ दे देवता ने परवश को आगार. गु० कुटुम्ब में बड़े रो ते गुरु कहिये तेह ने आदेशे ग्रागार. वि० अटवी कांतार ने विषे कारण अागार ६ ।
अथ अठै भगवान् कनें आनन्द आवक १२ ब्रत आदला तिण हिज दिन ए अभिग्रह लीधौ । जे हूं आज थी अन्यत्तीर्थी ले अने अन्यतीर्थों ना देव ने अने अन्य तीथीं ना ग्रह्या अरिहन्त ना चैत्य ते साधु श्रद्धाभ्रष्ट थया ए तीना में वांदू नहीं नमस्कार करू नहीं। अनादिक देवू नहीं देवावू नहीं। तिण में ६ आमार राख्या ते तो आपरी कचाई छै। परं धर्म नहीं । धर्म तो ए अभिग्रह लीधो निग में छै । अने आगार तो सावध छै। जो अन्य तीर्थी ने दियां धर्म हुये तो आनन्द श्रावक ए अभिग्रह क्यूं लियो । जे हूं अन्य तीर्थी ने देवू नहीं दिवा नहीं। ए पाठ रे लेखे तो अन्य तीर्थी ने देवो एकान्त सावध कर्म बंधनो कारण छै । तरे आजन्द छोड्यो छै। तिवारे कोई एक अयुक्ति लगावी कहे। ए तो अन्य तीर्थी धर्म रा व पी निन्दक ने देवा रा त्याग कोधा। परं अनाथ ने देवारा त्याग कीधा नहीं। तेहनो उत्तर-एह नो न्याय ए पाठ में इज कह्यो। जे हूं अन्य तीर्थी ने वांदूं नही आहार देवू नही। ए हमें तो अन्य तीर्थी सर्व आया। सर्व अन्य तीयों ने वंदना असनादिक नो निषेध कसो छै अने जे कहे धर्म ना द्वेषी ने देणो छोड्यो। बीजा अन्य नीर्थियां ने देवा रो नियम लीधो नहीं। इस कहे ते हने लेखे तो धर्म ना डेपी ने वन्दना न करणी वीजा ने वन्दना पिण करणी। ए तो बेहूं पाउ भेला कह्या छै। जो बीजा ग़रीब अन्यतीर्थी ने अशनादिक दियां पुण्य कहे तो तिणरे लेखे ते अन्य तीर्थयां ने वंदना कियां पिण पुणय कहिणो । अने जो वीजा गरीब अन्य तीर्थी ने वंदना कियां पुणय. नहीं तो अन्नादिक दियां पिण पुण्य नहीं। ए तो पाधरो न्याय छ। जे सर्व अन्य
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भ्रम विध्वंसनम् ।
afर्थयां ने वंदना नमस्कार करण रा त्याग पाप जाणी ने किया तो अन्नादिक देवा रा त्याग पिण पाप जाण ने किया छे । पहिला तो वन्दना रो पाठ अने पछे अशनादिक देवो छोड्यो पाठ छै । ते विहूं पाठ सरीखा छै । वली छव आगार रो नाम लेवे छै ते छत्र आगार थी तो अन्य तीर्थी ने वन्दना पिण करे अने दान पिण देवे । जे राजाने आदेशे अन्य तीर्थी ने वन्दना पिण करे दान पिण देवे । ( १ ) इम गण समुदाय ने आदेशे (२) वलवन्त ने जोड़े (३) देवता ने आदेशे (४) वडेरा रे को (५) ए पांच कारणे परवश पणे करी अन्य तीर्थी ने वन्दना पिण करे दान पिण देवे । भने छठो "वित्त कंतार" ते अटवी आदिक ने विषे अन्य तीर्थी आव्या है । तो एने अने रा लोक वन्दना करे, दान देवे छे। तो तेहना कह्या थी लज्जाई करी वन्दना fपण करे दान पिण देवे । ए लजाइ देवे वन्दना करे ते पिण परवश छै जे राजाने आदेशे ते पिण राजा री लाजरूप परवश पणो छै । इम छहूं आगार पर वश पणे वन्दना करे दान देवे। जो छठा आगार में दान में धर्म कहे तो वन्दना में पिण धर्म कहिणो । अनें जो वन्दना में धर्म नहीं तो ते दान में पिण धर्म नहीं ए तो छव आगार छै । ते आप री कचाई छै, पिण धर्म नहीं । जो यां ६ आगारां में धर्म हुवे तो सामायिक पोषा में ए आगार क्यूं त्याग्यो । ए तो आगार माठा छै । तरे छांडे छै धर्म ने तो छाँडे नहीं । जिसा पांच आगारां में फल हुवे तेहिज फल छठा आगार मो छे । खाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
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I
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इति २ बोल सम्पूर्ण ।
५४
अत्र कोई कहे- (- अन्य तीथों ने देवारा आनन्दे त्याग कीधा पिण असंयती नेदेवारा त्याग नथी कीधा । ते माटे अन्यतीर्थी ने देवा नो पाप छे परं असंयती ने दियां पाप नहीं. असंयती ने दियाँ पाप कह्यो हुवे तो बतावो । ते ऊपर अती ने दियां पाप को छै । ते पाठ लिखिये छै ।
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दानाऽधिकारः।
समणो वासगस्सणं भंते ? तहारूवं असंजय. अविरय. भपडिह्य, पच्चक्खाय पावकम्मे पासुएणवा अफासुएणवा एसणिज्जेणवा अण्णेसणिज्जेणवा असणपाण जाव किं कजह गोयमा ? एगंतसो से पावे कम्मे कजइ नत्थि से काइ निजरा कज्जइ।
(भगवती श०८०६)
स० श्रमणोपासक. भ. हे भगवन्त ! त० तथा रूप भसयती. अ० श्रमती अ. मथी प्रतिहण्या' ५० पचखाने करी ने. प० पापकर्म जेणे, एहवा असंयतो में. क. प्राशुक. प्र. अप्राशुक. ए. एषणीय दोष रहित. भ० अशन. पा० पाणी. जा० यावतू दोधां स्यू फल हुवे. हे गौतम ! ए० एकान्त ते पापकर्म. क० हुई. ण नथी. ते० तेहने. का० काई. णि निर्जरा. एतले निर्जरा न हुई।
मथ अठे तथा रूप असंयती में फासु अफासु सूझतो असूझतो अशनादिक देवे ते श्रावकने एकान्त पाप कह्यो छै । अनें जो उपदेश में पिण मौन राखणी हुवे तो इहां एकान्त पाप का कह्यो। इहां केतला एक अयुक्ति लगावी इम कहे ए तथा रूप असंयती ते अन्य तीथीं ना वेष सहित मतनो धणी ते तथा रूप असंयती तेहने “पडिलाभ माणे" कहितां साधु जाणी ने दीधां एकान्त पाप कह्यो छ । ते दीधां रो पाप नहीं छै। ते तथा रूप असंयतीने साधु जाण्या मिथ्यात्वरूप पाप लागे ते एकान्त पाप मिथ्यात्व ने कहीजे। एहवो विपरीत अर्थ करे छ। तेहने इम कहीजे ए अन्य तीर्थी ना बेषसहित असंयती तो तुम्हे कहो छै तो ते अन्य तीर्थी नो रूप प्रत्यक्ष दीखे तेहने साधु किम जाणो। ए तो साक्षात् अन्य तीथीं दीसे तेहने श्रावक तो साधु जाणे नहि। अने इहां दान देवे ते श्रमणोपासक श्रावक कह्यो छै। "समणोवासएणंभंते" एहबूं पाठ छ। ते माटे अन्यतीर्थी ने श्रावक तो साधु जाणे नहीं। वली इहाँ सचित्त अचित्त सूझतो असूझतो देवे कह्यो तो श्रावक साधु जाणने सचित्त असूझता ४ आहार किम वहिरावे ते माटे ए तो साम्प्रत मिले नहीं। वली जे कहे छै देवा रो पाप नहीं साधु जाण्या एकान्त पाप है मिथ्यात्व लागे। ए पिण विपरीत अर्थ करे छै। इहां देवा रो पाठ कह्यो पिण
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भ्रम विश्वसनम् ।
जाणवा रो पाठ इज नहीं । इहां तो गोतम पूछयो । तथा रूप असंयती ने सचित्त अचित्त सूझतो अपूझतो ४ आहार श्रावक देवे तेहने स्यूं हुवे । इम देवा रो प्रश्न चाल्यो, पिण इम न कह्यो। साधु जाणे तो स्यूं हुवे इम जाणवा रो प्रश्न तो न कयो। जो जाणवा रो प्रश्न हुवे तो सचित अचित्त सूझता अजूझता वली ४ आहार ना नाम क्यूं कह्या । ए तो प्रत्यक्ष दान देवा रो इज प्रश्न कियो। तिण सू ४ आहार ना नाम चाल्या । तिण दीधां में इज भगवन्ते एकान्त पाप कह्यो छ। वली एकान्त पाप मिथ्यात्व ने इज कहे । ते पिण केवल मृषावाद ना वोलण हार छै। जे ठाणांगे ४ सुखशय्या कही तिणमें प्रथम सुखशय्या निःशङ्कपणो. बीजी परलाभनो अनघाँछयो-जीजी काल भोगनें अगवांछवो. चौथी कष्ट वेदना समभावे सहिवं । ते चौथी सुखशय्या नो पाठ लिखिये छ।
अहावरा चउत्था सुहसेज्जा सेणं मुण्ड जावपव्वइए तस्सणमेवं भवइ जइ ताव अरिहंता भगवन्ता हवा आरोग्गा वलिया कल्लसरीरा अन्नयराइ'. अोरालाई. कल्लाणाई. विउलाइ'. पयत्ताइ'. पगहियाहिं. महाणभागाइ कम्मकाखयकरणाई. लबोकम्माझं. पड़िबज्जति. किमंगपुणअहं अज्कोवलियो बलासियंवेयरणं णो सम्मं सहामि. खमामि. तितिखेभि अहियासेमि ममंचणं अज्कोवगमिओ वकझि सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिखेमाणस्स अणहियासेमाणस्त किमणणेकज्जइ एगंतसो पावे कम्मे कन्जइ समंचण मझोक्गमित्रो जाव सम्म सहमाणस्स जाव अहियासे माणस्स किमण्णे कजइ. एगंतसो मेणिज्जरा कज्जइ चउत्था सुहसेज्जा ।
(ठाणा ठाणे ४ उ०३)
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दानाऽधिकारः
से० ते मुंड थई. जा० यावत्.
अ० अथ हिवे अ० अवर अनेरी. च० चउथी सुखशय्या. ० लेईने त ते साधु ने ए० इम मनमांहि भ० हुई ज० जो ता० प्रथम अ० अरिहन्त भ० भगवन्त ह० शोकने प्रभावे हरण्यानी परे हर्ष्या. अ० ज्वरादिक वर्जित ब० बलवन्त क= परवडू शरीर अ० अनशनादिक तप मांहिलू अनेरू शरीर उ० अनशादिक दोष रहित युक्त. क मंगलीक रूप. वि० घणा दिन नो. प० अति हि संयम सहित प० चादर पण पत्रिज्या म० अत्यन्त शक्ति युक्त पणे ऋद्धि नो करणहार क० मोक्ष ना साधवा थी कर्मज्ञय नुकरणहार त तप कर्म तर क्रिया प० पड़िवज्जै सेवे । किं० प्रश्ने अंग ते आमन्त्रणे
क. पु० वल पूर्वोक्तार्थ नू विलक्षण पणू दिखाड़वाने अथे. अ० हूँ. ते लोव ब्रह्मवर्यादिके. उ० श्रायुषो उपक्रमिये उलंघईये एणे करी ते दिक नी वेदना स्वभावे उपजे नो० नहीं. सं० सन्मुख पणे करी जिम साहो थाइ ने लेवे तिमि वेदना थकी भाजू नहीं ख० कीपरहित प्रदीनपणे खमू. ०
० जे उदेरी लीजिये उपक्रम ज्वरातिसारासुट वेरी ना थाट समूह
पहासू शब्द सर्व एकार्थज है । म० मुझ ने अभ्युपगम की लोचादिक नी उ० उपक्रम की ज्वरादिक नी वेदना स सम्यक् प्रकारे अणसहितां ने. अ० अणखमता ने. अ० दोन पणे मतां ने. अ० अण अहियासताने किं० वितर्क ने श्रर्थे क० हुई. ए० एकान्त. सो० सर्वथा मुझ ने पा० पाप कर्म क० हुइ एतलो जो तीर्थंकर सरीखा पुरुष तपादिक नो कष्ट सहै तो हूँ अभीवगमिया ने उवक्कमिया बेदना किम न सहूं जो न सहूं तो एकान्त पाप कर्म लगे अनें जो स० मुझ ने छा० ब्रह्मचर्यादिक ना. वा० तायत. स० सम्यक प्रकारे स० सहतांकां जाव ० अहियासतां थकां किं वितर्क ने थे. ए० एकान्त. सो० ते मुझ ने निर्जरा क० थाई ।
५७
अथ अठे इम को - जे साधु ने कष्ट उपनें इम विचारे, जे अरिहन्त भगवन्त निरोगी काया राणी कर्म खपावा भणी उदेरी ने तप करै छै । सो हूं लोचब्रह्मचर्यादिक नी तथा रोगादिक नी बेदना किम न सहूं । एतले प बेदना सम भाव अणसहितां मुझ ने एकान्त पाप कर्म हुई । अनें समभावे बेदना सहिताँ 'मुझ ने एकान्त निर्जरा हुई । 'इहां साधु ने पिण बेदना अणसहिवे एकान्त पाप कह्यो । जे एकान्त पाप मिथ्यात्व ने कहै छै तो साधु नें तो मिथ्यात्व छै इज नथी । अनें बेदना अणसहिवे एकान्त पाप कह्यो छै । ते माटे एकान्त पाप ने मिथ्यात्व इज कहै छे । ते झूठा छे । इहां पाप रो नाम इज एकान्त पाप छै एकान्त शब्द तो पापना विशेषण ने अर्थे को छै । जे साधु बेदना सहे तो एकान्त निर्जरा कही छै । इहां पिण एकान्त विशेषण ने अर्थे को छै । तथा भगवती श०८ उ०६ साधु ने निर्दोष दियां एकान्त निर्जरा कही छै । तथा भगवतौ श० १ उ० ८ अव्रती
८
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भ्रम वियसनम्।
ने एकान्त बाल कह्यो साधु ने एकान्त पण्डित कहो। इत्यादिक अनेक ठामे एकान्त शब्द कमा छै, एक पाप छै पिण बीजो नहीं ! अन्त कहितां निश्चय करके तेहने एकान्त पाप कहिये। हेम नाममाला में ६ काण्ड में ६ वां श्लोक “निर्णयो निश्चयोऽन्तः' इहां अन्त नाम निश्चय नो कह्यो छै। तथा भगवती श. ७ उ० ६ “एकन्तमतंगच्छ३" ए पाठ में एगन्त शब्द कह्यो छै। तेहनो अर्थ टोका में इम कह्यो छ । ते टीका
एगंमित्ति-एक इत्येवमं तो निश्चय एवासावेकान्तः इत्यर्थः'' एहनो अर्थ-एक अन्त कहितां निश्चय ते एकान्त, एतले एक कहो भावे एकान्त कहो। इम अन्त कहितां निश्चय कह्यो छै एक अन्त कहितां निश्चय करी पाए ते एकान्त पाप छ। एक पाप इज छै पिण और नहीं इम निश्चय शब्द कहिवो। अनें एकान्त शब्द नो भ्रम पाड़ी एकान्त पाप मिश्यात्व ने इज ठहिरावे छै ते मृषाघादी छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
वली "पडिलाममाणे" ए शब्द थी साधु जाणी देवे इम थापे छै। ते पिण झूठा छै। ए “पडिलाभमाणे" तो देवा नो छै। इहां साधु नो तो नाम वाल्यो नहीं। ए तो 'पडि' कहतां परि उपसर्ग छै। अने लाभ ते “लभ-आपणे" आपण अर्थ ने विषे लभ धातु छै । ते पर अनेरा ने वस्तु नो लाभ तेने पडिलाझ कहिई। साधु जाणी ने श्रावक देवे तिहां “पडिलाभ माणे" पाठ कह्यो तिम साधु ने असाधु जांणी हेल्या निन्दा अवज्ञा कर कोई धर्म रो द्वेधी अपमान देई जाहर सरीखो अमनोज्ञ आहार देके तिहाँ पिण “पडिलाभ माणे" पाठ कह्यो छ। है प्रते लिखिये छै ।
कहणं भंते ! जीवा असुभदीहाउ यत्ताए कम्मं पकरंति मोचमा ! पाणे अखाएत्ता मुसंवइत्ता तहारूवं समणंवा
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दानाऽधिकारः
माहणंवा हीलित्ता निंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमण्णित्ता अण्णपरेणं अमणुगणोणं अप्पोय कारणेणं असणपाण खाइम साइमेणं पडिलाभित्ता एवं खलुजीवा जाव पकरेंति ।
(भ० श० ५ उ० ६ तथा ठाणाङ्ग ठा० ३ ) ___० किम् भ० हे भगवन्त. जी जीव. ! अ० अशुभ दीर्घ आयुषा प्रति. ५० बांधे हे गौतम ! पा० प्रारमजीव प्रति. अति हणने नै मृषा प्रति व० वोलो ने. लहा० तथा रूप दार देवा जोग म० श्रमण में. प० पोते हणवा थी निवृत्यो छै. अनें दुजानें कहे माहणस्यो ते माहणने ही० हेलणा ने जातिन उघाड़ वू तेरे करी. नि० निन्दामन करोने खि० खिसन ते जन समक्ष ग० गर्हण तेहनीज साखै। अ० अपमान अन ऊभाथाय वू अ. अनेरो एतलावाना माहिलू एक अ० अमनोज्ञ अ० अप्रीति कारक. अ० अशन. पा० पाणी. खा० खादिम. सा. स्वादिम. १० प्रतिलाभी ने ९० इम ख. निश्चय. जी० जीव अशुभ दीर्घायु बांधे।
___ मठ अठे कह्यो। जीवहणे झूठ बोले साधुरी हेला निन्दा अवज्ञा करी अपमान देई अमनोज्ञ अप्रीति कारियो अशनादिक प्रतिलाभे। तेहने अशुभ दीर्घायु षो बंधे पहवू का छै । तो ये साधु जाणी ने हेला निन्दा अवज्ञा किम करे। वली साधु ने गुरु जाणी तेहने अपमान किम करे। वली गुरु जाणी ने अमनोज्ञ अप्रीति कारियो आहार किम आपे। ए तो प्रत्यक्ष देणेवालो धर्म रो द्वेषी छै। साधु ने खोटा जाणो हेला निन्दा अवज्ञा करी अपमान देई अमनोज्ञ अप्रीतिकारियो ज़हर सरीखो आहार देवे छै तिहां पिण “पडिलाभित्ता" एहवो पाठ कह्यो छ । ते माटे जे कहें “पडिलाभमाणे" कहिता गुरु जाणो देवे, एहयूं कहे ते झूठा छै । “पडिलाभमाणे" कहतां देतो थको इम अर्थ छै पिण साधु असाधु जाणाना रो अर्थ नहीं बाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
वली साधु ने मनोज्ञ आहार वहिरा वे तिहां पिण “पडिलाभमाणे" पाठ छ। ते लिखिये छ।
कहणं भंते ? जीवा शुभ दीहाउयत्ताए कम्मं पकरंति. गोयमा ? नोपाणे अइवाएत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं
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भ्रम विध्वंसनम्।
समणंबा माहणंबा वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता. अण्णयरेणं मणुगोणं पीइकारएणं असणं पाणं खाइमं साइमं पड़िलाभित्ता एवं खलुजीवा आउपकरेंति ।
(भगवती श० ५ उ०६)
___क० किम् भ० हे भगवन्त ! जी० जीव. सु० शुभ दीर्घायुषा नो. क० कर्म व बांधे हे गौतम ! णो जीव प्रति न हणे. णो मृषा प्रति नहीं बोले. तथारूप सः श्रमण प्रति मा० माहण ब्रह्मवारी प्रति. बं. वांदे वांदो ने. जा. यावत ५० सेवा को ने. अ. अनेरो. म० मनोज्ञ. पी० प्रीतिकारी भलो भाव कारी. अ. अशन. पा. पाणी. खा० खादिम सा. स्वादिम. प० प्रतिलाभी ने. ए० इम. ख० निश्चय जी। यावत शुभ दोवायु बांधे।।
अथ अठे इम कह्यो। साधुने उत्तम पुरुष जाणी बन्दना नमस्कार करी सन्मान देई मनोज्ञ प्रीति कारियो अशनादिक प्रतिलाभ्यां शुभ दीर्घायुषो बांधे। इहां “पडिलाभित्ता' पाठ कह्यो । तिम हिज ‘‘पडिलाभित्ता" पाठ पाछिले आलावे कह्यो। जे साधु ने भलो जाणी प्रशंसा करी ने मनोज्ञ आहार देवे । तिहां “पडिलाभित्ता" पाठ कल्यो। तिम साधु ने खोटो जाणी हेलनादिक करी अमनोज्ञ आहार देथे तिहाँ पिण पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो। ए साधु जाणी देवे अने असाधु जाणी ने देवे । ए बिह ठिकाने "पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो । वली मनोज्ञ आहार देवे तथा अमनोज्ञ आहार देथे ए विहूं में “पडिलाभित्ता" पाठ कह्यो। वली वन्दना नमस्कार सन्मान करी देधे, तथा हेला निन्दा अवज्ञा अपमान करी देवे ए बेहूं में “पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो। शुभ दीर्घ आयुषो बांधे तथा अशुभ दीर्घायुषो बांधे ए बिहूं में “पडिलाभित्ता" नाम देवा नो छै। पिण साधु जाणवा रो कारण नहीं. साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली गुरु जाण्या बिना देवे तिहां पिण “पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो है। ते लिखिये छ।
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दानाऽधिकारः ।
तेरणं सा पोहिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीश्र पासति २त्ता हट्टा आसणातो अभुट्ठेति रत्ता वंदइ २त्ता विपुल असणं ४ पड़िलाभेति २ ता एवं वयासी ।
( ज्ञाता श्र० १४ )
त० तिवारे. सा० तिका पोटिला. ता० ते ० आयीं महासती ने ए० आवती. पा० देखे देखीने ह० हर्ष संतुष्ट पामी. ० आसण थकी उठे उठीने यं० वांदे वांदीने वि० विस्तीर्ण ० अशनादिक ४ आहार प० प्रतिलाभीने ए० इम बोले ।
अथ अठे पोट्टिला - श्रावकरा व्रत आदयां पहिला आर्या नें अशनादिक प्रतिलाभी पर्छ तेतली पुत्र भर्त्तार वश हुवे से उपाय पूछयो । एह कह्यो । पण अशनादिक पड़िलाभे इम कह्यो । तो ए गुरुणी जाणीने यन्त्र मन्त्र वशीकरण वार्त्ता किम् पूछे । जे साध्वी गुरुणी जाणी ने धर्मवार्त्ता पूछवानी रीति छै । पण गुरुणी पाशे मन्त्र यन्त्रादिक किम करावे । वली श्रावक ना व्रत तो पाछे आदला छ । तिवारे गुरुणी जाणो छौं । ते माटे पहिलां अशनादिक प्रतिलाभ्या तें वेलां गुरुणी न जाणो गुरु पछे धाला । माटे पड़िला नाम देवा नों छै । पिण साधु जाणवा रो नहीं । जिम पोहिला अशनादिक प्रतिलाभी वशीकरण वार्त्ता पूछी तिम हीज ज्ञाता अ० १६ सुखमालिका पिण साधवीयां ने अशनादिक प्रतिलाभी यन्त्र मन्त्रादिक बशीकरण वार्त्ता पूछी। इम अनेक ठामे गुरु विना अशनादिक दिया तिहां "पड़िलाभेइ" इस पाठ को छै । ते माटे "पड़िलाभेइ" नाम साधु जाणवा रो नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
जाण्या
इति ६ बोल सम्पूर्ण
तिपारे केतला एक इम कहे-जे साधु ने देवे तिहां तो "पड़िलाभ माणे” वो पाठ छे । पिण "दलज्जा" एहवो पाठ नहीं । देवे तिहां "दलपजा" पहको पाठ छै । पिण "पड़िला भेजा" पहवो पाठ नहीं ।
साधु विना भनेरा ने
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भ्रम विध्वंसनम्।
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इम अयुक्ति लगावे. तेहनो उत्तर–जे “पडिलाभेजा” अनें “दलएजा" ए येहूं ए. कार्थ छ। जे देवे कहो भावे पडिलाभे कहो। किणही ठामे तो साधु ने देवे तिहां पडिलाभ माणे" कह्यो। अनें किणही ठामें साधु ने अशनादिक देवे तिहां "दलएजा पाठ कह्यो छै । ते पाठ लिखिये छै ।
से भिक्खू वा (२) जाव समाणे सेज्ज पुण जाणेज्जा अप्तवा (8) कोटियातो वा कोलज्जातो वा असंजए भिक्खु पडियाए उकुजिया अवउज्जिया ओहरिया आहट्ट दलएज्जा तहप्पगारं असणंवा मालोहडन्ति णच्चा लाभेसंते णो पडिगाहेज्जा।
(आचारांग श्रु० २ अ० १ उ०७) से० ते साधु साध्वी. जा. यावत् गृहस्थ ने घरे गयो थको. से० ते. जं० जे. पु० वली. जा० जाणे. अ० अशनादिक ४ श्राहार. को० कोठी माटी नी तेहमाही थकी. को बांस नी कोठी तेहमाही थकी. अ० असंयती गृहस्थ. मि० साधु ने. ५० अर्थे. उ० ऊपरलो शरीर नीचौ नमाड़ी कूबड़ा नी परे थई देवे. अ० मांहि पेसी, एतले नीचलो शरीर माही पेसी उपरलो शरीर बाहिर इणी परे करी. अ. पाणी ने. द० देई. त० तथा प्रकार नों तेहवो. श्र० अशनादि ४ आहार. सो० ए सालोहड़ भिक्षा. ण जाणी ने. ला० लाभे थके. नो. न लेइ।
अथ इहां साधु ने अशनादिक वहिरावे तिहां पिण "दलएजा” पाठ कह्यो छै। ते माटे "दलपजा" कहो भावे "पडिलाभेजा" कहो। ए बिहूं एकार्थ छ ते माटे जे कहे साधु ने वहिरावे तिहां “पडिलाभेजा” कह्यो पिण "दलएजा" न कहो। इम कहे ते झूठा छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण ।
अने जे कहे साधु विना अनेरा में देवे-तिहां “पडिलाभेजा" पाठ न कह्यो। “पडिलाभेजा” पाठ साधु रे ठिकाणे इज थापे ते पिण झूठा छै। साधु
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Transferरः ।
I
बिना अनेरा ने देवे तिहां पिण " पड़िलाभमाणे" पाठ को छते पाठ कहिये
छे
ततेणं सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हट्ट त गेरहइ २ त्ता परिव्वा सु साइमं वत्थ पड़िलाभेसा
सुयरस अतियं सोयमूलयं धम्म' विपुलेणं असणं पाणं खाइमं विहरइ ।
६३
ज्ञाता श्र० ५।
त० तिवारे. सु० सुदर्शण सु० शुकदेव ने ने. हर्ष संतोष पामैं सु० शुकदेव ने श्र० समीपे ग्रही ने प० परिव्राजकां ने वि० विस्तीर्ण थको जा० यावत् वि० विचरे ।
अं० समीप सो० शुचि मूल. प्र० अशनादिक श्राहार.
धर्म प्रत सो० सांभली ० धर्म प्रते. गे० ग्रहे प० प्रतिलाभ तो
।
अन कोई कहै शुकदेव तो अशनादिक प्रतिलाभतो, ते
अथ अठे सुदर्शन सेठ शुकदेव सन्यासी ने विस्तीर्ण अशमादिक प्रतिलाभ तो थको विचरे । एहवूं श्रो तीर्थङ्करे कह्यो । ए तो प्रत्यक्ष अन्य तीर्थी ने देवे तिहां पण " पडिलाभमाणे" पाठ भगवन्ते कह्यो । तो ते अन्य तीर्थी ने साधु किम कहिये । ते माटे जे कहे साधु बिना अनेरा नें देवे तिहां "दलएजा" पाठ छौ पण पड़िलाभ माणे पाठ नहीं ते पिण झूठा छ सुदर्शन नों गुरु हुन्तो ते माटे ते सुदर्शन शुकदेव ने गुरु जाणी हिरावतो विचरे । इहां सुदर्शन नी अपेक्षाइ ए पाठ छ । इम कहे तेहनो उत्तर- इहां पडिलाभमाणे" कहितां सुदर्शन गुरु जाणी प्रतिलाभ तो थको विचरे तो. भगवती श० ५ उ० ६ कह्यो अशुभ दीर्घ आयुषो ३ प्रकारे बंधे । तिहां पिण कह्यो, जे साधु नी हेला. निन्दा. अवज्ञा करी अपमान देई अमनोज्ञ ( अप्रीतिकारियो ) आहार "पडिला भित्ता" कहितां प्रतिलाभतो कह्यो । तिरे लेखे ए पिण गुरु जाणी प्रतिलाभतो कहिणो, तो गुरु जाणी हेला निन्दा अवज्ञा कम करे | अपमान देई अनोश ( अप्रीतिकारी ) ज़हर सरीखो आहार गुरु जाणी
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भ्रम विध्वंसनम्
किम् प्रतिलाभे । ए तो बात प्रत्यक्ष दिले नहीं “पडिलाइ” नाम तो देवा नों छे । पिण गुरु जाणी देवे इम नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल संपूर्ण।
... पतले का थके समझ न पड़े तो प्रत्यक्ष “पडिलाभ” नाम देवानों छ। ते सूत्र पाठ कहे छ।
दक्विणाए पडिलंभो अस्थिवा नस्थिवा पुणो । ... नवियागोज मेहावी संति मग्गंच बृहए ॥
___ (सूयगडांग श्रु० २ लू: ५ गा० ३३ )
द० दान तेहनों. ५० गृहस्थ देवो लेणहार में लेवो इसो व्यापार वर्तमान देखी अ० अस्ति नास्ति गुण दूषण कोई न कहे गुण कहिता असंयम नी अनुमोदना लागे. दूषण कहिता वृत्तिच्छेद थाय. इण कारण न अस्ति नास्ति न कहे. मे मेधावी हि साधु किम वोले. स० ज्ञान दर्शन चारित्र रूप. कु. वधारे एतावता जिण बबन बोल्पां. असयम सापद्य ते थाय तिम न बोले।
अब अठे कह्यो “दक्खिणाए” कहितां दान नी “पडिलंभो” कहितां देवो एतले गृहस्थ ने दान देवे, तिहां साधु अस्ति नास्ति न कहे मौन राखे। इहां पिण “पडिलंभ" नाम देवानों कह्यो । ए गृहस्थादिक ने दान देवे तिहां “पडिलभ" पाठ कह्यो । जे “पडिलंभ" रो अर्थ साधु गुरु जाणी देवे, इम अर्थ करे छ। तो गृहस्थ ने साधु जाणी किम देवे। ए गृहस्थ ने साधु जाणे इज नहीं, ते माटे “पडिलाभ' नाम देवानों इज ही छै। पिण साधु जाणी देवे इम अर्थ नहीं। इम घणे ठामे “पडिलाभ" नाम देवानों कह्यो छै। सूत्रनों न्याय पिण न माने तेहनें मिथ्यात्व मोह नों उदय प्रबल दीसे छ। भगवती श० ५ उ० ६ तथा ठाणाङ्ग ठाणे ३ साधु ने उत्तम जाणी बन्दना नमस्कार भक्ति करी मनोज्ञ आहार देवे तिहां पिण “पडिलाभित्ता' पाठ कह्यो (१) तथा साधु खोटो जाणी हेला. निन्दा.
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दानाऽधिकारः।
अवज्ञा अपना करी जाहर सरीखो अमनोज्ञ आहार देवे मिति “पडिलाभिता पाठको (२) तथा भाचाराङ्ग ०२ अ० १ उ०७ साधु मा पहिरावे तिहां पिज "दलाए पाठ कालो। (३) तथा ज्ञाता अ० १४ मा भारक ना व्रत धाला पहिला सावीयां में अशताहिक दियो तिहां “पडि पाठ कहो पछे वशीकरण चाल पूछी अन गुरु तो पछे कला। (४) इन ज्ञाता अ०१६ सुखमालिका पिव शुरु कीधा पहिला आया में हिरायो तिहां “पडिला" पाठ क.ह्यो। (५) तथा शाता अ० ५ सुदर्शन. शुकदेव ने अशनादिक दियो ति मिल “पडिलाममाणे" ए पाठ श्री भगवन्ते कयो। (६) तथा सूयगडांग ०२ १०५ गा० २३ गृहस्थादिक में दान देवे तिहां “पडिलंभ" पाठ कह्यो छै। इत्यादिक अनेक ठामे पडिलंभ नाम देवानो कयो पिण साधु जाणवा रो कारण नहीं। तिम असंयती ने पिण सचित्तादिक देवे तिहां “पहिलाभमाणे" पाठ कयो । ते पडिलाम नाम देवानो छ। ते भणी असंयती ने अशनादिक प्रतिलभ्या राहो भावे दिया कहो। जे तथा रूप असंयती ने श्रावक तो साधु जाणे इज नहीं। अने साधु जाण ने श्रावक तो असूझतो तथा सचित्त अशनादिक देवे नहीं। ए तो पाधरो न्याय छै। तो पिण दीर्घ संसारी सूत्र को पाठ मरोड़ता शङ्क नहीं, वही तथा रूप असंयती ने इज अन्य तीर्थी कहे तो पिण झूठा छै। तथा रूप असंयती में तो साधु श्रावक बिना सर्व आया। तिम तथारूप श्रमण में दियां एकान्त निरा कही। ते तथा रूप श्रमग में सर्व साधु आया कोई साधु वाकी रहो नहीं। लिम तथा रूप असंयती में सर्व असंयती आया। अन्य तीर्थी ने पिण अभ्यतीनों इज रूप छ। वली वणिमग रांक भिख्यासां रे पिण असंयती नों इज रूप छै। ते माटे या सर्व तथा रूप असंयती कही जे। वली साधु रा वेष में रहे पर ईर्या भाषा एपणा आचार श्रद्धा रो ठिकाणो नहीं ए पिण साधु रो रूप नहीं। ते भणी तथा रूप असंयती इज छै आचार श्रद्धा व्यवहार करी शुद्ध छै ते तथा रुप साधु छै तेहने दियां निर्जरा छै। अनें तथा रूप असंयती ने दियां एकान्त पा श्री बोतरागे कयो छै । तेह में धर्म को ते महामूर्ख छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इतिह बोल सम्पर्शा। केला एक कहे । असंयती ने दीधां धर्म नहीं परं दुव्यवहनो उत्तर। जे पुण्य दुवे. तो आर्द्रकुमार “पुण्य कहे, त्यांने क्यूं निषेध्या। ते पार लिखिये छ।
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६६
भ्रम विवंसनम् ।
सिणायगाणं तु उवे सहस्से जे भोयएणित्तिए माहणाणं । ते पुण्ण खंधं सुमहं जणित्ता भवंति देवा इइ वेय वानी ॥४३॥ सिणायगाणं तु उसे सहस्से जे भोयर गित्तिए कुलालयाण। से गच्छइ लोलुया संवा तिव्वामिताबी पारगाहि सेवी॥४॥ दयावरं धन उगंजमारणे बहावहं धाम पसंस्मा। (एनपिजे भोअयइ अतोल णिवाणिसंजाइ कत्रो सुरोहिं ॥४५॥
(सूयाग श्रु० २ ० ६ गा० ४३-४४-४५ )
हिदे पाई कुमार प्रति ब्रालय पोता नो मार्ग देखाई है. जि सातक षट्र कर्म ना करणहर निरन्तर चंद नां भवनहार अापणां श्राचार में वि तत्पर एडया बाया. उ० ये सहन्त्र प्रति जे जे णित्य भो जिमाई त्वाने सनो वांच्छित नाहार याचे ते ते पुरुष पु० पुण्य नो स्कंध मु. पगो एक जे. उपानी में भ० शाप दे देवता इ० को इमार थे. वेदनों वचन छै इस जाणी ए ना वेदोक्त , ते तूं अादर एहया ब्राक्षाणा ना वचन सांभली प्रार्द्रकुमार कहै है॥ ४३ ॥
प्राहो प्राणोजे सि. महालक ना उ० चे सहस्र जे जे दातार मो० जिमाईणि नित्य ते स्नातक केहदै प्रासिध में अर्थे कुले कुले भमें ते कुलाटक मार्जार जाणवा ते सरीखा ते मादाय जावा जिच कारणे एह पिण सावध पाहार वांच्छता छता सदाई घर घर में विर्षे भने एवा ने जिमाई 'ते कुपात्र दान में प्रमाणे. से० ते. ग० जाइ लो० लोलुपी ब्राह्मण सहित मांस ने गृद्धी पयों करी. ति तीव्र वेदनां ना सहनहार एतावता तेत्रीस सागरोपम पर्यंत मा. नरके नारकी थाई इत्यादि ॥४४॥
वलि आर्द्र कुमार कहे है. द. दया रूप ३० प्रधान ध० धर्म में उ० उगंछतो निंदतो व० हिसा. ध धर्म ५० प्रशंसतो अशील रहित अशील वंत. ए० एहवा एक नें जे भो० जोमाड़े तथि नृप रोजा अथवा अनेराइ ते णि नरक भूमि जाई जिणे कारण नरक मांही सदाही हष्ण अन्धकार रात्रि सरीखो काल व छै तिहां जा० जाइएह वचन सत्य करो मानो तुमें कहो जे देवता थाई ते पा एहना पुरुष में असर में विषे पिण गति न जाणवी तो क० देवता विमाशिक विहां थी थाई॥४५॥
अथ अठे अद्र मुनि ने ब्राह्मणां कह्यो जे पुरुष बे हजार ब्राह्मण नित्य जिमाड़े ते महा पुण्य स्कंध उपार्जी देवता हुई एहवो हमारे वेदनों बचन छै तिवारे
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दानाऽधिकारः।
आर्द्र मुनि बोल्या अहो ब्राह्मणों ! जे मांसना गृद्धी घर घर में विषे मार्जार नी परे भ्रमण करनार एहवा बे हजार कुपात्र ब्राह्मणां ने नित्य जोमाड़े ते जीमाइनहार पुरुष ते ब्राह्मणां सहित बहु घेदनां छै जेहनें विषे एहवी महा असह्य वेदनायुक्त नरक में विषे जाइं अनें दयारूप प्रधान धर्म नी निंदा नो करणहार हिंसादिक पंच -आश्रव नी प्रशंसा नो करणहार एहवो जे एक पिण दुःशोलवंत निर्वती ब्राह्मण जीमाड़े ते महा अन्धकार युक्त नरक में जाई तो जे एहवा घणां कुपात्र ब्राह्मणां ने जीमाड़े तेहनों स्यूं कहिवो अनें तमें कहो छो जे जीमाइनहार देवता धाई तो हमें कहां छां जे एहवा दातार ने असुरादिक अधम देवता में पिण प्राप्ति नहीं तो जे उत्तम विमाणिक देवता नी गति नी आशा तो एकान्त निराशा छ। एहयो आर्द्र मुनि ब्राह्मणां ने कह्यो। तो जोवोनी जे असंयती ने जिमायां पुण्य हुये, तो आर्द्र मुनि पुण्य ना कहिणहार ने क्यूं निषेध्या नरक क्यूं कही। ते उपदेश में पिण पाप कहिणो नहीं तो नरक क्यूं कही। तिबारे केइ अज्ञानी कई- तो ब्राह्मणां ने पात्र बुद्ध जिमाड्यां नरक कही छै। तेहने पात्र जाग्या ऊंची श्रद्धा थी नरक जाय। इम कुहेतु लगावे। तेहने इम कहीजे। इहां तो जिमाड्यां नरक कही छै। अने ब्राह्मण पिण इमहिज कह्यो जे ब्राह्मण जिमाड़े तेहने पुण्य बंधे देवता हुवे हमारा वेद में इम कहो परं इम तो न कह्यो है आर्द्रकुमार! ब्राह्मणां ने पात्र जाण. ए ब्राह्मण सुपात्र छै इम तो कह्यो नहीं । ब्राह्मण तो जिमावा नो इज प्रश्न पियो । तिवारे आदमुनि जिमाड़वा ना फल बताया । जे "भोयए' एहवो पाठ छै । जे ब्राह्मणा ने भोजन करावे ते नरक जाये इम कह्यो पिण दीर्घ संसारी जीव पाठ मरोड़ता शंके नहीं। वली फेई मतपक्षी इम कहे-ए आर्द्रकुमार चर्चा रा बाद में कह्यो छै। ते आर्द्रकुमार किस्यो केवली थो। नरक कही ते तो ताण में कही छै। इम कहे-तेहनें इम कहिणो । आर्द्र मुनि तो शाक्यमति पाषंडी गोशाला ने वौद्धमति ने एक दण्डियां ने हस्ती तापस ने एतला ने जबाव दीधां चर्चा कीधी तिवारे पिण केवल ज्ञान उपनो न थी---ते साचा किम जाण्याँ। गोशालादिक ने जवाब दीधां-ते साचा जाण्या तो कूछो एकिम जाण्यो। ए तो सर्व साचा जाब दीधा छै। अनें झूठो को होवे तो भगवान् इम क्यूं न कह्यो। हे आर्द्रमुनि ! और तो जबाब ठोक दीधा पिण ब्राह्मणों ने जबाब देतां चूपयो “मिच्छामि दुकडं' दे इम तो कह्यो नहीं । ए तो सर्व जबाव सिद्धान्त रे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
न्याय दीधा है | अनें आप रो मत थापवा आर्द्र कुमार मुनि ने झूठो कड़े ते मृपावादी जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
हात १० बोल सम्पूर्ण ।
वली भग्गु रे पुत्र पण पिताने इम कह्यो, ते पाठ लिखिये छ 1 या अहया न भवतिताणं भुत्तादिया निंति तमंत में । जायाय पुता न हवंति मां कोणाम ते अग मन्नेजयं ॥
( उत्तराध्ययन ० १४ गा० १२ )
वेद भाव हुन्ती न० नहीं. भ० थाय जीवा नें. त्राण शरण श्रने भु० ब्राह्मणा ने जिमाया हुन्ता ने पहुंचाडे तमतमा नरक ने विषे. गां० कहतां वचनालङ्कार जा० श्रात्मा की ऊपना. पु० पुत्र ननधाय नरकादिके पड़ता जीवां ने त्राण शरण. छानें जो पुत्र थी शिवगति होवे तो दान धर्म निरर्थक गो इस छे. ते माटे. को० कुया नाम संभावनो. ते तुम्हारू वचन श्र माने पूर्वोक्त वेदादिक भएको ते एतले विवेकी हुवे ते तुम्हारू वचन भला करी न जाये ।
ए
अथ इहां भग्गु ने पुत्रां कह्यो– वेद भग्या त्राण न होवे । ब्राह्मण जिमायां तमतमा जाय तमतमा ते अंधांरा में अंधांश ते एहवी नरक में जाय । इम कल्लो-जो विप्र जिमाया पुण्यगंधे तो नरक क्यूं कही । इहां के इम कहै एहवो भग्गु ना पुत्रां कह्यो ते तो गृहस्थ हुन्ता त्यांरे झूठ बोलवा रा किसा त्याग था । इम कडे त्यांने इम कहिणो । पुलां तो घणा बोल कह्या है । वेद भण्या त्राण शरण न हुवे । पुल जन्म्या पण दुर्गति न टले । जो ए सत्य है तो ए पिण सत्य है । और वोल तो सत्य कहे - आपरी श्रद्धा अटके ते वोल ने डूंडो कहै । त्यां जीवों में किम सम झाविये । वली भग्गु ना पुलां ने गणधर भगवन्ते सा है । ते किम तेहनी पहिली ग्यारसी गाया में इम को छै । “कुमारणा ते पसमिक्खवक” पहनो अर्थ"कुलारग" कहि कुमार "ते पक्खि" कहितां आलोची विमासी विचारों से पवन बोलावे छे। हम गगरेको विमासी आलोची बोले तेहनें झूठा किम कहिये । तथा केवला एक इन कहे र तो भग्गु ना पुत्र को पिताजी ! तुम्हें कलामा ते मिथ्यात्व लागे इम अयुक्ति लगावी तमतमा मिथ्यात्व
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दानाऽधिकारः ।
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ने थापे । पिण इहां तमतमा शब्द कह्यो - ते नरक ने कही छै । परं मिथ्यात्व ने न
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को उत्तराध्ययन अवबूरी में पिण इम को छै ते अवचूरी लिखिये है ।
“भोजिता द्विजा बिप्रा नयन्ति प्रापयन्ति तमसोपि यत्तमस्तस्मिन् रौद्रे रौरवादिके नरकेणं वाक्यालंकारे ।”
अथ इहां अवचूरी में पिग इम कह्यो तम अन्धकार में अन्धारो एहवी नरक में जावे । तमतमा शब्द रो अर्थ नरकहीज कह्यो, रौरवादिक नरका वासानों नाम कही बतायो छै । तो जोवोनी बिप्र जिमायां नरक कही अने गणधरे का विमासी बोल्या इम सराया छै । तो असंयती ने दियां पुण्य किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
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इति ११ बोल सम्पूर्णा ।
तिवारे कोई इम कहे । सहजे वेद भण्या अनुकम्पा ने अर्थे बिप्र जिमांया नरक जाय तो श्रावक पिण विप्र जिमावे छै । ते तो नरक जाय नहीं, ते माटे ए तो मिथ्यात्व थकी नरक कही छे। अने जे दान थी नरक जाय तो प्रदेशी दानशाला मंडई ते तो नरक गयो नहीं । तेहनों उत्तर - ए समचे माठी करणी रा माठा फल ह्या छै। सूत्र में मांस खाय पचेन्द्रिय हणे ते नरक जाय. एहवो कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
रइ उयकम्मा सरीरम्पद्योग बंधे भंते! पुच्छा गोयमा ! महारंभयाए. महा परिग्गहियाए. पंचिंदिय बहेगां कुणिमाहारेणं. रइया उयकम्मा. सरीरप्पयोग णामाए कम्मस्स उदरणं रइया उयकम्मा शरीर जाव प्पओग
बंधे ।
( भगवती श० ८ उ० ६ )
० नारकी आयु. कर्म शरीर प्रयोग बन्ध केम हुइ' तेहनी. पु० पृच्छा. हे गौतम! म० महारंभ कर्षणादिक थी. म० परिमाण परिग्रह तेहने करी ने करी ने मांस भोजन तेणें करी ने ने० नारकी नो आयुकर्म शरीर ० नारकी आयु कर्म शरीर. जा० यावत् प्रयोग बंध हुवे ।
पंचेन्द्रिय जीव नो जे बध तेणे प्रयोग नाम कर्म ना उदय थी.
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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___ अथ इहाँ कह्यो महारंभी. महापरिग्रही. मांस खाय. पंचेन्द्रिय हणे ते नरक जाय. तो चेडो राजा वरणनागनतुओ इत्यादिक घणा जणा संग्राम करी मनुष्य मासा पिण ते तो नरक गया नहीं। तथा वली भग० श. २ उ० १ बारह प्रकारे वाल मरण थी अनन्ता नरक ना अब कह्या तो वाल मरण रा धणी सघलाइ तो नरक जाव नहीं। वली ली आदिक लेव्यां थी दुर्गति कही तो श्रावक पिण स्त्री आदिक सेवे परं ते तो दुर्गति जाय नहीं। ए तो माटा कर्त्तव्य ना समचे माठा फल बताया छै। ए मारा कर्तव्य लो दुर्गतिना इस कारण छै। अने जो और करणीरा जोरसूं दुर्गति न जाय तो पिण ते माठा कर्त्तव्य शुद्ध गति ना कारण न कहिये ते तो दुर्गति ना इज हेतु छ। मांस मद्य भखै स्त्री आदिक सेवे वाल मरण मरे ए नरक ना कारण कया। शिलविध जिमावे एपिण नरक ना कारण छै। अनेज इहां मिथ्यात्व करी नरक कहे तो मिथ्यात्व तो घणारे छै। अने सर्व मिथ्यात्वी तो नरक जाये नहीं। कोइ मिथ्यात्ती देवता पिण हुवे छै। जे देवता हुने ते और करणी सूं हुवे । परं मिथ्यात्व तो नरक नो हेतु इज छै। तिम वित्र जिमाये ते नरक नो हेतु कह्यो छै तो पुण्य किम कहिये। उपदेश में पाप कह्यां अन्तराम किम कहिये । इम कह्याँ अन्तराब पड़े तो आईमुनि भग्गु ना पुत्रांने. नरक न काहिता अन्त राय थी तो ते पिण डरता था। पर अन्तराय तो वर्तमान काल में इज छै। उपदेश में कह्यां अन्तराय न थी : डाहा हुवे तो बिचारि जोइनो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण । न्याय थकी वली कहिये छै । कोई कहे मौन वर्तमानकाल में किहां कही छै । तेहनो जबाब कहे छै।
जेयदाणं पसंतंति-बह मिच्छति पाणियो जयणं पड़िसंहति-वित्तिच्छेयं करन्ति ते ॥२०॥ दुहओ विहे ण भासंति-अत्थि वा णत्थि वा पुणो आयं रहस्स हेचाणं-निवारणं पाउणंति ते ॥२१॥
(सूयगडांग श्रु० १ अ० ११ गा० २०-२१ ) ___ जे जती घसा जीवां ने उपकार थाइ छै. इम जाणी ने. दा. दान ने. प्रशंसे. व. ते. परमार्थ ना अजाण. बच हिंसा. इ० इच्छे वांच्छे. पा० प्राणो जीव नो. जे गोतार्थ दान
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दानाऽधिकारः।
ने निषेधे. ते वि० वृत्तिच्छेद वर्तमान काले पामबानो उपाय तेहनों विघ्न करे. ते अविवेकी ॥२०॥ वली राजादिक साधु ने पूछ तिबारे जे करिवो ते दिखाई दै. दु० बिहू प्रकारे. ते० ते साधु. म. न भाषे. अ० अस्ति पुण्य छै। न० एवं पुण्य नहीं है. इम न कहे। पु० वली मौन करी विहूं माहिलो एम इम प्रकारे बोले तो स्यूं थाय. ते को छ । प्रा० लाभ थाय किसानों. २० पापरूप रज तेहनों लाभ थाय ते भणी अविध भाषवो द्वांडवे निरवद्य भाषवे करी नि० मोक्ष. पा० पामे. ते ते साथ ॥ २१॥
__ अथ अठे इम कह्यो जे सावद्य दान प्रशंसे ते छह काय नो बधनो बंछणहार कह्यो। अने जे वर्तमान काले निवेधे ते अन्तराय रो पाडणहार कहो। वृत्तिच्छेद नो करणहार तो वर्तमान काले निषेध्यां कह्यो पिण और काल में कह्यो नहीं। अने सावध दान प्रशंसे तेहने छवकाय नी घात नो बंछणहार कह्यो, तो देणवाला ने घाती किम कहिये। जिम कुशील ने प्रशंसे तेइने पापी कहिये , तो सेवणवाला में स्यूं कहियो। तिम सावद्य दान प्रशंसे तेहने घाती कह्यो तो देवणवाला ने स्यूं कहिवो दान प्रशंसे ते तो तीजे करण छै ते पिण घाती छै तो जे दान देवे ते तो पहिले करण घाती निश्चय ही छै तेहमें पुण्य किहां थकी। अने वर्तमान काले निषेध्यां वृत्तिच्छेद कही। पिण उपदेश में वृत्तिच्छेद कह्यो नहीं। तिवारे कोई कहे-ए वर्तमान काल रो नाम तो अर्थ में छै। पिण पाठ में नहीं तिण ने इम कहिणो ए अर्थ मिलतो छ अने पाठ में वृत्तिच्छेद कही छै। दान लेवे ते देवे छते वेलां निषेध्यां वृत्तिच्छेद हुवे अने जे लेवे ते देवे न थी तो वृत्तिच्छेद किम हुवे। ते माटे वृत्तिच्छेद वर्तमानकाल में इज छै। वली "सूयगडांग" नी बृत्ति शीलाङ्काचार्य कौधी ते टीका में पिण वर्तमान काल रो इज अर्थ छै। ते टीका लिखिये छै।
एन मेवार्थ पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह--
जेयदाण मित्यादि-ये केचन प्रपा सत्रादिकं दानं बहूनां जन्तूना मुपकारीति कृत्वा प्रशंसन्ति (श्लाघन्ते) । ते परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततर प्राणिनां तत्प्रशंसा द्वारेण बधं ( प्राणातिपातं ) इच्छन्ति । तदानस्य प्राणातिपात मन्तरेणाऽनुपपत्तेः । ये च किल सूक्ष्मधियो वय मित्येवं मन्यमाना आगम सद्भावाऽनभिज्ञा. प्रतिषेधन्ति ( निषेधयन्ति ) तेप्यगीतार्थाः प्राणिनां वृतिच्छेदं वर्त्तनोपायविघ्नं कुर्वन्ति” ॥२०॥
"तदेवं राज्ञा अन्येन चैश्वरेण कूप तडाग्र सत्रदाना द्युद्यतेन पुण्य सद्भावं
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पृष्टैर्मुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह । दुहश्रोत्रीत्यादि --- यद्यस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्वानां सूक्ष्म वादराणां सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात् । श्रप्रीणनमात्रन्तु पुनः स्वल्पानां स्वल्पकालीयम् यतोऽस्तीति न वक्तव्यम् । नारित पुण्य मित्येवं प्रतिपेधेऽपि तदर्थिना मन्तरायः स्यात् - इत्यतो द्विविधाप्यस्ति नास्ति वा पुण्य मित्येवं ते मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते । किन्तु पृष्ठैः सद्भिर्मोन मेव समाश्रयणीयम् । निर्वन्धेत्तस्माकं द्विचत्वारिंशेष वर्जित आहार : कल्पते । एवं विपये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीयुक्तम्
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सत्यं वप्रेषु शीतं - शशि कर धवलं वारि पीत्वा प्रकामं
व्युच्छिन्ना शेर्पा तृष्णा: - प्रमुदित मनसः प्राणितार्था भवन्ति ।
शेषं नीते जलौघे - दिनकर किरणे यन्त्यनन्ता विनाशं तेन दासीन भावं - ब्रजति मुनिगणः कूपवप्रादि कार्ये ||१|| तदेव मुभयथापि भापिते रजसः कर्मण आयो लाभो भवती त्यतस्तमाय रजसो - मौनेनाऽनवद्य भावणेन वा हिला (त्यस्ता ) तेऽनवद्य भाषिणो निर्वाणं मोक्षं प्राप्नुवन्ति ॥ २१ ॥
इहां शीलाङ्काचार्य कृतः २० वीं गाथा नी टीका में इम कह्यो जे पौ सत्कारादिक ना दान ने जे घणा ने उपकार जाणी ने प्रशंसे, ते परमार्थ ना अजाण प्रशंसा द्वारा करी घणा जीवा नो वध बांच्छे छै । प्राणातिपात बिना ते दान
उत्पत्ति थी माटे । अने सूक्ष्म ( तीक्ष्ण बुद्धि छै म्हारी पहवो मानतो आगम सद्भाव अजाणतो तिण ने निषेधे, ते पिण अविषेकी प्राणी नी वृत्तिच्छेद ने वर्त्तमानकाले पामवानो विघ्न करे । इहां तो दान वर्त्तमानकाले निषेध्यां अन्तराय कही है । पिण अनेरा कालमें अन्तराय कही न थी । अने वली २१ वीं गाथा नी टीका में पिण इम हीज कह्यो । राजादिक वा अनेरा पुरुष कुआ तालाव पौ दानशाला विषे उद्यत थयो थको साधु प्रति पुण्य सद्भाव पूछे, तिवारे साधु ने मौन अवलम्बन करवी कही । पिग तिण काल नो निषेध कसो न थी । अने बड़ा टब्बा में पिण वर्त्तमानकाल से इज अर्थ कह्यो
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ते अर्थ मिलतो ते
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artisधिकारः ।
वर्तमान काल बिना तो भगवती श० ८ उ० ६ असंयती ने दियां एकान्त पाप कह्यो । तथा सूयगडाङ्ग श्रु० २ उ० ६ गा० ४५ ब्राह्मण जिमायां नरक कही है। तथा ठाणांग ठाणे १० वेश्यादिक ने देवे ते अधर्म दान कह्यो । तथा सूयगडाङ्ग ध्रु० १ अ० ६ गा० २३ साधु बिना अनेश ने देवो ते संसार भ्रमण ना हेतु कह्यो । इत्यादिक अनेक ठामे सावद्य दान रा फल कडुआ कह्या । ते माटे इहां मौन वर्त्तमान काल में इज कही । ते अर्थ पाठ थी मिलतो छै। मोइजो ।
डाहा हुबे तो विचारि
इति १३ बोल सम्पूर्ण ।
एतले को न मानें तेहने वली सूत्र नी साक्षी थकी न्याय देखाड़े छै । दक्खिगाए पडिलंभो अत्थिवा नत्थिवा पुगो । नवियागरेज मेहावी
संति
मग्गंच वूहए ॥
( सूयगडांग श्रु० २ ० ५ गा० ३३ ।
द० दान तेहनों पं० गृहस्थे देवा. o प्रति नास्ति गुण दूषया कांई न कहे. कहितां वृत्तिच्छेद थाइ इण कारण श्र० बोले. स० ज्ञान दर्शन चारित्र रूप. बु० बधारे ते थाइ तिम न बोले ।
०३
लेणहार ने लेवो इसो व्यापार वर्तमान देखी. गुण कहितां असंयमनी अनुमोदना लागे. दूषया श्रस्ति नास्ति न कहे. मे० मेधावी हि साधु किम एतावता जिण वचन वोल्यां असयम सावध
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अथ इहां पिण इम कह्यो – दान देवे लेवे इसो वर्तमान देखी गुण दूषण न कहे । ए तो प्रत्यक्ष पाठ को जे देबे लेवे ते वेलां पाप पुण्य नहीं कहिणो । "दक्खिणाए" कहितां दान नो "पड़िलंभ" कहितां भगला नें देवो ते प्राप्ति एतले दान देवे ते दान नी आगला ने प्राप्ति हुवे ते बेलाँ पुण्य पाप कहिणो बर्ज्यो । पिण ओर बेल बज्र्ज्या नहीं । अनें किण :ही बेलां में प प रा फल न बतावणा तो अधर्म दान में पाप क्यूं कहे । असंयती ने दीघां एकान्त पाप भगवन्ते क्यूं कह्मो । आनन्द श्रावक अभिग्रह धाला ने हूं अन्य तीर्थी ने देवूं नहीं ।
अभिग्रह क्यूं
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भ्रम विध्वंसनम् ।
| आर्द्रा कुमार विप्र जिलायां नरक क्यूं कही। भग्गु ना पुत्रां विप्र जिमायां तमतमा क्यूं कही । त्यांनें गणधरां क्यूं सराया । इत्यादिक सावद्य दान ना माठा : फल क्यूं कह्या । जो उपदेश में पिण है जिसा फल न वतावणा तो पतले ठामे कडुआ फल क्यूं कह्या । परं उपदेश में अगला ने समझावा सम्यग्दृष्टि माडवा छै जिसा फल बतायां दोष नहीं । डाहा हुवे तो विचारि ओइजो ।
इति १४ बोल सम्पूर्ण |
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तथा ज्ञाता. अ० १३ नन्दण मणिहारा री दान शाला नो विस्तार घणो चाल्यो छै ते पाठ लिखिये छै ।
ततें गंदे तेहिं सोलसेहिं रोयायकेहिं अभिभूए समारो दाए करिणीए मुच्छित्ते ४ तिरिक्ख जोखिएहिं बद्धारा बद्धयए सिए र दुवस काल मासे का किया गंदा पोखरिणीए दरोए कुरिथंसि दद्दुरत्ताए उववरणो ॥ २६ ॥
ज्ञाता श्र० १३ )
त० तिवारे गं० नन्दन नामक मणिहारो पामी नें गां० नंदा नामक पुष्करिणो में मूच्छित थको प्रति रुद्र ध्यान ध्यावी ने का० काल अवसर ने विषे पुष्करिणी में. द० डेडको ऊपणो.
० ति १६ रोगां थी. श्र० पराभव ति तिर्यच नी योनि बांधी ने श्र० का० काल करी में गां० नन्दा नामक
अथ इहां कह्यो - जे नन्दन मणिहारो दान शालादिक नों घणो आरम्भ करी मरने डेको थयो । जो सावद्य दान थी पुण्य हुवे तो दानशालादिक थी घणा असंयती जीवां रे साता उपजाई ते साता रा फल किहां गयो। कोई कहै मिथ्यात्व थी डेडको थयो. तो मिथ्यात्व तो घणा जोवां रे छै । ते तो संसार में गोता खाय रह्या छै । पिण नन्दन रे तो दानशालादिक नो वर्णन घणो कियो 1 घणा असंयतो जो रे शान्ति उपजाई छं । तेहना अशुभ फल ए प्रत्यक्ष दोले छै ।
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दामाऽधिकारः।
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वली “रायपसेणो” में प्रदेशी दानशाला मंडाई कही छै। राज रा ४ भाग करने आप न्यारो होय धर्म ध्यान करवा लाग्यो। केशी स्वामी विहूं इ ठामे मौन साधी छै। पिण इम न कह्यो-हे प्रदेशी ! नीन भाग में तो पाप छ। परं चौथो भाग दानशाला रो काम तो पुणय रो हेतु छै। थारो भलो मन उठ्यो। ओ तो आच्छो काम करिवो बिचासो। इस चौथा भाग में सरायो नहीं। केशी स्वामी तो विहूं सावध जाणी ने मौन साधी छै। ते माटे तीन भाग रो फल जिसोई चौथे भाग रो फल छै। केइ तीन भाग में पाप कहे चौथा भाग में पुणय कहे। त्यांने सम्यग्दृष्टि न्यायवादी किम कहिये। केशी स्वामी तो प्रदेशी १२ ब्रत धावां पछे एडवू कह्यो। जे तू रमणीक तो थयो पिण अरमणीक होय जे मती। तो जोवोनी १२ व्रत थी रमणीक कह्यो छै। पिण दानशाला थी रमणीक कह्यो नथी। साहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १५ बोल संपूर्ण।
तिवारे केइ कहे -- असंयती ने दियां धर्म पुणय नहीं तो सूत्र में १० दान क्यूं कह्या छै। ते माटे १० दान ओलखवा भणी तेहना नाम कहे छै ।।
दसविहे दाणे १० सं०अणुकंपा संगहे चेव भया कालुणि एतिय । लज्जाए गार वेणंच अधम्मेय पुण सत्तमे। . धम्ने अट्टमे बुत्ते काहिइय कयन्तिय ॥
( सूत्र ठाणांग ठा०१०)
द० दश प्रकारे दान. ५० परूप्या. ते ते कहे है। अ० अनुकम्पा दान ते कृपाये करी दीनां अनाथां ने जे दीज. ते दान पिण अनुकम्पा कहिये. कोई रांक अनाथ दरिद्री कष्ट पड्यां रोगे शोके हैराणां ने अनुकम्पाए दीजे ते अनुकम्पा दान। (१) सं० संग्रह दान ते कष्टादिक ने विषे साहाय्य ने अर्थे दान दे अथवा गृहस्थ में आपी ने मुकावे। (२। भ० भय करो दान
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भ्रम विध्वलनम्।
दे ते भय दान । ( ३ । का० शोक ते पुत्र वियोगादिक जे दान ए म्हारू पागल सुखी थाये ते माटे रक्षा निमित्त दान आपे तथा मुत्रा में केडे वारादिक नो करचो। (४। लजा ए करी जे दान दीजै ते लज्जा दान। (५) गा० गर्वे करी खर्चे ते गर्व दान ते नाटकिया मलादिक ने तथा विवाहादिक यश ने अर्थे । (६) अ० अधर्म पोषणहारो जे दान ते अधर्म दान गणिकादिक मूं। (७) ध० धर्म नों कारण ते धर्म दान इज कहिये ते सुपात्र दान। (८) का० र मुझ ने काई उपकार करस्ये एहवू जे दे ते काहि दान। क० इणे मुझ ने घणी वार उपकार कीधो है पिण उसींगल थायवाने काजे कांइ एक प्राइम जे देइ ते कतन्ती दान । ( १० ।
अथ इहां १० प्रकार रा दान कह्या तिण में धर्म दान री आज्ञा छै। ते निरवदय छै बीजा नय दानां री आज्ञा न देवे। ते माटे साबदय छै असंयती ने असूझता अशनादिक ४ दीधां एकान्त पाप भगवती श० ८ उ० ६ कह्यो। ते माटे ए नव दानां में धर्म-पुणध-मिश्र नहीं छै। कोई कहे एक धर्म दान एक अधर्मदान बीजां आठौं में मिश्र छै। केइ एकलो पुणय छै इम कहे, एहनो उत्तर-जो वेश्या. दिक नो दान अधर्म में थापे विषय गे दोष बताय में। तो बीजा आठ पिण विषय में इज छै। भय रो घालियो देवे ते पिण आप री विषय कुशल राखवा देवे छै। मुआ केडे खर्चादिक करे ए म्हारो पुत्र आगले भवे सुखी थायस्ये इम जाणी आरम्भ करे ते पिण विषय में छै। गर्वदान ते अहंकार थी खर्चे मुकलावो पहिरावणी आदि ए पिण विषय में इज छै। नेहतादिक घाले ए मुझ ने पाछो देस्ये ए पिण विषय में छै। बाकी रा ४ दान पिण इमज कोई आप रे विषय ने काजे कोई पारकी विषय सेवा में देवे-ए नव हीदान बीतराग नीआज्ञा में नहीं बारे छ । लेणवाला अब्रत में लेवे तो देणवाला ने निर्जरा पुणय किहां थकी होसी। ठाणाङ्ग ठाणा ४ उ० ४ च्यार विसामा कहा। प्रथम विसामो श्रावक ना व्रत आदखा। ते, वीजो सामायक देशावगासी तीजो पोषो चौथो संथारो सावदय रूप भार छोड्यो ते विसामो ( विश्राम ) तो ए : दान चार विसामा बाहिर छै। धर्मदान विसामा माहि छै। ए न्याय तो चतुर हुवे तो ओलखे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १६ बोल सम्पूर्ण।
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दानाऽधिकारः।
कोई कहे दान क्यूं कह्यो, तो हिवे इण ऊपर १० प्रकार रो धर्म अने १० प्रकार रो स्थविर कहै छ।
दस विहे धम्मे प० त० गाम धम्मे, नगर धम्मे, रटू धम्मे, पासंडधम्मे. कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे. सुयधम्मे, चरित्तधम्मे. अस्थिकाय धम्मे।
(ठाणाङ्ग ठाणा १०)
द० दश प्रकारे धर्म. गा० ग्राम ते लोक ना स्थानक ते हेतु धर्म प्राचार ते ग्राम २ जुई जुई अथवा इन्द्रिय ग्राम तेहनो ध० विषय को अभिलाष. न० नगरधर्मते नगराचार ते नगर प्रते जुत्रा जुआ. २० रष्ट धर्म ते देशाचार पाषंडी न धर्म ते पाषंड श्राचार. कु. कुल धर्म ते उग्रादिक कुल नो श्राचार अथवा चन्द्रादिक साधु ना गच्छनू समूह रूप तेहनों धर्म समाचारी ग० गण धर्म ते मल्लादिक गणनो स्थिति अथवा गण ते साधु ना कुलनू समुदाय ते गण कोटिकादिक तेहनू धर्म समाचारी. सं० संघ धर्म ते गोठी नो प्राचार अथवा साधु ना संगत समुदाय अथवा चतुरर्वर्ण संघ नों धर्म प्राचार. १० श्रुत ते आचारांगादि. क० ते दुर्गति पड़तां प्राणी मे घरे से भणी।
अ० प्रदेश तेहनी जे का० समूह अस्तिकाय ते हज जे गति ने विषे जे पुद्गलादिक धरिखा थको अस्तिकाय धर्म.
दस थेरा ५०० गाम थेरा. नगर थेरा. रट्र थेरा. पासंड थेरा. कुल थेरा. गण थेरा, संघ थेरा. जाइ थेरा. सुय थेरा. परियाय थेरा.
(ठाणागठाणा १०
हिवे १० स्थविर कहे छै। ए ग्राम धर्मादि तो स्थविरादिक म हुवे. ते भणी स्थविर को छ । ६० इस दुःस्थित जन ने मार्ग ने विपे स्थविर करे ते स्थविर तिहां जे ग्राम १ नगर २ देश ३ ने विर्षे बुद्धिवन्त श्रादेज बचन मोटी मर्याद रा करनहार ग्राम ते ग्रामादिक स्थविर. धमोपदेश श्रद्धा नों देणहार ते हीज स्थिर करवा थको स्थविर. जे लौकिक लोकोत्तर कुल ग० गण. स. संघनो मर्याद नों करणहार बड़ेरा ते कुलादिक स्थविर वयस्थविर ज० साठ वर्ष नी वय मो. ९० भ्रत स्थविर ते ठाणाङ्ग समवायाङ्ग धरण हार ते. व. प्रज्याव स्थविर से वीस वर्ष नो चारित्रियो।
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७८
भ्रम विध्वंसनम्।
अथ ए १० धर्म १० स्थविर कह्या। पिण सावद्य निरबद्य ओलखणा । अर्ने दान १० कह्या. ते पिण सावध निरवद्य पिछाणणा । धर्म अने स्थविर कह्या छै, पिण लौकिक लोकोत्तर दोन छै। जिन "जम्बूद्वीपपनत्ति' में ३ तीर्थ कह्या मागध. बरदाम. प्रभास. पिण आदरबा जोग नहीं तिम सावध धर्म स्थविर दान पिण आदरवा योग्य नहीं । सावध छांडवां योग्य छै । विवेकलोचने करी विचारि जोइजो।
इति १७ बोल सम्पूर्ण।
कोई कहे ६ प्रकारे पुण्य बंधे ए कह्यो छ। ते माटे पाठ कहे छ। .. नव विहे पुणणे प० तं० अण्ण पुगणे. पाणपुरणे. लेणपुणणे. सयणपुराणे वत्थपुण्णे. मणपुणणे. वयपुराणे. कायपुराणे. नमोकारपुगणे।
(ठाणांग ठाणाह
न० नत्र प्रकार पुगय परूप्या. ते ते कहे छै. अ. पात्र ने विषे अन्नादिक दीजे ते थकी तीर्थ कर नामादिक पाप प्रकृति नो बंध तेह थको अनेरा ने देवो ते अनेरी प्रकृति नो बंध. पा. तिम हिज पाणो नों देवो. ल. वर हाटादिक नो देवो. स० संथारादिक नों देवो. व० वस्त्र नों देवो म० गुणवन्त ऊपर हर्ष. बवन नी प्रशंसा. का० पर्युपालना नों करिखो. करवो.
अथ ही नब प्रकार पुणध सबने कह्यो । निरवद्य छै। मन. वचन काया, पुण. नमस्कार पुण पिण लपूने का। पिण मन. वचन. काया. निरवद्य प्रवर्तायां धुणा छ । स्याना में पुणध नहीं। तिम बीजा पिण निरवन प्रवर्तायां पुणय छै । साब में पुणध नहीं। कोई कहे अनेरा ने दोधा अनेरी पुलाय प्रकृति छै। तिण रे लेखे शिण ही ने दीधां पाप नहीं । अने जे टका में कह्यो पान ने विषे जे अन्नादिक नो देवो. नेह यकी तीर्थङ्करादिक पुणय प्रकृति नों बंध, तो आदिक शब्द में तो वयालीमुइ ४२ पुण्य प्रकृति आई। जिम ऋपभादिक कहिवे चौबीसुइ तीर्थङ्कर आया । गोतमादिक साधु कहिवे २४ हजार हि आया। प्राणातिपातादिक पाप
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दानाऽधिकारः।
७६
कहिवे १८ पाप आया। मिथ्यात्वादिक आध्रव कहिवे ५ आश्रव आया। तिम तीर्थङ्करादिक पुणय प्रकृति कहिवे सर्व पुणय नी प्रकृति आई वली कांई पुणय नी प्रकृति बाको रही नहीं। अनेरां ने दीधां अनेरी प्रकृति नो बंध कहो छै। ते साधु थी अनेरो तो कुपात्र छै। तेहनें दीधां अनेरी प्रकृति नोंच ते अनेरी प्रकृति पाप नी छै। पुणय थी अनेरो पाप धर्म सु अनेरो अधर्म लोक थी अनेरो अलोक जीव थी अनेरो अजीव मार्ग थी अनेरो कुमार्ग दया थी अनेरी हिंसा इत्यादिक बोलतूं ओलखिये। इण न्याय पुणय थी अनेरी पाप नी प्रकृति जाणवी. अनें जो अनेरा ने दियां पुणय छै। तो अनेरा ने पाणी पायां पिण पुणय छ। जिम अनेरा में नमस्कार कियां पाप क्यूं कहे छै। अनेरा ने नमस्कार करण रो सूंस देणो नहीं। पाप श्रद्धा नो नहीं तो आनन्द श्रावके अन्य तीर्थी ने नमस्कार न करिबूं। एहवो अभिग्रह क्यू धासो। अनें भगवन्त तो साधु ने कल्पे ते हिज द्रव्य कह्या छै। अनेरा ने दियां पुणय हुवे तो गाय पुण्णे. भैंस पुण्णे. रूपौ पुण्णे. खेती पुण्णे. डोली पुण्णे. इत्यादिक बोल आणता ते तो आंणया नहीं। तथा वली अनेरा ने दियां अनेरी प्रकृति नों बंध टव्वा में छै । पिण टीका में न थी। ते टीका लिखिये छै ।
“पात्रायान्नदानाद्य स्तीर्थकरादि पुण्यप्रकृति बंधस्तदन्नपुण्यमेव णवर लेणंति लयनं-गृह-शयनं-संस्तारकः”
इहां तो अनेरां ने दियां अनेरी प्रकृति नो बंध. एहवू तो ठाणाङ्गनी टीका अभय देव सूरि कीधी तेहमें पिण न थी। इहां तो इम कह्यो जे पात्र ने अन्न देवा थी जे पुणय प्रकृति नों बंध तेहने 'अन्नपुण्णे'' कही जे। इहां अन्न कह्यो पिण अन्य न कह्यो । अन्य कह्यां अनेरो हुवे ते अन्य शब्द न थी अन्नपुणय रो नाम छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १८ बोल सम्पूर्ण।
अनेरा ने दियां तो भगवती श०८ उ०६ एकान्त :पाप कह्यो छै। तथा उत्तराध्ययन अध्ययन १४ गा० १२ भग्गु ना पुत्रां विप्र जिमायाँ तमतमा कही है।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा सूयगान श्रु० २ ० ६ गा० ४४ आर्द्रकुमार ब्राह्मण जिमायां नरक कही छै। तथा ठाणाङ्ग ठाणे ४ उ० ४ कुपात्र में कुक्षेत्र कह्या । ते पाठ लिखिये छ। - चत्तारि मेहा प० तं० खेत्तवासी णाम मेगे णो अक्खेतवासी एवा मेव चत्तारि पुरिसजाया प० तं० खेत्तवासी णाम मेगे णो अक्खेतवासी।
(ठायागठा०४ उ०४)
च० चार मेह परूप्या. तं ते कहे है. खे० क्षेत्र से धान नो उत्पत्ति स्थामवर्से पिण. णे० प्रक्षेत्र बसें नहीं इम चौभङ्गो जोडवो. ए० एणी परी च्यार पुरुष नो जाति. प० परूपी. सं० ते कहिये छ । खे० पात्र ने विषे अन्नादिक देवे. णा पिण कुपात्र ने न देवे. कुपात्र ने दे पिण सुपात्र ने म दे. मिथ्यादृष्टि तोजे विवेक विकल. अथवा मोटा उदार पण थी. अथवा प्रवचन प्रभावनादिक कारण मा बस थको पात्र पिण कुपात्र पिण बेहूं ने दे. चौथो कृपण बेहू ने न दे ।
अथ इहां पिण कुपात्र दान कुक्षेत्र कह्या कुपात्र रूप कुक्षेत्र में पुणध रूप बोज किम उगे। शाहा हुवे तो बिचारि जोइजो ।
इति १६ बोल सम्पूर्ण
तथा शकडाल पुत्र गोशाला ने पीठ. फलक. शय्या. संस्तारादिक दियातिहां पहयो पाठ कह्यो । ते लिखिये छ।
तएणं सेसहालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी. जम्हाणं देवाणुपिया! तुब्मे मम धम्मायरिस्स जाव महावीरस्स सन्तेहिं तच्चेहिं तहि एहिं सब्बेहि सब्ब भूतेहिं भावेहिं गुण कित्तणं करेहि. तम्हाणं अहं तुब्भे पड़ि हारिएणं पीढ़ जाव संथारयणं उनिमंतेमि नो चेवणं धम्मोतिबा तबोतिवा।
(उपासक दशा म.)
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दानाऽधिकारः ।
त तिवारे से० ते स० शकडाल पुत्र स० श्रमणोपासक गोशाला म'खलि पुत्र ने. ए० इम बोल्या. हे देवानु प्रिय ! तु० तुम्हे माहरा धर्माचार्य ना. जा० यावत् महावीर देवता. स० [छता. त० सांचा. सु० तेहवा यथाभूत. भा० भाव थी. गु० गुण कीर्त्तन कला. ते० ते भणी. प्र० हूँ. तु० तुझ ने. पा० पाड़ीहारा पी० वाजोट जाव संथारी उ० थापूं हूं. मो० नहीं पिया निश्चय ध० धर्म ने अर्थे न० नहीं तप ने थे.
अथ अठे पिण गोशाला ने पीठ फलक शय्या संथारा शकडाल पुत्र दिया । तिहां धर्म तप नहीं इम का । तो गोशाला तो तीर्थङ्कर बाजतो थो तिण ने दियां ही धर्म तप नहीं तो असंयती ने दियां धर्म तप केम कहिये । पुण्य पिण न श्रद्धव । पुण्य तो धर्म लारे बंधे छै ते शुभयोग छै । ते निर्जरा विना पुण्य निपजे नहीं। ते माटे असंयती ने दियां धर्म पुण्य नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २० बोल सम्पूर्ण |
८१
वली असंयती ने दियां कडुआ फल कह्या छै । ते पाठ लिखिये छै ।
• सेां भंते । पुरिसे पुब्बभवे के आसिं किंणामएवा. किंगोएवा. कयरंसि गामंसिवा. नयरंसिवा. किंवादच्चा, पुराणं. दुच्चिरणाणं. दुष्पड़िकंताणं. असुभाणं. पावाणं. कम्माणं. पावगं फल वित्ति विसेसं पच्चणुं भवमाबो भोच्चा किंवा समायरता केसिंगा पुरा किच्चा जाव विहरइ |
( विपाक अ० १)
•
+
११
मुग्ध जनोंको मोहनेके लिये बाईस सम्प्रदायके पूज्य जवाहिरलालजी की प्रिया "प्रत्युत्तर दीपिका " इस पाठपर पञ्चम स्वरमें अलापती है । एवं अपने प्रथम खण्डके १५० पृष्टमें श्री जिनाचार्य जीतमल जी महाराज को इस पाठमें से कुछ भाग चोर लेने का निर्मूल प लगाती हुई मिथ्या भाषण की श्राचार्य परीक्षा में उत्तम श्रेणी द्वारा उत्तीर्ण होती है । अव हम उक्त प्रिया की कोकिल कण्ठता का पाठकों को परिचय देते हैं । और न्याय करनेके लिये आग्रह करते हैं।
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८२
भ्रम विधंसनम् ।
हे पूज्य ! पु० ए पुरुष. पु० पूर्व जन्मान्तरे. के० कुण हुन्सो. कि० किम्यूमाम हुन्तो. किल्यूगोत्र हुन्तो. क. कुण. गा० ग्रामे यस्तो न० कुण नगर ने विर्षे वस्तो कि० कुण अशुख तथा फुपान दान दीधो. पू० पूर्वले. दु० दुश्चीर्ण कमें करी प्राणातिपातादिक रूढी परे पालोवणा निन्दवा सन्देह रहित. तथा प्रायश्चित्त करी टाल्या नहीं अशुभना हेतु. पा. दुष्ट भावनों ज्ञानावरणीय श्रादिक कर्म नों फ० फलरूप विशेष भोगवतो थको विचरे. किं० कुण व्यसमादिक क्रोध लोभादि समाचा. के० पूर्व कुण कुशीलादि करी अशुभ कर्म उपाा कुण अभक्ष्य मांसादि भोगव्या ।
___ अथ इहां गोतम भगवन्त ने पूछयो। इण मृगालोढे पूर्व काई कुकर्म कीधा , कुपात्र दान दीधा । तेहना फल ए नरक समान दुःख भोगवे छै। तो
+ पाठकगण ! कई हस्त लिखित सूत्र प्रतियों में सर्वथा ऐसा ही पाठ है जैसा कि जयाचार्य ( जीतमल जी महाराज ) ने उधृत किया है । और कई प्रतियों में नीचे लिखे हुए प्रकारसे भी है।
"सेणं भंते ! पुरिसे पुब्बभवे के पासी विणामएवा किंगोएवा कयरंसि गामंसिवा किवादच्या किंवा भोचा किंवा समायरत्ता केसिवा पुरापोराणाणं दुच्चिगणाणं दुप्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं फल वित्ति घिसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ ।
इस पाठ को मिलाने से जयाचार्य उद्धृत पाठ के बीचमें किवा दश्चा के प्रागे "किंवा भोच्चा. किंवा समायरत्ता" ये पाठ नहीं है। इसीपर "प्रत्युत्तर दीपिका” चोर लिया. चोर लिया कह कर आसु बहाती है । ये केवल स्वाभाविक ही "प्रत्युसर दीपिका" का स्त्री चरित्र है।
पाठक गण ? ज्ञान चक्षु से विचारिये । इस पाठ को न रखने से क्या लाभ और रखने से जयाचार्य को क्या हानि निज सिद्धान्त में प्रतीत हुई। अस्तु-प्रत्युत, इस पाठ का होना तो जयाचार्यकी श्रद्धा को और भी पुष्ट करता है । जैसे कि
"किंवा भोचा" क्या २ मांसादि सेवन किया, "किंवा समायरित्ता" क्या २ व्यमन कुशीलावि का समाचरण किया।
इससे तो यह सिद्ध हुआ कि “किंवा दचा किंवा भोच्चा. किंवासमायरित्ता" ये तीनों एक फलके देनेवाले हैं। अर्थात-कुपात्र दान. मांसादि सेवन. व्यसन कुशलादिक. ये तीनों ही पक मार्गकेही पथिक हैं । जैसे कि "चोर-जार-ठग ये तीनों समान व्यवसायो हैं। तैसे ही जयाचार्य सिद्धान्तामुसार कुपात्र दान भी मांसादि सेवन व्यसन कुशीलादिक की ही श्रेणी में गिनने योग्य है।
अब तो आप "प्रत्युत्तर दीपिका" से पूछिये कि हे मञ्जुभाषिणि ? अब तेरा ये पालाप किस शास्त्र के अनुगत होगा।
अस्तु-यदि किसी भ्रातृवर को इस पाटके परिवर्त्तन ( एक फेर । का ही विचार हो तो सो जिस हस्त लिखित प्रति में से जयाचार्य ने ये पाठ उद्धृत किया है। उस सूत्र प्रति को श्राप श्रीमान् जिनाचार्य पूज्य कालरामजी महाराज के दर्शन कर उनके समीप यथा समय देख सकते हैं, जो कि तेरापन्थ नायक भिक्षु स्वामीजी से जन्म के भी पूर्व लिखी गई है।
"संशोधक
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दानाऽधिकारः।
जोवोनी. कुपात्र दान में चौड़े भारी कुकर्म कह्यो। छव काय रा शस्त्र ते कुपात्र छै । तेहनें पोष्यां धर्म पुण्य:किम निपजे । डाहा लुवे तो विचारि जोइजो।
इति २१ बोल सम्पूर्ण।
तथा ब्राह्मणां में पापकारी क्षेत्र कह्याछै । ते पाठ लिखिये है। कोहो य माणो य वहो य जेसिं
कोसं अदत्तं च परिग्गहें च त माहणा जाइ विजा विहूणाताईतु खेत्ताइ मुपावयाई।
( उत्तराध्ययन अ० १२ गा. २४ )
को० क्रोध अने मान च शब्द हुन्ती माया लोभ. बं० बध प्राणघात जे श्राह्मण में पाले भने मो० मृषा अलीक नों भाषवो अण दोधां नों लेवो च शब्द थी मैथुन अनें परिग्रह. गाय भैस भूम्यादिक नों अंगीकार करवो जेहने ते ब्राह्मण जो ब्राह्मण जाति अने वि० चउदे १४ विद्या तेणे करी. वि० रहित जाणवा. अने क्रिया कर्म ने भागे करी चार वर्ण नी अवस्था था इं. ता. ते जे तुमने जाण्या वर्ते छै. लोका माहे. खे० ब्राह्मण रूप अक्षत्र तेवू निश्चय असि पाषुधा कै. क्रोधादिके करी सहित ते माटे पाप नों हेतु छै. पिण भला नहीं।
अथ अठे ब्राह्मणां ने पापकारी क्षेत्र कह्या। तो वीजा नो स्यूं कहियो। इहां कोई कहे ए बचन तो यक्षे कह्या छै तो ब्राह्मणा ने क्रोधी मानी मायी लोभी हिस्रादिक पिण यक्षे कहा। जो ए सांचा तो उवे पिण साचा छै। तथा सूर्यगाङ्ग श्रु० १ अ०६ गा० २३ गृहस्थ ने देवो साधु त्याग्यो ते संसार भ्रमण नों हेतु जाणी त्याग्यो कह्यो छै। तथा दशवैकालिक अ० ३ गा० ६ गृहस्थ नी व्यावच करे करावे अनुमोदे तो साधु ने अनाचार कह्यो। तथा निशीथ उ० १५ बो० ७८-७१ गृहस्थ ने साधु आहार देवे देता ने अनुमोदे तो चौमासी प्रायश्चित कह्यो। तथा मावश्यक भ० ४ कह्यो साधु उन्मार्ग तो सर्व छांड्यो-मार्ण भङ्गीकार कियो । सो
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भ्रम विध्वंसनम् ।
उन्मार्ग थी पुण्य धर्म किम नोपजे । तथा उत्तराध्ययन अ० २६ को साधु श्रावक सामायिक में सावद्य योग त्यागे तो जे सामायक में कार्य छोड्यो ते सावद्य कार्य में धर्म पुण्य किम कहिये । ए धर्म पुण्य तो निरवद्य योग थी हुवे छै । जे सामायक में अनेरां ने देवा रा त्याग किया, ते सावद्य जाणी ने त्याग्यो छै, ते तो खोटो छै तरे त्याग्यो छै । उत्तम करणी आदरी माठी करणी छांडी है। तो ए सावदय दान सामायक में त्याग्यो तिण में छै के आदस्यो तिण में है । हा वे तो विचार जोइजो ।
1
इति २२ बोल सम्पूर्ण |
८४
तथा भगवती श० ८ उ० ५ तथा उपासक दशा अ० १ पनरे कर्मादान कह्या छै, ते पाठ लिखिये छै ।
समणो वासरणं पराणरस्स कम्मा दाणाति जाणियव्वाति न समारियव्वाति तं जहा इंगाल कम्मे व कम्मे साडी कम मे. भाडी कम्मे फोडी कम्मे दंत बडिज्जेरस बणिज्जे. केस बरिगज्जे विस वणिज्जे लक्खणिज्जे. जंत पीलण कम्मे निल्लंग कम्मे दवग्गिदावण्या. सर दह तड़ाग परि सोसलिया. असईजण पोसण्या ॥ ५.१ ।।
( उषासक दशा अ० १ )
स० श्रावक में. प० १५ प्रकार रा. के० कर्मादान ( कर्म श्रावारा स्थान ) व्यापार जाणना. किन्तु न० नहीं आदरखा तं ते कहै छे. इ० श्रभि कर्म वन कर्म साडी ( शकटादि वाहन ) कर्म भा० भाड़ी ( भाड़ो उपजावन वालो) कर्म. फोडी कर्म दन्त वाणिज्य. रस बाणिज्य केश वाणिज्य विष वाणिज्य ल० लाज्ञा लाह श्रादि) वाणिज्य यत्र पीलन कर्म क्ल्लिंण (बैल आदि का अङ्ग विशेष छेदन) कर्म दावाग्नि ( बन में खेत आदिकों में अभि लगाना कर्म स० तालाव घ्यादिके रे पाणी से शोषण आदि कर्म श्र० वैश्या आदि में पोषण। श्रादिक व्यापार कर्म.
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दानाऽधिकारः।
तिहां ‘असती जण पोसणया" तथा "असइपोसणया" कह्यो छ। एहनों अर्थ केतला एक विरुद्ध करै छै। अने इहां १५ व्यापार कह्या छै तिवारे कोई इम कहे इहां असंयती पोष व्यापार कह्यो छै । तो तुम्हें अनुकम्पा रे अर्थे असंयती ने पोष्यां पाप किम कहो छै। तेहनो उत्तर–ते असंयती पोषी २ ने आजीविका करे ते असंयती पोष व्यापार छै। अनें दाम लियां बिना असंयती ने पोषे ते व्यापार नथी कहिये। परं पाप किम न कहिये। जिम कोयला करी बेचे ते "अंगालकर्म" व्यापार, अने दाम बिना आगला ने कोयला करी आपे ते व्यापार नथी। परं पाप किम न कहिये । जे वनस्पति बेचे ते “वण कर्म" व्यापार कहिये। अनें दाम लियां बिना पर जीव भूखा नी अनुकम्पा आणी वनस्पति आपे ते व्यापार नहीं। परं पाप किम न कहिये। इम जे बदाम आदिक फोड़ी २ आजीविका करे दाम ले ते “फोड़ी कर्म व्यापार" अनें दाम लियाँ बिना आगला री खेद टालवा बदाम नारियल आदिक फोड़े ते व्यापार नहीं। परं पाप किम न कहिए। इम आजीविका निमित्ते सर द्रह तालाव शोषवे ते सर-द्रह-तलाव शोषणिया व्यापार अनें जे आगला रे काम तलाव शोषवे ते व्यापार नहीं परं पाप किम न कहिये। तिम असंयती पोषी २ आजीविका करे। दानशाला ऊपर रहे रोजगार रे बास्ते तथा ग्वालियादिक दाम लेइ गाय भैंस्यां आदि चरावे। इम कुक्कुटे मार्जार आदिक पोषी २ आजीविका करे। आदिक शब्द में तो सर्व असंयती ने रोजगार रे अर्थे राखे ते असंयती व्यापार कहिए. अनें दाम लियां बिना असंयती ने पोषे ते व्यापार नहीं। परं पाप किम न कहिये। ए तो पनरे १५ ई व्यापार छै ते दाम लेई करे तो व्यापार । अनें पनरे १५ ई दाम विना सेवे तो व्यापार नहीं। पर पाप किम न कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २३ बोल सम्पूर्ण ।
वली केतला एक इम कहे-जे उपासक दशा अ० १ प्रथम व्रत मा ५ अती. चार कह्या। तिण में भात पाणी रो विच्छेद पाड्यो हुवे, ए पांचमो अतिचार कह्यो छै। तो जे असंयती में भात पाणी रो विच्छेद पाड्यां भतीधार लागे। ते
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ટર્મ
भ्रम विध्वंसनम्
भात पाणी थी पोष्यां धर्म क्यूं नहीं । इम कहै तेहनो उत्तर - सूत्रे करी लिखिये छै
तदा णं तरंचणं थूलग पाणातिवाय वेरमणस्स समणोवास ते पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरयव्वा, तंजहा बंधे, वहे छविच्छेए अतिभारे भत्त पाण वोच्छेत्ते
॥ ४५ ॥
( उपासक दशा अ० १ )
त० तिबारे पछे थू० स्थूल प्राणातिपात बेरमण प्रत रा प्रतीचार पे० पाताल ने विषे ले जाणेवाला है. किन्तु न० आदरवा है. बं० मारवा नी बुद्धि इं करी पशु आदि में गाढा बन्धने करे बांधे. मारे ४० अङ्गोपाङ्ग ने छे. अ० शक्ति उपराना ऊपरे भार झापे. आहार पाणी रो विच्छेद करे.
स० श्रावक ने पं० ५. योग्य नहीं तं ते कहे
व० गाढा प्रहारे करी भ० मारवा मी बुद्धि ई.
इहां मारवा ने अर्थे गाढे बंधन बाँधे तो अतीचार कह्यो । भनें थोड़े बंधन बाँधे तो अतीचार नहीं । पिण धर्म किम कहिये । मारवा ने अर्थे गाढ़े घाव घाले तो अतीचार अनें ताड़वा नी बुद्ध लकड़ी इत्यादिक थी थोड़ो घाव घाले तो अतिचार नहीं । परं धर्म किम कहिये । इम ही चामड़ी छेद कहिवो, इम मारवा
अर्थे अति ही भार घाल्यां अतीचार, अनं थोड़ो भार घाले ते अतीचार नहीं । परं धर्म किम कहिवे । तिम मारवा ने अर्थे भात पाणी रो विच्छेद पाड्यां तो अतिचार, अनें सजीव नें भात पाणी थी पोषे ते अतीचार नहीं । पिण धर्म किम कहिये । अनेरा संसार ना कार्य छै । तिम पोषणो पिण संसार नो कार्य छै पिण धर्म नहीं । जे पोष्यां धर्म कहे तेहने लेखे पाठे कह्या ते सर्व बोला में धर्म कहिणो । अनें पाछिला बोल ढीले बंधन बांध्यां ताड़वा ने अर्थे लकड़ियादिक थी कुट्यां धर्म नहीं । तिम भात पाणी थी पोष्यां पिण धर्म नहीं । वली आंगल को पारका व्याहव नाता जोड़ाया तो अतीचार. अनें घरका पुत्रादिक or carea कियां अतीचार नहीं लागे । पिण धर्म किम कहिये । वली प्रथम
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दानाऽधिकारी
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अत ना ५ अतिचार में दास दासी स्त्री आदिका ने मारवा ने अर्थे घर में बांधी भात पाणी ना विच्छेद पाड्याँ भतीचार परं दास दासी पुत्रादिक ने पोषे, तिण में धर्म किम कहिये। जे तिर्यश्च रे भात पाणी रा विच्छेद पाड्यां अतीचार छै। तिम मनुष्य ने भात पाणी रो विच्छेद पाड्यां अतीचार छै। अ तिर्यञ्च ने भात पाणी थी पोष्यां धर्म कहे तो तिण रे लेखे दास दासी पुत्र स्त्रियादिक मनुष्य में पिण पोष्यां धर्म कहिणो। ए अतोचार तो समचे त्रस जीवने भात पाणी रो विच्छेद करे ते अतीचार कह्यो छै। अने बस में तिर्यश्च पिण आया मनुष्य पिण आया । अमें जे कहे स्त्रियादिक ने पोषे ते विषय निमित्ते, दास दासी ने पोषे ते काम ने अर्थे । तिण सुं या ने पोष्यां धर्म नहीं। तो गाय भैंस ऊंट छाली वलद इत्यादिक तिर्यञ्च ने पोषे ते पिण घर रा कार्य में : अर्थ इज पोषे । ए तो तिर्यञ्च मनुष्य नवजाति ना परिग्रह माहि छै। ते परिग्रह ना यत्न कियां धर्म किम हुवे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २४ बोल सम्पूर्ण ।
वली कोई इम कहे । तुंगिया नगरी ना श्रावका रा उघाड़ा वारणा कह्या छै। ते भिख्याखां ने देवा ने अर्थे उघाड़ा वारणा छै। इम कहे. तेहनों उत्तर:उघाड़ा वारणा कह्या छै. ते तो साधु री भावना रे अर्थे कहा छ । ते किम-जे और भिख्यारी तो किमाड़ खोल ने पिण माहे आवे छै। अने साधु किमाड़ खोलने आहार लेवा न आवे। ते माटे श्रावका रा उघाड़ा वारणा कह्या छै। साधु री भावना रे अर्थे जड़े नहीं। सहजे उघाड़ा हुवे जद उघाड़ाज राखै। तिणसुं "अवगु'य दुवारा" पाठ कह्यो छै। भगवती श० २ उ० ५ तुंगिया नगरी ना धावका रे अधिकारे टीका में वृद्ध व्याख्यानुसारे अर्थ कियो ते टीका कहे छ।
अवगुंय दुवारेति-अप्रावृतद्वाराः कपाटादिभि रस्थगित गृह द्वारा इत्यर्थः । सद्दर्शन लाभेन न कुतोपि पाषंडिका द्विभ्यति शोभन मार्ग परिग्रहेणोद्घाट शिरसस्तिष्ठन्तीति भावः-इति वृद्धव्याख्या । . .
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भ्रम विश्वसनम्।
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इटा भगवती नी वृत्ति में पिण इम कह्यो। जे घर ना द्वार जड़े नहीं ते भला दर्शन रे सम्यक्त्व ने लाभे करी। पिण किणही पाषंडी थी डरे नहीं। जे पाषंडी आवी तेहना स्वजनादिक ने पिण चलावा असमर्थ. कदाचित् कोई पाषंडी भावी चलावे। पहवा भय करी किमाड़ जड़े नहीं। इम कह्यो छै। तथा वली उवाई नो बृत्ति में पिण वृद्ध व्याख्यानुसारे इमज कह्यो छै। ए तो सम्यक्त्व नों सेंठा पणो बखाण्यो। तथा सूयगडाङ्ग :श्रु० २ ० २ दीपिका में पिण इम हिज कह्यो छै। ते दीपिका लिखिये छ।
अवगुंय दुवारेति-अप्रावृतानि द्वाराणि येषां ते तथा सन्मार्गलाभान कुतोपि भयं कुर्वन्ती त्युद्घाटित द्वाराः ।।
___ इहाँ सूयगडाङ्गनी दीपिका में पिण कयो । भलो मार्ग सम्यग दृष्टि पाभ्या ते माठे कोई ना भय थकी किंवाड़ जड़े नहीं। इहां पिण सम्यक्त्व नों दृढपणो वखाणयो। तथा वली सूयगडाङ्ग श्रु० २ ० ७ दीपिका में कह्यो। ते दीपिका लिखिये छ।
अवगुंय दुपारेति-अप्रावृत मस्थगितं द्वारं गृहस्य येन सो ऽ प्रावृतद्वारः पर तीथिकोऽपि गृहं प्रविश्य धर्मयदि वदेत् वदतु वा न तस्य परिजनोपि सम्यक्त्वाचालयितुं शक्यते तद्भीत्या न द्वार प्रदान मित्यर्थः ।
इहां पिण कह्यो। जे परतीयीं घर में आवी धर्म कहे। ते श्रावक ना परिजन ने पिण चलावा असमर्थ, ए सम्यक्त्व में सेंठों ते माटे पाषंडी रा भय थकी कमाड़ जड़े नहीं । इहां पिण सम्यक्त्व नों सेंठा पणो बखाणयो। पिण इम न कह्यो । असंयती ने देवा ने अर्थे उघाड़ा वारणा राखे । एहवो कह्यो नहीं । ए तो '"अवंगुय दुवार' नों अर्थ टीका में पिण सम्यक्त्व नों दृढपणो कह्यो । तथा भिक्षु ते साधु री भावना रे अर्थे वारणा उघाड़ा राखना कहे तो ते पिण मिले। ते किम-- साधु ने वहिरावा नों पाठ आगे कह्यो छै। ते माटे ए भावना रो पाठ छै। अने असंयती भिख्यारी रे अर्थे उघाड़ा वारणा कह्या हुवे. तो भिख्याखां ने देवा रो पिण पाठ कहिता । ते भिख्यासां ने देवा रो पाठ कह्यो न थी। “समणे निग्गंथे
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दामाऽधिकारः।
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फासु एसणिज्जेणं" इत्यादि. श्रमण निर्ग्रन्य में प्रासु एषणीक देतो थको विचरे । इम साधु ने देवा नों पाठ कह्यो। ते माटे साधु रे अर्थ उघाड़ा दारणा कहा। पिण भिख्याखां रे अर्थे उघाड़ा वारणा कह्या न थी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २५ बोल सम्पूर्ण
फेतला एक कहे छै । जे भगवती श० ८ उ० ६ असंयती ने दीर्धा एकान्त पाप कह्यो। पिण संयतासंयती ने दियां पाप न कह्यो। ते माटे श्रावक ने पोष्यां धर्म छै । अनें धावक ने दीयां पाप किण सूत्र में कयो छे । ते पाठ बतावो। इम कहे तेहनों उत्तर-सूयगडाङ्ग श्रु० २ ० ७ तीन पक्ष कह्या छै। धर्मपक्ष-अधर्मपक्षमिश्रपक्ष. साधु रे सर्वथा व्रत ते “धर्मपक्ष" अव्रती रे किञ्चत् व्रत नहीं. ते “अधर्मपक्ष" श्रावक रे केई एक वस्तु रा त्याग ते.तो व्रत केई एक वस्तु रा त्याग नहीं ते अत्रत, ते भणो श्रावकने “मिश्रपक्ष"कही जे । जेतली व्रत छै श्रावक रे-ते तो धर्मपक्ष माहिली छै। जेतली अव्रत छै ते अधर्मपक्ष माहिलो छै। अव्रत से ये सेवावे अनुमोदे तिहां वीतराग देव आज्ञा देवे नहीं। ते भणी श्रावक री अत्रत सेव्यां सेवायां धर्म नहीं । श्रावक रे जेतला २ त्याग छै ते तो व्रत छै धर्म छै तेतलो २ आगार छै. ते अत्रत छै अधर्म छै। ते श्रावक रा व्रत अनें अव्रत नों निर्णय सूत्र साक्षी करी कहे छै।
सेजे इमे गामागर नगर जाव सणिणावेसेसु. मनुया भवंति. तं० अप्पारंभा अप्प परिग्गहा. धम्मिा . धम्लाणा. धम्मिट्ठा. धम्मक्वाई. धम्म पलोइ. धम्मपल्लयण'. धम्मसमुदायरा. धम्मेणं चेव बित्ति कप्पेमाणा. सुलीला तुम्बया सुपडिआणंदा साहु एगच्चाओ. पाणाइवायाओ पांडविरया जाव जीवाए. एगच्चाओ अप्पडिविरया. एवं जाव परिग्गहारो
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पडिविरया. एगच्चाओ. अप्पडिविरया. एगच्चाओ कोहामओ. माणाओ.मायाप्रो. लोभाओ. पेजाओ. दोसाओ. कलहाओ. अब्भक्खाणाओ. पेसुणाश्रो. परपरिवायाो. अरतिरतीश्री. मायामोसाओ. मिच्छा दंसण सल्लाअो पडिविरया जावज्जीवाए एगच्चाप्रो. अप्पडिविरया. जावजीवाए. एगच्चाओ. आरंभाओ. समारंभाओ. पडिविरया जावज्जीवाए एगच्चाओ. आरंभ समारंभाओ. अपडिविरया. एगच्चाओ. करणकरावणाश्रो पडिविरया जावजीवाए. एगच्चाओ. अप्पडिविरया. एगच्चाओ. पयण पयावरणाओ. पडिविरया जावज्जीवाए. एगच्चाओ पयण पयावणाओ अपडिविरया. एगच्चाओ कोट्टण पिट्टण तज्जण तालण बह बंध परिकिलेसाओ. पडिविरया जावज्जीवाए. एगच्चाो अपडिविरयाओ. एगचाओ न्हाण मदण वण्णक विलेवण सद फरिस रस रूव गंध मल्लालंकाराओ पडिविरया जावजीवाए. एगचाओ अपडिविस्था. ज यावरणे तहप्यगारा सावज जोगावहिया कामता. परयाणा परितापणकरा कज्जति. ततावि एगच्चाो पडिविरया जावज्जीवाए. एगचाश्री अपडिविरया तं जहा समणो वासगा भवंति.
। उवाई प्र०२० तथा सूयगडाङ्ग अ० १८ ।
से ते. जे.एह प्रत्यन्न संसारी जीव ग्राम सागर लोहादिक ना ना नगर जिहां कर नहीं गयादिक नो जा० यावत. स० सजियेश तेहने विषे. म. मनुष्य पुरुष स्त्री अादिक छै त० ते कहे . अ अल्प थोडोज प्रारंभ व्यापारादिक अल्प थोड़ो परिग्रह धनधान्यादिक ध० धम श्रुत गरित्र ना करणाहार. ध० धर्म श्रुत चरित्ररूम ने केडे चाले छै. ध० धर्म श्रुत चारित्रय रूपवालहो धर्म चेष्टा रूप ध धर्म श्रुत चारित्र रूप भव्य ने सभलावे. ध धर्म श्रुत चारित्र रूप ने रहिवा योग्य जाणे. बार • तिहां दृष्टि प्रवृत्तं . ध० धर्मश्रुत चारित्ररूप ने विपे कर्म ज्ञय करिया सावधान
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atarsfधकारः ।
है. अथवा धर्म ने रागे रंगाणा है ध० धर्मश्रुत चारित्ररूप ने विषे प्रमोद सहित प्रचार है जेहनों. ध० धर्म चारित्र ने अखंड पाल वे सूत्र में आराधव ज वृत्ति छे आजीविका कल्प करे है । सु० भलो शील आवार है जेहनों सु० भला व्रत है सु० आहलाद हर्ष सहित वित्त साधु नें विषे जेहना सा० साधु ना समीपवर्ती ए० एकैक प्राणी जीव इन्द्रियादिक नों प्रतिपात हणवो हकी अतिशय सू विरम्या निवृत्या विरक्त हुआ है । ० जीवे ज्यां लगे. एकेक प्राणी जीव पृथिव्यादिकथकी निवृत्या न थी. ए० इस मृषावाद श्रदत्तादान मैथुन परिग्रह एक देश थकी निवृत्या इत्यादिकमूर्च्छा कर्म लागा थी निरृत्या ए० एकैक झूठ चोरी मैथुन परिग्रह द्रव्य भाव मूच्र्छा की निवृत्या न थी. ए० एकैक क्रोध थकी निवृत्या एकैक क्रोध थकी निवृत्या न थी, Tohara fया एकेक मान थी न निवृत्या ए० एकेक माया थी निवृत्या एकेक थी ननित्या एकैक लोभ थी निवृत्या एकैक लोभ थी न निवृत्या पे० एकैक प्रेम राग थी निवृत्या एकेक न थी निवृत्या दो० एकैक द्वेष थकी निवृत्या एकेक थकी न निवृत्या क० एकेक कलह थी निवृत्या एकेक थी न निवृत्या श्र० एकेक अभ्याख्यान थी निवृत्या एकैक थी न निवृत्या पे० एकेक पंचाडी थी निवृत्या एकेक थी न निवृत्या एकेक पारका अपवाद थी निवृत्या एकैक थी न निवृत्या एकेक रति अरति यो निया एकेक थी न निवृत्या मा० एकैक माया मृषा थी निवृत्या एकेक थो न निवृत्या एकैक मिथ्या दर्शन शल्य थी निवृत्या है जा० जीवे ज्यां लगेएक मिथ्यात्व दर्शन थकी न निवृत्या ए० एकैक श्रारम्भ जीवनों उपद्रव हणवो समारंभ ते उपद्रव्यादिक कार्य ने विषे प्रवर्त्त वो ० अतिशय सूं प० निवृत्या है. ए० एकैक आरम्भ समारम्भ थकी. o निवृत्या न थी. एकैक करिवो कराववी ते अनेरा पाहे तेहथी. प० निवृत्या छ. जा० जीव ज्यां लागे. ए० एकैक करिवो कॅराववो व्यापारादिक तेह थकी निवृत्या न थी. ए० एकैक पचिव पचाविव ने रा पाहे तेह थी निवृत्या है जा० जीवे ज्यां लगे प० एकैक पचिवो पोते चाविवो अनेरा पाहे अन्नादिक तेह थकी निवृत्या न थी. एकेक को० कूटण पोटण ताडन तर्जन वध वंधन परिकुश ते वाधा नो उपजावो ते थी निवृत्या जा० जीवे ज्यां लगे. एकेक थी निवृत्या नथी. एक स्नान उगणो चोपड वाना नो पूरवो वकानी करवो विलेपन अगर माल्य फूल अलङ्कार आभरणादिक तेह थकी प० निवृत्या जा० जीबे ज्यां लागे. एकैक स्नानादिक पूर्वे कझा तेह की निवृत्या न थी । जे काँई वली अनेराई अनेक प्रकार तेहवा पुर्वोक्त सा० सावध पा योग मन बचन काया रा उ० माया प्रयोजन कषाय प्रत्यय एहवा क० कर्म ना व्यापार प० पर अनेरा जीव ने प० परिताप ना क० करण हार. क० करीजे निपजावे. तं० तेह थकी निश्चय प० एकैक की निवत्या . जा० जीवे ज्यां लगे. ए० एकेक सावद्य योग थकी. अ० निवृत्या नथी. ० है . ० श्रमण साधु ना उपासक सेवक एहवा श्रावक. भ० कहिये |
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अथ अठे श्रावक रा व्रत अव्रत जुदा जुदा कह्या । मोटा जीव हणवारा मोटा ठरा मोटी चोरी मिथुन परिग्रह री मर्यादा उपरान्त त्याग कीधो तो
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भ्रम विश्वसनम्।
बुत कही। अनें पांच स्थावर हणवा गे आगार छोटो झूठ छोटी चोरी मिथुन परिग्रह री मर्यादा कीधी-ते मांहिला सेवन सेवावन अनुमोदन रो आगार ते अबूत कही। वली एक एक आरंभ समारंभ रा त्याग कीधा ते वृत एकैक रो आगार ते अत एकैक करण करावण पचन पचावन रा त्याग ते वृत एकैक रो आगार ते अबृत । एकैक कूटवा थी पीटवा थी बांधवा थी निवृत्या-ते तो व्रत अर्ने एकैक कूटवा थी बांधवा थी निवृत्या न थी ते अत एकैक स्नान उगटनों विलेपन शब्द स्पर्श रस पकवांनादिक गन्ध कस्तूरी आदिक अलंकारादिक थी निवृत्या ते व्रत एकैक थी न निवृत्या ते अवत । जे अनेराई सावध योग रा त्याग ते तो बुत । अनें आगार ते अबुत । इहां तो जेलला २ त्याग ते व्रत कह्या। अ जेतला २ आगार ते अबुत कहा । तिण में रस पकवानादिक रा गेहणा रा त्याग ते बुत कही। अनें जेतलो खावण पीवण गेहणादिक भोगवण रो आगार ते अबत कही छै । ते अबूत सेवे सेवावे अनुमोदे ते धर्म नहीं। जे श्रावक तपस्या करे ते तो बुत छै। अनें पारणो करे ते अत माही छै। आगार सेवे छै-ते सेवनवाला ने धर्म नहीं तो सेवावण वाला ने धर्म किम हुवे । ए अबूत एकान्त खोटी छै। अबत तो रेणा देवी सरीखी छै । ठाणाङ्गठागे ५ तथा समवायाङ्ग अपत ने आश्रय कह्या छै। ते अबुत सेव्यां धर्म नहीं। किण ही श्रावक १० सूकड़ी १० नीलौती उपरान्त त्याग कीधा ते दश उपरान्त त्यागी ते तो त छै धर्म छै। अने १० नीलोती १० सूकड़ी खावा रो आगार ते अत छै। ले आगार आप सेवे तथा अनेरा ने सेवावे अनुमोदे ते अधर्म छै-सावद्य छै । जिम किणही भावक ३ आहारना त्याग कीधा एक ऊन्हा पाणी रो आगार राख्यो तो ते ३ आहार रा त्याग तो त छै धर्म छै। अनें एक ऊन्हा पाणी रो आगार रह्यो ते अवृत छै, अधर्म छै। ते पाणी पीवे अनें गृहस्थ में पावै अनुमोदे तिण बुत सेवाई के अबुत सेवाई । उत्तम विचारि जोइजो। ए तो प्रत्यक्ष पाणी पीयाँ पाप छै। ते पहिले करण अबूत सेवे छै। और ने पावे ते बीजे करण अबुत सेवावे छै। अनुमोदे ते तीजे करण छै। जे पहिले करण पाणी पीयां पाप छै तो पायां अनुमोद्याँ धर्म किम होवे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २६ बोल सम्पूर्ण।
चलीभनत ने भाव शस्त्र कह्यो ते पाठ लिखिये ----
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दानाऽधिकारः
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दसविहे सत्थे प० तं०सत्थ मग्गी विसं लोणं सिणंही खार मंविलं । दुप्पउत्तो मणो बाया काओ भावो य अबिरई ॥
ठाणाङ्ग ठाणे १०)
६० दश प्रकारे. स. जेणे करी हणिये ते शस्त्र. ते हिंसक बस्तु है भेद द्रव्य थकी अने भाव थकी. तिहां द्रव्य थी कहे थे। सशस्त्र अग्नि थको अनेरी अग्नि है ते स्वकाय शस्त्र पृथ्व्यादिक नो अपेक्षा पर काय शन कि विष स्थावर-जङ्गम लो ल पण ते मीठो. सिर स्नेह ते तेल घृतादिक खा० खार ते भस्मादिक. प्रा० अाछणादिक. दु. दुष्प्रयुक्त पाडुश्रा मन. बा० बवन. का. इहां काया हिंसा ने विषे प्रवर्ते इं ते भणी खड्गादिक शत्र पिण काया शस्त्र में प्रावे. भा० भावे करी शाच कहे है। अ.अव्रत ते अपचखागा अथवा अम्रत रूप भाव शस्त्र।
अथ अठे १० शस्त्र कथा तिण में अग्रत में भाव शस्त्र कह्यो। तो जे श्रावक ने अव्रत सेवायां रूड़ा फल किम लागे। ए तो अव्रत शला छै ते मारे जेतला २ श्रवक रे त्याग छै ते तो व्रत छै। अनें जेतलो भागार छै ते सर्व अत्रत छै। आगार अत्रत सेव्यां सेवायां शस्त्र तीखो कीधो कहिये पिण धर्म किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २७ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक कहे-अव्रत सेव्या धर्म नहीं परं पुण्य छै। ते पुण्य थी देवता थाय छै अत्रत थी पुणय न बंधे, तो धावक देवलोक किसी करणी थी जाय। तेहनो उत्तर–ए तो श्रावक व्रत आदखा ते व्रत पालतां पुणध बंधे। तेहथी देवता हुवे पिण अव्रत थी देवता न थाय । ते सूत्र पाठ कहे छै ।
__ बाल पंडिएणं भंते ! मणसे किं नेरइया उयं पको जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ. गोयमा! णे ऐडया
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भ्रम विध्वसनम् ।
उयं पकरेs जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उव वज्जइ सेकेण जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ. गोयमा ! बाल पंडिए मणस्से तहारुवस्स समरणस्स वां माहणस्स वा अंतिए एगमरियं धम्मियं सेोच्चा निसम्म देसं उवरमइ देसं गोउवरमइ देस पञ्चखाइ दे णो पच्चखाइ से तेयेणं देसावरमइ. देस पञ्चखारगां को पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ. जाव देवेसु
रइया उयं से तेण
उववज्जइ ।
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। भगवती श० १ उ० ८
बाल पंडित ते देवती श्रावक. हे भगवन्त ! किं स्यूं नारकी न् श्रायुषो प० करे. जा० थावत. दे० देव नू आयुषो किं० करी ने दे० देवलोक ने विषे उपजे. गां० हे गौतम ! यो नारकी ना आयुषो प्रतं न करे. जा० यावत्. दे० देवनों आयुषो कि० करी ने. दे० देव ने विषे उपजे से० ते स्यां माटे जावत. दे० देवनू आयुषो कि० करी ने. दे० देवलेोक ने विषे उपजे हे गौतम ? बाल पंडित म० मनुष्य. त० तथारूप. सः श्रमण साधु मा० माहरा ते ब्राह्मण ने पासे ए० एक पिण आर्य आरम्भ रहित ध० धर्म नू रूडु बचन, सेा० सांभली में. नि० हृदय धरी ने देशथकी विरमें स्थूल प्राणातिपातिक वर्जे सूक्ष्म प्राणातिपात थी निवत्ते नहीं. दे० देशकांइक प० पचखे दे० देश कांइक. गो० न पच्चखे से० ते कारणे दे० देश उपरम्यो देश पचख्यो तेणे करी. णो नहीं नारकी नों श्रायुषो करे जा० यावत् दे० देवनू प्रायुषो किं० करी ने. दे० देवने विषे उपजे से० तेणे अर्थे यावत् देव ने विषे उ० उपजे ।
अथ अठे को जे श्रावक देश थकी निवृत्यो देश थकी नथी निवत्यो देशपचखाण कीधो देश पचखाण कीधो नथी । जे देशे करि निवृत्यो अनें देश पचखाण कीधो तेणे करी देवता हुवे । इहां पचखाणे करी देवता थाय कह्यो ते किम जे पचखाण पालतां कष्ट थी पुण्य बंधे तेणे करी देवायुष बंधे कह्यो । पिण अत सेव्यां सेवायां देव गति नो बंध न कह्यो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २८ बोल सम्पूर्ण ।
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दानाऽधिकारः ।
केतला एक कहे-ने श्रावक सामायक में साधु ने बहिरावे तो सामायक भांगे , ते भणी सामायक में साधु ने वहिरावणो नहीं ते किम श्रावक सामायक में जे द्रव्य वोसराया छै ते द्रव्य आज्ञा लियां बिना साधु ने बहिगवणो नहीं। एहवी झूठी परूपणा करे तेहनो उत्तर–सामायक में ११ व्रत निपजे के नहीं। जब कहे ११ व्रत तो निपजे छै। तो १२ मों क्यूं न निपजे व्रत सूं तो ब्रत अटके नहीं। सामायक में तो सावद्य योग रा पचखाण छै। अनें साधु ने बहिरावे ते निरवद्य योग छ। ते भणी सामायक में बहिरायां दोष नहीं। तिवारे आगलो कहे द्रव्य वोसिराया छै। तिण सू ते द्रव्य वहिरावणा नहीं । तेहने इम कहिये ते द्रव्य तो एहनाज छै। ए तो सामायक में छांड्या जे द्रव्य तेहथी सावद्य सेवा रा त्याग छै। अनें साधु ने बहिरावे ते निरवद्य योग छै ते माटे दोष नहीं । जो सामायक में छोड्या जे द्रव्य वहिरावणा नहीं। इभ जाणी आहार बहिरावे नहीं तो तिण रे लेखे जागां री पीठ. फलक शय्या संस्तारा री आज्ञा पिण देणी नहीं। वली त्यां रे लेखे औवधादिक पिण देणी नहीं। वली स्त्री पुत्रादिक दीक्षा लेवे तो निण रे लेखे सामायक में त्यांने पिम आज्ञा देणी नहीं : ए नब जाति र परिग्रह सामायक में वोसिरायो छै। अने स्त्रोआदिक पिण परिग्रह माह छै ते माटे अने स्त्रीआदिक नी तथा जागां आदिक नी आज्ञा दणी तो अशनादिक री विग आज्ञा देणी। अनें हाथां तूं पिण अगनादिक बहिरावणो। अन घोसराया' कही म पाड़े तेहनो उत्तर---ए नव जाति रो परिग्रह सामायक में वोसरायो कहाने पिग देश थकी वोसिराया, परं ममत्य भाव प्रेम रागवन्धन तातो टूटो नथी। पुनादिक थयां राजी पणो आवे छै। ते माटे रहनाज छै पिण सर्वथा प्रकारे ममत्व भाव मिट्यो नथी। ते सूत्र पाठ लिखिये छ ।
समणावासगस्स णं भंते सामाझ्य कडस्स समणोवासए अस्थमाणस केइ भंडं अवहरेजा सेणं भंते ! तं भंड अणगवेसमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ. परायगं भंडं अणुगवेसइ. गोयमा ! सयं भंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ तस्सणं भंते ! तेहिं सीलव्वय गुण वेरमण
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भ्रम विध्वंसनम्
पचावाण पोसहो वासेहिं से भन्डे अभडे भबइ. हता भवइ. से केणां खाइणं अतुग भन्ते ! एवं बुच्चइ सयं भन्डं अणुगवेसइ णो परायगं भन्दं अणुगवेसइ. गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ. णो मे हिरणणे णो मे सुवरणे णो मे कसे नो मेदूसे. विउल धण कणग रयण-मोत्तिय-शंख. सिल-प्पवाल रत्त रयाण मादिए संतसार सावएज्जे ममत्त भावे पुण से अपरिगणाए भवइ से तेखाटेगां गोयमा ! एवं बुच्चइ सयं भन्डं अणुगवेलाइ शो परागयं भन्ड अणुगवेसइ ॥ १॥
समणो वासगरस ग भन्ते ! सामाइय कडस समणो. वासए. अस्थमा गस्त केइ जायं चरेज्जा से भन्ते ! किं जायं चरइ अजायं चरइ. गोयमा ! जायं चरइ नो अजायं चरदू. तस्तणं भन्ते । तेहिं सीलव्वयगुण. वेरमण पचक्खाण पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ. हंता भवइ. से केणं खाइ अटेणं भन्ते ! एवं बुखद जाय चरडू नो अजाय चरडू गोयमा ! तस्सणं एवं भवई नो मे माया णो मे पिया णो मे भाया णो मे भइनी. नो मे भज्जा नो मे पुत्ता नो मे धूआ नो मे सुगहा पेज्ज बंधणे पुरण से अवोच्छियो भवडू. से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो अजाय चरइ. ॥ २॥
( भगवतो श०८ उ०५
स. श्रमगोपाल श्रावक न. भ. हे भगवन्त ! सा० सामायक. क. कीधे छते स. श्रमण में उपाश्रय में निषे. प्रा० बैतो है एहवे. के. कोइक पुरुष. भ० भड वस्त्रादिक वस्तु गृह में विषे ते प्रति. श्र अपहने. से० ते श्रावक. भ. हे भगवन्त । ते ते भड वस्त्रादिक प्रते गधेक्या करे सामायक पूर्ण थयां पछो जोई. किं ते स्यू पोता ना भड नो. अ० अनुगवेषणा करे
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दानाऽधिकारः।
ह
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छ. ५० के पारका भंड नो. अनुगवेषणा करे छै. गो० हे गौतम ! सः पोताना भडनी अनुगवेषणा करे है। नो० नहीं पारका भडनी अनुगवेषणा करे कै. त० ते श्रावक में भ० हे भगवन्त ! ते० ते. सो० शील व्रत गुण ब्रत. व० रागादिक नी विरति. ५० पचखाण नवकारसी प्रमुख पो० पोषध उपवास पर्व तिथि उपवास तिणि. से० ते. भ० भड वस्तु में अभड थाइं परिग्रह वोसिराव्यां थी. हं हां गौतम ! हुई. से० ते. के केह अ० अर्थे. भ० हे भगवन्त ! ए० इम. बु० कह. स० ते श्रावक पोता नू' भांड जोई छै. णो नहीं पर भंड अ० जोई है। गो० हे गौतम ! त० ते श्रावक नों. ए० एहवो मननो परिणाम हुई. णो नहीं. मे० माहरो. हिरण्य गो नहीं माहरो सु० सुवर्ण. णो नहीं. मे० माहरो. कं० कांस्य णो नहीं. मे० माहरो. दू० दूषवस्त्र णो नहीं. मे० माहरो. वि. विस्तीर्ण. ध० धन गणिमादि क० सुवर्ण कर्केतनादि. २० रत्न मणि चन्द्रकान्तादि. मो० मोती. स. शंख. सि० मिलप्प प्रबाली. २० रत्न पद्मरागादि. सं० विद्यमान. सा० सार प्रधान. सा० स्थाप ते. द्रव्य वोसिराव्यू परिग्रह मन बचन काया इं करिवू करायवू पचख्यूं छ। पिण. म० परिग्रह ने विषे ममता परिणाम नधी पचख्या, अनुमति ते ममता ते न पचली तेहनी ममता तेणें मेली नश्री. से० ते. तेणे अार्थे हे गौतम ! ए० इम बु० कहे. सं० पोतानू भड अ० जोई छ. णो० पारकू भड जोवै नथी. स० श्रमणोपासक ने भ. हे भगवन्त ! सामायक कीधे छते. स. श्रमण ने उपाश्रय बैठो के. केकोई जार पुरुष भार्या प्रति च० सेवे. से० ते जार पुरुष. भ. हे भगवन्त ! भार्या प्रते सेवे के अभार्या प्रते सेवे. हे गौतम! जा० भार्या प्रति सेवे दै. णो नहीं अभायर्या प्रति सेये छ। त० ते श्रावक. महे भगवन्त ! सो० शीलन्नत अनुव्रत गुणभ्रत. व० रागादिक विरति ५० पचखाण नवकारसी प्रमुख. पो० पोषध उपवास तेणे करीने. सा० ते मायर्या प्रते वोसरावी छै ते भायो अभार्या. भ. हुई. ह. हां. गातम ! हुई. से ते. केहै खा ख्याति अ० अर्थे करी ने. भ० हे भगवन्त ! ए० इम. बु० कह. जा भार्या प्रति से। छ। णो नहीं अभार्या प्रति सेवे छै। हे गौतम ! ते श्रावक नों. ए० एहवा अभिप्राय हुई. यो नहीं मे० माहरो माता. णो नहीं. मे० माहरो पिता. गो. नहीं. मे० माहरो भाई. णो नहीं भे० माहरी बहिन. गो० नहीं मे० माहरी भार्या. णो० नहीं मे० माहरा पुत्र. णो नहीं मे माहरी बेटी. णो नहीं मे० माहरी. सु० पुत्रनी भार्या पे० पिण प्रेमबंधन. से. तेहने. अ. विच्छेद नथी पाम्यो ते श्रावक ने तिण अनुमति पचखी नथी. प्रेम बन्धने अनुमति पिण पचखी नथी. से० ते. तेणे अर्थे. गो० हे गौतम ! १० इम बु० कही. जा. यावत. गो० नहीं अभार्या प्रति सेवे ।
अथ इहां कह्यो-श्रावक सामायक में साधु उतसा, तेणें उपाश्रय बैंठो कोई तेहनो भंड ते वस्तु चोरे तो ते सामायक चितास्यां पछे पोता नों भंड गवेषे के अनेरा नों भंड गवेषे। तिवारे भगवान् कह्यो-पोता नो इज भंड गवेषे छै पिण अनेरा नों भंड गवेषे नहीं। तिवारे वली गौतम पूछयो । तेहनें ते सामायक
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पोषा में भंश घोसिरायो छै। भगवान् कह्यो हां वोसिरायो छै। ते: पोसिरायो तो वलो पोता नो भंड किण अर्थे कह्यो। जद भगवान कह्यो ते सामायक में इम चिन्तवे छै। ए रूपो सोंनों रत्नादिक माहरा नहीं इम बिचारे पिण तेहने ममत्व भाव छूटो नथी। इम कह्यो तो जोवीनी सामायक में ममत्व भाव छूट्यो नहीं। ते माटे ते धनादिक तेहनों इज कह्यो अनें वोसिरायो कह्यो छै। ते धनादिक थी सापद्य कार्य करवो त्याग्यो छै। पिण तेहनों ममत्व भाव मिट्यो नहीं। ते भणी ते धनादिक एहनों इज छै। ते माटे सामायक:में साधु ने बहिरावे ते कार्य निरवद्य जैते दोष नथी। जिम धन नों कह्यो तिम आगले आलावे स्त्री नों:कह्यो। तो सामायक में पिण स्त्री में वोसिराई कही छै। तेहनी साधु पणा री आज्ञा देवे तो आहार नी भाशा किम न देवे। स्त्रियादिक बहिरावे तो आहार किम न बहिरावे। दहाँ तो सूत्र में धन नों अनें स्त्री नों पाठ एक सरीखो कह्यो छ। ते माटे बहिरायां दोष नहीं। जिम आवश्यक सूत्र में कह्यो-साधु एकाशणा में एकल ठाणा में गुरु आयो उठे तो पचखाण भांगे नहीं। तो श्रावक नी सामायक किम मांगे। अकस्पतो कार्य कियां सामायक भांगे पिण निरवद्य कार्य थी सामायक किम भांगे। श्रावक रे साधु ने बहिरायां १२ मो व्रत निपजे छै। अनें व्रत थी सामायक भांगे श्रद्ध, त्यांने सम्यग्दृष्टि किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २६ बोल सम्पूर्ण।
यली केसला एक पाषंडी श्रावक जिमायां धर्म श्रद्ध। तिण ऊपर पड़ि माधारी जिन कल्पी अभिग्रहधारी साधु रो नाम लेवे। तथा महावीर रा साधु ने पार्श्वनाथ ना साधु अशनादिक देवे नहीं ते कल्प नहीं तिणसू न देवे पिण गृहस्थ त्यांने बहिरावे तिण ने धर्म छै। तिम श्रावक ने अशनादिक साधु देवे महीं , ते साधु रो कल्प नहीं तिण सूं न देवे छै। पिण गृहस्थ श्रावक ने जिमावे तिण में धर्म छ। इम कुहेतु लगाय में श्रावक जिमायां धर्म कहे छै। तेहनो उत्तरमहावीर ना साधु ने श्री पाननाथ नाःसाधु अशनादिक देवे नहीं। ते तो त्यारो कल्प नहीं। पिण महावीर ना साधु में कोई गृहम भाहार देबे सेहने पार्श्वनाथ ना
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दामाऽधिकारः।
साधु तथा जिन कल्पी साधु भलो जाणे अनुमोदना करे छ। भनें श्रावक न साधु अशनादिक देवे नहीं देवावे नहीं अनें देता नें अनुमोदे नहीं। बली आक्षा पिण देवे नहीं तिणसू श्रावक ने जिमायां ऊपर पार्श्वनाथ महावीर ना साधु नों न्याय मिले नहीं। वली पार्श्वनाथ ना साधु केशी स्वामी गौतम ने संथारो दियो कमो छै ते पाठ लिखिये छै ।
पलालं फासुयं तत्थ पंचमं कुस तणाणिय । गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए॥
( उत्तराध्ययन भ० २३ गा० १७ )
. पराल. फा० प्राशुक जीवरहित निर्जीव । त• तिहां तिन्दुक भामा वन में दिन चार प्रकार मा पराल शालिनों १ ब्रीहिनों २ कोवानों ३ रालानाम बनस्पति नों ४ ५० पांचों हाभ प्रमुख नों ५ अ० अमेरा पिण साधु योग्य तृणादिक. गो० गोतम ने नि० वैसवा ने प्रथ मि० शीघ्र सं० श्रापे छ. बैठवा निमित्त.
अथ इहां गौतम ने तो केशी स्वामी सन्थारो भाप्यो कह्यो छ। भनें श्रावक ने तो साधु संथारादिक विविधे करि आपे नहीं। ते भणी पार्श्वनाथ महावीर ना साधु रो न्याय श्रावक ने जिमाव्यां ऊपर न मिले। डाहा हुवे तो विचारि जोइनो।
इति ३० बोल संपूर्ण।
तथा धली असोचा केवली अन्यमति मा लिङ्ग थकां कोई ने शिप्य न करे बखाण करे नहीं। पिण अनेरा साधु-कने "तूं दीक्षा ले" एहळू उपदेश करे हैं। ते पाठ लिखिये छ।
सेणं भंते पव्वावेजवा मंडावेजवा. णो इणडे समटे उवदेसं पुण करेजा।
भिगवतो श६.३१
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भ्रम विध्वंसनम् ।
से० ते. भ. हे भगवन्त ! ५० प्रबज्या देवे. मु. मुड़ावे. णो० ए अर्थ समर्थ नहीं. उ० उपदेश. पु० वली. क० करे. “तूं प्रभु का पासे दीक्षा ले” इम उपदेश करे. ।
___ अथ इहां पिण कह्यो जे असोच्चा के बली आप तो दीक्षा न देवे। परं अनेरा कनें दीक्षा लेवानों उपदेश करे छै। अनें श्रावक ने अशनादिक देवानों साधु उपदेश पिण न करे, तो देण वाला ने धर्म किम हुवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३१ बोल सम्पूर्ण ।
तथा आभग्रह धारी परिहार विशुद्ध चारित्रिया में अनेरा साधु आहार न देवे। अने कारण पड्यां ते साधु ने पिण अशनादिक देवो कह्यो छै ते पाठ लिखिये छ।
परिहार कप्पट्टियस्सणं भिक्खुस्स कप्पइ. आयरिय. उवज्झाएणं. तदिवसं एगंसि. गिर्हसि पिंडवायं. दव्यावित्तए. तेणपरं. नो से कप्पइ. असणं वा ४ दाउंवा अणुपदाउंवा कप्पइ. से अन्नपरं. वेया.वडियं करित्तए, तंजहा. उहाणंवा निसीयावणं वा तुयट्ठावणंवा उच्चारंवा पासवर्णवा. खेलं जल संघाण विगिचणंवा विसोहणंवा करित्तए अह पुण एवं जाणेजा. लिगणा वा एसुपन्थेसु आउरे अँजिए पिवासिए तवसी दुव्वले किलं ते मुच्छेज्जवा. पवड़ेजवा. ए बसे कप्पइ. असणंवा ४ दाउंवा अणुपदाउंवा ।
(बृहत्कल्प उ० ४ बो० २६ )
प० परिहार विशुद्ध चरित्र ना धणी ने परिहार कल्प स्थित भिक्षु परिहार विशुद्ध चारित्र वो भणो कोई नप विशेष ने विष प्रवेश करे एक दिन आहार गुरू तेह नेगृहस्थ ना घर नों भापा
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दानाऽधिकारः ।
विधि दिखा आहार लेवा नी ते पिए पारणे जेहो कल्पे तिम रीति देखाड़ी एह निविश्यमाण कपट्ठी प० परिहार विशुद्ध चरित्र नो ए विध. भि० साधुने क० कल्पै. श्रा० श्राचार्य. उ० उपाध्याय त० तेणें तप करिat माड्यो ते दिवस में विषे. ए० एक घर ने विषे पि० आहार ने द० देवरावो कल्पे ते विधि देखाड़ है । ते ते दिन उपरान्त नो० न कल्पे से० तेहने अशनादिक ४ दा० देवराय वो घणीवार पिए देवरावो न कल्यै क० कल्पै से० तेहने. ऋ० अनेरी वे० व्याचच करवा ग्लामना पायें ते माटे. तं० तिमज छै तिम कहे है. उ० काउसग्ग ऊभो करियो नि० वैसा
वो सु० सूवावा. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति खे० खेल गलानों वलखो. ज० शरीर नो मल सं० संत्राण नासिका नो मैल वि० निवर्त्ताविवो वि० उच्चारादिके शरीर खरड्यो हुवे ते शुद्ध कराaat असजाय amraवा श्र० वली ए० इम ज० जाणे. हिवे बली इम करतों ने शरीर कामना पावे. तिवारे गुरु आदिक वैयावच कही. ते रोति करे. जाखो जे छि० कोई यावत जावतो नथी. एहवा निग्रंथ मार्ग ने विषे ते चरित्रियो ग्रा० आतंक रोगे करी. भूख पीड़ितो हुवे. पि० तृषा व्याप्त तपस्वी: दु० दुर्बल कि० किलामना पासी सु० मूर्च्छित नि० निर्बल पी. प० भूख लागी ए० इम एहवे. अवसर. से० ते कल्पे तेहने प्रशनादिक ४ एकवार आणी आपको. To aणीवार आपको ।
१०१
अथ अठे कह्यो । जे अभिग्रह धारी परिहार कल्पस्थित साधु ने पिण तेणेज दिने स्थविर साथै जाइ आहार दिवावे उपरान्त न दिवावे । अनेरी व्यावच तेहनें वीजा साधु करे । अनें भूख तृबाइ कारणे अशनादिक पिण ते अभिग्रह धारी अनेरा साधु देवे इम कह्यो । अनें “श्रावक" ने तो कारण पड्यां पिण साधु अशनादिक देवे नहीं, दिवावे नहीं । ते माटे जिन कल्पी स्थविर कल्पी नों न्याय में जिमाव्यां ऊपर न मिले। वली जिन कल्पी साधु स्थविर कल्पी ने अशनादिक देवे नहीं परं देतां नें अनुमोदना तो करे छे। अने श्रावक नें तो साधु आहार देवे नहीं दिवावे नहीं । देतां ने अनुमोदे पिण नहीं । ते माटे इहां जिन कल्प स्थविर कल्पी से न्याय मिले नहीं । अनें जिन कल्पी साधु तो विशेष धर्म करवा में अशुभ कर्म खपावां ने अर्थे शुभ योगराई त्याग कीधा ते किण नें ई दीक्षा देवे नहीं बखाण करे नहीं । अनेरा साधु नी व्यावच करे नहीं ।
श्रावक
संथारो करावे
4
नहीं fपण और साधु ए कार्य करे छै । त्यांरी अनुमोदना करे छै। अनुमोदना रा त्याग नथी कीधा । अनें श्रावक ने आहार देवे । तेहनी अनुमोदना करवा रा 1 ई साधु रे त्याग है | अनें जिन कल्पी निरवद्य योग रूध्यां ते विशेष गुण रे अर्थे पिण सावद्य जाणी त्याग्या नथी । अनें श्रावक ने देवा रा साधां त्याग कीधा, ते सावध वाणी ने विविधे २ त्याग कीधा छै । घर छोड़ी दीक्षा लोधी तिण दिन
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भ्रम विध्वंसनम् ।
एक "सव्वं सावज जोगं पचकखामि" सर्व सावद्य योग रा म्हारे पचखाण है ।। इम पाठ कही चारित्र आदलो । तो ते गृहस्थ ने देवो त्याग्यो- ते पिण सावध जाण ने त्याग्यो छै । साबध कार्य में धर्म किम कहिये । डाहा हुषे तो विचारि
जोइजो ।
इति ३२ बोल सम्पूर्ण ।
२०२
तथा जे सूथगडाङ्ग में कह्यो जे साधु गृहस्थादिक में देवो त्याग्यो । तै संसार भ्रमण नों हेतु जाण ने छोड्यो. एहवो कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
जेहिं food भिक्खू अन्नपाण तहाविहं अप्पयाण मन्नेसिं तं विज्जं परिजाणिजा ।
( सूयगडांग श्रु० १ ० ६ गा० २३ )
जे० जेणे अन्नपाणी इं इम करी इह लोक नें विषे भि० साधु संयम निर्वहे जीवे तथा विव तहवो निर्दोष अन्नपाणी ग्रहे आजीविका करे एह अन्नपाणी नों देवो केहनें. म० गृहस्थ में पर तीर्थी ने असंयती नें सं० ते सर्व संसार भमवा हेतु जाणी ने पंडित परिहरे ।
इहाँ पिण कह्यो । ते गृहस्थादिक ने देवो संसार भ्रमण नों हेतु जाणी
ने
साधु त्याग्यो । इम कह्यो तो गृहस्थ में तो श्रावक पिण आयो । तो ते श्रावक ने दान री साधु अनुमोदना किम करे । तिण में धर्म पुण्य किम कहे। डाहा हुवे तो विचारि जोजो ।
इति ३३ बोल सम्पूर्ण ।
बली निशीथ सूत्र में इम कह्यो । जे गृहस्थ नों दान अनुमोदे तो चौमासो प्रायश्चित आये । ते पाट लिखिये ।
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दानाऽधिकारः।
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जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा असणंवा ४ देयइ देयन्तंवा साइज्जइ ॥ ७८ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा वत्थंवा पडिग्गहंवा कंवलंवा पाय पुच्छणंवा देयइ देयन्तं वा साइज्जइ. ॥ ६ ॥
(निशोथ उ० १५ बो० ७८-७६ )
जे जे कोई. भि. साधु. साध्वी. अ. अन्य तीर्थी ने. गा० गृहस्थ ने म.प्रथनाविक ४ प्राहार देवे. दे० देवतां .. सा० अनुमोदे. ॥ ८ ॥
जे जे कोई. भि० साधु. साध्वी. अ० अन्य तीर्थी. गा० गृहस्थ ने. व० वस्न. पा. पात्र. क० कांवलो. पा. पाय पूछणों रजो हरण. दे० देवै. दे० देवता नें. सा• अनुमोदे. ॥ ७ ॥
अथ इहां गृहस्थ ने अशनादिक दियां, अने देतां ने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित कह्यो छै। अने श्रावक पिण गृहस्थ इज छै ते माटे गृहस्थ नों दान साधु ने भनुमोदनों नहीं। धर्म हुवे तो अनुमोद्या प्रायश्चित क्यूं कह्यो। धर्मरी सदा ही साधु अनुमोदना करे छ। तिवारे कोई इहाँ अयुक्ति लगावी कहे । जे साधु गृहस्स ने अशनादिक देवे तो प्रायश्चित-अनें गृहस्थ में साधु देवे तिण ने भलो जाण्या प्रायश्चित छै । परं गृहस्थ में गृहस्थ देवे तेहनी अनुमोदना नों प्रायश्चित नहीं। इम कहे तेहनों उत्तर-इण निशीथ ने पनर में १५ उद्देशे एहवा पाठ कह्या छै। “ भिक्खु सचित्तं अंब भुंजइ भुंजंतंवा साइजइ" इहां कह्यो सचित्त आंबो भोगवे तो अनें भोगवतां ने अनुमोदे तो प्रायश्चित आवे। जो साधु भोगवतो हुवे तेहनें भनुमोदणों नहीं, तो गृहस्थ आंबो भोगवे तेहने साधु किम अनुमोदे। जो गृहत्य रा दान ने साधु अनुमोदे तो तिण रे लेखे आंबो गृहस्थ भोगवे. तेहने पिण अनुमोदणो-अनें जो गृहस्थ आंबो भोगवे. तेहनें अनुमोद्यां धर्म नहीं, तो गृहस्थ ने दान देवे ते पिण अनुमोद्यां धर्म नहौं । अ जे कहे साधु गृहस्थ ने दान देवे नहीं भनें साधु गृहस्थ ने देतो हुवे तेहनें अनुमोदनों नहीं। एहवो ऊधो अर्थ करे तेहने लेखे इसा सैकड़ा पाठ निशीथ में कह्या छै, ते सर्व एक धारा छ। जे गृहस्थ
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भ्रम विध्वंसनम् । .
आंबो चूसता ने साधु अनुमोदे नहीं. तिम आहार देता ने अनुमोदे नहीं तो ते दान में धर्म किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३४ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक एहयो प्रश्न पूछ। जे पडिमाधारी श्रावक ने दीधां काई हुवे। तेहलो उत्तर ---पडिगाधारी पिण देशत्रती छ। तेहना जेतला २ त्याग ते तो व्रत छै। अने पारणे सूझता आहार नो आगार अयत छै ते अवृत सेवे छै, ते पड़िताधारी । तेहनें धर्म नहीं तो जे अवृत सेवावण वालाने धर्म किम हुई । गृहस्थ ना दान में साधु अनुमोद तो प्रायश्चित आवे तो पडिमाधारी श्रावक पिण गृहस्थ छै लेहनां दान अनुमोदन वाला ने ही पाप हुवे, तो देणवाला ने धर्म किम हुवे । तिवारे कोई कहे ए पडिमाधारी श्रावक ने गृहस्थ न कहिये। एहने सूत्रमें तो "समणभुए" कह्यो छै । तेहनों उत्तर-जिम द्वारिका में "देवलोक भुए" कही पिण देवलोक नथी। एतो उपमा कही छै। तिम पडिमाधारी ने पिण “समण भुए" कह्यो। ते उपमा दीधी छै। ते ईर्यादिक आश्रय पिण गृहस्थपणो मिट्यो नहीं। संथारा में पिण अनन्द थापक ने गृहस्थ कहो , ते पाठ लिखिये छ ।
तत्तेगां से आणंद समणो वासए भगवं गोयमं तिकबुत्तो मुछाका पादेसुवंदाति हामंसति २ ता एवं क्यासी-- अस्थिणं भंते ! गिहिणो गिहिवास मज्झे वसन्तस्स अोहिणाणे समुप्पज्जइ. हंता अस्थि ॥८३॥
- जइह संने ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ. एवं खलुभंते ममंविगिहमा गहमके वसंतरस मोहिणाणे समुप्पो पुरस्थिमेणं लवण सबुद्धे पञ्च जोयण सयाई जाव लोलुए नरयं जागामि पानामि ॥८४॥
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दानाऽधिकारः
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तएणं से गोयमे आणंदे समणोवासए एवं वयासी–अस्थि आणंद ! गिहिणो जाव समुपज्जति णो चेव णं एवं महालए तेणं तुम्हं आणन्दा ! एयरस ट्ठाणस्त आलोएहि जाव तवोकम्म पड़िवज्जहि ॥ ५ ॥
( उपासक दशा अ०१) -
तिबारे पहे. अानन्द श्रमणोपासक ने. भ० भगवान् गोतम ने. ति विशवार. मु० मस्तके करी. पा० चरणा ने. विषे वांदे. ण नमस्कार करे वांदो में नमस्कार करी ने इम बोल्या अ०है. भ० हे पूज्य भगवन् ! गि गृहस्थ में. गि गृहवास. म० माहे. व० वसता ने प्रो० अवधि ज्ञान स० ऊपजै हं० हां आनन्द ! उपजे. जं. जो. भ० हे पूज्य भगवन् ! गि गृहस्थ में गि० गृहवास माहे. व० वसता ने श्रो० अवधि ज्ञान उपजे. ए. इम. ख. निश्चय करी ने. भ. हे भगवन्त ! म० मुझने पिण गि० गृहस्थ ने. गि गृहवास माहे. व० वसता ने. प्रो० अवधि ज्ञान. स. उपनो छै. पू० पूर्वदिश ल० लवण. स. समुद्र माहे. प० पांच सौ योजन लगै जाण-देखू. इम दक्षिण में पश्चिम उ तर चूल हेमवन्त पर्वत ऊंचो सुधर्म देवलोक लगै. जा. यावत् लो० लोलुच पाथड़ो नोचो पहिलो नरक नों नरकाबासो जाणू छू। त० तिवारे पछे. से० ते. भगवन्त. गोः गोतम. श्रा० अानन्द. स० श्रावक प्रते. ए• इम. प० बोल्या. श्रा० उपजे तो है. श्रा० हे पालन्द ! गि गृहस्थबास. म. माहे. व० वलता ने. स० श्रावक ने श्रो० अवधि ज्ञान स० उपजे छे. पिण णो नहीं उपजे छ निश्चय एवड़ो मोटो अवधि ज्ञान त० तिण कारण. तु० तुम्हे. पा० ग्रहो श्रागान्द ! ए. ए. ठा० स्थानक झूठ नो. प्रा० अालोवो. निन्दवो. जा० यावत. त० तपकर्म. १० अंगीकार करो ।
अथ इहां आनन्द श्रावके सन्थारा में पिण गोतम ने कह्यो-जे हूं गृहस्थ छ. अनें घर मध्ये वसता ने एतलूं अवधि ज्ञान उपनो छै। तो जोवोजी संथारा में पिण आनन्द में गृहस्थ कहिये। घर मध्ये वसतो कहिये। तो पडिमा में घर मध्ये वसतो गृहस्थ किम न कहिये। इण न्याय पडिमाधारी श्रावक में गृहस्थ कहिये। अनें “निशीथ उ० १५' गृहस्थ में अशनादिक दियां देता ने अनुमोद्यां चौमासो दंड कह्यो। तो पडिमाधारी पिण गृहस्थ छै, तेहनां दाल ने साधु अनुमोदे तो तेहनें दंड आवे तो देण वाला ने धर्म किम हुवे। तिबारे कोई कहे गृहस्थ नों दान साधु ने अनुमोदनों नहीं ते माटे साधु अनुमोदे तो तिण ने दण्ड आवे। पिण गृहस्थ में धर्म हुवे। इम कहे, तेहनो उत्सर-ए निशीथ १५ उद्देशे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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पणा बोल कह्या छ। सचित आंबो चूंसे, सचित्त आंबो भोगवे, भोगवता ने अनुमोदे, तो साधु ने दंड कयो। जो सचित्त आंबा भोगवतां ने अनुमोदे ते साधु ने दण्ड आवे तो जे गृहस्थ सचित्त आंबो भोगवे तो तेहने धर्म किम हुवे । तिम गृहस्थ ने दान देवे तेहनें साधु अनुमोदे तो दंड आवे तो जे गृहस्थ में देवे तिण ने धर्म किम हुवे। इण न्याय पडिमाधारी गृहस्थ तेहनों दान अनुमोद्यार दंड आवे तो देण वाला ने धर्म किम हुवे। डाहा हुवे तो विद्यारि जोइजो ।
इति ३५ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली गृहस्थ नी ब्यावच करे, करावे, अनुमोदे तो अनाचार कह्यो । ते पाठ लिखिये छै।
गिहिणो वेया वडियं जाइ आजीव वत्तिया । तत्ता निवुड भोइत्तं आउरस्स रणाणिय ॥६॥
( दशवकालिक अ० ३ गा०६)
गि गृहस्थ नी. वे वैयावचनों करिवो ते अनाचीर्ण. जा० जाति. श्रा० श्राजीविका पेट भराई ने. व अर्थे पोतामी जाति जणावी में आहार लेवे ते अनाचीण. त° उन्हों पाणी अग्नि नो शस्त्र पूरो प्रणम्यो नथी. एहवा पाणी नों भोगविवो ते मिश्र पाणी भोगवे तो अणाचार. प्रा.रोगादिके पीड्यो थको. सास्वजनादिक ने संभारे ते प्रणाचार.
अथ अठे कह्यो-गृहस्थ नी व्यावच कियां करायाँ अनुमोद्या. अठावीसमो अणाचार कह्यो। जे अशनादिक देवे ते पिण व्यावच कही छै। अनें गृहस्थ में पडिमाधारी पिण आयो। तेहनें पिण गृहस्थ कह्यो छै। तिण सं तिण में अशनादिक दियां दिरायां अनुमोद्यां अणाचार लागे ते अणाचार में धर्म किम कहिये। तिवारे कोई कहे ए अणाचार तो साधु ने कह्यो छै। पिण गृहस्थ में धर्म छै । तेहनो उत्तर--बावन ५२ अनाचार में मूलो भोगवे ते पिण अनाचार कह्यो। आदो भोगवे सो अनाचार कह्यो। छव ६ प्रकार रा सचित्त लूण भोगविया अणाचार । काजल
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दानाऽधिकारः।
१०७
घाल्या, विभूषा कियां, पीठी मर्दन कियां, अनाचार कह्यो ते साधु ने अनाचार छै। ते गृहस्थ रा सर्व बोल सेवे तेहनें धर्म किम हुवे। जे साधु तो ३ करण ३ जोग सूं ५२ अनाचार सेवे तो व्रत भांगे। अनें गृहस्थ ए ५२ बोल सेवे तेहनो व्रत भाँगे नहीं, परं पाप तो लागे। अने जे कहे-गृहस्थ नी वैयावच साधु करे तो अणाचार पिण गृहस्थ में धर्म छै। तो तिण रे लेखे मूलो आदो पिण साधु भोगव्यां अनाचार अने गृहस्थ भोगवे तो धर्म कहिणों। इम ५२ बोल साधु सेव्यां अणाचार अने गृहस्थ सेवे तो तिण रे लेखे धर्म कहिणो। अनें और बोल गृहस्थ सेव्यां धर्म नहीं तो व्यावच पिण गृहस्थ री गृहस्थ करे तिण में धर्म नहीं। इणन्याय पडिमाधारी पिण गृहस्थ छै। तेहनें अशनादिक नों देवो. ते व्यावच छै. तेहमें धर्म नहीं। अनें जे “समणभुए" ते श्रमण सरीखो ए पाठ रो अर्थ बतावी लोकां रे भ्रम पाडे छै ते तो उपमा वाची शब्द छै। उपमा तो घणे ठामे चाली छै। अन्तगढ दशांगे तथा बन्हि दशा उपांगे सूत्रे द्वारिका ने “पञ्चक्ख देवलोक भुया" कही। ए द्वारिका प्रत्यक्ष देवलोक सरीखी कही। तो किहां तो देवलोक, अनें किहाँ द्वारिका नगरी, पिण ए उपमा छै। तिम पडिमाधारी ने कह्यो “समणभुए" ए पिण उपमा छै। किहां साधु सर्व व्रती अनें किहां श्रावक देशव्रती। तथा वली स्थविरां रा गुणा में पहवा पाठ कह्या
"अजिणा जिण संकासा जिणा इव अवितहवा गरेमाणा"
इहां पिण स्थविरां ने केवली सरीखा कह्या। तो किहां तो केवली रो ज्ञान अनें किहां छद्मस्थ रो ज्ञान। केवली ने अनन्त मे भांगे स्थविरां पासे ज्ञान छै। पिण जिन सरीखा कह्या। अनन्त गुणो फेर शान में छै । तेहनें पिण जिन सरीखा कह्या ते ए देश उपमा छै। तिम आनन्द नें “समणभुए" कह्यो। ए पिण देश उपमा छै ।
तथा वली "जम्बू द्वीप पणत्ति" में भरत जी रा अश्व रत्न ना वर्णन में एहवो पाठ छ। “इसिमिव खमाए" ऋषि (साधु ) मी परे क्षमायान् छै। तो किहां साधु संयती अनें किहां ए अश्व असंयती ए पिण देश उपमा छै। तिम पडिमाधारी ने “समणभुए कह्यो। एपिर देशधकी उपमा छै! परं सर्वथकी
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१०८
भ्रम विध्वंसनम्
नहीं । ते किम जे साधु रे सर्वथा प्रकारे बन्धन त्रूट्यो । अनें पड़िमाधारी रे प्रेम बन्धन यो नी ते माटे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३६ बोल सम्पूर्ण ।
वली पड़िमाधारी रे प्रेमबन्धन त्रूट्यो नथी । ते पाठ लिखिये छै -
केवल सेणाय पेज वंधणं अवोच्छिन्नं भवति एवं से rous at farerए ।
भ० हुवे. जावे ।
( दशाश्रुत स्कन्ध श्र० ६ ।
के० एक. से ० तेहने गा० ज्ञान माता पितादिक ने विषै प्रेमबंधन. अ० टघो नथी. ए० एणो परे से० तेहने क० करपे घटे ना० न्यातविधि गोचरी करे आहार में
भनें साधु रे
अथ अठे इग्यारजी पड़िमा में पिण ए पाठ कह्यो । जे न्यातीलां रो राग प्रेम बंधन त्रुट्यो नथी ते माटे न्यातोलां रे इज घरे जावे इम कहा । सर्वथा प्रकारे तांतो त्रुटो छे । ते भणी “अणाय कुले" घणे ठामे को छै । ते भणी "समणभुए" उपमा देशथकी छै । पिण सर्वथकी नहीं । इहां तो चौड़े को जो न्यातीलां रो राग प्रेम बंधन न त्रूट्यो, ते भणी न्यातीलाँ रे इज घरे गोचरी जाय, तो प्रेमबन्धन थी न्यातीला पिण देवे है । तो दातार तथा लेनहार बिहूं में जिन आशा किम देवें । जे ए प्रेम राग रूप बंधन सावद्य आज्ञा बाहिरे छै। तो राग करी तेहने घरे गोचरी जाय ते पिण कार्य सावद्य आज्ञा बाहिरे छै। अमें ने लेनहार ने धर्म नहीं तो दातार में धर्म किम हुवे । इणन्याय पड़िमाधारी ने "समणभुए' कह्यो । ते देशथकी उपमा छै, परं सर्व थकी नहीं । डाहा हुवे तो विचार जोइजो ।
इति २७ बोल सम्पूर्ण ।
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दशनाऽ ऽधिकारः 1
तिबारे कोई एक कहे जो पड़िमाधारी में दियां धर्म न हुवे तो "दशा श्रुत' में इम क्यूं कह्यो । जे पड़िमाधारी न्यातीलारे घरे भिक्षा ने अर्थ जाय, तिहां पहिलां उतरी दाल अनें पछे उतला चावल तो कल्पेपडिमाधारी नें दाल लेणी, न कल्पे चावल लेवा ॥१॥ अने पहिलां उतसा चावल पछे उतरी दाल तो कल्पे चावल लेवा न कल्पे दाल ॥२॥ दाल अनें चावल दोतूइ पहिलां उतला तो दोनूंह कल्पे ॥३॥ अनें दोनुं पछे उतस्या तो दोनुं न कल्पे ॥४॥ इहां चावल दाल पहिला उतरला ते पड़िमाधारी ने लेवा कल्पे, कला ते माटे पड़िमाधारी लेवे हमें जिन आशा छै । आज्ञा वाहिरे हुवे तो कल्पे न कहिता।
इम कहे तेहनों उत्तर-ए कल्प नाम आज्ञा नो नहीं है। ए कल्पनाम तो आचार नों छै । पड़िमाधारी नें जेहवो आचार कल्पतो हुन्तो ते बतायो । पिण आज्ञा नहीं दीधी । इम जो आज्ञा हुवे, तो अम्बड में अधिकारे पिण एहवो कह्यो । ते पाठ लिखिये
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१०१
trate परिब्बायगस्स कप्पति भागहए श्रद्धाढए जलस्स पड़िगाहिलए सेविय, बहमाणे गोचवणं अवहमाणे एवं थिमियं पलणे परिपूए हो चेत्र अपरिपए सेविय, सावज्जेति को चेवणं वज्जे सेविये, जीवातिकाओ गो चेव जीवा सेविय दिराणे णो चेवणं दिसेविय हत्थ पाय चरु चम्म पखालण्याए पवित्तएवा सो चैत्र सिलाइन्तएवा ।
( वाई प्रश्न १४ )
० अब परिव्राजक ने कल्पे. म० मगध देश सम्बन्धी अधीक मान विशेष सेर ४ ज० जल पाणी नों पडिगाहियो अतिशय सूं ग्रहियो से० ते पिण बहती नदी प्रादिक संबंधि वाहनों शो० न लेवो तो बावड़ी कूत्रा तालाब सम्बन्धी पाणी. ए० इम पाणी नीचे कादो न थी. प० प्रति श्राछो निर्मल प० वस्त्रे करी में गल्यो लेवो. गो० पिया ते न लेवो. ० जे वस्त्रे करी करी गल्यो न हुई. से ० ते. पिण निश्चय करी सावध पाप सहित ति० एहवो कही. पण ले न जाणे अनवद्य. चे० ( पदपूर्ण भणी) से० ते पिया जीब सचेतन रूप ति
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भ्रम विध्वंसनम् ।
reat कही. गोविए न जानवो. श्र० अजीव चेतना रहित से० ते पिख दीधो लेवणे..
गो०पि ते न लेवो जे. अ० श्रण दीधो.
से० ते पिए ह० हाथ. पा० पाय पग च० चरु पात्र च० चमचा करदी. प० पखालबारे यो नहीं सि स्नान निमित्ते ।
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अम्वड में काचो पाणी लेवो,
अथ इहां कह्यो - कल्पे अम्बड सन्यासी नें मगध देश सम्बन्धी अर्ध आढकमान ४ सेर पाणी लेवो ते पिण कर्दम रहित निर्मल छाप्यो - ते पिण सावद्य कहितां पाप सहित ए कार्य पहयूं कहीनें । ते पिण पाणी सचित्त छै जीव सहित छै इम कही नें ते पाणी अम्वड ने लेवो कल्पे, एहवूं कहा है। तो जे "पड़िमाधारी ने पहिलां उतरी दाल लेवी कल्पे" इम कह्यां माटे अशा में कहे तो तिरे लेखे अम्बड काचो पाणी लियो ते पिण जिन आशा में कहिणो । कल्पे अम्बड नें काचो पाणी लेवो. इम कह्यो ते माने इहां पिण आज्ञा कहिणी । अम्ब काचो पाणी पाप सहित कही ने लेवे । तिण में जिन आज्ञा नहीं तो पड़िमाधारी में पिण आज्ञा नहीं । कोई मतपक्षी कहे जे कह्यो कल्पे ए तो सन्यासीपणा नों कल्प आचार को छै । पिण अम्बड श्रावक थयां पाछ कल्पे] पाणी लेवो, इम न कह्यो । इम कहे तेहनों उत्तर - अम्बड नों कल्प को. ते तो श्रावक थयां पाछलो ए पाठ छै । पिण पहिलां नों नहीं । ते किम, जे इहां पाठ में इम को - कल्पे अम्बड ने काचो पाणी लेवो । ते पिण यह वह तो निर्मल छाण्यो. ते पण सावद्य पाप सहित ए कार्य छै. तथा ए पाणी जीव छै. इम कही ने लेवो कल्पे, कह्यो । ते माटे ए ओलखणा तो श्रावक थयां पछे आई छै । ते माटे 'पाप सहित ए कार्य' इम कही नें लेवे । अनें सन्यासी पणा ना कल्प में सावध अजीब कही नें लेवो. ए पाठ न थी । अनेरा सन्यासी रा विस्तार में एहवा पाठ छै । ते लिखिये छै ।
तेसिणं परिव्वायगाणं कप्पति मागहए पत्थए जलस्स पड़िगाहित्तए सेवियं वहमाणे णो चेवणं प्रवहमाणे सेविय थिमि उदए नो चेत्रणं कदमोदए सेवियं वहुपसणे नो चेवणं अवहुपसणं सेविय परिपूए यो चेवणं अपरिपूए सेवियां
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दानाऽधिकारः ।
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दिगो व दिराणे सेविय पिवित्तए गो चेवणं हत्थ पाय च चम्म पक्खालखट्टाए सिखाइतएवा ।
( उंवाई प्रश्न १२ )
ते० ते ५० सन्यासी ने क० कल्पे ( घंटे) मा० मगध देश सम्बन्धी प० पाथो एक मान विशेष सेर २ प्रमाण. ज० जलपाणी नों. पड़िगाहिबो अतिशय सूं ग्रहिवो णो० पिण ते न लेवो. ० अणवतो बावड़ी कूच्या तालाव सम्बन्धी से० ते पिण पाणी जेह नीचे कर्दम नथी. गो० पण ते न लेवो जे कर्दमोदक कादा सहित पाणी. से० ते पिण कल्पे बहु प्रसन्न अति छो निर्मल. गो० सेपि न लेवो. प्रति मैलो. से ० ते पिण परिपूत वस्त्रे करी ने गल्यो. गो० पिण तेन लेवो परिपूत वस्त्रे करी गल्यो । न हुई. से ० ते पिया निश्चय लेवो दत्त दीधो मनुष्यादिके. to पण ते न वो श्रणदीधो मनुष्यादिके. से० ते पिण पीवा निमित्त गो० नहीं. ह० हाथ पाच चमचो. प पखाला रे अथे. सि० और नहीं स्नान निमित्ते ।
अथ इहां अनेरा सन्यासी रा कल्प में एहवो पाठ करो, जे कल्पे परिव्राजकां ने मगध देश सम्बन्धिया पाथो प्रमाण पाणी लेवो । ते पण कर्दम रहित निर्मल छाप्यो. ते पिण दीधो लेवो कल्पे । पिण इम नकह्यो । ए सावद्य अ कही नें लेवे । ते अतेरा सन्यासी जीव. अजीव. सावद्य. निरवद्य. ना अजाण है | अनें अम्बड सावदध निरवद्य. जीव. अजीव. जाणे है श्रावक है। ते माटे तो सावदय जीव कहीने लेवे । अनें अनेरा सन्यासी ए सावदय अनें ए पाणी जीव छै. इम कह्यां बिना ई लेवे छै । इण न्याय अवड सन्यासी श्रावक थयां
अम्बड
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ए
पछे " कल्पे” को छै । बली तिण हीज प्रश्न में पहिलां अम्वड ने श्रावक कह्यो छै । "अंबडेणं परिब्बायए समाणे वासए अभिगय जीवाजीव : उपलद्ध पुण्ण पावा" इत्यादिक पाठ · कही नें पछे आगले कह्यो. कल्पे अम्बड नें सचित्त दहतो पाणी सावदय कही न लेवो, ते माटे श्रावक पणो आयाँ पछे अम्बड नों ए कल्प कह्यो ते सावदय कल्प छै पिण धर्म नहीं । तिम पड़िमाधारी नों ते कल्प कह्यो छेपि धर्म नहीं । भगवन्त तो जेहनों जे कल्प हुन्तो ते बतायो । प्रिण आज्ञा नहीं दीधी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३८ बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
तथा वली “वर्णनाग नतुओ" संग्रामे गयो-तिहां एहवो पाठ कह्यो छ। से लिखिये है।
कप्पड़ मे रह मुसलं संगामं संगामेमाणस्स। जे पुव्विं पहणइ से पडिहणित्तए अबसेसे णो कप्पतीति अय मेया रूवं अभिग्गहं अभि गिरिहत्ता रह मुसलं संगामं संगामेत्ति।
( भगवती श०७ उ०६)
क. कल्प मुझ नं २० २थ मुसल नामा संग्राम स० संग्राम करते छते. जे जे पूर्व हणें से ते प्रति हणवो. अ. अब शेष कहितां बीजा ने हणवो न कल्पे न घटे. अ. एतादृश रूप एहवो अ. अभिग्रह प्रतिग्रह ग्रहो ने र० रथ मुसल संग्राम प्रति करे।
अथ इहां पिण वर्ण नाग नतुओ संग्रामे गयो। तिहां एहवो अभिग्रह धास्सो, कल्पे मुझ ने जे पूर्वे हणे तेहनें हणवो। जे न हणे तेहनें न हणवो । इहां पिण शस्त्र चलावे तेहनें हणवो कल्पे कह्यो । ए “वर्ण नाग नतुओ' ने तो श्रावक कह्यो छै. एहनों ए कल्प कह्यो। पिण जिन आज्ञा नहीं। ए तो जे कल्प हुन्तो ते वतायो। तिम अम्बड ने काचो पाणी लेवो कल्पे, तीर्थङ्करे कयो। पिण जिन आज्ञा नहीं। ए तो अम्बड नो जेहवो कल्प आचार हुन्तो ते बतायो। तिम पडिमाधारी नों जेहवो कल्प आचार हुन्तो ते बतायो। पिण जिन आशा नहीं। ते पडिलाधारी ने एहयो दशा श्रुत स्कन्धः पाठ कह्यो। “केवल सेणा य पेजवंधणं अमोच्छिन्ने भवति एवं से कप्पइ णाय विहिएत्तए" इहां कह्यो जे केवल न्यातीला रो प्रण वन्धन तूटो न थी ते माटे-कल्पे पडिमाधारी ने न्यातीला रे इज धरे बहिरवो, इम कह्यो । पिण न्यातीला रे इज जाय वो इम आशा दीधी नहीं। कल्पे पहिला दाल उतरी ते लेवी, इहां आज्ञा कहे, तो त्यारे लेखे न्यातीला रे इज़ घरे बाहिरवो, इहां पिण आज्ञा कहिणी । वली कल्पे अम्बड ने काचो पाणी सावद्य कही लेवो, इहां पिण त्यांरे लेखे आशा कहिणी। वली कल्पे “वर्णनागनतुआ" ने पहिला हणे तेहनें हणवो, इहां पिण तिण रे लेख आशा कहिणी। अनें जो "वर्ण
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दानाऽधिकारः।
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माग नतुओं' नों तथा अम्बड नों जेहवो कल्प आचार हुन्तो. ते बतायो , पिण जिन आज्ञा नहीं। तो पडिमाधारी ने न्यातीला रे घरे वहिरवो कल्पे, एह पिण तेहनो जे कल्प ( आचार ) हुन्तो ते बतायो पिण आज्ञा नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३६ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली उत्तराध्ययन में कह्यो। सर्व श्रावक थकी पिण साधु चारित्र फरी प्रधान छै । इम कह्यो, ते पाठ कहे छै ।
संति एगेहिं भिक्खूहिं गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहिं सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥
( उत्तराध्ययन अ०५ गा०२०)
सं० छै. ए० एकक. भी० पर पाषंडी कापडीयादिक ना भिक्षु थी. गा० गृहस्थ नो १२ व्रत रूप सं० संयम. उ० प्रधान. गा० गृहस्थ. स. सगलाई देशवती थकी सा० साधुनों सर्बव्रती ५ महाव्रत रूप. संयम करी उ० प्रधान छ ।
अथ इहां इम कह्यो-जे एकैक भिक्षाचर अन्यतीर्थी थकी गृहस्थ श्रावक देशव्रते करी प्रधान अनें सर्व गृहस्थ थकी साधु सर्व व्रते करी प्रधान । तो जोवोनी सर्व गृहस्थ थकी पिण सर्व व्रते करी साधु ने प्रधान कह्यो। तो पडिमाधारी श्रावक साधु रे तुल्य किम आवे। सर्व गृहस्थ में तो पडिमाधारी पिण आयो । ते श्रावक पडिमाधारी पिण देशब्रती छै। ते माटे सर्व व्रती रे तुल्य न आवे । इणन्याय “समणभुए" पडिमांधारी श्रावक ने कह्यो। ते देशथकी व्रता रे लेखे उपमा दीधी छै। परं तेहनों खाणो पीणो तो ब्रत नथी। तेहनी तपस्या में. धर्म है, परं पारणा में धर्म नथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४० बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
वली केई कहै-श्रावक सामायक पोषां में बैठो छै तेहने कारण अपना और गृहस्थ साता करे, तो साधु आज्ञा न देवे परं धर्म छै। एहनें सावध रा त्याग छै। ते माटे पहनी ब्यावच कियां पाप नहीं। इम कहै तेहनो उत्तरसामायक पोषां में आगमिया काल में सावदय सेवन रो त्याग नहीं छै। आगमिया काल में सावध सेवन री इच्छा मिटी नहीं। तो जोवोनी इण शरीर थी आगमिया काल में पांच आश्रव सेवण रो आगार छै। ते भणी तेहनों शरीर शस्त्र छै। अने जे शरीर नी व्यावच करे तेणे शस्त्र तीखो कीधो जिम कोई मासताइ छुरी कटारी सूं जीवहणवारा त्याग कीधा ते छुरी तीखी करे तो पिण आगमिया काल नी अपेक्षा तिण वेलां शस्त्र तीखो कियो कहिये। तिम सामायक पोषा में इण काया सं पांच आश्रव सेवण रा त्याग परं आगमिया काल में ते काया थी ५ आश्रव सेवण रो आगार ते माटे ए शरीर शस्त्र छै। तेहनी व्यावच करण वाले छः काया रो शस्त्र तीखो कीधेो कहिये। हिवडा त्याग परं आगमिया काल नी अपेक्षा ए शरीर शस्त्र छै। वलो सामायक पोषा माहि पिण अनुमोदण रो करण खुल्यो ते न्याय शस्त्र कह्यो छै। वली कोइक मास में ६ पोषा ८ पोहरिया करे छै। अने परदेशां दूकाना छै। सैकड़ा गुमाश्ता कमाय रह्या है। तो ते वर्ष रा ७३ पोषा रो गाज लेवे कि नहीं। बहत्तर दिन में जे गुमाश्ता हजार रुपया कमावे ते सर्व नफो
वे कि नहीं। सर्व नो मालिक तो एहिज छै। ते माटे पोषा में पिण तांतो तूट्यो नथी। परिग्रह ममत्व भाव मिट्यो नहीं। ते साख भगवती श० ८ उ० ५ कही छै। ते माटे सामायक में पिण तेहनी आत्मा शस्त्र छै।
तिवारे कोई कहै सामायक में श्रावक री आत्मा शस्त्र किहां कही है। तेहनूं उत्तर सूत्र पाठ मध्ये कह्यो । ते पाठ लिस्त्रिये छै
समणो वासगस्स णं भंते ! सामाइय कडस्स समणोवरसए अस्थमाणरस तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरियाकजइ. संपराइया किरिया कजइ. गोयमा ! नो ईरिया वहिया किरिया कजइ. संपराइया किरिया कजइ. से केणट्रेणं जाव संपराया गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइय
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दानाऽधिकारः ।
कस्स समणोवस्सए अत्थमाणस्स आया अहिगरणी भवइ आयाहि गरण वत्तियं च णं तस्स नो ईरिया वहिया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कजइ सेते. ॥४॥
(भगवती श० ७ उ० १ )
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जे उपाश्रय
सः श्रमणोपासक ने भ० हे भगवन्त ! सामायक कीधे छते. स० श्रमण तेहविषे
बैठो है तर ते श्रमणोपासक ने भ० भगवन्त ? किस्यूं. इ० इरियावहिकी क्रिया हुई. अथवा संपरायकी क्रिया हुई निरूद्व कषायपणा थी ए श्राशंकाई प्रश्न हे गौतम ? गो० इरियावहिकी क्रिया न उपजे. सं० संपरायकी उपजे से० ते केह अर्थे यावत संपराय क्रिया हुई. गौतम ? स० श्रमणोपासक ने सामायक कीधे छतै स० श्रमण साधु तेहने उपाश्रय नें विषे. ० रहते छते. श्रा० श्रात्माजीव श्रा० अधिकरण ते हल शकटादिक ते कवाय मा श्राश्रय भूत है. श्र० श्रात्मा अधिकरण ने विषे वत्ते है ते माटे तेहने गो० इरियावहिकी क्रिया न उपजे. सं० संपराइ क्रिया उपजे से० ते माटे ।
अथ इहाँ पिण सामायक में श्रावक री आत्मा अधिकरण कही छै 1 अधिकरण ते छव ६ काय रो शस्त्र जाणवो । ते माटे सामायक पोषा में तेहनी काया शस्त्र छै 1 शस्त्र तीखो कियाँ धर्म नहीं । वली ठाणाङ्ग ठाणे १० अनत ने भाव शस्त्र को छै । ते सामयिक में पिण वस्त्र गेहणा पूंजणी आदिक उपकरण काया सर्व अव्रत में छै । तेहना यत्न कियाँ धर्म नहीं ।
तिबारे कोई कहै सामायक में पूंजणी राखे तेहनो धर्म छे । दया रे अ पूंजणी राखे छे । तेहनो उत्तर-ए पूंजणी आदिक सामायक में राखे ते अव्रत में है। ए तो सामायिक में शरीर नी रक्षा निमित्त पूंजणी आदिक उपधि राखे छै I ते पिग आप रो कचाई छै परं धर्म नहीं । वे किम-जे पूंजणो आदिक न राखे तो काया स्थिर राखणी पड़े। अनें काया स्थिर राखणे री शक्ति नहीं । माछरादिक ना फर्स खमणी आवे नहीं । ते माटे पूंजणी आदिक राखे । माछरादिक पूंजी खाज खणे । ए तो शरीर नी रक्षा निमित्ते पूंजे, पिण धर्म हेतु नहीं । कोई कहै दया रे अर्थे पूंजे ते मिले नहीं । जो पूंजणी बिना दया न पले, तो अढ़ाई द्वीप वारे असंख्याता तिर्यञ्च श्रावक छै । सामायकादिक व्रत पाले छै । त्यार तो पूंजणी दीसे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
नहीं। जे दया रे अर्थे पूंजणो राखणी कहै-त्यारे लेखे अढ़ाई द्वीप वारे श्रावका रे दया किम पले पिण ए पूंजणीयादिक राखे ते शरीर नी रक्षाने अर्थे छ। जे बिना पूंज्यां तो खणवारा त्याग अने माछरादिक रा फर्स खमणी न आवे तिणसू पूंजीने खणे छै। ए पंजे ते खाज खणवा सातारे अर्थे, जो पंजे इज नहीं तो दया तो घणी चोखी पले। ते किम माछरादिक उड़ावना पड़े नहीं। तेहना फर्स सह्यां कष्ट खम्यां घणी निर्जरा हुवे। परं दया तो उठे नहीं अनें एहवी शक्ति नहीं। ते माटे पूंजणी आदिक राखी खाज खर्ण छ। जिम किणही अछांण्यो पाणी पीवा रा त्याग कीधा-अने पाणी छाणे ते पीवा रे अर्थे, परं दयारे अर्थे छाणे नहीं। ते किम–बिना छांण्या तो पीवा रा त्याग अनें न छांणे तो पाणी पीणो नहीं। अपूठी दया तो चोखी पले पिण आप से पाणी पीधां बिना रहिणी न आवे। तिण सूं पीवा रे अर्थे छांणे ते धर्म नहीं। तिम सामायक में विना पूंज्यां खाज खणवारा त्याग अनें जो पूंजे नहीं तो खाज खणणी नहीं पड़े, एहवी शक्ति नहीं। तिणसू पूंजणी राखे छै । ए श्रावक रा उपधि सर्व अत्रत में छै। तिवारे कोई कहै–साधु पिण पूंजणी आदिक राखे छै। जो श्रावक ने धर्म नहीं तो साधु ने पिण धर्म नहीं। इम कहे तेहनों उत्तर–ए साधु पिण शरीर ने अर्थे राखे छै। ए तो वात सत्य छै पिण साधु रो शरीर छव ६ काय रो पीहर छै पिण शस्त्र नहीं ते माटे साधु रा उपधि अनें शरीर पिण धर्म में हेतु छै। ते माटे साधु उपधि राखे ते धर्म छै । अनें श्रावक रो शरीर छव ६ काय रो शस्त्र छै । ते माटे तेहना उपकरण पिण शरीर में अर्थ छै। ते भणी गृहस्थ उपकरण राखे ते सावध व्यापार छै। अनें साधु उपकरण राखे ते निरवद्य भला व्यापार छै । डाहा हुवे तो विचारि ज्ञोइज़ो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे ए श्रावक उपकरण राखे ते भला नहीं। अने साधु राखे ते भला व्यापार किहां कह्या छै ! तेहनो ऊत्तर । मूत्र करो कहिये छै।
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दादाऽधिकारः।
चउबिहे पणिहाणे ५० त० मण पणिहाणे वय पणिहारणे. काय पणिहाणे. उवगरण पणिहाणे. एवं नेरइयाणं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं। चउविहे सुप्पणिहाणे. प० तं० मणसुप्पणिहाणे. जाव उवगरण सुप्पणिहाणे. एवं संजय मणुस्साणवि। चउबिहे दुप्पणिहाणे. ५० तं० मणदुप्पणिहाणे जाव उवगरण एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाण.
( ठाणाङ्ग ठा० उ०१)
च० चारि प्रकारे. ५० व्यापार. पं० परूप्या. तं ते कहे छै. म. मन प्रणिधान व्यापार प्रार्त्त आदि चार ध्यान. बचन प्रणिधान. का० काय. प० व्यापार. उ० उपकरण. प्रणिधान ते लौकिक लोकोत्तर रूप उपकरण वस्त्र पात्रादिक. तेहनूं संयमन ने काजे असंयम में काजे प्रवर्तीवियो–ते उपकरण प्रणिधान. ए० इम. णे नारकी ने. पं० पंवेन्द्रिय नें जा० जावत. वैमानिक लगे एकेन्द्रियादिक वा. तेहनें मनादिक नथो तो प्रणिधान किहां थी॥ हिये प्रणिधान विशेष कहे छै. च० चार प्रकारे. सु० रूडो जे संयमार्थ पणा थकी मनादिक नो व्यापार ते सुप्रणिधान परूप्यो। म मन सुप्रणिधान. जा० जावत. उ० उपकरण सुप्रणिधान. ए. इम. मनुष्य ना दंडक मांही एक संयती मनुष्य में चारित्र परिणाम है. ते माटे ये चार प्रणिधान संयती ने इज हुई॥ च० चार प्रकारे. दुः असंयम ने अर्थे. मनादिक्र. नो व्यापार ते दुष्प्रणिधान. पं० परूप्यो. २० ते कहे है. म. मनदुःप्रणिधान. व० वचन दुःप्रणिधान. क. काया दुःप्रणिधान. जा० यावत. उ० उपकरण. दु० दुःणिधान. ए. इम. पं० ए पंचेन्द्रिय ने हुई. जा यावत. वे० वैमानिक लगे।
अथ इहां चार व्यापार कह्या। मन १ वचन २ काया ३ उपकरण ४ ए चारू व्यापार सन्नि पंचेन्द्रिय रे कह्या । ए चारू मुंडा व्यापार पिण १६ दंडक सन्नी पंचेन्द्रियरे कह्या। अनें ये चारू भला व्यापार तो एक संयती मनुष्यां रे इज कह्या । पिण और रे न कह्या । तो जोवोनी साधु रा उपकरण तो भला व्यापार में घाल्या अनें श्रावकरा पूंजणी आदिक उपकरण भला व्यापार में न वाल्या। ते माटे पूंजणी आदिक श्रावक राखे ते सावद्य योग छै। अनें साधु राखे ते भला निरखद्य व्यापार छै। श्रावकरा उपकरण तो अत्रत मांहि छै। परिग्रह माहे छ ।
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भ्रम विध्वंसनम्
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ते माटे भला व्यापार नहीं। तथा निशीथ उ० १५ गृहस्थ ने रजोहरण पूजणी आदिक दियां देतांने भलो जाण्या चौमासी प्रायश्चित कह्यो छै। पंजणी देतां ने भलो जाण्या ही प्रायधित आवे तो गृहस्थ माहोमाही पूंजणी आदिक देवे त्यांने धर्म किम कहिये।
कोई कहे साधु गृहस्थ में सामायक पालणी सिखावे-परं पलाये नहीं पलायारी आज्ञा देवे नहीं तो पालणी किम सिखावे। तत्रोत्तरम्-एक मुहूर्त नी सामायक कीधी । अनें एक मुहूर्त वीतां पछे सामायक तो पल गई. ए तो आलो. वणा री पाटी छै। ते आलोवणा करण री आशा छै। धर्म छै। ते भणी आलो. वण री पाटी सिखावै छै ते आज्ञा बाहिरे नहीं। अनें साधु पलावे नहीं ते उठवा रो ठिकाणो जाण ने पलावे नहीं। जिम किण ही पौरसी कीधी ते जीमण रे अर्थे साधु ने पूछे। साधु पौहर दिन आयो जाणे तो पिण बतावे नहीं। तिम उठण रो ठिकाणी जाण ने पलावे नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४२ बोल सम्पूर्ण।
इति दानाऽधिकारः समाप्तः।
PHPANA
पर
WARA
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अथ अनुकम्पाऽधिकारः।
केतला एक अज्ञानी इम कहे। एक तो जीवहणे १ एक न हणे २ एक जीव बचावे ३९ जीव बचावे ते न हणे तिण में आयो। एहवो कुहेतु लगावी ने असंयती जीवारो जीवणो वाञ्छ्यां धर्म:कहे छै। तेहनो उत्तर–एक तो जीव हणे १ एक न हणे २ एक जीव छुडावे ३ ए तीन न्यारा २ छै। दोयां में मिले नहीं ते ऊपर दूजो दृष्टान्त देई ओलखावे छ। जिम एक तो झूठ बोले १ एक झंठ न बोले २ एक सांच बोले ३ ए पिण तीन न्यारा छै। अनें कूठ बोले ते तो अशुद्ध छै १ झूठ बोले नहीं ते शुद्ध छै २ अनें सांच बोले ते शुद्ध अशुद्ध वेहू छै ३ । जे सावद्य सांच बोले ते तो अशुद्ध अनें निरवद्य साच बोले ते शुद्ध छै। इम साच बोले ते तीजो न्यारो छै। तिम जीव हणे ते तो अशुद्ध छै १ न हणे ते शुद्ध छै २ अनें छोडावे तेहनो न्याय-जे जीव हणता ने उपदेश देई में हिंसा छोडावे ते तो शुद्ध छै। अने जोरावरी तूं तथा गर्थ (धन) देइ तथा जीवरो जीवणो वांछी छोडावे ते अशुद्ध छ। इम तीन न्यारा २ छै। जद अगलो कहे इम नहीं ए तो एम छै। एक झूठ बोले १ एक झूठ न बोले २ एक झूठ बोलता ने वर्जे ३ ए ३ दोयाँ में घालो। तिम जीवरा पिण ती बोल दोयां में घालणा। तेहनो उत्तर-एक तो झूठ बोले ते सावध असत्य वचन योग छै १। एक झूठ बोलवारा त्याग कीधा ते संबर छै २। एक भूठ बोलता ने वर्जे उपदेश देवे समझावे ते पचन रो शुभ योग छै निर्जरा री करणी छै इम तीनूं न्यारा २ छ। तिम एक तो जीव हणे ते हिंसक १ एक हणवारा त्याग कीधा ते हणे नहीं ए संवर २ तीजो जीव हणतां ने उपदेश देई ने समभावे. हिंसा छोडावे ३ जिम उपदेश देइ झूठ छोडावे, तिम उपदेश देइ हिंसा छुडावे। ए वचन रो शुभ योग निर्जरा री करणी छै। ए तीनूं न्यारा २ छै। जद आगलो कहे इम नहीं। एक तो जीव हणे १ एक जीव न हणे २ एक जीव रो जीवणो वांछी ने जोव ने छोडायो ३ । ए.किण में आयो तेहनों उत्तर--एक तो चोरी
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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करे १ एक चोरी न करे २ एक ते धणी रो धन राखवा ने चोरी करता नी चोरी छोडावे ३ जिम गृहस्थ रोधन राखवा चोरी छुड़ावे ए तीजो न्यारो छै । तिम जीव नो जीवणों वांछी जीव छुडावे ते पिण तोजो न्यारो। चोरी छुडावे ए पिण तीजो न्यारो छ। जिम चोर ने तरिवा उपदेश देइ हिंसा छोडावे ते पिण शुद्ध छै। धन राखवारो कर्त्तव्य साधु न करे। धन राखया ने अर्थे चोर ने साधु उपदेश देवे नहीं । तिम असंयती नो जीवणो वांछी ने तेहना जीवितव्य में अर्थे साधु उपदेश देवे नहीं। हिंसक अने चोर में तरिवा भणी उपदेश देवे। परं धन राखवा ने अर्थे अने असंयम जीवितव्य में अर्थे उपदेश देवे नहीं। श्री तीर्थङ्कर देव पिण पोताना कर्म खपावा तथा अनेरा ने तारिवा में अर्थे उपदेश देवे इम का छै। पिण जीव घचावा उपदेश देवे इम कह्यो नहीं। ते पाठ प्रते लिखिये छ।
नो काम किच्चा नय बाल किच्चा
रायाभिओगेण कुतो भएणं । वियागरेजा पसिणं नवावि
सकाम किच्च णिह आरिया ॥ १७ ॥ गन्ता क्तत्या अदुवा अगंता
वियागरेजा समिया सुपरणे । अण्णारिया दंसणतो परित्ता
इति संकमाणे न उवे तितत्था ॥ १८॥
(सूयगडाङ्ग श्र०२ अ६ गा०१७-१८)
नो० अकाम कृन्य नथी एजले कुण अर्थे जे अण दिमास्यां काम नों करणहार हुवे तो आपण नें तथा पर ने निरर्थक कार्य करे. परं श्री भगवन्त सर्बज्ञ सर्वदर्शी परहित नों करणहार. आपण नें पर ने निरुपकारी किम थाय. ते भणी स्वामी निरर्थक काम नूं करणहार नथी. न० तथा स्वामी बाल कृत्य नथो. बाल नो परे अण विमास्यो काम न करे. तथा रा० राजा में. अ० अभियोगे करी धर्म देशनादिक ने विषे प्रवर्ते नहीं. कु० कुणहीना. भ० भयथकी विवागरे नहीं. प. प्रश्ने किंबहुना उपकार बिना किमाही में कोई न कहै. अनुत्तर विमान
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अनुकम्पाऽधिकारः ।
१२१
ari देवता रे मनही सूं पूछी निर्णय करे. अथवा जे कोई इम कहे वीतराग धर्मकथा स्यां काजे करे छे. इसी आशंका आणी चौथे पदे कहे है । स० पोताना काम काजे एतावता तीर्थकर नाम कर्म खपावा ने काजे. इहां आर्य क्षेत्र आर्य लोक मा प्रतिबोधवा भणी धर्म देश मा करे परं अनेरो कार्य श्रात्म प्रशंसादिक करे नथी. ॥ १७ ॥
परहित काजे जई ने तिम २ वि० धर्म देश
वली आई मुनि कहे है. ग० ते भगवन्त किम्बहुना जिम २ भव्य जीव ने उपकार थाइ तो जानें पिया धर्म कहे. अ० अथवा उपकार न देखे तो तिहां इण कारण तेहनें राग द्वेष नी संभावना नथी । सम्यग्दृष्टि पणे चक्रवर्त्ती पूछि थके धर्म कहे. शीघ्र प्रज्ञावन्त एतले सर्बज्ञ तथा जे तेहनू कारण सांभली अ० अनार्य. दं० दर्शन थकी पिख. उं० भ्रष्ट शंक मानता थकां त० तिहां. ० न जाय जिण कारण ते जीव मादिके कर्म उपार्जी आपण पे अनन्त संसार करिये इस्यूं जाणो द्वेष भय को नी ॥ १८ ॥
अथवा तिहां०: अ ना वागरे जे उपकार व्यां नें पिण न कहे. अथवा रंक ने पूछिउ अनार्य देश न जाय स्वामी इति० इस कारण सं० वीतराग ने देखी अवहेतिहां न जाय. परं राग
।
तथा महणो २ कहो छी ।
तरे असंयम जीवितव्य वधे
अथ अठे को-पोता ना कर्म खपावा तथा आर्य क्षेत्र ना मनुष्य नं तारिया भगवान् धर्म कहे, इम कह्यो पिण इम न कह्यो जे जीव बचावा नें अर्थ धर्म कहे. इण न्याय असंयती जीवां रो जीवणो बांछयां धर्म नहीं । तिवारे कोई 1 कहे असंयती जीवां रो जीवणी बांछगो नहीं। तो ये जीव हणवा रा सूंस करावो तें जो हमें नहीं, तिवारे असंयम जीवितव्य बधे छे तथा जीव हणता ने उपदेश देई हिंसा छोड़ावो छो । छै । तेहनो उत्तर - साधु जीव हणता ने उपदेश देवे ते तो तिणरो पाप टालवाने असंयती से संयती करवा ने. पिण असंयती नें जिंवावण ने उपदेश न देवे । जिम कोई कसाई पांचसौ २ पंचेन्द्रिय जीव नित्य हणे छै, ते कसाई ने कोई मारतो हुने तो तिण नें साधु उपदेश देवे । ते तिण ने तारिवा ने अर्थ, पिण कसाई में जीवतो राखण नें उपदेश न देवे । ए कसाई जीवतो रहे तो आछो. इम कसाई नों जीवणो वांछणो नहीं । केई पंचेन्द्रिय हणे. केई एकेन्द्रियादिक हणे छै । ते माटे असंयती जीव ते हिंसक छै । हिंसक नों जीवणो वांछ्यां धर्म किम हुवें । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
१६
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भ्रम विध्वंसनम् ।
केतला एक अजाण जीव इम कहे-असंयती जीवांरो जीवणो वांछयां धर्म छै। ते कहे-असंयती जीवारा जीवण रे अर्थे उपदेश देणो । ते सूत्र ना अजाण छै। अनें साधु तो असंयम जीवितव्य जीवे नहीं. जीवावे नहीं. जी वता में भलो पिण जाणे नहीं। तो असंवा जोचितव्य वाछयां धर्म किहाँ थकी । ठाम २ सूत्र में असंयम जीवितव्य अनें बाल मरण वांछणो बर्यो छै। ते संक्षेपे सूब साखरी कहे छै। ठाणाङ ठाणे १० दश वांछा करणी बजीं। तिहां कह्यो जीवगो मरणा वांछणो नहीं। ए पिण असंयम जीवितव्य अनें बाल मरण आश्री बज्यो छै। (१) तथा सूयगडाङ्ग अ० १० गा० २४ जोवणो मरणो वांछणो नहीं । ए पिण जीवणो ते असंयम जीवितव्य आश्री कह्यो। (२) तथा सूयगडाङ्ग अ० १३ का० २३ में पिण जीवणो मरणो वांछणो वर्यो । ए पिण असंयम जीवितव्य आश्री
ज्यों छै। (३) तथा सूयगडाङ्ग अ० १५ गा० १० में कह्यो असंयम जीवितव्य ने अमाद देतो विनर । (४) तथा सूयगडाङ्ग अ० ३ उ० ४ गा० १५ में पिण कहो सीको मरणो घांछणो नहीं। एपिण असंयम जीवितव्य बाल मरण बर्यो । (५) तथा सूयगडाङ्ग अ०५ उ० १ गा० ३ में पिण असंयम ना अथों में बाल अज्ञानी पाया। (६) तथा सूयगडाङ्ग अ० १० गा० ३ में पिण असंयम जीवितव्य बांछणो वयो। (७) तथा सूयगडाङ्ग .अ० २ उ० २ गा० १६ में कह्यो। उपसर्ग उपमा कष्ट सहि गो। पिण असंयम जीवितव्य न वांछगो। (८) तथा उत्तराध्ययन अ० ४ गा. 9 में कह्यो। जीवितव्य वधारवा ने आहार करवो। ए. संयम जीवितव्य आश्री कहो। (६) तथा सूयगडाङ्ग अ० २ उ०१ गा० १ में कह्यो। संयम जोवि. तव्य दोहिलो (दुर्लभ) छै। पिण असंयम जीवितव्य दोहिलो न थी कह्यो। (१०) तथा आवश्यक सूत्र में "नमोत्थुषं" में कह्यो “जोवदयाणं" जीवितव्य ना दातार ते संयम जीवितव्य ना दातार आश्री कह्या। (११) तथा सूयगडाङ्ग अ० २ उ० १ मा० १८ में जोवण वांछणो वज्यों। ते पिण असंयम जोवितव्य वो छै। (१२) तथा सूयगडाङ्ग श्रु २. अ०५ गा० ३० में कह्यो। सिंह वाघादिक हिंसक जोव देखी में मार तथा मत मार कहिणो नहीं। इहां पिण तेहना जीवण रे अर्थे मत मार कहिणो नहीं। (१३) तथा दशवैकालिक अ०७ गा० ५० में कह्यो देव मनुष्य लिया माहोमाही विग्रह करे ते देखी में तेहमी हार जीत वांछणो नहीं । (१४) तथा का कालिक अ०७ गा० ५१ में बायरो १ वर्षा २ शीत ३ ताबड़ो ४ कलह ५
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अनुकम्पाऽधिकारः।
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सुकाल ६ उपद्रव रहित पणो ७ ए सात बोल वांछणा बा । (१) प्रथा आचा. राङ्ग श्रु० २ ० २ उ १ गृहस्थ माहोमाहि लड़े त्यांने मार तथा मतमार इम वांछणो वो ते पिण राग द्वेष आश्री बज्यों छै । (१६) तथा आचारांग श्रु. २ अ० २ उ० १ कह्यो गृहस्थ तेउकाय रो प्रारम्भ करे, तिहां अग्नि प्रज्वाल तथा मत प्रज्वाल इम वांछणो नहीं। इहां अग्नि मत प्रज्वाल इम पांछणो वौँ ते पिण जीवण रे अर्थ घांछणो वो छ । (१७) तथा सूयगडाङ्ग श्रु० २ अ० ६ गा० १७ आर्द्रकुमार कयो भगवान् उपदेश देवे ते अनेरा ने तारिवा तथा आपरा फर्म खपाया उपदेश देवे पिण असंयती रे जीवण रे अर्थे उपदेश देणो न कह्यो। (१८) तथा उत्तराध्ययन १० ६ गा० १२ १३ १४ १५ मिथिला नगरी वलती जाण ने नमि ऋषि साहमोइ जोयो नहीं, तो जीवणो किा वांछनो । (१६) तथा उत्तराध्ययन अ० २१ गा० ६ समुद्रपाल चोर ने मारतो देखी ने गर्थ देई छोडायो नहीं। (२०) तथा बलो निशीथ उ० १३ गृहस्थ मार्ग भूला ने रस्तो वतावे तो चौमासी प्रायश्चित्त फह्यो । (२१) तथा निशीथ उ० १३ गृहस्थ नी रक्षा निमित्त मंत्रादिक भूति कर्म करे तो चौमासी प्रायश्चित कह्यो। (२२) तथा निशीथ उ० ११ पर जीव में डरावे इरा. पता ने अनुमोदे तो चौमासी प्रायश्चित्त कह्यो । (२३) तथा ठाणाङ्ग ठाणे ३ उ० ३ हिंसा करता देखी ने धर्म उपदेश देइ समझावणो तथा मौन राखणी। तथा उठिने एकान्त जाणो ए ३ बोल कह्या. परं जोरावरी तूं छोड़ावणो कह्यो नहीं। (२४) तथा भगवती श० ७ उ०१० अग्नि लगायां घणो आरम्भ घणो आध्रव कह्यो अने बुझायां थोड़ो आरम्भ थोड़ो आश्रव कह्यो पिण धर्म न कह्यो । (२५) तथा भगवती श० १६ उ०३ साधुरी अर्श ( मस्सा ) छेदे ते वैद्य में क्रिया कही पिण धर्म न कयो। (२६) तथा निशीथ ७० १२ में बोल १-२ त्रस जीवनी अनुकम्पा आण ने बांधे बांधता में अनुमोदे । छोटे छोड़ता ने अनुमोदे तो चौमासी प्रायश्चित्त कह्यो। (२७) तथा आचारांङ्ग श्रु० २ ० ३ उ० १ नावा में पाणी आवतो देखी घणा लोकां ने पाणी में डूबता में देखी में साधु ने ते छिद्र गृहस्थ ने बतावणो नहीं। इम प्रह्यो। (२८ : इत्यादिक पणे ठामे असंयती रो जीवणो धांछणो बयों छै। अनं
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भ्रम विध्वंसनम्।
अनन्ती वार असंयम जीवितव्य जीव्यो अनन्ती वार बाल मरण मुओ पिण गर्ज सरी नहीं ते भणी असंयम जीवितव्य वांछ्यां धर्म नहीं। ज्ञान, दर्शन. चरित्र. तप. ए चारू मुक्ति रा मार्ग आदरे. तथा आदरावे, ते तिरणो वांछ्यां धर्म छै। डाहा हुचे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक कहे असंयती रो जीवणो बांछयां धर्म नहीं तो नेमिनाथ जी जीवां रो हित बंछ्यो-इम कह्यो त्यां जीयां रे मुक्ति रो हित थयो नहीं ।
ते माटे जीवां रो जीवणो बांछयो ये जीवा रो हित छै। इम कहे। वली "साणुकोसे जिएहि उ' ए पाठ रो ऊधो अर्थ करी जीवां रो हित थापे छै । (साणुकोस-कहितां अनुकंपा सहित, जिएहिउ-कहितां जीवां रो हित बाँच्यो) ते जीवां रो जीवणो बंड्यो इम कहे ते झूठ रा बोलणहार छै। ए तो बिपरीत मर्थ करे छै। त्यां जीवां रे जीवण रे अर्थे तो नेमिनाथजी पाछा फिसा नहीं । ए जो जीवांरी अनुकम्पा कही तेहनो न्याय इम छै। जे माहरा व्याह रे बास्ते या जीवां ने हणे तो मोनें तो ए कार्य करवो नहीं । इम विचारि पाछा फिरखा। ए तो अनुकम्पा निरवद्य छै। अने जीवां रो हित बांछयो सूत्र रो नाम लेइ कहै ते सिद्धान्त रा अजाण छै । तिहां तो इम कह्यो छै ते पाठ लिखिये छै ।
सोऊण तस्स वयणं बहुपाणि विणासणं । चिंतेइ से महापन्नो साणुकोसो जिएहि उ॥१८॥
। उत्तराध्ययन अ०२२ गा० १८)
सो० सांउली ने त० तं सारथी नों. श्री नेमिनाथ बचन. ब० घणा. पा. प्राणी जीव नों वि विनाशकारी बचन सांभली में. चि० चिन्तो. से० ते. म० महा प्रज्ञावन्त. सार या सहित. जि. जीवां न विष. हपूर्ण
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अनुकम्पाऽधिकारः।
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अथ अठे तो इम कहो-सारथी रा बवन सांभली ने घणा प्राणी रो विनाश जाणी में ते महा प्रज्ञावान् नेमिनाथ चिंतवे। "साणु क्कोस" .कहितां करुणासहित "जिएहि' कहितां जोवां में विषे “उ” कहितां पाद पूर्ण अर्थे-इम अर्थ छै । "साणुकोसे जिएहिउ" ए पद नो अर्थ उत्तराध्ययन री अवचूरो में कियो। ते लिखिये छै। “स भगवान् सानुक्रोशः सकरुणः उः पूर्णे' एडवो अर्थ अवचूरी में कियो। तथा पाई टीका में तथा विनयहंसगणि कृत लघु दीपिका में पिण इमज कियो ते शुद्ध छै। अनें केतला एक टब्बामें कह्यो “सकल जीवां ना हितकारी" तेहमों न्याय-इम प्रथम तो अवचूरी, पाई टीका उक्त दीपिका. में अर्थ नथी। ते माटे ए दव्यो टोका नों नथी। तथा सकल जीवां ना हितकारी कहिवे. ते सर्ब जोवां में न हणवा रा परिणाम ते वैर भाव नथी, न हणवा रा भाव तेहिन हित छै। पिण जीवणो बांछे ते हित नथी। प्रश्नव्याकरण प्रथम संघर द्वारे कह्यो। “सब्ब जग वच्छलयाए" इहां कह्यो सर्व जग ना “वच्छल” कहिये हित. कारी तीर्थङ्कर । इहाँ सर्व जीवां में एकेन्द्रियादिक तथा नाहर चीता बघेरा सर्प आदि देइ सकल जीवां में सुपात्र कुपात्र सर्व आया। ते सर्व जीवां ना हितकारी कह्या। ते सर्व जीव न हणवा रा परिणाम तेहीज हित जाणवो। तथा उत्तरा. ध्ययन अ० ८ में कह्यो "हिय निस्सेसाय सव्व जीवाणं तेस्सिं च मोक्खणठाए" इहाँ कह्यो “हिय निस्सेसाय" कहिये मोक्ष में अर्थ सर्व जीव ने एहवो कह्यो। ते भाव हित मोक्ष जाणवो। अनें चोरों ने कर्मा सूं मुकावण अर्थे कपिल मुनि उपदेश दियो। तथा उत्तराध्ययन अ० १३ में चित्त मुनि ब्रह्मदत्त में हित ना गवेषी थकां उपदेश दियो। इहां पिण भाव हित जाणवो। तथा उत्तराध्ययन अ० ८ गा०५ "हिय निस्सेसाय बुड्ढि बुच्चत्थे' जे काम भोग में खूता तेहनी बुद्धिहित अनें मोक्ष थी विपरीत कही। इहां पिण भाव हित मोक्ष मार्ग रूप तेहथी विपरीत बुद्धि जाणवी । तथा उत्तराध्ययन अ०६ गा० २ “मित्तिभुएसुकप्पई” मित्र पणो सर्व प्राणी में विषे करे। इहां एकेन्द्रियादिक जीव ने न हणे तेहीज मिल पणो । तिम "जिएहि उ" रो टया में अर्थ हित करे तेहनी ताण करे। तेहनो उत्तर--- सर्व जीव में नहि हणवा रा भाव कोई सूं बैर बांधवा रा भाव नहीं. तेहीज हित जाणवो। अने अवचूरी तथा पाई टीका में तथा उत्तर दीपिका में हित नों अर्थ कियो नथी। “साणुकोसे जिएहिउ" साणुकोसे कहितां करुणासहित “जिएहि"
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भ्रम विध्वंसनम् ।
seai जीवों में विदे. "उ" कविता पाद पूरणे पहवो अर्थ कियो है। “जिएहि उ”
I
ear, for "faiय पहवो पाठ न कहो | टाम २ "हिय" पाठ नो अर्थ हित हुवे है। तथा उत्तराध्ययन अ० १ गा० ६ को । “इच्छतो हिय मप्पणी " वांछतो हित अपणी आत्मा नो इहां पिए हिय कहो । पिण हिउ न कह्यो । उत्तराध्ययन अ० १ ० २८ “हियं तं मण्ण पण्णो" इहां पिण गुरु नी सीख विनीत हितकारी मानें। तिहां "हिय" पाठ कह्यो, पिण “हिउ" न कह्यो । तथा उत्तरा ध्यपन (अ० १ ० २६ "हियं विगय भया बुद्धा" सीख हित नी कारण कही तिहां "हिय" पाठ को । पिण "हिउ" न कह्यो । तथा उत्तराध्ययम अ० ८ गा० ३ " हिय निस्सेस सब्वजीवाणं" इहां पिण "हिय' कह्यो । पिण " हिउ" न कह्यो । तथा तिणहिज अध्ययन गा० ५ "हियनिस्सेसय बुद्धि बुच्चत्थे" इहां पिण "हिय" कह्यो पिण "हिउ" न कह्यो तथा भगवती शतक १५ में कह्यो । चौथो शिखर फोड़ता तिणे वाणिये वर्ज्यो । तिहां पिण "हियकामए" पाठ छै । तिहां "हिय" कह्यो । पिण "हिउ" न कह्यो । तथा भगवती श० ३ उ० १ तीजा देवलोक ना इन्द्र ने अधिकारे "हिय कामए सुहकामऐ" कह्यो 1 तिहां "हिय" पाठ छै. पिण “हिउ" पाठ नथी । तथा उत्तराध्ययन अ० १३ गा० १५ में "धम्मस्तिओ तस्त हियाणुपेहो चित्तो इमं वयण मुद्दाहरित्था" इहां पिण "हिय" पाठ को पिग "हिउ" पाठ न कह्यो । तथा उत्तराध्ययन अ० २ गा० १३ “एगया अवेलए होइ सत्रेले आविएगया एवं धम्मं हियं णच्या नाणी नो परि देवए" इहां पण "हिय" पाठ को । पिग “हिउ" पाठ न कह्यो । इत्यादिक अनेक ठामे हि नो अर्थ हित कियो छै । अनें नेमिनाथ ने अधिकारे हिय पाठ नथी । यकार नथी--" हिउ" पाठ है। "जिएहि इहां हि वर्ण छै । ते तो विभक्ति ने अर्थे मागधी वाणो मारे "जिरहि" पाठनों अर्थ टोका में "जीवेषु" कह्यो । "उ" शब्द नों अर्थ "पूर्णे" कियो छै । ते जाणवो अनें नेमिनाथ जीवां रो जीवणो न बांछ्यो । आप रो तिरणो वांछतां आगली गाथा में पहवो कह्यो । ते लिखिये छै ।
१२६
जइ मज्झ कारण ए ए नमे एयं तु निस्से
.
हम्मंति सु बहुजिया ।
पर लोगे भविस्स ॥ १६ ॥
उत्तराध्ययम अ० २२ ० १६ ।
(
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अनुकम्पाऽधिकारः।
ज० जो. म. माहरे. का० काज. ए. ए. ह. हणसी. सु० अति. घ० घणा. जि. जीव. म० नहीं. मे० मुझ ने. ए० जीवघात. नि० कल्याण ( भलो) प० परलोक में विषे. भ० होसी.
___ अथ इहां तो पाधरो कह्यो-जे म्हारे कारण यां जीवा में हणे तो ए कारण ज मोने परलोक में कल्याणकारी भलो नहीं। इस विचारि पाल किला । पिण जीवा ने छुड़ावा चाल्यो नहीं। हाहा हुवे तो विद्यारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
पली मेघकुमार रे जीव हाथी रे भवे एक सुसला री अनुकम्पा फरी परीत संसार कियो । अने केइ कहै मंडला में घणा जीव वच्या त्यां घणा प्राणी री मनुकम्पा करी परीत संसार कियो कहे. ते सूत्रार्थ ना अजाण छै। एक सुसलारी दया थी परीत संसार कियो छै। ते पाठ लिखिये छ ।
तएणं तुमं मेहा ! गायं कडुइत्ता पुणरवि पायं पडिक्स मिस्सामि तिकटु तं ससयं अणुपविष्टुं पासति पाणाणु कंपयाए भुयाणु कंपयाए जीवानु कंपयाए सत्तानु कंपयाए से पाए अंतरा चेव संधारिये. णो चेव णं णिक्खित्ते.
ज्ञाता अ०१।
स० तिवारे. तु० हूं. गा० गात्र ने विषे खाज करी ने. पु० वली. पा० हेठे पग मूकू सि० एह विचारी में त० तिहां ठिकाणे पगरे हेठे एक सुसलो ते पगरी खाली जगा दीठी पाय बैठो. ते पा० प्राणी नी दया ई करी. भूत नी दया ई करी. जीव नी दया इ करी. स० सत्व नी दया ईकरी से० ते ( हाथी ) पा. पग. अं० विचाले. चे० निश्चय करी. सं० राख्यो. णो० नहीं. चे० निश्चय. ऊपर पग. णि मूक्यो.
___ अथ इहां सुसला ने इज प्राण. भूत. जीव. सत्व. कह्यो। विण और जीवां आश्री न कह्यो। प्राण धरवा थी ते सुसाला में प्राणी कहीजे । सुसला पणे
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१२८
भ्रम विध्वंसनम् ।
भूत
कहोजे | आयुषा
थयो ते भणी नेवले जीवे ते भणी जीव कहीजे! शुभाशुभ कर्मा विषे सक्त अथवा शक्त ( समर्थ ) ते भणी सत्व कहीजे इम सुसला नें are ना कर वोलायो छै । ते माटे एकार्थ छै, ज्ञाता नी वृत्ति में पिण चार शब्द में एकार्थ का छै । ते टीका कहे छै ।
पारणानुकंपयेत्यादि “पद चतुष्टय मेकार्थे दयाप्रकर्ष प्रतिपादनार्थम् "
एहनो अर्थ-ए पद चार छै. ते एकार्थ छै । जुया २ चार शब्द कह्या ते विशेष दया ने अर्थ कहाा छै । इम टीका में पिण ए चार शब्द नों अर्थ एकज कियों छै । ते माटे एक सुसला नें प्राणी. भूत. जीव. सत्व. ए चार शब्दे करी बोलायो है । जिम भगवती श० २३०१ मडाइ निर्ग्रन्थ प्राशुक भोजी नें ६ नामे करी - बोलाव्यो कह्यो ते पाठ लिखिये छे ।
माई भंते नियंठे नो निरुद्ध भवे, नो निरुद्ध भव पवंचे. णो पहीण संसारे णो पहीण संसार वेय णिज्जे नो वाच्छिण संसारे णो वोच्छिण संसार वेय णिज्जे गो निय या निट्टि यहकर णिज्जे पुणरवि इच्छंतं हव्व मागच्छइ. हंता गोयमा ! मडाई गं नियंठे जाव पुरवि इच्छतं हव्व मागच्छइ. से भंते! कि वत्तध्वंसिय. गोयमा ! पाति वत्तव्वंसिया. भूतेति वृत्तव्वंसिया. जीवेति वत्तत्र्वंसिया सत्तेति वत्तव्वंसिया विन्नुयत्ति वत्तव्वंसिया. वेदेति वतव्वंसिया पागे भूये जीवे सत्ते विरागवेदेति वत्तव्वंसिया से केाणं पाणेति वत्तव्वंसिया जाव वेदेति वक्तव्वंसिया. जह्मा आणमंति वा पाणमंतिवा उस्ससंतिवा freeifaai aai पाणेति वत्तवंसिया जह्मा भूए भवइ भविस्सइ तम्हा भूष ति वक्तव्वं सिया जम्हा जीवे जीवइ
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अनुकंपाऽधिकारः।
१२६ जीवत्तं आउयं च कसं उवजीवइ तला जीवेति बत्तव्बंसिया जमा सत्तेलुहा सुहेहिं कहिं तन्हा सत्तेजि बनवंसिया जय तित्त कटू कलाय अमित महरे रसे जालाइ तम्हा विष्णु तत्ति वत्तव्वंसिया वेदेय सुह दुक्खं तम्हा वेदेति वत्तव्वंसिया, से लेण जाव पाखेति वत्तासिया, जाव वेदेति वत्तव्वंसिया ॥३॥
{ भगवती श०२ उ०१
म० प्राशुक भोजी. भ. हे भगवन् ! नो० नथी. रू'ध्यो, आगलो जन्म जेणे. णो० नथी रूंध्यो नत्र नों प्रबन्य जेणे. भवविस्तार. लोनथी प्रक्षीण संसार जेहनों. गो. नथी प्रक्षीण संसार नो वेदनीय जेहनें. णो० नधी तूव्यो गति गमनबंध जेहलें. गो. नयी विच्छेद पागी संसार घेदनोय कर्म जेहनें. हो नधी कार्यकाम संसार ना नीता. णो नथी नीलो करणीय कार्य जेहनें. पु० चलो तिव नरदेव नारको लक्षण भव करतो मनुष्य भर पामें मनुष्य पण वली पामें. हां. गो० गोतम म. प्राणुक भोजो निर्ग्रन्थ. जा. यावतू वली मनुष्यादिक पण पामे से ते निर्ग्रन्थ ने भगवन्त ! किं-स्यूं कहो ने बोलाबीये हे गोतम ? पा० प्राण कही में बोलावीये. भू० भूत इम कही ने बोलावोगे. जो जीव कही में बोलावीये. स. सच कही में बोलावीये. वि० विज्ञ इम कही ने बोलावीये. वे येद म कही ने बोलावीये प्राण. भूत. जीव. सत्य विज्ञ. वेद इम कही ने 'बोलाबीए। से० ते. के. किणा आर्थे भगवन्त ! पा० प्राण इम कही ने दोलाविये. जा० यावत. विज्ञ-वेद इम कहो ने बोलाविये. हे गोतम. ! ज० जे भणी प्रानमन्त पा प्राणमन्त छै. 'उ० उश्वास छै. णो० निश्वास छै. त० ते भणी प्राण इम कहिये. ज० को भगली. भु. हुयो हुई हुस्यै. तं० ते भणी भूत इम कहिये. ज० जे भणो जीव प्राण धरे है तथा जीव.व लकण. अने श्रायु कर्म प्रति अनुभवे छै. से माटे जीव कहिये. ज० जे भणी सक्त ते घासक अथवा शक्त समर्थ श्रुत चेष्टा ने विषे अथवा संक्त संबद्ध शुभाशुभ कर्म करो में ते सखो सका । ज० जे माटे तिक्त कट कषायलू. श्रा० आदिल खाटा महर इस प्रति जाणे त भयो विज्ञ एहतो कहिए. वे वेदे सुख दुःख में ते भणी घेदी इस कहिए. से० ते. ते० ते माटे. जा. यावत् पा० प्राणु इम कहिए. जा० यावत. ३० वेद इम कहिए.
अथ इहा मडाइ निर्गन्थ प्रानु भोजी ने प्राण. भूत. जीव. सत्य. विष्णु वेदी ए ६ नामे करि वोलायो। तिम ते सुसला में पिण चार नामे करी बोलायो। छै। तिवारे कोई कहें सुसला ना ४ नाम कहा तो "पाणाणुकंप्याए" इहाँ पाणा
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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बहुबचन क्यूं कह्यो। तत्रोत्तरं-इहां बहुबचन नहीं. ए तो एक बचन छै। इहो पाण-अनुकंपयाए. ए विहूंनो अकार मिली दीर्घ थयो छै। ते माटे “पाणानुकंपयाए. कह्यो। इण न्याय एक वचन छै। ते माटे एक सुसला री दया थी परीत संसार कियो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
फेतला .एक कहे-पडिमाधारी साधु लाय में पलता में कोई बाहि पकड़ने बाहिर का तो तेहनी दया ने अर्थे निकल जाय, ते इम• आणे हूं लाय में रहि तूं तो ये वल जास्येः। इम जाणी तेहनी दया ने अर्थे बाहिर निकलवो कल्पे दशाश्रुतस्कंध में एहबूं कह्यो छै। इम कहे ते मृषावादी छै सूत्र ना अजाण छ। तिण ठामे तो दवा नो नाम चाल्यो नहीं। तिहां प्रथम तो पडिमाधारी नी गोचरी नी विधि कही। पछे बोलवारी विधि कही। पछे उपाश्रय नी विधि कही। पछे संथारा नी विधि कही । पछे तिहां रहितां परिषह उपजे तेहनों विस्तार कह्यो । इम जुई जुई विधि कही छै। तिहां इम कह्यो छै। पडिमाधारी रहे ते उपाश्रय में विषे स्त्री पुरुष अकार्य करवा आवे. तो ते स्त्री पुरुष आश्री पडिमाधारी साधु ने निकलयो न कल्पे। वली पडिमाधारी रह्यो तिहां कोई अग्नि लगावे तो अग्नि आश्री निक लवो न कल्पे ! ए तो अग्नि नों परिषह खमवो कह्यो। वली तिहां रहितां कोई बध ने अर्थे खड्डादिक ग्रही ने आवे तो तेहना खङ्गादिक अवलम्बवा न कल्पे । ए वध परिषह खमवो कह्यो। इम न्यारा २ विस्तार छै पिण एक विस्तार नहीं ते पाठ लिखिये छ।
मासिएणं भिक्खु पडिमं पडिवन्नस्स अणगारस केइ उबसयं अगासिकाएण झामेजा णो से कप्पइ :तं पडुच्च निमित्तए. वा पविसित्तए वा तत्थणं केइ वहाय गहाय
आगच्छे जाव णो से कप्पइ अवलं वितए वा पवलं वितए या सम्पइ से आहारियं रियत्तए ॥१३॥
दशा शुबस्कप दशा
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अनुकंपाsधकार |
To एक मास नी भिक्षु साधु नी प्रतिज्ञा १० प्रतिपन्न अ० साधु ने के० कोई एक उपाश्रय में विषे. अ० अग्निकाय करी वले. नो० नहीं तेहनें कल्पे न० ते अनि उपाश्रय माही घावो. प० ते माटे उपाश्रय माहे थी. णि० निकलवो. प० बाहिर थी माहे पेसवो. त० तिहां के० कोई पुरुष व० पडिमाधारी ना बध ने श्रर्थे ग० खङ्गादिक ग्रही नें श्रा० थावे जा० यावत्. गो० नहीं. से ० ते कल्पे. अ० शस्त्र नों पकड़वो. वा० अथवा प० रोकवो, क० कल्पे आ० यथा ईयोइ चालवो
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अथ इहाँ तो कह्यो ।
A
दया आणी नें वाहिरे निकलवो
।
पड़िमाधारी रहे ते उपाश्रय में विषे कोई अग्नि लगावे तो ते अग्नि आश्री निकलवो न कल्पे । ए तो अग्नि नों परिषह खमवो कह्यो । हिवे वली बध परिषह उपजे ते पिण सम्यग् भावे खमवूं एह कह्यो "तत्थ तिहां पड़िमाधारी रहे ते उपाश्रय ने विषे कोई पुरुष “वहाय" कहितां बध ते द्दणवा ने अर्थे "गाय" कहितां खड्गादिक ग्रही नें हणे तो तेहना खड्गादिक अवलंब वा पकड़वा न कल्पे । एतले पड़िमाधारी नें हणे तो तेहना शस्त्रादिक पकवा न कल्पे. “कप्पइसे आहारिपंरियत्तए" कहितां कल्पे तेहनें यथा ईर्याई चालवो । इम अग्नि परिवह. वध परिवह. ए दोनूं जुआ २ छै । इहां कोई झूठ वोली कहे - साधु रहे तिहां कोई अग्नि लगावे. तिहां कोई बघ ने अर्थे आवे तो साधु विचार कदाचित् ए वल जाय. इम तेहनी कल्पे वो झूठ बोले छै पिण सूत्र में तो एहवो कह्यो न थी । जे अग्नि में तो साधु वले छै । वली तिहां मारवा में अर्थ आवा रो कांई काम छै । अग्नि में वले तिहां वली वध ने अर्थे किम आवे इहां अग्नि नों परिषह तो प्रथम खमवो कह्यो । तिहाँ सेंठों रहियो । अनें वीजी वार जो कदाचित् बध परिषह उपजे तो ते बध परि पण खमवो कह्यो । तिहां सेंठों रहित्रो ए तो दोनू परिषह उपजे ते खमना har | पण वध परिषह थी डरतो निकले नहीं । वली केइ अजाण कहे - साधु अग्निमें चलता ने अग्नि आश्री निकलवो नहीं । अनें तिहां कोई सम्यग्दृष्टि दयावन्त वह पकड़ने बाहिरे काढ़ े तो तेहनी दया आणी ईर्या सूं निकलवो कल्पे । इम कहे पाठ में पिण विपरीत कहे छे ते किम-सूत्र में तो “वहाय गहाय" एहवो पाठ है। तिहाँ वहाय रे ठामे "वाहाय गाहाय" एहवो पाठ कहे छै । पिण सूत्रमें तो वहाय पाठ कह्यो । पिण वाहाय पाठ तो कह्यो नथी । ठाम ठाम जूनी पर्त्ता में वहाय पाठ है । वली दशाश्रुत स्कंध नी टीका में पिण "वहाय" पाठ से इज अर्थ कियो for "बाहाय" ये पाठ से अर्थ न कियो । ते टीका लिखिये छै ।
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भ्रमावश्वसनम।
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इति स्थान विधि रुक्तः साम्प्रतं गान स्थान विधि माह तत्थरणंति. तत्र मार्गे वसत्यादौ वा कश्चित् वधार्थ वधनिमित्तं गहायति--गृहीला खड्गादिक मिति शेषः, प्रागत् । गो अवलंबिताया--अवता ययितुम्-यापयितुं प्रत्यवतम्बयितुं पुनः पुन समाधिनु यर्या मनतिक्रम्य गच्छेत् । एतायता विद्यमानोऽपि नाति शीबंयायाल।
हाटी में रिण इम कायो-जे बध में अर्थे खड्गादिक ग्रही ने आधे तो तेहना खड्गादिक अबलम्बदा पकड़वा न कल्प। पिण इम न कह्यो-यांहि पकड़ ने वाहिरे काड़े तो निकलवो कारने ते माटे वाहिनों अर्थ करे ते मृपावादी छै। ओं जो अनि माहि थी वांहि पकड़ी ने वाहिरे काढ़े तेहने अर्थे निकले तो इम क्यूं न कयो ने पुरुष नी दया ने अर्थे वाहिश विकलको कल्पे। रिण वाहिर निकलवा रो पाउ तो चाल्यो नहीं । इहां तो इन कयो जे पडिलाधारी रहे ते उपाश्रय स्त्री पुरुष आवे तो “नो से कप्पा तं पडुच निक्खभित्तपवा” ए निकलवा रो पाठ तो "निक हित्तएवा' इम हुवे । तथा चली आगे कहो. जे पड़िताधारी रहे ते उपाश्रय में किये कोई अग्नि लगाये तो “नो से कप्पर तं पडुश निक्खमित्तएवा" ए निकरुया रोपाट कल्यो । तिम तिहां निकलवा रो पाठ करो नहीं। जो ते पुरुष नी दया में अर्थ निकले तो रहयो पाठ कहिता “कपा से तं पडच निखभित्तया" इम निकलवा रोपाठ चाल्यो नहीं । अनें तिहाँ तो “आहारियं लिखप" ए पाठ छै। "आहारियं रियतए” अनें “शिक्षमित्तए” ए पाठ ना अर्थ जुआ जुअछ। “निक्ख. मित्तर” कहितां निकले । ए निकलवा रो तो पाउ फूल थी ज न काल्यो । अनें “लारियं रिक्त्तर” ए पाठ कह्यो तेहनों अर्थ कहे छै। “अहारिस" इहाँ मज (ऋज-गतौस्थर्ये च) धातुःछै। ते गो अ स्थिर भाव रूप ए के अर्थाने शिवे छै। जे गी अर्थ में विधे हुवे तो आगलि चालवा रो विस्तार छ। ते माटे ए चालना री विधि सप्तचे वताई। शिण ते वध परिषह मांहि थी चालवा रो समास नहीं। अमें स्थिर भाव होगा इस अर्थ करको। पडिमाधारी में हणवा में अर्थ खड़गादिक प्रही ने शावेतो तेहना खड्गादिक अबलम्ब वा न कल्पे । “कप्पह से अहानिय रिवत्तएकरपे तलने शुभ अध्यवसाय ने विषे सिर पणे रहियो पिण माहिला परि.
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अनुकंपाऽधिकारः ।
णाम किञ्चित् चलाया नहीं । जिन आचारांग ध्रु० २ अ० ३ उ० १ नाव में बैठा नावा में पाणी आवतो देखी मन वचने करी पण बतावो नहीं । राग द्वेष पणे रहित आत्मा करियो । तिहां पिण "आहारिय रियेा " एहको पाठ कह्यो छे । तेहनों अर्थ शोलाङ्काचार्य कृत टीका में इम को छे । ते टीका लिखिये छै ।
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कह्यो जे
गृहस्थ में
हारियमिति यथेये भवति तथा गच्छेत् । विशिष्टाव्यवसाय यानादित्यर्थः ।
अथ इहां टीका में पण इस को । विशिष्ट अध्यवसाय ने विषे प्रवर्त्तत्रो । तिम इहां पिण “आहारियं रियेजा" पहनो अर्थ शुभ अव्यवसाय में विषे प्रवर्त्ते । तथा स्थिर भाव में विषे रहे एहवूं जणाय छे। पिण वध परिग्रह माहि थी उठे नहीं । जे पडिमाधारी तो हाथी सिंहादिक साहमा आवे तो पण टले नहीं। तो
हि मांहि थी किन उठे । तिवारे कोई करें - परिवह थी डरता न उठे । परं दया अनुकम्पा ने अर्थ बाहिरे निकले । इम कहे तेहने इम कहिणो, ए तो साम्प्रत अयुक्त छै I जे पड़िमाधारी किण हीनें संथारो पिण पचखावे नहीं. कोई नें दीक्षा पिण देवे नहीं । श्रावक ना व्रत अदरात्रे नहीं, उपदेश देवे नहीं, चार भाषा उपरान्त बोले नहीं - तो ए कान किन करे। अने जो दवा में अर्थ उठे तो दया ने अर्थ उपदेश पिण देणो । दीक्षा पिण देणी । हिंसा. सूठ, चोरी. रा त्याग for कराणा । इत्यादिक और कार्य पिण करणा । पिय पंडिताधारी धर्म उपदेशादिक कांई न देये । एतो एकान्त आप रो इज उद्धार करवा ने उठा छै । ते पोते किनही जीव नें हजे नहीं । एतो आपरीज अनुकम्श करे । पिण परती न करें । जिम ठाणाङ्ग ठागे ४ उ०४ कह्यो । “आयाणुपए नाम मेगे णो पराणु कंप" आत्मानीज अनुकम्पा करे पिण परनी न करे ते जिनकल्पी आदिक । इहां पण जिन कल्पो आदिक को । ते आदिक शब्द में तो पड़िमाधारी पिण
या ते आप री इज अनुषा करे। पिण परनी न करे, ते जीव नें न हणे ते आपरीज अनुकम्पा छे । ते किम-जे एहनें मायां मोनें पाप लागलो तो हूं डूबसूं । इम आप री अनुकम्पा ने अर्थे जीव हणे नहीं । जो जीव नें हणे तो पोतानीज अनुकम्पा उठे छे - आप डूबे ते माटे । अ अग्नि मांहि थी व विकले अतें कोई वले . तो आप नें पाप लागे नहीं । ते माडे पड़िताधारी परिषह मांहि थी निकले नहीं
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रहे। अजे सिद्धान्त ना अजाण झूठा अर्थ चाय में पड़िमाघारी में
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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परिषह मांहि थी निकलवो कहे, ते कृपावादी छै । प्रथम तो सूत्र में कह्यो । “वहाय गहाय” वध ते हवा में अर्थे शस्त्र प्रहो में हणे इम कह्यो। ते पाठ उत्थापी में "वाहाय गाहाय' पाठ थापे। ए वांहि रो पाठ तो कह्यो इज नथी । ते विरुद्ध पाठ लिखी ने अजाण ने भरमावे छै । टीका में पिण बध नों अर्थ कियो । पिण बांहि नों मर्थ कियो नहीं। तो ए वांहि रो पाठ किम थापिये। एहवी झूठी थाप करे तेहनें परलोके जिह्वा पामणी दुर्लभ छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली साधु उपदेश देवे ते पिण जीवण रे अर्थे जीवां रो राग आणी में उपदेश पिण न देणो एह कह्यो ते पाठ लिखिये छै।
अस्सेसं अक्खयं वावि सव्व दुक्खेति वा पुणो। वज्झापाणा उवझति इतिवायं न नीसरे ॥३०॥
(सुयगडांग श्रु० २ १०५ गा० ३०)
अ० जगत माहि समस्त बस्तु घट पटादिक एकान्त. अ० नित्य सासताइज है। इसो पचन न बोले। स० तथा वली सगलो जगत् दुःखात्मक छै इस्यूं पिण न बोले. इण कारण जग माहो. एकैक जीव ने महा सुखो बोल्या कै. यतः "तण संथार निविठो-मुणिवरो भग्ग रागगय मोहो। जे पावइ मुत्तिमुहं-कत्तोतं चकवट्टीवि" इति बचनात्। तथा वध विनाशवा योग्य चोर परदारक तेहनें. तथा ए पुरुष. अ० बधवा योग्य नथी. ए पिण न कहे । इम कहितां तेहनी कर्म नी अनुमोदना लागे। इणि परे सिंह व्याघ्र मार्जार मादिक हिसक जीव देखी चारित्रिया मध्यस्थ रहे. इ० एहवो बचन नहीं बोले ।
अथ अठे कह्यो-जीवां ने मार तथा मत मार एह पिण बचन न कहिणो। इहां ए रहस्य महणो २ तो साधु नो उपदेश छ। ते तारिवा ने अर्थे उपदेश देवे। मन इहाँ बर्यो. द्वेष आणी ने हणो इम न कहिणो। अने त्यां जीवा रो राग आणी में मत हणो इम पिण न कहिणो। मध्यस्थ पणे रहिवो। इहाँ शीलाक्षाचार्य कृत
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अनुकंपाऽधिकारः।
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टोका में पिण इम कह्यो मत मार कहां ते हिंसक जीवां ना कार्य नी अनुमोदना लागे। ते टीका लिखिये छै ।
"बध्या श्चौर पर दारिका दयो ऽ अध्या वा तत्कर्मानु मति प्रसंगा दित्येषं भूतां वाचं स्वानुष्ठान परायण स्साधुः पर व्यापार निरपेक्षो निसृजे त्तथाहि सिंह ग्यात्र मार्जारादीन् परसस्त्र व्यापादयन परायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ मवलंवयेत्"
__ इहां शीलाङ्काचार्य कृत टीका में तथा बडा रव्या में पिण कह्यो। जे चोर पर दारादिक ने बधवा योग्य कह्यां तेहनी हिंसा लागे। तथा वधवा योग्य नहीं, ते माटे मत हणो इम कयां तेहना कार्य नो अनुमोदना लागे। ते माटे हिंसक जीव देखो मार तथा मथा मत मार न कहिणो। मध्यस्थ भावे रहिणो। एहवू कहy, इहां सिंह व्याघ्रादिक हिंसक जीव कह्या-ते आदिक शब्द में सर्व हिंसक जीव आव्या छै । तेहनों राग आणी तथा जीवणो बांछी ने मत मार पिण न कहिणो तो भसंयती रो जोवण बांच्यां धर्म किम हुवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा गृहस्थ ने माहो मांही लड़ता देखी ने एहने मार-तथा मत मार ए साधु ने चिन्तवणो नहीं इम कह्यो ते इहां सूत्र पाठ कहे हैं।
आयाण मेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए वसमाणस्स इह खलु गाहवती वा जाव कम्मकरी वा अन्न मन्नं अकोसंतिवा वयंतिवा रुभंतिवा उदवंतिवा अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेजा एते खलु अन्नमन्नं उकोसंतुवा मावा उक्को. संतुवा जाव मावा उद्दवंतु ।
(भाचारांग भु.प. उ. १)
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विध्वंसनम् ।
० पापों स्थानक ए पिएभिः साधु ने ता० गृहस्थ कुल सहित. उ० एहवे उपाश्रय ब० रहतां वसतः इ० इणि उपाश्रय. खः विय. गा० गृहस्थ जा० जाव कर्मकरी जटिलो प्रमुख. ० परसा माहो माहि अनेरा में प्र० चाहोगे ० दंडादिक सुं वधे. रु० रोके उ० उपनेता मारे हिने तेहरे सरूपे भि साधु देखी कदाचित. उ० ऊंची. ० नोवो. म० मन को समाहि इसूं भाव आहे. ए० एह ते ख० निश्चय श्र० माहो माहि. श्र० कोशो मा० एहनें भ करो आक्रोश जा० यावत् म करो. श्र० उपद्रव, ताडे, मारे इहां ऊपर राग द्वेष नो भाव आव्यो अथवा इम जाणे एहनें आक्रोश करो तेह उपरे द्वेष नों भाव व्यो राज द्वेष कर्म बंधनों कारण ते साधु ने न करवा ।
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य इहांको वृहत्य माहोमाहि लड़े छै । आक्रोश आदिक करे छै । तो इस वित्तो नहीं पहनें आक्रोशो हो रोको उद्वेग दुःख उपजावो । तथा पहनें मत हणो मतको मत रोको उद्वेग दुःख मत उपजावो. इम पिण चिन्तवण नहीं । एह तोर परमार्थ. जे राग आणी जीवणो वांछी इस न चिन्तवणो । ए बापड़ा ने मत हो दुःख उद्वेग मत देवो तो राग में धर्म किहां थी । जीवणो या धर्म कहिये । अनें से हणे तेहनो पाप टलावा में सारिवा नें उपदेश देई हिंसा छोडावे ते तो धर्म है । पिणे राग में धर्म नहीं । असंयती से जीवणो वांछयां धर्म नहीं। डाहा हुवे ते विचारि जोइजो
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इति ७ बोल सम्पूर्ण ।
तथा साधु गृहस्थ में अग्नि प्रज्वाल वुझाव तथा मत वुझाव इम न कहे । इम को ते पाठ लिखिये छै ।
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आयामेयं भिक्खु गाहावतीहिं सद्धिं संवसमारास्स-इह खलु वाहावती अप्पो सट्टा अगणिकार्य उजालेज बनालेजवा विजावेनया ग्रह भिक्खू उच्चावयं मणं रियच्छेना- एतेखलु अगणिकार्य उज्जालेंतुवा मा बा
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अनुकम्पाऽधिकारः।
उज्जालेंतुवा पन्जालेंतुवा मा वा पज्जालेंतुवा विजतुवा मा वा विज-तुवा।
(प्राचारांग श्रु० २ १०२ उ०१
पाप नों स्थानक ए पिण. भि० साधु ने. गा० गृहस्थ. स० साथ. बसता नें. इ० इहां. स० निश्चय. गा० गृहस्थ. अ० पापणे अर्थे. अ० अग्निकाय उ० उज्वाले. वा प० प्रज्वाले. वा. अथवा. वि० बुझाये एहवो प्रकार कर तो. अ० अथ हिवे साधु गृहस्थ ने देखी नें. उ० ऊंचो. व० नीचो. म० मन. णि करे किम करी इम चिन्तवै. ए० ए गृहस्थ. ख० निश्चय. अ. अग्निकाय. उ० उज्यालो अथवा मत उज्वालो प्रज्वालो. वा० मत प्रज्वालो. वि० बुझावो. वा० अथवा मत बुझावो। एहवे भावे घणो असंयम अग्नि कायनी हिंसा विराधना प्रमुख ६ कायनी हिंसा लागे तिण कारण इसो न चिन्तवे.
अथ अठे इम कह्यो। जे अग्नि लगाव तथा मत लगाव बुझाव तथा मत खुझाव इम पिण साधु ने चिन्तवणो नहीं। तो लाय मत लगाव इहां स्यूं आरम्भ छ। ते मारे इसो न चिन्तवणो । इहां ए रहस्य-जे अग्निं थी कीड़यां आदिक घणा जीव मरस्ये त्यां जीवां रो जीवणो वांछी ने इम न चिन्तवणो जे अग्नि मत लगाव । अनें अग्नि रो आरंभ तेहनों पाप टलावा तेहनें तारिवा अग्नि रो आरंभ करवा रा त्याग करायां धर्म छै। पिण जीवणो बांछयां धर्म नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ८ बोल सम्पूर्ण।
तथा असंयम जीवितव्य तो साधु ने बांछणो नहीं ते असंयम जीवितव्य तो डाम २ वरज्यो छै ते संक्षेप पाठ लिखिये छै ।
दसविहे आसंसप्पयोगे प० तं० इह लोगा संसप्पओगे परलोगा संसप्पओगे दुहओ लोगा संसप्पओगे जीविया संसप्पयोगे मरण संसप्पओगे कामा संसप्पोगे भोगा
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भ्रम विध्वंसनम् ।
संसपओगे लाभा संसप्पोगे पूया संसप्पयोगे सकारा
संप्पोगे ।
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(ठाणाङ्ग ठा० १० )
६० दश प्रकारे. प्रा० इच्छा तेहनों प० व्यापार ते करिवो. प० परूप्यो तं ते कहे हैं, इह लोक ते मनुष्य लोक नी श्रसंसा जे तप थी हूं चक्रवर्ती श्रादिक होय जो. प० ए तप करण थी इन्द्र अथवा सामानिक होयजो दु० हूं इन्द्र थइ में चक्रवर्ती थायजो अथवा इह लोक ते जन्मेकाइ एक बांछे परलोके कांड एक बांछे बिहूं लोके कांइ एक बांछे. जि० ते चिरंजीवी हॉयजो म० शीघ्र मरण मुझ ने होवजो. का० मनोज्ञ शब्दादिक माहरे होयजो. भो० भोगवन्ध रसादिक माहरे होयजो. ला०ते कीर्त्ति श्लाघादिक नों लाभ मुझ में होयजो । पू० पूजा पुष्पादिक नी पूजा मुझ ने होयजो. स० सत्कार ते प्रधान वस्त्रादिके पूजवो मुझ ने होयजो
अथ अठे पिण कह्यो । जीवणो मरणो आपणो २ वांछणो नही तो पारको नें वांछसी । जीवण मरण में धर्म नहीं धर्म तो पचखाण में है । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति बोल सम्पूर्ण |
।
तथा सूयगडाङ्ग अ० १० में कह्यो । असंयम जीवितव्य बांछणो नहीं । ते पाठ लिखिये छै ।
निक्खम्म गेहा उ निराव कंखी, कायं विउ सेज्ज नियाण छिन्नो ।
नो जीवियं नो मरणा वर्कखी, चरेज भिक्खू बलया विमुक्के ॥
( सूयगडांग श्र० १ ० १० गा० २४ )
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अनुकम्पाऽधिकारः ।
fro घर थी निकली चरित्र आदरी ने जीवितव्य ने विषे निरापेक्षी छतो - का० शरीर. विo वोसरावी ने प्रतिकर्म चिकित्सादिक अनकरतो शरीर ममता छोडे नि० निपाण रहित. तथा नो० जीववो न बांधे म० मरणो पिण. कं० न वांछे. च० संयम अनुष्ठान पाले भि० साधु. व० संसार. व० तथा कर्म बंध थकी. वि० मूकाणो.
अथ अठे पण जीवणो बांछणो बरज्यो । ते असंयम जीवितव्य बाल मरण श्री वर्ज्या छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १० बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग अ० १३ गा० २३ में पिण जीवणो मरणो बांछणो बज्यों ते पाठ लिखिये छै ।
आहत हियं समुपेह माणे,
सहि पाणे हि निहाय दंडं ।
णो जीवियं णो मरणावकंखी, परि वदेजा बलया विमुक्के ॥
( सूयगडांग श्रु० १ ० १३ गा० २३ )
१३६
० यथा तथा सूधो मार्ग सूत्र गत स० सम्यक् प्रकारे आलोचीतो अनुष्ठान अभ्यासतो. सर्व प्राणी जीव त्रस स्थावर नों दंड विनाश ते छोड़ी नें प्राण तजे पिया धर्म उलंघे नहीं. to जीवितव्य तथा णो मरण पिण बांछे नहीं. एहवो छतो प्रवर्त्ते संयम पाले. व० मोहगहन थी ते विमुक्त जाणवो.
अथ अठे पिण जीवणो मरणो बांछणो वर्ज्या । बांधणी । तो असंयती रो जीवणो पिण न बांछणो । जोइजो ।
ते मरणो असंयती रो न डाहा हुवे तो विचारि
इति ११ बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा सूयगडाङ्ग अ० १५ में पिण असंयम जीवितव्य बांछणो वज्यों छै । ते पाठ लिखिये छै ।
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जीवितं पिट्टयो किच्चा, कम्मुणा सम्मुही भूता,
अंतं पार्वति कम्मुखा । जे मग्ग मणु सासइ ॥
( सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० १५ गा० १० )
जि० असंयम जीवितव्य. पि० उपराठो करी निषेधी जीवितव्य नें श्रमादर देतो भला अनुष्टान में विषे तत्पर छता. ० तपायें अंत करे. क० ज्ञानावरणीय श्रादिक कर्म नों तथा. क० रूड़ा अनुष्ठान करी स० मोक्ष मार्ग नें सन्मुख छता. अथवा केवल उपने छते सासता पद सनमुख छता. जे जे वीतराग प्रणीत मार्ग ज्ञानादिक. व० सीखत्रे प्राणीयानो हितकारी प्रकाशे आपण पे समाचरे.
में
अथ अठे पिण कह्यो - असंयम जीवितव्य नें अन आदर देतो थको विचरे तो असंयम जीवितव्य बांछयां धर्म किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १२ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग अ० ३ ०४ गा० १५ जीवणो वांछणो वय ते पाठ लिखिये छै ।
जेहि काले परिक्कतं ते धीरा वंधणु मुक्का
न पच्छा परितप्पड़ । नाव कखंति जीवियं n
( सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० ३ उ० ४ गा० १५ )
जे० जेणे महा पुरुष. का० काल प्रस्तावे धर्म नें विषे पराक्रम कीधो न० ते पक्के मर मेलां प० पिछतावे नहीं. ते धीर पुरुष. व० ष्ठ कर्म बंधन थको छूटा मुकाया है। मा० न बांछे. जी० असंयम जीवितव्य अथवा बाल मरण पिस न बांधे. एतावता जीवितव्य मरण में बिषे सम भाव म ।
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अनुकम्पाऽधिकारः। wwwwwwwwwww
अथ अठे पिण कह्यो। जीवणो मरणो बांधणो नहीं। ते पिण असंयम जीवितव्य बाल मरण आश्री वयो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १३ बोल सम्पूर्ण।
तथा सूयगडाङ्ग म० ५ में असंयम जीवितव्य बांछणो बर्यो। ते पाठ लिखिये ।
जे केइ वाले इह जीवियट्री
पावाइं कम्माइं करेंति रुदा, ते घोर रूवे तिमिसंधयारे तिब्बाभितावे नरए पडंति ॥
(सूयगडांग श्रु० १ ० ५ उ० १ गा०.६).
जे जे कोई बाल अज्ञानी महारंभी महा परिग्रही इण संसार ने बिषे. जी० असंयम जीवितव्य ना अर्थी. पा० मिथ्यात्व अब्रत प्रमाद कषाय योग ए पाप. क० ज्ञानावरणीयादिक कर्म. क० उपाजे छै. मैला कर्म केहवा रुद्र प्राणीया में भय नों कारण. ते ते पुरुष तीब्र पाप ने उदय. घो० घोर रूप अत्यन्त डरामणो. ति० महा अन्धकार लिहां श्राखें करी काई दीखे नहीं. ति० तीव्र गाढ़ो ताव छै जिहां इहां नो अग्नि थकी अनन्तगुणी अधिक ताप छै. न० एहवा मरक ना विषे. ५० पड़े ते कूड़ कर्म ना करणहार.
अथ अठे पिण कह्यो। जे वाल अज्ञानी असंयम जीवितव्य वांछे, ते नरक पड़े तो साधु थई ने असंयम जीवितव्य नी वांछा किम करे। डाहा हुवे तो किनाति जोइजो।
इति १४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगहाङ्ग अ० १०.में पिण जीवणो वांछणो बज्यो । ते पाठा कहेछ।
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१४२
भ्रत विध्वंसनम् ।
सुयक्खाय धम्मे वितिगिच्छतिन्ने,
लाढ़े चरे आय तुले पयासु। चयं न कुजा इह जीवियद्धि, चयं न कुज्जासु तवस्सि भिक्खू ।
(सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० १ गा० ३ )
सु० रूडी परे जिन धर्म को. ए धर्म एहवो हुइ तथा. वि० सन्देह रहित वीतराग बोले ते सत्य इसो मानें पुतने ज्ञानदर्शन समाधि कही. तथा सा० संयम ने विषे. निर्दोष श्राहार लेतो श्रको विचरे. प्रा० अात्मा तुल्य. प० सर्व जीव में देखे एहवो साधु हुई. प्रा० श्राश्रव न करे इहां असंयम जीवितव्य अर्थी न हुई. च० धन धान्यादिक नु परिग्रह न करे. सु० भलो तपस्वी. भि० ते साधु हुवे.
अथ अठे पिण कह्यो। असंयम जीवितव्य नो अथीं न हुवे। ते जीवि. तव्य सावद्य में छै । ते माटे ते असंयम जीवितव्य वांछयां धर्म नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १५ बोल सम्पूर्ण
तथा सूयगडाङ्ग अ० ५ उ० २ जीवणो वाँछणो वो ते पाठ लिखिये छै ।
नो अभिकंवेज जीबियं नो विय पुयण पत्थए सिया अजत्थ मुर्वेति भेरवा सुन्नागार गयस्य भिक्खुणो।
( सुयगडाङ्ग श्रु० १ अ० २ उ० २ गा० १६ )
नो० तेणे उपसर्ग पीड्यो छतो साधु असंयम जीविनव्य न वांछे एतले मरण श्रागमे जीवितव्य घणो काल जीव इम न बांछे. नो० परिसह ने सहिवे वस्त्रादिक पूजा लाभ नी प्रार्थना न बांद. सि. कदाचितू न करे. अात्मा ने विषे. मु० उपजे परिषह केहवा. भे० भय कारिया
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अनुकम्पाऽधिकारः
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00
पिशाचादक ना. सु० सूना घर में विषे. ग० रह्या. भि० साधु ने जीवितव्य मरण री आकांक्षा रहित एहवा साधु ने उपसर्ग सहितां सोहिला हुई ।
- अथ इहां पिण जीवणो वांछणो वो। ते पिण असंयम जीवितव्य भाश्री वांछणो वोँ छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १६ बोल संपूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० ४ संयम जीवितव्य धारणो कह्यो। ते पाठ लिखिये हैं।
चरे पयाइं परिसंकमाणो,
जं किंचिपासं इह मन्नमाणो । लाभंतरे जीविय बूहइत्ता,
पच्चा परिन्नाय मलावधंसी॥
( उत्तराध्ययन अ०४ गा०७)
च० विचरे मुनि केहवू . ५० पगले २ संयम विराधना थी डरे ते माटे शंकतो चाले. जे काइ अल्प मात्र पिण गृहस्थ संसतादिक तेहनें संयम नी प्रवृत्ति रूंधवा माटे. पा० पासनी परे. पास हुई ए संसार ने विषे. मानतो हुन्तो. ला० लाभ विशेष छै ते एतले भला २ सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र नं लाभ ए जीवितव्य थकी छै तिहां लगे. जी जीवितव्य में अम्नपानादिक देवे करी बंधारे. ५० ज्ञानादिक लाभ विशेष नी प्राप्ति थी पछे. परि० ज्ञान प्रज्ञाई गुण उपार्जवा असमर्थ एहवू जाणी ने तिबारे पछे प्रत्याख्यान परिज्ञाई म० मलमय शरीर कार्ममादिक विध्वंसे.
अथ अठे पिण कह्यो। अन्न पाणी आदिक देई संयम जीवितव्य बधारणो पिण ओर मतलब नहीं । ते किम उण जीवितव्य री बांछा नहीं । एक संयम री बांछा आहार करतां पिण संयम छै। आहार करण री पिण अव्रत नहीं। तीर्थङ्कर
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१४४
भ्रम विध्वंसनम्।
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री आज्ञी छै अ श्रावक नो तो आहार अव्रत में छै । तीर्थङ्कर नी आज्ञा बाहिर है। श्रावक ने तो जेतलो पचखाण छै ते धर्म छै। अब्रत छै ते अधर्म छै। ते मार्ने असंयम मरण जीवण री बांछा करे ते अव्रत में छै। डाहा हुवे तो विचार जोइजो।
इति १७ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग अ० २ में पिण संयम जीवितव्य दुर्लभ कह्यो। ते पाठ लिखिये छै।
सं बुज्झह किं न बुझह संवोही खलुपेञ्च दुल्लहा। णो हुउ वणमंत राइओ णो सुलभं पुण रावि जीवियं ।
( सूयगडांग श्रु० १ ० २ गा० १)
सं० श्री श्रादिनाथ जी ना ६८ पुत्र भरतेश्वर अपमान्या संवेग उपनें ऋषभ पागल श्राव्या से प्रते एह संबंध कहे छै. अथवा श्री महावीर देव परिषदा माहे कहे. अहो प्राणी तुम्हें बझयो काइ नथी वूझता, चार अंग दुर्लभ. सं० सम्यग ज्ञानवोधि ज्ञान दर्शन चरित्र. ख० निश्चय. पे० परलोक ने अति ही दुर्लभ छै. णो अवधारणे. जे अतिक्रमी गइ. रा० रात्रि दिवस तथा यौवनादिक पाछो न आवे पर्वत ना पाणी नी परे णो० पामतां सोहिलो नथी. पु० वली. जी. संथम जीवितव्य पचखाण सहित जीवितव्य
अथ अठे पिण संयम जीवितव्य दोहिलो कह्यो। पिण और जीवितव्य दोहिलों न कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १८ बोल सम्पूर्ण।
तथा नमी राज ऋषि मिथिला नगरी बलती देखी साहमो जोयो न कह्यौं । । ते पाठ लिखिये है।
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अनुकंपाऽधिकारः।
१४५
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एस अग्गीय पाऊय एयं डज्झइ मंदिरं। ........ भयवं अन्तेउरं तेणं कीस णं नाब पिक्खह ॥१२॥ एय म, निसामित्ता हेउ कारण चोइयो। तो नमी राय रिसी देवेदं इण मब्बवी ॥ १३ ॥ सुहं बसामो जीवामो जेसिं मो नत्थि किंचणं । महिलाए डज्झमाणी ए न मे डन्झइ किंचणं ॥१४॥ चत्त पुत्त कलत्तस्स निब्बाबारस्स भिक्खुणो । पियं न विजइ किंचि अप्पियं पि न विज्जइ ॥१५॥
( उत्तराध्ययन अ० ६ गा० १२-१३-१४-१५ )
ऐ० प्रत्यक्ष. अ० अग्नि अने वा० वाय रे करी. ए० प्रत्यक्ष तुझ संबंधी. उ० वले छ. म. मन्दिर घर. भ० हे भगवन् ! अ० अंतःपुर समूह. की० स्यां भणी ना नथी जोवता, तुम में तो ज्ञानादि राखवा तिम अंतपुर पिण राखवू ॥ १२ ॥
देवेन्द्र रो ए. ए. अ० अर्थ. नि० सुनी. हे हेतु कारण है प्ररया थका. न० नमीराज ऋषि. दे० देवेन्द्र ने. इ० ए बचन. म० बोल्या. ॥ १३ ॥
सु० सुखे वसूंछ अने. सु० सुखे जीवछ. जे अंशमात्र पिण म्हारे. न० है नहीं. कि. किंचित वस्तु आदिक. मिथिलानगरी बलती छतीये. न० माहरूं नथी बलतो किचित् मात्र पिण थोड़ो ई पिण जे भणी ॥ १४ ॥
च० छोड्या छै. पु० पुत्र अने. क. कलत्र जेणे. एहवू क्ली. नि निर्व्यापार करण पशु पालबादिक क्रिया व्यापार ते रहित करी. भि० साधु ने'. पि० प्रिय नथी. कि० किचित् अल्प पदार्थ पिण राग अणकरवा माटे श्र० अप्रिय पिण नथी कोई पदार्थ साधु ने द्वष पिण अकरवा माटे.
अथ अठे इम कह्यो-मिथिला नगरी वलती देख नमीराज ऋषि साहमो न जोयो। वली कयो म्हारे वाहलो दुवाहलो एकही नहीं। राग द्वेष अणकरवा माठे। तो साधु. मिनकिया आदिक रे लारे पड़ने उदरादिक जीवां ने बचावे. ते
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भ्रम विध्वंसनम्।
Accorecasia
शुद्ध के अशुद्ध । असंयती रा शरीर ना जावता करे ते धर्म के अधर्म। असंयम जीवितव्य बांछे. ते धर्म के अधर्म छै। ज्ञानादिक गुण बांच्यां धर्म छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १६ बोल सम्पूर्ण।
तथा दश धैकालिक भ० ७ में पिण इम कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
देवाणं मणुयाणंच तिरियाणं च वुग्गहे अमुयाणं जोहोउं मावा होउत्ति नो वए।
( दश वैकालिक अ. ७ गा० ५० ।
दे० देवता ने तथा. म. मनुष्य में. चवली. ति तिर्यञ्च ने. चवली ० विग्रह ( कलह ) थाइ छ। अ० अमुकानों. ज. जय जीतवो होज्यो. अथवा. मा० म होज्यो अमुकानों जय इम तो न बोले साधु
अब अठे पिण कह्यो। देवता मनुष्य तथा तिर्यञ्च माहोमाही कलह करे तो हार जोत वांछणी नहीं। तो काया थी हार जीत किम करावणी. असंयती ना शरीर नी साता करे ते तो सावध छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २० बोल सम्पूर्ण ।
तथा दश वैकालिक अ०७ में कह्यो ते पाठ लिखिये छै। बायुवुष्टुिं च सीउण्हं खेमं धायं सिवंतिवा कयाण होज एयाणि मा वा हो उत्ति नो वए ।
( दश वैकालिक अ०७ गा०५४
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अनुकंपाऽधिकारः।
१४०
पा. वायरो. वु० वर्षात. सी० शीत. ताप. खे० राजादिक ना कलह रहित हुवे. ते क्षेम. धा० सुकाल. सि० उपद्रव रहित पणो. क० किवारे हुस्यै. ए० वायरा आदिक हुवे। अथवा मा थास्यौ इति इम साधु न बोले.
अथ अठे कह्यो बायरो वर्षा, शीत. तावड़ो.राज विरोध रहित सुभिक्ष पणो. उपद्रव रहित पणो. ए ७ बोल हुवो इम साधु ने कहिणो नहीं। तो करणो किम् उदरादिक ने मिनकियादिक थी छुड़ाय ने उपद्रव पणा रहित करे ते सूत्र विरुद्ध कार्य छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
. इति २१ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग श्रु० २ ० ७ में पिण आपरा कर्म तोड़वा तथा भागलान तारिवा उपदेश देणो कह्यो छै। तथा ठाणाङ्ग ठा० ४ पहवो पाठ कह्यो ते लिखिये छै।
। चत्तारि पुरिस जाया प० तं० आयाणकपाए नाम मेगे णो पराणुकंपए।
(ठाठा०४)
च० चार पुरुष जाति परूप्या. त० ते कहे है. प्रा० पोताना हित ने विषे प्रवर्ते ते प्रत्येक बुद्ध अथवा जिन कल्पी अथवा परोपकार बुद्धि रहित निर्दय. णो० पारका हित ने विषे न प्रवर्त १ पर उपकारे प्रवते ते पोता ना हित ना कार्य पूरा करीने पछे परहित ने विषे एकान्ते प्रवते ते तीर्थकर अथवा "मेतारज" वत् २ तीजो वेहूनों हित वांछे ते स्थविरकल्पी साधुवत ३ चोथो पापमात्मा बेहूंनों हित न बांछे ते कालकसूरीवत. ४
अथ अठे पिण कह्यो। जे साधु पोतानी अनुकम्पा करे. पिण आगला मी अनुकम्पा न करे। तो जे पर जीव ऊपर पग न देवे. ते पिण पोतानी ज अनुः कम्पा निश्चय नियमा छै। ते किम पहनें मासा मोनें इज पाप लागसी. इम जाणी
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भ्रम विध्वंसनम्।
न हणे । ते भणी पोता नो अनुकम्पा कही छै अने आप में पाप लगायने आगलानी अनुकम्पा करे ते सावध छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २२ बोल सम्पूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० २१ समुद्र पाली पिण चोर में मारतो देखी छोडायो, चाल्यो नहीं ! ते पाट लिखिये है।
तं पासिऊण संबेगं समुदपालो इणमव्बबी अहो असुभाण कम्माणं निजाणं पावगंइमम्
(उत्तराध्ययन अ०२१ गाह)
सं० ते चोर ने. पा० देखी ने. सं० वैराग्य ऊपनों. स. समुद्र पाल. इ० इम. म० बोल्यो. भा० आश्चर्यकारी. अ० अशुभ. कर्म नों. नि० छेहड़े श० अशुभ विपाक इ० ए प्रत्यक्ष.
अथ इहां पिण बह्यो-समुद्रपाली चोर ने मारतो देखी वैराग्य आणी चारित्र लीधो पिण गर्थ देइ छोडायो नहीं। परिग्रह तो पाचमों पाप को छै । जे परिग्रह देह जीव छुड़ायां धर्म हुवे तो बाकी चार भाव सेवाय नै जीव छोड़ायां पिण धर्म कहिणो। पिण इम धर्म निपजे नहीं। असंयम जीवितन्य बांछे ते तो मोह अनुकम्पा छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २३ बोल सम्पूर्ण।
तथा गृहस्य रस्तो भूलो दुखी छै। तेहने मार्ग बतावणो नहीं । गृहस्थ रस्तो भूला में मार्ग बतायां साधु ने प्रायश्चित कह्यो । ते पाठ लिखिये है।. ..
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अनुकंपाऽधिकारः।
जे भिक्खू अण्ण उत्थियाणं वा गारस्थियाणं वा गहाणं मूढाणं विप्परियासियाणं मग्गं वा पवेदेइ संधिं पवेदेइ मग्गाणं वा संधिं पवेदेइ संधिं उ वा मग्गं पवेदेइ. पवेदंतं वा साइजइ.
(निशीथ उ० १३ बोल २७ )
जे जे साधु. अ० अन्यतीर्थिक ने तथा. गा० गृहस्थ नें. ण पंथ थकी नष्टां में. मू० अटवी में दिशा मूढ हुवा ने. वि० विपरीत पणु पाम्या ने मार्ग नों. ५० कहिवो. स० संधि नो कहिवो म मार्ग थकी. स० संधि. प० कहिवो. सं संधि थकी. म० मार्ग नों. प० कहिवो. तथा घणा मार्ग नी संधि प० कहे कहता ने सा० अनुमोदे। तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त.
अथ अठे गृहस्थ प्रथा अन्य तीर्थी ने मार्ग भूला ने दुःखी अत्यन्त देखी. मार्ग बतायां चौमासी प्रायश्चित कह्यो। ते माटे असंयती री सुखसाता बांछयां धर्म महीं। गृहस्थ नी साता पूछयां दशवैकालिक अ० ३ में सोलमो अनाचार कह्यो ।
तथा वली व्यावच कियां करायां अनुमोद्यां अट्ठावीसमों अनाचार कयो। पिण धर्म न कह्यो। ते माटे असंयती शरीर नो जावता कियां धर्म नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा धर्म तो उपदेश देइ समझायाँ कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
तो आयक्खा प० तं० धम्मियाए पडिचोयणाए भवइ १ तुसिणीए वासिया २ उद्वित्ता वा आया एगन्त मवकमेजा ३
-(ठामाङ्ग ठाणा ३ उ०४)
स० निण. मा० आत्म रक्षक ते राग द्वषादिक अकार्य थकी अथवा भवकूप थकी प्रात्मा ने राखे ते आत्म रक्षक ध० धर्म नी. ५० बोइगाइ करी ने पर ने उपदेशे जिम अनुकल
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भ्रम विध्वंसनम्।
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प्रतिकूल उपसर्ग करता ने वारे तेथी ते उपसर्ग करवा रूप अकार्य नू सेवणहार न हुई अने साधु पिण उपसर्ग में प्रभाव कार्य अकार्य करे उपसर्ग करतो वारयो 'तो ते थकी साधु पिण अकार्य थी राख्यो अने उपसर्ग थकी पिण आत्मा राख्यो. अथवा तु० साधु अणबोल्यो रहे निरापेक्षो थकां अने वारी न सके अबोल्यो पिण रही न सके तो तिहां थी उठी ने. आपण पे. ए. एकान्त भाग ने विषे मा जाई.
अथ अठे पिण कह्यो। हिंसादिक अकार्य करता देखी धर्म उपदेश देई समझावणो तथा अणवोल्यो रहे। तथा उठि एकान्त जावणो कह्यो। पिण जवरी सूं छोडावणो न कह्यो। तो रजोहरण ( ओघा ) थो मिनकी ने डराय ने उंदरां ने बचावे । तथा माका ने हटाय माखी ने बचावे । त्यांने आत्म-रक्षक किम कहिये। अने जो त्रस काय जवरी छोड़ावणी तो पंच काय हणता देखी ने क्यूं न छोडावणी नीलण फूटण माछल्यादिक सहित पाणीका नाड़ा ऊपर तो भैस्यां आवे । सुलिया धान्य रा ढिगला में सुलसुलिया इडादिक घणा छ। ते ऊपर वकरा भावे । जमीकन्दरा ढिगला ऊपर वलद आये। अलगण पाणी रा माटा ऊपर गाय आवे ऊकड़ री लटां सहित छै सेहनें पक्षी चुगै छै। उंदरा ऊपर मिनकी आवे । माखिया ऊपर माका आवे। हिवे साधु किण ने छुड़ावे। साधु तो छकाय नो पीहर छै । जे उंदरा ने माख्यां ने तो बचावे अनेरा ने न वंचावे ते कांई कारण। ए जवरी सूं बचावणो तो सूत्र में चाल्यो नहीं । भगवन्त तो धर्मोपदेश देइ समझाव्यां, तथा मौन राख्यां, तथा उठि एकान्त गयाँ, आत्म-रक्षक कह्यो। पिण असंयती रो जीवणो वांछयां आत्म-रक्षक न कह्यो। तो मिनकी ने डरायनें ऊदरा ने बचावे तेहनें आत्म-रक्षक किन कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २५ बोल सम्पूर्ण।
तथा अनेरा ने भय उपजावे ते हिंसा प्रथम आश्रव द्वारे “प्रश्नव्याकरण' में कही छै। तो मिनकी ने भय किम उपजावणो। वली भय उपजायां प्रायश्चित कहो। ते पांठ लिखिये है।
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अनुकंपाऽधिकार |
जे भिक्खू परं विभावेइ विभावतंत्रा साइज्जइ ।
१५१
(निशीथ उ० ११ बो० १७० )
जे० जे कोइ साधु साध्वी अनेरा ने इहलोक मनुष्य में भय करी परलोक ते तिर्यञ्चादिक में भय करी ने वि० बीहावे. वि० वीहावता नें. सा० अनुमोदे इहां भय उपजावतां दोष उपजे. विहावतो थको अनेरा नें भूत जीव नें हणे. तिवारे छही काय नी विराधना करे इत्यादिक दोष उपजे. तो पूर्व वत्प्रायश्चित्त ।
अथ अठे पर जीव नें विहाव्यां विहावतां नें अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित कह्यो। तो मिनकी में डराय ने उन्दरा में पोषणो किहां थी । अनें असंयती ना शरीर नो रक्षा किन करणी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २६ बोल सम्पूर्ण ।
तथा गृहस्थ नी रक्षा निमित्ते मंत्रादिक किया प्रायश्चित कयों । ते पाठ लिखिये छै ।
जे भिक्खू अणउत्थियंवा गारत्थियंवा भुइ कम्मं करेइ करतंवा साइज्जइ ।
(निशीथ उ० १३ बो० १४ )
जे जे कोई साधु साध्वी अन्य तीर्थी ने गा० गृहस्थ में भू० रज्ञा निमिते भूत कर्म क्रियाइ' करी मंत्री ने भूती कर्म करे. भूती कर्म करतां ने. सा० साधु अनुमोदे तो पूर्वव
प्रायश्चित्त.
The hate
अथ अठे गृहस्थ नी रक्षा निमित्त मंत्रादिक कियां अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित कह्यो । तो जे ऊदरादिक नी रक्षा साधु क्रिम करे। अनें जो इम रक्षा कियां धर्म हुवे तो डाकिनी शाकिनी भूतादिक काढ़ना सर्वादिक ना ज़हर उतारना
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१५२
भ्रम विध्वंसनम् ।
औधादिक करी. असंयती ने बचावणा । अनें जो पतला बोल न करणा तो असंयतीना शरीर नी रक्षा पिण न करणी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २७ बोल सम्पूर्ण ।
गृहस्थ ना
वली साधु तो for गृहस्थ नी रक्षा करणी वर्जी छै । ते पाठ कहे छै
1
शरीर न रक्षा किम करे सामयिक पोषा में
चुल्लणी पियस्स समणो वासयस्स पुत्ररतावर काल समयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भवेता ॥४॥ तत्ते से देव एग नीलुप्पल जाव असिं गहाय चुल्लगी पितं समो वायय एवं वयासी. हंभो चुल्लणी पिया ! जहा काम देवे जाव ना भंजसी तो ते अहं अज जेठ पुत्तं सातो गिहातो मी तव आघत्तो धामि २ ता ततो मंस सोल्ले करेमि ३ आदाय भरियंसि कडाइयंसि अहमि २ ता तवगातं मंसेाय सोशिएण्य आइचामि जहाणं तुमं अ दुडे बस अकाले चैव जीवीयाओ ववरो विज्जासि ||५|| तए से चुल्लणी पीए तेणं देवेणं एवं वृत्तं समाणे अभीए जाव विहरति ॥ ६ ॥ तां से देवे चुल्लखी पिर्य अभीयं जाव पासती दोच्चपि तच्चपि चुल्लणी दियं समणो वासयं एवं वयासी भो चुल्लणी पिया अपत्थीया पत्थीया जाव न भंजसि तं चैव भाइ सो जाव विहरति ॥७॥ तप से देवे चुलगी. पिया अभीयं जाव पासित्ता आसुरुत्ते- चुलगी पितरस
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अनुकम्पाधिकारः ।
U
समणोवासगस्स जेट्ट पुत्तं गिहाती गीती २ ता आगत्तो घाती २ता तो मंससोल्लए करेति २ सा श्रदारा भरियंसि कासिद्धति २ त्ता चुल्लणी पियस्स गायं मंसेय सोणीय इच्चति ॥ ८॥ तरगं से चुल्लगी पिया समणोवासाया तं उज्जलं जाव अहियासंती ॥६॥ तत्ते से देव चुल्लणीप्पियं समणोवासयं अभीयं जाय पासइ २ त्ता दोच्चंपि चुल्लगि प्रियं समणोवासयं एवं वयासी हंभो चुल्लणी पिया ! श्रपत्थीया पत्थीया जाय न असि तो ते अहं अज मज्झिमं पुत्तं साहो गिहातो नीमी २ ता तव अग घाएमि जहाजेंद्र पुत्तं तहेव भगइ तहेव करेइ एवं तच्चं करिणयासंपि जाव अहिया सेति ॥ १० ॥ तए से देवे चुल्ली पिया ! अभीयं जाव पासाइ २ ता चउत्थंपि चुल्लणीपियं एवं वयासी- हंभो चुल्लणि पिया ! पत्थीयां पत्थीया जहां तुम्हं जाव न भंजसि ततो अहं अजजा इमा तब माया भद्दासत्थवाहीणी देवय गुरु जगणी दुक्कर २ कारिया तंसि साओ गिहाओ नीरोमि २ ता तव अग्गो घामि २त्ता तो मंससोलए करेमि २त्ता आदाणं भ रियसि डायस हेमि २ ता तव गाय मंसेाय सोगिएणं इच्चामि जहा तुम्हं अह दुहट्ट सट्टे अकाले चेव जीविया ववरो वजसि ॥ ११॥ तत्ते चुल्लखी पिया ते देवें एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहरति ॥ १२ ॥ तपर्ण से देवं चुल्लणिपियं समणोवास अभीय जाव पासति
२०
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१५४
भ्रम विध्वंसनम् ।
२ ता चुल्लणी पियं समणोवासय दोच्चंपि तच्चंति एवं वयासी-हंभो चुल्लणी पिया ! तहेव जाव विविरो विजास ॥१३॥ तएणं तस्स चुल्लणीपियस्स तेणं देवेणं दोच्चंघि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे इमे या रूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्ता अहो णं इमे पुरिसे अण्णारिये अण्णारिय बुद्धि अणायरियाई पावाइं कम्माइं समायरंति जेणं मम जे पुन्तं साओ गिहाओ णीणेति मम अग्गो धाएति २ ता जहा कयौं तहा चिन्तीय जाव प्राइचेति । जेणं मम मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ रणीणेति जाव प्राइचंति, जेणं मम कणोएसं पुत्तं साओ गिहारो तहेव जाव प्राइचेति, जातियणं, इमा मम माया भदा सत्थवाही देवगुरु जणणी दुकर २ कारिया तं पियणं इच्छंति सयाओ गिहाओ णीणेत्ता मम अग्गो घाइत्ताए. तं सेय खलु मम एयपुरिसं गिहितए त्तिकटु उहाइये सेविय आगसि उप्पइए तेणेय खंभे आसादितं महया २ सदेणं कोलाहलेणं कए।॥१४॥ तसेशंसा भदा सत्यवाहिणो ते कोलाहल सद्द सोचा निसम्म जेणेव चुल्लणीपिय' समणोवासय एवं वयासी-किराणं पुत्ता! तुम्हं महया २ सदेणं कोलाहले कए ! ॥१५॥ तए से चुल्लणीपिया अम्मय' भदसत्थ वाहीणीय एवं वयासी एवं खलु अम्मो! ण याणामि केइ पुरिसे आसुरुत्ते। एगंमह निलप्पल जाब असिं ग्गहाय मम एवं बयासी हंभो चुल्लणी पिया ! अपत्थीया पत्थीया जइणं तुम्हं जाव ववरो विजसि तलेगां अहं तेणं पुरिसे एवं वुले समाणे अभीए जाब विह
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अनुकम्पाऽधिकारः
रामी । तपां से पुरिसे मम अभीय जाव विहरमाणं पासंति दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी हं भो उल्लणीप्पिया ! तहेब जाव आइचंति तत्तेणं अहं तं उज्जलं जाव अहियासेमि एवं तहेब जाव कणीयसं जाव अहियासेमि तरणं से पुरिसे मम अभिते जाव पासति २ ममं चउत्प एवं वयासी. हं भो चुल्लणी पिया ! पत्थीय पत्थीया जाव न भंजसि तोते जा जा इमा तव माता भद्दा गुरु देवे जाव ववरो विजासी । तत्तेणं अहं तेां पुरिसेां एवं वृत्ते समाणे अभी जाव विरामी तएां से पुरिसे दोच्चपि तच्चं पि मम एवं वयासी हं भो चुल्लगी पिया ० जइणं तुम्हं जाव ववरो विज्जसि । तणं तेणं देवेणं दोच्चपि ममं तच्चोपि एवं वृत्त समारोस्स अयमेया रुवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्ता होणं इमे पुरिसे अणारिये जाव णायरिय कम्माई समापणी जेणं मम जेट्टं पुत्तं सातो गिहातो तहेव कणियसं जाव इति तुझे वियणं इच्छति सातो गिहातो णीता मम गात्र घाएति तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिरतर तिकडु उडाइये सेविय आग से उत्पत्तिए मए विय खंभे साईए महया २ सदेणं कोलाहले कए ॥ १६ ॥ तएां सा भद्दा सत्य वाहीणी चुल्लणी पियं एवं वयासी नो खतु केइ पुरीसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीता व अघाएति, एस केइ पुरिसे तव उबसगं करोति. एसणं तुम्मेवि दरिस दिट्टे । तेणं तुम इदाणि भग्गव, अभ्ग नियमे, भग्गपोसहवासे, विहरसि
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तेणं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्त आलोएहि जाव पायचित्तं पडिवजाहिं ॥१७॥ तएणं चुल्लणी पिया समणोवासए अम्मगाए भदाए सत्यवाहीणिए तहत्ति एयमट्र विणएणं पडि सुणेइ २ ला तस्स ठाणसे आलोएइ जाव पडिवजइ ॥ १८ ॥
( उपासक दशा अ०३१
त तिवारे. त ते. चु० चुलणी पिया. स० श्रावक ने. पु० मध्यरात्रि ना काल, स० समा में विषे. ए. एक देवता. अं० समीप. पा० प्रकट हुवे ॥४॥ त तिवारे पछे. से० ते देवता. ए. एक म० मोटो. नो० नोलोत्पल कमल एहवो नीलो. जा० यावत. अ० खड्ग (तरवार) ग० ग्रही ने. चु० चुलणी पिया. स० श्रावक प्रते. ए० एम. व० बोल्यो. हं० अरे अहो चूलणी पिता ! ज० जिम कामदेवनी परे. ज० यावत जो तूं व्रत नहीं भांजसो. तो त० तिवारे पछे ते ताहरा. अ० हूं. अ० अाज जे० बड़ा. पु० पुत्र ने स ताहरा गि० घर थकी. णो० काढ सूं काढ़ी ने. त० तांहरे. प्रा० आगे. धा० मारिस. ए० एम० व० बोल्यो. त० तिवारे पछे. मं० मांसना. सो० शुला तीन करस्यूं . त. श्राधण. भ० भर सूं तेल तूं . क० कड़ाही में थाती अ० तेल सूं तलस्यूं . त० तांहरो गात्र. मं० मासे करी ने. सो० लोहिये करी ने. अ० छांटस्यूं. ज. जे भणी. तु. तू. 'प्रा० श्रात रोद्र ध्यान ने. ३० दश पडतो थको. अ० अवसर बिना अकाले. जीवितव्य थकी व० रहित होसी. ॥॥ त तिवार पर. से० से घूलणो पिता. स० श्रावक. ते० तेणे देवता ई ए० इम वु० कहे थके. अबीडयों नहीं जा० यावत वि० विचरे. त० तिवारे पछे. से० ते. देवता चु० चुलणीपिता. स० श्रावक ने निर्भय थको. जा० धावत. वि० विचरतां थको देख्यो. दो० वीजीवार. त. त्रिणवार. १० लारी पिना. स० श्रावक प्रते. ए. इस बोल्यो. हं. अरे अहो चूलणी पिता. तं० तिमज को सोते पिण. जा. यावत नि० निर्भय थको विचरे है ॥ ६॥ त तिवारे पछे. से० तेवता. स० श्रावक ने. अ० निर्भय 'थको. जा. यावत देखी ने. अ. अति रिसाणो. चूः लूलाणी पिता. स० श्रावक मा जे बड़ा पुत्र ने. स० पोता ना. गि० घर थकी. णि प्राणी ने ताहरे भागे. घा० मारो मारी ने.. त० तेहना मांसना. स० शुला. क० करी ने. प्रा. अाश्या तल न० भरी ने. क. कड़ाही माही. अ० तल्यो. चु० चूलणी पिया. स० श्रावक ना. गा शरीर ने. २० मांसे करी ने. लो० लोहिये करी ने. प्रा० सींच्यो. त० तिवारे पहरे से ते • चुलणी पिता. स० श्रावक. ते० ते वेदना. उ० उजली जा० यावतू.
० अहियासी । हामी त तिबारे पछे. से० ते देवता. चु० चूलणी पिता. स० श्रावक प्रते. हा मोहतो थको जा. यावत पा० देखी ने. दो दजी वार. त० तीजी वार. चु० च.
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अनुकम्पाऽधिकारः।
...RDER-
BANA
.
लणी पिता. स० श्रावक प्रते. ए० इम. व० बोल्यो. हं० अरे अहो. चु० चलणी पिया ! अ० कोई अर्थे नहीं तेह बस्तु ना प्रार्थनहार मरण ना बांधणहार. जा. यावत. न० नहीं भांजसी तो. त० तिवारे पछे ते तांहरो. अ० हूँ. अ० आज. म. विचलो. पु० पुत्र ने. सा० पोता ना घर थकी. णो० पाणी आणीने. त० तांहरे अागलि हणस्यूं ज० जिमज बड़ो बेटो ते. त० तिमज कह्यो देवता. त० तिमज. क० कीधो. ए० इम. क छोटा वेटा में पिण हणियो. जा० यावतू वेदना अहियासो. त० तिवारेपछे. से० ते. देवता. चूलणी पिता श्राबक ने. अ० अण बीहतो थको. जा० यावत. पा० देखी ने. च० चौथी वार. चु० चूलणी पिया प्रते. ए० इम. ५० शेल्यो. हं० अरे अहो चूलणी पिता. ! अ० अण प्रार्थना प्रार्थणहार. ज० जो तूं. जा० यावत. न नहीं भांगे तो. त• तिवारे पछे. अ० हूं अ० अाज जा० जे. इ० ए प्रत्यज भ० भद्रासार्थवाही. दे० देव समान, गु० गुरु समान. ज. माता. दादृष्कर २ करणो ते पामता दोहिलीतं. तेहनें. सा. पोताना घर थकी. नि० काढ़ी ने. त० तांहरे. प्रा० आगल. घाः हणसू. त. त्रिण. मं० मांस ना. सो० शूला. क० करी ने. प्रा० आधण तेल सूं. भ. कड़ाही माहीं घाती ने. अ० तेल सूं तली ने ताहरो. गा० गात्र. मं० मासे करी ने. सो० लोहिये करी ने. प्रा. छांट स्यूं ज० जे भणी. तु० तूं. अ० पात रुद्र ध्यान में व० वश पहुंतो थको अ वसर बिभा. चे. निश्चय करी ने. जी० जीवितव्य थकी. व० रहित हुस्ये. त० तिवारे पछे. से० ते. चु० चलणी पिया. ते० तेणे देवता. ए० इम. बु० कहे थके. जा० यावतू अबीहतो थको. जा० यावत् वि०विचरे छ. त तिवारे पछे. से० ते. दे. देवता. च० चलणी पिता ने. अनिर्भय थको. जा० यावत. वि० विचरतो थको. पा० देख्यो. पा० देखी ने. चू० चूलणी पिता. स० श्रावक प्रते. दो० दुजी वार तोजी वार. ए. इम बोल्यो. ह. अरे अहो चूलणी पिता. त० तिमज जा. याबत. जीवितव्य थको रहित होइस. त० तिवारे पछे त० ते. चू० चुलणी पिया. त० ते. दे० देवता. दो० दूजीबार. ए० इम. वु० कहे थके. इ० एहवा अध्यवसाय ऊपना. अ० आश्चर्यकारी. इ० ए पुरुष. अ. अनार्य छै. अ० अनार्य बुद्धिवालो छे. अनार्य कर्म. पा० पापकर्म ने. स० समाचरे है. जे जे भणी. म. माहरो. जे० बडो पुत्र. स० पोता ना. गि० घर थकी. नि० आणनें. म० माहरे पागले घा० हण्यो. जि० जिम. दे० देवता कीधा. त० तिमज. चि० चिन्तव्यो. जा० यावत. पा० सोच्यो. गा० गात्र जे जे भणी. म० माहरो. म० विचला पुत्र. स० पोताना घर थकी. जा. यावत सींच्यो. जे जे भणी. म. माहरे. क० लघुपुत्र ने. तः तिसज. जा० यावत. प्रा० सींच्यो. जी० जे भणी. इ० ए प्रत्यक्षः म० माहरी. मा० माता. भाहा नामे. स० सार्थवाही. देवगुरु समान. जे० माता ते. दु० दुष्कर दुष्कारिणी ते पामतां दाहिली है. तेहनें पिण इ० वांछे छै. स० पोताना. गि० घर थको. णी० श्राणी ने म० माहरे. प्रा० अागली. घा० घात करीस. तं ते भणी. से. भलो. ख० निश्चय करी. म. मुझ ने एक पुरुष ने प० पकड़बो इम चिन्तवी ने उ० धायो पकड़वा. से० ते तले देवता. श्रा० आकाशें. उ० उड्यो नासी गयो त तिवारे पछे. ख० यांभो. श्रा० ग्रह्यो झाली ने म० मोटे २. स० शब्दे करीने. को० कोलाहल शब्द कोधो. त. तिबारे पछे. सा० ते. भ० भन्दा सार्थवाही. तं० ते कोलाहल. स० शब्द सो० सांभली में निः
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भ्रम विध्वंसनम् ।
हियामें विचारो ने. जे० जिहां चलणी पिया ते तिहां उ० भावी प्रावी ने. चू चलणी पिता. स० श्रावक ने ए० इम० व० वोलो. कि० किम. पु० हे पुत्र ! तु० तुम्हे. मोटे २. स० शब्द करी ने को कोलाहल शब्द कीधो. तः तिवारे पछे. से० ते चूलणी पिया. अ० माता. भ० भद्रा सार्थवाहोप्राइम वोल्या. एक इम. ख. निश्चय करी ने अहे माता! हैन जाण. के. कोई पुरुष. श्रा० कोपायमान थको. ए० एक. म. मोटो. नो० नोलोत्पल कमल. एहवो. अ० खड्ग ते तरवार ते ग्रही ने म० मुक ने. ए० इम. व० बोल्यो. हं० अरे अहो चुलणी पिया ! अ० अण प्रार्थना. प. प्रार्थणहार मरण वांछणहार. ज. यावत. व० जीव काया थी रहित थाइस. त. तिवारे पछे. अ० हूँ. ते. तेणे दे० देवता. ए० इम. वुकहे थके. अ. निर्भय थको. जा० यावत बिचरवा लागो. ता तिवारे पड़े ते देवत मुझने. अ. निभ य रहित. जा. यावत. च विचारतो देख्यो देखोने न मुझने दो दुजी वार. त० तोजी वार. ए० इम. व० बोल्यो. हं. अरे अहो. चु० चुलणी पिता! त तिनज. जा. यावत. गा० गात्र शरीर में. अ०सींच्यो. तः तिवारे पछे. अ० है. अ अत्यन्त उज्वलो अाकरी. जा. यावत. अ. खमी वेदना. ए० इम. त तिमज. जा. यावत. क लघु चेटो यावतू खमी. तं० ते वेदना. अनंत उजलो. त० तिवारे पछे. से० ते देवता. म. मुझ में. च० चौथो वार. ए. इम. व० बोल्यो. ह. अरे अहो. च० चलणी पिता! अ० अण प्रार्थण रा प्राथणहार मरण वांछपहार. जा. यावत. न० नहीं भांजे तो. त तिवारे पछे. अ. है. अ. प्राज. जा० जन्म नी देणहारी. त० तांहरी माता. गु० गुल्णी समान तेहनें भद्रा साथवाही ने जा० यावत. जो जीवत थको. वि. रहित करस्यूं त तिवारे पछे. अ० हूं. दे. देवता इं. ए. इम. चु० वचन कहे थके. अ. निर्भय थको. जा० यावत. वि. विचार वा लागो त. तिवारे पछे से ते. दे. देवता. दु० दूजी वार. त० तीजी वार. ए० इम. वु० बोल्यो. ह. अरे अहो चूलणी पिता ! अ० अाज द० जीवीतव्य थकी रहित थाइस। तिवारे पछे. ते देवता दजी वार तीजी वार. ए० इम. ७० कहे थके. इ० एतावत रूप. अ० एहवा अध्यवसाय मनका उपनां. श्र० आश्चर्यकारी. इ. ए. पु० पुरुष. अ० अनार्थ. जा० यावत. पा० पापकर्म. स० समाचरे है। जे० जे भणी. म. माहरो. जे. ज्येष्ठ पुत्र. सा० पोताना घर थकी. त० तिमज क लघु पुत्र ने. जाव. प्राण ने यावत. प्रा० सीच्यो. तु० तूने पिण. इ० वांच्छै छै. सा. पोताना घर थकी. णी प्राणी. श्राणो ने म० माहेर. पा. पागले. घा० हणस्यै. तं० ते भणी. से. श्रेथ कल्याण नों कारण. ख० निश्चय करी में. म० सुझ ने. ए. ए पुरुष. गि० झालवो लि० इम विचारी ने. उ० उठी नं. ९ धायो. से० ते देवता. प्रा० अाकाश में विषे. उ० उड़ी गयो. म. म्हारे हाथ. खं० खंभो प्रायो. पकड़ी में म मोटे २ शब्दे करो ने. को० कोलाहल शब्द कोधो. त तिवारे पथे. सा. भद्रा सार्थवाही. चु० चुलणी पियाने. ए० इम. व० बोली. नो० नहीं ख० निमय करी ने.क. केई एक पुरुष त ताहरो बड़ो बेटो. जा० यावत् लघु बेटो सा० पोताना घर थकी. णो ग्राण्यो. पाणी ने. त• तांहरे अागल. घा० मारया. ए० ए कोई पुरुष. त० तुझ में उपसर्ग करी ने. ए० एहवे रूपे. तु तुझ में दर्शन करी में दिख्याड्यो चलाय गयो. त० तेणे कारणे. तु० तुम ना हिनवां भाग्यो वस, भाग्यो नियम, भाग्यो पोषो, पोषो प्रतादिक भांगो थको. वि० सं
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अनुकम्पाधिकारः ।
बिचरे है. तं० ते माटे हे पुत्र ! ए प्रत्यक्ष स्थानक श्रा० श्रालोवो. जा० यात पा० प्रायचित्त अंगीकार करो. त० तिवारे पछे से० ते० चू० चूलणी पिता स० श्रावक श्र० माता भद्रा नामे सार्थवाही नों बचन त० सत्य कीधो. ए० पूर्वोक्त अर्थ सांचो. वि० विनय सहितप० सांभल्यो साभली नें. त० ते. ठा० स्थानक नं. प्रा० श्रालोयो जा० यावत् प० प्रायश्चित्त अंगीकार कियो ।
१५६
अथ अठे पण कह्यो - चुलणी पिया श्रावक रा मुंहड़ा आगे देवता तीन पुत्रांना शूला किया पण त्यांने वचाया नहीं. माता ने बवावा उठ्यो ते पोषा नियम. व्रत. भांग्यो कह्यो ! तो उंदरादिक ने साधु किम बचावे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २८ बोल सम्पूर्ण |
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तथा साधु ने नावा में पाणी आवतो देखी ने बतावणो नहीं । ते पाह लिखिये छै ।
सेभिक्खू वा ( २ ) गावाए उत्तिगेणं उदयं आसमागां पेहाए उवरुवरिंणावं कजलावेमाणं पेहाए सो परं उव संकमित्तु एवं वूया घाउंसतो गाहावइ एयं से खावाए, उदयं उल्लिंगेणं आसवति उवरु वरिंवा पावाकज्जलावेति एतप्पगारं मणंवा वायं वा यो पुरनो कहुं विहरेजा अभ्पुस्सुए अहिले एति गए अप्पा विपोसेज समाहीए. । तो संजयामेव यात्रा संतारिमे उदए आहारियं रियेजा.
( श्राचाराङ्ग श्रु० २ ० ३ ० १ )
से० साधु साध्वी गा० नावाने विषे. उ० छिद्र करी. उ० पाणी. श्र० श्राश्रवती श्रावतो. पे० देखी ने तथा उ० उपरे घणो पाणी सू नावा भराती. पे० देखी ने. गो० नहीं प गृहस्थ में. तेहनें समीपे आावी. ए० एहबां. ० कहे. प्रा० ग्रहो प्रायुषवन्त गृहस्थ ! ए० ए.
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भ्रम विध्यसनम् ।
ते तांहरी. णा नावाने विषे. उ० उदक. उछिद्रे करी. आ० अावे दै. उ० उपरे २ घणो २
आवते. णा नावाक. भराइंछै. ए. ए तथा प्रकार ए भाव सहित. म० मन तथा वा० वचन एहवा. णो० नहीं. पु० पागल करी. वि० विहरे नहीं. एतावता मन माहि एहवो भाव न चिन्तवै. जो ए गृहस्थ ने पायो सातो नावा कहूं प्रथश वचने करी को नहीं जो ए नावा तांहरी पाणी ई भरिये छै. एहयों न आहे. किन्तु. अ. अविमनस्क एतले स्यूं भाव शरीर उपकरण ने विषे ममता श्रण करतो. तथा अ० संपम थको जेह नी लेश्या बाहिर नथी निकलती, एतावता संयम में वर्ते. एकान्त गरा राग रहित. प्रा० अात्मा करवो इण परे. समाधि सहित. त० तिवारे, साध, गा० नावाने विष रोयको शुभ अनुष्ठान में विपं प्रवत्त ।
अथ अठे हो -- जे पाणी नाया में आवे धणा मनुष्य नावा में डुवता देखे तो पिज साधु में मन वचन करी पिण बतावणो नहीं। जे असंयती रो जीवणो बांछयां धर्म हुवे तो नावा में पाणी आवतो देखी साधु क्यों न बतावे । केतला एक करे -जे लाय लाग्यां ते घर रा किमाड़ उगाडणा तथा गाड़ा हेठे बालक आवे तो साधु ने उठाय लेणो, इम कहे। तेहनो उत्तर–जो लाय लाग्यो ढाढा बाहिरे काढणा तो नावा में पाणी आवे ते क्यूं न बतावणो। इहां तो श्रीं घीतराग देव चौड़े वो छै। जे पाणी में डूबतो देखी न वचावणो। तो अग्नि थकी किम बचावणी। इम असंयती रो जीवणो बांच्या धर्म हुवे, तो नमी ऋषि नगरी वलती देखी ने साहमो क्यूं न जोयो। तथा समुद्र पाली चोर ने मारतों देखी क्यू न छोड़ायो। तथा १०० श्रावकां रो पेट दुखे साधु हाथ फेरे तो सौ १०० बचे। तो हाथ क्यूं न फेरे, तथा लटां गजायां कातरादिक ढांढा रा पग हेठे भरता देखी लाधु क्यूं न वचावे। जो मिनकी ने नशाय उदरा ने बचाये तो सौ १०० श्रावका में तथा लटां गजायां आदि ने क्यूं न बचावे. तथा दशवैकालिक अ० ७ गा० ५१ कधो. ए जीव नों उपद्रव मिटे इसी बांछा पिण न करवी. तों उदरादिक नों उपद्रव किम मेटणो। तथा दशवकालिक अ०७ गा० ५० कह्यो देवता मनुष्य तिसंच माहो माही लड़े तो हार जीत बांछणी नथी। तो मिनकी नी हार उदरानी जीत किम वांछणी। वलो किन हार जीत तेहनी हाथां तूं करणी। तथा केई कहे-पक्षी माला ( घोंसला ) थी साधु रे को आय पडयो तो तेहनें बवावग में पाछो माला में साधु ने मेलणो, इम कहे नेहनो उत्तर-जो पक्षी ने बचावणो तो तपरवी श्रावक साधु रे स्थानक कायोत्सन ( ध्यान ) में तांगी (मृगी) थी हेठो पझ्यो गावड़ी ( गर्दन ) भांगती देखी साधु ते शावक में बैठो क्यों
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अनुकंपाऽधिकारः।
न करें। तथा सौ १०० श्रावकां रे पेट ऊपर हाथ फेरी क्यूं न बचावे। पक्षी उदरादिक असंयती ने बचावणा तो श्रावका ने क्यं न बचावणा। जो असंयम जीवितव्य बांछयां धर्म हुवे तो साधु ने ओहीज उपाय सीखणी। डाकण साकण भूतादिक काढणा सर्पादिक ना ज़हर उतारणा। मंत्रादिक सीखणा इत्यादिक अनेक सावध कार्य करणा। त्यारे लेखे पिण ए धर्म नहीं ते भणी साधु ए सर्व कार्य न करे। निशीथ उ० १३ गृहस्थ नी रक्षा निमित्त भूती कर्म कियाँ प्रायश्चित कह्यो छै। ते भणी असंयती रो जीवणो बांछयां धर्म नहीं। ठाम २ सूत्र में असंयम जीवितव्य बांछणो वो छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २६ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक कहे छ, अनुकम्पा सावद्य-निरवद्य किहां कही है। तथा अनुकम्पा कियां प्रायश्चित किहां कह्यो छ। ते ऊपर सूत्र न्याय कहे है।
जे भिक्खू ® कोलुण पडियाए अण्णयरियं तस पाण जायं तेण फासएणवा मुंजपासएणवा कटुपासएणवा चम्मपासएणवा. वेत्तपासएणवा. रज्जुपासएणवा. सुत्त. पासएणवा. बंधइ वंधतंवा साइजइ. ॥१॥ जे भिकरवू वंधेल्लयंवा मुयइ मुयंतंवा साइज्जइ ॥ २ ॥
(निशीथ उ० १२ वो०१-२) ज. जे कोई. भि० साधु साध्वी. को अनुकम्पा. १० निमितं . अ० अनेरोई. त० बस प्राणि जातिधे इन्द्रियादिक नें. त० डाभादिक नी डोरी करो. क० लकड़ादिक नो डोरी करी.
* कई एक अज्ञातो पुरुष अर्थ के मर्मको न समझते हुए इस "कोलुण" शब्द का अर्थ "दोन भाव" करते हैं। उन दिवान्ध पुरुषों के अभिज्ञान के लिये "कोलुण" शब्दका "अनुकम्पा" अर्थ बतलानेवाली श्री "जिनदास" गणिकृत "लघु चूर्णी" लिखी जाती है। "भिक्ख पुग्ध भणिउ कोलणंति-कारुण्यं अनुकम्पा प्रतिज्ञया इत्यर्थः । सन्तीति वसाः ते च सेजोवायु द्वीन्द्रियादयश्च प्राणिनस्त्रसाः। एत्थ तेश्रो वाहि णाहिकारो जाइ गहणश्रो विसिम गोजाई" इति । “संशोधक'
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१६२
भ्रम विध्वंसनम् ।
मु० मुंज नी डोरी करी. क० लकड़ादिक नी डोरी करो. च० चमडेरी डोरी करी नें. वे० वेतनी छालनी डोरी करी. २० रासडी ने पासे करी. सू० सूत ने पासे करी. ० वांधता ने सा० अनुमोदे. जे० जे कोई. भि० साधु साध्वी. व जीव ने मु= म्रुके. मुः मूकता ने अनुमोदे। तो चौमासी प्रायश्चित
एतले पासे करी नं. वं बांधेएतले पासे करी बांध्या स
तिण सूं प्रायश्चित्त को
छ
गृहस्थ करतो हुवे. तिग
अने निरवद्य अनुकम्पा
हिंसा मूंठ चोरी परिग्रह रा
अथ इहाँ को "कोलुण पडियाए” कहितां अनुकम्पा निमित्ते तस जीव बांधे बांधता में अनुमोदे भलो जाणे तो चौमासी दंड कह्यो । अनें बांध्या जीव ने छोड़े छोड़ता ने अनुमोदे भलो जाणे तो पिण चौमासी दंड कह्यो । बांधे छोड़े तिण नें सरोखो प्रायश्चित को छै । अनें बाँध्या जीव छोड़ता में भलो जाण्यां ई चौमास प्रायश्चित आवे, तो जे पुण्य कहे- तिण भलो जायो के न जाण्यो । तो साम्प्रत आज्ञा बाहिर ली सावद्य अनुकम्पा है । 1 ए साधु अनुकम्पा करे तो दंड कह्यो । अनें कोई साधु अनुमोदे भलो जाणे तो पिण दंड आवे छे। तो दंड नहीं । जे गृहस्थ सामायक पोषा करे. त्याग करे, निरवद्य कार्य छै । पहनी साधु अनुमोदना करे छै । आज्ञा पिण देवे छे। अने जोवां ने बांधे छोड़े ते अनुकम्पा सावध है । तिण लूं साधु ने अनुमोद्यां दंड आवे है । जेतला २ निरवद्य कार्य, तिण री अनुमोदना कियां धर्म हैं परं दंड नहीं । अने जेतला २ सावय कार्य छै तेहनी अनुमोदना कियां दंड छै पिण धर्म नहीं । ते माये असंयती रो जीवणो वांछे ते सावध अनुकम्पा छे. तिण में धर्म नहीं । इहां केतला एक अभिग्रहिक मिथ्यात्व नाणी अयुक्ति लगाव इम करे । एतो तस जीव ने साधु बाँधे तथा छोड़े तो दंड । अनें साधु बांधतो छोड़ो हुवे तिण नें अनुमोद्यां दंड आवे | पिण कोई गृहस्थ बंधन छोड़तो हुवे तिण ने अनुमोद्यां दंड नहीं. तिण में तो धर्म है इम कहे । तेहनो उत्तर- ए. तो त्रस जोव बांध्यां तथा छोड्यां साधु नें तो पहिलां इज दंड कह्यो । ते माठे साधु तो पोते बांधे तथा छोड़े इज नहीं । अनें जे बस जीव नें बांधे छोडे ते साधु नहीं । वीतराग नी आज्ञा लोपी वंधण छोड़े तिण नें साधु न कहिणो । ते असाधु छै, गृहस्थ तुल्य छे। अने गृहस्थ बंध्या जीव में छोडे तेहनें अनुमोद्यां दंड छै । I जे कहे साधु वंधण छोड़े तिण नें अनुमोदणो नहीं, अने गृहस्थ छोडे तो अनुमोदणो, इम कहे तिण रे लेखे घगा वोल इमहिज कहिणा पड़सी क्षिण वार में १२ उये इज इम को छै । ते पाठ लिखिये है।
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अनुकंपाऽधिकारः ।
जे भिक्खू अभिक्खणं २ पच्चक्खाणं भंजइ भजतंत्रा जे भिक्खू परित्तकाय संजुत्तं आहार
साइजइ ॥ ३ ॥ आहारे आहारतं वा साइज्जइ ॥ ४ ॥
(निशीथ १२ उ० ३-४ बोल )
२६३
जे जे कोई साधु साध्वी. प्र० वारंवार प० नौकारसीयादिक पचखाण ने भ० भांजे भ० भांजता ने. सा० अनुमोदे ३, जे० जे कोई साधु साध्वी. प० प्रत्येक वनस्पतिकाय. सं० संयुक्त. ० अशनादिक ४ आहार. ग्रा० आहारे. आ० आहारताने सा० अनुमोदे। तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त.
अथ अठे कह्यो । जे साधु पचखाण भांगे तो दंड अनें पचखाण भांगता अनुमोदे तो दंड कह्यो । 'तिरे लेखे साधु पचखाण भांगतो हुवे तिण नें अनुमोदनों नहीं । अनें गृहस्थ पचखाण भांगतो हुवे तिण में अनुमोद्यां दंड नहीं कहिणो । वली को प्रत्येक वनस्पति संयुक्त आहार भोगवे भोगवतां ने अनुमोदे तो दंड तो तिरे लेखे प्रत्येक वनस्पति संयुक्त आहार साधु करतो हुवे तिण अनुमाँ दंड-अनें गृहस्थ ते होज आहार करे तिण नें अनुमोद्यां दंड नहीं । जो गृहस्थ त्रस जीव बांध्या जीव छोड़े तिण नें अनुमोद्यां धर्म कहे. तो तिणरे लेखे गृहस्थ पचखाण भांगे ते पिण अनुमोद्यां धर्म कहिणो । वली गृहस्थ प्रत्येक वनस्पति संयुक्त आहार करे ते पिण अनुमोद्यां धर्म कहिणो । इण लेखे “निशीथ में एहवा अनेक पाठ का है । ते मूलो भोगवता नें अनुमोद्यां दंड. कुतूहल करता अनुमोद्यां दंड इत्यादिक घणा सावद्य कार्य अनुमोद्यां दंड कह्यो । तो तिण रे लेखे सर्व सावद्य कार्य साधु करे तो अनुमोदनों नहीं । अनें गृहस्थ मूलो खाय कुतूहल करे अनें सावद्य कार्य गृहस्थ करे ते अनुमोद्यां तिण रे लेखे धर्म कहिणो । अर्ने जो गृहस्थ पचखाण भांगे ते अनुमोद्यां धर्म नहीं । वनस्पति संयुक्त आहार करे ते आहारे अनुमोद्यां धर्म नहीं तो गृहस्थ अनुकम्पा निमित्ते तस जीव नें छोड़े तिण नें पिण अनुमोद्या धर्म नहीं कहिणो । ए तो सर्व बोल सरीखा है । जो एक बोल में धर्म थापे तो सर्व बोलां में धर्म थापणो पड़े। ए तो वीतराग नों न्यायमार्ग छै । सरल कपटाई रहित छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
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इति ३० बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
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तथा वली केतला एक “कोलुण वड़ियाए” पाठ रो अर्थ विपरीत करे छै। ते कहे "कोलुण वडिया” कहितां कुतूहल निमित्ते नस जीव में बांधे छोड़े तो प्रायश्चित्त कह्यो। इस ऊँधो अर्थ करे ते शब्दार्थ ना अजाण छै । ए "कोलुण" शब्द नो अर्थ तो करुणा हुवे। पिण कुतूहल तो हुवे नहीं “कोउहल पड़ियाए" कह्यो हुवे तो “कुतूहल” हुवे । ते पाठ प्रते लिखिये छ ।
जे भिक्खू कोऊहल वडियाए अण्णयरं तसपाण जाति तण पासएणवा जाव सुत्त पासएणवा वंधति वंधंतंवा साइज्जइ ॥ १॥ जे भिक्खू कोऊहल वड़ियाए वंधेल्लयंवा मुयति मुयंतंवा साइज्जइ ॥ २॥
( निशीथ उ. १७ बो०१-२ ।
जे० जै कोई साधु साध्वी. को कुतूहल में निमित्त, अनेरो कोईक ब्रस प्राणी नी जाति ने. त० तृण ने. पा० पासे करी ने. जा० ज्यां लगे सूत्र ने पासे करी ने. वं० वांधे. वं० वांधता ने अनुमोदे. तो प्रायश्चित्त श्रावे ॥१॥ जे के कोई भ० साधु साध्वी. को कुतूहल निमित्ते वांध्या ने मूके छोडे. मूकता में अनुमोदे। तो पूर्ववत प्रायश्चित्त,
अथ अठे को-कुतूहल निमित्त लस जीव ने बांधे बांधता ने अनुमोदे तो दंसु-छोडे छोड़ता ने अनुमोदे तो दंछ कह्यो। इहां “कोऊहल” कहितां कुतूहल कहो. पिण “कोलुण" पाठ नहीं। अने १२ में उद्देश्ये “कोलुण" ते करुणा अनुकम्पा कही। पिण कोऊहल पाठ नहीं। ए विहूं पाठां में घणो फेर छै, ते विचारि जोईजो। जिम सत्तरह १७ में उद्देश्ये कुतूहल निमित्त त्रस जीवां ने बांधे छोडे वाधतां छोड़ता ने अनुमोद्यां प्रायश्चित्त कह्यो। तिम बारमें १२ उद्देश्ये करुणा अनुकम्पा निमित्त बांध्यां छोड्यां दंड-अनें बांधता छोड़ता ने अनुमोद्यां दंड कह्यो। जे कहे अनुकम्पा निमित्त साधु त्रस जीव में वांधे छोडे नहीं। अनें साधु बांधतो तथा छोड़तो हुवे तेहने अनुमोदनो नहीं। पिण गृहस्थ अनुकम्पा निमित्त त्रस जीव बांधे तथा छोड़े तेहने अनुमोद्यां प्रायश्चित्त नहीं ते गृहस्थ में अनुमोद्यां धर्म छै। ते माटे गृहस्थ में अनुमोदनो. इम कहे तो सतरमे १७ उद्देश्ये कह्यो । कुतूहल निमित्त साधु त्रस जीव में बांधे छोड़े नहीं ।
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अनुकंपाऽधिकारः।
भनें साधु बांधतो छोड़तो हुवे तेहनें अनुमोदनों नहीं। पिण गृहस्थ कुतूहल निमित्त बस जीव में बांधे छोडे तेहने अनुमोद्यां तिण रे लेखे धर्म कहिणो। अनें कुतूहल निमित्त गृहस्थ त्रस छोडे ते अनुमोद्यां धर्म नहीं तो अनुकम्पा निमित्त गृहस्थ त्रस छोडे ते पिण अनुमोद्यां धर्म नहीं। ए तो दोनूं पाठ सरीखा छै । तिहां अनुकम्पा निमित्त अनें इहां कुतूहल निमित्त एतलो फेर छै। और एक सरीखो छै। कुतूहल निमित्त त्रस जीय बांध्यां छोड्या पिण चौमासी प्रायश्चित्त कह्यो। अनें अनुकम्पा निमित्त त्रस जीव बांध्यां छोड्यां पिण चौमासी दंड कह्यो छै। ए बिहूं बोल पाठ में कह्या छै। ते माटे बिहूं कार्य सावद्य छै । तिण में धर्म नहीं। डाहा हुये तो विचारि जोइजो।
इति ३१ बोल सम्पूर्ण।
तथा केतला एक कहे-“कोलुण पडियाए" कहितां आजीविका निमित्त श्रस जीव ने बांध्यां छोड्यां प्रायश्चित कह्यो। पिण “कोलुण” नाम अनुकम्पा रो नहीं. इम कहे ते पिण विरुद्ध छ। तेहनों उत्तर सूत्रे करि कहे छ।
आयाण मेयं भिक्षुस्स गाहावति कुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसए वा विसूइयावा छड्डीवाणं उब्बाहिज्जा अण्णतरे वा से दुश्खे रोयान्तके समुप्पज्जेज्जा असंजए कलुण वडियाए तं भिक्षुस्स गातं तेलेण वा घएणवा णवणीतेण वा वसाएवा अभंगेजवा मक्खिजवा सिणा शेणवा। कक्केण वा लोदेणवा वणणेणवा चुन्नेणवा पउमेणवा आघंसेजवा पघंसेजवा उज्वेलेजवा उवटेजवा सीयोदका वियडेणवा उसीणोदक वियडेणवा उच्छोलेजवापच्छो लेजवा पहोएजवा ।
(श्रावारांग श्रु०२ अ०२ उ१)
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भ्रम विध्वंसनम् ।
० साधु ने ए०यादान कर्म बंधवा नो कारण ते साधु ने गा० एहवा गृहस्थ ना. कु० कुटुम्बेकरी सहित सं० वसता. भोजनादि क्रिया निःशंक थाइ संकतो भोजन करे तथा लघु नीत बड़ी नीत नी श्रावाधा सहित रहे. तिण कारणे. अ० (अलसक) हस्त पग नों स्तंभ अपने डील सोजो हुई. वि० (विसूचिका ) ऊपजे छ छर्दि (उचक) इत्यादिक उ० व्याधि साधु ने पीडे तिचारं श्र० अनेरो. वली. से ० ते साधु दु० दु:ख. रो० ज्वरादिक. ग्रा० आतंक तत्काल प्राण नों हरणहार शूलादिक. स० उपजे एहवा जे साधु नें शरीर रोग आतंक उपजे तो जाली. भ० संयतो गृहस्थ. क० करुणा अनुकम्पा प० अर्थे ते० ते. भिः साधु नो गाव शरीर. ते तेले करी घ घृते करी. ण० माखणे करी. व० वसाई करी. करे. सि० सुगंध द्रव्य समुदाय करी करे. क० पीठी. लो० लोध. वर्ण व० चूर्ण ०घते. प० विशेष घो. उ० उतारे. उ० विशेष शुद्ध करे. सो० ठंडा पाणी गरम पाणी चित्ते करी, उ० धोवे. व वारम्वार धोवे. प० साफ करे ।
२६६
प्र० मर्दन
पद्म े करी
चित्ते करी.
प०
अथ अठे को-साधु अकल्पनीक जगां रह्यां गृहस्थ साधु नी अनुकम्पा करुणा अर्थे साधु ने तैलादिक करी मर्दन करे । ए दोष उपजे ते मा
हवे उपाश्रये रहियो नहीं । इहां “कलुण वडियाए" कहितां करुणा अनुकम्पा रे अर्थे इम अर्थ कियो । पिण आजीविका निमित्ते इम न कह्यो । तिम निशीथ उ० १२ "कोण पडियार" ते करुणा अनुकम्पा, अर्थे इम अर्थ है । अनें जे कोण शब्द रो अर्थ अनेक कुयुक्ति लगावी नें विपरीत करे पिण कोलुण रो अर्थ अनुकम्पा न करे I तो इहां पिण कलुण पडियाए कह्यो ते साधुरी करुणा अनुकम्पा रे अर्थे तिग लेखे नहीं कहिवो । अनें जो इहां कलुण पडियाए रो अर्थ करुणा अनुकम्पा थापसी तो तेहनें कोलुण पड़ियाए निशीथ में कह्यो ति ये अर्थ पिण करुणा अनुकम्पा कहिणो पड़सी । अनें इहां तो प्रत्यक्ष करुणा अनुकम्पा करी साधु ने शरीरे तैलादि मर्दन करे. ते माटे करुणा नाम अनुकम्पा जो कहीजे । पिण आजीविका से नहीं । तिवारे कोई कहे "कलुण पडियाए" आचारांग में कह्यो । तेहनों अर्थ तो अनुकम्पा करुणा हुवे । पिण निशीथ में "कोलुण पडियाए" को - तेहनों अर्थ अनुकम्पा करुणा किम होवे । तेनो उत्तर-ए कोल्लुण रो अनें कलुण रो अर्थ एक करुणा इज छै । पिण अर्थ में फेर नहीं। जिन निशीथ उ० १२ "कोलुण पड़ियाए' से चूर्णी में अनुकम्पा करुणा इज अर्थ कियो है । अनें आचारांग श्रु० २ अ० २ ० १ “कलुण पडियाए" रो अर्थ टीका में करुणा अनुकम्पा इज कियो छै । ए विहूं पाठनों अर्थ ए करुणा
इ
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अनुकंपाऽधिकार।
अनुकम्पाइज छै, सरीखो छै' पिण अनेरो नहीं। तिवारे कोई कहे ए करुणा २ तो सर्व खोटी छै। जिम कलुण रस कह्यो ते सावध छै तिम करुणा पिण सावध छ। तेहनों उत्तर-साधु ने शरीरे मर्दन करे तिहाँ पिण "कलुण पड़ियाए" कहो तो ए करुणा ने स्यूं कहीजे। तिहां टीकाकार पिण इम कह्यो। "कारुण्ये न भक्तयाया" करुणा ने भावे करी तथा भक्ति करी इम कयो। तो ए करुणा पिण भाज्ञा वारे तथा ए भक्ति पिण आज्ञा बाहिरे छ। तेहनी साधु आज्ञा न देव ते माटे। अनें करुणा में एकान्त खोटो कहे तिण रे लेखे साधु शरीरे साता करे तेह करुणा ईकरी तिण में पिण धर्म न कहिणो। अने जे धर्म कहे तो तिण रे लेखे इज “कलुण पड़ियाए" पाठ कह्यो। ते कलुण रस न हुवे। करुणा नाम अनुकम्पा नो थयो। तथा प्रश्नव्याकरण अ० १ हिंसा में "निकलुणों" ते करुणा रहित कही छै। जे करुणा ने एकान्त खोटी इज कहे तो हिंसा ने करुणा रहित क्यूं कही। अनें जिणऋषि रेणा देवी रे साहमो जोयो ते पिण रेणा देवी नी करुणाई करी। ए करुणा सावध छै । ए करुणा अनुकम्पा सावध निरवद्य जुदी छै। ते माटे बस जीव नी करुणा अनुकम्पा करी साधु बंधन बांधे छोडे तथा बांधता छोड़ता ने अनुमोद्यां प्रायश्चित्त कह्यो। ते पिण :अनुकम्पा सावध छै। ते माटे तेहनों प्रायश्चित्त को छै । निरवद्य नों तो प्रायश्चित्त आवे नहीं। साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३२ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली अनुकम्पा तो घणे ठिकाणे कही छै। जिहां वीतराग देव आज्ञा देवे से निरवद्य छ। अनें आज्ञा न देवे ते सावध छै। ते अनुकम्पा ओलखवा ने सूत्र पाठ कहे छै।
ततेणं से हरिण गमेसी देवो सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणट्टयाए विणिहाय मावणे दारए करयल संपुल
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भ्रम विध्वंसनम् । गिरहइ २ त्ता तव अंतियं साहरित्ति तव अंतिए साहरित्ता । तं समयं चणं तुम्हें पि नवग्रहं मासाणं सुकुमालं दारए पसवसि जे वियणं देवाण प्पियाणं तव पुत्ता ते विय तव अंति. यातो करयल पुडे गिराहइ २ त्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरति ।
( अन्तगड-तृतीय वा अष्ठमाध्ययन)
त तिवार पर्छ. से० ते. हरिण गमेवी देवता. सु० सुलभा गाथापतिणीनी. पर अनुकम्पा ने दया ने अर्थे वि० मुश्रा बालक ने विगि० ग्रहे ग्रही ने त. तांहरे असमोपे सा मेले। तंतिवारे पडे. तु० ते नव मास पश्चात सुकुमार पुत्र प्रसव्या. तांहरे समीप सू तिण पुत्रां ने हरी ने करतल ने विषे ग्रहण करी ने गाथा पति नी सुलसारे कमे मेल्या।
अथ यहां कह्यो-सुलसानी अनुकम्पा ने अर्थे देवकी पासे सुलसाना मुआ बालक मेल्या। देवकी ना पुत्र सुलसा पासे मेल्या ए पिण अनुकम्पा कही ए अनुकम्पा आज्ञा माहे के बाहिरे सावध के निरवध छै। ए तो कार्य प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे सावध छै। ते कार्य नी देवता ना मन में उपनी जे ए दुःखिनी छै तो एहनों ए कार्य करी बुःख मेट्रं। ए परिणाम रूप अनुकम्पा पिण सावध छै। डाहा हुवे तो बिचारि जोइजो।
इति ३३ बोल सम्पूर्ण।
तथा श्री कृष्ण जी डौकरानी अनुकम्पा कोधी ते पाठ लिखिये हैं।
तएणं से किण्ह वासुदेवे तस्स परिसस्स अनुकम्प ट्राए हत्थि खंध वर गते चेव एगं इहिं गिराहइ २ त्ता वहिया रययहाओ अन्तो अणुप्प विसंति ॥ ७४ ॥
( अन्तगढ़ वग ३ अ.
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अनुकम्पाऽधिकारः।
तंतिबारे पछे. से० ते. कि० कृष्ण बासुदेव. त० ते पुरुष नी. अ. अनुकम्पा प्राणी में. ह. हाथी ना कंधा ऊपरज थकी. ए० एक ईट प्रते. गि० ग्रहे ग्रही नी. व० वाहिरे. २० राजमार्ग सं. अं० घर में विषे. अ. प्रवेश कीधी (मूकी)
अथ इहां कृष्णजी डोकरानी अनुकम्पा करी हस्ति स्कंध बैठा इंट उपाड़ी तिण रे घरे मूकी ए अनुकम्पा आज्ञा में के बाहिरे सावध छै के निरवद्य छै। दाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३४ बोल सम्पूर्ण।
तथा यक्ष हरिकेशी मुनि नी अनुकम्पा कीधी ते पाठ लिखिये छ । जक्खो तहिं तिंदुग रुक्खवासी,
अणुकंपो तस्स महा मुणिस्त । पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, ___ इमाइं वयणाइ मुदा हरित्था ॥८॥
(उत्तराध्ययन ०१२ गा०६)
ज० यक्ष. त० तेणे अवसर. ति० तिन्दुक. २० वृक्ष, वासी. अ० अनुकम्पा नूं करणहार. भगवन्त. ते हरिकेशी महा मुनीश्वर ना. प. प्रवेश करी शरीर में विषे. इ. ए. व. पचन. बोल्यो.
__ अथ इहां हरिकेशी मुनि नी अनुकम्पा करी यक्षे विप्रां ने ताड्या ऊँधी पाड्या. ए अनुकम्पा सावध छै के निरवद्य छै। आज्ञा में छै के आज्ञा बाहिर छ । प तो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३५ बोल सम्पूर्ण।
२२
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१७०
भ्रम विध्वंसनम् ।
वली धारणी राणी गर्भ नो अनुकम्पाकीधी ते पाठ लिखिये छै ।
तएणं सा धारिणी देवी तंसि अकाल दोहलंसि विणियंसि सम्माणिय दोहला तस्स गभस्स अणुकम्पणटाए. जयं चिट्ठइ जयं आसइ जयं सुवइ आहारं पियणं आहारे माणी-गाइतित्तं णाय कडुयं णाइ कसायं णाय अंविलं णाइ महुरं जंतस्स गन्भस्स हियं मियं पत्थं तं देसेय कालेय आहारं आहारे माणी ।
(ज्ञाता अ०१
त० तिवारे. सा० ते. धा० धारणी देवी. त तिण. अ० अकाल मेघ नों. दो० दोहल पूर्ण हुयां पहे. त० तिण. ग० गर्भ नी. अ० अनुकम्पा ने अर्थे. ज० यता पूर्वक. चि० खड़ी हुवे. ज० यत्रा पूर्वक. प्रा० बैठे. ज० यत्ना पूर्वक सु० सुवे. प्रा० आहार विऐ. पिण पाहार. ण नहीं करे अति तीखो. अति कटु. अति कषाय. अति अम्बट. अति मधर. ज. जे. तः ते. गः गर्भ में, हि हितकारी पथ्य. दे० देश कालानुसार थाय. अ० ते आहार को।
अथ इहां धारणी राणी गर्भ नी अनुकम्पा करी मन गमता आहार जीग्या ए अनुकम्पा सावध छै के निरवध छै। ए तो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइओ।
इति ३६ बोल सम्पूर्ण।
वली अभयकुमार नी अनुकम्पा करी देवता मेह बरसायो ते पाठ लिखिये
अभयकुमार मणुकंपमाणो देवो युधभव जणिय रणेह पिय बहुमाण जाय सोयंतओ० !
( ज्ञाता श्र०१)
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अनुकम्पाऽधिकारः
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"
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अ० अभयकुमार प्रते अनुकम्पा करतो जे तेह मित्र ने त्रिण उपवास रूप कष्ट छै एहबो चिन्तवतो थको. पु० पूर्व भव ( जन्म ) रो. ज० उत्पन्न हुवो थको. णे० स्नेह तथा पि० प्रीति बहुमान वालो देवता. जा० गयो छै शोक जेहनों.
अथ इहां अभयकुमार नी अनुकम्पा करी देवता मेह बरसायो ए पिण अनुकम्पा कही. ते सावध छै के निरवदय छै। ए तो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिर छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३७ बोल सम्पूर्ण।
तथा जिनऋषि रयणा देवी री अनुकम्पा कीधी ते पाठ लिखिये छ ।
ततेणं जिण रक्खिा समुप्पण्ण कलुण भावं मच्चु गलत्थलणो ल्लिय मई अवयक्ख तं तहेव जक्खेओ से लए
ओहिणा जाणिउण सणियं २ उव्विहइ २ णियग पिटाहि विगयसड्ढे ॥४१॥
(ज्ञाता अ०६)
त० तिवारे. जि० जिण ऋषि ने. स० उपनो करुणा भाव ते देवी ऊपर. ह. मरण ना मुख में पड्यो थको. पो० लोलुपी थई छ मति जेहनी. एहवा जिन ऋषि में देखतो थको त. ते. ज० यक्ष. से० सेलक. प्रो० अवधि ज्ञाने करी जा० जाणी ने स० धीरे २ उ०:नीचे उतारयो णि आपनी पीठ सेती. वि० गत श्रद्धावन्त एहवा ने.
' अथ इहां रयणा देवी री अनुकम्पा करी जिनऋषि साहमो जोयो ए पिण अनुकम्पा कही ए अनुकम्पा मोह कर्म रा उदय थी के मोह कर्म रा क्षयोपशम थी। ए अनुकम्पा सावदय छै के निरवदद्य छै। आज्ञा में छै के:आज्ञा बाहिरे छ। विवेक लोचने करी विचारि जोइजो। ए पाछे कही ते अनुकम्पा आज्ञा बाहिर छ । मोह कर्म रा उदय थी हियो कम्पायमान हुवे ते माटे ए अनुकम्पा सावदय छै। तिवारे कोई कहे-रयणा देवी री करुणा करी जिन ऋषि साहमों जोयो ते तो
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१७२
भ्रम विध्वंसनम्।
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मोह छै। पिण अनुकम्पा नहीं तेहनो उत्तर अनुकम्पा रा अनेक नाम छै । अनुकम्पा. करुणा. दया. कृपा. कोलुण. कलुण, इत्यादिक । ते सावदद्य निरवदय बेहूं छै। अनें रयणा देवी री करुणा जिन ऋषि कीधी तिण ने मोह कहे तो ए पाछे कृष्णादिक अनुकम्पा कोधी ते पिण मोह छै । डाहा हुवे तो बिचारि जोइजो ।
इति ३८ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली कोई कहें करुणा नाम तो मोह नो छै अने अनुकम्पा नाम धर्म नो छै। पिण करुणा नाम दया रों तथा धर्म नों नहीं। तत्रोत्तर प्रश्नव्याकरण प्रथम आश्रय द्वारे हिंसा में ओलखाई तिहां इम कह्यो। ए पहिलो आश्रय द्वार केहवो छै। तेहनों वर्णन सूत्र द्वारा लिखिये छ ।
पाण रहो नाम एस निच्चं जिणेहिं भणिो पावो चंडो रुद्दो खुदो साहसिओ अणारिओ निम्घिणो णिस्संसो महत्भत्रो पइभओ अतिभओ बीहणओ तासणो अणजो उव्वेणउय गिरयवयक्खो निद्धम्मो णिप्पिवासो णिकलुणो णिरय वासगमण निधणो मोह मह भय पयट्टो मरण वेसणमो पढमं अहम्मदारं ।
(प्रश्नव्याकरण १०)
पाहिसा ना नाम ए प्रत्यक्ष जदपि जे आगल पाप चंडी श्रादिक स्वरूप कहिस्ये ते छांडी निवर्ते नहीं। तिण कारण. नि० सदा कह्यो. जि० तथा श्री वीतराग तेणे. भ० भाख्यो कह्यो. पा० पाप प्रकृति ना बंध नों करण. चं० कषाय करी कूट प्राणघात करे. रु० रीसे सर्वत्र प्रवो प्रसिद्ध. खु० पदद्रोहक तथा अधम जे भणी इणि मार्ग प्रवर्ते. सा० साहसात् करी प्रवर्ते. अ. म्लेच्छादिक तेहनों प्रवर्त्तवो है. नि० निर्घाण. नृशंस ( क्रूर ) म. महा भयकारी, प०अन्य भयकर्ता. अ.अति भय ( मरणान्त) कर्ता. वी० डरावणा. तावासकारी. अ. अन्यायकारी. उ: उढ गकारी. णि परलोकादि नी अपेक्षा रहित, निः धर्म रहित. मि.
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अनुकम्पाऽधिकारः ।
पिपासा स्नेह रहित. णि० दयारहित णि० नरकावास नों कारण. मो० मोह महा भयकर्त्ता. म० प्राण त्याग रूप दीनता कर्ता प० प्रथम अ० अधर्म द्वार I
१७३
अथ अठे को ( निकलुणो ) कहितां करुणा दया रहित ए प्रथम आश्रव द्वार हिंसा छै । इहां पिण हिंसा में करुणा रहित कही ते करुणा नाम दया नो । अनें जे करुणा नाम एकान्त मोह रो धापे ते मिले नहीं । जिम इहां ए करुणा पाठ कह्यो । ते निरवदद्य करुणा छै । अनें रेणा देवी नी करुणा कही ते करुणा छै पिण सावदय छे । तिम अनुकम्पा पिण सावदय निरवद्य छै । ए पाछे : कृष्णादिक कधी ते अनुकम्पा सावदद्य छे। अने नेमिनाथ जी जीवां री करुणा कीधी तथा हाथी सुसलारी अनुकम्पा कीधी ते निरवद्य छै । जिम करुणा सावदय निरवदय छै तिम अनुकम्पा पिण सावदय निरवदय छे । नेमिनाथ जी जीवां ने देखी पाछा फिला तिहां पिण एहवो पाठ छै । "साणुकोसे जिवेहिउ" साणुकोस कहितां करुणा सहित जिएहि कहितां जीवां नें विषे उ कहतां पाद पूरणे इहां पण समचे करुणा कही पिण इम न कह्यो ए निरवदय करुणा छै 1 अनें रेणा देवी री पण करुणा कही पिण इम न कह्यो ए कर्त्तव्य लारे करुणा जाणिये । जे सावदय कर्त्तव्य करे ठिकाणे सावदय करुणा. अरिवदय कर्त्तव्य रे ठिकाणे निरवदय करुणा | तिम अनुकम्पा पिण सावद निरवदय कर्त्तव्य लारे जाणवी । जिम कृष्ण हरिणगमेसी. धारणी राणी, तथा देवता. सावदय कर्त्तव्य कीधा तेहनी मन में बिचारी हियो कम्पायमान थयो माटे अनुकम्पा सावदय छै । अनें हाथी सुसलारी अनुकम्पा करी ऊपर पग दियो नहीं ते निरवद्य कर्त्तव्य है । तिण सूं ते अनुकम्पा पिण निरवदय है । जे करुणा सावद निरवदय मानें त्याने अनुकम्पा पिण सावदय निरवदद्य मानणी पड़सी । अने करुणा तो सावदय निरवदय माने अनें अनुकम्पा एकली निरवद्य माने । ते अन्यायवादी जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
सावदय करुणा छै ।
इति ३६ बोल सम्पूर्ण ।
तथा रयणा देवी, करुणा सहित जिन ऋषि ने हण्यों । एहवो को छै । ते पाठ लिखिये छै
1
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तएवं सारयण दीव देवया खिस्संसा कलुणं जिण रविवयं कलु सेलग पिडाहि उवयंतं दासे, मउ सित्तिं जंपमाणी आणत सागर सलिलं गिरिहह वाहाहिं आरसंतं उड़द उव्हिहिति अंबर तले उवय माणं च मडलगेर पडिच्छित्ता निलुप्पल गवल सियागासेणं असिवरेशं खंडाखंडिं करेति २ त तत्थ विविलवमाणं तस्सय सरिसवहियस्स घेत्तणं अंगसमंगाति सरु राई उक्खित्तवलं चउद्दिसिं करेंति सा पंजली पट्टा ॥४२॥
१७४
( ज्ञाता सूत्र अ० }
तं० तिवारे. सार० र द्वीप नी देवी. केहनी है. नि० सूग रहित दया रहित परिणामे करी करुणा सहित जिन ऋषि प्रते. सपाप सहित देवी. से० सेलक यक्ष ना पूठ थकी. ॐ० ऊंचा थी देख्यो पड़ता ने दा० रे दास अरे गोला ! म० मूवो एहबो वचन बोलती थकी.
अ० श्रर डाट
० समुद्र ना पाणी मांहे अण पहुंचता ने गि० ग्रही नें बा० बाहु सूं झाली ने. करतां ऊंचो उछाल्यो थः आकाश ने विषे. उ० पाछा आवता पड़ता ने त्रिशुल ने यग्रे करी. प०मेली ने. निः नोलो पलनी परे तीक्ष्ण. अ० खड्गे करी. खं० खंड २ करे करी नें ते० तेहना विलाप करता थाना सर अंगोपांग ग्रही नें वलि नी परे च्यारु दिशा ने विषे उछाले ।
अथ अठे को रयणा देवी, करुणा सहित जिन ऋषि ने दया रहित परिणामें करी हप्यो । ते दया रहित परिणामे करी जिन ऋषि ने हण्यो । अनें रयणा देवी रे साहमो जिन ऋषि जोयो ते सावदय करुणा छै । जिम करुणा सावय निरवद्य छै । तिम अनुकम्पा पिण सावदय निरवदद्य छै । केई पूछे अनु कम्पा दोय कहां कही छै । तेहनें पूछणो । करुणा सावदय निरवदय किहां कही छै । ए तो करुणा कहो भावे अनुकम्पा कहो । जे मोहना उदय थीं हियो कंपावे ते सावद अनुकम्पा । अनें मोह रहित निरवद्य कर्त्तव्य में हियो कंपावे ते निरवद्य अनुकम्पा । इतरो कह्यां समझ न पड़े तो आज्ञा विचार लेवी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४० बोल सम्पूर्ण ।
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अनुकम्पाऽधिकारः।
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पली सूर्या भे नाटक पाड्यो ते पिण भक्ति कही छै. ते पाठ लिखिये छ।
तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं भत्ति पुबग गोयमाइसमणाणं निग्गंधाणं दिब्बं दिबिटिं वत्तीसविहिं नहविहिं उवदंसित्तए। ततेणं समणे भगवं महावीरे सुरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे सुरियाभस्त देवस्स एयमढें नो आढाए नो परिजाणइ तुसणीए संचिटुइ ।
( राप्रश्रेणी)
त० ते. इ० वांछुछु. दे. हे देवानु प्रिय ! त• तुम्हारी भक्तिपूर्वक. गो० गोतमादिक स० श्रमण नि० निग्रन्थ ने. दि० दिव्य प्रधान. दे० देवता में ऋद्धि व० वत्तीस बन्धन नटनाटक विधि प्रते. उ० देखवाड़ बो वांछ. त० तिवारे. स० श्रमण भगवन्त. म० महावीर. सू० सूर्याभ देव. ए० इम. बु० कहे थके. सू० सूर्याभ देवता. ए० एहवा वचन प्रते. नो० अादर न देवे नो० मन करनें भलो न जाणे. प्राज्ञा पिण न देवे. अ. अणबोल्या थकां रहे.
अथ अठे सूर्या भरी नाटक रूप भक्ति कही। तेहनी भगवान् आज्ञा न दीधी। अनुमोदना पिण न कीधी। अने:सूर्याभ वंदना रूप सेवा भक्ति कीधी। तिहां एहवो पाठ छै। “अब्भणुणाय मेयं सुरियामा” एवं वन्दना रूप भक्ति री म्हारी आज्ञा छै। इम आज्ञा दीधी तो ए वन्दना रूप भक्ति निरवदद्य छै ते माटे आज्ञा दीधी। अने नाटक रूप भक्ति सावदय छै। ते माटे आज्ञा न दीधी. अनुमोदना पिण न कीधी। जिम सावदय निरवदय भक्ति छै–तिम अनुकम्पा पिण सावदय निरवदय छै ।:कोई कहे. सावध अनुकम्पा किहां कही छै तेहने कहिणो सावदय भक्ति किहां कही छै। ए नाटक रूप भक्ति कही पिण इम न कह्यो-ए सावध भक्ति छै । पिण ए भक्ति आज्ञा बाहिरे छ। ते माटे जाणिये। तिम अनुकम्पा नी पिण आज्ञा न देवे ते सावध जाणवी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४१ बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
तथा वली यक्षे छात्रां (ब्राह्मण विदयार्थियां ) ने ऊधा पाड्या ते पिण व्यावच कही है। ते पाठ लिखिये छ।
पुब्बिं च इरिहं च अण्णागय च,
मणप्पदोसो नमे अस्थि कोइ । जवाहु वेयाबडियं करेंति, लम्हा हु ए ए णिहया कुमारा ॥ ३२ ॥
( उत्तराध्ययन अ० १२ गा०३.)
पु० यक्ष अलगी थy हिवे यति बोल्यो पूर्व. इं. हिवड़ा. अ० अनागतकाले. म० मने करो. प० प्रदोष नथी. मे म्हारे. अ. छ. को कोई अल्पमात्र पिण. ज० यक्ष हु० निश्चय. वि० वैयावच पक्षपात का करे है. त० ते भणी. हु. निश्चय. ए० ए प्रत्यन निः निरंतर. णि. हण्या. कु० कुमार.
अथ अठे हरिकुशी मुनि कह्यो-ए छात्रों ने हण्या ते यक्षे व्यावच कीधी छै। पर म्हारो दोष तीन ही काल में न थी। इहां व्यावच कही ते सावध छै आज्ञा वाहिरे छ। अने हरिकेशी आदि मुनि ने अशनादिक दानरूप जे व्यावच ते निरवध छै । तिम अनुकम्पा पिण सावध निरवद्य है। अने जे कोई छात्रों ने ऊधा पाइया ए व्यावच में धर्म श्रद्धे, तिणरे लेने सूर्याभ नाटक पाड्यो, ए पिण भक्ति कही छै ते भक्ति में पिण धर्म कहिणो। अने ए सावध भक्ति में धर्म नहीं तो ए सावध व्यावच में पिण धर्म नहीं। कदाचित् कोई मतपक्षी थको सावदय नाटक रूप भक्ति में पिण धर्म कही देवे तेहने कहिणो-ए नाटक में धर्म हुवे तो भगवान् आज्ञा क्यूं न दीधी। जिम जमाली विहार करण री आज्ञा मांगी। तिवारे भगवान् आज्ञा न दीधी। ते हज पाठ नाटक में कह्यो । ते माटे नाटक नी पिण आज्ञा न दीधी तिवारे कोई कहे ए नाटक में पाप हुवे तो भगवान् वो क्यू नहीं। तिण ने कहियो जमाली ने विहार करतां वो क्यूं नहीं। यदि कोई कहे निश्चय विहार कर सी ज इसा भाव भगवान् देख लिया अने निरर्थक वाणी भग. वान् न बोले ते माटे न वज्र्यो । तो सूर्याभ ने पिण नाटक पाड़तो निश्चय जाण्यो. ते भणी निरर्थक वचन भगवान् किम बोले। ते माटे नाटक नी आज्ञा न दीधी ते
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अनुकंपाऽधिकार।
१७७
नाटक रूप वचन ने आदर न दियो अने “नो परिजाण" कहितां मन में पिण भलो न जाण्यो । अनुमोदना पिण न कीधी । वली “मलयगिरि" कृत राय प्रश्रेणी री टीका में पिण "नो परिजाणाइ” ए पाठनों अर्थ भगवन्ले नाटक रूप वचन नी अनु: मोदना पिण न कीधी इस कह्यो छै । ते टीका लिखिये छ।।
"तएण मित्यादि-ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभेन देवेन एव मुक्तः सन् सूर्याभस्य देवस्य एव मनन्तरोदित मर्थ नाद्रियते. न तदर्थ करणायादर परो भवति. ना पि परिजानाति. नानुमन्यते स्वतो वीत रागत्वात्. गौतमादीनां च नाट्य विधिः स्वाध्यायादि विघात कारित्वात्. केवलं तूष्णी को 5 वति
प्ठते"
इहां टीको में पिण कयो नाटक नी अनुमोदना न कीधी । जो ए भक्ति में धर्म हुवे तो भगवान् अनुमोदना क्यूं न कीधी। आज्ञा क्यूं न दी थी। पिण ए सावदय भक्ति छै। ते माटे आज्ञा न दोधी अने वन्दना रूप निरवदय भक्ति नी आज्ञा दीधी छै। तिम अनुकम्पा पिण आज्ञा वाहिर छै ते सावदय छै अने आज्ञा माहि छै ते अनुकम्पा निरवदय छै। डाहा हुवे तो पिचारि जोइजो ।
इति ४२ बोल सम्पूर्ण।
वली केतला एक कहे-गोशाला ने भगवान् बचायो. ते अनुकम्पा कही छै ते मारे धर्म छै। तेहनों उत्तर-जो ए अनुकम्पा में धर्म छै तो अनुकम्पा तो घणे ठिकाणे कही छै। कृष्ण जी ईट उपाड़ी डोकरा रे घरे मूंकी ए डोकगनी अनुकम्पा कही छै। (१) हरिण गमेषी देवता देवकी रा पुत्रा ने चोरी सुलसारे घर मूक्या-ए पिण सुलसा री अनुकम्पा कही छै। (२) धारणी मनगमता अगनादिक खाधा ते गर्भ नी अनुकम्पा कही। (३) देवता अकाले मेह बरसायो ए अभयकुमार नी अनुकम्पा कही। (४) यक्षे विप्रां सूं बाद कियो तिहां हरिकेशी नी अनुकम्पा कही। (५) अनें भगवान् तेजु लब्धि फोड़ी गोशाला ने बचायो ते गोशाला नी अनुकम्पा कही छै। (६) जो ए पाछे कह्या ते अनु
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कम्पाना कार्य सावद्य छै, तो ते तेजु लब्धि फोड़ी ते माटे ए अनुकम्पा पिण सावद्य छै । सर्व कार्य सावद्य छे ते माटे । ए कार्य नो मनमें उपनी हियों कम्पायमान हुयो ते माटे ए अनुकम्पा पिण सावद्य छै । इहाँ अनुकम्पा अने कार्य संलग्न छै 1 जे कृष्णजी ईंट उपाडी ते अनुकम्पा ने अर्थे "अणुकम्पणट्टयाए" एहवूं पाठ कह्यो. ते अनुकम्पा ने अर्थे ईट उपाड़ी सूकी इम. ते माटे ए कार्य थी अनुकम्पा संलग्न छै । ए कार्य रूप अनुकम्पा सावध छै । इम हरिण गमेषी तथा धारणी अनुकम्पा कीधी तिहां पिण " अणुकम्पणट्टयाए" पाठ कह्यो । ते माटे ते अनुकम्पा पण सावय है । जिम भगवती श० ७ उ० २ कह्यो । “जीवदव्वट्टयाए सासए भावट्टयाए असासए' जीव द्रव्यार्थे सासतो भावार्थे असासतो कह्यो । तो द्रव्य भाव जीव थी न्यारा नहीं । तिम कृष्ण आदि जे सावद्य कार्य किया ते तो अनुकम्पा अर्थे किया ते माटे ए कार्य थी अनुकम्पा न्यारी न गिणवी | ए कार्य सावधति अनुकम्पा पिण सावद्य छै । तिम भगवान् पिण अनुकम्पा ने अर्थे तेजू लब्धि फोड़ी. ते माटे ते अनुकम्पा पिण सावध छै । तेजू लब्धि फोड़वा री केवली री आज्ञा नहीं छै । ते भणी भगवन्त छद्मस्थ पणे तेजू लब्धि फोड़ी तिण में धर्म नहीं । वैयिक लब्धि. आहारिक लब्धि. तेजू लब्धि. जंघाचरण. विद्या चरण. पुलाक. इत्यादिक ए लब्धि फोड़वा नी तो सूत्र में वर्जी छै । गौतमादिक साधुरा गुण आया त्यां एहवो पाठ छै । “संखित्त विउल तेय लेस्से" संक्षेपी छै विस्तीर्ण तेजू लेश्या, इहां तेजू लेश्या संकोची ते गुण कह्यो । पिण तेजू लेश्या फोड़े ते गुण न कह्यो, तो भगवन्ते तेजू लेश्या फोड़ी गोशाला नें बचायो तिण में धर्म किम कहिये । तिवारे कोई कहे - भगवान् तो शीतल लेश्या मूकी पिण तेजू लेश्या न मूकी तेजू लेश्या तो तापस गोशाला ऊपर मूकी तिवारे भगवान् शीतल लेश्या फोड नें गोशाला ने बचायो । पिण तेजू लेश्या भगवान् फोड़ी नहीं इम कहे तेहनो उत्तर- जे शीतल लेश्या ने तेजू लेश्या न श्रद्ध े ते तो सिद्धान्त रा अजाण है। ए शीतल लेश्या तो तेजू नों इज भेद छै । जे तपस्वी मेली ते तो उष्ण तेजू लेश्या अनें भगवान् मेली ते शीतल तेजू लेश्या एहवूं कह्यो छै । ते पाठ लिखिये छै ।
I
तर अहं गोयमा । गोशालस्स मंखलि पुत्तस्स कंपाए वेसियायणस्स बाल तवस्सिस्स सा उसि
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अनुकंपाऽधिकारः।
- तेय लेस्सा तेय पडिसा हरणट्टयाए एत्थणं अंतरा अहं सोय लियं तेयलेस्सं णिसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेव लेस्साए वेसियायणस्स वाल तबस्सिस्स सा उसिण तेय लेस्सा पडिहया।
(भगवती श०१५)
त० तिवारे. अ० हूँ. गोतम ! गो० गोशाला. मं० मंखलि पुत्र ने. अ० अनुकम्पा ने अथ. वेसियायन. वा वाल तपस्वीनी. ते तेजूलेश्या प्रते. सा० संहारवा ने अर्थे. ए० इहां अन्तराले. अ० हूं. सी० शीतल. ते० तेजूलेश्या प्रते. णि म्हे मूंकी जा० जे० ए. मा० माहरी. सी० शीतल. ० तेजूलेश्याई करी. दे० वालतपस्वी नी. ते. उ० उष्ण तेजूलेश्या. प० हणाणी।
अथ अठे तो इम कह्यो-जे तापस तो उष्ण तेजू लेश्या मूकी अनें भगवान् शीतल तेजू लेश्या मूकी। ते भगवान् री शीतल तेजू लेश्या ई करी तापस नी उष्ण तेजू लेश्या हणाणी। अत्र उष्ण तेजू अनें शीतल तेजू कही। ते माटे उष्ण लेश्या ते पिण तेजू नों भेद छै। अने शीतल लेश्या ते पिण तेजू नों भेद छ। ते भणी भगवान् छद्मस्थ पणे शीतल तेजू लेश्या फोड़ी ने गोशाला ने बचायो छै। वे सावध छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४३ बोल सम्पूर्ण।
इति अनुकम्पाऽधिकारः।
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साथ लब्धि-अधिकारः ।
कोई कहे लब्धि फोड्यां पाप किहां कह्यो छै तिण ने ओलखावण ने “पन्नवणा” पद छत्तीसों क य लधा तेजू लब्धि फोड्याँ जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया कही छै ते पाहालगियो ।
जीभो ! बे उब्बिय समुग्घाएणं समोहले समो हणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेणं भंते ! पोग्गलेहिं केवति ते खेत्ते अाकुराये केवइए खेत्ते फुडे गोयमा ! सरीरप्पमाण मेत्ते विखंभ वाहल्लेणं आयामेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उकोसेणं संखेज्जाइं जोयणाइ एगदिसिं विदिसिं वा एकाए खेत्ते अफुगणे एवतिए खेत्ते फुडे सेणं भंते ! खेत्ते केवति कालरस अफुगणे केवति कालस्स फुडे गोयमा ! एग समएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं एवति कालस्त आफुगणो एवति कालस्स फुडे सेस तंचेव जाव पंच किरियावि।
(पन्नवणा पद ३६)
जा० जीव. भ० हे भगवन् ! वे० वैक्रिय. स. समुद्घाते करी में आप प्रदेश वाहि रकाढ़े स० बाहिर काढ़ी ने', जे. जे पुद्गल प्रते ग्रहे मूके. ते० तेणे पुगल. भ० हे भगवन ! के केतलो नेत्र. अ. अस्पृष्ट. के केतन क्षेत्र स्पर्श. हे गोतम ! स० शरीर प्रमाण मात्र. वि पोहलपणे, बा० जाडपणे. प्रा. अनं लावपणे. ज० जघन्य थको. अ. अंगुल नों असंख्लात मो भाग. उ. उत्कृष्ट पणे. सं० संध्याता योजन एकदिशे अथवा विदिश फस्ये नयू रूप करवाने अथें. संख्याता
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लब्धि अधिकारः।
योजन लगे एक दिशे तथा विदिशे आत्मप्रदेश विस्तारी ने. अ० अस्पृष्ट. ए० एतलू क्षेत्र पर्से से० तेह. भ. हे भगवन् ! खे० क्षेत्र. के. केतला काल लगे. अस्पृष्ट क० केतला काललगे फरस्यै, गो० हे गोतम । ए० एक समय में. दु० अथवा वे समय में. ति० अथवा त्रिण समय में विग्रहे पुद्गल ग्रहतां एतलाज. समय थाय ते माटे एतला काल लगे. अस्पृष्ट एतला काल लगे फरस्ये. से. शेष सर्व तिमज यावत्, पं० पांच क्रियावन्त हुई।
___ अथ अठे वैक्रिय समुद्घात करि पुद्गल काढे। ते पुद्गलां सूं जेतला क्षेत्र में प्राण भूत जीव सत्व नी घात हुवे ते जाव शब्द में भलाया छै। ते पुद्गलां थी विराधना हुवे तिण सूं उत्कृष्टी ५ क्रिया कही छै। इम वैक्रिय लब्धि फोड्यां ५ क्रिया लागती कही। हिवे तेजू लेश्या फोड़े ते पाठ लिखिये छ ।
जीवेणं भन्ते ! तेय समुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहिणं भंते पोग्गलेहिं केवति ते खेत्ते अफुण्णणे. एवं जहेव वेउब्बिय समुग्घाए. तहेव रणवरं आयामेणं जहण्णोणं. अगुलस्स संखेजति भागं सेसं तं चेव ।
(पन्नवणा पद ३६)
जी० जीव. भ' हे भगवन् ! ते० तेजस समुद्घाते करी ने. स० अात्म प्रदेशमाही जे० जे पुद्गल प्रते ग्रहे मूके. ते तिणे पुद्गले. भ० हे भगवन् ! के० केतलू क्षेत्र. अ. अस्पृष्ट. एणी रीते जे० जिम वैक्रिय. स. समुद्राते का तिमज सर्व कहिवु-णा० एतलो विशेष, जे लावपणे, ज० जघन्य थकी. अ० अंगुल नों संख्यात मो भाग फरस्ये. पिण असंख्यात मों भाग नथी, से० शेष सर्व. त तिमज.
अथ इहां वैकिथ समुद्घात करतां पांच क्रिया कही, तिमहिज तेज़ समुद्घात करतां पांच क्रिया जाणवी। जिम वैक्रिय तिम तैजस समुद्घात पिण कहिणो। इम कह्यां माटे ते समुद्घात करतां उत्कृष्टी ५ क्रिया लागे तो तेजू लब्धि फोड्यां धर्म किम काहये। भगवन्ते छद्मस्थ पणे शीतल तेजू लेश्या फोड़ी गोशाला ने बचायो भगवती शतक १५ में कह्यो छै। अने पन्नकणा पद छत्तीसमें तैजस समुद्घात फोड्यां ५ क्रिया कही। ते केवल ज्ञान उपना पछे ५ क्रिया कही अने छद्मस्थ पणे ते ५ क्रिया लागे ते लब्धि आप फोड़वी तो जे छद्मस्थ पणे कार्य
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भ्रम विध्वंसनम्।
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कीधो ते प्रमाण करियो के केवल ज्ञान उपना पछे कह्यो ते बचन प्रमाण करिवो। उत्तम जीव विचारि जोइजो। केवली नो बचन प्रमाण छै। ए लब्धि फोड़नी तो भगवान् सूत्र में ठाम २ वर्जी छै। ए वैक्रिय तथा तेजू लब्धि फोड्यां उत्कृष्टी ५ क्रिया कही ते माटे ए लन्धि फोडन री केवली री आज्ञा नहीं छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली आहारिक लब्धि फोड्यां पिण ५ क्रिया लागे इम कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छै ।
जीवेणं भंते आहारग समुग्घाएणं संमोहए संमोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ तेहिणं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खेत्ते आफुगणे केवइए खेत्ते फुडे गोयमा! शरीरप्पमाण मेत्ते विक्खंभ वाहल्लेणं आयामेणं जहरणेणं. अंगुलस्स संखेति भागं उक्कोसेणं संखेज्जाइजोयणाई एगदिसिं एवतिए खेत्ते एगसमएण वा दुसमएण वा. तिसमएण वा विग्गहेणं एवति कालस्स आफुगणे एवति कालस्स फुडं तेणं भंते ! पोग्गला केवइका कालस्स निच्छुवति गोयमा ! जहणणेणं वि उकोसे रणवि अंतोमुहुत्तस्स । तेणं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाइ सत्ताइ अभिहणंति जाव उदवंति तओणं भंते ! जीवे कति किरिए गोयमा! सियति किरिए सिय चउकिरिए सिय पंच किरिए।
( पन्नवणा पद ३६ )
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लब्धि अधिकारः ।
माराम
जी० जीव. भ. हे भगवन्. श्राहारिक समुद्घाते करी में. स. अात्म प्रदेश वाहिर स० काढे काढी ने. जे० जे पुद्गल प्रते ग्रहे मूके. ते तिणे हे भगवन् ! पो० पुद्गले करी ने के० केतलं क्षेत्र अस्पृष्ट केतलू क्षेत्र परसे. हे गोतम ! स० शरीर ना प्रमाण ना. वि० पोहलपणे वा० जाउपणे, श्रा० अने लावपणे. ज० जवन्य थी. अ० अंगुल नों. स० संख्यात मों भाग उत्कृष्ट पणे स० संख्यात योजन. ए० एकदिशे. ए० एतलो क्षेत्र अस्पृष्ट. ए० एकसमय ने. दु अथवा बे समय ने. ति. अथवा त्रिण समय में वि० विग्रहे. ए० एतलो काल लगे अस्पृष्ट. ए० एतलो काल लगे. करस्यू हुई. ते० तेहने भ० हे भगवन् ! पो० पुद्गल. के० केतला काल लगे. ग्राह्य हुइ. गोहे गोतम ! जा जघन्य पणे पिण. उ० अने उत्कृष्ट पणे पिण. अं० अन्तर्मुहुर्त रहे. ते० तेह. भ. हे भगवन् ! पो. पुद्गल. णि काढ्या थका. ज० जेह. त० तिहां. पा० प्राणभूत. जी० जीव. स. सत्व प्रते. अ० हणे. जा० यावत उपद्रव करे ते जीव थकी. भ. हे भगवन ! जि० पाहारिक समुद्घात नों करणहार. जीव केतली क्रियावन्त हुई. गो. हे गोतम ! सि० किवारे त्रिण क्रिया करे. सि० किवारे चार क्रिया करे. सि. किवारे पांच क्रिया लागे ।
अथ इहां आहारिक लब्धि फोड्यां पिण जघन्य ३ उत्कृष्टी ५ क्रिया लागती कही. तिम वैक्रिय लब्धि. तेजू लब्धि फोड्यां जघन्य ३ उत्कृष्टी ५ क्रिया कही । ते भणी आहारिक. तेजू. वैक्रिय. लब्धि. फोडण री केवली री आज्ञा नहीं तो ए लब्धि फोड्यां धर्म किम हुवे, ए लब्धि फोडवे ते छठे गुणठाणे अशुभ योग आश्री फोडवे छै ते अशुभ योग में धर्म किम थापिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
वली आहारिक लब्धि फोडवे ते प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छै ।
जीवेणं भंते आहारग सरीरं णिब्बतिएमाणे किं अधिगरणी पुच्छा गोयमा ! अधिगरणी वि अधिगरणंपि से केणटेणं जाव अधिगरणंपि। गोयमा पमादं पडुच्च से तेणटेणं जाव अधिकरणं पि, एवं मणुस्से वि।
(भगवती श०१६ उ०१)
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श्रम विध्वंसनम् ।
जी० जीव. भ० हे भगवन् ! श्र० श्राहारिक शरीर प्रते णि० निपजावतो तो कियूं अधिकरण एप्रन गो० हे गोतम ! अ० अधिकरणी पिण. अ० अधिकरण पिण. से ० से. के० केहे थे. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. गो० हे गोतम ! प० प्रमाद प्रते आश्रयी नें. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. ए० एम. मनुष्य पिण जाणवो.
१८४
अथ अठे पिण आहारिक लब्धि फोडवी नें आहारिक शरीर करे तिण नें प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो । तो ए लब्धि फोड़े ते कार्य केवली री आज्ञा बाहिर कहीजे के आज्ञा माहि कहीजे । बिवेक लोचने करि उत्तम जीव विचारे । श्री भगवन्ते तो आहारिक लब्धि फोडे ते प्रमाद कह्यो ते प्रमाद तो अशुभ योग आव छैणि धर्म नहीं। डाहा हुये तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
वली ए लब्धि फोड्यां पांच क्रिया लागती कही. ते पांच क्रिया लागे ते कार्य में धर्म नहीं । वली लब्धि फोडे तिण ने मायी सकपायी कह्यो छै ते पाठ लिखिये छै ।
से
माइ विकुव्वति यो अमाइ विकुव्वति ।
! किं माई विम्बइ. अमाइ विकुव्वइ गो०
( भगयती श० ३ उ०४ )
से० ते ० हे भगवन् ! कि स्यूं मायी वैक्रिय रूप को य० के अमायी वि० वैकिय रूप करे. गो० हे गोतम ! मायी विकू खो० पि श्रमायी न विकू श्रप्रमत्त गुणठाणा रो
धणी ।
अथ अठे वैकिय लब्धि फोडे सिंण नें मायी कह्यो । ते माटे सावद्य कार्य में धर्म नहीं ।
वली लब्धि फोडे ते बिना आलोयां मरे तो विराधक को छै । ते पाठ लिखिये छै ।
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लब्धि अधिकारः।
- १८९
___ माइणं तस्स ठाणस्स अणलोइय पडिक्कंतं कालं करे ति णस्थि तस्स आराहणा अमायोणं तस्ल ठाणस्स आलो. इय पडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा.
( भगवती श० ३ उ०४)
मा० मायी में. त० ते विकूबण कारण स्थानक थकी. अ० अण आलोई ने प० अपडिक्रमी ने का० काल करे. ण न थी. त० तेहने. प्रा० अाराधना. अ० पूर्व मायी पणा थी चैक्रिय पणू प्रणीत भोजन पणू करतो हवो पछे जातां पश्चात्ताप पामो ने. त० वैक्रिय लब्धि प्रते. श्रा० आलोय में प० पडिकमी ने का० काल करे. तो अ० छै. तेहने अाराधना. अ. अन्यथा नहीं।
अथ इहां वैक्रिय लब्धि फोडे ते मायी आलोयां बिना मरे तो विराधक कह्यो। अनें आलोई मरे तो साधु ने आराधक कह्यो। ते माटे ए लब्धि फोड्यां धर्म नहीं। तिवारे कोई इम कहे-५ तो वैक्रिय लब्धि फोड़े तेहनें मायी विराधक कह्यो। परं तेजू लब्धि फोड़े तिण ने न कह्यो इम कह तेहनों उत्तर-ए वैक्रिय लब्धि फोड़े ते मायी इम कह्यो। विना आलोयां मरे तो विराधक को। इसो खोटो कार्य छै ते माटे वैक्रिय लब्धि फोड्यां पन्नवणा पद ३६ पांच क्रिया कही छै।
भने तेजू समुद्घात करी तेजू लब्धि फोड़े तिहां एहबू पाठ कह्यो ।
. जीवेणं भंते तेयग समुग्धाएणं संमोहए संमोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहिणं पोग्गलेहिं केवतिए खेते अफुण्ण एवं जहेव वेउब्विय समुग्घाए तहेव।।
(पनवणा पद ३६)
जी० जीव. भ. हे भगवन्त ! ते० तेज समुदं घाते करी ने. स० आत्म प्रदेश बाहिर काढ़े काढ़ी ने. जे० पुद्गल प्रते. णि० ग्रहे मूके. ते तिणे पुद्गले. हे भावन् ! के० केतलूं क्षेत्र, अ. अस्पृष्ट. ए. एणी रीते. ज. जिम वैक्रिय. स० समुदाते करी तिमज सर्व कहे.
२४
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भ्रम विध्वंसनम् ।
1
अथ इहां को- जिम वैकिय समुद्घात करता उत्कृष्ट ५ क्रिया लागे तिम तेजू समुद्धात करतां पिण पांच क्रिया कहिवी । जिन वैक्रिय तिस तेजस पिण कहिवूं इम कह्यां माटे जिम वैक्रिय मायी करे अमायी न करे तिम तेजू लब्धि पिण मायी फोडवे, पिण अमायी न फोडवे । वैक्रिय कियां ५ क्रिया लागे ते आलोयां विना मरे तो विराधक छै । तिम तेजू लब्धि फोड्यां पिण५ किया लागे ते आलोयां बिना मरे तो विराधक छै । ए तो पारो न्याय छै । ए लब्धि फोड़े ते कार्य सावध है ! तिण सूं तोर्थङ्कर देव ५ क्रिया कही छै । डाहा हुवे तो विचारि जोडजो I
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
१८६
तथा वली जंघा चारण विद्या चारण लब्धि फोड़े तेहनें पिण आलोयाँ विना मरे तो विराधक कह्या छै । ते पाठ लिखिये छै ।
विज्जा चारणस्त गं भंते! उड ढं केवइस गति सिए पण गोयमा । सेणं इत्र पगेणं उप्पारणं सांदण वर्ण समो सरणं कोइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंद, बंदड़ता वितिएणं उप्पारणं पंडग वणे समोवसरणं करेइ करेइत्ता तहिं चेइया वंद दत्ता त पडिणिइत्तइ २ त्ता इहं चेइयाइ वंदइ विजाचारणस्स णं गोयमा ! उढढं एवइए गति विस. पणत्ते सेणं तस्स ठाणस्स अण लोइय पडिक्कते कालं करेइ गत्थि तस्स राहणा सेणं तस्स ठाणरस आलोइडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स राहणा ।
( भगवती शतक १० उ० ६५
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लब्धि अधिकारः।
१८७
वि० विद्या चारण रो. भ. हे भगवन्त ! उ० ऊर्ध्व. के. केतलो. ग० गति विशेष. प० परूप्यो. (भगवान कहे 2 ) गो० हे गौतम ! से० विद्याचारण. इ० इहां सूं. ए० एक उपपात में उड़ी में. णं० नन्दन बन में विषे विश्राम लेवे. लेवी में. त• तिहां. चे० चैत्य में वांदे. वांदी ने. वि० द्वितीय उपपात में. पं० पण्डग वन में विषे. स० विश्राम लेवे. लेवी ने. त. तिहां. चे० चैत्य ने वांदे. वांदी ने. त० तठे सूं पाछा पावे. भावी नें. इ० इहां अावे. श्रावी ने. चे० चैत्य ने वांदे. वि० विद्याचारण ना. हे गौतम ! ऊ ऊंचो. ए० एतली. ग गति नों विषय परूप्यो. से० ते विद्याचारण. त० ते स्थानक नें. अ० श्रण आलोई. अ० अण पड़िकमी ने. क. काल प्रते करे. ण नहीं हुई. त० तेहनें. प्रा० अाराधना. से० ते विद्याचारण ते स्थानक ने. प्रा० अालोई. ५० पडिकमी ने. का० काल करे तो. अ.हे. त० तेहने. श्रा० आराधक चारित्र फल नों.
अथ इहां पिण जंघा चारण विद्या चारण लब्धि फोड़े ते पिण बिना. आलोयां मरे तो विराधक कह्या छै। तिहां टीकाकार पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छ।
"अय मत्र भावार्थों लब्ध्युपजीवनं किल प्रमाद स्तन वा सेषिते ऽ नालोचिते न भाति चारित्रस्याराधना तद्विराधकश्च न लभते चारित्राराधना फल मिति"
अथ टीका में इम कह्यो-ए लब्धि फोड़े ते प्रमादनों सेववो ते आलोयां बिना चारित्र नी आराधना न थी. ते माटे विराधक कह्यो। इहां पिण लब्धि फोड्यां रो प्रायश्चित्त कह्यो। इहां पिण लब्धि फोड्यां धर्म न कह्यो। ठाम २ लब्धि फोडणी सूत्र में वर्जी छै, तो भगवन्त छठे गुण ठाणे थकां तेजू लब्धि फोड़ी ने गोशाला ने बचायो, तिण में धर्म किम कहिये। आहारिक समुद्घात करतां पांच क्रिया कही। वैक्रिय लब्धि फोड्यां ५ क्रिया कही। वैक्रिय लब्धि फोड़े तिण ने मायी कह्यो। बिना आलोयां मरे तो तिण ने विराधक कह्यो। जिम वैक्रिय लब्धि फोड्यां ५ क्रिया तिम तेजू लब्धि फोड्यां ५ क्रिया लागती तीर्थङ्कर देवे कही . तो तेजू लेश्या भगवन्त छद्मस्थ पणे फोड़ी तिण में धर्म किम होवे।
वली जंघा चारण. विद्या चारण. लब्धि फोड़े ते बिना आलोयां मरे तो. विराधक कह्यो । वली आहारिक लब्धि फोड़े तेहनें प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो। ए तो ठाम २ लब्धि फोडणी केवली बर्जी छै। ते केवली नों वचन प्रमाण
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१८८
भ्रम विध्वंसनम् ।
करिवो । परं केवली नों वचन उत्थापनें छद्मस्थपणे तो गोतम चार ज्ञान सहित १४ पूर्वधारी पिण आनन्द ने घरे वचन चूक गया तो छद्मस्थ ना अशुद्ध कार्य नी थाप किम करिये। साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा छन्झन्थ तो सात प्रकारे चूके एहवू ठाणांग सूत्र में कह्यो छै । ते पाट लिखिये छ ।
सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेजा, तं पाणे अइवा एत्ता भवइ. मुसं वदित्ता भवइ. अदिन्न माइत्ता भवइ सहफरिस रस रूव गंधे आसादेत्ता भवइ. पूयासकार मणुव्हेत्ता भवइ. इमं सावज्जंति पण्णवेत्ता पड़ि सेवेत्ता भवइ. णो जहावादी तहा कारीयावि भवइ. सत्तहिं ठाणेहिं केवलिं जाणेजा तंणोपाणे अइवाएत्ता भवइ जाव जहावादी तहाकारीया वि भवइ.
(ठाणाङ्ग ठाणा ७)
साते स्थानके करि. छ० छद्मस्थ जाणी इं. त० ते कहे छै. पा० जीव हणवा नो स्वभाव. हसा ना करिवा थकी इम जाणी ई ए छमस्थ छै. १ मु० इमज मृषावाद बोले २ अ० अदत्ता दान ले. ३ स० शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध तेह. श्रा० राग भावे प्रास्वादे ४ पू० यूजा पुष्पार्चना. स. सत्कार. ते वस्त्रादिक अर्चा ते अनेरो करतो हुई. ते तिवारे. अ० अनुमोदे. हर्ष करे. ५ ए. इम. सदोष आहारिक. सा० सपाप. प० इम जाणी ने. प० सेवे. ६ णो सामान्य थकी जिम बोले तिम न करे अन्यथा बोले अन्यथा करे.७ स० साते स्थान के करो ने. के. केवली. जा० जाणी इ. त० ते कहे है. णो केवली क्षीण चारित्रावरण थकी अतिचार संयमना थकी. अथवा अपडिसेवी पणा थकी. कदाचित हिसा न करे. जा० ज्यां लगे. ज. जिम कहे. तिम करे.
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लब्धि-धिकारः।
अथ अठे पिण इम कह्यो-सात प्रकारे छद्मस्थ जाणिये। अने सात प्रकारे केवली जाणिये। केवली तो ए सातूं इ दोष न सेवे. ते भणी न चूके. अनें छद्मस्थ ७ दोष सेवे ते भणी छद्मस्थ सात प्रकारे चूके छै। तो ते छद्मस्थ पणे जे सावध कार्य करे तेहना थापना किम करणो। छद्मस्थ पणे तो भगवन्ते लब्धि फोडी गोशाला ने बचायो। अने केवल ज्ञान उपना पछे लब्धि फोड्यां उत्कृष्टि ५ क्रिया लागती कही। तो केवली नो बचन उत्थाप ने छमस्थ पणे लब्धि फोड़ी तिण में धर्म किम थापिये। अने जो लब्धि फोड़ी गोशाला ने बचायां धर्म हुवे तो केवल ज्ञान उपना पछे. गोशाले दोय साधां वाल्या त्यांने क्यूं न बचाया। जो गोशाला में बवायां धर्म छै तो दोय साधां ने बचायां तो धर्म घणो हुवे। तिवारे कोई कहे भगवान् केवली था सो दोय साधां रो आयुषो आयो जाण्यो तिण सून बचाया। इम कहे तेहनो उत्तर-जो भगवान् केवलज्ञानी आयुषो आयो जाण्यो तिण सूं न वचाया तो और गौतमादि छद्मस्थ साधु लब्धि धारी घणा इ हुन्ता। त्यांने तो आयुषो आयां री खबर नहीं त्यां साधां ने लब्धि फोडी ने क्यूं न बचाया। यदि कहे और साधां ने भगवान् बर्ज दिया तिण सूं और साधां पिण न बचाया। तिण ने कहिणो और साधां ने वर्ध्या ते तो गोशाला सुं धर्म चोयणा करणी वी छै। वालपा रा कारण माटे, पिण और साधां में इम तो वो नहीं. जे याँ साधा ने बचाय जो मती। ए तो गोशाला सूं बोलणो वौँ। पिण साधां ने बचावणा तो वा नहीं। वली विना बोल्यां इ लब्धि फोड़ ने दोय साधां ने बचाय लेवे बचावां में बोलवा रो काई काम छै। पिण ए लब्धि फोड़ी बचावण री केवली री आज्ञा नहीं। तिण सूं और साधां पिण दोय साधां ने बचाया नहीं। लब्धि तो मोहनी कर्म रा उदय थो फोडवे छै। ते तो प्रमाद नों सेववो छै। श्री भगवन्त तो केवलज्ञान उपना पछे मोह रहित अप्रमादी छै। तिण सूं भगवान् पिण केवलज्ञान उपना पछे लब्धि .फोड़ी ने दोय साधां ने बचाया नथी। तिहां भगवती नी टीका में पिण एहवो कह्यो छै, ते टीका लिखिये छै ।
- इह च यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैक रसत्वात् भगवतः यच्च सुनक्षत्र सर्वानुभूति मुनि पुंगवयो न करिष्यति तद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वात् अवश्यं भावि भावत्वात् वेत्यवसेयम् इति"
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भ्रम विध्वंसनम् ।
अथ टीका में पिप इम को -ते गोशाला नों रक्षण भगवन्ते कियो ते सराम पणे करी अने सर्वानुभूति सुनक्षत्र मुनि नो रक्षण न करस्ये ते वीतराग पणे करि । ए तो गोशाला में बचायो ते सराग पणो को पिण धर्म न कह्यो । ए सरापणाना अशुद्ध कार्य में धर्म किम होय । अनें कोई कहे निरवद्य दया थी गोशाला नें बचायो तो दोय साधा 'न बचाया तिवारे भगवान् गौतमादिक सब साधु दयावान् इज हंता । जो बोशाला ने निरवद्य दया थी बचायो. तो दोय साधने क्यूंना पिण निरवद्य दया सूं बचायो नहीं । ए तो सराग पणा सूं बचायो है । दिन में सरायण कहो नावे सावय अनुकम्पा कहो भावे सावय दया कहो. पिण मोक्ष मार्ग नी निरवद्य अनुकम्पा निरवद्य दया नहीं । इहां तो शीतल तेजू लब्धि फोड़ी ने बचाओ चाल्यो है | अनें तेजू लब्धि फोड्यां ५ क्रिया कहो. ते माटे ए सावद्य अनुकम्पा थी गोशाला ने बचायो छै । एलब्धि फोडणी तो ठाम २ वर्जी है। लधि फोड्यां क्रिया कही प्रमाद नो सेववो कह्यो । बिना आलोयां विराधक को तो लब्धि फोड़ी गोशाला ने बचायो तिण में धर्म किम कहिये । डाहा हु तो विचारि जोइजो ।
1
इति बोल ६ सम्पूर्ण |
१६०
केइ अज्ञानी जीव कहे जे अम्बड श्रावक वैक्रिय लब्धि फोड़ी ने सौ ai पारण कियो. सौ घरों वासो लियो ते धर्म दिखावण निमित्ते इस बड़े ते मृषावादी छै इमला फोड्यां तो मार्ग दीपे नहीं । जो लब्धि फोड्यां मार्ग दीपे तो पहिला गौतलादिक घणा साधु लब्धि धारी हुल्ता, ते पिण लब्धि फोड़ी नें मार्ग क्यूं न दिपायो । मार्ग दीपावण से तो भगवान् री आज्ञा छै । परं लब्धि फोडण री तो भगवान् री आज्ञा नहीं । ए वैक्रिय लब्धि फोड्यां तो पन्नवणा पद ३६ में ५ क्रिया कही छै, पिण धर्म न कह्यो. तो अम्वड सन्यासी वैक्रिय लब्धि फोड़ी ति नें पिण ५ क्रिया लागती दी है. पिण धर्म नथी । तथा भगवती श० ३ ८०४ को नयी विकुर्वे ते बिना आलोयां मरे तो विराधक को आलोयाँ आराधक | तिहां पण वैकिन लब्धि फोड़नी निषेधी है । जे साधु वैक्रिय लब्धि
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लब्धि अधिकार।
फोडे, तेहनों व्रत पिण भांगे अमें पाप पिण लागे। अनें खाधु बिना अनेरो वैक्रिय लब्धि फोड़े तेहनों व्रत न भांगे पिण पाप तो लागे। तो अम्बड पिण वैक्रिय लब्धि फोड़ी नेहनों व्रत न भाग्यो विण पाप तो लाग्यो । ए तो आप रे छांदे ए कार्य कियो पिग धर्मदीपग निमित्ते नहीं। एतो लोकां ने विस्म्य उपजावण निमित्त वैक्रिय लब्धि फोड़ी सौ घरों पारणो कियो वासो लियो। ते पाठ लिखिये छ।
बहु जणेणं भंते ! अण्ण मण्णस्स एव माइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परवेइ एवं खलु अंधडे परिब्बायए कंपोल पुरणयरे घर सत्ते आहार माहारेति घरसत्ते वसते वसहि उवेझ से कहमेचं भंते! एवं गोयमा : जणं बहुजणे एव माइक्खंति जाब घरसत्तेहि बसेहि उवेति सच्चेणं एसम? अहं पुण गोयना ! एव माइक्वामि जाब परूवेमि एवं खलु अंबड़े परिब्बाइए जाव बलाहें उबेति से केणटुणं भंते ! एवं बुञ्चति अंबडे परिधाइए जाव बसहिं उबेति गोयमा ! अंबडस्सणं परिब्वायगस्त पगति भइयाए जाव वीणियत्ताए छटुं छटेणं अणिक्खितेणं तवो कम्नेणं उड्ढवाहाओ पगिझिय २ सुराभिमुहस्स आयावण भूमिए आयावेमाणम्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहि अज्झवसाणहिं लेस्सेहिं विसुज्झमाणीहिं अण्णया कयाइं तदा वरणिजाणं कम्माणं खडवसमेणं ईहा पूह मग्ग गवसणं करेमाणस्स विरिय लद्धि वेउब्विय लद्धि ओहिणाण लद्धि समुप्पण्णा तएणं से अवडे परिवायए ताए वीरिय लद्धिए वेउव्विय लद्धिए ओहिणाण लद्धि समुप्पणाए जण विह्मावण हे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कपिलपुर गरे घर सत्ते जाव बसहिं उवेति से ते गोयमा ! एवं वुञ्चति अबडे परिव्वाइये जाव वसहिं
वेति ॥ ३६ ॥
१६२
(उवाई प्रश्न १४
To aur एक जन लोक ग्रामादिक नगरादिक सम्बन्धी भ० हे भगवन्त ! अ योन्य परस्पर माहो माही. ए० एहवो अतिशय स्यूं कहे है. ए० एहवं. भा० भाषे बचन ने बोले. ए० एहवो उपदेश बुद्धि इ प्रज्ञापे जावे. ए० एहवो परूपे है. सांभलणहार ने हि बात जणावे. ए० पुणे प्रकारे. ख० खलु निश्चय अ० अम्वड नाम प० परिब्राजक सन्यासी. क० कम्पिल्ल नगर जिहां गवादिक नों कर नहीं तेहने विषे. प्रा० श्राहार अशन पान खादिम. स्वादिम आहारे जीमण करे छे । घ० एक सौ १०० घर गृहस्थ ना तेहने विषे. ० वसवो उ० करे छे. से ० तेहवार्त्ता. भ० हे भगवन् ! कहो स्यूं करो मानूं भ० भगवन्त कहे है. इमहिज गो० हे गौतम! ज० जेहने घणा लोक ग्रामादिक नगर सम्बन्धी प्र० अन्योन्य परस्पर माहो माही. ए० एहवो अतिशय स्यूं मा० इम कहे है. जा० जाव शब्द थी अनेरा पिया बोल. घ० एक सौ घर तेहने विषे. व० बसवो. उ० करे छे. स० सत्य सांचो इज है. ए० एहवा ते लोक कहे है. ए० एह अर्थ. ० हूँ पिण निश्चय सहित गो० हे गौतम! ए० एहवो समन्तात् कहूं छं । ज०जाद शब्द थी अनेरा बोल जाणवा. ए० एहवो परूपं छू. एणे प्रकारे. ख० निश्चय अ० अम्बड नामा परिब्राजक सन्यासी जा० जाव शब्द थी वीजाई बोल. व० वासो. ते. उ० करे छे से ते. के० के अर्थे प्रयोजने. भ० हे भगवन् ! इम. दु० कही इं है. अं० अम्बड परिव्राजक सन्यासी है. ते. जा० जाव शब्द थकी वीजाइ बोल व वर्सात वासो. उ० करे है. गो० हे गौतम! श्र० अम्ड नामा परिब्राजक सन्यासी प० प्रकृति स्वभा भीक परिणामे करी. जा० जाव शब्द थी बीजाइ वोल. वि० विनीत पणा करी ने छ छठवे उपवासे करी में विचाले तप मुकावे नहीं त० एहवो तप तेह रूप कर्म कर्त्तव्ये करी. to वाहुबेहूं ऊबी करो नं. सु० सूर्य ना सामुही दृष्टि मांडी ने आ० प्रतापना नी भूमि तेह माही ईंट ना चूलादिक नी धरती ने विषे. ० श्रातापना करतां थकां शरीर ने विपे क्लेश पड़तां थकां कर्म सन्तापता थकां सु० शुभ मनोहर जीब सम्वन्धी प० परिणाम भाव विशेषे करी. प्रशस्त भलो अध्यवसाय मन ना भावार्थ विशेषे करो. ले० लेश्या तेज लेश्यादिके विशुद्ध निर्मल तप करो ने . Tear कोई यक प्रस्तावने विषे जे ज्ञान उपाहार तेहने प्रावरण बनना करणहार जे कर्म ज्ञाना वरणीय घातादिक पाप नों. ख० कांई क्षय गया. कोई एक उपशान्त पाम्याति करी. इ० ईस्यू अमुक अथवा अनेरो अनुकोज एह निश्चय करिवो. स्यूं खं माने विषे वेलड़ी हाले है तिस कोई विचार
ए पुरुष जमाया
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लन्धि अधिकारः।
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खगो छै अथवा स्त्रीज छै. इत्यादिक निश्चय रूप इत्यादिक पूर्वोक्त बोलना करणहार. वि० वीर्य जीव नी शक्ति विस्तारवा रूप लब्धि विशेष. वि० वैक्रिय शक्ति रूप तेहनी लब्धि गुण विशेष अं० अवधि मर्यादा सहित जाणवा स्वरूप ज्ञानशक्ति रूप नी लब्धि गुण विशेष ते सम्यक प्रकार नी उपनी. त• तिवारे पछे. से० ते अंवड परिव्राजक. ता० पूर्वोक्त चोर्य लब्धि जे उपनी तियो करी वैक्रिय लंब्धि रूप करवा सम्बंधी तिणे करो तथा. प्रो० अवधि मर्यादा सहित ज्ञान ते अवधि ज्ञान रूप लब्धि तिणो करी. स० सम्यक प्रकारे ए त्रिण ने विषे ऊपनी. ते जन विस्मापन हेतु. के० कंपिल्लपुर नामा नगर ने विषे एक सौ गृहस्थ ना घर तिहां जाव शब्द थकी अनेराई बोल. व० वसति वास करी रहिवो करे छै. ते० तिण अर्थे प्रयोजन कहिए है. गो गोतम ! इम कहिए है अम्बढ़ सन्यासी जा० जाव शब्द थी वीजाइ बोल वसति वास करी रहियो करे छ.
अथ अठे ए अम्वड सन्यासी चैमिव लन्धि फोड़ी सौ घरां पारणो कियो सौ घरां वासो लियो. ते लोकां में विस्मय उपजावणं निमित्ते कह्यो, पिण धर्म दिपावण निमित्ते, तो कह्यो नथी। ए विस्मय ते आश्चर्य उपजायण निमित्ते ए कार्य कियो छै। इम लब्धि फोडयां धर्म दिपे नहीं। भगवान है बड़ा २ साधु लब्धि धारी थया त्यां उपदेश देई तथा धर्म चर्चा करी तपस्या करी में मार्ग दिपायो पिण वैक्रिय लब्धि फोड़ी ने मार्ग दिपायो चाल्यो नहीं। डाहा हुचे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा विस्मय उपजायां तो चौमासिक प्रायश्चित्त कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
जे भिक्खू परं विम्हावेइ, विम्हावतं वा साइजइ ।
(निशीथ उ० ११ बो० १७२ )
जे.जे. भि. साधु साध्वीः प०अनेरा में विस्मय उपजावे. वि० तथा विस्मय उपजातां ने सा अनुमोदे. तेहने पूर्ववत् चातुर्मासिक प्रायश्चित आवे.
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भ्रम. विध्वंसनम् ।
अथ इहां पिण कह्यो-जे साधु अनेरा में विस्मय उपजावे विस्मय उपजावतां ने अनुमोदे तो चातुर्मासिक दंड आवे। जो ए कार्य में धर्म हुवे तो प्रायश्चित्त क्यूं कह्यो। जे साधुने अनेरा में विस्मय उपजायां प्रायश्चित आवे तो अम्बड लोकां ने विस्मय उपजावा में भर्थे सौ घर्रा धारणो कियो तिण में धर्म किम कहिए। जिन साधु ने काचो पाणी पीधां प्रायश्चित्त भावे तो अम्बह काचो काणी पीयो तिण में धर्म किम हुवे। तिम विस्मय उपजायां पिण जाणवो। विस्मय उपजावता में अनुमोयाइ चातुर्मासिक दंस कह्यो, तो विस्मय उपजावण वाला में धर्म किम हुवे। श्री तीर्थङ्कर देवे तो ए कार्य अनुमोद्यां दंड कह्यो। तो ते कार्य कियां धर्मपुण्य किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ८ बोल सम्पूर्ण।
इति लब्धि-अधिकारः।
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अथ प्रायश्चित्ताऽधिकारः ।
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लागे तो भगवान् प्राय
।
तेहनो उत्तर-सूत्र में तो
तिवारे कई एक अज्ञानी जीव वैक्रिय तेजू आहारिक लब्धि फोड्यां रो दोष श्रद्ध नहीं । ते कहे- जो प लब्धि फोड्यां दोष श्चित कांई लियो ते प्रायश्चित्त सूत्र में क्यूं नहीं कह्यो साधां दोष सेव्या त्यांरो प्रायश्चित्त वाल्यो नहीं सीहो अनगार मोटे २ शब्दे रोयो तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। ते पाठ लिखिये छै ।
।
पिण लिया इज होसी ।
तरणं तस्स सीहस्स अणगारस्स उभारणं तरियाए माणस्स अयमेवा रूवे जाव समुप्पजित्था एवं खलु मम धम्मायरस धम्मोवर सगस्स समणस्स भगवओो महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पडिभूए उजले जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सइ वदिस्संति यणं रणउत्थिया उमत्थ चेव कालगए इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिए अभिभूए समाणे आयावरण भूमीओ पचोरुभइ पच्चोरुभइत्ता जेणेव मालुया कच्छए, तेणेव उवागच्छइ २ ता मालुया कच्छयं तो २ गुप्पसिइ अणुप्पविसइत्ता महया महया सदेणं कुहु कुहुस्स परुराणे ॥१४३॥
( भगवती श० ५१ )
त० तिवारे त० तिख सीहा भणगार नं. न्झा० ध्यान में बेठा नं. ० एड. एत वतारूप. जा० यावत् विचार उत्पन्न हुआ. ए० एतावता रूप. म० म्हारे, ध० धर्माचार्य. धर्मा
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भ्रम विध्वंसनम्।
पदेशक. स० श्रमण भगवन्त महावीर ना शरीर में विषे. वि० विपुल. रो० रोगान्तक. पा० उत्पन्न हवो. उ० उज्ज्वल जा. यावत . का० काल करसी. व. वोलसी. अ० अन्यतीथक छ० छद्मस्थ में काल कीधो. इ० ए. ए० एहवो. म० महा. मा० मानसिक दुःख ते मन में विषे दुःख छै पिण वचने करी बाहिर प्रकाभ्यो नहीं रो दुःख करी. अ० पराभव्यो थको सिंह नामा साधु, अ० आतापना भूमि धकी. प० पाछो. अ उसरे. उ० ऊसरी ने. जे० जिहां मा० मालुया कच्छ बै वन गहन छै तिहां उ० श्रावे अावी नें. मा० मालुया कच्छ ना. अं० मध्योमध्य. अ० तेहनें विष प्रवेश करी ने. म० मोटे २. स० शब्दे करी ने. कु० कुहु कुहु शब्दे करी ने रुदन करइं।
अथ इहाँ सीहो अनगार ध्यान ध्यावता मन में मानसिक दुःख अत्यन्त अपनो। भालुया कच्छ में जाइ मोटे २ शब्दे रोयो वांग पाड़ी एहवो कह्यो। पिण तेहनों प्रायश्चित्त:वाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी । तिम भगवन्त लब्धि फोड़ी गोशाला में बचायोः। तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी। थाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इनि १ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली अमुत्ते साधु ( अति मुक्त ) पाणी में पानी तराई। तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं । ते पाठ लिखिये छै ।
तएणं से अइमुत्ते कुमार समणे वाहयं वहयमाणं पासइ २ ता महियापालिं वंधइ २ णावियामे २ नाविप्रोवि वणवमयं पडिग्ग हयं उदगंसि पवाहमाणे अभिरमइ तं च थेरा अदक्छ ।
(भगवती श०५ उ०४।
स० तिवारे, से० ते. अ० अइमुत्तो कुमार. स० श्रमण. बा. बाहलो पाणी नों. ब. बहतो धको. पा० देख हेग्यो ने, मा० मारिये पालि बांधी. या मौका ए माहरी एहवी विक
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प्रायश्चित्ताधिकार |
ल्पना करे. या० नाविक ना वाहक खलासिया नी परे अइमुत्तो मुनि या० नावमयपडघो प्रते उ० उदक ने विषे प० प्रवाहतो नावानी परे पच्यो चलावतो अ० श्रभिरमे है. रमयक्रिया वाक्याबस्था ना चाला थकी. तं० ते प्रति स्थविर देखता हुआ.
१६७
अथ इहां आते अनगार पाणी रो बाहलो बहतो देखी पाल बांधी पात्री मैं पाणी में नावानी परेतरावा लागो । एहवूं स्थविर देखी भगवन्त ने पूछयो । अमुत्तो केतले भवे मोक्ष जास्ये । भगवान् कह्यो इणहिज भवे मोक्ष जास्ये । हनी हीलना मत करो अग्लानिपणे सेवा व्यावच करो। एहवूं कह्यो चाल्यो पिण पाणी में पाली तराई तेहनों प्रायश्चित्त न चाल्यो पिण लियो इज होसी । तिम भगवान् लब्धि फोड़ी - तेहनो पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं । पिण लियो इज होसी । डाहा हुवे तो विचार जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली रहनेमी राजमती ने विषय रूप बचन बोल्यो । तेहनों दंड न चाल्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
एहिता भुंजिमो भोए माणुस्सं खु सुदुल्लाहं भुत्तभोगी पुणो पच्छा. जिण मग्गं चरिस्समो ॥ ३८ ॥
( उत्तराध्ययन ० २२. गा० ३८ )
० आव. ता० पहिलं. भु० श्रापणवेइ भोगवी. भो० भोग. मा० मनुष्य मों भव खु० निश्चय करी. सु० अतिहि दु० दुर्लभ है. भु० भुक्त भोगी थई ने. त० तिवारे पछे. जि० जिन मार्ग ने. च० श्रापण वेइ श्राचरसयां ।
अथ इहां कह्यो - राजमती रो रूप देखी रहनेमी बोल्यो । हे सुन्दरि ! आव आपां भोग भोगवां काम भोग भोगवी पछे चली दीक्षा लेस्यां । एहवा विषय रूप दुष्ट वचन बोल्यो | तेहनों स्यं प्रायश्चित्त लीधो । मासिक थी
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१६८
भ्रम विध्वंसनम्।
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६ मासी ताई प्रायश्चित्त कह्या छै। त्यां माहिलो काई प्रायश्चित्त लीधो। तथा दश प्रायश्चित्त कह्या छै। त्यां माहिलो किसो प्रायश्चित्त लीधो। रह्नेमी ने पिण काई प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होसी । डाहा हुवे तो विचारि जोइनो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
तथा धर्म घोष ना साधां नागश्री ने निन्दी ते पाठ लिस्निये छै ।
__ तं धिरत्थुणं अज्जो नागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुन्नाए. जाव निंबोलियाए. जाएणं तहारूवे साहु साहु रूवे धम्मरुइ अणगारे मास खमणंसि पारणगंसि सालइएणं जाव गाढणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए. ॥२२॥ ततेणं ते समणा णिग्गंधा धम्मघोषाणं थेराणं अंतिए एय मटुं सोचा णिसम्म चंपाए नयरीए सिंघाडग तिग जाव बहुजणस्स एव माइक्खति धिरत्थुणं देवाणुप्पिया ! णागसिरीए माहणीए. जाव णिवोलियाए जएणं तहा रूवे साहु साहु रूवे सालतिएणं जीवियानो ववरोवेति ॥२३॥ ततेणं तेसिं समणाणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म वहुजणो अगणमण्णस्स एव माइक्खति एवं भासति धिरत्युणं णागसिरीए माहणीए जाव ववरोवेति ॥२४॥
ज्ञाता ग्र०१६)
त० ते माटे. धिः धिक्कार हुप्रो. अहो ते नाग श्री ब्राह्मणी ने', प्र. अधनय. श्री अपुग्य. दो गिनी जा यावत् . णि मिवोली नी परे. महा जिके कछुओ व्यसन. जा.
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः।
जेथे. तथा रूप उत्तम साधु ने. मोटो साधु. ध० धर्म रुचि मोटो अनगार साँधु. मा० मास क्षमण ने पारणे. सा. शरद् ऋतु नो कडुवो स्नेह करी समारयो ते विषभूत देई ने. अ० अकाले.. निश्चय. जी० जीवितव्य थो चुकाव्यो इम कह्यो ते साधु मारयो. त तिवारे. ते अमह निर्ग्रन्थ साधु, ५० धर्म छोक, थे. स्थविर ने. अं० समीपे. ए० ए अर्थ. सो. सांभली. णि अवधारो ने ते साधु. चं० चम्पा नगरी नै त्रिक चौक चत्वर बीच मागें, जान याक्त. व० घणा लोका ने. ए० इम भाषे कहे. धि० धिक्कार हुवो अरे नाग श्री ब्राह्मणी ने. अनय अपुण्य दौर्भागिणी जा० यावत. णि निवोली सम कडुवो स्यालण व्यंजन. जा. जेणे त० महा उत्तम साधु. गुणवन्त मास खमण ने पारणे कड़वो तूंवो. सा० सालण व्यंजन. वहिरावी ने. जी० जीवितव्य थी रहित कीधो. साधु मारयो. त० तिवारे. ते ते. स. श्रमण. अं० समीपे ए. वचन. सो. सांभली में. णि अवधारी ने. व० घणा लोक माहो माही. ए. इम कहे. ए० इम भावे ए बात कहे. धि० धिक्कार हुवो रे नाग श्री ब्राह्मणी ने अधनय अपुण्य दौर्भागिनी जेणे साधु मारयो जीवितव्य थी रहित कियो ।
अथ अठे धर्मघोष तो साधां ने कह्यो। जे नागश्री पापिनी धर्म रुचि में कड़वो तुम्वो वहिंगयो। तेहथी काल करी धर्मरुचि सर्वार्थ सिद्ध में उपों। पिण इम न कहो नागश्री ने हेलो निन्दो इम आज्ञा न दीधी। अनें गुरां री आज्ञा बिना इ साधां बाजार में तीन मार्ग तथा घणा पंथ मिले तिहां जाइ ने नागश्रीं में हेली निन्दी। एहवो कार्य साधां ने तो करवो नहीं। अनें ए साधां ए कार्य कियो। भर्ने निशीथ उ० १३ में कह्यो गाढो अकरो तपी ने ( क्रोध करीने ) कठोर बचन बोले तो चौमासी प्रायश्चित्त आवे तो गुरां री आज्ञा बिना साधा तपी ने ए कार्य कीघो। तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होसी। तिम भगवान् लब्धि फोड़ी-तेहनों प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होसी। डाहा हु तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सेलक ऋषि ढीलो पज्यो । रोहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं । ते पाठ लिखिये छ।
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२००
भ्रम विध्वसनम् ।
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ततेणं से सेलए तंसि रोयायंकसि उबसंतंसि समाणं सितंसिविउल असणं पाणं खाइमं साइमं मजपाणएय मुच्छिये गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पासत्थे पासत्थ विहारी एवं उसन्ने कुसीले पमत्ते संसत्त विहारी उवलद्ध पीढ फलग सेना संथारए पमत्तेवावि विहरइ. नो संचाएइ. फासुएसणिणज पीढ़ फलग पञ्चप्पिणित्ता मंड्डुयं चरायं आपुच्छेत्ता वहिया जणवय विहारं वित्तए ॥७॥
ज्ञाता ५०५)
त तिवारे. से० ते सेलकाचार्य. तं० ते रोग पातक. उ० उपशम्यां गयां थकां रोग. स. समस्त शरीर सम्बन्धी वाधा उपशमी. तं० ते. वि० विस्तीर्ण घणो अन्न पाणी खादिम श्रादि देई ने राज पिड ने विषे तथा मद्य पान ने विषे. मु० मूर्छा पाम्यो. ग अत्यन्त मूर्खयो. गि गृध्र थयी. अ. सन मप मन थइ रह्यो. उ० थाकतो चारित्र क्रिया इं आलसू थयो थको विहार थी, इम ज्ञान दर्शनादिक प्राचार मूकी पासत्थो रह्यो माठो ज्ञानादिक आचार तेहनों. ५० पांच विध प्रमाद करी युक्त थयो. स. कदाचित क्रिया कदाचित् पासत्थो संसक्त तेहवो ही विहार छै जेहनों. उ० ऋतु बन्ध काले. पीठ फलक शय्या सन्थारो लेवो छ तेहनों. प० प्रमादी थयो सदा वारवा थो एहवा विवरे. णो पिण समर्थ नहीं. फा० प्रांशुक एषणीक पीढादिक पाछा सूपी ने मंडूक राजा प्रते. प्रा० पूछी ने व० वाहिर देश मध्ये विहार करिवा मन हुवो.
अथ अठे सेलक ने उसनो पासत्थो कुसीलियो प्रमादी संसत्तो कह्यो । पाड़िहारिया पीढ फलक शय्या सन्थारो आपी विहार करवा असमर्थ ऋह्यो। एहनों प्रायश्चित्त आवे के न आये। ए तो प्रत्यक्ष पासत्था कुशीलिया पणा नों ढीलापणा नों प्रायश्चित्त आवे। पिण सूतमें सेलक ने प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होसी।
वली सेलक ज्यूं ढीलो पड़े तिण ने हेलवा निन्दवा योग्य कह्यो। ते पाठ लिखिये छै:।
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः। .
२०१
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एवा मेव समणाउसो जाव णिग्गंथो वा २ ओसरणे - जाव संथारए. पमत्ते विहरइ. सेणं इह लोए चेव बहुणं सम
णाणं ४ हीलणिज्जे संसारो भाणियव्वो ॥२॥
(ज्ञाता अ०५)
ए० इण दृष्टान्त. स. हे श्रायुषावन्त श्रमणों! जी० जिहां लगे. णि म्हारो साधु साध्वी. उ० उसनो पासत्थो हुवे. जा० यावत्. सं० संथारा में विषे. ५० प्रमादी पणे वि. विचरे. से० ते. इ. इण मनुष्य लोक में विषे. ब० घणा साधु साध्वी श्रावक श्राविका माहि. हि हेलवा निन्दवा योग्य. सं० चार गति रूप संसारे भ्रमण कहियो.
इहां भगवन्ते साधां ने कह्यो जे म्हारो साधु साध्वी सेलक ज्यूं उसनो पासत्थो ढीलो हुवे, ते ४ तीर्था में हेलवा योग्य निन्दवा योग्य छै । यावत् अनन्त संसारी हुवे । तो जे सेलक ने हेलवा योग्य निन्दवा योग्य कयो , उसनो पासत्थो कुशीलियो प्रमादी संसत्तो कह्यो। एहनों पिण प्रायश्चित्त चासो नहीं । पिण लियो इज हुस्ये। तथा सेलक नी व्यावच पंथक करी। तेहनों पिण प्रायश्चित्त
आवे । ते किम्-ए सेलक तो उसनो पासत्थो कह्यो। अनें निशीथ उद्देश्य १५ पासत्था ने अशनादिक दीधां चौमासी प्रायश्चित्त कह्यो। ते नाटे ते पाठ लिखिये छै ।
जे भिक्खू पासस्थस्स असणं वा ४ देइ देयंत वा साइजइ।
(निशीथ उ०१५ बो०५०)
जे० जे कोई साधु साध्वी. पा० पासत्था ने. अ. अशनादिक ४ श्राहार. दे० देवे. दे. देवता में अनुमोदे.
अर्थ अठे पासत्था ने अशनादिकं देवे देता ने अनुमोदे तो चौमासी दंड कह्यो भने सेलक ने शाता में पासत्थों कयो। ते सेलक पासत्था कुशीलिया ने
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भ्रम विध्वंसनम् ।
अशनादिक 8 पंक आणी दीधा । ते माटे पंथक नें पिण चौमासी प्रायश्चित्त निशीथ में कह्यो ते न्याय जोइये । ते पंथक नों पिण प्रायश्चित्त चाल्यों नहीं । पिण लियो इज होसी । केतला एक अजाण, सेलक मी व्यावच पंथक कीधी तिण में धर्म कहे छे । ते कडे ४६६ साधां सेलक नी व्यावच करवा पंथक ने थाप्यो
माटे धर्म है। जो धर्म न हुवे तो पंथक ने व्यावच करवा रखता नहीं । इम कहे तेहनो उत्तर - जे ए पंथक ने सेलक नी व्यावच करवा थाप्यो. जद सर्ब भेला हुंता. आहार पाणी तो तोड्यो न हुंतो ते पिण आप रो छांदो छै । पूर्वली प्रीति माटे थाप्यो । जो पंथक व्यावच करी तिण में धर्म हुवे तो ४६६ पोते छोड़ी क्यूं गया । त्यां एम विचासो-जे श्रमण निर्ग्रन्थ ने पासत्था पणो न कल्पे ते माटे आप ने विहार करवो श्रेय छै । इम ४६६ साधां मनसूवो कीधो । ते मनसुवा में पिण पंथक न हो। ते माटे पंधक ने थाप्यो कह्यो । अनें ४६६ साधां सेलक नें पूछी विहार कीधो पिण वंदना न कीधी । जे सेलक नी व्यावच में धर्म जाणे तो वंदना क्यूं न कीधी । पछे से लक विहार कियो । तिवारे मंडूक राजा मे पूछी ने विहार कियो छै ते माटे पूछवा रो कारण नहीं । अनें सेलक नें ४६६ चेलां वन्दना पिण न कीधी । ते माटे पंथक सेलक ने वन्दना करी व्यावच करी तिण में धर्म नहीं । जे निशीथ उ० १३ में कह्यो– उसन्ना पासत्था ने वांदे तो चौमासी दंड आवे । तो सेलक उसन्ना पासत्था ने पंथक वांद्यो ते निशीथ ने न्याय वौमासी दंड आवे ते पंथक नें पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं । पिण लियो इज हुस्ये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
I
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
२०२
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तथा सुमंगल अनगार मनुष्य मारसी तेहनें पिण दंड चाल्यो नहीं । ते पाठ लिखिये छै ।
तएण से सुमंगले अणगारे विमलवाहणे णं रराणा सच्चपि रहसि रेणं गोल्लाविए समाणे आसुरुते जावमिसि
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः
२०३
मिसेमाणे श्रावण भूमी पत्र रुभइ पञ्च्चोरुभइत्ता तेया समुग्धारणं समोहण हिति समोहाहितित्ता सत्तटुपयाई पच्चोसक्किहिति पच्चो सक्तिर्हितत्ता विमलवाहणं रायं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं जाव भासरासिं करेहिति ॥१८५॥ सुमंगलें भंते! अणगारे विमल वाहणं रायं सहयं जाव भासरासि करेत्ता कहिं गच्छहित्ति कहिं उववज्जेहित्ति. गो. सुमंगलेणं अणगारे विमलवाहने रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता वहूहिं चउत्थ छट्टुम दसम दुवालरस जाव विचित्तहिं तवो कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे वहूई वासाई सामण्ण परियागं पाउणिहिति बहू २ त्ता मासियाए संलेहाए सट्टिं भत्ताई' असणाई जाव छेदेत्ता आलोइय पड़िकते समाहियते उड्ढ चंदिम सूरिय जाव गेवेज गवि - माणे सस्यं वीईवत्ता सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे देवताए उबवजिहिति ॥
( भगवती श० १५)
स० सारथी साथ. ते०
त० तिवारे से० ते सुमंगल अनगार. वि० विमल वाहन. २० राजा. तं० तीजी वार. ० रथ, सि० शिरे करी नें. गो० उछाल्या छता. प्रा० क्रोधवन्त. जा० यावत् मिसिमिलामान थया. अ० आतापना भूमि थी. प० पाछो ऊसरे ऊसरी नें. ते० तेज समुद्घात. स० करस्ये करी नें. स० सात आठ. प० पगलां प० पाछे ऊसरे. स० सात आठ अगलां पाछा ऊसरी ने. वि० विमल वाहन. २० राजा प्रते. सं० घोड़ा रथ साथै तेजे करी नें. त० तप यावत् भस्म राशि करस्ये सु० सुमंगल. भ० भगवन्त ! ० अनगार. वि० विमल वाहन राजा प्रते. स० घोड़ा सहित जा० यावत् भ० भस्म राशि करी नें. ७० किहां. ग० जोस्ये. क० किहां उपजस्ये. गो० हे गौतम ! सु० सुमंगल. अ० अनगार. स० घोड़ा सहित जा० यावत् भ० भस्म राशि करी नें. ब० अ० अठम द० दशम. जा० यावत् वि० विचित्र त० तप कर्म करी
वि० विमल वाहन राजा प्रते. घणा. च० चउथा. ३० छ०
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२०४
भ्रम विध्वंसनम्। .
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ने. अ० आपण श्रात्मा प्रते भावी ने, ब० घणा वर्ष. सा० चारित्र पाली ने. मा० मास नी.
स० सलेखणाइं. स. साठ, भ० भात पाणी. अ० अणसणा. यावत् छेदी ने. श्रा० आलोइ. ५० पडिकमे. स० समाधि प्राप्ति. उ० ऊर्द्धव चन्द्रमा. जा० यावत , ३० अवेयक. विवानवालना. स. शयन प्रते. वि० व्यति क्रमी ने. सर्वार्थ सिद्धि. म. महा विमान में विषे. दे० देवता पणे, उ० उपजस्ये.
अथ अठे इम फह्यो-गोशाला रो जीव विमल बाहन राजा सुमंगल अनगार रे माथे तीन चार रथ फेरसी। तिवारे सुमंगल अनगार कोप्यो थको तेजू लेश्या मेली भस्म करसी। ते सुमंगल अनगार सर्वार्थसिद्धि जइ महावदी में मोक्ष जासी। इहां सुमंगल अणगार घोड़ा सारथी राजा रथ सहित सर्व में भस्म करसी। पहयूं कह्यो पिण तेहनों प्रायश्चित्त चाल्यो नथी। जिम मनुष्य मासा एहवो मोटो अकार्थ कीधो तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो न थी। तिम भगवन्ते लब्धि फोड़ी तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो .न थी। जिम सुमंगल आराधक कह्यो, सर्वार्थ सिद्धि नी गति कही। ते माटे जाणीई प्रायश्चित्त लियो इज होसी। तिम लब्धि फोड्यां उत्कृष्टी ५ क्रिया कही ते माटे :इम जाणीइ भगवन्त लब्धि फोड़ी तेहनों पिण प्रायश्चित्त लियो इज हुस्यै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
धली केतला एक इम कहे-सुमंगल अनगार में तो “आलोइय पडिक्कते" ५ पाठ कह्यो। तिणसू लब्धि.फोड़ी तिणरो प्रायश्चित्त चाल्यो। पिण भगवन्त ने प्रायश्चित्स चाल्यो नहीं इम कहे तेहनों उत्तर-"आलोइय पडिक्कते" ए पाठ लब्धि फोड़ी तेहनों नहीं है। ए तो घणा वर्षा चारित्र पाली मास नों संथारो करी पछे “आलोइय पडिक्कते" ए पाठ कह्यो। ते तो समचे पाठ छेहला अवसर नों चाल्यो छै। ए छहला अवसर नों "आलोइय पडिक्कते' पाठ तो घणे ठिकाणे काया छै । ते केतला एक लिखिये छ।
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः।
२०५
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ततेणं से खंधए अणगारे समणस्त भगवो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइय माइयाइं एकारस अंगाई अहिज्झित्ता वहु पडिपुण्णाई दुवालस्स वासाइ सामण्ण परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सद्धिं भत्ताइ अणसणाए छेदत्ता आलोइय पड़ि-. क्कते समाहिपत्ते आणपुवीए कालंगए।
(भगवती श०२ उ०१)
त० तिवारे. से. ते. ख० स्कंदक. अ० अनगार. स० श्रमण. भ० भगवन्त. मा महावीर ना. त० तथा रूप तेहवा स्थविर में. अं० समीपे. सा० सामायक श्रादि देई में. ए० ११ अंग प्रति. अ० भणो में. व० घणू प्रतिपूर्ण. दु० १२. व० वर्ष. ५० चारित्र पर्याय. पा० पाली ने. मा० मास नी सलेखणाई मास दिवस ने अनशनें. अ० श्रात्मा थकी कर्म क्षीण करी ने. स०साठि दिन राति नी भत्ति है तेहना त्याग थकी साठि. भत्ति अनशने त्यजी ने छेदीने. मा० ब्रत ना अतिचार गुरू में संभलावी में तेहनों मिच्छामि दुक्कडं देई चे. समाधि पाम्यो अनुक्रमे काल पाम्यो.
अथ अठे स्कंदक संथारो कियो तेहनों पिण "आलोइय पडिक्कते" पाठ कह्यो। तो जे संथारो करतीं वेलां तो ५ महाव्रत आरोप्या एइवो पांठ कह्यो। पछे संथारा में इण स्कंदके किसी लब्धि फोड़ी तेहनी आलोवणा कही। पिण ए तो अजाण पने दोष लागां री शंका हुवे तेहनें ए पाठ जणाय छै। पिण जाण में दोष लगावे तेहनें ए पाठ नहीं दोस। तिम सुमंगल रे अजाण दोष रोए पाठ छै पिण लब्धि फोड़ी तिण री आलोवणा चाली नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा तिसक अनगार पिण संथारो कियो तेहने आलोइय पाठ कायो। ते लिखिये छ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसय नामं अणगारे पगइ भदए जाव विणीए छटुं छ?णं अणिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहु पडिपुण्णाई अट्ठ संवच्छराई सामण्ण परियाई पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सटैि भुत्ताइ अणसणाए छेदेत्ता आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते । काल किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंति उववायस भाए देव सयणज्जंसि देव दूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज भाग मेत्तीए ओगाहणाए सकस देविदंस देवरगणो सामाणिय देवत्ताए उववरणे।
(भगवती श०३ उ०१)
ए० इम. खलु. निश्चय. देवानुप्रिय रो. अं० अन्ते वासी. ती० तिष्यक नाम अणगार. प० प्रकृति भद्रीक. जा० यावत. विनीत छ. छठ भत्ति करीः अ० निरन्तर. त० तप कर्म करी.. अ आत्मा ने भावतो थको. बहु प्रतिपूर्ण आठ वर्ष. सा० दीक्षा पर्याय. पा. पाली ने. मास नी. स० सलेखणा करी ने. अ० अात्मा ने सेवी ने. स० साठि भात पाणी ते अनशने. छे छेदी में. श्रा० अालोई ने मनना शल्य ने प० अतिचार ने पडिकमी ने. मन में स्वस्थ पणे समाधि पाम्या थकां. का० काल करी ने. सो० सौधर्म देवलोके. स० आपना विमान में विषे, उ० उपपात सभा में. दे. देवशय्या में. दे० वदूष्य रे अन्तर में. अङ्गुल ना असंख्यात भाग मात्र, अवगाहना. स. शक्रेन्द्र देवेन्द्र. देव राजा रे सामानिक देव पणे. उ० उत्पन्न हुवो।
इहां तिष्यक अनगार ८ वर्ष चारित्र पाली मास रो संथारो कियो तिहां छेहड़े “आलोइय परिक्कते” कह्यो। एणे किसी लब्धि फोड़ी मेहनी आलोवणा कही। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
तथा कार्तिक सेठ १४ पूर्व भणी १२ वर्ष चारित्र पाली संथारो कियो तेहनें पिण भालोइय पाठ कहो। ते लिखिये छै ।
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः। तएणं से कत्तिए अणगारे ठाणे सुव्वयस्स अरहओ तहा रूवाणं थेराणं अंतियं सामाइय माइयाई चउदस्सपुवाई अहिजई २ त्ता वहुई चउत्थ छट्टम जाव अप्पारणं भावे माणे बहु पड़ि पुण्णाई दुवालस बासाई सामण्ण परियागं पाउणइ २ ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झासेइ २ त्ता सहि भत्ताइ अणसणाइ छेदेइ छैदेइत्ता आलोइय पडिक्कंते जाव कालं किच्चा सोहम्म कप्पं सोहम्मे वडिसए विमाणे उववाय सभाए देवसयणिज्जा स जीव सक्के देविंदत्ताए उववरणो।
( भगवती १८ उ०३)
त० तिवारे. से० ते. क० कार्तिक ७० अंणगारः मु० मुनि सुव्रत अरिहंत ना. त० तथा रूप. थे० स्थविरां रे कने से. सामायकादि चउदह पूर्व नों अध्ययन करी ने. ब. बहुत चतुर्थ भत्ति छठ अठम यावतू. अन आत्मा में भावता थको. ब० बहुत प्रतिपूर्ण. दु. १२ वर्ष रों साधु री पर्याय पाली ने. मास नो संलेखना सं. अ. प्रात्मा ने दुर्वल करी ने. समाठि भात. अ० अनशन. छे छेदे छेदी ने. आलोई ने. जा. यावत. काल मासे काल करी में सो सौधर्म देवलोक में विषे. सौधर्मावतंसक विमान में विषे. उपपात सभा में विषे. दे० देव शव्या ने विषे. दे० देवेन्द्र पणे उत्त्पन्न हुवो।
अथ इहां कार्तिक अनगार में पिण "आलोइय पडिक्कते" ए पाठ छेहड़ें कह्यो। एणे किसी लब्धि फोड़ी-जेह नी आलोवणा कही। तथा कप्पबड़ीसिय उपाङ्ग में पद्म अनगार ने पिण "आलोइय पडिकन्ते' पाठ कह्यो। इम धन्नादिक अणगार रे घणे ठिकाणे छेहड़े जाव शब्द में “आलोइय पडिक्कते" पाठ कह्यो छै । तथा उपासक दशा में आनन्द कामदेवादिक श्रावका ने पिण छैहड़े "आलोइय पडिकन्ते" पाठ कह्यो । तिम सुमंगल ने पिण पहिला तो घणा वर्षा चारित्र पाल्यो ते पाठ कह्यो. पछे संथारा नों पाठ कहि छेड़ड़े "मालोइय पडिक्कते" पाठ कह्यो छै। पिण लब्धि फोड़वा रो प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। अनें जो लब्धि
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भ्रम विध्वंसनम् ।
फोडण रा प्रायश्चित्त रो पाठ हुवे तो इम कहिता "तस्सठाणस्स आलोइय पडिक्कते" पिण इम तो कह्यो नथी। ते माटे लब्धि फोडण रो प्रायश्चित्त चालयो नहीं। भगवती श० २० उ० ६ जंघा चारण विद्या चारण लब्धि फोडे तेहनों प्रायश्चित्त चाल्यो छै। तिहां एहवो पाठ कह्यो छै। "तस्स ठाणस्स आलोइय पडिपकते” इम कयो । तथा भगवती श० ३ उ० ४ वैक्रिय करे तेहनों प्रायश्त्ति कह्यो। तिहां पिण "तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कते" इम पाठ कह्यो । लब्धि 'फोड़ी ते स्थानक आलोयां आराधक कह्या। अनें सुमंगल ने अधिकारे "तस्स ठाणस्स" पाठ नथी। ते माटे लब्धि फोडण रो प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं । जे सीहो मणगार मोटे २ शब्दे रोयो वांग पाड़ो ते अकल्पनीक कार्य छै । तेहनों प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। अइमुत्ते पाणी में पात्री तराई ए पिण कार्य साधु ने करवा जोग नहीं। उपयोग चूक ने कियो। तेहनें पिण प्रायश्चित्त जोइये पिण चाल्यो नहीं। रहनेमी राजमती ने कह्यो, हे सुन्दरि! आपां संसार ना काम भोग भोगवी भुक्त भोगी थइ पछे वली दीक्षा लेस्यां। ए पिण बचन महा अयोग्य पापकारी छै । तेहनों पिण दंड चाल्यो नहीं। धर्मघोष रा साधा गुरां ने बिना पूछयां घणा पंथ मिले तिहां नागश्री ने हेलो निन्दी एहनों पिण दंड चाल्यो नहीं। सेलक में उसन्नो पासत्थो कुशीलियो संसत्तो प्रमादी कह्यो। वली सेलक जिसो हुवे तिण ने हेलया योग्य निन्दना योग्य यावत् अनन्त संसारी कह्यो। ते सेलक ने पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। पंथक सेलक पासत्था नी ब्यावच करी तेहनों पिण दंड चाल्यो नहीं। सुमंगल अनगार राजा सारथी घोड़ा रथ सहित में भस्म करसी तेहनें पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। तिम भगवन्त पिण छद्मस्थ पणे लब्धि फोड़ी गोशाला ने बचायो तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं। जिम ए पाछे कह्या सीहादिक अणगार में दंड चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होस्ये। तिम भगवन्त पिण लब्धि फोड़ो तिण रो दंड चाल्यो नहीं। पिण लियो इज होसी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक कहे--गोशाला में भगवान लब्धि फोड़ी बचायो। तिण में दोष लागे तो भमवान में मियंठो फिस्यो हुन्तो। भगवान् में छमस्थ पणे कषाय
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः
कुशील नियंठो छ। ते कषाय कुशील नियंठो अपडिसेवी कह्यो । ते माटे मंगवान् ने दोष लागे नहीं। इम कहे तेहनों उत्तर-कषाय कुशील नियंठा री ताण करे तेहने पूछी जे गौतम स्वामी में किसौ नियंठो हुन्तो। गौतम स्वामी में पिण कषाय कुशील नियंठो हुन्तो। पिण आनन्द ने घरे वचन में खलाया. बली पडि. कमणो संदा करता. वली गोचरी थी आवी इरियावही पडिक्कमता जे कषाय कुशील नियंठे दोष लागे इज नहीं। तो गौतम मानन्द ने घरे किम खलाया। पली इरियावहि पडिक्कमवा रो काई काम । तथा वली कषाय कुशील नियण्ठे पतला पोल कहा। ते पाठ लिखिये छै।
कषाय कुसीलेणं पुच्छा. गोयमा ! जहणणेणं अटूपव. पण मायाो उक्कोसेणं चउद्दस पुवाई अहिज्जेजा।
(भगवती २० २५ उ०६)
के कषाय कुशील नी पृच्छा. गो. हे गौतम ! ज० जघन्य. म० माठ प्रवचन मातेको अध्ययन भले. उ० उत्कृष्ट चो० चउदै पूर्व नो. अ० अध्ययन करे ।
अथ इहां कह्यो-कषाय कुशील नियंठो रा धणी भणे तो जेवन्य ८ प्रवचन माता ना उत्कृष्टा १४ पूर्व अर्ने पुलाक नियंठा वालो जघन्य ६ मा पूर्व नी तीजी वत्थु (वस्तु ) उत्कृष्टा । पूर्व वक्कुप्त अमें पंडिसेवा कुशील भणे तो जघन्य ८ प्रवचन माता ना उत्कृष्ठा १० पूर्व भणे । हिवे ज्ञान द्वारे कहे छै ।
कषाय कुसीलेणं पुच्छा. गोयमा ! दोसुवा तिसुवा चउसुवा होजा । दोसु होजमाणे दोसु आभिणिवो हियणाण "सुप्रणाणेसु होजा तिसु होजमाणे तिसु आभिणिवोयियणाण सुअण्णाण ओहिणाणेसु होजा अहवा तिसु आभिणिवोहियणाण सुअणाण मण पजवणाणेसु होजा, चउसु होज
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भ्रम विध्वंसनम् ।
माणे चउसु आभिणिवोहियणास सुअरणाण ओहिणाण
मग पजवणासु होजा ॥
( भगवती श० २५ उ० ६ )
क० कषाय कुशील नी पृच्छ. हे गौतम! दो० बे ने विषे. ति० त्रिण ने विषे. चा० चार विषे. दे० वे ज्ञान ने विधे होय. तिवारे. अ० मतिज्ञान ने षिषे. सु० श्रुतज्ञान ने विषे, ति० त्रिया ज्ञान ने विषे हुई तित्रारे. प्रा० मतिज्ञान ने विषे सु० श्रुतज्ञान ने दिषे. श्रो० अवधिज्ञान ने विषे हुई अ० अथवा त्रिण ने विषे हुइ तिवारे त्रिण. श्रा० मतिज्ञान ने विषे. सु० श्रुतज्ञान ने विषे म० मन पर्यव ने विषे च० चार ने विषे हुइ तिवारे. श्र० मतिज्ञान ने विषे सु० श्रुतज्ञान ने विषे श्रो० अवधि ज्ञान ने विषे. म० मन पयव ज्ञान ने विषे हुई
अथ अठे कषाय कुशील नियंटे जघन्य २ ज्ञान अनें उत्कृष्टा ४ ज्ञान कह्या । अनें पुलाक वक्कुस पडि सेवणा में उत्कृष्टा मति श्रुत अवधि ३ ज्ञान कला | पिण मन पर्यव ज्ञान न कहो। हिवैं शरीर द्वारे करी कहे हैं।
कवाय कुसीले पुच्छा. गो० ! तिसुवा चउसु वा पंचसु वा होना तिसु उरालिये ते या कम्मए सु होजा चउसु होमाणे चउसु उरालियं. वेडव्विह तेया कम्मएसु होजा पंचसु होमाणे उरालिय वेड व्विय आहारग तेयग कम्मएसु होजा ।
( मगवती शतक २५ उ० ६.)
क० कषाय कुशोल मी पृच्छा गो० हे गौतम! ति० त्रिश चार. प० पांच शरीर हुईणि शरीर ने विषे तिवारे हुई. उ० औौदारिक. ते तेजस क० कार्मण हुइ च० चार शरीर में विषे हुह' तिवारे चार, उ० औौदारिक. वे० वैक्रिय. ते० तैजस. क० कार्मण ने त्रिषे हुइ पं० पांच शरीर ने विषे हुइ प्रो० श्रदारिक. वे० वैक्रिय. श्रा० आहारिक. ते० तेजस क० कार्मण शरीर ने विधे हुई.
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः।
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अथ इहां कषाय कुशीले में ३ तथा ४ तथा ५ शरीर कह्या। अनें पुलाक में ३ शरीर वक्कुस पड़िसेवणा कुशील में आहारिक बिना ४ शरीर पावै। अने कषाय कुशील में वैक्रिय आहारिक शरीर कह्या, तो वैक्रिय आहारिक लब्धि फोड्या दोष लागे छै। हिवै समुद्घात द्वार कहे छ।
.. कषाय कुसीलेणं पुच्छा. गो० ! छ समुग्घाया प० तं. वेदणा समुग्घाए जाव आहारग समुग्घाए.
__ (भगवती श० ०५ उ०६ )
क० कषाय कुशील नी पृच्छा. गो. हे गौतम ! छ० ६ समुद्रघात परूपी ते कहे छै. चेल भेदनी समुद्घात यावत् प्रा० श्राहारिक समुद्घात.
. अथ अठे कषाय कुशील में केवल समुद्घात वजी ६ समुद्घात कही। अनें पुलाक में ३ समुद्घात बेदनी १ कगाय २ मरणती ३ वक्कुस पडिलेवणा कुशील में आहारिक, केवल वजी ५ समुद्घात पावै । अत्र कषाय कुशील में ६ समुद्घात कही। ते भणी वैक्रिय तेजस आहारिक समुद्धात पिण ते करे छ। अनें पन्नवणा पद ३६ वैक्रिय तेजस आहारिक समुद्घात कियां जघन्य ३ क्रिया उत्कृष्टी ५ क्रिया कही छै। इणन्याय कषाय कुशील नियंठे उत्कृष्टी ५ क्रिया पिण लागे छै। ए तो मोटो दोष छै । तथा वली कषाय कुशील नियंठे आहारिक शरीर कह्यो। अनें भगवती श० १६ उ०.१ आहारिक शरीर करे ते अधिकरण कह्यो। प्रमाद नों सेविवो कह्यो। अधिकरण अने प्रमाद सेवे ते तो प्रत्यक्ष दोष छै। तथा वली कषाय कुशील नियंठे वैक्रिय शरीर कह्यो छै। अनें भगवती श ३ उ० ४ कहो। माथी वैक्रिय करे पिण अमायी वैक्रिय न करे। ते मायी बिना आलोयां मरे तो विराधक कह्यो। एहवो वैक्रिय नों मोटो दोष कह्यो। ते चैक्रिया दोष रूप कार्य कषाय कुशील में पाये छै। ते कषाय कुशील वैक्रिय तथा आहारिक करे छै। ए तो प्रत्यक्ष मोटा २ दोष कषाय कुशील में कया छ। तथा कपाय कुशोल नियंठे प्रत्यक्ष दोष लगावे है। ते पाठ लिखिये छै ।
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भ्रम विध्वंसमम्।
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- कसाय कुसीले पुच्छा. गो० ! कसाय कुशीलतं जहति पुलायं वा वउसं वा. पडिसेवणा कुसीलं पा. णियंठं वा अस्संजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपजइ.
(भगवती २० २५ उ०६)
क० कषाय कुशील नी पृच्छा. गो. हे गौतम ! क० कषाय कुशील पण. स० तजी पुल पुलाक पर्यु. ५० ववकुश पj. ५० प्रति सेवना कुशोल पण णि अथवा निर्ग्रन्थ पणु. भर असंयम पणु. स. संयमासंयम पणु. उ० पड़िवज्जे.
अथ इहां कह्यो-कषाय कुशील नियंठो छोड़ि किण में जाये। कषाय कुशील पणो छांडी पुलाक में भावे। वक्कुस में आवे। पडिसेवण कुशील में भावे । निर्ग्रन्थ में आवे । असंयम में आये । संयमासंयम ते श्रावक पणा में आवे । कषाय कुशील पणो छांडि ए ६ ठिकाणे आवतो कह्यो। कषाय कुशील में दोष लागे इज नहीं। तो संयमासंयम में किम आवे । ए तो साधु पणो भांगी श्रावक थयो ते तो मोटो दोष छै। ए तो साम्प्रत दोष लागे तिवारे साधु रो श्रावक हुवे छै। दोष लागां बिना तो साधु रो श्रावक हुवे नहीं। जे कषाय कुशील नियंदे तो साधु हुंत। पछे साधु पणो पाल्यो नहीं तिवारे श्रावक रा व्रत आदरी श्रावक थयो। जे साधु रो श्रावक थयो जद निश्चय दोष लाग्यो। तिवारे कोई कहे-र तो कषाय कुशील पणो छांसी पाधरो संयमसंयम में आवे नहीं। इम कहे तेहनो उत्तर-जे कषाय कुशील पणो छोड़ी पुलाक तथा वक्कुस थयो । ते वक्कुस भ्रष्ट थई श्रावक पणो आदरे ते तो वक्कुस पणो छांडी संयमासंयम में आयो कहिणो। पिण कषाय कुशील पणो छांडो संयमा संयम में आयो न कहिणो। कषाय कुशील पणो छांडी निर्ग्रन्थ में आवे कह्यो। पिण स्नातक में आवे इम न कह्यो। बीचमें अनेरो नियंठो फर्सि आवे ते लेखे कह्यो हुवे तो स्नातक में पिण पावतो न कहिता। दश में गुणठाणे कषाय कुशील नियंठो हुवे तो तिहां थी १२ में गुणठाणे गयां निम्रन्थ में आयो, तिहाँ थी १३ में गुणठाणे मयां स्नातक थयो ते निम्रन्थ पणो छांड़ी स्नातक थयो। पिण कषाय कुशील पणो छांही स्नातक में मायो इम न करो। तिम कषाय कुशील पणो छाडि वक्कुस थयो। ते वक्कुस
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः ।
भ्रष्ट धई श्रावक थयो । ते पिण वक्कुस पणो छांडी संघमा संयम में आयो ।
पिण कषाय कुशील पणो छांडि सयमा संयम में न आयो ।' तथा वक्कुस पो छाडि पडिवणा में आवे १ कषाय कुशील में २ असंयम में ३ संयमासंयम में ४. ए चार ठिकाणे आवे कह्यो । पिण निर्ग्रन्थ स्नातक में आघता न कह्या । ते किम चक्कु पंछांड़ी निर्प्रन्थ स्नातक में आवे नहीं चढतो चढतो २ आवे वक्कुस पण छांडो पाधरो निर्ग्रन्थ न हुवे । बीचे कषाय कुशील फर्सी ने निर्मन्थ में आवे । ते मादे निर्ग्रन्थ में कषाय कुशील आवे पिण वक्कुस न आवे । ए तो पाधरो आवे इज नहीं कह्यो छै । ते न्याय कषाय कुशील पणो छांडि संयमासंयम भणी कषाय कुशील में प्रत्यक्ष दोष लागे छे । डाहा हुवे तो
में आवे कह्यो । विचारि जोइजो ।
इति १० बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली पुलाक वक्कुस पड़िसेवणा में ४ ज्ञान १४ पूर्व मों भणवों वयों छै । अनेकवाय कुशील में ४ ज्ञान १४ पूर्व कह्या छै । अर्ने १४ पूर्वधारी पण वचन में चूकता कह्या छै । ते पाठ लिखिये छै ।
आयार पन्नति धरं काय विक्ख लियं नच्चा
२१३
दिट्टिवाय महिज्जगं ।
न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥
( दशवैका लिक ० ८गा० ५० )
० श्राचारांग प० भगवती सूत्र नों धरणहार ते भयणहार है. दि० दृष्टि धारमा अंग नों. स० भगणहार एहवा नं. ब० बोलता बचने करी. खलायो जाणो ने न० नहीं तेनें. इसे. मु० साधु,
अथ इहां कह्यो दृष्टि बाद से धणी पिण बचन में खलाय जाय तो और साधु ने हसणो नहीं । ए दृष्टि वाद रो जाण चूके. तिण में पिण कषाय
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२१४.
- भ्रम विध्वंसनम्।
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varuvvvvirrore
कुशील नियंठो छै। वली १४ पूर्वधर ४ ज्ञानी पिण पतिक्रमणो करे । इणन्याय कषाय कुशील नियंठे अजाग तथा जाण ने पिण दोष लगावे छै। जे वैक्रिय तेजू आहारिक लब्धि फोड़े ते जाण में दोष लगावे छै। वली साधु पणो भांग ने श्रावक पणो आदरे ए जावक भ्रष्ट थयो, तो और दोष किम न लगावे । इणन्याय कषाय कुशील नियंठे दोष लगावे छै। तिवारे कोई कहे ए कषाय कुशील नियंठा में अपडिसेवी किणन्याय कह्यो। तेहनों उत्तर-ए कषाय कुशील नियंठा ने अपड़ि. सेवी कह्यो-ते अप्रमत्त तुल्य अपडिसेवी जणाय छै। कषाय कुशील नियंठा में गुणठाणा ५ छै। छठा थी दशमा ताई तिहां सातमें आठमें नवमें दशमें गुणठाणे भत्यन्त शुद्ध निर्मल चारित्र छै। ते अपडिलेवी छै। अने छठे गुणठाणे पिण अत्यन्त विशिष्ट निर्मल परिणाम नो धणी शुभ योग में प्रवर्ते छै। ते अडिसेवी छै। तथा दीक्षा लेतां अथवा पुलाक वक्कुश पडिसेवणा तजी कषाय कुशील में आवे तिण वेलां आश्री अअडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशील रा धणी अपडिलेवी न दीसे । जिम कयाय कुशील में ज्ञान तो २ तथा ३ तथा ४ इम कह्या। शरीर पिण ३ तथा ४ तथा ५ इम कह्या। अनें लेश्या ६ वही छै। पिण इम नहीं कही १ तथा ३ तथा ६ एहवो न कह्यो । ए लेश्या ६ कही छै। ते छठा गुणठाणा री अपेक्षा इ पिण सर्व कषाय कुशील रा धणी में ६ लेश्या नहीं। ते किम् ७-८-६-१० गुणठाणा में कषाय कुशील नियंठो छ। तिहां ६ लेश्या नथो । कोई कहे ६ लेश्या रा पेटा में किहां १ पावै किहां ३ पावै, ते ६ लेश्या में आगई इम कहे। तिण रे लेखे शरीर पिणा पांच इज कहिणा। तीन तथा ४ कहवा रो काई काम । ३ तथा ४ शरीर पांच रा पेटा में समाय गया। वली ज्ञान पिण ४ कहिणा । २ तथा ३ कहिवा रो काई' काम । २ तथा ३ शान तो चार ज्ञान में समाय गया। इम लेश्या न कही समचे ६ लेश्या कही ए छठा गुणठाणा आश्री ६ लेश्या कहो। सर्व आनी कहिता तो १ तथा ३ तथा ६ इम कहिता पिण सर्व रो कथन इहां न लियो। तिम अपडिसेवी कह्यो। ते पिण अप्रमत्त आश्री तथा अप्रमत्त तुल्य विशिष्ट चारित्र रो धणी छठे गुण ठाणे शुभ योग में वर्ते ते आश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। ते ऊपर सूत्र नों हेतु भगवती श० १६ उ०६ पांच प्रकारे स्वप्न कह्या। वली भाव निद्रा नी अपेक्षाय जीवां ने सुत्ता, जागरा अने सुत्ता जागरा कहा । तिहां मनुष्य ने तिर्यश्च पंचेन्द्रिय टाल २२ दंडक तो सुत्ता कह्या । सर्वथा.
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः ।
શું.
अत माटे । भने तिर्यच पंचेन्द्रिय सुत्ता पिण है । भने सुत्ताजागरा पिण है । पण जागरा नहीं । मनुष्य में तीनू ही छै । इहां अव्रती ने सुत्ता कह्या । व्रती नैं जागरा कहाा । अने व्रत्यव्रती ते सुत्ता जागरा कह्या । जिम सुता, जागरा, सुत्तजागरा कथा | तिमहीज संबुडा असंबुडा संबुड्डाऽसंबुडा पिण कहिवा । “जहेव सुत्ताणं दंडओत हे भाणियन्वो" संबुड़ा सर्व व्रती साधु असंवुड़ा अब्रती संबुडाऽअसंबुड्डा, ते प्रत्यव्रती इम ३ भेद छै । तिहां पहवूं पाठ छै ते लिखिये छै ।
संवुडे भंते सुविणं पासइ असंवुडे सुविणं पासइ. संवुडासंवुड़े सुविणं पासइ. गोयमा ! संबुड़े सुविणं पासइ असंवुडेवि सुविणं पासइ संवुडासं वुडेवि सुविखं पासइ संवुडे सुविणं पासइ अहा तच्चं पास. असंबुडे सुत्रियां पासइ. तावात होजा अण्णावा तं होजा संबुडासंबुडे सुविणं पासइ एवं चैव ॥ ४ ॥
•
( भगवती श० १६ उ० ६)
पा०
सं० संवृत भ० हे भगवन् ! स० स्वम. पा० देखे. प्र० असम्वृत. सु० स्वंम पा देखे. सं० सम्बृतासम्वृत. सु० स्त्रम पा० देखे. गो० हे गौतम! सं० सम्वृत सु० स्वप्न. देखे. अ० असंम्वृत. सु० स्वप्न. पा० देखे सं० सम्वृतासम्वृत स्वम देखे सं० सम्बृत सु० स्त्रम. पा० देखे. अ० ते यथा तथ्य. पा० देखे. अ० असम्वृत. सु० स्वप्न. पा० देखे. त० तथा प्रकार अ० अन्यथा हो० होवे. पण तं० तेहवो सं० सम्वृतासम्बूत सृ० स्वम. पा० देखे. ए इणी प्रकारे.
अथ इहां को- संड़ो ते साधु सर्वव्रती स्वप्नों देखें । ते यथा तथ्य सांचो स्वप्न देखे | अ असंवुडो अब्रती अनें संबुडासंघुड़ो श्रावक ते स्वप्नों साचो पण देखे | अतें झूठों पिण देखे । इहां संवुडो स्वप्नो देखे ते यथा तथ्य साचो देखे कह्यो अनें साधु ने तो आल जंजालादिक झूठा स्वप्ना पिण आवे छे। जे आवश्यक अ० ४ कह्यो । "सोयणवत्तियाए" कहितां जंजालादिक देश
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२१६
विध्वंसनम् ।
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करी, तथा आगल कह्यो । "पाण भोयण विप्परिया सियाए" कहितां स्वप्ना में पाणी नों पीवो। भोजन न करवो ते अतिचार नों "मिच्छामिदुक्कर्ड" इहां स्वतं जालादिक झूठा विपरीत स्वप्ना साधु नें आवता कह्या छे । तो इहां सांचो स्वप्न देखे इम क्यूं कह्यो । एहनों न्याय ए सर्व संबुड़ा साधु आश्री नथी। विशिष्ट अत्यन्त मिर्मल चारित्र नों धणी सम्वुड़ो स्वप्नो देखे ते आश्री कह्यो छै 1 तिहां टीकाकार पिण इम को छै । “सम्वृतश्चेह - विशिष्टतर सम्वृतत्व युक्तो ग्राह्यंः” इहां टीका में पिण इम कह्यो । सांची स्त्रप्नो देखे तो सम्बुडो विशिष्ट अत्यन्त निर्मल परिणाम नों धणी सम्बुड़ो ग्रहणो । इहां अत्यन्त निर्मल चारित्र आश्री सम्बुड़ो साचो स्वप्नो देखे कह्यो । पिण सर्व सम्बुडा आश्री नहीं । तिम अत्यन्तं विशिष्ट निर्मल परिणाम नों धणी कषाय कुशील अपड़िसेवी कह्यो जणाय छै 1 तथा दीक्षा लेतां पुलाक वक्कुस पडिसेवणा तजि कवाय कुशील में आवे ते वेलां डिसेबी को जणाय छै । तथा पुलाक वक्कुस पडिलेवणा नें पडिसेवी कला । ते कषाय कुशील पणो छांडी पुलाक बक्कुस पडिलेवणा में आवे ते दोष लगायां सेती आवे ते भणी यां तीना में पड़िसेवी कह्या । अनें कषाय कुशील में अपड़िसेवी कह्यो । ते दीक्षा लेतां कषाय कुशील पणो आघे ते वेलां अपड़िसेवी तथा पुलाक वक्कुस पड़िसेवणा तजि कषाय कुशील में आवे ते वेलां भागलो दंड लेइ अपड़िसेबी थावै। जिम पुलाक वक्कुस पड़िलेवणा पणा नें आदरता पडिसेवी कह्यो । तिम कषाय कुशील पणो आदरतां अपड़िलेवी कह्यो । - इण न्याय कषाय कुशील नें अपड़िसेवी कह्यो जणाय छै । पिण सर्व कषाय कुशील ना धणी अपड़िसेवी कह्या दीखे नहीं । जिम कषाय कुशील में ६ लेश्याांकही ते विण प्रमत्त गुणठाणा आश्री कही । पिण सर्व कवाय कुशील ना धणी में ६ श्या नहीं । तिम अपड़िसेवी कह्यो । ते पिण अप्रमत्त तुल्य विशिष्ट निर्मल चारित्र नो धणी दीसे छै । पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया कथा दीसता न थी । जाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
अपड़िसेवी
इति ११ बोल सम्पूर्ण ।
मली भगवती श० ५ ४० ४ एहवो को छै ते पाठ लिखिये है
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प्रायश्चित्ताऽधिकार।
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अणुत्तरोववाइयाणं भंते ! देवा किं उदिण्ण मोहा उवसंत मोहा खीण मोहा, गोयमा! नो उदिगण मोहा. उवसंत मोहा. णो खीण मोहा.
(भगवती श०५ उ०४)
भ० अनुत्तरोपपात्तिक. भ. हे भगवन्त देव ! किं स्यूं उत्कट घेद मोहनी 2. उ० उपशान्त मोहनी छै. अमुत्कट वेद मोहनी, गो० गोतम ! यो० नहीं उ० उत्कट वेद मोहनी. उ. उपशान्त मोहनी है. णो नहीं क्षीण मोहिनी।
अथ इहां कह्यो-अनु तर विनि ना देवता उदीर्ण मोह न थी। अनें क्षीण मोह न थी। उपशान्त मोह छै, इम कह्यो। इहां मोह ने उपशमायो कह्यो। अनें उपशान्त मोह तो इग्यारवे ११ गुणठाणे छै। अनें देवता तो चौथे गुगुणठाणे छै, तिहां तो मोह नों उदय छै। तेहथी समय २ सात २ कर्म लागे छै। मोह नों उदय तो दशमे गुणठाणे ताई छै। मैं इहां तो देवता ने उपशान्त मोह कह्यो, ते उत्कट वेद मोहनी आश्री कह्यो। तिहां देवता ने परिचारणा न थी ते माटे वहुल वेद मोहनी आश्री उपशान्त मोह कह्यो। पिण सर्वथा मोह आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या। टीकामें पिण इमेज अर्थ कियो छै। लिण अनुसार विमान ना देवता में उत्कट वेद मोह आश्री उपशान्त मोह कह्या। पिण सर्व मोहनी री प्रकृति रे आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या। तिम कषाय कुशील ने अपडिसेवी कह्यो। ते पिण विशिष्ट परिणाम ना धणी आश्री अपडिसेवी कह्यो। तथा दीक्षा लेता अथवा पुलाक वक्कुस पड़िसवणा तजी कषाय कुशील में आवे ते वेलां आश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया मपडिसेवी नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १२ बोल संपूर्ण।
तथा भगवती श० ७ ० ८ पहवो कह्यो ते पाठ लिखिये छ। .
२८
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भ्रम विध्वंसनम् ।
से भंते! हरिथस्य कुंथुस्सय समा चेव अपच्चक्खाण किरिया कज्जइ हन्ता गोयमा ! हत्थिस्स कुंथुस्सय जाव कज्जइ । से एवं वुच्चइ जाव कज्जइ. गोयमा ! अवि
र पडुच्च से तेजाव कजइ ॥ ६ ॥
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( भगवती श० ७ उ० ८ )
से० ते. णू० निश्चय. भ० हे भगवन्त ! ह० हाथी ने अने. कुं० कुंथुया ने स सरोखी. चे० निश्चय. अ० अपञ्चखाण की क्रिया उपजे हां. गो० गौतम ! ह० हाथी ने . अने. कु० कुंथुया नें. सरीखी. अपञ्चखाण क्रिया उपजे से० ते. के० केहे अर्थे भं० भगवन्त ! ए० इम कही. जा० यावत. क० करे छे. हे गौतम! अ० अती प्रति आश्री नं. से० ते. ते
करें.
अथ हां हाथी कुंथुआ रे अव्रत नी क्रिया बरोबर कही । ते 'अती हाथी आश्री कही। पिण सर्व हाथी आश्री न कही। हाथी तो देशव्रती पिण छै । ते
माटे इहां हाथी
देशव्रती हाथी थकी तो कुंथुआ रे अब्रत नी क्रिया घणी छै । ते कुंथुआ रे वरोवर क्रिया कही । ते अन्नती हाथी आश्री कही। पिण सर्व हाथी आश्री नहीं कही। तिम कषाय कुशील नें अपड़िसेवी कह्यो । ते विशिष्ट परिणाम ते वेलां आश्री अपड़िसेवी कह्यो । तथा दीक्षा लेतां अथवा पुलाक वक्कुस पड़ि सेवणा तजी कषाय कुशील में आवें । ते वेलां आश्री अपड़िसेवी कह्यो जणाय छै । ते पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया अपड़िसेवी नहीं । वली भगवती श० १० उ० १ पूर्वदिश ने विषे “नो धम्मत्थिकाए” एहवूं पाठ कह्यो । ते पूर्वदिशे सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय नहीं । पिण देश आश्री धर्मास्तिकाय छै । तिम कवाय कुशील नें पिण अपड़िसंबी कह्यो । ते विशिष्ट परिणाम ते आश्री अपड़िसेवी छै । पण सर्व कपाय कुशील चारित्रिया अपड़िसेवी नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १३.
बोल सम्पूर्ण ।
तथा भगवती श० १२ उ० २ एहवो को छै । ते पाठ लिखिये छै।
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प्रायश्चित्ताऽधिकार।
२१६
सब्वेविणं भंते ! भव सिद्धिया जीवा सिझिस्संति हता जयंती! सव्वेविणं भवसिद्धिया जीवा सिझिसंति।
( भगवती श० १२ उ० २)
स० सर्व पिण. भ. हे भगवन्त ! भ० भव सिद्धिक. जीव सीझस्ये. हं० हां ज० जयन्ती माविका ! स० सर्व पिण. भ० भवसिद्धिक. जी. जीव. सि० सीजस्ये ।
अथ इहां इम कह्यो-सर्व भवी जीव मोक्ष जास्ये। ते मोक्ष जावा योग्य भवी लिया. पिण और अनन्ता भवी मोक्ष न जाय. ते न कह्या। मोक्ष जावा योग्य सर्ब भवी जीवां आश्री सर्ब भवी सीजस्ये इम कह्यो। तिम कषाय कुशील अपडिसेवी कह्यो। ते पिण विशिष्ट परिणाम नों धणी अप्रमत्त तुल्य अपडिसेवी कह्या जणाय छै। तथा दीक्षा लेतां अथवा पुलाक वक्कुस पडिसेवणा तजी कषाय कुशोल में आवे ते वेलां आश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया अपडिसेवी न थी जणाय। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो। .
इति १४ बोल सम्पूर्ण।
तथा भगवती श० १२ उ०५ में कह्यो । ते पाठ लिखिये छै। धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलित्थकाए एए सब्बे अवण्णा जाव अफासा णवरं पोग्गलित्थकाए पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अटफासे पण्णत्ते ॥ १५ ॥
(भगवती श० १२ उ०५)
ध० धर्मास्तिकाय. जा० यावत. पो० पुद्गलास्तिकाय. ए. ए. स० सर्व प्र० वर्ण रहित छ । जा० यावत. भ० स्पर्श रहित छ. ण. एतलो विशेष. पो० पुद्गलास्ति काय में. पं० पांच प्रा. पं. पांच रस. दु० ये गन्ध. भ. पाठ स्पर्श परूया।
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२२०
भ्रम विश्वसनम् ।
___ अथ अठे पुद्गलास्तिकाय में ८ स्पर्श कहा। ते आठ स्पर्शी खंध आश्री कया। पिण सर्व पुद्गल परमाणु आदिक में ८ स्पर्श नहीं। तिम कषाय कुशील नियंठा में अपडिसेवो कह्यो ते विशिष्ट परिणाम ते वेलां आश्री कह्यो। तथा दीक्षा लेतां अथवा पुलाक वक्कुस पडिसेवणा तजी कषाय कुशोल में आवे ते वेलां भाश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कवाय कुशील अपडिसेवी जणाय नधी। जिन पुद्गलास्तिकाप ने अष्ट स्पों कया. अने सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी खंध पुद्गलास्तिकाय में तो छ , पिण अष्ट स्पशी नहीं। तिम कषाय कुशील चारिलिया अपडिसेवो कह्या, ते अप्रमादी साधु आश्री जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशीलना धणी अपडिसेबी कह्या दीसै नहीं। इण न्याय कषाय कुशील नियंठा में अपडिसेवी कयो जणाय छै। तथा वली और किण ही न्याय सूं अपडिसेवी कह्यो हुस्यै ते पिण केवली जाणे । पिण कषाय कुशील पणो छांडि श्रावक पणो आदलो। पली वैक्रिय, आहारिक. तैजस. लब्धि फोड़े। वली १४ पूर्व धर ४ ज्ञानी में कषाय कुशील पावे ते पिण चूक जावे। इण न्याय कषाय कुशील नों धणी दोष लगावे छै । वलो गोतम पिण ४ ज्ञानी आनन्द ने घरे वचन में खलाया। त्यां ने पिण कषाय कुशील नियंठो हुन्तो। त्यां में १४ पूर्व ४ ज्ञान हुन्ता ते माटे । तिवारे कोई कहे --उपासक दशा सूत्र में गोतम में ४ ज्ञान १४ पूर्व नों पाठक कह्यो नथी। ते माटे आनन्द ने घरे वचन में खलाया। ते वेलां १४ पूर्व ४ ज्ञान न हुन्ता। पछे पाया छ। ते वेलां कवाय कुशील नियंठो पिण न हुन्तो। तिण सं वचन में खलाया इम कई तेहनों उत्तर। जे आनन्द ने श्रावक ना व्रत भादवां ने २० वर्ष थया। तेहने अन्तकाले सन्थारा में गौतम वचन में खलाया। अनें भगवन्त रा प्रथम शिष्य गौतम थया. ते माटे एतला वर्षा में गौतम १४ पूर्व धारी किम न थया। अने जे उपासक दशा में ४ ज्ञान १४ पूर्व नों पाठ गौतम रे गुणां में न कह्यो-इम कही लोकां ने भ्रम में पाड़े. तेहने इम कहिणो। १४ अङ्ग रच्या तिण में उपासक दशा नों सातमो अङ्ग छठो अङ्ग ज्ञाता नों अनें पांचमों अङ्ग भगवती छ। से भगवन्ते भगवती रची पछे ज्ञाता रची पछे उपाशक दशा रची छै। भगवती नी आदि में गोतम ना गुण कहा। तिहाँ एहयो पाठ छै। 'चोदसपुवी चउण्णाणो वगए" इहां १४ पूर्व अने ४ ज्ञान गोतम में कह्या। जे पञ्चमा अङ्ग में ४ ज्ञानी १४ पूर्व धारी गोतम ने कह्या , ते भगी सातमा अङ्ग में ४ ज्ञान १४ पूर्व
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प्रायश्चित्ताऽधिकारः।
न कह्या। ते कहिवा रो कई कारण नहीं। पहिला ५ मों अङ्ग रच्यो छै , पछे छठो ज्ञाता अङ्ग रच्यो । पछे सातमो अङ्ग उपासक दशा रच्यो। ते माटे पांचमों अङ्ग रच्यो ते वेलां ४ ज्ञानी १४ पूर्व धर था, तो पछे सातमों अङ्ग रच्यो ते बेला ४ ज्ञान १४ पूर्व किम न हुन्ता। ते अङ्ग अनुक्रमे रच्या तिम इज जम्बू स्वामी सुधर्मा स्वामी ने पूछयो छै। ते पाठ लिखिये छै।
___ जंबू पज्जुवासमाणे एवं क्यासी जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उठुस्स अंगस्स णाआ धम्मकहाणं अयमद्धे पएणत्ते सत्तमस्स णं भंते अंगस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पएणते ।
( उपासक दशा अ० १)
ज० जम्व स्वामी. ५० विनय करी में. ए० ईम बोल्या. ज० जो. भ. हे पूज्य ! स. . श्रमण भगवन्त ! जा० यावत. सं० मोज्ञ पहुंता तिणे. छ. छठा अङ्ग ना. णा० ज्ञाता. ध० धम कथा ना. अ० एहवा. म. अर्थ. प. परूप्या. स० सातमा ना. भ० हे भगवन् पूज्य ! अ० अङ्गा ना. उ० उपासक दशा ना. स. श्रमण भगवन्त महाबीर. जा० यावत. सं० मोक्ष' सेणे पहुन्ता. के० कुण. अ० अर्थ. ५० परूप्या।
अथ इहां पिण इम कह्यो। जे छठा अङ्ग शाता ना, ए अर्थ कह्या तो सातमा अंग नों स्यूं अर्थ, इम पांचमों अङ्ग पहिलो थापी पाछे छठो अङ्ग थाप्यो । अने छठों अङ्ग थापी पछे सातमो अङ्ग थाप्यो ते माटे पांचमां अङ्ग नी रचना में : ज्ञान १४ पूर्व धर गोतम ने कह्यो। ते सातमा अङ्ग में न कह्या तो पिण अटकाव नहीं। अने आनन्द रे संथरा रे अवसरे गौतम ने दीक्षा लियां बहुला वर्ष थया ते माटे ४ ज्ञान १४ पूर्व धर किम न हुवे। इणन्याय गौतम ४ ज्ञानी १४ पूर्व धर कषाय कुशील नियंठे हुन्ता। तिवारे आनन्द ने घरे वचन में खलाया छै। तथा बली भगवान् ४ ज्ञानी कषाय कुशील नियंठे थकां लब्धि फोड़ी ने गोशाला ने बचायो ए पिण दोष छै। वली गोशाला ने तिल बतायो. लेश्या सिखाई. दीक्षा
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भ्रम विध्वंसनम्।
दीधी. ए सर्प उपयोग चूक ने कार्य कीधा। जो उपयोग देवे अने जाणे ए तिल उखेल नांखसी. तो तिल बतावता इज क्याने। पिण उपयोग दियां विना ए कार्य किया है। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १५ बोल सम्पूर्ण।
इति प्रायश्चित्ताऽधिकारः।
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अथ गोशालाऽधिकारः।
अथ केतला एक कहे-गोशाला में भगवान् वीक्षा दीधी नहीं। ते एकान्त मृषावादी छै। भगवती श० १५ भगवन्त गौतम में कह्यो-है गौतम ! तीनवार गोशाले मोनें क्रह्यो छै। आप म्हारा धर्म आचार्य. अने हूं आपरो धर्म अन्तेवासी शिष्य, पिण तेहना वचन ने म्हे आदर न दीधो। मन में पिण भलो न जाण्यो। मौन साधी अने चौथी वार अङ्गीकार कीधो एहवो पाठ छ । ते लिखिपे छै।
तएणं से गोशाले मंखलि पुत्ते हटतुटे ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं क्यासी तुभेणं भंते ! ममं धम्मारिया अहं णं तुभं अंतवासी ॥ ४०॥ तएणं अहं गोयमा ! गोशालस्तमंलि पुत्तस्स एय महूँ पडिसुणेमि ॥४१॥
(भगवती श०१५)
स. तिण काले से० ते. गो० गोशालो. मं० मलि पुत्र. ह. हृष्ट तु० तुष्ट थको. म. मोने ति० त्रिण वार. आ० पादान. प० प्रदक्षिणा. जा० यावत. ण नमस्कार करी. ए० इण प्रकारे. व० बोल्यो. तु० तुम्हे. भ. हे भगवन्त ! म म्हारा. ध धर्माचार्य. अ० हूँ तो. तु. तुम्हारी. अ. शिष्य. त• तिवारे. अ० ई. गो० हे गोतम ! गो० गोशाला नों म० मंखलि पुत्र भों. ए० ए अर्थ प्रति. प० अङ्गीकार करयो।
अथ इहां भगवान् गौतम ने कह्यो–हे गौतम ! गोशाले मोनें कह्यो। तुम्हे म्हारा धर्माचार्य, अने हूं तुम्हारो धर्म अन्तेवासी शिष्य तिवारे म्हे अंगीकार कीघो। इहाँ गोशाला ने अङ्गीकार कीधो चाल्यो ते माटे दीक्षा दीधी। तिहां गोकाकार पिण एहवो कह्यो। ते टीका लिखिये छै।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
ए मट्टं पड़िसुणे मिति — अभ्युपगच्छामि यचैतस्याऽयोग्यस्याप्यभ्युपगमनं भगवत स्तदक्षीणागतया परिचये नेषत्स्नेहगर्भानुकम्पा सद्भावात् छमरथ तयाऽनागत दोवावगमा दवश्यं भावित्वा चैतस्येति भावनीयं मिति ।
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अथ टीका में पिण को-ए अयोग्य नें भगवान् अङ्गीकार कीधो ते अक्षीण राग पणे करी. तेहना परिचय करी. स्नेह अनुकम्पा ना सद्भाव थी. अर्ने छद्मस्थ छै ते माटे आगमियां काल ना दोष ना अजाणवा थकी अङ्गीकार कीधो को राग. परिचय. सोह. अनुकम्पा कहीं । ते स्नेह अनुकम्पा कहो भावे मोह अनुकम्पा कहो । जो ए कार्य करवा योग्य होवे तो इम क्यां नें कहिता । तथा छनस्थ तीर्थङ्कर दीक्षा लेवे जिण दिन कोई साथ दीक्षा लेवे ते तो ठीक छै 1 पिण तठा पछे केवल ज्ञान उपना पहिला और में दीक्षा देवे नहीं । ठाणांग ठाणे ६ अर्थ में पहवी गाथा कही छै ।
"नपरोवएस विसया नय छउमत्था परोवएसपि दिति । नय सीस वग्गं दिवखति जिला जहा सव्वे"
ठाणाङ्गना अर्थ में ए गाथा कही. तिहां इम को छै । छद्मस्थ
तीर्थङ्कर पर उपदेश न चाले । भनें आप पिण आगला बली कह्यो । सर्व तीर्थङ्कर शिष्य वर्ग नें दीक्षा न देवे अ भगवन्त आप पोते दीक्षा लीची ते पाठ में कह्यो ।
।
में उपदेश न देवे । तथा
एहवूं अर्थ में कह्यो छै ।
पिण स्नेह
अनें टीका में
iगे करि अङ्गीकार कीधो चाल्यो है । अर्ने पाठ में पिण एहवो कह्यो । तीन वार तो अङ्गीकार कीधो नहीं । अनें चौथी वार में पड़िसुणेमि" पहवो पाठ कह्यो । प्रतिश्रुत नाम अङ्गीकार नों छै। केतला एक कहे - गोशाला रो वचन भगवान् सुण्यो पिण अङ्गीकार न कियो इम कहे ते सिद्धान्त ना अजाण है। अनें 'पडिलुणे” पाठ से अर्थ घणे ठामे अङ्गीकार को छै । ते पाठ लिखिये छै 1
जे भिक्खू रायाणं रायंतेपुरिया वजा उसंतो समणा ! गो खलु तुभं कप्पड़. रायंतेपुरं क्खि मित्तएवा,
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गोशालाऽधिकारः ।
२२५
पविसित्तएवा, आहारेयं पडिग्गहं जायते अहं रायंते पुरानो असणंवा ४ अभिहडं आहद्दु दलयामि जोतं एवं बदइ पड़िसुणेइ पड़िसुतं वा साइज्जइ ।
( निशीथ उ० ६ वो० ५ )
To
जे० जे कोई. भि० साधु साध्वी ने रा० राजा ना. रा० अन्तःपुर नों रक्षक. ६० कहे. युष्यवन्त ! स० श्रमण साधु णो नहीं. ख० निश्चय तु० तुम्ह नें. क० कल्पे. रा० राजा ना अन्तःपुर मध्ये णि० निकलवो अनं प० पेसवो ते माटे. ग्रा० एतले ल्याय. व० पात्रा ग्रही ने जा० ज्यां लगे तुमने काजे. अ० हूँ राजा ना अन्तःपुर माहि थी. घ० अशनादिक० ४ अ० साहमो. अ० आणी नं. द० देवू. जो० जे साधु ने त० ते रक्षपाल. ए० इम एहो. ० प्रवेद्यो को वचन कहे अने. तं० ते. प० सांभले. अङ्गीकार करे, प० सांभलता ने अङ्गीकार करतां नें. सा० अनुमोदे. तेहनें प्रायश्चित्त यावे पूर्ववत् दोष दे ।
अथ इहां कह्यो - जे राजा ना अन्तःपुर नो रक्षपाल साधु ने कहे - हे आयुष्मन्त श्रमण ! राजा ना अन्तःपुर में निकलवो पेसवो तोनें न कल्पे तो ल्याव पात्रा अन्तःपुर मांहि थी अशनादिक आणी में हूं आपूं । इम अन्तःपुर नो रक्षपाल कहे तेहनों वचन - "0 -"पड़िसुणेइ” कहितां अङ्गीकार करे तो प्रायश्रित आवे । इहां पण "पडणे" रो अर्थ अङ्गीकार करे इम कह्यो । वली अतेरे घणे ठिकाणे "पडणे" रो अर्थ अङ्गीकार कियो । तथा हेम नाममाला ना छठा काण्ड रे
१२४ श्लोक में अङ्गीकार ना १० नाम कह्या छे ! ते लिखिये छै । अङ्गीकृत १ प्रतिज्ञात २ ऊरी कृत ३ उरुरी कृत ४ संश्रुत ५ अभ्युपगत ६ उररी कृत ७ आश्रुत ८ संगीर्ण प्रतिश्रुत १० । इहां पिण प्रतिश्रुत नाम अङ्गीकार न कह्यो छै 1 इणन्याय “पड़िसुणेमि” कहितां अङ्गीकार कीधो । इणन्याय चौथी वार गोशाला भगवान् अङ्गीकार कियो ते दीक्षा दीधी छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण
1
तथा वली आगे गोशाले भगवान् थी विवाद कियो । ति सर्वानुभूति साधु गोशाला में कह्यो ते पाठ लिखिये छै ।
२६
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श्रम विध्वंसनम् ।
तें कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईण जाणवए सब्बाणुभूई गामं अणगारे पगइ भदए जाव विणीए धम्मारियापुरागेणं एयमहूं असदहमा उडाए उट्ठेइ उट्ठेइत्ता जेगोव गोशाले मंखलिपुत्ते तेोव उवागच्छ. उवागच्छत्ता गोशालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी जेविताव गोशाला ! तहारूवस्स समरणस्स वा माहरणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मिडं सुवयणं णिसामेइ. सेवा तं वंदइ . णमंसइ. जावं कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ. किमंग पुरण तुमं गोशाला ! भगवया चैव पव्वाविए भगवया चैव मुंडविए भगवया चेव सेहाविएभगवया चैव सिक्खाविए. भगवया चैव बहुरसुई कए भगaa aa मिच्छं विम्वडिवतो तं मा एवं गोशाला ! गो रिहसि गोशाला ! सच्चेव ते सा छाया णो अण्णा ॥६७॥
( भगवती श०१५ )
२२६
मं० मंखलि पुत्र है ते० तठे. उ० श्रावी ने गो० व बोल्यो । जे० जे कोई. गो० हे गोशाल ! त०
ते तिथा काले. ते तिथ समये स० श्रमण- भ० भगवन्त म० महावीर नों. अं शिष्य पा० पूर्व दिशा नें. जा० देश नों. सर्वानुभूति णा० नाम. अ० अनगार. प० प्रकृति भद्रिक. जा० यावत. विनीत ध० धर्माचार्य ने अनुरागे करि. ए० इण बात ने श्र० नहीं श्रद्धता थका. उ० उठीनं ज० जेठे गो० गोशाला गोशाला. मं० संखली पुत्र नं. ए० इण प्रकारे तथा रूप. स० श्रमण. मा० माहण गुणयुक्त ने श्र० पासे. ए० एक पिण. प्रा० चार्य. धा० धार्मिक. सु० वचन. णि० सुने है. से ० ते पिण. तं० तिण ने वं० वांदे है. गा० नमस्कार करे है । जा० यावत् क० कल्याण कारी. मं० मङ्गलकारी. दे० धर्मदेव समान चे ज्ञानवन्त प० पर्युपासना करे छे. कि० प्रश्ने. अं० श्रामंत्रणे पु० पुनः वली तुमनं हे गोशाला मंखली पुत्र ! भ० भगवन्त चे० निश्चय प० प्रब्रज्याव्यो शिष्य पणे अङ्गीकार करवा थी. भ० भगवन्त चे० निश्चय से० तेजू लेश्या नों उपदेश सिवाव्यो व्रत पणे सेव्यो भ० भगवन्त चे० निश्चय सि० सिखान्यो.
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गोशालाऽधिकारः।
२२.
-
म० भगवन्ते. चे. निश्चय. व० बहुश्रुति करयो. भणायो. भ० भगवन्त संघाते. चे० निश्चय. मि. मिथ्यात्व पप्यू. पड़िवज्जै छै. त० इण कारणे. मा० मत. गो० गोशला ! णो नहीं. रि० योग्य कै. गो० गोशाला ! ते हीज छाया नहीं. अ० अन्य...
अथ इहां सर्वानुभूति साधु, गोशाला ने कह्यो। हे गोशाला ! तोनें भगवान् प्रव्रज्या दीधी. तोने भगवान् मुंड्यो. तोने भगवान् शिष्य कियो. तोने. भगवन्ते सिखायो. तोनें भगवान् बहुश्रुति कीधो। तथा इमज सुनक्षत्र मुनि गोशाला में कहो। त्या भगवान् सं इज मिथ्यात्व पडिवज्जे छै। इहां तो प्रत्यक्ष दीक्षा दीधी चाली छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
वली आगे पिण भगवान् गोशाला ने कह्यो। ते पाठ लिखिये छै ।
तएणं समणे भगवं महावीरे गोशालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी. जेवि ताव गोशाला ! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वातं चेव जाव पज्जुवासति. किमंग पुण गोशाला! तुम्हं मए चेव पव्वाविए जाव मए चेव बहुसुई कए. ममं चेव मिच्छं विपडिवणणे तंमा एवं गोशाला जाव णो अगणा ॥ १०४॥
(भगवती श०१५)
त० तिवारे. स० श्रमण. भ० भगवान. म. महावीर. गो. गोशाला. म० मखलि पुत्र ने. ए० इण प्रकारे. व० बोल्या. जे. जे. गो. हे गोशाला ! त० तथा रूप. स० भ्रमण. मा० माहम गुणयुक्त नी. तं० तिण प्रकारे. जा० यावत. प० पर्युपासना करे है. कि० स्यू. अं० अंग इति कोमलामंत्रणे. पुनः वली गो० हे गोशाला ! तु० तुम ने. म० म्हें. निश्चय प० प्रवज्या लेवरावी. जा० यावत. म० म्हे. निश्चय ब० बहुश्रुति करयो. म० मुझ संघाते. मि. मिथ्यात्व पणू पडिवज्जे है। सं० इण कारणे. म० मत. ए० इम. गो० गोशाला ! जा० यावत. णो नहीं. अ. अन्य.
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२२८.
भ्रम विध्वंसनम्।
अथ इहां भगवान् पिग कह्यो। हे गोशाला! म्हे तोने प्रव्रज्या दीधी. म्हे तोने मूख्यो शिष्य कसो, बहुश्रुति कियो. ए तो चौड़े दीक्षा दीधी कही छै। इहां केइ अगहुंती विभक्ति रो नाम लेई कहे:। इहां पांचमी विभक्ति छै। "भगवया चेव पव्याविए” ते भावन्त थको प्रव्रज्या आई. पिण भगवन्त प्रव्रज्या न दीधी। इम कहे ते झूठ रा वोलणहार छै । “भगवया" पाठ तो ठाम २ कह्यो छै। दश. वैकालिक अ० ४ कह्यो ‘भगवया एवमक्खायं” त्यारे लेखे इहां पिण पांचमी विभक्ति कहिणी। भगवन्त थकी म कह्यो, अनें भगवान् न कह्यो तो ए छः जीवषी काय अध्ययन केणे कयो। पिण इहां पञ्चमी विभक्ति नहीं. तीजी विभक्ति छै। ते कर्ता अर्य ने विषे तीजी विभक्ति अनेक जागाँ छै। सूयगडाङ्ग अ० १ कह्यो “ईसरेण कडे लोप" ईश्वर लोक कीधो। इहां पिण कर्ता अर्थ ने विषे तीजी विभक्ति छै। तिम 'भगवया चेव पञ्चइये" इहां पिण कर्ता अर्थ ने विषे तीजी विभक्ति छै । वली भगवन्ते गोशाला ने कह्यो "तुम मए चेव पब्बाविए" इहाँ पिण कर्ता अर्थ में विषे तीजी विभक्ति छै । ते "मए” पाठ अनेक ठामे कह्या छै। भगवती श० ८ उ० १० कह्यो। 'मए चत्तारि पुरिस जाया पण्णत्ता" इहां "मए'' कहितां म्हे च्यार पुरुष परूया। तिम “मए चेव पब्बाविए" कहितां म्हे प्रव्रज्या दीधी। इहां पिण कर्ता अर्थ ने विषे तीजी विभक्ति छ। तिवारे कोई कहे "मए" इहां तीजी विभक्ति किहां कही छै। तेहनों उत्तर-अनुयोग द्वार में ८ विभक्ति ओलखाई छै। तिहां 'मए' शब्द रे ठामे तीजी विभक्ति कही छै । ते पाठ लिखिये छै ।
तत्तिया कारणं मिकया, भणियंच कयंच तेणं वा मएवा।
( अनुयोग द्वार, नाम विषय
त० तृतीया विभक्ति. का० कारण ने विवे. क० को धो. ते दिखाई छै. भ० भण्यू. क. कोचूंते ते पुरुष. म० म्हे. वा० अथवा
___ अथ इहां “मए फहितां तीजी विभक्ति कही छ। ते माटे भगवान् गोशाला ने कह्यो। “मए चेव पन्चाविए' म्हे प्रव्रज्या दीधी। इहां पिण तीजी विभक्ति छै। इम च्यार ठामे गोशाला री दीक्षा चाली छै । प्रथम तो भगवते कयो-म्हे गोशाला ने अङ्गीकार कियो। वली सर्वानुभूति साधु कह्यो। हे
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गोशालाऽधिकारः ।
गोशाला ! तोनें भगवान् प्रयुज्या दीधी. मूंड्यो यावत् बहुश्रुति कीधो । इम सुनक्षत्र मुनि कह्यो । इमज भगवान् महावीर स्वामी कह्यो । हे गोशाला ! म्हे तोने' बुज्या दीघो यावत् बहुश्रुति कीधो । ए च्यार ठिकाणे दीक्षा चाली । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
२२६
aat पांच ठिकाणे गोशाला ने कुशिष्य कह्यो । ते पाठ लिखिये छै । एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी कुसिस्से गोशालेग्रामं मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थ चेव कालं किच्चा उड्ढं चंदिम सूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवताए उबवण्णे ।
( भगवती शतक १५ )
ए० इम. ख० निश्चय करो नं. गो० हे गौतम! म० माहरो. अं० अन्तेवासी कु० कुशिष्य गो० गोशालो. म० मंखलि नो पुत्र. स० श्रमण साधा न घातक. जा० याचत. छ० छद्मस्थ पणे. चे० निश्चय करो ने का० काल, कि० करी ने (मत्युक्ामी नें ) उ० ऊर्ध्व. च० चन्द्रमा सू० सूर्य जा० यावत् प्र० अच्युत कल्प ने विषे. दे० देवता पणे, उ० ऊपज्यो.
अथ इहां भगवान् को - हैं गोतम ! म्हारो अन्तेवासी कुशिष्य गोशालो मंखलिपुत्र वार मे स्वर्ग गयो । इहां कुशिष्य कलो ते पहिलां शिष्य न कियो हुवे तो कुशिष्य किम हुवे । पहिला पूत जन्म्यां बिना कपूत किम हुवे पूत थयां कपूत सपूत हुवे । तिम शिष्य कीधां सुशिष्य कुशिष्य हुवे । इण न्याय गोशाला पहिलां शिष्य थयो छे । तिवारे कुशिष्य कह्यो । वली भगवती श० ६ उ० ३३ कह्यो I
" एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी कुसिस्से जमाली णामं अणगारे"
इहां जाली में कुशिम को । पहिलो हुत्त । ते माटे कुशिष् को । तिम गोशाली पिण पहिलां शिष्य थयो. ते माडे गोशाला में कुशिष्य
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२३०
भ्रम विध्वंसनम् ।
कयो। इम पांच ठिकाणे गोशाला री दीक्षा कुशिष्य पणे कही। अने केई कहेगोशाला ने दीक्षा न दीधी। ते सिद्धान्त ना उत्थापण हार जावणा। डाहा हुये तो विचार जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
इति गोशालाऽधिकारः।
INEMARRAN
H
Kullalli
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अथ गुणवर्णनाधिकारः।
केतला एक कहे भगवान गौतम ने कह्यो हे गौतम ! मोने १२ वर्ष १३ पक्ष में किञ्चिन्मात्र पाप लाग्यो नहीं। इम कहे ते झूठ रा बोलणहार छ। ते सूत्र नों नाम लेई कहे । ते पाठ लिखिये छै ।
णच्चाणले महावीरे णोचिय पावगे सयम कासी, अन्नेहिं वाण कारित्था. करंतंपि णाणु जाणिस्था।
(आचाराङ्ग श्र० १ ० ६ उ० ४ गा.८)
ण हेच होय. उपादेय. इस्यूं जानतां थकां से० तेणे महावीरे. णो न कीधौ, .पा. पाप स० पोते अणकरता. अनेरा पाहि पाप न करावे. क. पाप करतां नं णा नहीं अनुमोदे.
___ अथ अठे तो गणधरां भगवान रा गुण कह्या । तिहां इम कह्यो। 'णञ्चा" कहितां. जाणतां थकां भगवान् पाप कियो नहीं करावे नहीं, करता ने अनुमोदे नहीं। ए तो भगवान रो आचार बतायो छै। सर्व साधां रो पिण ओहोज आचार छै। पिण इहां १२ वर्ष १३ पक्ष रो नाम चाल्यो नहीं ।
अनें इहां गणधरां भगवान् रा गुण वर्णन कीधा। त्यां गुणा में अवगुणा में किम कहे। गुणा में तो गुणा में इज कहे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
बली उवाई में साधां रा गुण कह्या । त्यां एहयो पाठ छै ते लिग्निये छै। ,
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भ्रम विध्वंसनम् ।
उत्तम जाति कुल रूव विणय विणाण लावण वीकम पहाणा सोभाग कति जुत्ता बहुधणकण णिचय परियाल फीडिया णरवइ गुणाइरेया इत्थिय भोगा सुहं संपलिया किंपागफलोवमं च मुणिय वीसय सोक्खं जल बुंवुय समाणं कुसग्ग जल बिन्दु चंचलं जीवियं चणाउणं अधुव मरि रय मीच पडगस्स विधुणित्ताणं चइत्ता हिरणं चइत्ता सुवणं जाव पव्वइया ॥ २१॥
( सूत्र उवाई।
उ० उत्तम भली जाति मातापक्ष. कु० कुल पितापक्ष. रू. शरीर नों थाकार. वि. नमन गुणरूप. पि० अनेक विज्ञान चतुराई पणो. ला० शरीर ना गौर वर्णादि प्राकार नी श्लाघा. वि० विक्रम पुरुषाकार प्रधान उत्तम छै. सो० सौभाग्य कं० कांति शरीर नी दीप्ति रूप तिणे करी युक्त सहित ब० बहु धन मणि रत्नादिक धान्य गोधूमादिक ना निश्चय कोठार परिवार दासी. एहनें. सब ने छोड़ी. न० नरपति राजा तेहना गुणथकी अतिरेक अधिक इ० स्त्री भोग सुख ने विषे अवलिस सर्व मानन्दा ने. कि० किम्पाक वृक्ष ना फल नो परे प्रथम अन्त्य दुःखप्रद जाण्या छै वि० विषय मुखां ने ज० जल बुदबुद नो परे कु० कुशाग्र भागस्थित जल बिन्दु नो परे चंवल. जी० जीवित्व में णा जाग्या छै. अ० अध्र व अनित्य वस्त्र नी रज झाट के जिम छांडी ने हिरण्य छांडी ने सुर्वर्ग यावत् प्रव्रज्या लीधी.
अथ इहां साधां रा गुणा में एहवा गुण कह्या। ते उत्तम जाति उत्तम कुल ना ऊपना कहा। पिण इम न कह्यो नीच कुल ना ऊपना उर्जन माली आदि देइ। ए अवगुण न कह्या । वलो कह्या जे साधु धर्म ध्यान रा ध्यावनहार. विषय सुख में किंपाक फल ( किरमाला ) सम जाणणहार. एहवा जे गुण हुन्ता ते कया। पिण इम न कयो, जे कोई आर्तरौद्र ध्यान ना ध्यावनहार. सीहादिक्क अगगार वलो केई निधागा रा करणहार. नव नियाणा रा करणहार. नव नियाणा किया. तेहवा साधु केई उपयोग ना चूकणहार, केई तामस ना आणणहार. एहवा अवगुण न कया। जे साधां में गुण हुंता ते षखाण्या। परं इम न जाणिये-जे वीर रा साधु रे कदेइ आर्तध्यान आवे इज नहीं. माठा परिणामे
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सुवर्णाधिकारः ।
कोधादिक आवे इज नहीं इम नथी । कदाचित् उपयोग चूकां दोष लागे । परं गुण वर्णन में अवगुण किम कहे । तिम गणधरां भगवान् रा गुण किया तिण में तो गुण वर्णव्या. जेतलो पाप न कीधो तेहिज आश्री कह्यो । परं गुण में अवगुण किम कहे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा कोणक राजा ना गुण कह्या ते पाठ लिखिये छै ।
सब्बगुल समिद्धे खत्तिए मुईए मुद्धाहि सित्ते माउपिउ
सुजाए ।
२३३
( उचाई सूत्र )
० सर्व समस्त जे राजाना गुण तिणे करी समृद्ध परिपूर्ण ख० क्षत्रिय जातिवन्ध है. ० मोद सहित है. माता पितादिक परिवार मिलि राज्याभिषेक कीधो है. मा० मातापिता नों विनीत पणे करी सत्पुत्र है.
३०
1
T
1
अथ अठे कोणेक नें सर्व राजा ना गुण सहित कह्यो । मातापिता नों विनीत कह्यो । बनें निरावलिया में कह्यो । जे कोणक श्रेणिक ने बेड़ी बन्धन देई पोते राज्य बैठ्यो तो जे श्रेणक नें बेड़ी बन्धन वांध्यो ते विनीत पणो नहीं ते तो अविनीत पणो इज छै । पिण उचाई में कोणक ना गुण वर्णव्या । तिणमें जेतली विनीत पणो तेहिज वर्णव्यो । अधिनीत पणो गुण नहीं. ते सणी गुण कहिले में तेहनों कथन कियो नहीं । तिम गणधरां भगवान् रा गुण किया. त्यां गुणा में जेतला गुण हुन्ता तेहिज गुण वखाण्या परं लब्धि फोड़ी ते गुण नहीं । ते अवगुण रोकथन गुणा में किम करे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
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इति ३ बोल सम्पूर्ण |
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भ्रम विध्वंसमम् ।
wwwmore
तथा वली उवाई प्रश्न २० श्रावका ना गुण कह्या । तिहां पहवा पाठ 3 ते लिखिये छै ।
से जे इमे गामागर नगर सन्निवेसेसु मनुसा भवंति तंजहा अप्पारंभा अप्प परिग्रहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मपलोइ धम्म पालज्जणा धम्म समुदायरा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहु ॥ ६४ ॥
(उवाई प्रश्न २०)
से० ते. जे० जो. गा० ग्राम आगार. नगर. यावत सन्निवेशाने विषे. म० मनुष्य. भ७ हुवे है. अ० अल्प आरंभवन्त अ० अल्प परिग्रहवन्त. ध० धर्मश्रुत चारित्र रूप ना करणहार. ध० धर्मश्रुत चारित्र रूप ने फेडे चाले छ. ध धर्मभ्रुत चारित्र रूप ने संभलावे ते धर्मख्यात कहीजे। ध० धर्मश्रुत चारित्र रूप ने ग्रहिवा योग्य जाणी वार २ तिहां दृष्टि प्रवर्तावे. ध० धर्मश्रुस चारित्र ने विषे प्रकर्षे सावधान छ अथवा धर्म ने रागे रंगाणा छ । प्रमाद रहित है, थाचार जेहनों. ध० धर्मश्रुत चारित्र ने अखंड पालवे श्रुत ने पाराधिज. वि० वृति आजीविका कल्पना करतां छतो. सु० सुष्टु भलो शील श्रावार है जेहनों. १० सुष्ठु भलौ ब्रत है जेहवो. सु० भले कर्त्तव्ये करी आनन्द रा माननहार. सा० श्रेष्ठ.
अथ अठे श्रावक ने धर्म ना करणहार कह्या , तो ते स्यूं अधर्म न करेंकांई । वाणिज्य व्यापार संग्राम आदिक अधर्म छै , ते अधर्म ना करणहार छ पिण ते श्रावकां रा गुण वर्णन में अवगुण किम कहे। जेतला गुण हुंता ते कहा छै। पिण अधर्म करे ते गुण नहीं। वली सुशील ते श्रावका नो भलो शील भाचार कह्यो। पिण ते कुशील सेवे ते सुशील पणो नहीं। ते माटे तेहनों कथन गुण में नहीं कियो। तिम भगवान् रे गुण वर्णन में लब्धि फोड़ी ते अवगुण नों वर्णन किम करे। डाहा हुये तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
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गुणवर्णनाऽधिकारः।
VVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVV~~~~
___तथा गौतम रा गुण कह्या । तिहां एहवो पाठ छै ते लिखिये है।
तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणस्स भगवो महावीरस्स जेटे अन्तेवासी इन्द्रभूती णाम अणगारे गोयम गोत्तेणं सत्तुस्सेहे सम चउरंस संठाण संठिए वजरिसह नाराय संघ यणे कणग पुलगणिघस पम्ह गोरे उग्गतवे. दित्ततवे. तत्ततवे. महातवे. घोरतवे. उराले. घोरे. घोरगुणे. घोर तवस्सी. घोर वंभचेरवासी. उच्छूट सरीरे ।
(भगवती श०१ उ०१)
ते. तिण काल. ते. तिण समय. स० श्रमण. भगवंत महावीर नो. जे० जेठो. अ. शिष्य. इ० इन्द्र भूति नाम. प्र. अनगार. गो० गोतम नी. स० सात हाथ प्रमाण उच्च. स० समचतुरस्र संठान. सं० सहित. ३० वजू ऋषम ना राज संघयणी. क० सुवर्ण. पु० कसौटी ने विषे. घिस्यो थको. तिण समान. प० पद्म गौर वर्ण. उ० तीव्र तप. दि० दीप्ततप. कर्मवन दहवा समर्थ. त० तप्या छ तप जेहनें. एहवा. म० महा तपवन्त छै। उ० उदार तपवन्त. घो० निर्दय (कर्म हणवा में ) घो० अनेरो भादरी न सके एहवा घोर गुणवन्त छै। घो० घोर ( तीब्र ) ब्रह्मचारी छै. उ० सुश्रूषा रहित जेहनों शरीर छै।
अथ अठे एतला गोतम ना गुण कह्या छै। अने गोतम में ४ कषाय ४ संज्ञा स्नेहादिक छै। तथा उपयोग चूके तिण रो पडिकमणो पिण करता पिण ते अवगुण इहां न कह्या। गौतम ना गुण वर्णव्या पिण इम न कह्यो. जे गौतम उपयोग ना चूकणहार सकषायी संज्ञा सहित प्रमादी इत्यादिक अवगुण हुन्ता। ते पिण न कह्या। स्तुति में निन्दा अयुक्त छै। ते माटे तिम गणधरां भगवान् रा गुण कह्या. त्यां गुणा में अवगुण न ही कह्या। जेतलो पाप नहीं कीधो तेहिज वखाण्यो छै। अने लब्धि फोड़ी तिण रो पाप लाग्यो छै। वली समय २ सात २ कर्म लागता हुन्ता ते पिण न कह्या, ते अवगुण छै ते माटे स्तुति में निन्दा न शोभे। अने केह एक पाषंडी कहे-गौतम ने भगवान् कह्यो। हे गोतम ! १२ वर्ष १३ पक्ष
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२३६
सम विध्वंसनम्।
में मो ने किश्चिन्मात्र पाप लाग्यो नहीं। ते झूठ रा बोलणहार छै। अनें भगवान् में निद्रा आई तिण में तेहीज पाप लाग्यो कहे छै। प्रमाद कहे छै। प्रमादरी भोलखगा विना भगवान् री द्रव्य निद्रा में प्रमाद कहे छ। अनें वली किश्चिन्मान पाप लागे नहीं इम पिण कहिता जावे छै। त्यां जीवां ने किम समझाविये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
इति गुणवर्णनाऽधिकारः।
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अथ लेश्याऽधिकारः।
वली केई पाषंडी कहे-भगवान में माठी लेश्या पावे नहीं। भगवान् में लेश्या किहां कही छै। तत्रोत्तरम् -कवाय कुशील नियंठा में ६ लेश्या कही छै । भने भगवान में कषाय कुशील नियंठो कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
... कषाय कुसीले पुच्छा, गोयमा ! तित्थेवा होजा
अतित्थेवा होजा। जइ तित्थेवा होज्जा किं तित्थयरे होजा पत्तेयबुद्धे होजा गोयमा ! तित्थगरे वा होजा पत्तेयबुद्धे वा होजा एवं नियंठेवि. एवं सिणाते।
(भगवती श० २५ उ० ६ )
० कषाय कुशील नी पृच्छा. गो० हे गौतम ! ति० तीर्थ में विषे पिण हुई. अ. भने भतीर्थ में विषे पिण हुइ'. छमस्थ अवस्था में विषे तीर्थकर पिण हुई. तीर्थकर ते तीर्थन स्थापक पिण तीर्थ माहि नहीं। ज० जो तीर्थ में विष हुई तो. कि स्यूं तीर्थकर में विषे हुई. ५० प्रत्येक बुद्ध में विषे हुइ. हे गौतम ! ति तीथंकर ने विष रिण हुइ. ५० प्रत्येक कुछ ने विषे हुई ए० एवं निम्रन्थ अने. ए० एवं नातक जाणवा.
अथ अठे तीर्थङ्कर में छमस्थ पणे कषाय कुशील नियंठो कह्यो छै। तिण .सूं भगवान् में कषाय कुशील नियंठो हुन्तो। अनें कषाय कुशील नियंठे ६ लेश्या - कही छै। ते पाठ लिखिये छै।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कषाय कुसीले पुच्छा गोयमा ! सलेस्सा होजा खो अलेस्सा होजा जइ सलेस्सा होजा सेणं भं ते! कइ सुलेस्सासु होज्जा, गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा
!
( भगवती श० २५ उ० ६ )
२३
कषाय कुशील नी पृच्छा हे गौतम! स० लेश्या सहित हुई. गो० नहीं अलेश्यावन्त हुई. ज० जो लेश्या सहित हुई तो से० ते. भगवन्त ! क० केतली लेश्या ने विषे हुइ गो० 'हे गौतम ! ६० ६ लेभ्या ने विषे हुइ' ।
अथ इहां कषाय कुशील नियंठा में छह ६ लेश्या भगवान् में ६ लेश्या हुवे तथा पन्नवणा पद ३६ तैजस लब्धि फोड्यां उत्कृष्टी पांच क्रिया कही । अनें हिंसा करे ते कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या । उत्तराध्ययन अ० ३४ गा० २१ "पंचासव पञ्चता" इति वचनात् पञ्च आश्रव में प्रवर्त्ते ते कृष्ण लेश्या ना लक्षण कथा | अनें भगवान् तेजू शीतल लेश्या रूप लब्धि फोड़ी तिहां उत्कृष्टी ५ क्रिया कही । ते माटे ए कृष्ण लेश्या नों अंश जाणवो। कोई कहे कृष्ण लेश्या
कही छै
1 ते न्याय
लक्षण तो अत्यन्त खोटा छै । ते भगवान् में किम हुवे । तेहनों उत्तर - प्रथम गुण
ठाणे ६ लेश्या छै । तिहां शुक्ल लेश्या
छै । ते प्रथम गुण ठाणे किम पावे
ना तो लक्षण अत्यन्त निर्मल भला कह्या जिम मिथ्यात्वी में शुक्ल लेश्या नों अंश कही जे । तिम भगवान् में पिण कृष्ण लेश्या नों अंश कही जे । डाहा हुवे तो
।
विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक कहे - साधु में ३ माठी लेश्या पावै इज नहीं ते पिण झूठ । भगवान् तो घणे ठामे साधु में ६ लेश्या कही छै। प्रथम तो भगवती श०
२५ उ० ६ कषाय कुशील नियंठे ६ लेश्या कही छै। तथा भगवती श० २५ ३०७
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लेश्याऽधिकार ।
1
सामांयक छेदोपस्थापनीक चारित्र में ६ लेश्या पाठ में कही छै भ्र० ४ में कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
२३५
तथा आवश्यक
पकिमाम हिं साहिं कराहलेशाए. नील लेसाए. काउलेसाए. तेउलेसाए. पम्ह लेसाए. सुक्क लेसाए.
( श्रावश्यक श्र० ४ )
निवर्त्ती हूं ६ लेश्या ने विषे जै कोई विपरीत करवो ते कुण ते कहे है । वि० कृष्ण लेश्या कलह चोरी मृषोवाद इत्यादिक ऊपर अध्यवसाय ते कृष्ण लेभ्या जाणावी. नी० ईर्षा पर गुनूं असहिवो श्रमर्ष अत्यन्त कदाग्रह तप रहित कुशस्त्र रूप अविद्या माया इत्यादिक लक्षणे की नील लेभ्या. का० वक्र वचन वक्र. आचार. आप रो दोष ढांके दु बोले चोर पर सम्पदा सही न सके. इत्यादिक लक्षणे करी काउ लेश्या जाणिये. ते० तेउ लेश्या दया दान प्रिय धर्मी हड़ धर्मी कीधो उपकार जागो विविध गुणवन्त तेजू लेश्या प० पद्म लेश्या दान परीक्षावन्त शील उत्तम साधु पूज्य क्रोधादिक कषाय उपशमाच्या सु० सदा मुनीश्वर राग द्वेष रहित हुवे शुक्ल लेश्या जाणवी.
अथ इहां पिण ६ लेश्या कही जो अशुभ लेश्या में न वत्सं तो ए पाठ क्यूं कह्यो । तथा "पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं अट्ठणं झाणेणं रुद्द ेणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केणं झाणेण" इहां साधु में ४ ध्यान कह्या । जिम आर्त्तरौद्र ध्यान पावे तिम कृष्ण नील कापोत लेश्या पिण आवे । तेहनों प्रायश्चित्त आवे । डाहा हुवे तो विवारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा पद्मवणा पद १७०३ में एहवा पाठ कया है । ते लिखिये है ।
कह लेस्सेणं भंते ! जीवे कइ सुगाणेसु होजा गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा गाणेसु होजा दोसु
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भ्रम विध्वंसनम्।
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-
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होजामाणे आभिणिबोहियणाणे सुत णाणेसु होजा तिसु होजमाणे अभिणिवोहियणाणे सुय णाणे ओहियणाणे सु होजा अहवा तीसु होजमाणे आभिणिबोहिय सुय णाणे मण पजवणाणे सु होज्जा चउसु होजमाणे आभिणिबोहियगाणे सुय णाणे अोहिणाणे मणपजवणाणेसु होज्जा ।
(पनवणा पद १७ उ०३)
क० कृष्ण लेश्यावन्त. भ. हे भावन्त ! जीब. क० केतला. ज्ञानवंत हुइ. गो० है गौतम ! दो० बे ज्ञानवंत. ति अथवा त्रिण ज्ञानवंत. च० अथवा च्यार ज्ञानवंत हुई. दोघे ज्ञानवंत हुई तो. प्रा. मतिज्ञान. सु० श्रुतज्ञान हुई. ए ज्ञानवंत. ति० त्रिण ज्ञानवंत हुई'. अ० मतिज्ञान. सु० श्रुतज्ञान. अवधि ज्ञानवंत. ए त्रिण ज्ञानवंत हुई. अ० अथवा त्रिण ज्ञानवंत हुई तो. भा. मतिज्ञान. सु० श्रुतज्ञान. म० मन पर्यव ज्ञान. ए त्रिण ज्ञानवंत हुई. भवधि ज्ञान रहित ने दिए मन पर्यव ज्ञान उपजे. ते माटे दोष नहीं. य० च्यार शानवंत हुई तो. श्रा० मतिज्ञान. सु० श्रुतज्ञान. उ० अवधि ज्ञानवंत. म० मनः पर्यव ज्ञान ए चार ज्ञानवंत हुई..
अथ अठे मन पर्यवज्ञानी में ६ लेश्या पाठ में कही छै। तिहां टीकाकार पिण मन पर्यवज्ञानी में कृष्ण लेश्या ना मंद अध्यवसाय कह्या। ते टीका लिखिये छै ।
... ननु मनः पर्यवज्ञान मति विशुद्धस्य जायते. कृष्णा लेश्या च संक्लिष्टा ऽध्यवसाय रूपा, ततः कृष्ण लेश्याकस्य मनःपर्यव ज्ञान संभव उच्यते । इह लेश्यानां प्रत्येक मसंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाणानि अध्यवसाय स्थानानि तत्र - कानिचिन्मन्दानुभावान्यव्यवसाय स्थानानि. प्रमत्त संयतस्यापि लभ्यन्ते । अतएव कृष्ण नील कापोत लेश्याः प्रमत्त संयतानां गीयन्ते । मनः पर्यव ज्ञानञ्च प्रथमतो ऽ प्रमत्तस्यो त्पद्यते. ततः प्रमत्त संयतस्यापि लभ्यते । इति सम्भवति कृष्ण लेश्यापि मनः पर्यव ज्ञानं चतुर्थाभिनिवोधकं श्रुतावधि मनः पर्यव शामेषु ।
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arutsधिकारः ।
KAL
अन टीका में कह्यो — लेश्या ना असंख्याता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण मध्यवसाय ना स्थान छै । तिण में कृष्णं नील कापोत ना नंदानुभाव अध्यवसाय स्थानक प्रमत्त संयती में लाभे-तिण में मन पर्यव ज्ञान सम्भवे, इम कह्यो । प म व्यवसाय रूप भाव लेश्या छै । ते भणी मन पर्यन ज्ञानी में पिण माठी लेश्या पावे है। तथा भगवती श० ८ डं० २ कृष्ण नील कापोत लेश्या में ४ ज्ञान नी भजन कही । इत्यादिक अनेक ठामे साधु में ६ लेश्या कही छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
fart कोई कहे भगवती में को-प्रसादी अप्रमादी में कृष्णादिक ३ लेश्या न कहिणी । ते माटे साधु में माठी लेखा न पावे । तेहनों उत्तर- तिर्ण डा पहवी पाठ छै ने लिखिये छै ।
कह लेस्सस्स नील लेस्सस्स काउ लेस्सरत जहां ओहिया जीवा वरं पत्ता पमत्ता ण भाणियज्वा ।
( भगवती श० १ ० १ )
क० कृष्णां लेश्या. नी० मील लेण्या. कापोत लेश्या ज० जिम. प्रो० श्रधिक सर्व जीव. म० पिण एतले विशेष प० प्रमत्त श्रप्रमत्त न कहियो
अथ अठे तो इम को-कृष्ण. नील. कापीत. लेश्यी जिम ओधिक ( समूचे जीव ) तिम कहियो । पिण एतलो विशेष प्रनादी. अप्रमादी. प वे भेद संतरा न करवा । जे अधिक पाठ में संयती रा वे भेड़ किया ते वे भेद कृष्ण. नील.. कापोतले संपतीरान हुवे । ते कृष्णादिक ३ प्रतादी में है | अनें अप्रमादी में नथी । ते माडे वे भेद करवा नथी। बाकी भोधिक नों पाठ को.. तिम कवि । ते अधिक नों पाठ लिखिये छै ।
/
३१
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भ्रम विश्वसनम् ।
जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा संसार समावण्णगाय, असंसार समावरण गाय । तत्थणं जे ते असंसार समावण्णे गाय, तेणं सिद्धा सिद्धाणं को आयारंभा जाव अणारंभा। तत्थणं जे ते संसार समावगणगा ते दुविहा प० सं० संजयाय. असंजयाय । तत्थ जे ते संजया ते दुविहा प० तं पमत्त संजयाय अपनत्त संजयाय । तत्थर्ण जे ते अपमत्त संजयातेणं णो यारंभा णो परारंभा जाव अणारंभा। तत्थणं जे ते पमत्त संजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा जाव अणारंभा असुहं जोगं पडुच्च आयारंभावि. परारंभावि. तदुभयारंभावि. णो अणारंभा" .
(भगवती श०१ उ०१) .
जी० जीव. दुबे प्रकारे. ५० कह्या है. संसार समापन्न असंसार समापन्न. त० तक तिहां जे असंसार समापन्न. ते ते सिद्ध णो नहीं आत्मारंभी यावत अनारम्भी तिहां. जे. जे. ले० ते. सं० संसार समापन्न जीव. तं० ते. दु० बहु प्रकारे. ५० कहे है. सं० संयती. अ० असंयती. त० तिहां. जे. जे. ते ते. स० संयमी. ते ते. दु० बेहूं प्रकारे. ५० परूप्या. तं० ते कहे है. प० प्रमात संयमो. अ० अप्रमत संयमो. त तिहां. जे. जे. ते ते. अ. अप्रमत्त संयमी. ते ते. अात्मारंभी नहीं. परारंभी नहीं. उभयारंभी नहीं. अ. अनारंभी है. त. तिहां. जे. जे. ते ते. ५० प्रमत संयमी. ते० ते. सु० शुभ योग प्रति अंगीकार करी नंः णो
आत्मारम्भी नहीं- ५० परारम्भी नहीं. उभयारम्भी नहीं. अ० अनारम्भी है. अ. अशुभ योग मन बचन काया ना अङ्गीकार करी ने, प्रा० आत्मारम्भी पिण हुई. प० परारम्भी पिण हुई. उभयारम्भा पिण हुई. णो० अनारम्भी न हुई.
- अथ अठे ओधिक पाठ कह्यो-तिण में संयती रा २ भेद प्रमादी, अप्रमादी. किया। अनें कृष्ण, नील.. कापोत. लेश्या ने ओधिक नों पाठ कह्यो। तिम कहियो. पिण एतलो विशेष-संयती रा प्रमादी. अप्रमादी, ए २ भेद न करवा। ते किम. प्रमत्त में कृष्णादिक ३ लेश्या हुवे। अनें अप्रमत्त में न हुवे, ते माटे २.भेद वा । अनें साधु में कृष्णादि ३ न हुवे तो "संजया न भाणियबा" एहवू
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लेश्याऽधिकारः।
२४३
कहिता। पिण एहवो तो पाठ कह्यो नहीं। जे साधु में कृष्णादिक ३ लेश्या न होवे तो पहिलो बोल संयती रो छोड़ में प्रमत्त. अप्रमत्त. ए २ भेद संयती रा किया ते क्यों ने वरजे। ए तो साम्प्रत कृष्णादि ३ लेश्या संयती में टाली नथी। ते भणी संयती में कृष्णादिक ३ लेश्या छै। अनें प्रमादी. अप्रमादी. ए २ भेद संयती रा कस्वा आश्री वो छै। हाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा इतरो कह्यां समझ न पड़े तो वली भगवती शतक १ उ० २ कह्यो-ते पाठ लिखिये छै।
णेरइयाणं भंते ! सब्बे समवेदना, गोयमा ! णोइणट्रे समटे. सेकेणढणं भंते ! गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णता तं जहा सरिणभूयाय. असरिणभूयाय । तत्थणं जे ते सरिणभूया तेणं महावेदणा तत्थणं जे ते असशिणभूया तेणं अप्पवेयण तरागा सेतेणट्रेणं जाव णो समवेदणा ॥
(भगवती श०१ उ०२)
ने० नारकी भ० हे भगवन्त ! स० सघलाई. स० समवेदनावन्त हुई. गो० हे गौतम ! यो ए अर्थ समर्थ नहीं. से० ते त्यां माटे. गो. हे गौतम ! णे० नारकी. दु० बिहूं प्रकारे. प० कह्या. त० ते कहे है. स० सन्नी भूत. अ० असन्नी भूतः त० तिहां जे. स० स्नो भूत. ते० तेहनें. म० महा बेदना हुई, त तिहां. जे. जे. ते ते. अ० असन्नी भूत. ते तेहने. अ. बेदना थोड़ी हुई. से० ते माटे, जा० यावत. हो नहीं स० सरीखी बेदना. ..
५ समचे नारकी रा नव प्रश्न में सातमों ओधिक प्रश्न कह्यो हिवे समुचे मनुष्य ना नव प्रश्न कह्या तिण में आठमों क्रिया नों पश्न कहे छे। ते पाठ लिखिये छै।
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२४४
भ्रम विध्वंसनम्।
मगुस्साणं अंते ! सब्वे लम किरिया, गोयमा ! णोइणडे सम. से केप भने, ! गोयना ! मणुस्सा तिविहा पण्णता तं जहा सम्म दिदी. मिच्छदिट्टी. सम्म मिच्छदिट्टी. तत्थर जे से सम्माडिही ते तिविहा प० तं० संजयाय. असंजयाय. संजया संजयाय । तत्थणं जे ते संजया ते दुविहा ५० तं. सराग जयाय. वीयराग संजयाय. तत्थणं जेते वीयराग संजया तेणं अकिरिया तत्थणं जे ते सराग संजया ते दुविहा ५० तं० परमत्त संजयाय. अपमत्त संजयाय । तत्थणं जे ते अपमत्त संजया ते सि एगा माया वत्तिया किरिया कजइ । तत्थ जे ते पमन संजया तेसिणं दो किरिया कजइ. तं० नारंभियाय. माया बत्तियाय. तत्थर्ण जे ते संजयासंजया तेसिणं आदिनाओ तिरिण किरियाप्रो कज्जति । असंजबाणं चत्तारि फिरियाओ कन्जंति मिच्छदिवीणं पंच सम्म मिच्छदिक्षीणं पंच ॥१३॥ वाण मंतर जोइस वेमाणिया जहा असुर कुमारा वरं वेदणाए णाणत्तं माई मिच्छदिट्टी उववरण गाय अन्य वेयणतरा, अमायी समदिट्ठी उववरण. गाय महा धेरण तरा भाणियव्वा । जोइस वेमणियाय ॥१४॥
सलेस्साणं अंले गरइया सम्बे समाहारगा ओहियाणं सले. स्साणं. सुकलेलारणं ए एसिणं तिगह एकोगमो कण्ह लेस. मील लेस्साणंपि एक्कोगमो। णवरं वेदणाए मायी मिच्छदिही उववरणगाय अमाथी सम्मदिट्ठी उववरण गाय भाणिपवा। काउलेस्ता गवि एव मेव गमो णवरं गोरइए जहा
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लेश्याऽधिकारः।
ओहिए दंडए तहा भाणियव्वा. तेउलेस्ला. पम्हलेस्सा. अस्त अस्थि जहाओ. हिमो तहा भांणियव्वा णवरं मणस्सा सराग वीतरागा ण भाणियवा।
(भगवती श० १ उ० २)
म. मनुष्य. भ० है भावन्त ! स० सम क्रियावन्त. गो हे गोतम ! यो० ए अर्थ समर्थ नहीं. से ते. के० स्यां माटे. गो० गोतम ! म मनुष्य. तिः त्रिण भेदे कद्या. सं० ते. कहे छ. स. सम्यग्र दृष्टि मि. मिथ्या रिट. स. सम्या प्रिया दि. ते० लिहां जे सम्यक्. दृष्टि. ते ते. ति. निण प्रकारे. ५० कया तं ते कह छै. स. संयमी साधु. अ. असंयमी. स्व. संयम्यसंयमीः त तिहाँ. जे. संयमी साधु. ते. दुः विदु प्रकारे वह्या. तं० ते कहे है. सराग संयमी अक्षीण अनुप शान्त कराय दगमा गुण ठाणा लगे सराग संयमी कहीइ. दो० वीतराग संयमी. ते उपशान्त कषाय क्षोण कशाय. त• तिहां जे ते. बी वीतराग संयमी. ते तेहनें. प्रक्रिया न हुई. त० तिहां जे ते सराग संयमी. ते विहुं भेद कया. तं ते कहे छै. ५० प्रमत्त सयमी. अ० अप्रमत्त संयमी. त तिहां जे ते. अ० अप्रमत्त संयमी. ते० तेहनें. ए० एक माया वत्ति नो क्रिया उपने. अक्षीण कषाय पणा थनी. त० तिहाँ जे ते. प० प्रमत्त संयमो. ते तेहने दो दोय क्रिया उपजे. ते ते कहे छै. सा. अप्रमत्त संयमो सर्व प्रमत्त योग प्रारंभ की क्रिया कहे. अक्षोण पणा थी मायावर्ति नो क्रिया कहीइ. त० तिहां जे ते. सं. संयता संबति. ते. तेहने. प्रा. प्रथम रो. ति तोन. कि० क्रिया. क० उपजे भ० असंयती में. च० चार किया. क उपने छ. मि. मिश्या दृष्टि में ५ स० सन मिथ्या रबि ५ ( किया उपजे छै ) ॥१३॥
वा. वाण व्यन्तर ज्योतिषी वैमानिक. ज० यथा. श० भासुर कुमार. ण. एतलो विशेष घे वेदना ने विषे. णा. नाना प्रकार मा० सायो मिथ्या दृष्टि, उ उपजे. अ. अल्यवेदनावन्त. भ० अमायो. सम्यष्टि . उ० उपजे. म० महा वेदनावन्त. भा० कही जे. जो. ज्यातिषो वैमा. निक में. ॥१४॥
स. सलेशो. भ० भगवन् ! मा० नारकी. स. सर्व. स. सम श्राहारी. औ० भौधिक स. सलेशो शु० शुक्ल लेशी. ए० इण तीन में विर्षे एक सरीखो. क० कृष्ण लेश्या नील लेण्या ने विषे. ए. एक सरीखा. णा० एतले विशेष पे० वेदना रे पि. मा० मायी मिथ्या दृष्टि उपना ते महा वेदना वन्त. अ०भने अमायी सम्चा दृष्टि ऊपना ते अल्प वेदनावन्त. म० मनुष्य. कि० क्रिया में विषे. स० सराग सायमी वीतराग यमो. ८० प्रमत्त संयमी. अ० अप्रमत्त संयमी ते कृष्ण लेश्या ना दण्डक ने विवे न कहिवा. का. कापोत लेश्या दंडक ते नील लेश्या दइक सरोवू. पिण ए० एतले विशेष. तारक एदे. ज० जिम प्रोधिक दंडके नारकी विहूं भेद बैं मंत्री
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भ्रम विध्वंसनम् ।
भूत अनें असंज्ञो भूत. असंज्ञो प्रथम ऊपजे तिहां कपोत लेश्या. ते तेजू लेश्या. प० पद्म लेण्या. ज० जेह जोवने ? ते जोवनें पाश्री ने. ज० जिम प्रोधिक दंडक तिम भणवो नारकी विकलेन्द्रिय तेजस्काय. वायुकाय ने प्रथम नो ३ लेश्या पिण. ण एतलो विशेष. केवल प्रोधिक दंडक के क्रिया सूत्रे मनुष्य सागी वीतरागी विशेषण कह्या। ते इहां न कइिवा तेजू पद्म लेश्या सरागी ने हुई. पिण 'बीतराग ने न हुई. वीतराग में एक शुक्ल लेश्या ज हुवे ते माटे सराग वीतराग न भणवा.
__अथ इहां कह्यो--कृष्ण. नील. लेशी नेरिया तो ओधिक नेरिया ना नव प्रश्न नी परे. पिग एतलो विशेष. वेदना में फेर. ओधिक में तो सन्नी भूत नेरिया रे धणी वेदना कहो। असन्नी भूत नेरिया रे थोड़ी बेदना कही। अनें इहां मायी मिथ्या दृष्टि रे घणी बेदना अनं अमायी सम्पदृष्टि रे थोड़ी बेदना कहिणी । ते किम् असन्नी मरी कृष्ण नील लेशो नेरिया न हुवे। ते माटे सन्नी भूत असन्नी भूत कहिणा। अनं क ग लेशा मनुष्य पिण ओधिक मनुष्य ना प्रश्न नो परे. पिण क्रिया में फेर, समचे मनुष्य ना भेद क्रिया में किया। तिम कृष्ण नील लेशी मनुष्य ना भेद करणा। पिण सरागी वीतरागी, प्रमादी. अप्रमादी. ए भेद न करवा । जे समचे मनुष्य ना ३ भद सम्यग्दृष्टि. मिथ्यादृष्टि. सम्यक मिथ्याष्टि. तिम कृ ण नोल लेशी मनुष्य ना ३ भेद सम्यकदृष्टि, मिथयादृष्टि. सम्यक मिथयादृष्टि, जिम समचे मनुष्य ना ३ भेद में सम्यकट्टष्टि. मनुष्य रा ३ भेद-संयती. असंयती. संयतासंयती. तिम कृष्ण नील लेशो मनुष्य रा पिण ३ भेद करवा संयती. असंयती. संयतासंयती। इण न्याय संयती में तो कृष्ण नील लेश्या हुवे, अनें आगे समचे मनुष्य रा भेदों में संयती रा २ भेद-सरागी. वीतरागी. । अने सरागी रा २ भेद-प्रमादी. अप्रमादी, ए सरागी वीतरागी प्रमादी अप्रमादी भेद कृष्ण नोल लेशी संयतो मनुष्य रा न हुवे । वीतरागी अने अप्रमादी में कृष्ण नील लेश्या न हुवे। ते मादे २-२ भेद न हुवे। सरागी में तो कृष्ण से नील लेश्या हुवे. परं वीतरागी में न हुवे। ते मादे संयती रा २ भेद सरागी वीतरागी न करवा। अनें प्रमादी में तो कृष्ण नील लेश्या हुवे. परं अप्रमादी में न हुवे। ते माटे सरागी रा २ भेद :प्रमादी, अप्रमादी न करवा । इणन्याय कृष्ण नील लेशी संयती रा सरागी वीतरागी प्रमादी अप्रमादी भेद करवा वा । परं संयती वज्यौं नहीं। संयती में कृष्ण नील लेश्या छै । अनें जो संयती में कृष्णादिक न हुवे तो इम कहिता 'संजया न भाणियब्वा" ए धुर नों संयती वोल छोड़ी ने आगला
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लैश्याऽधिकार।
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"सरागी वीतरागी पमत्ता पमत्ता न भाणियव्या' इतरो क्यूं कहे। वली साधी में कृष्ण नील लेश्या हुवे इज नहीं तो पहिला सरागी वीतरागी पछे प्रमादी अप्रमादी इम उलटा क्यूं कह्या। पिण संयती रा भेद आगे इमहिज किया हुन्ता। तिमहिज नाम लेइ इहां बर्यो छै। ते संयती रा भेद करवा वा छै । पिण संयती वयॊ नहीं। वली आगे कह्यो तेजू पन लेशी मनुष्य क्रिया में पूर्वे मनुष्य ओधिक कह्यो। तिम कहिवो। पिण सरागी वीतरागी न कहियो। इहां तेजू पद्म लेशी मनुष्य में पिण सरागी वीतरागी वा । ते पिण संयती रा २ भेद सरागी. वीतरागी पूर्वे कह्या तिम तेजू पद्म लेश्या संयती रा बे भेद न करवा। ते किमसरागी में तो नेजू पद्म हुवे। पिण वीतरागी में तेजू पद्म न हुवे। ते भणी तेजू. पद्म. लेशी संयती रा २ भेद वा। पिण संयती वन्यों नहीं मिल भ० श०१ उ०. ४१ कृष्ण नील कापोत लेशी संयती रा २ भेद प्रमादी. अप्रमादी. करना वा । पिण संयती वो नहीं । तिवारे कोई कहे कृष्ण. नील. कापोत, लेशी में प्रमादी. अप्रमादी बिहूं वा । तो साधु में कृष्णादिक ३ किम होवे । तिण ने इम कहिणोतेज :पद्म में पिण सरागी वीतरागी वा छै। जो तंजू. पद्म. लेश्यी साधु में सरागी वीतरागी क्यूं वा तो साधु में तेजू पद्म किम कहो छो। तुम्हारे लेखे तो सरागी में पिण तेजू पद्म नथी। अनें वीतरागी में पिण तेजू पद्म नथी। तिवारे साधु में पिण तेजू पद्म न कहिणी। तिवारे आगलो कह-संयती रा २ भेद कह्या । सरागी में तो तेजू पद्म होवे पिण वीतरागी में तेजू पद्म न होवे। तिण सं २ भेद करवा वा छै। इम कहे तो तिण ने इम कहिणो। तिम कृष्ण नील कापोत लेशी संयती रा पिण प्रमादी अप्रमादी बे भेद करवा वा। प्रमादी में तो कृष्णादिक ३ लेश्या हुधे। पिण अप्रमादी में न हुवे । तिण सूं बे भेद करवा वा । पिण संयती ने न वो। ए तो चौड़े साधु में कृष्णादिक लेश्या कही छै। तिवारे कोई कहे-ए तो कृष्णादिक ३ द्रव्य लेश्या छै। अनें भावे होय तो भावे कृष्णादिक में अणआरम्भी किम हुवे। तिण ने कहिणो ए द्रव्य लेश्या छै । तो ३ भली लेश्या विण द्रव्य हुवे। एहनें पिण आरम्भी कहा छै। ते भली भाव लेश्या में आरम्भी किम हुवे। एहनों पाठ छै । ___ "तेउलेस्सस्स पद्मले स्सस्स सुक्क लेस्सस्स जहां अोहिया जीवा णवरं सिद्धा ण भाणियबा"
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भ्रम विध्वंसनम् ।
इम तीन भली लेश्या ने पिण अधिक नों पाठ भलायो ते लेखे तेजू पद्म शुक्ल लेशी पिण आरम्भी अणारम्भी बेहु हुवे । जो कृष्णादिक द्रव्य लेश्या कहे तो ए भली लेश्या पिणं द्रव्य कहिणी । तिवारे आगलो कहे- भली भाव लेश्या व से बेलां आरम्भो न हुवे । पिण भली भाव लेश्यावंत साधु नी पृच्छा आश्री श्रारंभी हुवे । ते न्याय ए ३ अली भाव लेश्यावन्त है । इम कहे तेहनें इन कहिणो । इणन्याय कृष्णादिक्क ३ माठी भाव लेश्या वर्त्त । तिण वेलां अणआरम्भ नहुने । पण माठी लेश्यावन्त साधु नी पृच्छा आश्री अणारम्भी हुवे ए तो जो कृष्णादिक ३ द्रव्य कहे तो तेजू. पद्म. शुक्ल. पिण द्रव्य कहिणी । भनें जो तेजू. पद्म शुक्ल. भाव लेश्या कडे तो कृष्णादिक पिण भाव लेश्या कहिणी । ए तो साम्प्रत साधु में ६ लेश्या कही है। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
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इति ५ बोल सम्पूर्ण |
२४८.
बली जिम भगवती प्रथम शतक दूजे उद्देश्ये कह्यो -तिम पद्मवणा पद १७ उद्देश् को ते पाठ लिखिये छै ।
कराह लेसा मते गोरइया सव्वे समाहारा सम शरीरा सच्चैव पुच्छा, गोयमा ! जहा ओहिया गवरं गोरड्या वेदाए. माई मिच्छदिट्टी उववरागगाय श्रमायी सम्म - दिट्टी उवत्ररागाय भाणियत्वा । सेसं तहेव जहा ओहितायां असुर कुमारा जाव वाण मंतरा एते जहा ओहिया
वरं मणसायां किरियाहिं विसेसो जाव तत्यणं जे ते सम्म - दिट्ठी ते तिविद्दा परणत्ता तंजहा संजया. असंजया. संजयासंजया जहा ओहियाण ।
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(पवणा पद १७-१३० )
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लेश्याऽधिकार।
وه ره ي ميه ميه ميه ميه به بهره را به بي. مره ميه ميه ميه به يه بية دره ه ه ه ه ه و به بی۔
क० कृष्ण लेश्यावन्त. हे भगवन् ! ने० नारको. स० सवलाई. स० सरीखा अाहारवन्त छै सम शरीरवन्त छै. पूर्वली परे पृच्छा. गो० हे गौतम ! ज० जिम प्रोधिक कह्या. तिम कहिवा. ग. पिण एतलो विशेष. णे० नारकी. वे जे कृष्ण लेश्या नः वेदना में विषे केतला एक मायावन्त मिथ्यावृष्टि मरी ने नारकी पणे ऊपना छै. अनें केतला एक श्रमायी सम्यग्दृष्टि मरी में अपना है. ए वे भेद कहिवा मायो मिथ्यादृष्टि उपना छै ते अति दुष्टाध्यवसाय निर्वन्ध कर्म थको महा दुःख वेदनावन्त छः अमायी सम्यग्दृष्टि ऊपनो छ ते अल्पाध्यवसाय थको रूल्य दुःख वेदनावन्त छै. ए चे भेद कहिवा. पिण संज्ञो भूत असंज्ञी भूत न कहिवा. जे भणो तो प्रसयती प्रथम नरके ऊपजे छै कृष्ण लेश्यावन्त ५-६-७ नरके ऊपजे. ते माटे. से० शेष सर्व तिमज भोधिक नी परे. कहिवा. कृष्ण लेश्या ना अमरकुमार यावत. वा० वाणज्यन्तर एह सब तिम भोधिक पणे करा. तिमज कहिवा. ण. पिण एतलो. म. कृष्ण लेश्या ना मनुष्य में विशेषता छ. ते कहे छै. कृष्ण लेश्या ना मनुष्य सम्यग्दृष्टि ते त्रिण भेद कह्या छै. ते कहे है. संयती. असंयती. संयतासयतो। प्रोधिक नी परे ।
इहां पिण कृष्णलेशी मनुष्य रा ३ भेद कह्या छै। संयती. असंयती. संयतासंयती. ते न्याय पिणं संयती में कृष्णादिक हुये। इम संयती में कृष्णादिक लेश्या घेणे ठामे कही छै. अमें कोई कहे साधु रे माठी लेश्या आवैज नहीं। ते झूठ रा बोलणहार छै। अने साधु रे तो ठाम २ माठी लेश्या कर्मको भावती कहो छ। कदे साधु रे कर्म योगे अशुभ योग अशुभ ध्यान पिण आने । लिम कदे अशुभ लेश्या पिण आवे छै। भगवती श० ३ उ० ४-५ साधु अनेक प्रकार का रूप वैकिय करे ते विना आलोयां मरे तो विरावक कह्या । वैक्रिय करे छै, वली कर्मयोगे आहारिक तेजू लब्धि पिण फोडवे इत्यादिक अनेक सावध कार्य करें। तिवारे माठो लेश्या आवे छै। तेहनों प्रायश्चित आवे छै। :सीहो मुनि रोयो नांग पाडी. रहनेमि विषय परिणाम आणीं खोटो वचन वोल्यो. अइमुत्ते मुनि पाणी में पानी तराई. धर्म घोष रा साधां नागश्री ने बाजार में हेली निन्दो.. भगवान् लब्धि फोड़ी. गौतम वचन में खलाया. इत्यादिक कार्य में साम्प्रत माठी लेश्या छै। तिवारे प्रायश्चित्त लेये छै। जो भली लेश्या हुवे तो प्रायश्चित्त क्यू लेवे। माठा
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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ध्यान रा भने माठी लेश्या मा लक्षण केई एक सरीखा छै। अ केतला एक साधु . रे माठो ध्यान कहे। पिण माठी लेश्या न कहे। आर्तरुद्र ध्यान ना अनें कृष्ण लेश्या ना लक्षण मिलता छै। ते माठो ध्यान साधु में पावै. तो माठी लेश्या किम् म पावै। जाहा हुवे तो विचारि जोहजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
इति लेश्याधिकारः।
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अथ वैयावृत्ति-अधिकारः।
कोई कहे जे यक्षे छात्रों ने मूर्छा गति कीधी ते हरि केशी मुनि व्यावच कही, ते भणी ए व्यावच में धर्म छै। जो यक्ष में पाप हुवे, तो व्यावच क्यूं कही। तलोत्तम्-ए तो ब्यावच सावध छै। आना बाहिरे छै। जे विप्र ना वालकां ने अचेत कीधा, ते तो प्रत्यक्ष विरुद्ध कार्य छै। जद केइ कहे-५ व्यावच में धर्म नहीं तो हरिकेशी मुनि इम क्यूं कह्यो। ए यक्षे व्यावच करी इम कहे तेहनों उत्तर---ए तो हरिकेशी मुनि आपरी आशङ्का मेटवा ने अर्थे कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
पुत्विंच इरिहं च अण्णागायं च,
मणप्पदोसो ण मे अत्थि कोई। जक्खाहु वेयावड़ियं करेंति, तम्हाहु ए ए णिहया कुमारा।
- (उत्तराध्ययन अ० १२ गा० ३२ )
पु० यक्ष मलगो थयो हिवे यती बोल्यो. पू० पूर्व. इ० वर्तमान काले. अ० अनागत काले. म० मोनें करी. ५० प्रद्वष. न० नथी. मे० माहेर. अ० है. को० कोई अल्प मात्र पिण. ज० अज्ञ. हु० निश्चय. से भयो वैयावच पक्षपात करे है. ते भणी. हु. निश्चय. ए० ए प्रत्यक्ष हण्या कुमार.
अथ इहां हरिकेशी मुनि कह्यो,---पूर्वे हिंवड़ा अने आगामिये काले म्हारो. तो किञ्चित् द्वेष नहीं। अने जे यक्ष व्यावत्र करी. ते माटे ए विप्र ना पालकां ने
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२५२
भ्रम विध्वंसनम् ।
हण्या छै। ए तो पोता नी अशंका मेवा अर्थे कह्यो। जे छात्रा ने हण्या ते यक्ष ब्यावव करी पिग म्हारो द्वेष न थी। ए छानां ने हण्या ते पक्षपात रूप व्यावत्र कड़ी छ। आशा वाहिरे छे ते मादे सावध छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
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घली सूर्याभ नाटक पाड्यो, ते पिण भक्ति कही छ । ते पाठ लिखिये छ।
तं इच्छामि णं, भत्ति पुव्वं गोयमाइणं समणाणं निग्गंथाणं दिवं देवढि जाव वत्तिस विहि नह विहिं उव दलिए । ततेणं सतणे भगवं महावीरे सुरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे सुरियाभस्स एयमढें णो आढाए णो परिजाणइ तुस्सणीए संचिट्टइ.
(राज प्रश्रेणो)
सं० ते. इ० वांछ छ. दे. हे देवानु प्रिय ! भ• तुम्हारी भक्ति पूर्वक, गो० गौतमादिक स० श्रमण. नि० निर्ग्रन्थ ने. दि० प्रधान देवता नी ऋद्धि. जा० यावत. व० वत्तीस प्रकार ना नाटक विधि प्रते देखाडवो वाळू. स० तिवारे. स० श्रमण. भ० भगवान् महावीर. सु० सूर्याभ देब ने. ए० इम. बु० का थके. सु० सूर्याभ, द० देवता ना. ए० एहवा बचन प्रते णो श्रादर न देवे. मन करने भलो न जाणे. धाज्ञा पिण न देवे. अण बोल्या थकां रहे.
इहां सूर्याभ नाटक में भक्ति कही छै। ते भक्ति सावद्य छ। ते माटे भक्ति नी भगवन्ते आज्ञा न दीधी। “णो आढाए नो परिजाणइ" ए पाठ रो अर्थ टीका में इम कियो छै।
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धेयावृत्ति अधिकारः।
२५३
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"एष मनन्तरो दितमर्थ नाद्रियते, न तदर्थ करणाया ऽऽ दरपरो भवति । नापि परि जानाति अनुमन्यते खतो वीतराग त्वात् । गौतमादीनांच नाट्यविधिः स्वाध्यायादि विघात कारित्वात् केवलं तूष्णीकोऽवतिष्टते"
इहां टीका में पिण ए नाटक रूप भक्ति कही। ते अर्थे ने भगवन्ते भादर न दीधो। अनुमोदना पिण न कीधी। पोते वीतराग छै ते माटे। गौत. मादिक साधु ने नाटक स्वाध्यायादिक नों व्याघात करणहार छै, ते माटे मौन साधी। पिण आज्ञा न दीधी। भने सूर्याभे पहिलो वन्दना कीधी ते वन्दना रूप भक्ति नी भगवन्ते आज्ञा दीधी । “अब्भणुणाय मेयं सुरियामा" ए आशा नों पाठ चाल्यो छै। तिम इहां आज्ञा नों पाठ चाल्यो नहीं जिम ए नाटक रूप भक्ति सावध छै। आज्ञा बाहिरे छ। तिम ते छात्र यक्षे हण्या ते व्यावच पिण सावध छै आशा बाहिरे छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली ऋषम देव निर्वाण पहुन्ता. तिहां भगवन्त नी इन्द्र पाढा लीधी, बीजा देवता शरीर ना हाड़ लीधा। ते केई देवता भक्ति जाणी ने इम कहो छ। ते पाठ लिखिये छै!
तएणं से सक्के देविंदे देवराया भगवो तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ, ईसाणे देविंदे देवराया उवरिल्लं वामं सकहं गेण्हइ चमरे असुरिंदे असुरराया हिट्रिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ वली वइरोआणिंदे वइरोयणराया हिदिल्लं वामं सकहं गेगहइ, अवसेसा भवणवइ जाव
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भ्रम विध्वंसनम् ।
माया देवा जहारिहं अवसेसाई अंगुवंगाई केइ जिग भन्ती केइ जी अमेयं तिकटु केइ धम्मो तिकट्टु गेरहंति । ५८ |
( जम्बूद्वीपपन्नत्ति )
२५४
त० तिवारे पछे.. ते शक्र देवेन्द्र देवता नों राजा. भ० भगवन्त तीर्थकर नो. उ० ऊपरली दा० जीमणा पासानी दाढ़ा ग्रहे. ई० ईशान देवेन्द्र देवता नों राजा. उपरली. वा० डावी. स० दादा ग्रहे. च० चमर असुरेन्द्र असुरा नों राजा. हे० हेठली. दा० जीमणी. स० दाड़ा. गे० ग्रहे. व० वलेन्द्र वैरोचनेन्द्र उत्तर दिशा ना असुरा नों इन्द्र वैरोचन राजा. हे० हेठली. वा० डावी. स० [दाड़ा. ग्रहे. अ० अवशेष बीजा भ० भवन पति जा० यावत् व्यन्तर ज्योतिषी वे० वैमानिक देवता. ज० यथायोग्य अ० अवशेष थका अंग ते हस्त प्रमुख ना अस्थि. उपाङ्ग ते अङ्गुलि प्रमुख ना अस्थि ग्रहे. के० केइ एक देवता तीर्थंकर नी भक्ति अनें रागे करो. केइ एक देवता जीत आचार साचविवा ने श्रर्थे इम कही नें. के० केई एक देवता धर्म निमित्ते. ति० इम कही
अस्थि आदि देई ग्रहे.
आचार
कह्यो ते पिण जीत
यथा रीति जिम देव
इहां भगवन्त नी दाढ़ा अङ्ग उपाङ्ग देवता लिया । ते केइक देवता तीर्थरनी भक्ति जाणी नें केईएक जीत आचार जाणी ने केईएक धर्म जाणी नें ग्रह्मा । इहां पिण भक्ति कही छै । ते भक्ति सावद्य छै । सावध छै । धर्म कह्यो ते पिण धर्म नाम स्वभाव नों छै । लोक नी जाणो तिम लिया पिण श्रुत चारित्र धर्म नहीं का । तिण में कुल धर्म गणधर्म इत्यादिक जाणिये । नहीं । इहां भक्ति १ आचार २ धर्म ३ ए त्रिण काा । छै । तिम हीज यक्षे व्यावच कीधी ते पिण सावद्य छै ।
।
I
ते सावद्य आज्ञा बाहिरे
आज्ञा वाहिरे छै 1 जे
विप्रां ना वालकां ने ताड्या. दुःख दीधो, ते तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
धर्म तो १० प्रकार
पिण वीतराग नों धर्म
इति ३ बोल सम्पूर्ण
1
कोई कहे सर्व जीवां नें साता उपजायां तीर्थङ्कर गोत्र वंधे, इम कहे
पिण झूठ छै। सूत्र में तो सर्व जीवां रो नाम चाल्यो नहीं । वीसां वोलां तीर्थtata वांधे तिहां हो कह्यो छे ते पाठ लिखिये छै ।
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वैयावृत्ति अधिकारः।
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इमे हियाणं वीसाहिय कारणहि आसेविय बहुली कएहिं तित्थयर णाम गोयं कम्मं निव्वतेसु तं जहा
अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेरे वहुस्सुए तबस्सीसु । वच्छल याय तेसिं अभिक्खणाणो वो गेय ॥१॥ दसण विणय आवस्सएय, सीलब्बएय हिरवइयारे । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाहीयं ॥२॥ अपुव्वणाणा गहणे सुय भत्ती पक्षणप्पभावणया : एएहि कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥
(ज्ञाता अ०८)
इ० प्रत्यक्ष प्रोगले वीस भेदां करी ने. ते भेद कहे छै. आ. प्रासेवित है मर्यादा करी ने एकवार करवा थकी सेख्या छै. घणो वार करवा थकी घणी वार सेव्या छ । वीस थानक तिणें करी तीर्थकर नाम. गोत्र कम उपार्जन करे बांधे तो हुवो ते महाबल अणगार सेव्या. तं० से २० थानक कहे छै. अ० अरिहन्त नी आराधना ते सेवा भक्ति करे. सि० सिद्ध नी आराधना ते गुणग्राम करे ५० प्रवचन श्रुतज्ञान सिद्धान्त नों वखाणवो. गुण धर्मोपदेशक गुरु नों बिनय करे. थि० स्थविर नों विनय करे. ब. बहुश्रुती घणा श्रागम नों भणनहार. एक २ नी अपेक्षाय को ने जाणवो. त० तपस्वी एक उपवास आदि देइ घणा तप सहित समौन साधु तेहनी सेवा भक्ति करे, अरिहंत १ सिद्ध २ प्रवचन ३ गुरु ४ स्थविर ५ बहुश्रुति ६ तपस्वी ७ ए सात पदां नो वत्सलता पणे भक्ति करी ने अने अनुरागी छतां. णा ज्ञान नों उपयोग हुँतो तीर्थङ्कर गोत्र बांधे. द० दर्शन ते सम्यक्त्त्व निर्मल पालतो ज्ञान नों विनय ए बिहू ने निरतिचार पालतो थको. भावश्यक नों करवो. समय व्यापार थकी नीपनु. पडिकमणो करिवो. निरतिचार पणे करी. उत्तर गुण प्रत कहितां मूल.गुण उत्तर गुण में निरतिचार पालतो थको जीव तीर्थकर नाम कर्म बांधे. ख० क्षीण लवादिक काल में विषे संवेग भाव नों ध्यान ना सेवा थको बंधे. त० तप एक उपवासादिक तप सू रक्तपणा करी. चि० साधु यती ने शुद्ध दान देई ने. वे० दश विध व्यावच करतो थको. स० गुर्वादिक ना कार्य करके गुरु ने सन्तोष उपजावे करी ने. तीथकर नाम. अ. अपूर्व ज्ञान भणतो थको तीर्थकर नाम गोत्र बांधे. सू० श्रुत नी भक्ति सिद्धान्त नी भक्ति करतो थको तीर्थकर नाम यथाशक्ति साधु मार्ग ने देखाडवेकरी प्रवचन नी प्रभावना तीर्थकूर ना मार्ग ने दिपावे करी. ए तीर्थकर पणा ना कारण थकी २० भेद बंधता कह्या ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
می
و سعی
م
روی
یه که می
بی
بی
مه ، یه می دهی به یه به مه به سه بی بی
می که به في يه مه يه مه مه ت بي بي
अथ इहां तीर्थङ्कर गोत्र ना २० वोल कह्या। तिहाँ सत्तरह में घोल में गुरु ने चित्त में समाधि उपजावे, तो तीर्थङ्कर गोत्र बंधे एहवू कह्यो छ। तेहनी टीका में पिण इम कह्यो । ते टीका लिखिये छ।
"समाधौष गुर्वादीनां कार्य करण द्वारेण चित्त स्वास्थ्योत्पादने सति नितितवान्'
इहां टीकामें पिण गुर्वादिक साधु इज कह्या। पिण गृहस्थ न कह्या । गृहस्थ नी व्यावच करे ने तो अठ्ठावीसमो अगाचार छै। पिण आशा में नहीं। अने वीसां घोलां तीर्थङ्कर गोत्र बंधे। ते वीसू ही वोल निरवद्य छै। आशा माहि छै। ए तो वीस वोल महावल अगगार सेव्या ते ठिकाणे कहा छै। ते महावल अणगार तो साधु हुन्ता। ते गृहस्थ नी व्यावच किम करस्ये। गृहस्थ शरीर नी सांता वांछ. ते सावध छै। तेह थी तो तीर्थर गोत्र बंधे नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा सावध साता दोधां साता कहे, तिण ने तो भगवान् निषेध्यो , ते सूत्र पाठ लिखिये छ।
इह मेगेउ भासंसि सायं सातेण विजइ । जेतत्थ आयरिय मग्गं परमं च समाहिय ॥ ६ ॥ मा एवं अव मन्नत्ता 'अप्पेण लुप्पहा बहु । एअस्स अमोक्खाए अय हरिव झरह ॥७॥
(सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० ३ उ० ४)
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वैयावृत्ति अधिकारः।
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. इ० इस संसार माहे. मे एकै शाक्यादिक अश्या स्वोर्थी. सा० सुख ते सुखेज करी बाई पर दुःख थकी सुख न थाइ'. जे जे कोई शास्मादिक इन कहे तिहां सोक्ष विचारणा में प्रस्तावे. प्रा. भार्य तीर्थकर नों परूप्यो मोक्ष मार्ग छोहे. परम समाधि नों कारण ज्ञान. दर्शन. चारित्र रूप इण भाषिवे परिहरी संसार. माहें भ्रमण करे तेहीज देखाडे छै॥६॥
महो दर्शनी. मा० रखे ए पूर्वोक्त इण बचने करीज सुखे सुख थाई. इम श्री जिन मार्ग में होगता हुन्ता. अल्प थोडे विषय में सुखे करी गमाडो छो. पणा मोक्ष ना एख. श्रा असत्य में श्रण छोडवे करी ने मोक्ष नथी, निन्दा में करीवे मोज न जाई. ते लोह पाणियानी परे रसी.
अथ इहां कह्यो-साता दिगणं साता हुने गम कहे ते आर्य मार्ग थी मलगो कह्यो। समाधि मार्ग थी त्यारो कह्यो। जिग धर्म री हेलणा रो फरणहार. मल्प सुखा रे अर्थे घगा सुखां रो हारणहार, ए असत्य पक्षे अणछांजवे करी मोक्ष नहीं। लोह वाणिया नी परे घणो दूरसी, साता दियां साता परूपे, तिण में पतला अवगुण कहा, तो सावध साता में धर्म किम कहिये। तेहथी तीर्थङ्कर गोत्र किम बंधे। दशवकालिक अ० ३ गृहस्थ नो साता पूज्यों सोलमों अमाचार लागतो कह्यो। तथा गृहस्थ नी व्यावच कीधां अट्ठावीसमों अणाचार कह्यो। तया निशोय उ० १३ गृहस्य नो रक्षा निमित्ते भूनी कर्म कियां प्रायश्चित्त कह्यो। तो गृहस्थ री सावध साता यांच्या तीर्थङ्कर गोल किम बंधे। ए तो गुरु ना कार्य करी सन्तोष उपजावियो। तथा साधु माहोमाहि समाधि उपजाये। तथा शान. दर्शन. चारित्र री समाधि उपजायां तीर्थङ्कर गोल बाँधे । पिण सावध साता थी तीर्थडर गोत्र न बंधे ! डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
पली कोई कहे-वीसा वोलो तीर्थङ्कर गोत्र बंधे तिण में सोलमों बोल पश प्रकार ती व्यावच करतो कह्यो। ते दश प्रकार नो व्यावच ना नाम कह छै। भाचार्य. उपाध्याय. स्थविर. तपस्वी. ग्लान. नयो शिष्य. कुल. गण, सङ्घ. सा. धम्मी. ए दश ज्यावच में सङ्ग अने साधम्मी में श्रावक ने घाले हैं। भने
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। भ्रम विध्वंसनम् ।
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भगवन्त तो दसूई साधु कह्या छै। वली ठाम २ व्यावच करवा ने ठामे सङ्घ अनें साधी व्यावच नों अर्थ साधु कह्यो छै। ते पाठ लिखिये हैं।
___पंचहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे महा निजरे महा पजव• साणे. तं० अगिलाए सेह वेयावच्चं करेमाणे अगिलाए कुल वेयावच्चं करेमाणे अगिलाए गण वेयावच्चं करेमाणे अगिलाए संघ वेयावच्चं करेमाणे अगिलाए साहमिय वेयावच्चं करमाणे ॥ १२ ॥
(अपाङ्ग ठाणा ५ उ०१)
- पं० पांच स्थान के करी. स० श्रमण निर्ग्रन्थ. म० मोटा कर्मना ना करणहार. महा निर्जरा थकी भव ने नसाइये करी मोटो अंत कै जेहनों. ते महा पर्यवसान. त० ते कहे छ. पर प्लेद रहित नव दीक्षित तेहनूं. ये वैयावच भातादि धर्म ना जे आधारकारी वस्तु तेणं करी ने
आधार देतो क० कहतो थको. अ० खेद रहित. कु• कुल चंद्रादिक साधु नों समुदाय तेहनी ब्यावच. खेद रहित ग० गा ते कुल नों समुदाय. एतले एक प्राचार्य ना साधु ते कुल ते प्राचार्य साधु ते गण. अ. अने वली वेद रहित संघ ते गण नू समुदाय एतने घगहे प्राचार्य ना साधु तेहनी वैयावध ग्र० खेद रहित साधर्मिक ते प्रवचन अने लिङ्ग करी ने सरीखो धर्म ते सावमिक तहनी. वे वैयावत्र पाणादिक भक्तिनो. क० करतो थको.
अथ अठे कुल. गण. सङ्घ. साधी साधु ने इज कह्या। पिण अनेरा में न कह्या। ते ठाणाङ्ग नी टीका में पिण एइनों अर्थ इम कियो छै । ते टीका लिखिये छ।
कुलं चन्द्रादिकं साधु समुदायः विशेष रूपं प्रतीत्य गण: कुल समुदायः संघो गण समुदाय इति । साधर्मिकः समान धर्मो लिंगतः प्राचन तश्चेति ।
इहां टीका में पिण इम कह्यो-कुल चन्द्रादिक साधु नों समुदाय गण ते कुल नों समुदाय, सङ्कः ते गण नों समुदाय साधर्मिक ते सरीखो धर्म लिङ्ग प्रक
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वैयावृत्ति-अधिकारः।
चन ते सार्मिक इहां तो कुल गण सङ्घ सधी साधु ने कह्या, पिण श्रावक ने न कह्या । साहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा ठाणाङ्ग ठाणे १० मे कह्यो ते पाठ लिखिये छ ।
दसविहे वेयावच्चे प० तं. आयरिय वेयावच्चे उवज्झाय वेयावच्चे थे। वेयावच्चे तवस्सि वेयावच्चे गिलाण वेयावच्चे सेह वेयावच्चे कुल वेयावच्चे गण वेयावच्चे संघ वेयावच्चे साहम्मि वेयावच्चे ॥१५॥
(याणाङ्ग ठा०१०)
६० दस प्रकारे वैयावच कही. ते कहे है. भा. प्राचार्य पदवी धर तथा पोता ना गुरु तेहनी वैयावच. उ० समीप रहे तेहने भणावे ते उपाध्याय. थे स्थविर त्रिण प्रकारे वयस्थविर ६० वर्ष नों १ सूत्र स्थविर दाहाङ्ग समवायाङ्गादि नों जायाणहार पर्याय स्थविर २० वर्ष दीक्षा लिये हुबा तेहनं त० मास क्षमणादिक तप नों करणहार. गि० रोगी प्रमुख. से० नव दीक्षित शिष्य तेहनें प्राचार प्रमुख सीखवे. कु. एक गुरु ना शिष्य ते भणी कुल कहिये। ग० वे 'प्राचार्य ना शिष्य ते गण सं० घणा प्राचार्य ना शिष्य ते संघ सा. सरीखे धम्में विचरे ते साफर्मिक साधु एतलानी व्यावच करे, आहारादिक प्रापवे करी ने. ।
अथ इहां पिण दश ब्यावच साधुनीज कही। पिण श्रावक नी न कही। भने तेहनी टीका में पिण नव नों तो सुगम माटे अर्थ न कीधो। अने साधी नों अर्थ कियो ते टीका लिखिये छै । --
समानो धर्मः सधर्म स्तेन चरन्तीति सामिकाः साधवः" . . .
इहां पिण साधम्मी साधु नें इज कह्या। पिण गृहस्थ ने साधर्मी न कायो। गृहस्थ से सरीखो धर्म नहीं। एक ब्रत धारे तेहनें पिण श्रावक कहिये।
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ममः विध्वंसनम्।
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भने १२ व्रत धारे तेहने रिण श्रावक कहिये। ते माटे प्रथम तथा छेहला तीर्थङ्कर ना सर्व साधु रे पांच महाव्रत छै। ते भणी तेहिज साधर्मिक कहीजे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा वलो उचाई में १० व्यावच कही छै। ते पाठ लिखिये छ ।
सेकितं यावच्चे दसविहे प० तं. आयरिय वेयावच्चे. उवज्झाय वेयावच्चे. सेह वे०. गिलाण वे०. तवस्सि वे०. थेरे वे०. साहम्मिय वे०. कुल वे०. गण वे०. संघ वेयावच्चे।
(उवाई)
से० ते केहो भात पाणी आदिक अवष्टम्भादिक घन नों देवो. तेहनें दश प्रकारे कह्या. तीर्थ करे. २० ते रहे है, श्रा० प्राचार्य पंचाचार नों प्रतिपालक. तेहनें वैयावच अवष्टम्भ साहाय्य देवो. उ० उपाध्याय द्वादशांगो ना भणणहार तेहनी वैयावच. से० शिष्य नत्र दीक्षित नी वैयावच. गि ग्लान नो वैयावच. त० तपस्वी छठ २ अठमादिक तेहनी वैयावच. थे. स्थविर तीन प्रकार तेहनी वैयावच. सा. साधर्मिक साधु साध्वी तेहनी वैयावच. कु० गच्छ 'नो समुदाय ते कुल तेहनी वैयावर. ग. कुल नों समुदाय ते गण तेहनी वैयावच. सं० गण नों समुदाय ते संघ तेहनी वैयावच. आहारादिक अवष्टम्भ देवो.
श्रय इहां पिण दश व्यावच में दसुंइ साधु कह्या । पिण श्रावक में न कह्यो। तेहनी टीका में पिण इम कह्यो। ते ठीका लिखिये छै।
"साधम्मिनः साधुः साध्वी वा कुलं गच्छ समुदायः गणः कुलानां समुदायः, संघो गण समुदाय इति"
इहाँ टीका में पिण कुल गण सदनों अर्थ साधु नों इन समुदाय कीधो। मो. साधी साधु साध्वी ने इज कहा। पिण श्रावक श्राविका ने न कह्याः।
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वैयावृत्ति अधिकारः ]
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तथा ' व्यवहार” उ० १० में सङ्घ साधर्मी साधु ने इज कह्या । तथा प्रश्न व्याकरण तीजे सम्वर द्वारे सङ्घ साधम्म साधु ने कह्या । इम अनेक ठामे सङ्घ साधम्र्मी साधु । साधु नी व्यावच करण री भगवन्त नी आज्ञा है । अने व्यावच ने ठामे सङ्घ नाम समुदाय वाची है । ते साधु ना समुदाय ने इज कह्यो है । पिण व्यावच ने ठामे सङ्घ कह्यो तिण में श्रावक न जाणवो । चतुर्विध सङ्घ मैं श्रावक ने सङ्घ कह्यो । पिण व्यावच नें ठामे सङ्घ कह्यो तिणमें श्रावक नहीं हुवे समुदाय रो नाम पिण सङ्घ कह्यो है ते पाठ लिखिये छै
1
समूह गं भंते! पडुञ्च कति परिणीया, प० गो० त पडिणीया प० तं० कुल पडिणीए गण पडिणीए संघ पडिणीए ।
( भगवती श० ८ ड०८ )
० समूह ते साधु समुदाय ते प्रति अंगीकरी ने स० भगवन्त ! के० केतला प्रत्यनीक परूया. गो० हे गौतम! त्रिण प्रत्यनीक परूप्या. तं ते कहे छे. कु० कुल चंद्रादिक तेहना प्रत्यभीक. गगण कोटिकादि तेहना प्रत्यनीक सं० संजना प्रत्यनीक, अवर्णवाद बोले.
इहां पिण कुल, गण, सङ्घ, समुदाय याची कला, तेहनी टीका में पिण इम को ते टीका लिखिये छै 1
“समूहं साधु समुदायं प्रतीत्य तत्र कुलं चन्द्रादिकं, तत्समूहो गणः कोटिकादिः तत्समूहः संवः प्रत्यनीकता चैतेषामवर्ण वादादिभिरिति "
अथ इहां पिण साधुना समुदाय में कुल गण संघ. कह्यो । तीना ने -समूह कह्या । तिण में संघ नाम समुदायनों को तथा उत्तराध्ययन अ० २३ गा० ३ में कह्यो । "लील संघ समाकुलो" इहां विण शिष्य नों समुदाय ते संघ को भणी दश व्यावच में संघ कह्यो ते साधु ना समुदाय नें इज कह्यो है । असा पण साधु साध्वीयां में इज कह्या छै । किणहिक देशे लोक रूढ़ Hatani ने साधम्र्मी कहि बोलाविये है, से रूढ़ भाषाई नाम छै । पिप्प
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पुण्य
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व्यावच नें ठामे साधर्मिक कह्या, तिण में श्रावक श्राविका नहीं अनें रूढ़ भाषाई करी तो मागध. वरदाम प्रभास. ए ३ तीर्थ नाम कहि वोलाया छै । पिण तेह संसार समुद्र तरे नहीं । तिम रूड़ भावाई श्रावक श्राविकां ने साधम्र्मी कोई कहे तो पिण दश व्यावच में साघम्मी कह्या तिण में साधु साध्वी नें इज न कह्या । ते संघ साधर्मी साधु नीज व्यावच पिग गृहस्थ री व्यावच कियां तीर्थङ्कर गोल
har, for श्रावक श्राविकां ने
thirai
g तीर्थङ्कर गोत्र बंधे ।
बंधे नहीं । बिना धर्म ।
श्रावक नी व्यावच करणी री तो भगवान् री आज्ञा नहीं । अनें आज्ञा निपजे नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
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aaths एक अज्ञानी साधु री सावध व्यावच गृहस्थ करे तिण में धर्म थापे है । तिण ऊपर श्री "भिक्षु" महामुनि राज कृत वार्त्तिक लिखिये छै ।
hs एक मूढ मिळावी भारी कर्मा जिन आज्ञा वाहिरे धर्म ना स्थापन हार जिनवर नो धर्म भाज्ञा बाहिरे थापे छै । ते अनेक प्रकार कूड़ा २ कुहेतु लगावै । खोटा २ दृष्टान्त देई धर्म नें जिन आज्ञा बाहिरे थापे छै । कूडी २ चर्चा करी ने
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।
ते कहे छै पड़िमा -
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कूड़ा २ कुहेतु पूछे, जिन आज्ञा चाहिये धर्म स्थापन रे तांई धारी साधु अग्नि माहि बलता नें वांहि पकड़ने वाहिरे काढ़ अथवा सिंहादिक पकड़ता ने काल राखे । तथा हर कोई साधु साध्वी जिन कल्पी स्थविर कल्पी. त्यांनें वांहि पकड़ने वाहिरे काढ़ इत्यादिक कार्य करी ने साता उपजाये । अथवा जीवां वचावे । अथवा ऊंचा थी पड़तां नें झाल बचावे | अथवा मड़ पड़ता ने माल बचावे | अथवा ऊंचा थी पड़तां नें बैठो करे । अथवा आखड़ पड़ता ने बैठो करे । तिण गृहस्थ में भगवन्त अरिहन्त री पिण आज्ञा नहीं । अनन्ता साधु-साध्वी गये काले हुवा. त्यांरी पिण आज्ञा नहीं । जिण साधु नें बचायो तिण री पिण आज्ञा नहीं । तिण नें पछे पिण सरावे नहीं । थे आछो काम कियो इम पिण कहे नहीं । तिण नें पहिलां पिण सिखावे नहीं ।
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इस काम कीजे, तिनें इसी पण आज्ञा देवे नहीं । तूं इसो काम कर इम तो
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वैयावृत्ति-अधिकारः।
कहिता जावे छै। वली इम पिण कहे . तिण गृहस्थ में धर्म हुयो। देखो धर्म पिण कहिता जावे, तिण धर्म री भगवान री पिण आज्ञा नहीं। तिण धर्म ने सरावे पिण नहीं इम पिण कहिता जाय । जाव सगलाई बोल पाछे कह्या ते कहिता पिण जावे । अनें धर्म पिण कहिता जावे। त्यांने इम पूछिये -थे धर्म पिण कहो छौ, भगवन्त री आज्ञा पिण न कहो छो, तो आ किण रो सिखायो धर्म है। ओ किसो धर्म छै। धर्म तो भगवन्ते बे प्रकार नों कह्यो। श्रुत धर्म. अने चारित्र धर्म. तिण धर्म री तो जिन आज्ञा छै। वली दोय धर्म कमा छै। गृहस्थ रो धर्म साधु रो धर्म, तिण री पिण जिन आज्ञा छै। वली धर्म रा २ भेद कह्या छ । संबर धर्म. निर्जरा धर्म। सम्बर तो आवता कर्मा ने रोके, निर्जरा आगला कर्मा ने खपाये। तिण धर्म रो पिग जिन आशा छै। सम्बर धर्म रा २० भेद छ। त्या वीसां री जिन आज्ञा छ। निर्जरा धर्म रा १२ भेद छै। त्यां वाराई भेदारी जिन आज्ञा छै। वली सम्बर निर्जरा रा ४ भेद किया शान. दर्शन. चारित्र. तप. ए च्यारुइ मोक्ष रा मार्ग छै। त्यां में तो जिन आज्ञा छै। इतरा घोलों में जिन सरावे छै। अने जे आजाण कहे जिन आज्ञा न दे शिण धर्म छ। त्यां ने फेर पूछी जे, ओ किमो धर्म छै। तिग धर्म रो नाम बतायो। जव नाम बतावा समर्थ नहीं तव झूठ बोली ने गाला रा गोला चलावी कहे- साधु रो कल्प नहीं है। तिण सं आज्ञा न देवे गिण धर्म छै। तिण ऊपर झूठ बोली में कुहेतु लगावे रिग डाहा तो जिन माज्ञा वाहिरे धर्म न मानें । अमें गृहस्थ ने धर्म छ। पिण म्हे आज्ञा नहीं द्यां छो ते म्हारे आज्ञा देण से कल्प नहीं छै। तिण सूं आज्ञा नहीं द्यां छां, इम कह तिण ने इम कहीजे। धर्म करण वाला ने धर्म हुवे तो धर्म री आज्ञा देणशाला में पाप किम होसी। अनें धर्म री आज्ञा देणवाला ने पाप होसी तो करणवाला ने धर्म किण विधि होसी। देखों विकला री श्रद्धा धर्म करण री आज्ञा देण रो कल्प नहीं इम कहे छै। पिण केवली परूया धर्म री आज्ञा देण रो तो कल्प छै। पाषंडी परूयो सावध धर्म निण री आज्ञा देण रो काल्प नहीं। निरवद्य धर्म री आज्ञा देण रो कल्प नहीं, आ बात तो मिले नहीं । धर्म री आशा न दवे ते तो महा अयोग्य धर्म छै। जिण धर्म री देवगुरु आज्ञा न दे तिण धर्म में भलियार कदेई नहीं छै। देवगुरु सर्व सायद्य योग रा त्याग क्रिया जिण दिन माठो २ सर्व छाड्यो छ। तिण छांड्या री आज्ञा पिण दे नहीं । ते विविध
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. भ्रम विध्वंसनम् ।
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२ छाड्यो छै ते तो माठो छै तरे छोड्यो छै। जे साधु साध्वी जिन कल्पी. स्थविर कल्पी त्याने अग्नि माहि बलतां में कोई गृहस्प वाहि पकड़ ने बाहिरे काढ़े, अथवा सिंहादिक पकड़ता ने झाली राखे । अथवा ऊचा थी पड्यां ने बैठो करे । अथवा भाखड़ पड़िया ने' वैठो करे। ते गृहस्थ में धर्म कहे छै। जो तिण ने इम कियां धर्म होसी तो इण अनुसारे अनेक बोलां में धर्म होसी। ते वोल लिखिये छ। - पडिमाधारी साधु अथवा जिन कसो साधु अथवा स्थविर कल्पी साधु तथा हर कोई साधु अवेत पडयो छै। तिण थी चालगी न आवे छै। गाम तथा उजाड़ में पड़यो छ । तिण साधु ने गाड़ी. घोड़ो. ऊट. रथ. पालखी. पोठिये. असे. गधे, इत्यादिक हर कोई ऊपर बैसाण में गाम माँही आणे ठिकाणे आणे तो उण री श्रद्धा र लेखे. उग री परू गा रे ले थे. तिग में पिग धर्धा होती ॥१॥ अथवा कोई साधु गाम तथा उजाड़ में असमाधियो पड्यो छै तिण सूं हालणी चालणी न आवे. वैसगी. उठणी. न आवे छै, अन बिना मरे छै। तो उण री श्रद्धा रे लेखे अशना. दिक ले जाय ने दियां में हाथ सं खवायां में पिण धर्म छै ॥२॥ अथवा कोई साधु उजाड़ में अथवा गाम माहि अचेत पड़यो छै। ति ग तूं वोलणी, चालणी. न आवे छ। उठणी वैसणी. पिण न आवे छ । औषध खाधा विना जीवां मरे छ, तो उण री श्रद्धा रे लेखे औषधादिक ले जाय में मुख माहि घाल ने सचेत करे. डील रे मुसल ने सचेत करे. तिण में पिण धर्म होसी ॥३॥ अथवा किण ही साधु रे पाटी (रोग विशेष ) हुवो छ, गम्भीर हुवो छ, अथवा गूमड़ो हुवो छ, तिण दुख सूं हालणी. चालणी. न आवे छै, गोचरी पिण जावणी न आवे, ते साधु अशनादि विन खाधा पानी बिना पीधां जोयां मरे छ। तो उण री श्रद्धा रे लेखे अशनादिक आणी खवावे, अथवा तिण ने गोचरी करी ने आणी आपे तिण में पिण धर्म होती ॥ ४॥ अथवा कोइक साधु गरढ़ो ( वृद्ध ) ग्लान असमाधियो छै, तिण सू पोथ्यां रा बोझ तूं उपकरण रा बोझ तूं चालणी न आवे छै गाम अलगो छ, भूख तृषा पिण घणी लागे छ, तिण रे असाता घणी छै। तो उण री श्रद्धा रे लेखे वोझ उठायां रोपिण धर्म होसी ॥ ५॥ अथवा किण ही साधु ने शीतकाले शीत घणो लागे छै, वाय रो पिण बाजे छ, तिण काल में मेह पिण घणो बरसे छ, साधु पिण घणो धूजे छै। तो उण री श्रद्धा रे लेखे कोई राली ( गूदड़ी ) ओढावे विण में पिण धर्म होसी ॥६॥ अथवा किण ही साधु रो पेट दूखे छै। तलभल २
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वैयावृत्ति अधिकारः।
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करे है, महा वेदना छै, पेट मुसल्या विना जीवों मरे है। तो उणरी श्रद्धार लेखे पेट मुखले तिण में पिण धर्म होगी ॥ ७॥ अथवा किण ही साधु रे पेट्रंची (धरण ) टली छ। तिण री साधु ने यगो दुःख छ। आहार पिण न भावे छै। फेरो ( दस्त लागनी ) पिण घणों छै। तो उण री श्रद्धा रे लेखे पेट्रंबी सुपले तिण में पिण धर्म होसी ॥ ८॥ अथवा किण ही साधु रो गोलो चढ्यो छै, महा दुःखी है, हालगी चालणी पिण न आने छै, मौत पात है, तो उग री श्रद्धा रे लेखे गोलो मुसले साधु रे साता करे तिण में पिण धर्म होसी !!६॥ साधु में कल्पे ते भक्ष्य नहीं करले ते अभश्च, खवाय नवावे तो तिगरी श्रद्धा रे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥ १०॥ साधु रे जिप वस्तु रा त्याग छ, अने ते तो मरे छै, तो उण री श्रद्धा रे लेखे त्याग भंगाय बचायां पिग धर्म होसी ॥ ११॥ साधु री ज्यावच कल्ये छै ते तो जित आज्ञा सहित छै, नहीं कल्पे ते व्यायच तो अकार्य छ । साधु ने दुःखी देखनें उण री श्रद्धा रे लेखे नई कल्ये ते व्यावच कीयां रिण तहने धर्म होसी ॥ १२॥ साधु नों संथारो देखी साधु रे धणी असाता देखो साधु ने भरतो देखी में उगरी श्रद्धा रे लेखे किण ही अन्नपाणी पुख माही घालमो तिण में पिण धर्म होसी ॥ १३ ॥ साधु भूखो छ, अशनादिक विना मरे छै, तो उगरी धद्वारे लेखे अशुद्ध वहिरायां पिण धर्म होसो ॥ १४॥ चलो केइक पड़ी कहे हैं, सुभद्रा सती साधु री आंख माहि थी फोटो काढ्यो तिण में धर्म कहे छै, उद तो इण अनुसारे अनेक बोलां में धर्म होसी, ते कोल कहे छै। किणहिक सावरे भांख में फाटो पज्यो ते वाई काख्यो तो उण री श्रद्धा २ लेखे उण में पिण धर्म होसी ॥१॥ अथवा साधु रे पेट दुःखे छ, मरे छै, ते पाई पेट मुसले तो उण रो भखारे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥२॥ किण ही साधु रो गोलो चढ्यो छै, जीव मौत घात छै, उग री श्रद्धा रे लेख वाई साधु रोयोलो मुस्ले लिण ने पिण धर्म होसी ॥३॥ किण हो साधु रे ऐतूंची टली 2. निम से अप्लो दुःख छै, माहार पिण न मावे छ। फेरो रिण बणो छै। तो उण रीमालेख पाई पेटेंची मुसले तिण ने पिग धर्म होसी ॥४॥ सा न माहि बस से बाई बांहि पकड़ने बाहिरे काढे तो तिण री श्रद्धा रेल लिगा पण ती ॥५॥ साधु ऊंचा थी पड़ता में वाई भोले तो उग री श्रद्धा रे देखे ति में पिण धर्म होसी॥६॥ साधु आखड़ पड़ता में वाई झाळ राखे तो तिण री श्रद्धा
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रेलेखे तिण ने पिण धर्म होसी ॥७॥ साधु ऊचा थी पड़ता में वाई बैठो करें तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण ने पिण होसी ॥ ८॥ साधु आखड़ पड़िया ने वाई बैठो करे तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥ ६॥ साधु रो माथो दूखतो हुवे जव वाई माथो दावे तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण ने पिण धर्म होसी ॥ १०॥ साधु रा दूखणा उपरे वाई मलम लगावे तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥ ११॥ साधु रा दूखणा ऊपर वाई पाटो बांधे तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥ १२॥ साधु ने मूर्छा ( लू) हुई छै ते वाई मुसले तो तिण री श्रद्धा रे लेखे तिण में पिण धर्म होसी ॥ १३ ॥ इत्यादिक अनेक कार्य साधु रा वाई करे, साधु ने दुःखी देखी ने पीड़ाणो देखी ने घाई साधु रे साता करे, जीवां बचावे । जो सुभद्रा ने फाटो काढ्यां धर्म होसी तो यां में पिण धर्म होसी। वाई साधु रा कार्य करे तिमही भायो साध्वी रा कार्य करे तो उण री श्रद्धा रे लेखे भाया ने पिण धर्म होसी। ते बोल लिखिये छ। साध्वी रोपेट भायो मुसले १ साध्वी री पेटूंची भायो मुसले २ साध्वी रे गोलो भायो मुसले ३ साध्वी रे माथो दुखे जब भायो मुसले ४ साध्वी रे मूर्छा भायो मुसले ५ साध्वी रे दुखणा ऊपरे भायो मलम लगावे ६ साध्वी रे दूषणा ऊपरे भायो पाटो बांधे ७ साध्वी पड़ती ने भायो झले ८ साध्वी पड़ी ने भायो उठावे बेठी करे तो उण री श्रद्धा रे लेखे तिण ने पिण धर्म होसी । साध्वी रो पेट दुखे छ, तलफल २ करे छ, तिण रो पेट भायो मुसले १० इत्यादिक साधु रा कार्य वाई करे, तिम साध्वी रा भायो करे । जो सुभद्रा साधु री आखि माहि सूं फांटो काड्यां रो धर्म होसी तो सारां ने धर्म होसी। जो यां में जिन आज्ञा देवे नहीं तो धर्म पिण नहीं। अनें जिण रीते जिनवर को छै तिण रीते साधु साध्वी ने बचायां धर्म छै । व्यावच कीधी पिण धर्म छ । भगवन्त आप तो सरावे महीं आज्ञा पिक देवे नहीं, सिखाये पिण नहीं, तिण फर्शव्य में धर्म से पिण अंश नहीं। डाहा वे तो विचारि जोइजो। इति भिक्षु महा मुनिराज कृत वार्तिक सम्पूर्णम् ।
इति : बोल सम्पूर्ण।
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वैयावृत्ति अधिकारः ।
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केतला एक जिन आशा ना बजा है, से "साधु अग्नि माहि बलवा ने कोई गृहस्थी बांह पकड़ने बाहिएका तथा राहुरी फांसो कोई गृहस्थ कापे” तिण में धर्म कहे है, अने भगवती श० १६७०३ गौतम स्वामी प्रश्न पूछो, ते साधु भो आता देवे छे. तेहना अर्श ( मस्सा ) कोई वैध छेदे छै, तेहनें स्यूं होवे, ते पाठक छै I
अणगार से भंते! भविषप्पो हटे ऋषिक्खित्ते जाव आयावेसायस्त तस्समं पुरच्छिने अवढं दिवसं णो कम्पइ हत्थं वा पार्थ वा जाव उरुंथा आउंटा dear पसारेnear पञ्चच्छि मे अवड्ड दिवस कप्पड़ हत्थं वा पादं वा जाव उरुवा आउंडा वेत्तए वा पसारेत्तएवा, तस्सय अंसिया ओ लंवइ तं चैव विज्जे अक्खु इसिपाडे इ. पाडेइत्ता सियाओ छिंदेजा । सेणणं भंते! जे छिंदइ तस्स किरिया कज्जइ जस्स विजइ णो तस्स किरिया कजइ गणत्थेगेणं धम्मंतराइएणं हंता गोयमा जे छिंदइ जाव णत्येगेणं धम्मंतराइएणं ।
( भगवती श० १६ उ० ३ )
० अणगार. भ० भगवन्त ! भा० भावितात्मा नें. छ० छठ छट्ठ निरन्तर तप करता नें. जा० यावत् श्रा० प्रताप लेतां तेहनें. पु० पूर्व भाग ना दिनाद लगे एतले पहिला बे प्रहर लगे. गो० न कल्पे. हा० हाथ अथवा पा० पग वा० बाहु अथवा उ० हृदय. आ० संकोचवो अथवा प० पसावो प० पश्चिम भाग ना दिवाळू लगे क० कल्पे. ह० हाथ. जा० याबत. उ० हृदय घ्या० संकोनवो. अथवा प० पसारको । त० ते साधु ने कार्योत्सर्गे रहिया नं. ० अर्श लम्बायमान दीसे. ते अर्थ ने. वे० वैद्य देखी ने. इ० ते साधु ने बिगारेक भूभि ने विषे पाडे पाड़ी नें. अ० अर्श ने छेदे से० ते निश्चय भगवन् ! जे छे. तर ते वैध ने क्रिया हुई जे साधु नी धर्य बेदाणी छे. यो० तेहने क्रिया हुई नहीं. ए० एतलो विशेष एक धर्मान्तिराज किया
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भ्रम विध्वंसनम् ।
हुई शुभ ध्यान नो विच्छेद हुई'. ह. हां गौतम ! जे वैद्य छेदे ते वैद्य ने एक धर्मान्तराय क्रिया
इहां गोतम स्वामी पूछयो, जे साधु ऊभो आतापणा लेवे , तेहना मर्श वैद्य देखी ने ते अर्श छे । हे भगवन् ! ते वैद्य ने क्रिया लाने, अनें “जस्स छिज्जति” कहिती जे साधु री अर्श छेदाणी ते साधु ने क्रिया न लागे। पिण एक धर्मान्तराय साधु ने पिग हुई, ए प्रश्न पूछदो-तिवारे भगवान् कह्यो। हां गोतम! जे अर्श छे ते वैध ने क्रिया लागे, अने जे साधु री अर्श छेदाणी ते साधु ने क्रिया ग लागे। पिण एक धर्मान्तराय साधुरे पिण हुये, ए शब्दार्थ कह्यो। अथ इहां कचो-जे साधु नी अर्श छेदे. ते वैध ने क्रिया लागे एहबू कयों पिण धर्म न कयो। ए व्यावच भाशा याहिरे छै। साधु रे गृहस्थ पासे कार्य फरावा रा त्याग छै। अनें जिग साधु री आज्ञा विगा साधु रो कार्य कियो, है साधु रो त्याग भगावणघालो है। कदाचित्र साधु अनुमोदे नहीं । तो ते साधु रो प्रत न भांगे। पिण अंगावण रो कार्य करे तिण ने तो त्यागनों भंगावण वालो इज कही जे। जिम कोई साधु में आधा कर्मी आदिक असूजतो अशनादिक जाणो में देवे, अनें साधु पूछी चोकस कर शुद्ध जाणी ने लियो तो ते साधु ने तो पाप न लागे। पिण आधा कम्मी आदिक साधु में अकएरतो दियो तिण ने तो पाप लाग्यो ते तो त्याग मना वग वालो इत कही जे। पिण धर्म न कहिये। तिम साधु रे गृहस्थ पाले जे व्यावच करावण रा त्याग ते व्याघच गृहस्प करे। अने' साधु अनुमोदे नहीं, तो तिण रा त्याग न मांगे। पिण आज्ञा बिना अकल्पनीक कार्य गृहस्थ कियो तिण ने तो त्याग भंगावण रो कामी कहिये। पिण तिण में धर्म न कहिये। तथा वली दूजो दृष्टान्त-जिम ईर्या सुमति विना चाले अने एक पिण जीव न मुयो तो पिण ते साधु ने छह काय नों घाती कहि जे, आशा लोपी ते माटे। तिम ते वैध साधु री अर्श दी आज्ञा विना ते वैध ने पिण त्यारा भंगावण रो कामी कहीजे। तिण सूं ते वैद्य ने क्रिया लागती कही। जिम ले वैध अर्स छेदे तेइनें क्रिया लागे। तिम अग्नि में वलता ने कोई गृहस्य बाहिरे काढ़े तिण ने किला हुई। पिण धर्म न हुई। तिघारे कोई कहे-ए वैद्य ने किया कही ते पुण्य नी क्रिया है। पिण पाप नो क्रिया नहीं। एहवो ऊधो अर्थ करे
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यावृत्ति-अधिकारः।
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तेहनों उत्तर-इहां कयो, अर्श छेदे ते वैद्य ने किया लागे, पिण धर्मान्तराय साधु रे पड़ी। धर्मान्तराय ते धर्म में विघ्न पड्यो तो जे साधु रे धर्मान्तराय पाडे तेहनें शुभ क्रिया किम हुने। ए धर्मान्तराय पाड्यां तो पुण्य बंधे नहीं। धर्मान्तराख पाड्यां तो पाप नी क्रिया लागे छै। ए तो पाधरो न्याय छै। एक तो जिन आता बिना कार्य कियो बीजो साधुरी अकल्पती व्यावव करी. ते माटे साधु रा त्याग मंगावण रो कामी कही जे। तीजो साधु रे धर्म ध्यान में अन्तराय पाड़ी। तीन कार्य किया तो पुण्य री क्रिया बंधे नहीं। पुण्य री करणी तो भाशा माहि है। निरवद्य कही छै। ते निरवध करणी तो साधु कहिने करावे छै। ते करणी री साधु अनुमोदना फरे छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण।
पली ए अर्श तो साधु गृहस्थी तथा अन्यतीथीं पासे छेदावे नहीं । छेदता में अनुनोदे नहीं। जे साधू अर्श छेदावे छेदवता ने अनुमोदे तो प्रायश्चित्त करो है। ते पाठ लिखिये छ।
जेसिकाबू अण्णा उत्थिएणवा गारथिएणवा अप्पाणो कायंसि गड़वा पलियंका अरियंवा असियंवा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिवखेण सस्थ जाएण आच्छिंदेह विछिंदेह आछिदंतं वा विछिदंतं वा साइजइ, ॥३१॥
(निशीथ उ० १५ ग्रो० ३१) .
* जे कोई. भि. साधु, साध्वी, १० अन्य तीर्थी. का गा गृहस्थी. पासे अापणी क्षवा ने दिपे. गं० गंड मालादिक पं० मेलियादिक. अ० गूमो बा. १० अर्श ते पावन आम ना, भगदर रोग. वा अ० अनेरो शेग. ति शास्त्र नी ज्ञाति तथा प्रकार ना तीक्ष्ण की.' बार अथवा थोड़ो सोई छेदवे वि. विशेषे वा छेड्ने तथा घयो छेदावे, श्रा० एक बार छेदता में. वि० वारवार छेड़ता ने अनुमोदे,
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भ्रम विध्वंसनम्।
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अथ इहां कलो-साधू अन्यतीर्थी तथा गृहस्थ पासे अर्श छेदावे. तथा कोई अनेरा साधू जी शर्मा उस्ता' असोलोमालिक प्रायश्चित आये। अर्श छेदञ्या गुण्य का किरहोगे तो ए अ गवाला में अनुमोदे तो इंड क्यू कयो। पुणेरी कार को विश्व छै। जिरवा करणी अमोघां तो दंड आवे नहीं। दंड तो पापी कारणी अनुमोबाथी आवे । " पुण्य री करणी आज्ञा माहिज छैन। भने अर्शचो ते कार्य आज्ञा बाहिर छ । पुण्य री करणी तो निरवध छै। ते आशा माहिली लिवर करणी अनुमोधों तो साधू ने दंड भावे नहीं। दंड तो सावध भाशा बाहिर ही पायरी फरणी अनुमोधा रो छै। जे कोई साधू री अर्श छेदे तेहनी अनुमोदना कियाँ पाप लागे तो छेण वाला ने धर्म किम हुवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण।
तथा पली आचारांगे अ० १३ एहवो पाठ कह्यो छै ते लिखिये छ। . सिया से परो कायं सिवणं अणयरे ण सत्थ जाएणं आछिंदेज वा विच्छिदेजा णो तं सातिए णो तं नियमे।
(आचारांग अ० १३ श्रु०२)
सि० कदाचित से० ते. साधु नों का० शरीर में विषे. व० व्रण गूमड़ो उपनों जाणी. भनेरे गृहस्थ स० शस्त्रे करी आ० थोड़ो छेदे वि० घणो छेदे. नो० तो ते साधु बांछे नहीं. हो. करावे नहीं.
. अथ इहां कह्यो जे साधु रे शरीरे व्रण ते गूमड़ो फुणसी आदिक तेहनें कोई पर अनेरो गृहस्थ शस्त्रे करी छेदे तो तेहनें मन करी अनुमोदे नहीं। अने बचन फरी तथा काया ई करी करावे नहीं। जे कार्य में साधु मन करी अनुमोदना ईन करे ते कार्य करण वाला में धर्म किम हुवे। एणे अध्ययन घणा बोल कया छै। जे
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वैयावृत्ति-अधिकारः।
२७१
साधु ना कांटा आदिक काढ़े. कोई मर्दन पीठी स्नान करावे. कोई विलेपन तथा धूपे करी सुगन्ध करे । तेहनें साधु मन करी अनुमोदे नहीं। जे साधु ना गूमड़ा मर्श आदिक छेद्यां धर्म कहे. तो या सर्व बोलां में धर्म कहिणो। अनें यां बोला में धर्म नहीं तो गूमड़ा अर्श आदिक छेद्या में पिण धर्म नहीं। इणन्याय साधुरी अर्श छेद्यां क्रिया कही ते पापरी क्रिया छै पिण पुण्य री क्रिया नहीं। विवेक लोचने करी विचारि जोइजो। तथा केतला एक अज्ञानी "किरिया कजई" ए पाठ नो अर्थ ऊधो करे ? ते कहे--अर्श छेदे ते वैद्य क्रिया "कजइ' कहिता कीधी, वैद्य क्रिया कीधी. ते कार्य क्रीधो अनें साधु क्रिया न कीधी, इम विपरीत अर्थ करे छ। ते एकान्त मृषावादी छ। ए वैद्य क्रिया कीधी ए तो प्रत्यक्ष दीसे छ। ए कार्य करण रूप क्रिया नों तो प्रश्न पूछयो नहीं, कर्म बन्धन रूप क्रिया नों प्रश्न पूछयो छै । "कजइ' कहितां कीधी इम ऊँधो अर्थ करी भ्रम पाडे तेहनों उत्तर-भगवती श. ७ उ०१ जे साधु ईर्याइं चाले तेहने स्यूं "इरिया वहिया किरिया फजइ. संपराइया किरिया कजइ." इहां पिण इरिया वहिया किरिया कजइ कहितां इरियावहिया क्रिया हुवे के संपराय क्रिया. हुवे। इम. "कजइ” पाठ रो अर्थ हुवे इम कियो छै। "कजइ" कहितां भवति । तथा भगवती श०.८ उ०६ साधु ने निर्दोष देवे तेहने "किं कजति” कहितां स्यूं फल होवे इम अर्थ टीका में कियो छै
___ "कज्जति-किं फलं भवति" यहां टीका में पिण कजति रो अर्थ भवति कियो छै। तथा भगवती श० १६ उ० २ कह्यो “जीवाणं भंते चेय कड़ा कमा कज्जति" अय काडा कम्मा कन्जंति इहां पूछ्यो-चेतन रा कीधा का "कज्जति" कहिली मुझे के अवेतन राकीधा कर्म हवे इहाँ पिण टीका में कजति जहितां भवति एनो पई कियो छै। इत्यादिक अनेक लाभे “का” कहितां हुवे म अर्थ कियो। लिहा अत्रों छेदे लिहां पिण "किरिया कजइ" ते क्रिया हुवे इन अर्थ छै। तथा साना ३ फलोजे शिष्य देवलोके गयो गुरां ने दुकाल थी सुकाल में मेले तथा अन्धी सो पत्तो में
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भ्रम विध्वंसनम् ।
मेले । तथा गुरां ना शरीर माहि धी १६ रोग बाहिरे काढे । इम गुरां १ साता hai पिण शिष्य उण न हुई । अनें गुरु धर्म थी डिग्यां नें स्थिर कियां उ हुवे । इम कह्यो ते माटे प सावध साता कियां धर्म पुण्य नथी । डाहा हुवे तो बिचारि मोदजो |
इति १२ बोल सम्पूर्ण ।
इति वैयावृत्ति - अधिकार: ।
२७२
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अथ विनयाऽधिकारः।
केई पाषंडो श्रावक रो सावध विनय कियां धर्म कहे छै। विनय मूल धर्म रो नाम लइ श्रावक री शुश्रूषो तथा विनय करवो थापे। अनें इम कहे-झातो सूत्र में २ प्रकार रो विनय मूल धर्म कयो। एक तो साधु नों विनय मूल धर्म. पोजो श्रावक नों विनय मूल धो. ए विहूं धर्म कह्या ते माटे साधु. श्रावक. बेहुनों विनय कियाँ धर्म छै इम कहे-त्यारे विनय मूल धर्म री योलखणा नहि, ते ज्ञाता सूत्र नो नाम लेइ में सावध विनय थापे तिहां एहयो पाठ छै । ते पाठ लिखिये छ।
. ततेणं थावचा पुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे, सुदंसणं एवं वयासी सुदंसणा विनय मूले धमे पराणते, सेविय विणए दुविहे पण्णत्ते तं जहा आगार विणएय. अणगार विणएय तत्थणं जे से आगार विरणए लेणं पंच अणुटबधाई सत्त सिक्खावयाइएकारस उवासग पडिमाओ तत्थणं जे से भागार विणए सेणं पंच महब्बयाई ।
(ज्ञाता १०५)
......
त तिवार. था० थावचा पुत्र. . सुदर्शन. ए० एम कंह्या थकां. १० सुदर्शन ने. ए. एम. ५० बोल्या. सु० हे मुदर्शन. वि. विनय मूल धर्म कह्यो दै. से ते. विनय मूल धर्म दु.२ प्रकार नों कह्यो ? ते कहे है. भा. एक गृहस्थ नों विनय मूल धर्म. अ० बीजो साधु नो विनय मूल धर्म. त० तिहां जे. जे. मा० गृहस्थ्य नों विनय मूल धर्म. से ते. ५ अणुप्रत. स० लात शिक्षा व्रत. ए० ११. उ० श्रावक नो प्रतिमा गृहस्थ नों विनय मूल धर्म. ते तिहां जे. साधु मों विनय मूल धर्म. से० ते. पं० पांच महाबत रूप.
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श्रम विध्वंसनम् ।
हां २ प्रकार नों विनय मूलं धर्म बतायो । तिण में साधु रा पञ्च महाअंत ते साधु से विनय मूल धर्म अनें श्रावक रा १२ व्रत ११ पड़िमा श्रावक नों विनय मूल धर्म ए तो साधु श्रावक नो धर्म बतायो छै । ते धर्म थी कर्म वीणिये तै डालिये, ते भणी व्रतां रो नाम विनय मूलं धर्म कह्यो है । जे व्रतां रा अतिचार टाली निर्मल पाले ते व्रतां रो विनय कहिए । इहां तो साधु श्रावकां रा व्रत सूं किण ही जीवने आसात ना उपजे नहीं, ते भणी व्रतां नें विनय मूल धर्म कही जे ए तो अण आसातना विनय रो लेखो कह्यो पिण शुश्रूषा विनय नों इहां कथन नहीं । तिवारे कोई कहेहै- धावक री शुश्रूषा तथा विनय न कह्यो. तो साधु रो पण शुश्रूषा तथा विनय इहां न को । श्रावकां रा व्रतां ने' इज विनय मूल धर्म कहिणो, तो साधुरी शुश्रूषा तथा विनय करे ते क्रिण न्याय इम कहे तेहनों उत्तरहां तो शुश्रूषा विनय करे तेहनों कथन चाल्यो नहीं । साधु श्रावक, विहं व्रतां नाम विनय मूल धर्म को छै । पिण साधु री शुश्रूषा विनय करे तेहनी तो घठा श्री तीर्थङ्कर देवे आज्ञा दीधी छै । “उत्तराध्ययन” थ० १ साधु री शुश्रूषा थथा विनय री भगवान् आज्ञा दीधी छै तथा “दश वैकालिक" अ० ६ शुश्रूत्रा विनय साधु रो करणो कह्यो । विणश्रावकरी शुश्रूषा तथा विनय री आज्ञा किण ही सूत्र में कही न थी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।.
इति १ बोल सम्पूर्ण
२७४
केतला एक कई - भगवतो श० १२ उ० १ कह्यो । पोपली श्रावक नें उत्पला श्राविका वन्दना नमस्कार कियो । जो श्रावकां रो विनय कियां धर्म नहीं सो उत्पला श्राविका पोपली श्रायकां नो विनय क्यूं कियो । इम कहे तेहनों उत्तर
उत्पला श्राविका पोपली श्रावक नों विनय कियो ते संसार नी रीति जाणी के साची पण धर्म न जाण्यो । जिम पांडु राजा पिण संसार भी रीति जाणी भारदनों विनय कियो कह्यो ते पाठ लिखिये छै ।
ततेां से पंडुराया कच्छुल्ल पारयं एत्रमाणं पासति २ त्ता पंचहि पंडवेहिं कुंतीय देवीएसद्धिं आसणाओ
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विनयाऽधिकारः ।
तिक्खुत्तो
अभट्टेति २ त्ता कच्छुल्ल नारयं संत्तट्ट पयाई पच्चुगच्छइ याहिणं पयाहियां करेइ २ ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता महरिहेणं आसणं उवणि मंतेति ॥ १३२ ॥
( ज्ञाता अ०१६ )
२४५
त० तिवारे. से ० ते. पं० पाण्डु राजा. क० कच्छुल्ल नारद ने ए० भावतो थको देखी में. ० पांच पं० पाण्डव अनें. कु० कुन्ती देवी साथे ग्रा० श्रासन थी उठी उठी नें. क० कच्छुल नारद ने स० सात आठ पगला साहमों जावे जाई में ३ वार दक्षिणा वर्त्त अ'जलि करी नं. १०. प्रदक्षिणा करे करी नें वांदे. नमस्कार करे. वांदी ने नमस्कार करी नें. शासन से निमन्त्रणा कीधी. ।
म० महा मूल्यवन्त
इहां कह्यो । पाण्डु राजा पांच पाण्डव अर्ने कुन्ती देवी सहित नारद ने विप्रदक्षिणा देई ने बन्दना नमस्कार कियो घणो विनय कियो । संसार नी रीति हुन्तीतिम साचवी । इमज कृष्णे नारद नों विनय कियो । ते जाव शब्दमें पाठ भलायो छै । ते कहे छै ।
"इमंचणं कच्छुल नारए जेणेवं कराहस्स रन्नो गिहंसि जाव समोवइए जाव निसीइत्ता कहं वासुदेवं कुसलोदतं पुच्छइ"
हां कृष्ण अन्तःपुर मे बैठा तिहां नारद आयो । तिहां जाव शब्द कह्या माटे जिम पाण्डु राजा विनय कियो तिम कृष्ण पिण विनय कियो जणाय छै । ते कृष्ण पिण संसार नी रीति जाणी साचवी पिण धर्म न जाण्यो । तिम उत्पला श्राविका पोपली श्रावक नों विनय कियो ते संसार नी रीति छै. पिण धर्म न थी । इज शंख श्रावक नें और श्रावकां नमस्कार कियो ते आपणे छांदे पिण धर्म हेत नथी । "वंदेइ" कहितां गुणग्राम करिवो. अनें “नमंसइ" कहितां नमस्कार ते मस्तक नवाविवो. ते श्रावकां ने मस्तक नवाविवा नी श्रीजिन आज्ञा नहीं । जिम “दशवैकालिक' अ० ५ उ० २ गा० २६ “बंदमाणो न जाएजा " जे साधु गृहस्थ दो को अशनादिक जाचे नहीं । वांदतो ते गुण ग्राम करतो थको आहार
म जाँचे । इम “वंद" रो अर्थ गुणग्राम घणे ठामे को छै । ते माटे शंख में ओर
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२७६.
भ्रम विध्वंसनम्।
، ميه ميه ميه مي رو به یه
ی مه به به به به به
سوریه به سه
و
-
श्रावका वांद्यो कह्यो. ते तो गुण प्राम किया। अनें “नमसइ" ते मस्तक नवायो। पहिला कडुवा वचन शेख श्रावक ने त्यां श्रावका कहा हुन्ता। ते माटे खमाया ते तो ठीक, परं नमस्कार कियो तिण में धर्म नहीं। ए का आज्ञा वाहिरे छ। सामायक. पोषां. में सावध रा त्याग छै। ते सामायक. पोषाः में माहोमाही श्रावक नमस्कार करे नहीं, ते माटे ए विनय सावध छै। वली पोपलो में उत्पला नमस्कार मियो ते पिण आवतां कियो। अनें पोषली जातां वन्दना नमस्कार न कियो ! ते माटे धर्म हेते नमस्कार न कियो। जे धर्म हेते नमस्कार कीधी हुवे तो जातां पिण करता। वली शंख नों विनय पोषली कियो ते पिण आवतां कियो। पिण पाछा जावतां विषय कियो चाल्यो नथी। इणन्याय संसार हेते विनय कियो. पिण धर्म हेते नथी । जिम साधु नो विनय करे ते श्रावक आवतां पिण करे अनें पाछा जावतां पिण करे । तिम पोसली नी विनय उत्पला पाछा जातां न कियो। तथा पोषली पिण शंख कना थी पाछा जातां विनय न कियो। ते माटे संसार नी ने ए विनय कियो छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक कहे जो श्रावक ने नमस्कार कियां धर्म नहीं तो अम्बड ना चेला अम्वड ने नमस्कार क्यू कीधो। अम्वड ने धर्म आचार्य क्यूं कह्यो। तेहनों उत्तर-अम्बड ने चेला नमस्कार कियो ते पोता ना गुरु नी रीति जाणी पिण धर्म न जाण्यो। पहिला सिद्धा ने अरिहंता ने वांद्या तिण में जिन आज्ञा छै। अने पछे मास्वर में वांद्यो तिण में जिन आशा नहीं। ते माटे धर्म नहीं। अम्वड ने चलो नमस्कार कियो तिहां पहवो पाठ छ। ते पाठ लिखिये छै ।
_ नमोत्थुणं अम्बडस्स परिवायगस्स अम्हं धम्मायरिस्स धम्मोवदेसगस्स।
(उवाई प्रल १३)
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विनयाऽधिकारः।
२७७
___न नमस्कार होज्यो. अं• अम्बद नामा. प० परिव्राजक दंउधर संन्यासी. थ० म्हारा धर्माचार्य नं. ध० धर्म ना उपदेशक में.
अथ इहां चेला कह्यो—जमस्कार थावो म्हारा धर्माचार्य धर्मोपदेशक में इहां अघड परिमाजक ने नमस्कार थावो एहवू कह्यो। अम्बउ शमणोपासक ने नमस्कार थावो इम न कयूं। ए श्रमणोपासक पद छांडी परिमाजक पद ग्रहण फरी नमस्कार कीधी ते माटे परिव्राजक ना धर्म नो आचार्य, अने परिबालागा धर्म नों: उपदेशक छै। तिण ने आगे पिण वन्दना नमस्कार करता हुन्ता। पछे जिन धर्म पिण तिणकने पाम्या। पिण आगलो मुल पणो मिट्यो नहीं। ते माटे सन्यासी धर्म रो उपदेशक कह्यो छ। तिवारे कोई कहे-ए चेलां श्रापक रा व्रत मम्बट पासे लिया । ते माटे धर्माचार्य अम्बड ने कह्यो छै। इन कहे तेहगों उत्तर--इम जो धर्माचार्य छुवे तो पुल फने पिता शावक राबत धारे तो तिष रे लेखे पुत्र नै धर्माचार्य कहीजे । इमहिज स्त्री का भरि भावना का व्रत धारतो तिण रे लेखे स्त्री ने पिण धर्माचार्य कहीजे। तथा सासू वाहू कनें त आदरे. तथा सेठ गुमाश्ता कने व्रत आदरे. तो तिण ने विण धर्माचार्य पाहीजे । बली 'व्यवहार" सूत्र में कह्यो साधु ने दोष लागां* पछाकड़ा श्रावक पासे तथा देषधारी पाले आलोषणा करी प्रायश्चित्त लेवे तो १० प्रायश्चित्त में आटमो प्रायशित नवी दीक्षा पिण तेहनें कह्यां लेवे तो तिण २ लेखे ते पछाकड़ा श्रावक में तथा वेषधारी ने पिण धार्माचार्य कहीजे। अ जिण पासे धर्म सीख्या तिण ने वन्दना करणो कहेतिण रे लेखे पाछे कह्या ते सर्व में वन्दना नमस्कार करणी: जो अग्बट में पासे चेला धर्म पाया ते कारण तेहने वांद्यां धर्म छै तो ए पाले बाह्या--ज्यां पाले धर्म पावा छै, त्या सर्व ने वांद्यां धर्म कहिगो। अब ने धर्मावार्थ कहे तो लिग रे लेखे ए पाछे कद्या त्या सर्व ने धर्माचार्य कहिणा। पिण इम धर्माचार्य हुये नहीं। आचार्य मा गुण ३६ वह्या छै अनें अम्बड में तो ते गुण पाये नहीं । भावार्य पद तो ५ पद माहि छै। अनें अम्बड तो पांच पदां माही नहि छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
जो साधु भ्रष्ट हुअा पुनः श्रावक बनता है उसको "पछाकड़ा प्रावक" कहते हैं ।
"संशोधक".
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा धर्माचार्य साधु ने इज कह्या छे । “रायपसेणी" में ३ प्रकार ना आचार्य का है । कला आचार्य १ शिल्प आचार्य २ धर्म आचार्य ३ । ए तीन अचार्या में धर्माचार्य साधु ने इज कह्या छै । ते पाठ लिखिये छै 1
२७८
तणं केशी कुमार समणे पदेसी रायं एवं वयासीजागातिणं तुम्हं पएसी ! केइ आयरिया पण्णत्ता । हंता जाणामि, तो आयरिया पण्णत्ता तंजहा कलायरिए, सिप्पायरिए. धम्मारिए । जाणासि गं तुम्हं पएसी । तेसिं तिरहं आयरियाणं कस्स काविणय पडिवत्ती पउंजि यवाहंता जाणामि कलायरिस्स सिप्पा परियस्स उवलेवणं वा समज्झणं वा करेजा पुष्पाणि वा आणावेजा मंडवेज्जा वा भोयावेजावा विउलं जीवियारिहं पीइंदाणं दलएज्जा, पुत्ताण. पुत्तीयंवा वित्तिं कपेजा जत्थेव धम्जायरियं पासेजा तत्थेव बंदिज्जा रामसेजा सकारेजा समाजा कल्लाएं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेजा फासुएसणिज्जेां असणं पाणं खाइमं साइमेणं पडिला भेजा पडिहारिएणं पीढ़ फलग सिज्जा संथारएणं उवनमंतिजा ।
( राय पसेणी )
त० तिवारे, के० केशी कुमार श्रमण. प० प्रदेशी राजा ने ए० इम बोल्यो. जा० जा है. तूं. प० दे प्रदेशी ! के० केतला आचार्य परूप्या. ( प्रदेशी बोल्यो ) हं० हां जाणूं हूं. ० तीन आचार्य परूया तर ते कहे है. क० कलाचार्य. सि० शिल्पाचार्य. ध० धर्माचार्य. hशीकुमार बोल्यो जा जाये है. तु० तूं. प० हे प्रदेशी ! तं० तिण त्रिण आचार्या ने विषे. so for a heat भक्ति करिये. प्रदेशी बोल्यो ) हं० हां जाणू छं. क० बलाचार्य री शिल्पाचार्य री भक्ति. उ० उपलेपपन मज्जन कर विए. पु० पुष्पे करी मंडन कराविए भोजन कराविए. जी० जीवितव्य रे अ. प्रीतिदान दीजिये पु० तिया रे पुत्र. पुत्रियां री. वृत्ति कराचिए. ज० जिहां धर्माचार्य प्रति पा० देखी ने. त० तिहां वं० बंदी नं ० नमस्कार करी
(
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लैश्याऽधिकारः।
२७६
-
-
ने. स० सत्कार देई ने. स० सन्मान देई में; क० कल्याणीक मङ्गलोक. दे. धर्मदेव चि० चित्त प्रसन्न कारी त० ते धर्माचार्य नी सेवा करी ने. फा० अवित जीव रहित. ए० बयालीस ४२ दोष विशुद्ध. अ० अन्नादिक. पा० पाणी २१ जाति ना खादिम फलादि. सा० मुख स्वाद भी जाति. ५० इणे करी प्रतिलाभी. ५० पाडिहारा ते गृहस्थ ने पाधा सूपिये. पी० वाजोट. का० पाटिया. सि. उपाश्रय. सं० तृणादिक नों सन्थारो. उ० तेयो करी निमन्त्री ई.
अथ ईहाँ ३ आचार्य कह्या तिण में धर्माचार्य ने बन्दना नमस्कार सन्मान देणो कह्यो। कल्याणीक मंगलीक. "देवयं” कहितां धर्मदेव एतले सर्व नीवां ना नायक “चेइयं” कहितां भला मन ना हेतु प्रसन्न चित्त ना हेतु ते माटे चेइयं कह्या। एहवा उत्तम पुरुष जाणी धर्माचार्य नी सेवा करणी कही। प्रामुक एषणीक अशनादिक प्रतिलाभणो कह्यो। पड़िहारिया पीढ़ फलग शय्या सन्थारा देणा कह्या। एहवा गुणवन्त ते तो साधु इज छै। त्यां ने ट्ज धर्माचार्य कह्या । पिण श्रावक ने धर्माचार्य न कहो । इहाँ तो एहवा गुणवन्त साधु भासुक एषणीक आहार ना भोगवणहार में धर्माचार्य कह्या। अनें अम्बउ तो अप्रासुक अनेषणांक आहार नों भोगवणहार थो ते माटे अम्बड ने धर्माचार्य किम काहए। अनें अम्बड में जो धर्माचार्य कह्यो ते सन्यासी ना धर्म नों आचार्य अर्थात् सन्यासी नों धर्म नों उपदेशक छै। जिम भगवती श० १५ गोशाला रा श्रावको गोशालो धर्माचार्य कह्यो, तिम अम्वड रा चेलां रे अम्बड पिण सन्यासी राम ना आचार्य छै। ते निज गुरु जाणी ने नमस्कार कियो ते संसार री लौकिक रीति छै। पिण धर्भ हेते नहीं। इहां कोई कहे-अम्बड धर्माचार्य में नथी। तो कलानार्थ. शिल्पाचार्य, में अम्वड ने कही जे काई । तेहनों उत्तर-जिस अनुयोग द्वार में आवश्यक रा. निक्षेपां में द्रव्य आवश्यक रा तीन भेद कह्या। लोकिक. कुप्रावचनीक. लोकोत्तर. तिहां जे राजादिक प्रभाते स्नान ताम्बूलादिक करी देवकुल सभादिक जावे. से लौकिक द्रव्य आवश्यक १ अने सन्यासी आदिक पापंडी दिन उगे रुद्रादिक मी पूजा अवश्य करे. ते कुप्रावचनीक द्रव्य आवश्यक. २ अनें साधु ना गुण. रहित वेषधारी बेहूं टके आवश्यक कर. ते लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक ३ अनें उत्तम साधु आवश्यक करे तेहनें भाव आवश्यक कहो. तेहने अनुसार धर्म आचार्य रा पिण ४ निक्षेपा में द्रव्य धर्ग आचार्य रा ३ भेद करवा । लौकिक १ कुप्रावच नीक २ लोकोत्तर ३. तिहां किला ना अने शिल्प ना सिखावणहार तो लौकिक द्रव्य
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भ्रम विध्यसनम् ।
RARArvinnarva
धर्माचार्य १। अने सन्यासी योगी आदि ना गुरां में कुप्रावचनीक द्रव्य धर्माचार्य कहीजे २। अने साधु रा वेष में आचार्य वाजे ते वेषधासां रा आचार्य में लोकोत्तर द्रव्ये धर्माचा काना। ३६ गुणा सहित ने भाये धर्माचार्य कहीजे । अने तीजा पाचार्य कला ते भाय धर्माता अश्री कयो। कुप्रावचनीक धर्माबार्य से दायक मने लोकोत्तर द्रव्य धर्माचार्य रो कथन रायपसेणी में आचार्य कहा. त्यां में भी। हां तो कला. शिल्प. लौकिक. धर्माचार्य, अने' भावे धर्माचार्य पतीनां से कथा लियो छै। ते माटे ए० ३ आचार्य में अम्वड नथी । तथा डाणा टाणे चार प्रकार का आचार्य कह्या-चाण्डाल रा करहिया समान. वेश्या ना करोया समान. लेट रा करण्डिया समान. राजा ना करडिया समान. तो चाण्डाल रा करंडिया समान. अने वेश्या ना करण्डिया समान. किसा आचार्य में लेवा ! तथा उपासक दशा अ०७ शकडाल पुत्र रो धर्माचार्य गोशाला ने कह्यो। ते पिण यां तीनां में. कलाचार्य. शिल्पाचार्य. धर्माचार्य, में नथी। ते माटे अबड ने धर्माचार्य कहो-ते पिण आगले कुप्रावचनीक रो धर्माचार्य पणो धालो ते आधी कयो। पिण भावे धर्माचार्य नथी । इणन्याय चेला अम्बड़ ने कुप्रावचनीक धर्माचार्य जाणी वांयो पिण धर्माचार्य जाणी वांघो नहीं। तिवारे कोई कहे-ए संधारो करवा त्यारी थया ते वेलां ए पाप रो कार्य क्यू कीधो तेहनों उत्तर-जे तीर्थकर दीक्षा लेवे तिवारे १ वर्ष ताई नित्य १ फरोड़ शने आठ लाख सोनइया दान देवे। वली दीक्षा लेतां आठ हजार चौसठ कलशा थी स्नान करे। ए संसार नी रीति साचवे पिण धर्म नहीं। तिम अम्बसु मा चेला पिण संसार नी रीति साचवी पिण धर्म नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा सूर्याभ देव सम्यग्दृष्टि प्रतिमा आगे "नमोत्थुणं गुण्यो ते लौकिक रीते पिण धर्म हेते नहीं। तथा भरत जी पिण चक्र नों विनय कियो। ते पाठ लिखिये छ।
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विनयाऽधिकारः ।
રા
सीहास
भुट्टे २ ता. पाय पीढाओ पच्चो
महइ २ त्ता पाउया ३ मुयइ २ ता एग साडिय उत्तरा संग कोइ २ त्ता अंजलि मउलि यग्ग हत्थे चकरयणाभिमुहे सत्तटुपयाई अगच्छइ २ त्ता वामंजाणु अंधे २ ता दाहिणं जागु धरणि तलसि हिडु करयल जाव अञ्जलि कट्टु चक्कयणस्स परणामं करेइ २ तां ।
( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति )
सिहासन की. अ० उठे उठी ने पा० वाजोट थी उतरे उतरी ने पा० पग नी mast तथा परखी मूके मूकी ने एं० एक शाटिक व नों उत्तरासन करे करी में अ० हाथ बें जोड़ो ने मस्तक ने धागे हाथ चढ़ानी ने एहवो थको चक्र रत्ने सन्मुख ते सामुही साव धाठ पगला. जाई जाई ने. वा० डावो गोडो ऊंचो राखे राखी ने दा० जीमयो गोड़ो. ध० धरती तल ने बिने. णि थाली क० करतल यावत हाथ जोड़ो नं. ० चक्ररत्र नं. १० प्रणाम
कीनें.
इहां चक्र: उपनों सुण्यो तिहां भरत जी इसो बिनय कीधो । पछे चक्र कने भावी पूजा कीधी, ते संसार रीते, पिण धर्म हेते नहिं । टिम अम्बड नें चेलां पिण आप रो निज गुरु जाणी गुरु नी रीति साचवी । पिण धर्म न जाण्यो, जब कोई कहे – सन्मुख मिल्यां तो रीति साचत्रे, पिण पाप जाणे तो पर पूठ विनय क्यूं कियो । तेहनो उत्तर-भरत जी चक्र उपनों सुणतां पाण हर्ष सन्तोष पाम्या, विकसाथ मान थइ परपूठे पिण पतलो विनय कियो ते संसार नी रीति ते माटे । तिम अस्त्र ना चेलां रिण संसार ना गुरु जाणी भगलो स्नेह तिण सूं आप री afree ed विनय नमस्कार कियो पिण धर्म हेते नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्णा ।
३६
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा "जम्बूद्वीपपन्नति" में तीर्थङ्कर जन्म्यां इन्द्र घणो विनय करे ते पाठ लिखिये छै ।
क
सूरिंदे सीहासान्मुट्ठेइ २ ता पाय पढाओ पच्चोरुहइ २ ता वेरुलिय वरिट्ठ रिट्ठ प्रण लिउ सोच्चिय मिसिमिसिंति मणियण मंडिआओ पाउआओ उमुइ २ त्ता एग साडियं उत्तरा संग करेइ २ ता अञ्जलि मउलियहत्थे तत्परामिमुहे सत्तट्ट पयाई अगच्छइ २ ता वामं जाणु अंचे २ ता दाहिणं जाणु धरणि असि साह तिखुत्तो मुद्धा धरणिसि निवेसेइ २ त्ता ईसिं पच्चुगुणमइ २ ता कडग तुडिय भित्र भुवाओ साहरइ २ ता age परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्यए अअलि कडु एवं बयासी - णमुत्थु अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं संयंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिस सीहा पुरिस वर पुंडरीया पुरिसवर गंध हत्थीसं लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोग हि लोगपवाणं लोग पज्जोयगराणं अभय दयाणं क्खु दया मग्गदयाणं सरण दयाणं जीव दया वोहि दयाणं धम्म दयाणं धम्मदे सियाणं धम्मनायगाणं धम्मसार - होणं धम्मवरचा उरंत चक्कवडी दीवोताणं सरणगइ पड़द्वाणं अपsिहय वरणाण दंसण धराणं विप्र उभारण जिणारा जावयाणं तिखाणं तारयाणं कुद्रा वोडिया मुत्ताणं मोगाणं सव्वभूणं सव्यदरिसीणं सियमयल मरुत्रमत मव्यवाहम पुणरायत्तियं सिद्धि गइ साम
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विनयाऽधिकार 1
धेयं ठाणं संपत्तासं गमो जिणाणं जीयभणाणं रामोत्थुरां भगवओ freeera आईगरस्स जाव संपावित्र कामरस वंदामि भगवंतं तापगयं इहगए पासउ मे भयत्र तत्थगए Feri free वंद मंसइ २ ता सीहासण वरंसि पुरत्थाभिमुहे सणसणे ॥६॥
(जम्बूद्वीप पत्ति )
२८३
ने
सू० इन्द्र. सी० सिहासन थी. प्र० उठे. उडी ने. पा० पावड़ी पगरखी मूके. मूकी ने. ए० एक शाटिक अखंड आखो वस्त्र तेहनों उत्तरासंग खत्रे ऊपर कांख ने नीचे वस्त्र राखे उत्तरा संय करे. करी नं. ० हाथ जोड़ीं. कमल डोडा ने श्राकारे अग्र हाथ के जेहनों एहवो थको. ति at करने साम्हो स० सात आठ पगली. अ० जाई जाई ने, वा० डाव गोडो ऊंचो राखे राखीनें. दा० जीमणो गोड़ो. ६० धरणीतल ने विषे. सा० स्थापी ने तिर त्रिवार मस्तक प्रते. ध० धरती तला ने विषे. नि० लगावे. लगावी नं. ई० ईपतु लिगारेक जंबो थई नं. क० कांक. तुं० हिरवा. सं० तेसें करी स्तम्भित भु० एहवी भुजा प्रते सा० संकोच संकोची ने. क० करतल हाथ ना तला. प० एकठा करी नें सि० मस्तके आवर्त रूप. म० मस्तक नें विषे. ० अंजलि करी नें. ए इम कहे स्तुति करे. न नमस्कार थावो. ए० वाक्यालंकारेअरिहन्त ने भ० भगवन्त ज्ञानवन्त ने आ० धर्म नी आदि करण हारा ने ती यार तीर्थ स्थापन करणवाला नें. स० स्वयमेव ज्ञान प्राप्त करण वाला नें. पुः पुरुषोत्तम ने. पु० पुरुष ने चिषे पुण्डरीक नी उपमावाला ने पु० पुरुषों में गन्धहस्ती नी उपमावाला ने लो० लोकोत्तम ने लोकनाथ ने. लो० लोक हितकारी नं. में दीपक समान नं. लो० लोक में प्रद्योत करणवाला ने अ० चन्नु दाता ने भ० मोक्ष मार्ग दाता ने स० शरण दाता ने बो० सम्यक्त्व रूप बोध देशवाला ने ध० धर्म देवाला ने ० धर्मनाक नं. ६० धर्म सारधि ने ध० धर्म में चातुरन्त चक्रवर्ती ने दी संसार समुद्र में द्वीप समान ने स० शरणागत आधार भूत ने अप्रतिहत केवल ज्ञान केवल दर्शन धारण करावाला ने वि० छद्मस्थपणा रहित ने. जि० राग द्वेष नों जय करणवाला ने तथा करावया वाला ने ति० संसार समुद्र थकी तिरण तत्वज्ञान जाणण वाला ने तथा चतावण वाला नें बालाने तथा निवृत्त करावण वाला नें. स० सर्बज्ञ
पु० पुरुष सिंह ने
लो० लोकां
च० ज्ञान रूप
अभय दाता में. जी० संयम रूप जीव दाता नं. घर धर्मोपदेश करण वाला ने.
वाला ने तथा तारण वाला ने चु० स्व मु० स्वयं अष्ट कमी की नियुक्त हों सर्वदर्शी ने सि० उपद्रवरहित, ध्यचल
रोग अनन्त अन्य व्याध अपुनरागमन सिद्ध गति प्राप्त करण चाला में म० नमस्कार
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૮૪
भ्रम विध्वंसनम् ।
थावो जिन तीर्थंकर ने जीत्या है भय जेणे. न नमस्कार थावो णं वाक्यालंकारे. भ० भगवन्त. ति० तीर्थकर ने श्रा० धर्म ना यादि ना करणहार. जा० यावत सं० मोक्ष गति पामवान छं. भ० भगवन्त प्रते तिहां जन्मस्थान" देखो हे भगवन् ! भ० भगवन्त तिहां जन्म इम करो ने वं० वांदे वचने करी स्तुति करे.
:
काम अभिलाप है जहनों एहवा तीर्थकर ने वं० वां इ० हूं इहां सौधर्म देवलोक ने विषे रह्यो एहवा ने स्थान के रह्या. इ० इहां देवलोके रह्या छू. to नमस्कार करे काया करी.
ति०
अथ इहां कह्यो - तीर्थङ्कर जनम्या ते द्रव्य तीर्थंङ्कर नें इन्द्र नमोत्थुणं गुणे, नमस्कार करे, ते पण इन्द्र नो रीति हुन्ती ते साचवे पिण धर्म जाणे नहीं । तिण ज्ञान सहित इन्द्र एकावतारी नें पिण परपूठे जनम्या छतां द्रव्य तीर्थङ्कर नों विनय करे । “नमोत्थुणं” गुणे ते लौकिक संसार ने हेते रीति साचवे, पिण मोक्ष देते नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
!
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
।
वली इन्द्र पिण इम विचालो - जे तीर्थङ्कर नी जन्म महिमा करू. ते माहरो जीत आचार छै। पहवो पाठ कह्यो ते पाठ लिखिये छै ।
तपणं तस्स सकस देविंदस्स देवरो अयमेवा रूवे जाव संकप्पे समुपज्जित्था उप्परा खलु भो ! जम्बुद्वीपे भयवं तित्थयरे तंजीयमेयं तीय पच्चुप्पराण महागयाणं सङ्काणं देविंदा देवराई तित्ययरा जम्मण महिमं करिए तं गच्छामियां अहं पि भगवत्र तित्थ्यररस जम्मण महिमं करे मितिकडु.
(जम्बूद्वीप पत्ति )
त० तिवारे पछ. त० ते. सर शक्र देवेन्द्र देवता मा राजा में प्र० एहवो एतादृश रूप ज्ञा० यावतू ० संकल्प विचार उपनो उ० उपना, ख० निश्चय भो भो इति श्रामन्त्रये
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विनयाऽधिकारः।
२८५
जो जम्बूद्वीप नामा द्वीप में विषे. भ० भगबन्त. ति० तोर्थ कर. तं० ते भणी. जी. जीत श्राचार एहयो अतीत काले थया. ५. वर्तमान काले शै, म. अनागत काले थास्ये एहवा. स० शक्र, देवता ना राजा. ती तीर्थ कर ना. ज. जन्म महोत्सव महिमा, का करिवो ते भाचार छ. तं० ते भणी नाव, थ० हूँ पिण. भ० भगवन्त तीर्थ कर ना. ज. जन्म नी. म. महिमा करूं. ति० एहवो विवार करी ने.
___ अथ इहां इन्द्रे विचासो-जे तीर्थङ्कर नी जन्म महिमा करू ते म्हारो जीत भाचार छै एहवो कह्यो। पिण ए जन्म महिमा धर्म हेते करू इम नथी कह्यो। तो जिम इन्द्र जीत आचार जाणी जन्म महिमा करे. तीर्थदर जनभ्या “नमोत्थुणं" गुणे. ए पिण संसार नी लौकिक रीति साचवे। तिम अम्बष्ठ ना चेलां तथा उत्पला श्राविका श्रावकादिक ने नमस्कार किया ते पिण पोता नी लौकिक रीति साचवी पिण धर्म न जाण्यो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण ।
_तथा इन्द्र तीर्थङ्कर नी माता ने पिण नमस्कार करे ते पाठ लिलिये छ ।
जेणेव भयवं तित्थ यरे तित्थयर मायाय तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आलोए चेव पणामं करेइ २ त्ता भयवं तित्थपरं सित्थयर मायरंच तिखुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ त्ता करयल जाव एवं क्यासी--णमोत्थुणं ते रयण कुच्छि धारिए एवं जहा दिसा कुमारी ओजाव धरणासि पुराणासि तं कयथासि अहणणं देवाणुप्पिए ! सबकेणाम देविंदे देव राया भगवो तित्थ यरस्स जम्मण महिमं करिस्लामि ।
( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति)
जे जिहां. भ० भगवान् तीर्थकर छै अने तीर्थ कर नी माता छै. उ० श्रावे भावी ने. मा देखी ने तिमज. प. प्रणाम करी ने. भ० भगवन्त तीर्थ कर प्रते. ति तीर्थ कर नी मासा
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२८६
भ्रम विध्यसनम् ।
प्रते. ति० त्रिण वार. प्रा. जीमणा पासा थी. प० प्रदक्षिणा करे. क० हाथ जोड़ी ने यावतू. ए० इम कहे. न नमस्कार थावो ते तुझ ने. हे रत्न कुक्षि नी धरणहारी. ए० इण प्रकार. ज० जिम. दि० दिशाकुमारी कह्या तिम कहे छै. ध० तूं धनय छै. पु० तूं पुण्यवन्त छै. क० तूं कृतार्थ छै. अ. अहो. दे० देवानुप्रिये ! स० हूं शक्र नामक देवेन्द्र. दे० देवता नो राजा. भ० भगवान्. ति तीर्थ कर नों. ज. जन्म महोत्सव. क० करस्यूं.
अथ इहां तीर्थङ्कर नी माता ने इन्द्र प्रदक्षिणा देई ने नमस्कार कियो । ते इन्द्र तो सम्यग्दृष्टि अर्ने तीर्थङ्कर नी माता सम्यग्दृष्टि हुवे, तथा प्रथम गुणठाणे पिण भगवान री माना हुवे तो तेहनें पिण नमस्कार करे, ते पोता नों जीत आचार लौकिक रीति जाणी साचवे पिण धर्म न जाणे। तिम अम्बस ना चेलां पिण संसार नों गुरु जाणी नमस्कार कियो पिण धर्म हेते नहीं। तथा वली अनेक श्रावक ना मङ्गलीक रे घर ना देव पूजे। “नाग हेउवा भूत हेउवा जक्ख हेउवा" कह्या छै। अभयकुमार धारणी रो दोहिलो पूर्वा पूर्व भव ना मित्र देवता आराध्यो। भरतजी १३ तेला किया, देवता ने नमस्कार करी बाण मूक्यो त्यांने बश किया। कृष्ण देवता ने आराध्यो छै। पछे गज सुकुमाल को जन्म थयो। इत्यादिक संसार ने हेते सम्यग्दृष्टि श्रावक अनेक सावध कार्य करे। पिण धर्म न जाणे । तिम अम्बम ना चेलां पिण विनय नमस्कार कियो ते संसार नों गुरु जाणी ने, पिण धर्म हेते नहीं। गृहस्थ ने नमस्कार करण री भगवान् री आज्ञा नहीं ते माटे श्रावक ने ममस्कार कियां धर्म नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल सम्पूर्ण।
तथा आवश्यक सूत्र में नवकार ना ५ पद कह्या-पिण "णमो सावयाणं" इम छठो पद कहो नहीं। तथा चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र में एहवो पाठ कह्यो छै। ते लिखिये छै। - नमिऊरण असुर सुर गरुल-भुयंगपरिवंदिए गय किलेसे अरिहं सिद्धायरिय--उवज्झाय सव्वसाहय ।
..
(चन्द्र प्रज्ञाप्ति गा.
..
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विनयाऽधिकारः।
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न० नमस्कार करी अ. भवन पति आदिक. सु. वैमानिक. ग० गरुड़ देवता. मु: नागकुमार तथा न्यन्तर विशेष ते देवता ना वन्दनीकां प्रते. वलि ते केहया ग० रागादिक क्लेश गयो छै जेहनों. अ० अरिह कहितां पूजा योग्य है. सि. सिद्ध ते सघला कर्म रहित. प्रा० आचार्य ने. उ० भणे भणवे सेहने. स० साधु प्रते नमस्कार किया है.
इहां पिण ५ पदां ने नमस्कार कहो पिण श्रावक में न कह्यो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ह बोल सम्पूर्ण।
तथा सर्वानुभूति सुनक्षत्र मुनि गोशाला ने कह्यो- ते पाठ लिखिये छ। ।
जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ २ त्ता गोसालं मखलिपुत्तं एवं क्यासी-जे वि ताव गोसाला तहा रूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति २ त्ता सेवितावि तं वंदति नमसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति । .
( भगवतो श० १५)
जे० जिहाँ त गोशालो मखलिपुत्र तिहां आवे प्रावी ने. गो० गोशाला मखलिपुत्र प्रति इम कहे. जे० प्रथम गोशाला तथा रूप श्रमण ना तथा ब्रह्मचारी ना पासा थी. ए. एक श्रावरवा योग्य धर्म सुवचन सांभले सांभली ने. ते पुरुष ते प्रते वांदे. न० नमस्कार करे. जा. यावत् कल्याण मङ्गलीक देव नी परे देव चे ज्ञान वन्त नी पर्युपासना करे.
अथ अठे सर्वानुभूति सुनक्षत्र मुनि गोशाला में कलो। हे गोशाला ! जे तथा रूप श्रमण माहण कनें एक बचन सीखे. तेहनें पिण यांदे नमस्कार करे। कल्याणीक मंगलीक देवयं चेश्यं जाणी ने घणी सेवा वरें। इहां श्रमण माहण कनें सीखे तेहने वन्दना नमस्कर करणी कही। पिण श्रमणोपासक कनें सीखे तेहनें वन्दना नमस्कार करणी-इम न कह्यो। श्रमण माहण नी सेवा कही पिण
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२४८
भ्रम विध्वंसनम् ।
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.
.
A
ATS
...
श्रमणोपासक री लेवा न कही। ए तो प्रत्यक्ष श्रावक ने टाल दियो, अनें श्रमण भाहण में वन्दना नमस्कार करणो कह्यो, ते माटे श्रावक ने नमस्कार करे ते कार्य माशा बाहिरे छ। तथा सूयगहाङ्ग श्रु० २ ० ७ उदक पेढाल पुत्र ने पिण गौतम कह्यो। जे तथा रूप श्रमण माहण कनें सीखे नेहने वन्दना नमस्कार करे. पिण श्रावक कने सीखे तेहने नमस्कार करणो न कह्यो। केतला एक कहे श्रमण ते साधु अनें माहण ते श्रावक छै ते पासे सीख्यां तेहनें वन्दना नमस्कार करणी । इम अयुक्ति लगावे तेहनों उत्तर-इहां तो एहवा पाठ कहा जे तथा रूप श्रमण माहण कनें एक वचन सीखे तो तेहनें “वन्दइ. नमसइ. सकारेइ सम्माणेइ. कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं" एतला पाठ कहा। एहवा शब्द साधु ने तथा भगवान् में ठामे २ कह्या । पिण श्रावक ने एतला शब्द किहांही कह्या नथी । “कल्लाणं. मंगलं. देवयं. चेइयं.' ए ४ नाम भगवान् तथा साधु रा तो अनेक ठामे कह्या, पिण श्रावक रा ४ नाम किहां ही नथी कह्या. ते माटे श्रमण माहण साधु नें इज इहां कहा। पिण श्रावक ने माहण नथी कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडांग अ० १६ माहणे साधु ने इज ह्या छै ते पाठ लिखिये छ।
अहाह भगवं दंते दविए वोसटुकाए तिवच्चे माहणे तिवा सम णेतिबा भिक्खूति वा निगंथेति वा पड़िाह भंते ! कहणं भंते ! दविए बोसट्टकाए तिवच्चे माहणेति वासमणेति वा । भिक्खूति वा निग्गंथेति वा तं नो वृहि मुणी ति विरय सव्व पाप कम्मे पेज दोस कलह अभक्खाण पेसुण परि परिवाय अरइ रइ माया मोसा मिच्छादसणसल्ल विरए समिए सहिए सदाजए णो कुजे णो माणि माहणेतिवच्चे।
(सूयगडांग ०१ अ.१६ )
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विनयाऽधिकारः।
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अ० अथ अनन्तर. भ० भगवान् श्री महावीर. ते साधु ने. द. इन्द्रिय दमणहार. ६० मुक्त गमन योग्य. वो० वोसरावी छ काया विभूषा रहित एहवो शरीर जेहनों. ति इम कहिवो. मा० महणो महणो एहो उपदेश ते माहण अथवा नवगुप्त ब्रह्मचर्य थकी ब्राह्मण स. भ्रमण तपस्वी. वा० अथवा साधु भिक्षाइ करो भिक्षु. नि० वाह्य आभ्यंतर ग्रंथि रहित ते भणी निथ कहिए, इम भगवंते कहे हुँते शिष्य बोल्यो किस हे भगवन् ! दांति. काया वोसरावे ते मुक्त गमन योग्य इम कहिवा. मा० माहण बस स्थावर न हणे. स० श्रमण तपस्वो. मि. पाठ कर्म भेदे भिक्षाई जोवे. नि. निग्रंथ. तं० तेम्हा ने कहो मुनीश्वर. तिवारे गुरु ब्राह्मणादिक ध्यार नाम नों अर्थ अनुक्रमे कहिवो है. ति० जेणे प्रकारे विरत. स. सब पाप कर्म थकी निवृत्या. तथा. पे० राग. दो द्वेष क० कुवचन भाषण अ० अभ्याख्यान अछता दोष नों प्रकाशिवो. पे. पैशूनय. परगुण न असहिवो तेहना दोष नों उघाड़िवो ५० पर परिवार अनेरा नों दोष अनेरा भागले प्रकाशिवा. अ० अरति चित्त नों उद्वग. २० रति चित्त नी समाधि. मा० माया संसार विष परवंचना. मो० मृषा अलीक भाषण. मि० मिथ्या दशन सल्य तं तत्व में विष भतत्व नी बुद्धि अतत्व ने विषे तत्व नी बुद्धि. एहीज शल्य वि० तेह थको विरत. सं० पांच मुमति सहित. ज्ञानादिक सहित. स. सदा संयम ने विष सावधान. णो किणी सू क्रोध मकरे. गो मान रहित. एगो परे माया लोभ रहित एव गुण कलित माइण कहियो.
___ अथ इहां १८ पाप सू निवृत्यो. पांच सुमति सहित एहवा महा मुनि ने इज माहण कह्यो। रिण धावक ने माहण न कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण।
तथा सूयगष्टाङ्ग श्रु० २ ० १ पिण साधु ने इज माहण कह्यो छै। ने पार लिखिये छ।
___ एवं से भिकरवू परिणाय कम्मे परिणाय संगे परिणाय , गिहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए से एवं वत्तवे तंजहा-समणेति वा माहणेति वा खंति ति वा दंते तिवा गुत्तति वा मुत्ते तवा इसीतिया मुणाति वा कित्तीति वा
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भ्रम विध्वंसनम् ।
विऊत्तिवा भिक्खूति वा लुहेति वा तीरट्टीइवा चरण करण
पारविदूत्तिवेमि ।
२६०
( सुयगडाङ्ग श्र० २ ० १ )
ए० एणी परे भि० साधु ज्ञाने करी जाखवा. ६० ज्ञाने करि जाणी ने पचक्खाएं करी पञ्चक्खिवो क० कर्मबंध नों कारण प० प्रत्याख्यान प्रज्ञाई पचक्खिश्रो वाह्य आभ्यंतर संग जेणे. प० जेणे असार करी जाणी ने डांड्यो गि० गृहवास. 'उ० इन्द्रिय उपशमाव्या. तथा स० पांच सुमति सहित ल० ज्ञानादि करी सहित स० सर्वदाकाल यलावंत से० ते एहवो चारित्रियो हुई व० ते कहिको तं ते कहे है. स० श्रमण तपस्वी तथा मित्र शत्रु ऊपर समता भाव जेहनों ते श्रम मा० प्राणिया ने महणो २ जेहनों उपदेश ते माहण. ख० क्षमावंत. दं० इंद्रिय नों दमणहार गु० त्रिहुं गुप्ति गुप्तो मु० निर्लोभी लोभ रहित. इ० जीव रक्षा करे ते ऋषि भु० जगत् ना स्वरूप नों जाणणहार कि सहू कोई कीर्त्ति करे ते कीर्त्ति वंत वि० परमार्थ थकी पण्डित भि० निरवद्य श्राहार नों लेणहार लु० अंतप्रांत श्राहार नों करणहार. ती० संसार नों तीर रूप मोक्ष तेहनों अर्थी च० चरण ते मूल गुण क० करण के उत्तर गुण तेहनों पा० पारगामी ते भणी चरण करण तहनों वि० जाणणहार ति० श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी प्रत कहे हैं.
अठे साधु रा १४ नाम वली कह्या - जेणे गृहस्थ वास त्याग्यो ते साधु नें इज पतले नामे वोलायो । जिण माहे माहण नाम साधु नों कह्यो पिण श्रावक नो नाम नथी चाल्यो । तिवारे कोई कहें- 'समणंवा माहणंवा" इहां वा शब्द अन्य पुरुष नी अपेक्षाय कह्यो छै, ते माटे श्रमण कहितां साधु अने माहण कहितां श्रावक कहीजे. इम कहे तेहनों उत्तर-जिम सूयगडाङ्ग श्रु० २ अ० १६ साधु रा नाम ४ पूर्वे का त्यां में पिण वा शब्द अन्य नाम नी अपेक्षाय कह्यो छै पिण अन्य पुरुष नी अपेक्षाय कह्यो नथी तथा लोगस्स में 'सुविहं च पुप्फदलं' कह्यो तिहां च शब्द ते सुविधनों नाम बीजो पुष्पदंत तेहनी अपेक्षाय कह्यो, पिण सुविध पुष्पदंत. ए वे तीर्थङ्कर नहीं । नवमा तीर्थङ्कर ना वे नाम छै तेही अपेक्षाय च शब्द को छै । तिम "खमणं वा माहणं वा" इहां वा शब्द साधु ना वे नाम नी अपेक्षाय जाणवो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १२ बोल सम्पूर्ण ।
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विनयाऽधिकारः।
तथा उत्तराध्ययन अ० २५ माहण ना लक्षण कह्या ते पाठ लिखिये छै । जो लोए वंभणोवुत्तो अगीव महिओ जहा । सया कुसल संदिटुं तं वयं वृम माहणं ॥
जो जे. लो० लोक नं विषे. व० ब्राह्मण कह्या. अ. घृत करी सिञ्चित अग्नि समान दोषे एहवा. म. पूजनीय. ज० यथा प्रकारे. स० सर्वदा काले. कु. कुशले तीर्थ करादिक. सं. ब्या. तं० तेहन, वं० म्हे. वू० कहां छां. मा० ब्राह्मण
अथ इहां कहो-लोक में विषे जे ब्राह्मण कह्या जिम अग्नि पूजे छते घृता. दिके दीपे तिम गुणे करी दीपे सदा शोभे ब्रह्म क्रिया ई करी. एहवू कुशले तीर्थडूरादिक कह्या, तेहने म्है कहां माहण, तथा
जो न सज्जइ आगंतु पव्वयं तो न सोयइ। रमइ अज वयणम्मि तं वयं वूम माहणं ॥ २० ॥
जो० जे. न० नहीं. स० पासक्त होवे. आ० स्वजनादिक ने स्थान पायां. पं० अनें अन्य स्थान के जातां. न० नहीं. सो० शोक करे. २० रति करे, अ० तीर्थ कर ना. व० वचन वा विषे. ते० तेहनें. व० म्हे. वू० कहां छां. मा० माहण.
__ अथ इहाँ कह्यो-खजनादिक ने स्थान आयाँ आशक्त न होवे, अने अन्य खानके जातां शोक न करे, तीर्थङ्कर ना बचन ने विषे रति करे, तेहने म्हे कहां छां माहण । तथा
जायरूवं जहामिटुं निद्वंतं मल पावगं । राग दोस भयाईयं तं वयं वूम माहणं ॥२१॥
जा० सुवर्य ने, ज० जिम. मि० मठारे अग्नि करी धर्मे. नि० मल दूर करे तिम आत्मा में. जे. रा० राग दोष भयादि करी रहित करे. तं० तेहनें. वं० म्हे. वू० कहां छां. मा० माहण. ___ अथ इहां कह्यो-सुवर्ण ने मठारे अग्नि करी मल दूर करे तिम आत्मा ने धमी ने कसी ने मल सरीखं पाप दूर कीधो जेहने राग द्वेष भय अति क्रम्या जेहने तेहने म्हे कहां छां माहण। तथा
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२१२
भ्रम विध्वंसनम् ।
तबस्तियं किसं दंतं अबचिय मंस सोणियं ।
सुब्वयं पत्त निव्वाणं तं वयं वृम माहणं ॥ २२ ॥ स० तपस्वी. कि० तपे करी कृश शरीर छ जेहनों. ८० इन्द्रिय दमी जेहनें अ० सूख्यो है. मां मांस लोही जेहनों. सु० सुनती. ५० मोक्ष पद ग्रहण करवा ने योग्य. तं० तेहनें. ३० हे. बू० कहां छां. मा० माहण.
अध इहां कह्यो-तपे करो कृश दुर्बल, इन्द्रिय दमी जेणे, मांस लोही शुष्क, सुव्रती समाधि पाम्यो, तेहने म्हे कहां छां माहण। तथा,
तस पारणे वियाणेत्ता संगहेणय थावरे ।
जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं वूम माहणं ॥ २३ ॥ ___त. द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणी ने. वि० विशेष जाणी ने. सं० विस्तारे करी तथा. संक्षेपे करी था. पृथिव्यादिक स्थावर जीव में. जो जे. न० नहीं. हि मारे. ति० त्रिविध मन वचन कायाइं करी. त० तेहने. ५० म्हे. वू० कहां छां. मा० माहण.
भय इहां कह्यो-बस स्थावर जीव ने त्रिविधे २ न हणे तेहने म्हे कहां छां माहण । तथा.
कोहा वा जइवा हासा लोहा वा जइवा भया। मसं न वयइ जोउ तं वयं वम माहणं ॥२४॥
को क्रोध थी. यदि वा. हा हासय थी. यदि वा. लोभ थी. यदि वा. भ० भय थी. मु. मृषा झूठ. न० नहीं. व० बोले. जो. जे. सं० तेहने. व० म्हे. व० कहां छां. माहण.
अथ इहां कह्यो-क्रोध थी हास्य थी लोभ थी भय थी मृषा न वोले तेहने म्हे कहां छा माहण; तथा.
चित्तमंत भचित्तं वा अप्पं वा जइ वा वह।
न गिगहइ अदत्तं जे तं वयं वम माह ॥ २५ ॥ चिपचित्त. म. अथवा अचित्त. श्र० अल्प. अथवा व० बहु बस्तु न० नहीं गिः ग्रहण दरे. अविना दीधी थकी अर्थात चोरी न करे. जे. जो. तं हने म्हे कहां छां माहण
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विनयाऽधिकारः ।
अथ इहां को- सचित्त अथवा अचित्त, अल्प अथवा व हु वस्तु री चोरी न करे तेहने म्हे कहाँ छां माहण । तथा,
दिव्व माणुस तेरिच्छं मासा काय वक्केणं
1
२६३
जो न सेवइ मेहुणं ।
तं वयं वूम माहणं ॥ २६ ॥
दि० देवता सम्बन्धी म मनुष्य सम्बन्धी ति० तिर्यक् सम्बन्धी जो० जो न० नहीं, से० सेवे मे० मैथुन म० मन करी. का० काया करी. वा० वचन करी तं० तेहने व० म्हे.
० कहां छां माहण
अथ इहां को देवता. मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन मन वचन काया करी न सेवे तेहने म्हे कहां छां माहण । तथा,
जहा पोमं जले जायं नो वलिंपइ वारिणा ।
एवं अलित्तं कामेहिं
तं वयं वूम माहणं ॥ २७ ॥
ज० जिम पो० कमल. ज० जल ने विषे. जा उपना हुवा पिण. नो० नहीं. लि० लिपात्रे. ० पाणी करी ए० इण प्रकारे जो. श्र० नहीं लिपाय मान हुवा का काम भोगे केरी. सं० सेहनें म्हे कहाँ छां माहरण.
अथ इहां कह्यो -- जिम कमल जल ने विषे उपनों पिण पाणी करी न लिपावे इम काम भोगे करी जो अलिप्त छै । तेहने म्हे कहां छां माहण । तथा,
चालोलुयं मुहाजीवी अणगारं अकिंचनं । असंत्तं हित्थे सु तं वयं वृम माहणं ॥ २८ ॥
० अलोलुपी. मु० श्रनय पुरुषां रे श्रर्थे बनावोड़ो आहार तेयाँ करी प्राण यात्रा करे. श्र० अनगार घर रहित अ० परिग्रह रहित असंसक्त ये० गृहस्थ में चिषे. सं० तेहने म्हे कहाँ छां माहण
अथ इहां कह्यो --लोलपणा रहित अज्ञात कुल नी गोवरी करे, घर रहित परिग्रह रहित. गृहस्थ सूं संसर्ग रहित, अणगार तेहने म्हे कहां छां माहण |
यथा.
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२६४
भ्रम विध्वंसनम् ।
जहित्ता पुव्व संजोगं नाति संगेय वंधवे । जो न सज्जइ भोगेसु तं वयं वूम माहणं ॥ २६ ॥
( उत्तराध्ययन अ०२५)
ज० लांडो ने विचरे. पू० पूर्व सं० संयोग माता पितादिक ना. ना. ज्ञाति ते कुल. सं. संग ते सास सुसरादिक ना. व० वांवव ते भ्राता आदिक ने जो जो. न० नहीं. स. संसक्त होवे भोगां में विषे. त० तहन व म्हे. कहां छां माहण.
अथ इहां कह्यो-पूर्व संयोग ज्ञाति संयोग तजी ने काम भोग ने विषे गृध्र पणो न करे। तेहनें म्हे कहां छां माहण । इहां पिण अनेक गाथा में माहण साधु ने इज कह्यो । पिण श्रावक नैन कह्यो । प्रथम तो सूयगडाङ्ग अ० १६ महामुनि ने माहण कह्यो। तथा सूयगडाङ्ग श्रुतखंड २ अ०१ साधु रा १४ नाम। में माहण कह्यो। तथा उत्तराध्ययन अ० २५ अनेक गाथा में माहण साधु ने इज कह्यो । तथा सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० २ उ० २ गा० १ माहण नों अर्थ साधु कियो। तथा तथा तिणहिज उद्देश्ये गा०५ माहण मुनि ने कह्यो। तथा तेहज उद्देश्ये माहण यति ने कह्यो। इत्यादिक अनेक ठामे माहण साधु नें इज कह्यो। श्रमण ते तपस्या युक्त उत्तर गुण साहित ते भणी श्रमण कह्यो। माहण ते पोते हणवा थी निवृत्या अने पर ने कहे महणो महणो, मूल गुण युक्त ते भणी माहण कह्यो । पतले श्रमण माहण सांधु नें इज कह्यो। पिण श्रावक ने किण ही सूत्र में माहण कह्यो नथी। जिम स्वतीर्थी साधु ने श्रमण माहण कह्या, तिम अन्य तीर्थी में श्रमण शाक्पादिक. माहण ते ब्राह्मण ए अन्य तीर्थी ना पिण श्रमण माहण कह्या । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १३ बोल सम्पूर्ण।
तथा अनुयोग द्वार में एहवो कह्यो छै ते पाठ लिखिये छ।
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विनयाऽधिकारः।
से किं तं सिलोय नामे सिलोए नामे समणे माहणे सव्वा तिही सेतं सिलोग नामे।
(अनुयोग द्वार)
से० ते. कि० कोण. सि० श्लाघनीक नाम. इति प्रभ। उत्तर श्लाघनीक नाम स० श्रमद माहण. स० सर्व अतिथि ए सर्व साधु वाची नाम. से० ते. सि० श्लाघनीक नाम जामवा.
___ अथ इहां पिण श्रमण माहण सर्व अतिथि नो नाम कह्यो। पिण श्रावक नों नाम श्रमण माहण न कह्यो। जैन मत में जे गुरु तेहना नाम श्रमण माहण कह्या । तथा अन्य मत में जे जे गुरु श्रमण शाक्यादिक माहण ब्राह्मण ते पिण गुरु पाजे। ते माटे सर्व अतिथि ने श्रमण माहण कहा। पिण श्रावक ने माहण कहा मथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
तथा आराङ्ग श्रु० २ अ० ४ उ० १ कह्यो ते पाठ लिखिवे छै ।
से भिक्खूबा पुमं आमंते माणे आमंति एवा अपडि सुण माणे एवं वदेजा अमुगोतिबा आउसो तिवा आउसं तो ति सावगे ती वा उपासगेति वा धम्मिए ति वा धम्मि पिये ति वा एय प्पगारं भासं असावज जाव अभूतो व घातिय अभि कंख भासेजा ॥ ११ ॥
(भावारांग ध्रु० २ अ० ४ उ०१)
से ते साधु साध्वी. पु० पुरुषा में. अामन्त्रयों को बा. अ. आमन्त्रे तिवारे किम हो कारणे किण ही पुरुष ने. अ. कदाचित ते सांभले नहीं पाछे प्रति उत्तर नहीं दे। तिवारे साधु ते प्रदे ए० इभ कहे. अ० अनुकु ( जे नाम हुई ते बोलावे ) अथवा मा प्रायुष्यमन् ! आ.
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भ्रम विध्वंसनम् ।
० आयुष्यवत ! सा० हे श्रावको ! उ० अथवा हे साधु ना उपासको ! ध० हे धार्मिक ! ध० हे धर्म प्रिय । ए० एहवा प्रकार नी भाषा नं. ० असावद्य जा० यावत् प्र० दया पूर्ण अ० बांद्रे भा० बोलवा.
२६६
अथ इहां पतले नामे करी श्रावक बोलावणो कह्यो । तिण नें नाम लेई इबोलावो । हे श्रावक ! हे उपासक ! हे धार्मिक ! हे धर्मप्रिय ! पहवा. नामा करी बोलावणो कह्यो । इहाँ श्रावक उपासक, धार्म्मिक, धर्म्मप्रिय. ए नाम का | पिण हे माहण इम माहण नाम श्रावक रो न कह्यो । ते भणी श्रावक ने माह किम कहीजे | अर्ने किणहिक ठामे टीका में माहण ना अर्थ प्रथम तो साधु इज कियो, अनें वीजो अर्थ अथवा श्रावक इम कियो छै पिण मूल अर्थ तो श्रमण माहण नों साधु इज कियो । अनें किहां एक माहण नों अर्थ श्रावक कियो ते पिण सुवा रे स्थानक कियो । पिण "बंदइ नर्मसइ सकारेइ. समाणेइ. कल्लाणं. मंगलं. देवयं. चेयं.' पतला पाठ का तिहां तथा आहार पाणी देवा ने ठामे माहण शब्द कह्यो । ति माह शब्द नों अर्थ श्रावक नथी कह्यो । अनें जे उत्तर अर्थ ( बीजो (अर्थ) बतावी दान देवा नें ठामे तथा वन्दना नमस्कार नें ठामे माहण नो अर्थ श्रावक थापे छै, ते तो एकान्त मिथ्वात्वी छै अनें टीका में तो अनेक बातां विरुद्ध छै । जिम आचाराङ्ग श्र० २ अ० १३० १० टीका में सचित्त लूण खाणो को छै । तथा तिहि उद्देश्ये रोग उपशमावा अर्थे साधु नें कारणे मांस नों वाह्य परि भोग करिवो को छै । तथा निशीथ नी चूर्णी में अनें द्वितीय पदे अर्थ में अनेक मोटा अणाचार कुशीलादिक पिण सेवण का है । इम टीका में. चूर्णी में. अर्थ में. तो अनेक बातां विरुद्ध कही छे । ते किम् मानिये । तिम सूत्र में तो १८ पाप थी निवृत्या ते मुनि नें माहण घणे ठामे कह्यो । ते सूत्र पाठ उत्थापी वन्दना नमस्कार नें ठामे तथा दान देवा ने ठामे माहण नों अर्थ श्रावक केई कहे ते किम मानिये । श्रावक ने तो माहण किणही सूत्र पाठ में कह्यो नथी । ते भणी श्रावक नें माहण किम थापिये । श्रावक ने नमस्कार करण री भगवान् री आज्ञा नहीं छै । ते माटे अम्वड ना चेलां नमस्कार कियो ते पीता रो छांदो छै । पिण धर्म हेते नहीं । जे अन्य तीर्थी ना वेष में केवल ज्ञान उपजे ते पिण उपदेश देवे नहीं । जो साधु श्रावक केवली जाणे तो पिण ते अन्य लिङ्ग थकां तिण नें प्रत्यक्ष-वन्दना नमस्कार करे नहीं । तेहनों अन्य मतो नो लिङ्ग छै ते मारे तो अम्ड तो अन्य लिङ्ग सहित
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विनयाऽधिकारः ।
वली कोई कहे-छोटा साधु पिज बड़ा श्रावक नों विनय रो पुत्र व्रत आदला, भने पछे
इज छै । ति ने नमस्कार कियां धर्म किम होवे । बड़ा साधु रो विनय करे तिम छोटा श्रावक ने करणो । इम कहे तेहनों उत्तर-प्रथम तो श्रावक ते पुत्र आगे पिताई १२ व्रत धारला, त्यांरे लेखे पुत्र रे पगां पिता ने लागणो । जिम पहिला दीक्षा पुत्र लोधी पछे पिता लोधी, तो ते पिता साधु, पुत्र साधु रे पगां लागे तेहनी ३३ असातना ढाले । तिम पुत्र आगे पिता १२ व्रत धारला तो तेही पिण ३३ असातना ठालणी, न टाले तो ते पिता ने अविनीत विनय मूल धर्म से उत्थापणहार त्यांरे लेखे कहीजे । इम पहिलाँ वह व्रत आदला, पछे वहू सासू व्रत आदला, तो ते बहू नों विनय करणो । इमहिज पहिलां गुमाश्ता व्रत धारला, पछे सेठ व्रत धारला, ते गुमाश्ता ने पासे सेठ समझयो तो तेहने धर्माचार्य जाणी घणो विनय करणो । जो विनय न करे तो त्यांरे लेखे तेहने अविनीत कहीजे विनय मूल धर्म से उत्थापणहार कहीजे । पिण इम नहीं । विनय तो साधु न इज करणो कह्यो छै । अने श्रावक नों विनय करे ते तो पोता नों छांदो है । पिण धर्म हेते नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
कने
हीत १४ बोल सम्पूर्ण । इति विनयाधिकारः ।
३८
૨૭
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ar पुण्याधिकारः ।
केतला एक अजाण जीव- ते साधु विना अनेरां ने दीघां पुण्य बंधतो कहे ते पुण्य ने आदरवा योग्य कहे. ते पुण्य ने मोक्ष नों साधन कहे. ते ऊपर सूत्र नो नाम लेवी कहे, भगवती श० १ उ० ७ जे जीव गर्भ में मरी देवता था तिहां एह पाठ को छै । “सेणं जीवे धम्म कामए पुण्य कामए सग्ग कामए मोक्का धम्म कखिए पुण्ण कंखिए सग्ग कंखिए मोक्ख कंखिए" इहाँ धर्म. पुण्य. स्वर्ग. मोक्ष नों अभिलाषी ( बंछणहार ) श्री तीर्थङ्करे कह्यो, ते माटे ए पुण्य आदरवा योग्य छै. तिण सूं भगवान् सरायो छै । जो पुण्य छांडवा योग्य हुवे तो संरावता नहीं ।
इम कहे तेनो उत्तर- इहां पुण्य भगवान् सरायो नहीं । आदरवा योग्य को नहीं । ए तो जे गर्भ में मरी देवता थाय. तेहने जेहवी वांछा हुन्ती ते बताई छै । पिण पुण्य नी वाञ्छा करे तेहने सरायो नहीं । तिणहिज उद्देश्ये इम कह्योजे गर्भ में मरी नरके जाय ते पर कटक ( दूसरा री सेना ) थी संग्राम करे । तिहां पहवो पाठ छै ते लिखिये छै ।
सेणं जीवे अत्थ कामए. रज कामए. भोग कामए. काम कामए. अत्थ कंखिए. रज कंखिए. भोग कंखिए. काम कखिए । अत्थ पिवासिए. रज्ज पिवासिए. भोग पिवा - सिए. काम पिवासिए तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्भवसिए तत्तिव्वत्र सारखे तदट्टो उत्ते तदपि करणे तदभावणा भाविए एवं सिणं अंतरसिकालं करेजा नेरइएस
उववज्जइ ।
(
भगवती श० १०७ )
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पुणयाधिकारः।
से० ते. जी० जीव केहवो छै. अर्थ नों छै काम जेहनें. र. राज्य नों छै काम जेहनें. भो० भोग नों के काम जेहने. का० शब्द रूप नों काम छै जेहनें. अ. अर्थ नी कांक्षा ( वांछा ) छै जेहनें र० राज्य नी कांक्षा छै जेहनें. भो० भोग नी कांक्षा के जेहनें. का० शब्द रूप नी कांज्ञा छै जेहनें. अर्थ पिपासा. राज्य पिपासा. भोग पिपासा. काम पिपासा छै जेहनें. त० तिहां चित्त नों लगावनहार. त० तिहां मन नों लगावनहार. त० लेश्यावन्त. त० अध्यवसायवन्त. ति० तोब प्रारम्भवन्त. अर्थयुक्त रह्यो थको करण. भा० भावता भावता इन अन्तरे काल करे ते ने नरक में विषे उपनें.
अथ इहां नरक जाय ते जीव में अर्थ नों कामी. राज्य नों कामी. भोग नों कामी. काम नों कामी. तथा अर्थ नों, राज्य नो, भोग नो, काम नो, कांक्षी ( वंक्षणहार ) श्री तीर्थङ्करे कह्यो। पिण अर्थ. भोग. राज्य. काम. नी बांछा करे ते आज्ञा में नहीं। जिम अर्थ. भोग. राज्य. काम. नी वांछा करे ते आज्ञा में नहीं. जिम अर्थ. भोग. राज्य. काम. नी वांछा ने सरावे नहीं। तिम पुण्य नी वांछा ने स्वर्ग नी वांछा ने पिण सरावे नथी। “पुण्णकामए. सग्गकामए" ए पाठ कह्यां माटे पुण्य नो वांछा ने सराई कहे तो तिण रे लेखे स्वर्ग नों कामी वांछक कह्यो ते पिण स्वर्ग नी वांछा सराई कहिणी। अने स्वर्ग की वांछा करणी तो सूत्र में ठाम २ वर्जी छ । दशवैकालिक अ० उ० ४ एहबा पाठ कह्या छै ते लिखिये छै। __ चउव्विहा खलु तव समाहि भवइ. तंजहा–नोइह लोगट्रयाए तेव महिहिजा नी परलोगट्टयाए तब महिद्विजा नो कित्ति वरण सद्द सिलोगट्टयाए तव महिटिज्जा नन्नत्थ निजरट्रयाए तव महिठिज्जा ।
( दशवै० अ० ६ उ०४)
च० चार प्रकार नी. ख० निश्चय करी ने. प्रा० आचार समाधि. भ० हुवे छै. तं० ते कहे है. नो० इह लोक में अर्थ ( चक्रवर्ती आदिक हुवा नें अर्थे ) नहीं. त० तप करे. नो० नहीं. प० परलोक ( इन्द्रादिक हुआ ) में अर्थे. त० तप करे. नो० नहीं. कि० कीर्ति. वर्ण. शब्द. श्लोक. (श्लाघा ) में अर्थे. त० तप करे. न० केवल. नि. निर्जरा ने अर्थे त० तप करे.
अथ इहां परलोक नी वांछा करवी वर्जी, तो स्वर्ग ने तो परलोक कहीजे, ते परलोक नी वांछा करी तपस्या पिण न करणी तो स्वर्ग नी वांछा करे नेहनें
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भ्रम विध्वंसनम् ।
किम सरावे। तथा उपासक दशा अ० १ श्रावक ने संलेखना ना ५ अतीचार जाणवा योग्य पिण आदरवा योग्य नहीं पहबूं कह्यो तिहां परलोक नी वांछा करणी श्रावक में पिण वर्जी तो स्वर्ग तो परलोक छै तेहनी वांछा भगवान् किम सरावे। ए ५ अतीचार आदरवा योग्य नहीं एहवो कहां माटे परलोक नी वांछा पिण आदरवा योग्य नहीं। तो परलोक नी वांछा किम कहीजे । इन्द्रादिक पदवी नी वांछा ते परलोक नी वांछा, ते इन्द्रादिक पदवी तो पुण्य थी पावे छै। जे परलोक नी वांछा आदरवा योग्य नहीं, तो पुण्य पिण आदरवा योग्य किम हुवे। इन्द्रादिक पदवी तो पुण्य थीज पावे छै, ते माटे इन्द्रादिक पद. अनें पुण्य. बिहूं आदरवा योग्य नहीं। इणन्याय पुण्य नी वांछा अनें स्वर्ग नो वांछा भगवान् सरावे नहीं। वली कह्यो एक निर्जरा टोल और किणही ने अर्थे तपस्या न करणी तो पुण्य ने अर्थे तपस्या किम करणी। पुण्य ने अर्थे तपस्या न करणी तो पुण्य ने आदरवा योग्य किम कहिए । तथा उत्तराध्ययन अ० १० गा० १५ में कह्यो “एवं भय संसारे संसरइ सुभासुभेहिं कम्मेहिं" इहाँ पिण शुभ अशुभ ते पुण्य. पाप. कर्मे करी संसरता ते पचता कया। इम पुण्य. पाप. ना विपाक ने निषेध्या छै। ते पुण्य पाप में भादरवा योग्य किम कहिए । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक अजाण कहे-जे चित्तजी ब्रह्मदत्त ने कह्यो। जे तूं पुण्य न करसी तो मरणान्ते घणो पिछतावसी इम कहे ते एकान्त मृषावादी छै। तिहां तो पहवो पाठ कह्यो छै ते लिखिये छै। इह जीविए राय असासयम्मि,
धणियं तु पुण्णाइ अकुब्वमाणे । सेसीयइ मच्चुमुहोवणीए,
धम्मं अकाऊण परम्मिलोए ॥२१॥
उत्तराध्ययन भ. १३ गा.२१)
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पुण्याधिकारः ।
३०१
३० मनुष्य सम्बन्धी जी० श्रायुषो रा० हे राजन् श्र० अशाश्वत ( अनित्य ) तेहनें विषे ध० प्रतिहि पु० पुराय नी हेतु शुभ अनुष्ठान ते. अ० श्रणकरण हारो जे जीव. से० ते. सो० सोचे पश्चात्ताप करे. म० मृत्यु ना ' मुखे पहुन्तो तिवारे ध० धर्म. ० की थ सोचे. प० परलोक नें विषे.
अथ इहां तो को-हे राजन् ! अशाश्वत जीवितव्य ने विषे गाढा पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान शुभ करणी न करे ते मरणान्त ने विषे पश्चात्ताप करे । इहां पुण्यशब्दे पुण्य नो हेतु शुभ अनुष्ठान ने कह्यो । तिहां टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छै ।
“पुराणा इं अकुव्वमाणेति - पुण्यानि पुण्य हेतु भूतानि शुभानुष्ठानानि श्रकुर्वाणः”
इहां टीका में पिणको - पुण्य ते पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान अणकरे तो मरणान्ते पिछतावे । इहां कोई कहें पुण्य शब्द पुण्य नो हेतु. शुभ अनुष्ठान. हवो पाठ में तो न कह्यो । ए तो अर्थ में कह्यो । अने पाठ में तो पुण्य करे नहीं ते पिछतावे इम को छै । इम कहे तेहनों उत्तर - पुण्य शब्दे
को ते अर्थ मिलतो छै । अनें तूं पुण्य हां पुण्यशब्देकरी पुण्य ना हेतु शुभ विचारि जोइजो ।
पुण्य नो हेतु अर्थ में कर पहवो तो पाठ में कह्यो नथी । अने अनुष्ठान में ओलखायो है । डाहा हुवे तो
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा उत्तराध्ययन अ० १८ गा० ३४ में पिण इम कह्यो छे ते पाठ लिखिये छै ।
एयं पुण्यपयं सोच्चा भरो विरहं वासं
अत्थ धम्मो वसोहियं । चिच्चा कामाइ पव्व ॥ ३४॥
उत्तराध्ययम उ०१८ )
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भ्रम विध्वंसनम् ।
ए० क्रियावादी प्रमुख नी श्रद्धहना तेहनी पाप संगति वर्जवा रूप. पु० पुरानो हेतु पुण्य प० पद सो० सांभली नें. पुण्य पद केहवो है. ते कहे है. ० स्वर्ग मोक्ष पामवा नों उपाय ते अर्थे ध० जिनोक्त धर्म एवं करी. शो० शोभनीक है जे पुराय पद ते सांभली नें. भ० भरत चक्रवर्त्ती पिण. भ० भरत क्षेत्र नों राजा. चि० छांडी नें. का० काम भोग. प० दीक्षा लोधी.
३०२
अथ इहां पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान ने पुण्य पद कह्यो तिहां टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छै ।
“ पुण्य हेतुत्वात्पुण्यं तत्पद्यते गम्यते ऽर्थो ऽनेन - इति पदं स्थानं पुण्य पदम्”
इहां टीका में पुण्य नों हेतु ते पुण्य पद कह्यो । पुण्य नो हेतु किण में fer | शुभ योग शुभ अनुष्ठान रूप करणी नें कहिई, तेहथी पुण्य बंधे. ते मादे शुभ अनुष्ठान ने पुण्य नो हेतु कहीजे । पुण्य ना हेतु नें पुण्य शब्दे करी ओलखायो छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा प्रश्न व्याकरण में पिण इम कह्यो. ते पाठ लिखिये छै ।
Hors पक्खंदे काहिति न सुति धम्मं सोऊण यजे पमायंति ॥२॥
त कय पुराणा जेय
( प्रश्न व्याकरण ५ श्राश्र० )
स० [सर्व गति प० गमन ने का० करस्यै अ० अनन्तवार अ० अकृत पुण्य ते जेण श्रव निरोधक पवित्र अनुष्ठान न थी कीधूं ते जीव संसार में रुलस्येः जे० जे कोई. व० वली. न सांभले. ध० धर्म नें. सो सांभली ने य० वली. जे प० प्रमाद करे. सम्बर श्रादरे नहीं.
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पुण्याधिकारः ।
अथ इहां पिण कह्यो- जे अकृत पुण्य जीव संसार भमे । अकृत पुण्य ते श्रव निरोध रूप पवित्र अनुष्ठान न करे ते जीव संसार में रुले । तेहनी टीका में पिण इमहिज कह्यो छै ते टीका
1
-
३०३
"कृतपुण्या अविहिताश्रव निरोध लक्षण पवित्रानुष्ठाना"
पहनों अर्थ - अकृत पुण्य ते न कीधो आश्रव निरोधक पवित्र अनुष्ठान, इहां पिण शुभ अनुष्ठान पुण्य ना हेतु नें पुण्य शब्दे करी ओलखायो छे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्णा ।
तथा उत्तराध्ययन अ० ३ गा० १३ में एड्वो पाउ कह्यो छै । ते लिखिये छै ।
विगिंच कम्मुणोहेउं पाढ़वं सरीरं हिच्चा
जसं संचिगु खंतिए उड्ढं पक्कमइ दिसं ॥१॥
( उत्तराध्ययन ० ३ गा० १३ )
वि० त्यागी नें. क० कर्म ना हेतु मिथ्यात्व अबत. प्रमाद. कषाय. आदिक ने संयम तप विनय ते यशन हेतु ने. सं० संचय कर खं० क्षमा करी. पा० पृथ्वी री माटी सरीख औदारिक. स० शरीर में हि० छोड़ी ने उ० ऊर्ध्व ऊपर प० गमन करे है. हि० परलोक ने विषे.
ज०
अथ इहां पिण को- - यश नों संचय करे यश नों हेतु संयम तथा विनय तेहनें यश शब्दे करी ओलखायो छै । तिम पुण्य ना हेतु ने पुण्य शब्दे करी ओलखायो छै । पाठ में तो यश नो हेतु कह्यो नहीं, यश नों संचय करणो कह्यो । अनें साधु ने तो कीर्त्ति श्लाघा यश वांछणो तो ठाम २ सूत्र में वय, तो यश नों संचय कम करे । पिण यश ना हेतु नें यश शब्दे करी ओलखायो छै । डाहा वे तो विचारि जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण
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३०४
भ्रम विध्वंसनम् ।
-
-
तथा भ० श० ४१ उ० १ कह्यो ते पाठ लिखिये छ ।
सेणं भंते ! जीवा किं आय जसेणं उवजंति आय अजसेणं उववज्जंति. गोयमा ! णो आय जसेणं उववज्जंति। आय अजसे उव वज्जंति ।
(भगवती श०४१ उ०१)
से ते. भ. हे भावन्त ! जी० जीव. कि स्यूं. भा. प्रात्मा यशे करी उपजे छै. प्रा० अथवा प्रात्म अयशे करी उपजे छै. गो. हे गोतम! णो नहीं अात्म यशे करी ने उपजे छै. प्रा० आत्म अयशे करी उपजे है.
अथ इहां पिण कह्यो-जे जीव नरक में उपजे ते आत्म अयशे करी ने उपजे। इहां आत्म यश ते यश नों हेतु संयम तेहनें कह्यो। अनें आत्म सम्बन्धी जे अयश नों हेतु ते असंयम ने आत्म अयश कह्यो। टीका में पिण यश नों हेतु संयम ते यश कह्यो। अनें अयश नो हेतु संयम ते अयश कह्यो
“यशो हेतुत्वाद्यशः संयमः-आत्मयशः'' इहां यश ना हेतु ने यशे करी ओलखायो छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
तथा उत्तराध्ययन अ० १ में कह्यो-ते पाठ लिखिये छ।
आदाणं नरयं दिस्स, नाय एज तणामवि दोगुच्छी अप्पणोपाए, दिन्नं भुंजेज भोयणं ॥८॥
( उत्तराध्ययन ०६ गा०८)
भा० धनादिक परिग्रह. न० नरक नों हेतु दि० देखी ने. ना० ग्रहण न करे. त० तृण मात्र पिण. प्रा० माहार दिना धर्म रूपियो भार निर्वाहिवा ए देह असमर्थ. इम देही में
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पुण्याधिकारः।
३०५
दुगुञ्छै निन्दे ते दुगुंछा कहिये. एहबोज साधु ते क्षुधावन्त भिनु थयू तिवारे. अ. आपणा. पा. पात्रा ने विषे. गि गृहस्थीइं दी● अशनादिक भोजन करे.
इहां कह्यो-धन धान्याकिक ने नरक ना हेतु देखी ने तृण मात्र पिण आदरे नहीं। इहां पिण नरक ना हेतु धन धान्यादिक ने नरक शब्दे करी ओल. खायो छै । तिम पुणय ना हेतु शुभ अनुष्ठान ने पुणय शब्दे करी ओल खायो छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० १ गा० ५ में कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
कण कुंडगं चइत्ताणं विटुं भुंजइ सूयरे एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमइ मिए ॥५॥
(उत्तराध्ययन अ०१गा०५)
क० कण ( अन्न ) नू कूडो. च० छांडी ने. वि० विष्ठा. भु० भोगवे. सू० सूर. ए० एणी परे अविनीत. सी० भलो आचार ने च० छांडी ने. दु० भूडा आचार ने विषे. र० प्रवर्ते. मि० मृग पशु सरीखू ते अविनीत.
अथ इहां अविनीत ने मृग कह्यो-मृग जिसा अजाण ने मृग शब्द करी ओलखायो छै। तिम पुणय ना हेतु ने पुणय शब्दे करो ओलखायो इत्यादिक एहवा पाठ अनेक ठामे कह्या छै। जिम यश नों हेतु संयम ते यश ने यश शब्दे करी भोलखायो। अयश नों हेतु असंयम ने अयश शब्दे करी ओलखायो। नरक
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३०६
भ्रम विध्वंसनम् ।
ना हेतु धन धान्यादिक ते नरक शब्दे करी ओलखायो। मृग जिसा अजाण ने मृग शब्दे करी ओलखायो। तिम पुणय नो हेतु शुभानुष्ठान ने पुणय शब्दै करी भोलखायो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ८ बोल सम्पूर्ण।
इति पुण्याधिकारः।
AARCHR
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अथ श्रवाऽधिकारः ।
Ami
केतला एक अजाण जीव आश्रव में अजीव कहे छे। अने रूपी कहे छै तेहनों उत्तर—ठाणाङ्ग ठा० ६ टीका में आश्रव नें जीव ना परिणाम कह्या छै । तथा ठाणाङ्ग ठा० ५ उ० १ पांच आश्रव कह्या छै ते पाठ लिखिये छै ।
पंच व दारा प० तं मिच्छतं. अविरती. पमादो. कसायो. जोगो. ।
( ठाठाङ्ग ठा०५ उ०१ समवायाङ्ग स०५ )
दा०
.
पं० पांच जीव रूप क्रिया तालाव ने विषे कर्मरूप जल नूं विवो कर्म बन्धन. तेहनों वारणा नी परे वारणा ते उपाय कर्म आविवा नूं प० परूप्या. तं ते कहे है. मि० मिथ्यात्व खोटा ने खरो जाणे. खरा ने खोटो जाणे. अ० अत्रती किया ही वस्तु ना पचखाण नहीं. प० प्रमाद ५ ० क्रोधादिक ४ योग मन वचन काया योग सावद्य निरवद्य प्रवत्त .
अथ इहां ५ आश्रव कह्या - " मिथ्यात्व" जे ऊधी श्रद्धारूप "अब्रत" ते अत्याग भावरूप " प्रमाद” ते प्रमादरूप " कषाय" ते भावे कषाय रूप "योग" ते भावे जीव ना व्यापार रूप, ए पांचुइ जीव ना परिणाम है । जे प्रथम आश्रव मिथ्यात्व ऊधी श्रद्धारूप ते मिथ्यात्व आश्रव नें मिथ्या दृष्टि कही जे । अनें मिथ्या दृष्टि ने अरूपी कही छै ते पाठ लिखिये छै ।
कह लेस्साणं भंते कइ वण्णा पुच्छा. गोयमा ! दव्व लेस्सं पडुच्च पंच वराणा जाव फासा पण्णत्ता भाव
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३०८
भ्रम विध्वंसनम् ।
लेस्सं पडुच्च अवण्णा एवं जाव सुक लेस्सा ॥१७॥ सम्मविट्ठी ३ चखुदंसणे ४ आभिणि वोहिय णाणे ५ जाव विभंगणाणे आहार सरणा जाव परिग्गहसण्णा एयाणि अवण्णाणि ।
( भगवती श० १२ उ०५।
क• कृष्ण लेश्या ना. भ. हे भगवन्त ! क० केतला वर्ण. गो. हे गोतम ! द. द्रव्य लेश्या प्रति. पाश्री ने पं० पांच वर्ण. जा० यावत. अ० आठ स्पर्श परूप्या. भा० भाव लेश्यावन्त ते अन्तरंग जीवनों परिणाम ते आश्रयी नें. अवर्ण अस्पर्श अमूर्त द्रव्य पणा थी ए० इम. जा० यावत. शुक्ल लेश्या लगे जाणवू. स० सम्यग दृष्टि. मिथ्या टि. सम्यमिथ्यादृष्टि च० चन दर्शन अचक्षु दर्शन २ अवधि दर्शन. ३ केवल दर्शन. पा. मतिज्ञान. श्रुतिज्ञान. अवधिज्ञान. मन पर्यवज्ञान. केवल ज्ञान. मति अज्ञान. श्रुति अज्ञान. विभङ्ग अज्ञान. श्रा० पाहार संज्ञा. भय संज्ञा. मैथुन संज्ञा. परिग्रह संज्ञा. ४ ए सर्व अवर्ण वर्ण रहित जाणवा जीव ना परिणाम.
अथ इहां ६ भाव लेश्या. ३ दृष्टि. १२ उपयोग. ४ संज्ञा. ए २५ वोल भरूपी कह्या। तिहां ३ दृष्टि कही तिण में मिथ्यात्व दृष्टि पिण अरूपी कही। ते ऊधी श्रद्धारूप उदय भाव मिथ्या दृष्टि में मिथ्यात्व:आश्रव कही जे। इण न्याय मिथ्यात्व आश्रव ने जीव कही जे, अने अरूपी कही जे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
वली ६ भाव लेश्या ने अरूपी कही अने ५ आश्रव ने कृष्ण लेश्या ना लक्षण उत्तराध्ययन अ० ३४ में कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
पंचा सवप्पवत्तो तिहिं अगुत्तो छसु अविराय । तिव्यारंभ परिणो खुद्दोसाहस्सिो नरो ॥२१॥
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आश्रवाऽधिकारः।
३०६
नियस परिणामो निस्संसो अजिइंदिनो। एय जोग समाउत्तो किण्ह लेस्सं तु परिणमे ॥२२॥
(उत्तराध्ययन प्र०३४ गा०२१-२२)
कृष्ण लेश्या ना लक्षण कहे छै. पं०५ श्राश्रव नों ५० सेवण हार. ति० तीन मन वचन कायाई करी. अ० अगुप्तो मोकलो, ६ काय में विषे अव्रतो घात नों करणहार. होय. ति तीव्र पणे. अ० प्रारम्भ ने. ५० परिणामे करी सहित होई. खु० सर्व जीव ने अहितकारी. सा. जीव घात करबा ने विषे साहसिक मनुष्य ॥२१॥
तिः इह लोक परलोक ना दुःख नी शङ्का रहित. ५० परिणाम छ जेहनों नि० जीव हणता सूग रहित. अ० अणजीता इन्द्रिय जेहने. ए० ए पूर्व कह्या ते. जो योग मन वचन काया ना तणे पाप व्यापार करी. स० सहित थको. कि० कृष्ण लेश्या ना परिणामे करी. परिणामे. ते कृष्ण लेश्या ना पुद्गल रूप द्रव्य जेहने संयुक्त करी जिम स्फटिक जेहवा द्रव्य नों संयुक्त हुई लेहचे रूपे भजे.
अथ इहां ५ आश्रव में कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या-ते माटे जे कृष्ण लेश्या अरूपी तेहना लक्षण ५ आश्रव ते पिण अरूपी छै । तथा वली “छसु अविरओ” कहितां ६ काय हणवा ना अव्रत ते पिण कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या. ते भणी अव्रत आश्रय ते पिण अरूपी छै। ए ५ आश्रय भाव कृष्ण लेश्या ना लक्षण टीकाकार पिण कह्या छै ते अवचूरी लिखिये छै।
___तेन पञ्चाश्रव प्रवृत्तत्वादीनां भावकृष्ण लेश्यायाः सनायोपदर्शना दासां लक्षण मुक्तं योहि यत्सद्भाव एवस्यात स तस्य लक्षणम्"
अथ इहां अपचूरी में कह्यो-पाँच आश्रव प्रवृत्त ए आदि देई ने कह्या ते भाव लेश्या ना लक्षण छै। भगवतीमें ६ भाव लेश्या ने अरूपी कही अनें इहाँ भाव कृष्ण लेश्या ना लक्षण ५ आश्रव कह्या ते माटे आश्रव पिण अरूपी छै। भाव लेश्या भरूगी तो तेहना लक्षण रूपी किम हुवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
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३१०
भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा वली ठाणाङ्ग ठाणे २ उ० १ में एहवो पाठ कह्यो छै ते लिखिये है ।
दो किरिया पन्नत्। तं जहा जीव किरिया चेव अजीव किरिया चैव जीव किरिया दुविहा परणत्ता तं जहा सम्मत्त किरिया चैव मिच्छत्त किरिया चेव अजीव किरिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा ईरियावहिया चेव संपराइया चेव ॥२॥
(टाणाङ्ग ठा० २ उ०१ )
दो० बे क्रिया. प० कही. तं ते कहे है. जी० जीव क्रिया सांचो ने झूठो श्रद्धवो. ० अजीव क्रिया कर्म पणे पुद्गल नों परिणामवो ते अजीव कहिए. जी० जोव क्रिया ना २ भेद प० परूया तं ते कहे है. स० सम्यक्त्व क्रिया. मि० मिथ्यात्व क्रिया. अ० अजीव क्रिया. दु० बे प्रकार नी. प० कही. तं ते कहे छे. ई० ईर्ष्या पथिक क्रिया ते योग निमित्त त्रिण गुण स्थानके लगे. सं० कषाय है तिहां उपनी ते साम्परायकी पुद्गल नों जीव ने कर्म पणे परिणामबो ते सम्परायकी क्रिया.
अथ अठे २ क्रिया जीव क्रिया. अजीव क्रिया. कही। जीव नों व्यापार ते जीव किया. अनें अजीव पुद्गल नों समुदाय कर्मपणे परिणामवो ते अजीव क्रिया. तिहां जीव क्रिया ना बे भेद कह्या – सम्यक्त्व क्रिया. मिथ्यात्व क्रिया । सांची श्रद्धा रूप जीब नों व्यापार ते सम्यक्त्व क्रिया. ऊधी श्रद्धा रूप जीव नों व्यापार ते मिथ्यात्व क्रिया । इहां पिण सम्यक्त्व अनें मिथ्यात्व विहूं नें जीव कह्या । ए मिथ्यात्व क्रिया ते मिथ्यात्व आश्रव छै ते पिण जीव छै । अनें सम्यक्त्व क्रिया श्रद्धा रूप सम्वर ते पिण जीव छै । ए सम्यक्त्व अनें मिथ्यात्व जीव क्रिया ना भेद का ते माटे ए सम्यक्त्व अनें मिथ्यात्व जीव छे । अनें इरियावहि सम्पमें जीव क्रिया कहीजे जो अजीव क्रिया नें अजीव क्रिया कहे तो जीव क्रिया जीव क्रिया कहिणी । जो अजीव नें अजीव क्रिया न कहे तो तिण रे लेखे जीव नेपिण जीव क्रिया न कहिणी । जीव क्रिया ना बे भेदां में सम्यक्त्व ने जीव कहे तो मिथ्यात्व में पिण जीव कहिणो । अनें मिथ्यात्व क्रिया नें जीव न कहे तो सम्यक्त्व क्रिया नें पिण तिण रे लेखे जीव न कहिणो । ए तो पाधरो न्याय है ।
राय,
1
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आश्रवाऽधिकारः।
३११
इहां तो सम्यक्त्व. मिथयात्व. में चौड़े जीव कह्या छै ते माटे मिथयात्व आश्रव जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
तथा मिथयात्व.आश्रव किण में कही जे ते मिथयात्व नों लक्षण ठाणाङ्ग ठा. १० में कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छै।
दस विहे मिच्छत्ते प० तं० अधम्मे धम्म सन्ना धम्मे अधम्म सन्ना उम्मग्गे मग्गसन्ना मग्गे उम्मग्ग सन्ना अजीवेसु जीव सन्ना जीवेसु अजीव सन्ना असाहुसु साहु सन्ना साहुसु असाहु सन्ना अमुत्तेसु मुत्त सन्ना मुत्तेसु अमुत्त सन्ना ।
(ठाणाङ्ग ठा०१०)
द० दश प्रकारे मिथ्यात्व. प० परूया. तं० ते कहे छै. अधर्म ने विषे धर्म नो संज्ञा. ध० धर्म में विषै अधर्म नी संज्ञा. ऊ. उन्मार्ग (खोटो मार्ग ) ने विषे मार्ग ( श्रेष्ठ मार्ग) नी संज्ञा. म० मार्ग में विषे उन्मार्ग नी संज्ञा. अ० अजीव ने विषे जीव नी संज्ञा. जी० जीव में विषे अजीव नी संज्ञा. अ० असाधु ने विषे साधु नी संज्ञा. सा० साधु में विषे असाधु नी संज्ञा. मु० मुक्त ने विषे अमुक्त नी संज्ञा. अ० अमुक्त ने विषे मुक्त नी संज्ञा. ते मिथ्यात्व.
अथ इहां दश प्रकार मिथयात्व कह्यो-तिहां धर्म ने अधर्म श्रद्धे तो मिथयात्व विपरीत बुद्धि तेहनें मिथयात्व कह्यो। इम दसूइ बोल ऊधा श्रद्धे ते ऊधी श्रद्धारूप व्यापार जीवनों छै. ते माटे ऊधो श्रद्ध ते मिथयात्व नों लक्षण कह्यो। ते मिथयात्व आश्रव जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
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३१२
भ्रम विध्वंसनम् ।
.
यथा भगवती श० १७ उ० २ कह्यो ते पाठ लिखिये छै।
एवं खलु पाणातिवाते जाव मिच्छा दंसण सल्ले वट्टमाणे सच्चेव जीवे. सच्चेव जीवाया.
( भगवती श० १७ उ०२)
ए० एम ख. निश्चय. पा० प्राणातिपात ने विषे. जा० यावत. मिथ्या दर्शन शल्य ने विपे. व० वर्त्ततां थकां. स० तेहज. वे निश्चय. जी. जीव. स० ते हीज जीवात्मा.
अथ इहां जे प्राणातिपातादिक १८ पाप में वर्ते ते हीज जीव अने ते होज जीवात्मा कही जे तो १८ पाप में वत्त ते हीज आश्रव छै। मिथया दर्शन में वर्ते ते मिथयात्व आश्रव छै। अने जे अनेरा पाप में वर्ते ते अनेरा आश्रव छै। जे प्राणातिपात. मृषावाद. अदत्तादान. मैथुन. परिग्रह. में वर्ते ते अशुभ योग आश्रय छै। ए पिण जीव छै । क्रोध. मान. माया. लोभ. में वत्तें ते कषाय आश्रय छै. ते पिण जीव छै। इहां भाव कषाय. भाव योग. ते तो जीव छै। द्रव्य कषाय. द्रव्य योग. ते तो पुद्गल छै। कषाय ने अनें योग में आश्रव कह्या। ते भाव कषाय भाव योग आश्री कह्या, पिण द्रव्य कषाय द्रव्य योग ने आश्रव न कही जे! डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे--कषाय योग ने अरुपी तथा जीव किहां कह्यो छै, तथा भावे योग किहां कह्या छै। इम कहे तेहनों उत्तर–जे ठाणाङ्ग ठा० १० में जीव परिणामी रा तथा अजीव परिणामी रा दश दश भेद कह्या छै ते पाठ लिखिये छ।
दस विहे जीव परिणामे प० तं० गइ परिणामे इंदिय परिणामे. कसाय परिणामे. लेस्सा परिणामे. जोग परिणामे.
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भाश्रवाधिकारः।
उपभोग परिणामे. नाण परिणामे. दंसण परिणामे. चरित्त परिणामे वेद परिणामे ॥१६॥
दस विहे अजीव परिणामे प० त० बंधण परिणामे गइ परिणामे. संठाण परिणामे. भेद परिणामे. वन्न परिणामे. गंधफास परिणामे. अगरुय लहुय परिणामे. सद्द परिणामे. ॥१७॥
गणाजा . १२
६० देश प्रकारे जीव ना परिणाम परूप्या छै. से कहे छै. ग० गति परिणाम ते ४ गति. १० इन्द्रिय परिणाम ते ५ इन्द्रिय. क० कषाय परिणाम ते ४ कषाय. ले लेश्या परिणाम ते । लेण्या. जो० योग परिणाम ते योग ३ उ० उपयोग परिणाम ते उपयोग २ ना ज्ञान परिणाम ते ५. द. दर्शन ते ३. चरित्न परिणाम ते ५ वे वेद परिणाम ते ३ वेद ॥१६॥
६. दश प्रकारे. अ० अजीव परिणाम परूप्या. तं० ते कहे छै. वं० 'वंध परिणाम १. ग. गति परिणाम २. सं० संस्थान परिणाम ३. भे० भेद परिणाम ४ व० वर्ण परिणाम ५ २० रस परिणाम ६ गन्ध परिणाम ७ स्पर्श परिणाम. ८ अगुरु लघु परिणाम : शब्द परिणाम १०.
अथ इहां जीव परिणामी रा १० भेद कह्या-तिहां गति परिणामी रा ४ भेद नरक गति. तिर्यश्च गति. मनुष्य गति. देव गति. ए भाब गति जीव परिणामी छै । अमें नाम गति तथा कर्म नी ६३ प्रकृति में पिण गति कही ते द्रव्य गति छै। ते जीव परिणामी में नहीं। (१) इन्द्रिय परिणामी ते पिण भाव इन्द्रिय जीव परिणामी छै. द्रव्य इन्द्रिय जीव नहीं (२) कषाय परिणामी ते पिण भावे कषाय जीव परिणामी छै। द्रव्य कषाय मोहणी री प्रकृति ते तो अजीव छै। (३) लेश्या परिणामी ते पिण भाव लेश्या ते जीव रा परिणाम ते माटे जीव परिणामी छै। द्रव्य लेश्या ते तो अष्टस्पर्शी पुद्गल छै। (४) योग परिणामी ते भाब योग जीव ना परिणाम ते मारे जीव परिणामी छै। अने द्रव्य योग पुद्गल छै. जीव परिणामी नहीं (५) उपयोग ६ ज्ञान ७ दर्शन ८ चारित्र ए तो प्रत्यक्ष जीव ना परिणाम ते भणी जीव परिणामी छै। वेद परिणामी ते पिण भाव वेद
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भ्रम विध्वंसनम् ।
ते जीब ना परिणाम ते माटे जीव परिणामी छै ।
द्रव्य वेद मोहनी री प्रकृति ते
तो
।
पुद्गल ਡੈ । ते जीव परिणामी में नहीं ॥१०॥ इहां तो गति परिणामी ते भावे गति में जीव कही. भाव इन्द्रिय भाव कषाय, भाव योग. भाव वेद. ए सर्व जीव ना परिणाम छे । प कषाय परिणामी ते कषाय आश्रव छै । योग परिणामी ते योग आश्रव छै । ते माटे काय आश्रव. योग आश्रव. ते जीव छै । इहां कोई कहे भाव कषाय भाव योग तो इहां नहीं. समचे कषाय परिणामी, योग परिणामी, कह्या छै । इम कहे तेहनों उत्तर - - इहाँ तो लेश्या पिण समचे कही छै । ए द्रव्य लेश्या छै के भाव लेश्या छै द्रव्य लेश्या तो पुद्गल अष्टस्पर्शी भगवती श० १२ उ० ५ कही छै । ते तो जीव परिणामी में आवे नहीं । ते भणी ए भाव लेश्या छै । वली गति इन्द्रिय वेद परिणामी ए पिण समचे कह्या - पिण द्रव्य गति. द्रव्य इन्द्रिय द्रव्य वेद. तो पुद्गल छै, ते पिण जीव परिणामी नहीं । तिम कषाय परिणामी, योग : परिणामी कह्या ते भाव कषाय, अने भाव योग छै । अनें कषाय परिणामी योग परिणामी नें अजीब कहे तो तिणरे लेखे उपयोग परिणामी ज्ञान परिणामी दर्शन परिणामी, चारित्र परिणामी, पिण अजीव कहिणा । अनें योग. उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, परिणामी नें जीव कहे तो कषाय परिणामी योग परिणामी, नें पिण जीव कहिणा । श्री तीर्थङ्करे तो ए दसूंइ जीव परिणामी का | ते माटे ए दसूं जीव है । तथा वली अजीव परिणामी रा दश भेदा में वर्ण, गन्ध रस. स्पर्श. परिणामी कद्या. त्याने अजीव कहे तो काय परिणामी, योग परिणामी, नें जीव परिणामी कला, त्यांत जीव कहिणा । अनें जीव परिणामी ने जीवन कहे तो तिरे लेखे अजीव परिणामी नें अजीव न कहिणा । ए तो प्रत्यक्ष जीव परिणामी १० भेद जीव छै । इण न्याय कषाय आश्रव. योग आश्रव ने जीव कही जे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण |
३१४
तथा भगवती श० २२ ३० १० आठ आत्मा कही । तिहां पिण कवाय आत्मा. योग आत्मा. कही है। ते पाठ लिखिये छै ।
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आश्रवाऽधिकारः ।
कइ विहाणं भंते आता पण्णत्ता, गोयमा ! अद्भुविहा आता पण्णत्ता, तं जहा -दवियाता कसायाता, जोगाया. उवओोगाया. गाणात्ता. दंसणाया चरिताया. वीरि
याता ॥१॥
( भगवती श० १२ उ०१० )
३१५
० तले प्रकारे. भ० हे भगवन्त ! श्रा० आत्मा प० परूप्या. गो० हे गौतम । श्र० आठ प्रकारे आत्मा परूप्या तं ते कहे छै. द० द्रव्यात्मा. क० कपायात्मा. जो० योगात्मा. उ० उपयोगात्मा. गा० ज्ञानात्मा. दं० दर्शनात्मा च चरित्रात्मा वी० वीर्यात्मा.
1
अथ अठे आठ आत्मा में कषाय आत्मा अनें योग आत्मा कही छै कषाय आत्मा कषाय आश्रव छै । योग आत्मा योग आश्रव छै । ए आठु ई आत्मा जीव छै । कोई कषाय आत्मा ने अजीव कहे तो तिण रे लेखे ज्ञान. दर्शन. आत्मा ने पिण अजीव कहिणी । अनें उपयोग आत्मा. ज्ञान आत्मा. दर्शन आत्मा में जीव कहे तो कषाय आत्मा. योग आत्मा र्ने पिण जीव कहिणी । ए तो आ इ आत्मा जीव छै । ते माटे कषाय. अनें. योग आत्मा कही । ते भाव कषाय. भावयोग. नें का छै । ते भाव कषाय तो कषाय आश्रव छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण ।
तथा अनुयोग द्वार सूत्र में कषाय अनें योग ने जीव कहाा छ । ते पाठ लिखिये छै ।
से किं तं उदइए. उदइये दुविहे पण्णत्ते, तं जहा उदइए. उदय निफन्नेय से किं तं उदइए. उदइए अट्टह कम्म पगडीणं उदइएां से तं उदइए । से किं तं उदय
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भ्रम विध्वंसमम्।
निष्फन्ने उदय निफरणे दुविहे पणते तंजहा—जीवोदय निष्फन्नेय. अजीवोदय निष्फन्नेय। से किं तं जीवोदय निष्फन्नेय. जीवोदय निष्फन्ने अणेग विहे पण्णत्ते तंजहानेरइए तिरिक्ख जोणिए. मणुस्से, देवे, पुढवी काइए जाव तस काइए कोह कसाइए जाव लोह कसाइए इत्थीवेदए पुरिस वेदए णपुंसक वेदए. कण्हलेस्सेए जाव सुक्कलेस्से मिच्छादिदी अविरए. असन्नी. अण्णाणी. आहारी. छउमत्थे. संजोगी. संसारत्थे. असिद्धे. अकेवली से तं जीवोदय निष्फन्ने। से किं तं अजीवोदय निष्फन्ने. अजीवोदय निप्फन्ने अणेगविहे पण्णत्ते. तंजहा–ओरालिय सरीरे ओरालिय सरीरप्पयोग परिणामियं वा दव्वं, एवं वेउब्बियं वा सरीरं. बेउब्धिय सरीरप्पोग परिणामियं वा दवं एवं आहारग सरीरं तेग सरीरं कम्म सरीरं च भारिणयव्वं, पभोग परिणामिए वरणे. गंधे. रसे. फासे. से तं अजीवोदय नि फन्ने। से तं उदय निष्फन्ने से तं उदइए नामे ॥ ११२ ॥
( अनुयोग द्वार।
से हिपं. कि० स्यू. त० ते. उ० उदयिक नाम. उ० उदयिक नाम. दु. वे प्रकारे. प० परूप्या. तं तं कहे छै. उ० उदय १ उदय करी नीपनों ते उदय निधन्ने. से. ते कोण उदय. त. श्रा० अाठ कर्म नी प्रकृति नी. उ० उदय. से० ते. उ० उदय कहिए. से ते कि० कोण. उ० उदम निष्पन. उदय निष्पन्न बे प्रकारे परूप्यो. तं ते कहे छै. जी० जीवोदय निष्पन्न. प.
ने जीवोदय निष्पन्न. से० ते कि० कोण. जी जीवोदय निष्पन्न जीवोदय निष्पन्न ते. अ० अनेक प्रकारे परूया तं० ते कहे छै. णे० नारकी पगु. ति तियं च पशु. द. देवता पणु. पु० प्रथिवी काय पा. जा. यावत. त० बस काय पण. को क्रोधादिक ४ कषाय. क. कृष्णा
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भश्रवाऽधिकारः ।
दिक ६ लेश्या इ० स्त्री वेद. पु० पुरुष वेद. ० नपुंसक वेद. मि० मिथ्यादृष्टि. अ० श्रमती. अ० असंशी. श्र० अज्ञानी. श्र० श्राहारिक सं० सांसारिक पणु. ६० छद्मस्थ, अ० श्रसिद्धपणु. अ० श्रवतो. सं० संयोगो. से० एतले जीवोदयनिष्पन्न कला. से. ते कौण प्रजीवोदय निष्पन्न. जीवोदय निष्पन्न ते. अ० अनेक प्रकारे परूप्या तं ते कहे है उ० औदारिक शरीर. उ० ॐ० अथवा औदारिक शरीर ने प० प्रयोगे व्यापार परिणम जे द्रव्य वर्णादिक. इम वैक्रिय शरीर वे प्रकारे. श्राहारिक शरीर बे प्रकारे ते० तैजस शरीर बे प्रकारे कार्मण्य शरीर बे प्रकारे व० वर्ण गं० गंध. रस स्पर्श से० एतले अजीवोदय निष्पन्न. से० ते उदय निष्पन्न. से ० ते.
उदयिक नाम.
३१७
अथ इहां उदयरा २ भेद कह्या - उदय. अनें उदय निष्पन्न. उदय ते ८ कर्म नी प्रकृति नो उदयः अनें उदय निष्पन्न रा २ भेद. जीव उदय निष्पन्न. अनें अजीवोदय निष्पन्न | तिहां जीव उदय निष्पन्न रा ३३ बोल कह्या । अजीव उदय निष्पन्न रा ३० वोल कह्या । तिहां जीव उदय निष्पन्न रा ३३ वोल ते जीव छै । तिण में ६ लेश्या कही छै । ते भावे लेश्या छै 1 च्यार कषाय का ते कषाय
आश्रव छै, ए भाव कषाय छै । वली मिथ्यादृष्टि कह्यो ते पिण मिथ्यात्व आश्रव
संयोगी कह्यो ते योग आश्रव छै ए तेती -
छै
1 अती को ते अव्रत आश्रव छै
।
।
सुंइ वोलां ने जीव उदय निष्पन्न कह्या उदय निष्पन्न रा ३३ भेदा नें जीव न कहे
ते माटे तेतीसुंइ जीव है । अनें जे जीव तो तिण रे लेखे अजीव उदय निष्पन्न
३० भेदां ने अजीव न कहिणा । इहां तो चौड़े ४ कषाय. मिथ्यादृष्टि अव्रत. योग यां सर्व जीव कह्या छै ते माटे सर्व आश्रव छै । इण न्याय आश्रव जीव है। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल संपूर्ण ।
तथा भगवती श० १२ उ० ५ उत्थान. कर्म. वल. वीर्य. पुरुषाकार पराक्रम. ने अरूपी कह्या छे । पाठ लिखिये के 1
ग्रह
यह भंते! उट्ठाणे, कम्मे वले विरिए पुरिसक्कार परकनए सेणं कति वराणे तं चेव जाव अफासे पण्णत्ते ।
( भगवती ० १२ उ०५ )
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३१८
भ्रम विध्वंसनम् ।
० अथ भ० हे भगवन्त ! उ० उत्थान क० कर्म. व० वल. वि० वीर्य पु० पुरुषाकार पराक्रम. ए मा केतला वर्ण तं० ते. निश्चय. जा० यावत् अ० वर्ण गन्ध. रहित.
रस स्पर्श तेणे
छै ।
अथ इहां. उत्थान. कर्म, बल. वीर्य पुरुषाकार पराक्रम. ने अरूपी कह्या अने' उत्थान. कर्म. वल. वीर्य. पुरुषाकार पराक्रम. फोडवे तेहिज भाव योग अनें भाव योग ने आश्रव कही जे । ते माटे ए योग आश्रव अरूपी छै डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
छै
I
1
इति बोल सम्पूर्ण ।
ह
तथा केतला एक कहे-भाव कषाय किहां कह्यो छै । तेहनों उत्तरअनुयोग द्वार में १० नाम कह्या छै । तिहां संयोग नाम ४ प्रकारे कह्या. ते पाठ लिखिये छै ।
•
से किं ते संजोगेणं, संजोगेणं चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा --- दध्ब संजोगे. खेत्त संजोगे. काल संजोगे. भाव संजोगे से किं तं दब संजोगे, दब संजोगे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा --- सचित्ते अचित्ते, मीसए । से किं तं सचित्ते, सचित्ते गोमिहे गोहिं पसूहिए महिसीए, उरणीहि उरणिए उट्ठीहिं उट्टिवाले सेतं सचित्तं । से किंतं अचित्ते, अचित्ते छत्ते छत्ती, दंडे दंडी, पडेणं, पड़ी घडे घडी सेतं चित्ते । से किं तं मीसए, मीसए हलेणं हालीए सगडें सागडिए रहेण रहिए. नावाए नावीए, से तं दव्व संजोगे ॥ १२६ ॥ से किं तं खेत्त संजोगे, खेत्त संजोगे. भरहेरवए,
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आश्रवाऽधिकारः ।
३१६
tere, farmar हरिवासे, रम्मगवालए, देवकुरुए, उत्तर for youfवदेह अवर विदेहए अहवा मागहए, मालवए. सोरट्टए मरहट्टए कुकणए कोसलए, सेतं खेत्तसंजोगे ॥ १३० ॥ से किं तं काल संजोगे, काल संजोगे सुसमा - सुसमए, सुसमए सुसमदुसमए, दुसमसुसमए, दुसमए. दुसमदुसमए अहवा पावसए, वासारत्तए, सारदए हेमंतए. वसंत गिम्हाए सेतं काल संजोगे ॥ १३१ ॥ से किं तं भाव संजोगे, भाव संजोगे दुविहे पण्णत्ते, तंजा· -- पसत्थेय. अपसत्थेय से किंतं पसत्थे पसत्थे गाणं गाणी दंसणेणं दंसणी चरिलेां चरिती से तं पसत्थे । से किं तं अपसत्थे अपसत्थे कोहेण कोही माणेण माणी. मायाए मायी लोभे लोभी सेतं अपसत्थे से तं भाव संजोगे सेतं
संजोगेणं ॥ १३३॥
•
( अनुयोग द्वार
से० ते. कि० कौया. सं० संयोगी नाम सं० संयोग ४ प्रकारे परूया. तं० तं कहे है. द० द्रव्य संयोग. खे० क्षेत्र संयोग का० काल संयोग भा० भाव संयोग से० ते किं० कौया. ० द्रव्य संयोग. ते कहे है. द० द्रव्य संयोग. ति० तीन प्रकार रा. प० परूप्या. तं ते कहे . सः सचित्त. अ० अ० अचित्त. मिश्र से० ते. कि० कौण सचित्त, ते कहे है. गो० जेणें करें गायां है. तेणें गोमान् कहे है. प० पशु करी पशुवन्त महिषी करो महिषीवन्त उ० मेषादि करी मेषादिवन्त. उ० उष्ट्र करी उष्ट्रवन्त ते सचित्त जाणवा. से० ते. कि० कौण. श्रचित्त ते क छे. छत्रे करो. छत्री दं० दंडे करी. दंडी. प० वस्त्रे करी वस्त्री व घंटे करी. घटी से० ते. अवित्त जाणवा. से० ते कि० कौण मिश्र ते कहे है. मिश्र हले करी हाली. श० शकटे करी शाकटी २० रथे करी रथी. ना० नावा करो नाविक से० ते द्रव्य संयोग ॥ १२६ ॥ से० ते. fio कौण क्षेत्र संयोग. ते कहे है. क्षेत्र संयोग. भ० भरत क्षेत्रे रहे ते भारती. एणीपरे. एरखती heart. एरणवी. हरिवासी रम्यकवासी देव कुरुक. उत्तर कुरूक पूर्व विदेही, मागधी मां
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भ्रम विध्वंसनम् ।
-
लगी. सौराष्ट्री. महाराष्ट्री. कोकणी. कौशली. से० ते. क्षेत्र संयोग कह्या ॥ १३० ॥ से० ते. कि० कोण. का० काल संयोग. सुषमासुषमी. सुषमी. सुषमदुषमी. दुषमासुसमी. दुषमी. दुषम दुषमी. अ० अथवा प्रावृट् ऋतु में विषे जन्म थयो तेहनों तेहनें. पाउसी. इम. वर्षाती. शरदो. हेमन्ती. वसन्ती ग्रीष्मी से० ते. का० काल संयोग कह्या. ॥ १३० ॥ से० ते. कि० कौन भाव संयोग. निष्पन्न नाम भाव संयोगिक. ते. दु० बे प्रकारे. प० परूप्या. तं० ते कहे है. प० प्रशस्त गुण ने सयोगे नाम. अ. अप्रशस्त गुण ने संयोग नाम. से० ते. कि० कोण. ५० प्रशस्त भाव ने संयोग नाम ते ना० ज्ञान छै जेहनें तेहनें ज्ञानी. ८० दर्शने करी दर्शनी. च० चरित्रे करी चरित्री. से० ते. कि० कौण. अप्रशस्त भाव संयोग. ते क्रोधे करी क्रोधी. माने करी मानी. मायाई करी मायी. लोभे करी लोभी. से. ते एतले अप्रशस्त भाव स योग कह्यो. से० एतले भाव संयोग कह्यो. से० ते सयोग रा नाम कह्या ॥१३२ ॥
अथ इहां चार प्रकार ना संयोगिक नाम कह्या-तिहां द्रव्य संयोग ते छत्र ने संयोगे छत्री, इत्यादिक, क्षेत्र संयोग, ते मगध देश ना ते मागध इत्या. दिक क्षेत्र संयोग, काल संयोग ते प्रथम आरा नों जन्मे ते सुषमासुषमी कहिये । अनें भाव संयोग जे ज्ञानादिक ना भला भाव ने संयोगे तथा क्रोधादिक माठा भाव ने संयोग नाम ते भाव संयोग कह्या। तिहां भाव क्रोधादिक ने संयोगे क्रोधो. मानी. मायी. लोभी. कह्यो, ते माटे ए ज्ञानादिक ने भाव कह्या ते जीव छै। तिम भाव क्रोधादिक पिण जीव छै। एतला भाव क्रोधादिक ४ कह्या, ते जीव रा भाव छै ते कषाय आश्रय छै। ते माटे कषाय आश्रव ने जीव कहीजे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १० बोल सम्पूर्ण।
तथा वली अनुयोग द्वार में भाव लाभ कह्या, ते पाठ लिखिये छ।
से किं तं भावाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आगम ओय. नो आगगोय. से किं तं आगमतो भावाए आगमतो भावाए जाणए, उबऊत्ते से तं आगमतो भावाए। से
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आश्रवाऽधिकारः ।
किं तं नो आगमतो भावाए. नो आगमतो भावाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पसत्ये. अप्पसत्थे से किं तं पसत्थे पसत्थे तिविहे पत्ते तं जहा गाणाए. दंसणाए चरित्ताए. से तं पसत्थे से किं तं अपत्ये अपत्ये चव्विहे पत्ते, तं जहा कोहाए मारणाए मायाए लोभाए से तं अप्पसत्थे । सं तं नो आगमतो भावाए. से तं भावाए. स ते आए ॥१४॥
(अनुयोगद्वार
३२१
सेते कि कौरा
भाग भाव लाभ ते कहे . भावभाव लाभ दुवे प्रकार नों. प० परूप्पोतं ते कहे है। t ० आगम सू. अ. नो० नो आगम सू. ते कि कोण श्रा आगम सू भाव लाभ. ते कहे है. आ० ग्रागम सूं भाव लाभ जे. जा० जाणी ने उपयोग सहित सूत्र पढ़. सेते. प्रा० आगम सू भाव लाभ. से ० ते. कि कौया नो नो श्रागम भात्र लाभ ते कहे . नो नो आगम सु भाव लाभ दुबे प्रकार नों के पर प्रशस्त नों लाभ स्नो लभसे ते कौण प० प्रशस्ता वस्तु नो लाभ ते कहे हैं. ज्ञान न लाभ दर्शन नों लाभ च चारित्र न लाभ से० ते एतले प्रशस्त लाभ कयो से० ते. कौण. प्रशस्त वस्तु नों लाभ को ० क्रोध नों लाभ माः मान न लाभ मा० माया न लाभ लो- लोभ नों लाभ. ०ते. एतले श्रशस्त वस्तु नो लाभ कयो । से० ते भाव लाभ ोते. लाभ
अथ इहां भाव लाभ रा २ भेद कया । प्रशस्त भाव नो लाभ ते ज्ञान. दर्शन. चारित्र, नों अनें अप्रशस्त माठा भाव न लाभ, क्रोध, मान, माया, लोभ, नों लाभ इहां कोधादिक में भाव लाभ कहाा छै । ते माटे ए भाव क्रोधादिक नें भाव कषाय कहीजे, ते भाव कवाय ने कवाय आश्रव कहीजे । तथा अनुयोग द्वार में इम कह्यो “सावज जोग विरह ते सावद्य : योग थी निवर्त्ते ते सामायक । इहां योगां नें सावद्य कह्या । अनें अजीव नें तो सावद्य पिणन कहीजे निरवद्य पिणन कहीजे । सावद्य. निरवद्य तो जीव नें इम कहीजे । इहां योगां ने सावद्य कह्या ते, माटे ए भाव योग जीव है । अनें योग आश्रव छै । इण न्याय योग आश्रव में जीव कहीजे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ११ बोल सम्पूर्णा ।
४१
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा उवाई में पिण "पडिसंलिणया' तप कह्यो-तिहां एहवा पाठ कह्या छ । लिखिये छै ।
३२२
से किं तं मण जोग पडिसंलिण्या, मग जोग पडिसंलिया. अकुसल मण निरोधोवा. कुसल मण उदरिणं वा सेतं मरण जोग पडिसंलिया ।
(वाई)
से० तं कि कौण मःमन योग मन नो व्यापार तेहनों अतिशय स्यूं सं० संलीनता. संवरिवो अकुशल मन तेहनों नि० निरोध संधिवो कुः कुशल भलो जे मन तेहनी उदीरणा प्रवर्त्ताविवो से ते मन जोग पड़िसंलियाया
अथ इहां अकुशल मन ते माठा मन ने रूधवो कह्यो । कुशल मन प्रवतवणो कह्यो । इम वचन पिण कह्यो । अकुशल मन रुवो कह्यो । ते अजीव
।
छै ।
किम रू. पिए तो जोव छै । अकुशल मन ते भावे मन रो योग छै । तेहनें रूवो कह्यो । कुशल मन ते पिण भलो भाव मन योग प्रवर्त्ताविवो कह्यो । अजीव नो कुशल अकुशल पण किम हुवे | ए कुशल योग नों उदीरखो ते भाव यांग छै. ते जीव छै । ए योग आश्रव छै आश्रव जीव ना परिणाम छे । ते घणे संक्षेप थी कहं छै। ठाणाङ्ग ठा० २ उ० १ जीव क्रिया ना २ भेद कह्या । सम्यक्त्व क्रिया. मिथ्यात्व क्रिया. कही । मिथ्यात्व क्रिया ते मिथ्यात्व आश्रव छै । तथा भगवती श० १२ उ० ५ मिथ्यादृष्टि अनें ६ भाव लेश्या ने अरूपी कही । तथा भगवती श० १७३०२ अठारह पाप में वर्त्ते तेहने जीवात्मा कही । तथा भगवती श० १२० १० कषाय योगां नें आत्मा कही । तथा अनुयोग द्वार में ६ लेश्या ४ कपाय. मिथ्यादृष्टि, अव्रती सयोगी ने जीव उदय निष्पन्न कह्या । तथा ठाणाङ्ग १० पायी मिथ्यादृष्टि, अब्रती सजोखी ने जीव उदय निष्पन्न ह्या । तथा ठाणाङ्ग ठा० १० कषाय अमें योग ने जीव परिणामी कह्या । तथा भगवती श० १२ उ० ५ उत्थान कर्म वल. वीर्य पुरुषाकार पराक्रम ने अरूपी कथा । तथा अनुयोग द्वार तथा आवश्यक में योगां ने सावद्य कया । तथा उचाई
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आश्रवाऽधिकारः ।
३२३
में कुशल मन वचन प्रवर्तावणो अकुशल मन वचन रूधवो कह्यो। तथा अनुयोग द्वारे क्रोधादिक ने भाव कह्यो। तथा ठाणाङ्ग ठा० ६ टीका में नवपदार्थ में ५ जीव ४ अजीव इम न्याय कह्यो। तथा पन्नवणा पद १५ अर्थ में द्रव्य मन भाव मन. कह्यो। तिहां नो इन्द्रिय नों अर्थावग्रह ते भाव मन ने कह्यो। तथा ठाणाङ्ग ठा० १ टीका में द्रव्ययोग कह्या । तथा भगवती श० १३ उ० १ दुव्य. मन. भाव मन कह्या। तथा उत्तराध्यन अ. ३४ गा० २१ पांच आश्रव ने कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या । इत्यादिक अनेक ठामे आश्रव ने जीव कह्यो. अरूपी कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे जो आश्रय जीव छै तो उत्तराध्ययन अ० १८ में कह्यो-मायइ झविया सवे' ए गधंभाली मुनि ध्यान ध्यावे करी खपायो छ आश्रव। जो आश्रव जीव छै तो जीव ने किम खपावो इम कहे तेहनों उत्तरइहां आश्रव खपावे इम कह्यो ते खपावणो नाम मेटण रो छै। जे माठा परिणाम मेट्या कहो भावे खपाया कहो। अनुयोग द्वारे एहवो पाठ कह्यो ते लिखिये छै ।
से किं तं भावझवणा, भावझवणा दुविहा पण्णत्ता तं जहा आगमो. नो आगमओ। से किं तं आगमओ भावझवणा, आगमओ भावझवणा जाणए उवओ से तं आगमो भावझवणा से किं तं नो आगमओ भावझवणा, नो आगमओ भावझवण, दुविहा पण्णत्ता तं जहा पसत्याय अपसत्थाय से किं तं पसत्था, पसत्था चउविहा पण्णत्ता, तं जहा--कोह झवणा माणज्झवणा. मायाज्झवणा. लोभज्झवणा. से तं पसथा। से किं ते अपसत्था,
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३२४
भ्रम विध्वंसनम् ।
अपसत्था तिविहा पणगत्ता, तं जहा--णाणज्झवणा. दंसण ज्झवणा चरित्त उझवणा से तं अपसत्थो से तं नो आगमओ भावझवणा से त भाव उझवणा से त उह निष्फन्ने।
( अनुयोग द्वार)
से ते. कि कोण भा. भाव झपणा नपणा ते कहे है. भा. भाव झवणा दुवे प्रकार नी प० परूपी र ते तं कहे छ. श्राः अागम . नो नो अागम सं. सं० ते. कि कौण. श्रा० अागम सू भाव कवणा प्राः आगम सं भाव झवणा. जा जाणो में उपयोग युक्त सूत्र भणे. से० ते. अागम भाव झवणा कही है. से. ते कोण नो नो अागम सूं भाव झवणा नो. नो अागम स भाव झवणा दुःचे प्रकार नी प. परूपी तं ते कहे है प. प्रशस्त भाव नी क्षपणा. अ. अप्रशस्न भाव नी ज्ञपणा. से. ते कोण प्रशस्त ज्ञपणा. प० प्रशस्त क्षपणा ४ प्रकार नी. परूपो छ त त कह छै क्रोध ज्ञपणा. मान नपणा. माया नपणा. लोभ क्षपणा. से० ते प्रशस्त ज्ञपणा कही. से ते. कि० कोण अप्रशस्त क्षपणा. अ. अप्रशस्त क्षपणा ३ प्रकार नो परूपी है. तं ते कहे है ज्ञान क्षपणा दर्शन नपणा. चरित्र क्षपणा. सं. ते अप्रशस्त नपणा कही सः ते नो भागमो भाव नपणा. से. ते भाव नपणा कही.
अथ इहां झवणा ते खपावणा। तिहां प्रशस्त भले भावे करी क्रोध. मान, माया. लोभ. खपै. अने अप्रशस्त माठा भाव करी ज्ञान. दर्शन. चारित्र खपे. इम कह्यो। ते ज्ञान. दर्शन. चारित्र. तो निज गुण छै जीव छै। ते माठा भाव थी खपता कह्या ते खपे कहो भावे मिटे कहो। जे माठा भाव आयां ज्ञान खपे ते ज्ञान रहित हुवे , तेहनें ज्ञान खपे कहो। इमहिज दर्शन. चारित्र. खपे कह्यो। जिम माठा भाव थी ज्ञान. दर्शन. चारित्र. खपे पिण ज्ञानादिक अजीव नहीं, तिम भला भाव थी अशुभ आश्रव क्षपे कह्या पिण आश्रय अजीव नहीं। अने आश्रव खवावे ए पाठ रो नाम लेइ आश्रब ने अजीव कहे तो तिण रे लेखे ज्ञान. दर्शन चारित्र. पिण माठा भाव थी खपे इम कह्यां माटे ज्ञान. दर्शन चारित्र में पिण अजीव कहिणा। अनें ज्ञानादिक खपे कह्या तो पिण ज्ञानादिक ने अजीव न कहे तो आश्रव में खपावणो कह्यो--एहवो नाम लेई आश्रव में पिण अजीव न कहिणो। अनें आश्रव ने अजीव कहे तो सम्बर पिण तिण रे लेखे अजीव कहिणो अने'
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অথিৰাঘিাষ।
३२५
सम्बर में जीव कहे तो आश्रव ने पिण जीव कहिणो। डाहा हुवे तो विचरि जोइजो । ..
इति १३ बोल सम्पूर्गा ।
अथ आश्रव तो कर्मा ने ग्रहे--अने सम्बर कर्मा ने रोके कम आवा रा वारणा ते तो आश्रव छै. ते वारणा रू'धे ते संवर ॥ बेह' जीव छै। देश थी उनलो जीव निर्जरा ते पिण जीव छै। सर्व थकी उजलो जीव मोक्ष ते पिण जीव छै। पुण्य शुभ कर्म, पाप-अशुभ कर्म बंध ते शुभाशुभ कर्म कर्म, ने पुद्गल छै । ते अजीव छै । एहवो न्याय ठाणाङ्ग ठा० ६ बड़ा ठव्या में कहा । ते पाठ: लिखिये छ ।
नवसभावा पयत्था. प० तं० जीवा. अजीवा. पुन्न. पाव. आस्सवो. संवरो. निजरा. बंधो. मोकावा.
ठाणाङ्गया।
न० नव सदभाव परमार्थक पिण अपरमार्थक नहीं पदार्थ वस्तु तिहां जो सुख. दुःख. रो ज्ञान. उपयोग लक्षण ते जीव, अजीव तेहथी विपरीत पुः पुण्य शुभ प्रकृति रूप कर्म ते पुण्य. पा० तेहथी विपरीत कर्म ते पाप. प्रा. शुभाशुभ कम ग्रह ते अाश्रव. श्रावता नों निरोध ते सम्बर. ते गुप्तयादिके करी ने, निर्जरा ते विपाक थको अथवा तप करी न कम नों देश थकी खपाविवं प्राश्रये ग्रह्या कर्म नूं अात्मा सङ्घाती योग भलवो ते बंध मोः सकल कर्म ना क्षय थकी जीव ना पोता ना स्वरूप में वि रहिव ते मोक्ष जीवाजीव व्यतिर के पुराय पापादिक न हुई पुण्य पाप ए बेहूं कर्म छ. बंध ते पाप पुण्य नों रूप छै. अनं कम ते पुल नो परिणाम छै. पुद्गल ते अजोव है। आश्रय ते मिथ्या दर्शनादि जीव ना परिणाम छै. तं प्रात्मा न पुद्गल में विरह नो करणहार. आश्रव निरोध रूप ते सम्बर, ते देश थकी सर्व थकी प्रात्मा ना परिणाम निवृत्ति रूप ते निरा. ते जीव थकी कर्म झाटको उ जुदो करवं. पोता नो शक्ति तं मोक्ष. ते समस्त कर्म रहित. आत्मा ते भणी जीवाजीव पदार्थ ते सद्भाव कहिइ. "हज भणी इहां पूर्व कहयं जे लोक माहि छै. ते सर्व विहुं प्रकारे "संजहा जीवाचेव अजीवाचेव" इहां समचे विहूं पदार्थ कह्या, ते इहां विशेष थको. नव प्रकारे करी देखाड्या
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कह्या । संवर
अथ इहां आश्रव मिथ्या दर्शनादिक जीव ना परिणाम निर्जरा, मोक्ष, पिण जीव में घाल्या अनें पुण्य पाप बंध ने पुद्गल कह्या पुद्गल में अजीव कह्या । इहां तो प्रत्यक्ष नव पदार्थ में जीव संवर, निर्जरा, मोक्ष ने जीव कह्या । अजीव पुण्य पाप, बंध, नें अजीव कह्या छै । तेहनी टीका में पिण इम कह्यो । ते टीका लिखिये छै ।
३२६
नव सम्भावेत्यादि - सद्भावेन परमार्थेना ऽ नुपचारेणे त्यर्थः । पदार्थ : वस्तूनि, सद्भाव पदार्था स्तद्यथा- - जीवा : सुख दुःख ज्ञानोपयोग लक्षणाः । अजीवा स्तद्विपरीताः । पुण्यं - शुभ प्रकृति रूपं कर्म । पापं - तद्विपरीत कर्मै । श्रूप गृह्यते कर्मा ऽ नेन इत्याश्रवः शुभाशुभ कर्मादान हेतु रिति भावः । [सम्बर : - - - श्रव निरोधो गुप्त्यादिभिः । निर्जरा विपाकात्तपसा वा कर्मणां देशतः क्षरणा । वन्ध: - - - श्रवैरात्तस्य कर्मण आत्मना संयोमः । मोक्षः -- कृत्स्नकर्म क्षयात् आत्मनः स्वात्मन्य वस्थान मिति ।
ननु जीवा ऽ जीव व्यतिरिक्ताः पुण्यादयो न सन्ति, तथा युज्यमानत्वात् । तथाहि पुण्य पापे कर्मणी, बन्धोपि तदात्मक एव, कर्म कर्म पुद्गल परिणामः पुलाचा जीवा इति । श्रवस्तु मिथ्या दर्शनादि रूपः परिणामो जीवस्य, स चात्मानं. पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः । [सम्बरोप व निरोध लक्षणो देश सर्व भेद आत्मनः परिणामो निवृत्ति रूपः । निर्जरा तु कर्म परिशाटो जीवः कर्मणां यत्पार्थक्य मापादयति स्वशक्तया । मोक्षोऽपि आत्मा समस्त कर्मविरहित इति तस्मात् जीवाऽजीवौ सद्भाव पदार्थाविति वक्तव्यम् अतएवोक मिहैव "जदत्थिचणं लोए तं संव्वं दुप्पडोयारं तं जहा जीवाचेव अजीवा चैत्र" लोय सत्यमेतत् किन्तु द्वावेव जीवाजीव पदार्थों सामान्ये नोक्तौ Trade विशेषतो नववोक्तौ - इति"
अथ इहाँ टीका में पण आश्रव नें कर्म नो हेतु कह्यो - ते माटे आश्रव नें कर्म न कहीजे । वली आश्रव मिथ्या दर्शनादिक जीव ना परिणाम कह्या । वली
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आश्रवाऽधिकारः।
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सम्बर ने पिण निवृत्ति रूप आत्मा ना परिणाम कह्या। देश थकी जीव उजलो. देश की कर्म नों खपाविवो. ते निर्जरा कही। सर्व कर्म रहित :जीव ने मोक्ष कहिई। इम आश्रव. सम्बर. निर्जरा. मोक्ष. ४ जीव में घाल्या। अने पुण्य शुभ कर्म कह्यो, पाप अशुभ कर्म कह्यो, बन्ध ते शुभाशुभ कर्म कह्यो। कर्म-पुद्गल कह्या। पुद्गल ने अजीव कह्या। इम पुण्य. पाप. बन्ध. नें अजीव में घाल्या। इणन्याय नव पदार्था' में ५ जीव. ४ अजीव. कहीजे। पाठ में पिण अनेक ठामे आश्रय सम्बर, निर्जरा. मोक्ष. ने जीव कह्या। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १४ बोल सम्पूर्ण।
इति आश्रवाऽधिकारः।
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अथ संवराऽधिकारः।
केतला एक अज्ञानी संवर ने अजीव कहे छ। अनें संवर ने तो घणे ठामे सूत्र में जीव कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छै !
पंच संवर दारा प० तं सम्मत्तं १ विरइ २ अप्पमादे ३ अकसाया ४ अजागया ५ ।
(ठाणाङ्ग ठा०५ उ०० तथा समवायाङ्ग)
श्राप पांच सः सबर ते नोव रूप तनाय ने विप कम रूप जल ना अागमन रूंधवो. दातहना वारणा नो पर वार गा ते रूंधवा नों उपआय ५० परूया. तं ते कहे है. स. सम्यक्व पणे करी न रूमिथ्यात्व रूप पार ने वि. वितिर अप्रमाद ३ अ. अकषाय ४ अ. अजोग पणो'।
अथ अठे सम्यक्त्व संवर सम्यग्दृष्टि शुद्ध श्रद्धा ने ऊधी श्रद्धण रा त्याग ॥१॥ व्रत ते सर्व चारित्र देश चारित्र रूप ॥२॥ अप्रमाद ते प्रमाद रहित ॥३॥ अकषाय ते उपशान्त कवाय ने तथा क्षीण कवाय ने हुई ॥ ४॥ अयोग ते मन वचन काया नों योग धे च उदमे गुणठाणे हुई ॥ ५ ॥
इहाँ सम्यक्त्व शुद्ध श्रद्धा ने ऊधो श्रद्धण रा त्याग, ते सम्यग्दृष्टि ने सम्यक्त्व सम्बर कह्यो। तथा टागाङ्ग ठा० २ उ० १ जीव किरिया दुविहा प० त० सम्मत्त किरिया. मिच्छ त किरिया.' इहां सम्यक्त्व मिथ्यात्व में जीव कह्यो। मिथ्यात्व क्रिया में मिथ्यात्य आश्रय, अनें सम्यक्त्व क्रिया ऊधो श्रद्धण रा त्याग. अनें शुद्ध श्रद्धा रूप सम्यक्त्व संवर कहीजे। इणन्याय सम्यक्त्व संवर जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
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संघराऽधिकारः ।
तथा उत्तराध्ययन अ० २८ गा० ११ में पहवो पाठ कह्यो । से लिखिये है ।
नाणं च दंसणं चंव, वीरियं उवगोय,
स धयार उजोओ
वराण रस गंध फासा,
३५६
,
४२
चरितं च तो तहा । एयं जीएस लकवणं ॥ ११॥
पहा छाया त वा ।
पुग्गलाणं तु लक् ॥१२॥
(उत्तराध्ययन ०२८० ११-१२
ना० ज्ञान ने दं० दर्शन. चे० निश्चय च० चारित्र अनं तः तप तः तिमज वी० वीर्य सामर्थ्य. उ० ज्ञान ना उपयोग. ए० पूर्वोक्त ज्ञानादिक. जो० जीव ना लगा है ॥ ११॥ स० शब्द. अंधकार. उ० उद्योत रत्नादिक नों. प० प्रभा. कांति चन्द्रादिक नी. द्रा० शीतल छांहड़ी. त० ताप सूर्यादिक ना. ० वख २० रस मधुरादिक. गं० सुगन्ध दुर्गन्ध फा० पु० पुल नरें लक्षण है ।
अथ इहां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग में जीब ना लक्षण का | अ शब्द. अन्धकार. उद्योत प्रभा. छाया. तावड़ो वर्षा गन्ध. रस. स्पर्श. ए पुद्गल ना लक्षण कह्या । इहां चारित्र में जीव ना लक्षण कथा | अनें चारित्र तेही व्रत सम्वर छै । ते भणी सम्बर में पिण जीव ना लक्षण कह्या । भनें जीव ना लक्षण तो जीव छै । अनें जे कोई चारित्र में जीव ना लक्षण कहे पिण जीवन कहे । तोतिण रे लेख वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श ने पण पुद्गल ना लक्षण कह्या, ते भणी पुद्गल ना लक्षण कहिणा. पिण पुद्गल न कहिणा । अनें पुद्गल ना लक्षण में पुल कहे तो जीव ना लक्षण नें जीव कहिणा । तथा ज्ञान, दर्शन, उपयोग ने जीव ना लक्षण कह्या ए जीव है तो चारित्र में पिण जीव मा लक्षण aar aartta foण जीव है । सेतो चारित्र व्रत संवर है । ने' जीव कहीजे । डाहा हुने तो विचारि जोजो ।
इणन्याय संवर
इति २ बोलसंपूर्ण !
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भ्रम विध्वंसमम् ।
तथा अनुयोग द्वार में गुण प्रमाण ना भेद कह्या। जीव गुण प्रमाण, अजीव गुण प्रमाण, ते पाठ लिखिये छै ।
सं किं तं गुणप्पमाणे गुणप्पमाणे दुविहे. प० तं० जीव गुणप्पमाणे, से किं तं अजीव गुणप्पमाणे, अजीव गुणप्पमाणे पंच विहे पण्णत्ते, तं जहा--वरण गुणप्पमाणे. गंध गुणप्पमा. रस गुणप्पमाणे, फास गुणप्पमाणे, संठाण गुणप्पमा ।
( अनुयोग द्वार)
से ते. कि० कोण. गु० गुणप्रमाण, गु० गुण प्रमाण. ते दु० वे प्रकारे परूप्या. सं० ते कडे छ। जी० जीव गुण प्रमाण. भ० अजीव गुण प्रमाण. से० ते. कि कौण. म० अजीव गुण प्रमाण भ० अजीव गुण प्रमाण. पं० पांच प्रकारे परूप्या. तं० ते कहे छै. ब० वर्ण गुण प्रमाण. ग गन्ध गुण प्रमाण. र० रस गुण प्रमाण. फा० स्पर्श गुण प्रमाण. सं स्थान गुण प्रमाण.
चली जीव गुण प्रमाण नो पाठ कहे छै ।
स किं नं जीव गुणप्पमाणे, जीव गुणप्पमाणे. तिविहे पएणत्ते तं जहा नाण गुणप्पमाणे. दंसण गुणप्पमाणे. चरित्त गुणप्पमाणे !
(अनुयोग द्वार.)
सोत. कि० कोण. जी० जीव गुण प्रमाण. जी• जीव गुण प्रमाण. ति निविधे पख्या . तं० ते कहे है. मा० ज्ञान गुण प्रमाण. दं० दर्शन गुण प्रमाण. चरित्र गुण प्रमाण.
अथ इहां बिहूं पाठों में ५ वर्ण २ गंध, ५ रस. ८ स्पर्श. ५ संस्थान में अजीघ गुण प्रमाण कह्या । अने ज्ञान, दर्शन, चारित्र. ने जोव गुण प्रमाण कह्या ।
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संवराऽधिकारः।
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तिण में चारित्र ते सम्बर छै। तेहनें पिण जीव गुण प्रमाण कहिई। अनें चारित्र में जीव गुण प्रमाण कहे पिण जीव न कहे तो तिण रे लेखे ज्ञान दर्शन में पिण जीव गुण प्रमाण कहिणा। पिण जीव न कहिणा। अने ज्ञान. दर्शन. ने' जीव कहे तो चारित्र ने पिण जीव कहिणो। तथा वर्णादिक ने अजीव गुण प्रमाण कह्या, तेहनें अजीव कहीजे। तो ज्ञान, दर्शन. चारित्र. ने जीव गुण प्रमाण कह्या, तेहने पिण जीव कहिए। ए तो पाधरो न्याय छै। तथा चारित्र. गुणप्रमाण ग भेद कह्या, तिहां पांच चारित्र रा नाम कही पछे कह्यो। "सेतं चरित गुणप्पमाणे. से तं जीव गुणप्पमाणे.” इम कह्यो ते माटे पांचू इ चारित्र जीव छै। ते चारित्र व्रत संवर छै। तथा ठाणाङ्ग ठा० १० कह्यो--"दसविहे जीव परिणाम प० त० गइ परिणामे. इन्द्रिय परिणामे. कसाय परिणामे. लेस परिणागे. जोग परिणामे. उवओग परिणामे, णाण परिणामे, देसण परिणामे, चरित्त परिणामे. वेय परिणामे.” इहां जीव परिणामी रा १० भेदां में ज्ञान दर्शन ने जीव परिणामी कह्या ते जीव छै। तिम चारित्र ने पिण जीव परिणामी कह्यो ते चारित्र पिण जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
सथा भगवती श० १ उ० ६ संवर ने आत्मा कही। ते पाठ लिखिये छ ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिज कालासवेसिय पुत्तं णाम अनगारे, जेणेव थेरा भगवन्तो तेणेव उवागच्छइ २ ता थेरं भगवं एवं वयासी थेरा सामाइयं ण याणंति थेरा सामाइयरस अटुं ण याणंति, थेरा पञ्चक्वाणं ण याणंति. धेरा पच्चक्खाणस्स अटुंण थाणंति. थेरा संयम ण याति. थेरा संजमस्स अटुं ण याणंति. थेरा संवरं ण याति प्रेस
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भ्रम विध्वंसनम्।
संवरसमा याणंति. थेरा विवेगं ण याणंति. थेरा विवेगरस अल रण याति. थेरा विउलग्गं ण याणंति. थेरा विउसग्गस्स अटुं सामालि. तरणं शेरा भगवंतो कालावसेविय पुत्तं अणणारं एवं बयासी जाणामो णं अजो सामाइयं. जाणामो रणं अजो लामाइयस्त अट्रं जाव जाणामो णं. घिउसग्गरस अट्रं। तब से कालासवेलिय पुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं क्यामी जइणं अजो तुब्भे जाणह सामाइयं जाणह सामाइयरस अटुं, जाव जारणह विउसग्गस्स अटुं, के भे अजो सामाइए के अं अज्जो सामाइयस्स अट्टे जाव के भे विउसग्गाल अतएवं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं क्यालो आयाणे अजो सामाइये, आयाणे अजो सामाइया . जाव विउसग्गस्स अट्ट ।
। भगवती श०१ उह।
शंकाले त तणं समये. पा० पार्श्वनाथ ना शिष्य. का० कालासर्वसिय पुत्र अणगार सार जमिडा. थे० श्री महावीर ना शिष्य ' है श्रुतवन्त छै. ते० तिहां. उ० पाये. श्रावी में. थास्थविर भगवन्त ने इम कहे. थे० स्थविर सामायिक समता भाव रूप में तुम्हे न जानता. थे. साम पणा थी स्थविर सामायिक अर्थ. नथी तुम्हे जाणता. थे० स्थविर पचक्खाण पौरसी प्रनुव तुम्हे नथी जाणता. थे. स्थविर पचक्खाण अर्थ प्राश्रव ने रूंधवं ते नथी जाणता. थे स्थविर संयम जाणता नथी. थे स्थविर संयम नों अर्थ नथी जाणता. थे स्थविर सम्बर में नया मागता. थे. स्थविर सम्बर नों अर्थ नथी जाणता. थे स्थविर विवेक नथी जाणता. थे रिर विवेक नों अर्थ नथी जाणता. थे स्थविर कायोत्सर्ग न करवू नथी जागता. थे० मदिर कायोत्सर्ग नूं अर्थ नथी जाणता. त तिवारे. थे. सथविर भगवन्त. का० कालासोसिय पुत्र मार ने ए. इम कहे. जा. जाणो इं है. अ.हे पाय ! सा० सामायिक. जा० जाणी इंछ अहे आर्य ! सामायिक नों अर्थ जा० यावत उ.2 जाणी इंछ. अहे प्रार्थ ! वि. कायान्स नों अर्थ . त तिवारे. का कालासोमिया पुत्र. अ अगार. थे० रातिर भगान्न न हम कहे. ज० जो अहे प्रार्यो ! तुम्हे जाणो छो साः सामायिक न
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संवराऽधिकारः।
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यावत्. जा० जाणो छो. वि० कायोत्सर्ग नूं अर्थ. के० कुण ते. अ० आर्य ! सामायिक. के. कुण ते अ० प्राय ! सामायिक नों अर्थ. जा० यावत. के० कुण भगवन् ! वि० कायोत्सर्ग नूं अर्थ. त तिवारे. ते. थे० स्थविर भगवान्. का० कालासवेसिय पुत्र नामे अणगार प्रते. ए. इम कहे. श्रा० म्हारी आत्मा ते सामायिक "जोत्रो गुण पड़िवन्नो ते यसस दवट्रिस सामाइयंति गरहामि निदामि अप्पाणं वोसरामि" इति वचनात, ए अभिप्राय जे सामायिकवन्त छांड्या छै क्रोधादिक ते किम निन्दा करे निन्दा ते द्वष , कारण छै. ए सामायक नों अर्थ. म्हारे पात्मा ते सामायिक नों अर्थ. ते जीव ज कम नों अण उपजाविवो जीव ना गुणपणा थी जीव ना प्रणजुदापणा थी यावत कायोत्सर्ग नूं अर्थ काय नूं घोसराविव ।
अथ इहां सामायिक पचक्खाण. संयम. संवर विवेक, कायोत्सर्ग ने आत्मा कही। तिहां संवर ने आत्मा कही। ते माटे संवर जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा प्राणातिपातादिक ना वैरमण ने अरूपी कह्या! ते पाठ लिखिये छ ।
अह भंते पाणाइवाय वेरमणे जाव परिगह बेरमणे. कोह विवेगे. जाव मिच्छा दंसण सल्लविवेगे एस कइवरण जाव कइ फासे पण्णत्ते, गोयमा! अवरणे अगंधे अरसे अफासे पण्णत्ते ॥७॥
(भगवती श.१२ उ०५)
अ अथ. भ भगवन्त ! पा० प्राणातिपात वेरमण. जोध हिसा थी निवर्त्तव यावत प० परिग्रह वेरम. को क्रोध नों विवेक. ते परित्याग यावत. मि. मिथ्या दर्शन शल्य विवेक, ते परित्याग एहमां केतला वर्ण. जा. यावत. के. केतला. फा० स्पर्श. ५० परूप्या. गोहे गौतम ! अ अवर्ण. अ. अगन्ध. भररा. अस्पर्श. प. परुया.
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३३४
भ्रम विध्वंसनम् ।
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-
vavvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv
अथ इहां १८ पाप नों वेरमण अरूपी कह्यो। ते १८ पाप नो वेरमण संवर छ। ते माटे संवर ने अरूपी कहीजे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा भगवती श० १८ उ० ४ कह्यो । ते पाठ लिखिये छ।
पाणाइवाय वेश्मणे जाव मिच्छा सण सल्ल विवेगे धम्मत्यिकाए. अधम्मत्थिकाए जाव परमाणु पोग्गले सेलेसि पडिवएणए अणगारे एएणं दुविहा जीव दवाय अजीव दवाय जीवाणं परिभोगत्ताए णो हव्वमागच्छंति. से तेणटेणं जाव णो हव्वमागच्छंति ।
( भगवती श०१८ उ०४)
पा० प्राणातिपात बेरमण ते व्रत रूप. जा. यावत. मि० मिथ्यादर्शन शल्य विधक. ध० धर्मास्तिकाय. अ० अधर्मास्तिकाय. जा० यावतू. ५० परमाणु पुद्गल. से० सेलेसी प्रतिपन्न. अ० अणगार ने ए० एतला माटे. दु० बे प्रकारे. जी० जीव व्य. अनें अजीव द्रव्य. जी० जीव में. प० परिभोग पणे नहीं श्रावे.
अथ इहाँ कह्यो-१८ पाप नो वेरमण धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय. आकाशास्तिकाय. अशरीरी जीव. परमाणु पुद्गल. सलेशी साधु. ए जीव पिण छै, अजीव पिण छै। पिण जीवां रे भोग न आवे तो जे धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय. परमाणु पुदगल ए अजीव छै। अने १८ पाप नों वेरमण अशरीरी जीव. सलेशी साधु. ए जीव द्रव्य छै । जे १८ पाप ना वेरमण ने अरूपी कह्यो , ते अजीव में तो आवे नहीं। इहां धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय थकी १८ पाप नों वेरमण न्यारो कह्यो ते माटे १८ पाप नों वेरमण मजीव अरूपी में आवे नहीं । ते भणी जीव द्रव्य छै. ते संवर छ । इणन्याय संघर
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संवराऽधिकारः ।
कह्या ।
छै I
जीव छे । तथा भगवती श० १२ उ० १० आठ आत्मा में चारित आत्मा पिण संवर छै। तथा अनुयोग द्वार में च्यार चारित्र क्षयोपशम निष्पन्न तथा प्रश्न व्याकरण अ० ६ दया ने निज गुण कही । ते त्याग रूप दबा संघर छै । तथा उत्तराध्ययन अ० २८ चारित्र से गुण कर्म रोकवा रो कह्यो । कर्मा ने रोके ते संवर जीव छै । अजीव किम रोके, तथा भगवती श० ६ उ० ३१ चारित्रावरणी ते आवरण जीव रे आडो छै अजीब भाडो जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट, चारित्र नी आराअजीव नी आराधना किम हुवे इत्यादिक इण न्याय संवर ने जीव कहीजे । डाहा हुवे
1
कह्यो, चारित्र आडो आवरण कह्यो । नहीं । तथा भगवती श० ८ उ० १० धना कही, ए आराधना जीव नी छै अनेक ठामे संवर ने अरूपी कह्यो । तो विचारि जोइजो |
1
इति ६ बोल सम्पूर्ण |
इति संवऽधिकारः ।
SE
३३५
कही ते
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अथ जीवभेदाधिकारः।
केतला एक अज्ञानी, भवन पति वाणव्यन्तर में अनें प्रथम नरक में जीव रा ३ भेद कहे सन्नी ( संज्ञी ) रो अपर्याप्त १ पर्याप्त २ अनें असन्नी पंचेन्द्रिय रो अपर्याप्तो ११ मो भेद. ३, ए तीन भेद कहे। वली सूत्र रो नाम लेवी कहे देवतामें सन्नी पिण कह्या, असन्नी पिण कह्या। ते माटे देवता ने असन्ना रोइ ११ मों भेद पावे। इम कहे तेहनों उत्तर--ए मारकी देवता में असन्नी मरी उपजे ते अपर्याप्त पणे विभंग अज्ञान न पाये, तेतला काल मात्र ते नेरइया नों असन्नी नाम छै। अनें विभङ्ग तथा अवधिज्ञान पावे तेहनो सन्नी नाम छै । ए तो संज्ञा आश्री सन्नी, असन्नी. कह्या। पिण जीव रा भेद आश्री न थी कह्या। ए अवधि. विभङ्ग दोनुं रहित नेरइया नों नाम तो असन्नी छै। पिण जीव रो भेद ११ मौ न थी। जीव रो भेद तो १३ मो छै। जिम पन्नवणा पद १५ उ० १ विशिष्ट अवधि ज्ञान रहित मनुष्य ने असन्नी भूत कह्या छै। ते पाठ लिखिये छ।
मणस्लाणं भंते ! ते नि जरा पोग्गले किं जाणंति एण पासंति आहारंति उदाहु ण जाणंति ण पासतिणं आहारेति गोयमा ! अत्ोगतियाणं जाणंति पासंति आहारति अत्ोगतिया ण जाणंति ण पासंति आहारति सेकेणगां भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगलिया जाणंति पासंति आहारति अत्भेगतिया ण जाणंति ण पासंति ण आहारेति गोपमा ! मणुस्सा दुविहा परणत्ता तं जहा–सणिण भूयाय. असरिण भूयाय. तत्थणं जे ते असगिण भूयाय ते ण जाणंति ण पासंति आहारंति,
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जीवभेदाऽधिकारः।
तत्यणं जे ते सणिण भूया ते दुविहा पराणता तं जहा-उवउत्ताय अणुषउत्तय. तत्थणं जे ते अणुव उत्ताय तेणं ण जाणंति ण पासंति ण आहारेंति. तत्थणं जे ते उवउत्ता तेणं जाणंति पासंति आहारेति से तेणटेणं. गोयमा ! एवं आहा
रेति।
(पन्नवणा पद १५ उ०१।
म. मनुष्य. भ. हे भगवन् ! णि ते निर्जस्या पुद्गल प्रत. कि स्यूं जाणतां थकां. पा० देखता थकां. श्रा० श्राहारे है. के अथवा. ण स्यूं अण जाणतां यहां अणदेखता थकां. प्रा० आहारे छे. गो. हे गौतम ! अ. केतला एक मनुष्य जाणतां थका. पा० देखता थकां. प्रा० आहारे . अ. अने केतला एक. म० मनुष्य अणजाणतां थकां णः अणदेखता थकां. श्रा आहारे 2 से० ते सयां माटे. भ० भगवन् ! ए० इम कह्यो छै. अ. केतला एक जाणतां थकां. पा०देखता थकां प्रा. अाहारे है. अ० अने केतला एक मनुष्य. गाः अणजागातां थकां ण. अणदेखता थकां. प्रा० आहार छै. गो. हे गौतम! म मनुष्य, दुव भेद. प० परूप्या. तं० त कहे छ सः संज्ञी ते विशिष्ट अवधि ज्ञानवन्त. अ. अने असंशी ते तादृश ज्ञान रहित स० तिहां जे ते सः अमज्ञो भूत छ विशि? अवधि ज्ञान रहित छ. नाते तो अण जाणतां. ण. अणदेखता थकां. प्राः आहार छै अने तः तिहां जे ते कामराय शरीर ना पुदल देखे ते विशिष्ट अवधि ज्ञानवन्त ते संज्ञी भूल मनुष्य. दुवे भेद कह्या छ. ताते कहे इ. उ. उपयोगी. अ. अने अनुपयोगी त तिहां ज ते अः अनुपयोगी है त अण जाणता यकां. ण अणदेखता थका प्रा. आहारे छ ते तिहां जे. ते उपयोगवन्त. जा ते जाणता थकां. पा० देखता थकां प्रा. माहार है. सेत. एण अथ. गौतम ! आहारे छै.
इहां कह्यो-मनुष्य ना २ भेद, सन्नी भूत ते विशिष्ट अवधिज्ञान सहित मनुष, असन्नी भूत ते विशिष्ट अवधि ज्ञान रहित मनुष्य ते तो निर्जसा पुद्गल न जाणे न देखे अने आहार छै। अनें विशिष्ट अवधि सहित ते सन्नी भूत मनुष्य रा २ भेद, उपयोग सहित अने उपयोग रहित। तिहां जे उपयोग रहित ते तो निर्जला पुद्गल ने न जाणे न देख पिण आहारे छै। अने उपयोग सहित मनुष्य जाणे देख आहारे छै । इहां निर्जसा पुद्गल तो अवधि ज्ञाने करी जाणीई देवीई अवधि ज्ञान विना निर्जसा पुद्गल दिखाई नहि, ते माटे असन्नी भूत मनुष्य रो अर्थ विशिप
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भ्रम विध्वंसनम् ।
अवधि ज्ञान रहित कियो छै। ते अवधि ज्ञान रहित ने असन्नी भूत कह्यो। पिण असन्नी रो भेद न पावे, तिम नेरइया ने असन्नी भूत कह्या। पिण असन्नी रो भेद न पाये। ए नेरइया अनें देवता ने असंज्ञी कह्या । ते संज्ञावाची छै । जे अवधि विभङ्ग रहित नेरइया नों नाम अतंज्ञी छै जिम विशिष्ट अवधि रहित मनुष्य निर्जसा पुद्गल न देखे। तेहनें पिण असन्नी भूत कह्यो। पिण निर्जस्सा पुद्गल न देखे ते सर्व मनुष्य में असन्नी नों भेद न पावे. तिम असन्नी नेरइया में असन्नी रो भेद न थी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
तथा पन्नवणा पद ११ में कह्यो। ते पाठ लिखिये छ।
अह भंते ! मंद कुमार वा मंद कुमारिया वा जाणति वयमाणं वुयमाणा अहमे से बुयामि अहमे से बुबामिति गोयमा ! णोइणटुं समण णत्थ सण्णिणो ॥ १० ॥ अह भंते! मंद कुमारए वा मंद कुमारियावा जाणति आहारं आहारे माणे अहमेसे आहार माहरेमि अहमेसे आहार माहरे मिति. गोयमा ! णो इण8 समटुं णणत्य सरिणागणी ॥११॥ अह भंते मंद कुमारए वा मंद कुमा. रिया वा जाति अयं में अम्मा पियरो गोयमा ! यो इणट्रे सम8 गणात्थ सरिणगणो ॥१२॥
( पन्नवणा पद )
अथ भ : ह भावन् ! म: मंद कुमार ते न्हानी वालक. अथवा मन्द कुमारिका त न्हानी वालिका बोलता यका इम जाग. अ. हूँ एहवी. वः बोल छ. गो. हे गौतम : णां एहयो अर्थ.
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जीवभेदाऽधिकारः ।
L
० समर्थ नहीं है. ० विशिष्ट अवधवन्त जाणे शेष न जाणे. अ० अथ भंग हे भगवन्! मं० न्हानों वालक. अथवा मं० न्हानी बालिका श्रा० आहार करता थकां इम जाणे. अ० हूं. वो आहार करूं छू. हूँ आहार करूं छू. गो० हे गोतम ! यो० एह अर्थ समर्थ नहीं है. ० विशिष्ट अवधिवन्त जाणे शेष न जाणे. अ० अथ भ० हे भगवन् ! मं० न्हानों वालक. अथवा. मं० न्हानी वालिका जा० जाणे है श्रयं० एह. अ० म्हारा माता पिता छं. गो० हे गोतम ! to वो अर्थ समर्थ नहीं है. ग० विशिष्ट मति अवधिवन्त जाणे शेष न जाणे ।
अथ अठे पण कह्यो - न्हाना वालक वालिका मन विशिष्ट ज्ञान रहित नें सन्नी न कह्यो । पिण जीव रो भेद असन्नी रो भेद न थी । तिम नेरइया ने असन्नी भूत कह्या । न थी ' ए नेरइया. देवता नें कड्या. ते संज्ञा वाची है । अवधि विभङ्ग रहित नेरइयानों नाम अज्ञी छै । तिम विशिष्ट अवधि रहित निर्जला पुद्गल न देखे तेहनों पिग नाम अलंज्ञी भूत कयो । पिग निर्जला पुद्गल न देखे ते सर्व मनुष्य असन्नी रो भेद न पावे । तथा महाना वालक वालिका मन पटुता रहित नें सन्नी नको. पण हमें असम्नी रो भेद न थी । तिम असन्नी नेरइया में असन्नी रो भेद न थी । डाहा हुवे तो विचार जोइजो ।
में
इति
लिखिये छै
२
बोल सम्पूर्ण ।
पटुता पणो न पाव्यो । तेरमों छै 1 तिण में पिण असन्नी रो भेद
तथा दश : वैकालिक अ०८ गा० १५ में ८ सूक्ष्म कह्या । ते पाठ
1
सिगोह पुप्फ सुहमंच पगं बीय हरियंच
पाणुत्तिं गत हेवय । अंड सुहमं
मं ॥
( दश वैकालिक ०८गा० १५ )
० स प्रमुख न पाणी सूक्ष्म १. पु० फूल सूक्ष्म वट वृक्षादिक ना. २ पा० प्राण सूक्ष्म. कुंथुयादि ३, उ० कोड़ी नगरा प्रमुख सूक्ष्म ४ तिमज प० पांच वर्ण नी नौलण फुलण
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________________
३४०
भ्रम विध्वंसनम् ।
सन्म. ५. वी० बीज बड़ प्रमुव ना सूत्म ६ ह. नवी हरी दर्वादिक. ७ अं• अंग माखो कीड़ी आदि ना ८ सूक्ष्म.
अथ इहां ८ सूक्ष्म कह्या-धुंयर प्रमुख नौ सूक्ष्म स्नेह १ न्हाना फल २ कुंथुआ ३ उत्तिंग कीडी नगरा ४ नीलण फूलण ५ बीज खसखसादिकना ६ न्हाना अंकुर ७ कीडी प्रमुख ना अण्डा ८ सूक्ष्म कह्या। ते न्हाना माटे सूक्ष्म छै। पिण सूक्ष्म रो जीव गे भेद नहीं! तिम नेरइया अनें देवता ने अपन्नी कह्या। पिण असन्नी रो भेद नहीं। जे देवता ने असन्नी कह्यां माटे असन्नी रो भेद कहे--तो तिण रे लेखे ए आट बोलां ने सूक्ष्म कह्या छै यां में पिण सूक्ष्म रो भेद कहिणो। यां आठां में सूक्ष्म रो भेद नहीं तो देवता अने नेरइया में पिण असन्नो रो भेद न थी। डाहा हुए तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
तथा जीवाभिगम मध्ये प्रथम प्रति पत्ति में तीन त्रस ३ सावर कह्या। ते पाठ लिखिये छ।
से किं तं थावरा, थावरा तिविहा परणत्ता, तंजहापुढ़वी काइया, आउकाइया, वरणस्सइ काइया ।
( जीवाभिगम १ प्र० ।
से ते कि किपा. था. स्थावर, था. स्थावर ति त्रिण प्रकारे. प. परूणा. तं० ते कहे छै पु० पृथिवी काय. प्रा० अपकाय. व वनस्पतिकाय.
. अथ अठे तो. पृथिवी. अप. वनस्पति. नें इज स्थावर कह्या। पिण तेउ. वाउ. में स्थावर न कह्या। वली आगलि पाठ कह्यो, ते लिखिये छ ।
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जीवभेदाऽधिकारः ।
से किं तं तसा, तसा तिविहा पण्णत्ता तंजहा— तेउका
इया. वाउकाइया. उराला तसापाणा ।
( जीवाभिगम १ प्र० )
सेते. कि किसा त० त्रस ति० त्रिण प्रकारे प० परूप्या तं ते कहे है. ते तेजसकाय. वा० वायुकाय. उ० औदारिक त्रस प्राणी.
ਡ
अथ इहां तेउ वाउ, नें बस का चालवा आश्री । पिण त्रस नों जीव नों भेद न थी । जे नेरइया अनें देवता नें असन्नी कह्यां माटे असन्नी रो भेद कहे तो तिण रे लेखे तेउ वाउ नें पिण त्रस कह्या छे । ते भणी तेउ. वाउ में पिण
स नो जोवनों भेद कहिणो । अनें जो तेउ वाउ में बस नों भेद न थी तो देवता अनें नारकी में अन्नो रो भेद न कहियो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्णा ।
1
३४१
तथा अनुयोगद्वार में सम्मूर्च्छिम मनुष्य में पर्याप्तो अपर्याप्तो विहूं कह्या पाठ लिखिये छै !
ते
विसेसिए मगुस्से, विसेसिए सम्मुच्छिम मणुस्सेय, गब्भव क्कंतिय मगुस्सेय । अविसेसिय सम्मुच्छिम, मगुस्से, विसेसिए पज्जत्तग सम्मुच्छिम मगुस्सेय, अपजत्तग समुच्छिम मस्सेय ॥
( अनुयोग द्वार )
० विशेष ते मनुष्य वि० विशेष ते. सम्मूच्छिम म मनुष्य. ग० अनें गभ ज. म० मनुष्य. ० अविशेष, ते स० सम्मूर्च्छिम वि० विशेष. ते प० पर्यातो. संमूच्मि मनुष्य.
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३४२
भ्रम विध्वंसनम्।
अथ इहां विशेष. अविशेष. ए बे नाम कह्या। तिण में अविशेष थी तो मनुष्य. विशेष थी. सम्मूर्छिम. गर्भज। अनें अविशेष थी तो सम्मूर्छिम मनुष्य अने विशेष थी पर्याप्तो अपर्याप्तो कह्यो । इहां सम्पूर्छिन मनुष्य ने पर्याप्तो अपर्याप्तो कह्यो। ते केतलीक पर्याय बंधी ते पर्याय आश्री पर्याप्तो कह्यो। अने सम्पूर्ण न बंधी ते न्याय अपर्याप्तो कह्यो। सम्मूर्छिम मनुष्य ने पर्याप्तो कह्यो। पिण पर्याप्ता में जीव ग भेद ७ पावै। ते माहिलो भेद न थी। जे देवता ने असन्नी कह्यां माटे असन्नी गे जीव रो भेद कहे तो तिणरे लेखे सम्मूर्छिम मनुष्य ने पिण पर्याप्तो कह्यां मारे पर्याप्ता रो भेद कहिणो अनें सम्मूर्छिम मनुष्य में पर्याप्ता रो भेद नथी कहे, तो देवता में पिण असन्नी रो भेद न कहिणो। तथा जीवाभिगमे देवता, नारकी ने असंघयणी कह्या। अने पन्नवणा में कह्यो देवता केहवा छै। "दिव्येणं संघयणे णं. दिव्येणं संठाणेणं" इहां देवता में दिव्य प्रधान संघयण, जिसा पुद्गलां ने संघयण कह्या। पिण ६ संघयण माहिला संघयण न कहिवा। तिम असन्ती मरी देवता अने नारको थाय ते अन्तम हित ताई असन्नी सरीखा छै विभङ्ग अज्ञान रहित ने माटे असन्नी सरीखा ने असन्नी कह्या। पिण असन्नी रो जीव भेद न कहियो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा भगवती श० १३ उ० २ असुर कुमार में उपजे तिण समये देवता में बे वेद स्त्री वेद. पुरुष वेद. कह्या। ते पाठ लिखिये छै।
असुर कुमारा वासेसु एग समएणं केवइया असुरकुमारा उववज्जंति केवइया तेउ लेस्सा उववज्जंति केवइया कण्ह पक्खिया उवकन्जंति एवं जहा रयण प्पभाए तहेव पुच्छा तहेव वागरगां णवरं दोहिं वेदेहिं उक्वज्जति, णपुंसगवेदगा ण उववनंति सेसं तं चेव ।
( भगवती श०१३ उ००)
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जीवभेदाऽधिकारः ।
૪૩
० असुर कुमार ना आवास मांहि. ए० एक समय में के कतला. ० असुर कुमार ० उपजे है के ० केतला. ते० तेउ लेस्सावन्त उ० उपजे है के केतला क= कृष्ण पक्षिया उ० उपजे है. ए० इम. २० रत्नप्रभो आश्री पृच्छा त तथैव अठे जाणवा एतलो विशेष वे०
वे वेदे उपजे स्त्री वेदे पुरुष वेदे न० नपुंसक वेदे ० न उपजे.
अथ हां कह्यो -असुर कुमार में उत्पत्ति समय वे वेद पावे । पिण नपुंसक वेद न पावे । अनें देवता में असंज्ञी रो अपर्याप्तो ११ मो भेद कह्यो । तो ११
भेद तो नपुंसक वेदी छै । ते माटे तिण रे लेखे देवता में नपुंसक वेद पिण कहिणो 1 जे देवता में नपुंसक वेद न कहे तो ११ मो भेद पिण न कहिणो । इहां सूत्र में चौड़े कह्यो । जे उत्पत्ति समय पिण नपुंसक नहीं ते माटे अपर्याप्ता में ११ मोभेद न थी । अनें जे उत्पत्ति समय थी आगे आखा भव में देवता में बे वेद कला छै । ते पाठ लिखिये छै
1
पणत्तासु तहेव एवं पुरिस वेदगाव.
वरं संखेज्जगा इत्थी वेदगा पणत्तापुंसग वेदगाणस्थि ।
( भगवती शः १३ उ० २ १
पपन्नत्रणा सूत्र ने विषे कह्यो त तिमज जाणवो णः एतलो विशेष सं० संख्याता इ० स्त्री वेदियr for कह्या. ए० इम पुरुष बेदिया पिया संख्याता कह्या to नपुंसक दिया
न थी.
अठे असुरकुमार में बीजा समय थी लेई ने आखा भव में बे वेद का | पिण नपुंसक वेद न पावे। तो जे नपुंसक रो ११ मो भेद देवता में किम पावे । जो देवता में ३ जीव रा भेद कहे तो तिण रे लेखे वेद पिण ३ कहिणा । अनें जे वेद २ कहे नपुंसक वेद न कहे तो जीव रा भेद पिण दोय कहिणा । ११ मो भेद न कहिणो । तथा ५६३ जीव रा भेद कहे तिण में पिण ७ नारकी रा १४ भेद कहे छै । जे पहिली नारकी में जीव रा भेद ३ कहे तो तिण रे लेखे ७ नारकी रा १५ भेद कहिणा । वली १० भवन पति रा भेद २० कहे । अनें जे भवनपति में ३ भेद कहे तिr रे लेखे १० भवनपति रा २० भेद कहिणा । वासठिया में तो नारकी
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३४४
भ्रम विध्वंसनम् ।
अने देवता में ३ भेद कहे । अनें नव तत्व में ५६३ भेदां में नारकी में सर्व देवता में जीव रा भेद २ कहे। एहवो अजाणपणो जेहने छ। तिण ने शुद्ध श्रद्धा आवणी परम दुर्लभ छै। जे सूक्ष्म एकेन्द्रिय रो अपर्याप्तो प्रथम जीव रो भेद ते पर्याय बंध्यां बीजो भेद हुवे। तीजो भेद पर्याय बंध्यां. चौथो हुवे। पांचमो भेद पर्याय बंध्यां छो हुवे । सातमो भेद पर्याय बंध्यां आठमो हुवे । चतुरिन्द्रिय नों अपर्याप्तो नवमो भेद पर्याय बंध्यां दशमो हुवे। ११ मो भेद असन्नी पंचेन्द्रिय रो अपर्याप्तो पर्याय बंध्यां असन्नी पंचेन्द्रिय रो पर्याप्तो १२ मो भेद हुवे। पिण असनी रो अपर्याप्तो ११ मो भेद पर्याय बंध्या चउदमों भेद सन्नी रो पर्याप्तो हुवे नहीं ए तो सन्नी रो अपर्याप्तो १३ मो भेद पर्याय बंध्यां १४ मों भेद सन्नी रो पर्याप्तो हुवे। इणन्याय नारकी. देवता में असन्नी रो अपर्याप्तो ११ मों भेद नथी। ए तो १३ मों भेद छै ते पर्याय बंध्यां १४ मो होसी । ते माटे ए सन्नी रो अपर्याप्तो १३ मों भेद छै। पिण असनी रो पर्याप्तो नहीं। जे आर्याप्ता पणे तो असन्नी अने पर्याय बंध्यां सन्नी हुवे । ए तो वात प्रत्यक्ष मिले नहीं। ए देवता में अमें नारकी में असन्नी मरी जाय तेहनों नाम असन्नी छै। ते पिण विभङ्ग न पामे तेतला काल मात्र इज अवधि दर्शन सहित नेरझ्या अनें देवता नो नाम सन्नी छै। अने अवधि दर्शन रहित नेर. इया अने देवता नो नाम असन्नी छै। ते संज्ञा मात्र अप्सन्नी छ। पिण असन्नी रो भेद नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
इति जीवभेदाऽधिकारः।
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अथ अाज्ञाऽधिकारः।
केतला एक अजाण जिन आज्ञा वाहिरे धर्म कहे। अर्ने आशा माही पाप कहे । अनें साधु आहार करे. उपकरण राखे. निद्रा लेवे. लघु नीति. बड़ी नीति परठे. नदी उतरे, इत्यादिक कार्य जिन आज्ञा सहित करे तिण में पाप कहे। अर्ने कहे-साधु नदी उतरे तिहां जीव री घात हुवे ते माटे नदी उतरे तेहनों साधु ने ' पाप लागे छै। इम जीव री घात नों नाम लेइ जिन आज्ञा में पाप कहे। अने' भगवन्त तो कह्यो श्री वीतराग थी पिण जीव री घात हुवे पिण पाप लागे नहीं। ते पाठ लिखिये छ ।
रायगिहे जाव एवं वयासी, अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पाणो पुरओ दुहओ मायाए पेहाए रीयं रीय माणस्स पायस्स अहे कुकड पोतेवा वट्टा पोतेवा कुलिंग च्छाएवा परियावज्जेवा तस्सणं भंते! किं इरिया बहिया किरिया क जइ. संपराइया किरिया कजइ. गोयमा ! अणगारस्सणं भावियपणो जाय तस्सणं इरियावहिया किरिया कज्जइ. णो संघराइया किरिया कजइ. से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहा सत्तमसए संवडुद्देसए जाव अट्टो णिक्खत्तो। सेवं भंते ! भंतेत्ति जाब विहरइ ।
( भगवती श० १२ १.८)
रा० राजग्रही नगरी में विषे. जा. यावत गोतम भगवान् ने इम कहे. प्र. अणगार में भगवर! भा० भावितात्मा ने. पु० आगल. दु०४ हाथ प्रमाणे भूमिका ने. पं० जोई में. री.
४४
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ब्रम विध्वंसनम् ।
-
1000
गमन करतां ने प० पग में हेठे कु० कुक्कुट ना न्हाना वालक अथवा अगडा. २० वटेरा ना बालक पाथवा ग्राडा कु० कोड़ी अथवा कोडोना अगहा. प. परितापना पाव. तो. तसंहने. भ. हे भगवन
इरियावहिको क्रिया उपजे. सं० वा सम्पराय क्रिया उपजे. गोदे गोतम! ५० प्रणमार में. भा० भावितामा ने. जा. यावत. त० तेहने. ई. ईरियायहिको क्रिया उपजे. गो. नहीं साम्परायिको क्रिया. जा. यात क. उपजे से ते. के. केणे अर्थ. भ. हे भगवन् ! ए० इम कहिइं. ज० जिम सातमा शतक ने विषे सं० सम्वृत ना उद्दश्या ने विषे. जा. यावत श्र०अर्थ कहिउ तिम जाणवो से ते सत्य में भगवन् ! भ भगवान जा. यावत. वि० विहरे छै.
अथ इहां कह्यो-जे मान. माया. लोभ. विच्छेद गया ते साधु ईई. जोय चाले तेहने वा हेठे कुक्कुट ना अण्डा तथा बटेर पक्षी ना अण्डा तथा कीड़ी सरीखा जीव मरे तो तेहने ईरियावहि की क्रिपा लागे। सम्पराय न लगे। इहां ईर्याई चाले ते वीतराग ना . एग.था जीव मरे ते इरिधावाहया क्रिया ते पुण्य नी क्रिया लागती कही। ते वातराग नो अशा चाले ते मार्ट पुण्य रूप क्रिया लागती कही। अने साधु आज्ञा सहित नदो उतरे। तिण में पार कहे जोर मुआ ते माटे। तो जे आज्ञा सहित चालतां गग ने हेठ कुसादिक ना अण्डादिक मुआ तेहने पिण तिण रे लेखे पाप कहिगो। .इहां पिण जाा मु छै। अनें ज इहां पाप तहीं तो नदी उतरे.निग में गिग पर नो. श्री तीर्थ का ना हा छ ते माटे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
तिवारे कोई कहे-ए वीतराग थी जीव परे तेहने पाप न लागे। पिण सरागो थी जोव मरे तेहने पाप लगे इम कह ---हनों उत्तर --जो बीतराग पग थो जीव मुभा तेहने पार न लगे तो वीतराग रो आशा सहित सरागा कार्य करतां जीव मुआ तेहने पाप किम लगे। आचाराङ्ग श्रु. १ अ० ५ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ।
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माज्ञाऽधिकार।
सनियंति नागनास समियावा असमिया समिया होति उहाए प्रासमिति मण्णमाणस्स समियावा अस. मियावा असमिया होति उवहाए ।
(प्राचाराज श्र०१३०५ उ०५)
___स. सन्यक. एहबो. म. मानतो थको. सं० शंका रहित पणे जे भावना चित्त तूं भावतो. संसाया वा अअन्नाता सिमानाकागारू० सम्यक इज हुई. उघालोचो ने जिन को रधि : युनं प्राणिगा नो घात थाइ परं तेहने घाती न कहिवाई. तिम
हा पित नागवा. तपाहिला अ. असापक ए ववन असत्य एहवो माने तेहने स० सम्यक तथा अ• असम्यक छ ता पिण तेहन विपरोत. उ० पालोचवे. अ. भातम्यक इज. हो. दुई एतावता जिम भाव तेहने तिमज संपजे.
अब इहां इन कयो । सम्यक् प्रकारे मानता ने “सनिया" कहिता सम्यक् छै. ते तथा "असमिया' कहितां असम्यक् छै। पिण सम्यक् पणे आलोची करता ते असम्यक् पिग सम्यक कहि। एतले.जिन आशा सहित आलोची कार्य करता कई विपरोत थयो ते पिग ते शुद्ध व्यवहार जागी आचसो। ते माटे तेहने शुद्ध कहिर। ते केहना परे जिा ईयां सहित साधु चालतां जीव हणाई तो पिण तेहने पाप न लागे। तिहां शीलाङ्काचार्य कृत टीका में पिण इम कह्यो। ते टीका लिखिये छ।
समिय भित्यादि सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शंका विचिकित्सादि रहितस्य सत स्तद्धस्तु यत्नेन तथा रूपतयैव भारितं तत्सम्यग्वास्या दसम्यग्वास्यात् । तथापि तस्य तत्र तल सम्यक् प्रेक्षया पर्याोचनया सम्यगेव भवती र्यापथोपयुत्तरय क्वचित् प्राण्युपमर्दवत्'
अथ इहां कयो -सम्पक जाणो करतां असम्यक् पिण सम्यक हुवे । ईर्या. युक्त साधु धो जब इणाई पिग तेहनें पाप न लगे ते माट सम्यक कहिइं। अने' असम्यक जागा कर तहने असम्म त . सम्यक पिग असम्यक हुवे। जे जोयां
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३४८
भ्रम विध्यसमम्।
विना चाले अनें एकःपिण जीव न हणाई तो पिण ६ काय नों घाती आज्ञा लोपी ते माटे कहोजे। अने आशा सहित चालतां साधु थी जीव मरे तो पिण तेहने पाप न लगे। एयूं का। ते माटे सरागी साधु ने पिण आज्ञा सहित कार्य करतां जीव घात रो पाप न लागे तो आज्ञा सहित नदी उतसां पाप किम लागे। तिवारे कोई कहे नदी उतरवा नी आज्ञा किहां दीधी छै। जे १ मास में ३ माया ना स्थान सेव्यां सवलो दोष कह्यो तो दोय सेव्यां थोड़ो दोष तो लागे। तिम १ मास में
नदी ना लेप लगायां.सबलो.दोष कहो । तो दोय नदी ना लेप लगायां थोडो दोष छै, पिण धर्म नहीं। एडवो कुहेतु लगावी नदी उतखा दोष कहे। तेहनों उत्तर-जे २१ सबला दोषां में कह्यो-३ लेप ते नाभि प्रमाण पाणी एड्वो १ मासमें ३ लेप लगायां सबलो दोष कह्यो। जे नामि प्रमाण एहवी मोटी नदी एक मासमें एक हीज उतरवी कल्पे छै। ते माटे एहवी मोटी नदी बे उतसां थोड़ो दोष, अनें ३ उतसां सबलो दोष छै। ए नाभि प्रमाण पाणी तेहने लेप कहिए। ते नदी एक मास में १ करपे, गोडा प्रमाणे २ कल्पे, अर्ध जवा ते पिण्डो प्रमाण पाणी हुवे ते नदी १ मास में ३ कल्पे। अने नाभि प्रमाण लेप नदी एक मास में ३ उत्तयां सबलो दोष छै! ते एक मास में एकहिज कल्पे, ते माटे दोय नों थोडो दोष छै। ठाणाङ्ग ठा० ५ उ. २ एक मास में घणो पाणी एहवी ५ मोटी नदी बे वार ३ वार उतरथी बर्जी। पिण एक वार उतरवी वर्जी नथी। ते मोटी नदी एक मास में नावादिके करो तथा जङ्गादिके करी १ वार उतरवी कल्पे। पिण बे वार न कल्पे ते बे वार से थोड़ो दोष भने जे १ वार उतरवी १ मास में ते नदी ३ वार उतसां सबलो दोष लागे। ते पाठ लिखिये है।
... अन्तो मासस्स तो उदग लेव करेमाणे सबले ।
दिशाश्रुतस्कंध, अ० २ ।
ध० एक मास माहे. त० तीन. उ० पाणी ना लेप लगावे. लेप ते नाभि प्रमाण जल अव. गाहे ते लेप कहिए नवमो सघलो दोष कह्यो.
अथ इहां १ मास में ३ उदक लेप कह्या। ते उदक लेप नों अर्थ नाभि प्रमाणे जल भवगाहे ते लेप.कहिये। एहवो अर्थ कियो छै। तथा ठाणाङ्ग ठाणे ५
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आशाऽधिकारः।
३४६
उ०२ उदक लेप नों अर्थ नाभि प्रमाण जल अवगाहे ते लेप कहिये। एहवो अर्थ कियो छ । तथा ठाणाङ्ग ठा० ५ उ० २ टीका में उदक लेप नों अर्थ नाभि प्रमाण जल अवगाहे तेहनें लेप कह्यो। ते टीका में लिखिये छै ।
उदक लेपो नाभि प्रमाण जलावतरणम् इति ।
अथ इहां नाभि प्रमाणे जल अवगाहे ते लेप कह्यो। ते माटे ए उदक लेप एक मास में एक वार कल्पे पिण बे वार ३ वार न कल्पे। ते भणी वे वार रो थोड़ो दोष, अने ३ वार रो सबलो दोष छै। इण न्याय एक मास मे ३ उदक लेप नों सवलो दोष छै। अनें आठ मास में आठ वार कल्पे, नव वार रो थोड़ो दोष १० वार रो सबलो दोष छै। अनें जे कुहेतु लगावी कहे-जे एक मास में ३ माया ना स्थानक सेव्यां सबलो दोष तो एक तथा दोय सेव्यां थोड़ो दोष लागे । तिम नदी रा णि १ तथा २ लेप लगायां थोड़ो दोष कहे तो तिण रे लेखे रात्रि भोजन करे तो सबलो दोष कह्यो छै। अनें दिन रा भोजन करवा में थोड़ो दोष कहिणो। रात्रि भोजन रो सबलो दोष कह्यो ते मादे। तथा राजा पिण्ड भोगव्यां सवलो दोष कह्यो छै। तो तिण रे लेखे और आहार भोगव्यां थोड़ो दोष कहिणो। तथा ६ मास में एक गण थी बीजे संघाड़े गयां सबलो दोष कह्यो छै, तो तिण रे लेखे ६ माल पछे एक संघाड़ा थी बीजे संघाड़े गयां थोड़ो दोष कहिणो। तथा शय्यात्तर पिण्ड भोगव्यां सबलो दोष कह्यो छै। तो शय्यातर बिना और रो आहार भोगव्यां पिण तिण रे लेखे थोड़ो दोष कहिणो। जो माया ना स्थानक नों नदी ऊपर न्याय मिलाय ने दोष कहे तो यां सर्व में दोष कहिणो। इम पिण नहीं ए माया नों स्थानक तो एक पिण सेवण री आज्ञा नहीं, ते माटे तेहनों तो दोष कहोजे । अनें नदी उतारवा नों तो श्री वीतराग देव आज्ञा दीधी छ। ते माटे जिन भाज्ञा सहित नदी उतरे तिण में दोष नहीं। ते भणी माया ना स्थानक नों अने नदी नों एक सरीखो हेतु मिले नहीं । साहा हुवै तो विचारि जोइजो । .
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
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३५.
भ्रम विवसमम्।
तिवारे कोई कहे-मात्रा को
होनी रयो । इम कह्यो। पिण जे २ नदी उतरवा रहको दिन का छ: उदर - सूत्र वृहत्कल्प उ. ४ एहवो कह्या के, ते पाठ लिसिप छै।
नो कप्पइ निग्गंथाणवा, इमाओ पंच महा नइओ उदिट्ठाओ गणियाओ बंजियाओ अतो मासस्स टुक्कुत्तोवा तिक्खुत्तोवा उतारतर या संतासाए मा. संजहा--- गंगा. जउणा. सत्यू. कासवा मही. अह पु. एवं जारोजा एरवइ कुणालाए, जत्य च.कया गं पायंजले किच्चा एगं पायं थले किया एवं से कपइ. अंतामासरत दुववृत्ती वा तिवुत्तो वा उत्तारतरवा. संतारतएवा, जत्य ना एवं चकिया एवं से नो कपइ अंतो मासस्स दवता कातिक्वुत्ता वा उत्त रत्तएवा संवारत्तएका ॥२७॥
गोन कल्पे. निसाधु ने अथवा साध्वी ने इ० बानी कस्ति पत्रमा महानदी. मोटी नदो. उ० सामान्य पणे क... ग. सध्या ५. विनाम
फ र माइ है. अ० एक मास माहो दुबे वार. त तान वार उ• उतरक्षा सतरनी..तल छ ते कदहे. गं गंगा. ज. यदुना स सत्य का० कासिपा. मा महानदा पशासनाप्रा तिरता दोहला हिवे. ए.इम जाया नए०एरावतो नदी कुछ कुडालानगरो समय अर्थ जना प्रमाण उडी अथवा वीजा पिण एहो हु जिहा. चः३... गल विष. करा नं. ए. एक पग ऊंचा राखा न. ए. इन कर। न ... ५.२ साल नाहि.दुर वार अथवा. ति त्रिण वार उ० उतरसा. स. पार पार उतरवो.
अथ अठे कह्यो छै, ए पांच मोटी नदी एक मास में बे वार अथवा तीन वार न कल्पे। “उत्तरित्तरवा" कहितां नाबादिके करी तथा “संतरतरवा" कहितां जनादिके करी उतरवो न कल्पे। ५ मोटो नदो नाम प्रमाण त माटे
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माज्ञाऽधिकारः।
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इहां बे वार उपरयो वनीं। रिगं एक बार न वर्जी । ए नाभि प्रताण किम आणि: । "लंरिका ' सरिता चांहि नथा जंघादिके करीने न उतरवी कही। ने पाए , ना धणों पाणी छे ते माटे नावाइ करी कही । वे वार वों ने मारे गाल प्राण तथा नावा पिण एक मासमें एक वार उतरवी कल्पै । अनें अर्थ जड़ा पीडी प्रमाण कुञ्जला नगरी समीपे ऐरावती नदी वह ते सरीखी नदी तिहाँ एक पग जल ने विवे एक पग स्थल ते भाकाश में विषे इम एक मासमें ये वार लिग वार उतरवो। “संतरितएवा" कहितां बार वार उतरवी कल्पे इहां अई जना पिण्डो प्रमाण.नदी १ मास में ३ वार उतरवी कही। ए नदी उतरवा नी श्री कर्थिङ्करे अशा दोश्रो ते माटे जिन आशा में पाप नहीं। अने नदी उतरे तिण में पाप हुवे तो आशा देवा बालों ने पिण पाप हुवे। अनें जो आज्ञा देणवाला में पाप नहीं तो उतरगवाला ने पिण पाप नहीं। मुद्दे तो साधु ने जिन आज्ञा पालवा। किमाइक कार्य में जीव री घात छै. पिण ते कार्य री जिण आज्ञा छै तिहां पाप नहीं। झिणहिक कार्य में जीव री घात नहीं पिण तिण कार्य में जिन आज्ञा नहीं ते मतिना पाप छै। तिम नदो उतसां में जन आज्ञा छ ते माटे पाप नहीं। तिबार काई काहे । जा नदो उतसां पाप न हुवे तो प्रायश्चित्त क्यू लेवे। तहनों उतर-ए प्रायश्चित लेवे ते नदी उतरवा रा कार्य रो नहीं छ । जिम भगवन्ते कह्यो। “एग पावं जले किच।” “एगं पायं थले किश्चा” इम उतरणी भायो नहीं हुवे, कदाचित् उपयोग में खामी पड़ी हुवे ते अजाण पणा रूप दोष रो प्रायश्चित्त इरिया वहिरी थाप छै। जो इरिया सुमति में विशेष खामी जाणे तो वेलो तथा तेलो पिण लेवे, ए तो खामी रो प्रायश्चित्त छै पिण नदी रा कार्य रो प्रायश्चित्त नहीं। जिम गोचरी जाय पालो आय साधु इरियावहि गुणे, दिशा जाय पालो आय में इलिावहि गुने, पडिलेहन करी ने इरियावहि गुणे. पिण ते गोचरी दिशा. पडिलेहण. रा कार्य रो प्रायश्चित्त नहीं। ए प्रायश्चित्त तो कार्य करतां कोई भाज्ञा उल्ला में अजाण पणे दोष लागो हुवे तेहनों छै। जिम भगवान् कह्यो तिम करणी न भायो हुवे से खामी नी इरियाचहि छै। पिण ते कार्य रो प्राश्चयत्ति
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भ्रम विध्वंसनम्।
नहीं तिम नदी रा कार्य रो प्रायश्चित्त नहीं। ए तो भगवान् कह्यो ते रीति उतरणी न आयो हुवे ते खामी रोप्रायश्चित्त छै। आगे अनन्ता साधु नदी उतरतां मोक्ष गया छै। जो पाप लागे तो मोक्ष किम जाय। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोलसंपूर्ण ।
वली कोई कहे-जिहां जीव री घात छै तिहां जिन आना नहीं ते मृषा. वादी छै। ए तो. प्रत्यक्ष नदी में जीव घात छै, तिहां भगवन्त आज्ञा दीधी छै। ते पाठ लिखिये छ।
से भिक्खू वा (२) गामा णगामं दूइजमारणे अंतरा से जंघा संतारिमे उदए सिया से पुवामेव से सीलोबरियं कायं पादेय पमज्जेजा से पुवामेव पसज्जेता एगं पापं जले किचा. एगं पायं थले किया तो संजया मेव जंघा संतारिसे उदए आहारियं रियेजा ॥६॥ से भिक्खू बा ( २ ) जंघा संतारिने उदगे आहारियं रीयमाणे गो हत्थेग वा इत्थं, पादेण वापादं, काएण वा कायं, आसाएजा से अण्णासादए अणासादमारणे. तो संजया मेव जंघा संतारिने उदए आहारियं रियेजा ॥ १०॥
। प्राचाराज श्र० २०३ उ०२
से० ते. भि० साधु, साध्वी. ग्रा० ग्रामानुग्राम प्रते. दु० विहार करतां थकां इमाणे वि० विचाले. जं० जङ्घा सन्तारिम. उ० पाणी हैं. से० साधु. प. पहिला. म. मस्तक का शरीर. पा० पग लगे शरीर. ने. पु० पहिला. ५० प्रमार्जी ने. जा० यावत. ए० एक पग जले करी. ५० एक पग स्थले करो. एतावता चालतां जिम पाणी दुहलाई महीं तिम चालवो. त० तिवारे पर.सं. अपणा सहित सं० अंघा सन्तारिम. उ० उश्क में विषे. श्री सगन्नाथे जिम ईयां कही
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भाभकार।
सिम रोति चाले ॥॥ हिवे वलो विशेष कहे छै. सेते. सा० साधु. साध्वी. जं० जना प्रमाण उतरवा. उ० उदक पाणो. पा. जिम श्री जान्नाथे ईयर्या कहो छै तिम चालतो थको. हो नहीं हाथ सूं ह. हाथ. प. पग तूं पग. का० काया सूं काया. अ० अङ्गोपाङ्ग महामाही पण फरसतो थको. त ति गरे पछे. सं० जयणा सहित. जं. जंघा प्रमाण उतरे. उ० उदक में विषे. मा० जिम जगन्नाथे ईर्या कहो तिम चाले.
अथ इहां पिण काया. पग. में पूंजो एक पग जल में एक स्थले में पग ते ऊचो उपाडो इम जडा ते पिण्डो प्रमाण नदी उतरवी कही। इहां तो प्रत्यक्ष नदी उतरवा रो आज्ञा दीधी छै। इहां नावा नों घणो विस्तार कह्यो छै। ते नावा नी पिग आज्ञा दोषो छ। तो जिन आज्ञा में पाप किम कहिये । इहां मदो तथा नावा उतला जीव री घात हुवे, पिण जिन आक्षा छै ते माटे पाप नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
वली अनेक ठामे जीव री पात छे ते कार्य री जिन माज्ञा . तिहां पाप नहीं। ते पाठ लिखिये छ।
निग्गंथे निग्गंथी सेयंसिवा पंकंसिवा वणगंसिवा. उदयंसिधा ओक समाणिवा ओबुभ माणिवा गेण्हमाणे वा अवलंबमाणेवा नाइकमइ ॥१०॥
नि० साधु. नि० साध्वी ने. से. पाणी सहित जे कादो तिहां वृद्धती. ५० जल रहित कादा ने विधे वड़तो. ५० बनेरा ठाम नों कादो आव्यो पातलो ते ढीलो अथवा नोलण पूरण. उ. नदो प्रमुख ना पाणो माहि. उ० उदक पाणी माहि ते पाणीये करो ताणोजती मकी में . नि. ग्रहवां थकां पूर्ववत. भा० आधार देतां कां. ना. भाज्ञा अतिक्रमे नहीं,
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भ्रम विध्वंसनम्।
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अथ अठे कह्यो-साध्वी पाणी में डूबती ने साधु बाहिरे काढे तो आज्ञा उल्लंबे नहीं। जे पाणो में डूबती साध्वी ने पिण साधु बाहिरे काढे तेहमें एक नो पाणी ना जीव मरे. बीजो साध्वी रो पिण :संघटो, ए विहूं में जिन आज्ञा छै ते माटे तिण में पाप नहीं। ए तिम नदी उतरे तिहां जीव री घात छै, पिप जिन आज्ञा छै ते माटे पाप नहीं। अने जे नदी में पाप कहे तिण रे लेखे नदी में डूबती साध्वी नें पाणी माहि थी बाहिरे काढे तिण में पिण पाप कहिणो। अनं साध्वी पाणो माहि:शी बाहिरे काढ्यां पाप नहीं तो नदी उतसां पिण पाप नहीं छ। अने पाणी माहि थी साध्वी ने बाहिरे काढे अनें नदी उतरे. ए बिहूं ठिकाने जीव नी घात छै, अनें बिहूं ठिकाणे जिम आज्ञा छै। ते माटे बिहूं ठिकाणे पाप नहीं। डाहा हुवे तो विचारि-जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली बृहत्कल्प:उ० १ कह्यो ते पाठ लिखिये छ ।
को कप्पइ निग्गंथस्स एगणियस्स राअोवा विधाले वा वहिया विधार भूमिं वा विहार भूमिं वा निकनमित्तएका पविसित्तए वा कप्पइ से अप्पविश्यरून वा अप्प तईयरस वा राओवा वियाले वा वहिया वियाद भूमि वा विहार भूमिं या निक्खमित्तए वा। पविसित्तए वा ॥ ४७॥
(वृहत्कल्प उ०१)
नो न कल्प. नि० निरन्थ साधु ने. ए० एकलो उठवो जायका. रा० रात्रि ने विषे. व० वाहिर. वि० स्थण्डिल भूमिका ने विषे. वि० स्वाध्याय भूमिका ने विषे नि० स्थानक थी वाहर निकलवो स्वाध्याय प्रमुख करवा. प० पेसवो. क० कल्पे से ते. साधु ने प्र० पोता सहित वीजो. अ० पोला सहित तीजो. रा. रात्रि ने विपे. वि० सन्ध्या ने विधे..
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आज्ञाऽधिकारः ।
व० वाहिर वि० स्थंडिले जाइवो. वि० स्वाध्याय करिवा नी भूमिका में विषे जायवो. पा० पेसवो.
अथ अठे पिण कह्यो-रात्रि तथा विकाले "विकाल ते सन्यादिक केतलीक वेला ताई विकाल कहिई ) न कल्पे एकला साधु ने स्थानक बाहिरे दिशा जाइबो तथा स्थानक बाहिर स्वाध्याय करवा जाइवो। अन आप सहित बे जणा ने तथा तीन जणा में स्थानक वाहिरे दिशा जाइ वौ तथा स्वाध्याय करवा जायवो कल्पे। इहां पिण रात्रि में विषे स्थानक वाहिरे दिश जावारी तथा स्वाध्यायकरवारी आज्ञा दीधी। तिहां रात्रिमें अपकाय वर्षे ते माटे इहां पिण जीवरी घात छै। जो नदी उतसां जीव मरे तिण रो पाप कहै तौ रात्रिमें स्थानक वाहिरे दिशा जावै तथा स्वाध्याय करवा जावै तिहां पिण तिण रे लेखे पाप कहिणौ। अने रात्रिमें दिशा जाय तथा स्वाध्याय करवा जाय तिहां पाप नहीं तो नदी उतसां पिण पाप नहीं। तथा स्थानक बाहिरे दिशा जाय तथा स्वाध्याय करवा जाय ए बिहूं ठिकाणे जीव री घात छै अनें बिहूं ठिकाणे जिन आज्ञा छै। जो इण कार्य में पाप हुवे तो उदेरी ने स्वाध्याय करवा क्यूं जाय, पिण इहां जिन आज्ञा छै ते माटे पाप नहीं। तिम नदी उतखां पिण पाप नहीं। जो वीतराग री आज्ञा में पाप हुवे तो किण री आज्ञा में धर्म हुवे। अने जे कार्य में पाप हुवे तिण री केवली आज्ञा किम देवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
इति आज्ञाऽधिकारः।
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अथ शीतल - आहाराऽधिकारः ।
केसला एक कहे - वासी ठण्डा आहार में द्वीन्द्रिय जीव छै । इम कहे। सूत्र ना अजाण है । भनें भगवन्त तो डाम २ सूत्र में ठण्डो माहार लेणो को है । ते पाठ लिखिये छै ।
पंताणि वेव सेवेजा अदुवकसं पुलागं वा
सीय पिण्डं पुराण कुम्मासं । - जवणाए निसेवए मंथं ॥ १२ ॥
( उत्तराध्ययन ०८ गा० १२ )
पं० निरस धशनादिक. से० भोगवे सी० शीतल पिगड. श्रा० आहार घणावर्ष नृ जूनों धान कु० श्रभ्यन्तः नीरस उड़द श्र० अथवा व० मूंग उड़दादिक. पु० असार वालचणादिक. to शरीर में निर्वाह यात्रा ने अर्थे नि० भोगवे. मं० वोरनूं चूर्ण.
अथ इहां पिण शीतल ठण्डो आहार लेणो कह्यो । जे ठण्डा आहार में द्वीन्द्रिय जीव हुवे तो भगवान् ठण्डा आहार भोगवण री आज्ञा क्यूं दीधी । डाहा हुये तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
तथा बली आचाराङ्ग में कोते पाठ लिखिये है
।
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शीतल आहाराऽधिकारः।
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अविसूइयं वा सुक्कंवा सीय पिंडं पुराण कुम्मासं। अदु वुक्कसं पुलागं लद्धेपिंडे अलद्धए दविए ॥१३॥
(भाचाराङ्ग भ्र० ११ अ०६ उ०१)
१० ढीलो द्रव्य. सु० खाखरा सरीखो सुखो. सी० शीतल. पि० श्राहार. पु० जना घणा दिवसना नीपवा. कु० उड़दां नूं भात अ० अथवा. वु० जूना धान नों पु० चयणा नूं धान. लाये थके पि. आहार. अ० प्रणलाचे थके. रागद्वेष रहित. द० एहवो थको. मुकि गामी थाय.
___अथ इहां पिण भगवन्त ओल्यो (ठण्डो आहार विशेष ) लीधो कह्यो। वली शीतल पिण्ड ते वासी आहार पिण भगवान् लीधो एहवो कह्यो। तिहां टीका में पिण “सीयपिण्ड” पपाठ नों अर्थ बासी भात कह्यो। तिहां टीका लिखिये छ।
___ "शीत पिडं वा पर्युषित भक्तंवा तथा पुराण कुल्माषं वा वहुदिवस सिद्ध स्थित कुल्माषंवा"
इहाँ टीका में पिण कह्यो-शीतल पिण्ड ते रात्रि नों रह्यो बासी भात, तथा पुराणा उड़द नो भात, तथा घणा दिवस ना नीपना उड़द नों भात भगवान् लीधो, ते माटे ठण्डा बासी आहार में जोव नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
तथा अनुत्तरोवाई में कह्यो-धन्ने अणगार एहवो अभिग्रह धासो, ते पाठ लिखिये छ।
तएणं से धरणे अणगारे जंचेव दिवसे मुंडे भवित्ता जाव पव्वइयाए तं चेव दिवसेणं समणं भगवं महावीरं वंदइ नम
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३५८
भ्रम विध्वंसनम् ।
सइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो एवं खलु इच्छामिणं भंते ! तुब्भेहिं अब्भपुणाए समाणे जाव जीवाए छटुं छट्रेणं अणिखित्तणं आयंविल परिगहिएणं तवो कम्मेणं अप्पाणं भाव माणस्स विहरित्तए छतुस्स वियणं पारणयंसि कप्पइ, से आयंविलस्स पडिगाहित्तए णो चेवणं अणायं विलेतं पिय संसट्र णो चेवणं असंसद तं पिय णं उब्झिय धम्मियणो चेवणं अणज्झिय धम्मियं तं पिययणं अराणे वहवे समण. माहण. अतिथी. किवण घणी मग्ग नाव कखंति अहासुहं देवाणु प्पिया मा पडिबंधं करेह ।
(अनुत्तर उवाई )
त तिवारे. से० ते. ध धन्नो अणगार. जे० जि० जिन दिन मुंडितहुवो. प० दीक्षा दोधी तिण हो, स० श्रमण भगवान महावीर नें. व० वादे नमस्कार करीने. ए० इम वोल्यो ए० इम निश्चय इ० माहरी इच्छा छै. भ. हे भगवन् ! तु० तुम्हारी. अ० आज्ञा हुइं थके. जा. यावत जीव लगे. छ० वेले २ पारणो. अ० आंतरा रहित. पा० प्रांवलिक रूं. प० एहवो अभिग्रहो करी ने. तः तप कर्म ते १२ भेदे तिण सूं. श्र० प्रापणी आत्मा ने भा० भावतो थको विचरूं छ० जिवारे वेला रो. पा०पारणो आवे तिवारे. क० कल्पे. म० मुझ ने. प्रा० आंविल योग्य प्रोदनादिक. ५० एहवो अभिप्रह करूं. णो नहों. 'चे निश्चय करो ने. आ० प्रांविल योग्य प्रोदनादिक न हुई ते न लेउ. त० ते पिण सं० खरड्या हस्तादिक लेस्यूं णो० नहीं चे निश्चय करी नें. अ० अण खरड्यो न लेस्यूं. तं० ते पिण. उ० नाखीतो आहार लेस्यूं ध० स्वभाव छै. णो नहीं चे निश्चय करी ने. अ० अणनाखीतो आहार न लेस्यूं ध० स्वभावे. त० ते पिण. अ. अनेरा. २० घणा. स. श्रमण शाक्यादिक. मा० ब्राह्माणादिक. अ. अतिथि. कि० कृपण दरिद्री. व. वणीमा रांक. ते न बांछे ते लेस्यू. ( भगवान् बोल्या ) श्रा० जिम तुम्हा नं सुख हुइ तिम करो. दे. हे देव नुप्रिय. मा० ए तप करवा ने विषे ढील मत करो.
अथ अठे धने अणगार अभिग्रह लियो बेले २ पारणे आंविल खरड्ये हाये लेणो, ते पिण नाखीतो आहार वणीमग भिख्यारी बांछे नहि तेहबो आहार लेणो
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शीतल आहाराऽधिकारः
३५६
कह्यो । ने तो अत्यन्त नीरस ठण्डो स्वाद रहित. वणीमग रांक बांछे नहिं ते लेणो को । अनें ठण्डा में जीव हुवे तो किम लेवे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा प्रश्न व्याकरण अ० १० में कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
पुरवि जिभिंदिएण साइयरसाई अमरगुरण पावगाइ किंते रस विरस सी लुक्ख निजप्प पाण भोयणाई दोसीय वावरण कुहिय पूहिय अमरण विराट सुय २ बहु दुभिंगंधाइ तित्तकडु कसाय अविल रस लिंट नी रसाइ सुय एव माइएस अमरण पावएस तेसु समणेा रू सियव्वं जाव चरेज धम्मं ॥ १८ ॥
( प्रश्नव्याकरण अ० १०)
उ० चली. जि० जिह्वा इन्द्रिये करी. सा० अस्वादीय रस. ० श्रमनोश पा० पाहुनारस अस्वादो चारित्रया नें द्वेष न आणिवो कि० ते केहनो अ० गुललचणादिक लूखौ चार रहित रस रहित वि० पुराना भाषे करी विगतरस. सी० ताढ़ा जेह थकी शरीर नी याप मी न थाइ एतावता निर्बल रस. भोजन तथा एहवा. पाणी नें दो० वासी अन्नादिक. व० वनिष्ट कं० कह्यो ५० अपवित्र अत्यन्त कुद्यो अ० अमनोज्ञ वि० विणठारस. ब० घणा दु० दुर्गन्ध ति० नोब सरीखो. क० सूंठ मिरच सरीखो. क० कषायलो बहेड़ा सरीखो. अ० विल रस तक्र सरीखो. लि० शैवाल सरीखो नी० पुरातन पाणी सरीखी. नीरस रस सहित एहवी रस श्रास्वाद द्वेष न प्राणिवो अ० अनेरा इत्यादिक रसने विषे. अ० अमनोश. पा० पाडुआ. तेहने विषे. ० रिवो नहीं जा० इत्यादिक पूर्ववत् चे० धर्म चारित्र लक्षण रूप निरतिचार प०ये, चौथी भावना कही.
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श्रम विध्वंसमन् ।
अथ अठे पिण शीतल आहार लेणो कह्यो। वली "दोसीण" कहितां बासी अन्नादिक बावण कहिता विमष्ट कह्यो अत्यन्त अमनोज्ञ विणठो रस एहवो आहार भोगवी चारित्रया में द्वेष न आणवो कह्यो। ते माटे ठण्डा आहार में विणस्यां पुद्गल कहीजे। पिण जीव न कहीजे। जे किणहिक काल में ठण्डो आहार नीलण फूलण सहित देखे ते तो लेवो नहीं। तथा उन्हाला में १२ मुहर्त्त नी रात्रि अर्ने १८ मुहूर्त :नों दिन हुवे जो सन्ध्या नी कीधी रोटी प्रभाते न लेवे बासी में जीव श्रद्ध ते माटे। तो तिण में बीचमें मुहूर्त १२ बीत्यां जीव श्रद्ध तो जे प्रभात री कीधी रोटी ते आथण रा किम लेवी। तिण बीच में तो १७-१८ मुहूर्त बीत्यां तिण में जीव उपना क्यूं न श्रद्ध। अनें रात्रि में जीव उपजे दिन में जीव न उपजे, एडवो तो सूत्र में चाल्यो नहीं। अनें जे प्रभात री कीधी रोटी में माथण रा जोव श्रद्वे न कहे तो सन्ध्या नी कीधी रोटी में पिण प्रभाते जीव न कहिणा। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
इति शीतल-अाहाराऽधिकारः।
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अथ सूत्रपठनाऽधिकारः।
केतला एक कहे-स्थ सूत्र भजे तेहनी जिन आज्ञा छै। ते सूत्र मा अजाग छै अनें भगवन्त नी आज्ञा तो साधु नें इज छै। पिण सूत्र भगवा री गृहस्थ ने आज्ञा दीधी न थी। जे प्रश्न व्याकरण अ० ७ कयो ते पाठ लिखिये छै।
महारिसीणय समयप दिसणं देविंद नरिंद भायियस्थ ।
( प्रश्न व्याकरण अ०७)
म. महर्षि उत्तम साधु तेहने स० संयम भणिये सिद्धान्त तेगो करी. प. दोधी श्री चीतरागे दोधा सिद्धान्त साधु हीज भणी सत्य वचन जाणे भाषे एवं अक्षरे इम जाणिये. श्री वीतराग नी आज्ञाइ सिद्धान्त भणिवा. साधु होज ने छे. जीजा गृहन्थ में दोधां इम न करो। ते भणी वली गीतार्थ कहे. ते प्रमाण दे. देव सौधर्म इन्द्रादि न० नरेन्द्र राजादिक तेहने. भा० भाष्या. प० परूप्या. अर्थ जेहना एतावता नरेन्द्र देवेन्द्रादिक सिद्धान्तार्थ सांभली सत्य वचन जाणे.
अथ इहां कह्यो–उत्तम महर्षि साधु ने इज सूत्र भगवा री आज्ञा दीधी । ते साधु सिद्धान्त भणी ने सत्य वचन जाणे भाषे। अने देवेन्द्र नरेन्द्रादिक ने भाष्या अर्थ ते सांभली सत्य वचन जाणे । ए तो प्रत्यक्ष साधु ने इज सूत्र भणवा री आज्ञा कही। पिण गृहस्थ ने सूत्र भणवा री आज्ञा नहीं। ते माटे श्रावक सूत्र मणे ते आप रे छांदे पिण जिन आज्ञा नहीं। हाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
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३६२
छै
1
भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा व्यवहार उद्देश्य १० जे साधु सूत्र भणे तेहनी पिण मर्यादा कही ते पाठ लिखिये छै ।
तिवास परियाए समरणस्स निग्गंथरस कप्पति आयार कप्पे नाम अयणे उद्दिसित्तए वा चउवास परियाए समग ग्गिंथस कप्पति सुयगड णामं अगं उदिसित्तए वा । पंचवास परियायस्स समरणस्स निग्गंथस्स कव्पति दसाकम्प - ववहार नामं अभय उद्दिसित्तएवा । अदुवास परियागस्स समरणस्स निम्गंथरस कप्पति ठाण समवाए णामं अङ्ग उद्दिसित्तए । दसवास परियागस्स समराइस ग्रिस कम्पति विवाहे नाम प्रगे उद्दिसित्तए ।
( व्यवहार- १० उ०
ति० ३ वपनी प्रब्रज्या ना धणी नें. स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थने प्रा० श्राचार, कल्प नाम. श्र० अध्ययन ॐ भगवो च० ४ वर्ष नी प्रब्रज्या ना धणी नें स० श्रमण निः निर्ग्रन्थ ने. स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थ ने कर कल्पे. सु० सूयगडाङ्ग उ० भगवो पं० ५ वर्ष नी प्रब्रज्या नाणी. स० श्रमण निः निर्ग्रन्थ ने द० दशाश्रुत स्कन्ध वृहत्कल्प. व० व्यवहार नामे अध्ययन उ० भावो. अ० आठ वर्ष नी प्रब्रज्या ना घणो ने स० श्रमण वि० नियंन्थ में क० कल्पे टा०ठाणांग अने. समवायाङ्ग, उ० भावो १० वर्ष नी प्रब्रज्या ना धणी ने स श्रमण. नि० निर्ग्रन्थ ने. क० कल्पे. वि० विवाह पति नाम अंग. उ० भगवो.
अथ अठे को-तीन वर्ष दीक्षा लियां नें थया ते साधु ने आचार, कल्प ते निशीथ सूत्र भणवो कल्पे । च्यार वर्ष दीक्षा लियाँ साधु ने कल्पे सूयगडाङ्ग भणिवो । ५ वर्ष दीक्षा लियां साधु ने कल्पे दशाश्रुतस्कंध बृहत्कल्प. अनें ववहार सूत्र भगवो । अनें आठ वर्ष दीक्षा लियां साधु ने कल्पे ठाणाङ्ग सम वायाङ्ग भयो । १० वर्ष दीक्षा लिया साधु ने कल्पे भगवती सूत्र भणिवो । साधु ने पण मर्यादा सुत्र भणवा री कही । जे ३ वर्ष दीक्षा लियां पछे निशीथ
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सूत्रपठनाऽधिकारः।
सूत्र भणवो कल्पे। अने ३ वर्ष दीक्षा लियां पहिला तो साधु ने पिण निशोथ सूत्र भणवो न कल्पे। अर्ने ३ वर्ष पहिलां साधु निशीथ सूत्र भणे तेहनी जिन आज्ञा नहीं। तो गृहस्थ सूत्र भणे तेहनी आज्ञा किम देवे । जे ३ वर्षा पहिला साधु सूत्र , भणे ते पिण आज्ञा बाहिरे छै तो जे गृहस्थ सूत्र भणे ते तो प्रत्यक्ष बाहिरे छै। जे श्रावक निशीथ आदि दे सूत्र भणे ते जिन आज्ञा में छै तो जे साधु ने ३ वर्षा पहिला निशीथ भणवा री आज्ञा क्यूं न दीधी। अनें साधु ने पिण ३ वर्ष पहिला आज्ञा न देवे तो श्रावक सूत्र भणे तेहने आज्ञा किम देवे। ए तो प्रत्यक्ष श्रावक कालिक उत्कालिक सूत्र भणे ते आज्ञा वाहिरे छै। पोता ने छांदे भणे:छै तेहमें धर्म नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण।
तथा निशीथ उ० १६ कह्यो-ते पाठ लिखिये छ।
जे भिक्खू अण उत्थियंवा गारत्थियं वा वायतिवायं तं वा साइजइ. ॥ २७॥
(निशीथ उ० १६)
जे जे कोई साधु साध्वी. अ. अन्यतीर्थी ने. गा० गृहस्थ ने. वा० वोचणी दे. वा. वाचणी देता ने अनुमोदे तौ पूर्ववत् प्रायश्चित्त कह्यो.
अथ इहां कह्यो-अन्यतीर्थी ने तथा गृहस्थ में साधु वाचणी देवे तथा वाचणी देता ने अनुमोदे तो प्रायश्चित्त आवे। ते माटे साधु वाचणी देवे नहीं वाचणी देता ने अनुमोदे नही तो गृहस्थ सूत्र भणे तेहनें धर्म किम हुये । जे श्रावक ने सूत्र नी वाचणी देता ने साधु अनुमोदना करे तो पिण चौमासी.दण्ड आवे तो
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भ्रम विध्वंसनम् ।
गृहस्थ आचरॆ मते सूल नी चांचणी मांहो माहि देवे तेह में धर्म किम हुवे हुवे । डाहा वे तो विचारि जोजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
३६४
4
वली तिहीज ठामे निशीथ उ० १६ कयो - ते पाठ लिखिये उ
जे भिवू आयरिय उवज्झाएहिं अविदिन्न गिरं आइ
यइ आइयंतं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥
( निशीथ उ० १६ )
० जे कोई साधु साध्वी प्रा० आचार्य. उ० उपाध्याय नी. अ० अणदीधी गि० वाणी ० श्राचरे भणे यांचे श्र० श्राचरतां ने वांचता ने अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त.
अथ
इस कह्यो–जे आचार्य उपाध्याय नी अण दोघो वाचणी आचरे तथा आचरतानं अनुमोदे तो चौमासी दंड आवे । ते गृहस्थ आपरे मते सूत्र भणे ते तो आचार्य री अग दीघो वाचणी छै । तेनीं अनुमोदन कियां चौनासी दंड भावे तो जे अणदीधाँ वाचगो गृहस्थ आचरे तेहनें धर्म किम कहिये । श्रावक सूत्र भणे तेहनी अनुमोदना करण वाला नें धर्म नहिं तो श्रावक सूत्र भणे तेहनें धर्म किम कहिये । जाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण |
तथा ठाणाङ्ग ठाणे ३ उ० ४ को -ते लिखिये छै 1
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सूत्रपठमाऽभिकारः।
३६५
तउ अवायणिज्जा प० तं.-आविणीए विगइ पडिवद्धे अविओ सियया हुडे ।
(ठाणांग ठा० ३ उ०४)
त० त्रिण प्रकारे बाचना में अयोग्य. प० परूप्या. तं० ते कहे है. अ० सूत्रार्थना देणहार ने वंदना न करे ते अविनीत. वि० घृतादिक रस ने विषे गृद्ध. अ. क्रोध जेणे उपशमाव्यो नथी. खमावी ने वली २ उदेरे.
इहां कह्यो- ए ३ वांचणी देवा योग्य नहीं। अविनीत १ विधे ना लोलुपी २ क्रोधी रवमावी वली २ उदेरे ३ ए तीन साधु ने पिण वाचणी देणी नहीं तो गृहस्थ तो क्रोधी. मानी. पिण हुवे अविनीत पिण हुवे। विधै नों गृध्र स्त्री आदिक नों गृध्र पिण हुवे। ते माटे श्रावक ने बाचणी देणी नहीं। अने साधां री आज्ञा बिना कोई गृहस्थ सूत्र बांचे तो पोता नो छांदो छ । तेहनें साधु अनुमोदे पिण नहीं, तो गृहस्थ सूत्र वांचे तेहनें धर्म किम हुवे । साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा उवाई प्रश्न २० श्रावका रे अधिकारे एहवो कह्यो । ते पाठ लिखिये छ ।
निग्गथे पावयणे निस्संकिया णिक्कंखिया निवितिगि छा लद्धष्टा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विगिछिया अट्रिमिंज पेमाणु रागरत्ता ॥ ६७॥
(उवाई प्रश्न २०)
निः निग्रंथ भी भगवन्त नों भाष्यो. पा० श्री जिम धर्म जिन शासन ना भाव भेद में विषे. वि० शंका रहित. नि. निरन्तर अतिशय सं कांक्षा भमेरा धर्म भी बांदा रहित. णिनि
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भ्रम विध्वंसनम् ।
रन्तर अतिशय सूं तिगिच्छा धर्म ना फल नों संदेह तिणे रहित. ल० लाधा छै सूत्र ना अर्थ वार वार सांभलवा थकी. ग्र० ग्रहण बुद्धिई ग्रह्या छै मन में विषे धारया है. पु० पूछा छं अर्थ संशय ऊपने. वार २ पूछवा थकी. अ० वार २ पूछयां थकां अतिशय सू पाम्या अर्थ निर्णय करो धारया श्र० जेहनी अस्थि मीजी पिण प्रमानुराग रक्त छै. धर्म में विषे.
अथ इहां कह्यो–अर्थ लाधा छै. अर्थ ग्रह्या छै. अर्थ पूछया छै. अर्थ जाण्या छै. इहां श्रावका ने अर्था रा जाण कह्या। पिण इम न कह्यो “लद्धासुत्ता" जे लाधा भण्या छै सूत्र इम न कह्यो ते माटे सिद्धान्त भणवा नी आज्ञा साधु ने इज छै। पिण श्रावक ने नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली सूयगडाङ्ग में श्रावका रे अधिकारे एहवो कह्यो ते पाठ लिखिये छै।
इणमं निग्गंथे पावयणे निस्सेकिया णिक्कंखिया निवितिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छिट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगगयट्ठा अट्ठिमिंज पेमाणु रागरत्ता।
( सूथगडांग अ०१८।
इ० एह नि० निग्रन्थ श्री भगवन्त नों भाष्यो. पा. श्री जिन धर्म जिन शासन ना भाव भेद ने विरे. नि शंका रहित. ही निरन्तर अतिशय सूं कांक्षा अनेरा धर्म नी बांछा रहित. गि निरन्तर अतिशय सूं तिपिच्छा धर्म ना फल नों संदेह तिणे रहित, ल० लाधा छै सूत्र ना अर्थ वार वार सांभलवा थकी. ग० ग्रहण बुद्धिई ग्रहा है. मन में विष धारया छै. पु० पूछा छै अर्थ संशय ऊपने. वार २ पूछवा थकी. अ० वार २ पूछयां थकां अतिशय सू पाम्या अर्थ निर्णय करी धारशा अः जेहनी अस्थि मीजी पिण प्रेमानुराग रक्त छ. धन में विषे.
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सूत्रपठनाऽधिकारः।
इहां पिण निर्गन्य ना प्रवचन ने सिद्धान्त कह्या । जे सिद्धान्त भणवारी आशा साधु नें इज छै। ते माटे निर्ग्रन्थ ना प्रवचन कह्या । सग्रन्थ ना प्रवचन न कह्या । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण
तथा सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० ११ में कह्यो। ते पाठ लिखिये छ।
आयगुत्ते सयादत्त छिन्न सोए अणासवे । ते धम्म सुधम्मक्खाई पडिपुण मणे लिसं ॥२४॥
(सूयगडाजश्रु०१० ११ गा००४)
प्रा० मन. वचन कायाइ करी जेहनी प्रात्मा गुप्त है. ते प्रात्मा गुप्त छै. सदा इ काले इन्द्रिय नों दमणहार छि० छेद्या है संसार स्रोत जेणे. अ० अना श्रवण प्राणातिपातादिक कर्म प्रवेश द्वार रूप राल्या ते आश्रय रहित. ते जेहवो शुद्ध धर्म कहे ते धर्म केहवो छै. प० पूतिपूर्ण सर्ष व्रति रूप. म० निरुपम. अन्य दर्शन में विषे किहाई नथी.
तथा इहां कह्यो-जे आत्मा गुप्त साधु इज शुद्ध धर्म नों परुपणहार छ । जाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ८ बोल सम्पूर्ण
तथा सूर्य प्रज्ञप्ति में कह्यो–ते पाठ लिखिये है।
सद्धाद्विइ उट्ठाणुच्छाह कम्म बल बीरिए पुरिस कारेहिं । जो सिक्खि उवसंतो अभायणे पविखवेजाहिं ॥३॥
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३६८
भ्रम विध्वंनम् ।
सोप वयण कुल संघवाहि रो नाण विणय परिहीणा। अरिहन्त थेर गणहर मइ फिरहोंति बालिंणो ॥ ४ ॥
( सूय प्रज्ञप्ति २० पाहुड़ा जे. काई. श्रद्धा. ति. उत्थान, उत्साह कर्म वल. बीय. पुरुषकार पराक्रम करी. श्रभाजन सूत्रज्ञान ने देशी तो देन वाला में हानि होसी. ॥ ३ ॥ इण प्रकारे अभाजन ने ज्ञान देणवाला साध प्रवचन. कल. गण. संघ. सू. वाहिर जाणवा ज्ञान. विनय रहित. अरिहन्त तथा गणधरां री मर्यादा ना उल्लंघन हार जाणवा ॥४॥
___ अथ इहां कह्यो-ए सूत्र अभाजन ने सिखावे ते कुल. गण. संघ वाहिरे ज्ञानादिक रहित कह्यो। अरिहन्त. गणधर. स्थविर. नी मर्यादा नों लोपहार कह्यो। जो साधु अभाजन ने पिण न सिखावणो तो गृहस्थ तो प्रत्यक्ष पञ्च आश्रव नों सेवणहार अभाजन इज छ। तेहन सिखायां धर्म किम हुवे। इत्यादिक अनेक ठामे सूत्र भणवा री आज्ञा साधु न इज छ। तिवारे कोई कहे- जो सूत्र भणवारी आज्ञा श्रावकों ने नहीं तो जिम नन्दी तथा समवायांगे माधा नें “सुयपरिग्गहिया" कहा तिम हिज श्रावकां ने पिण 'सुयपग्ग्गिहिया" कह्या निण न्याय जो साधां ने सूत्र भणवो कल्पे तो श्रावकां ने किम न कल्पे विहूं ठिकाणे पाठ एक सरीखो छै, पहवी कुयुक्ति लगावी श्रावका ने सूत्र भणवो थापे नेहनों उत्तर--
जे नन्दी ममवायांगे साधां नें “सुयपरिग्गहिया" कह्या ते तो सूत्र श्रुत अनें अर्थ श्रत विहूंना ग्रहण करवा थकी कह्या छै। अने श्रावकां ने “सुयपरिग्गहिया" कह्या ते अर्थ धृत ना हिज ग्रहण करणहार माटे जाणवा। उवाई तथा मूय. गडांग आदि अनेक सूत्रां में श्रावका ने अर्थ ना जाण कह्या पिण सूत्र ना जाण किहां ही कह्या नथी। अने केई वाल अज्ञानी 'सुय परिग्गहिया" नो नाम लेई ने श्रावका ने सत्र भणवो थापे ते जिनागम ना अनभिज्ञ जाणवा। सुय शब्द नो अर्थ श्रुत छ पिण सूत्र न थी । डाहा हुवे तो विचारि जोई जो।
इति ह बोल सम्पूर्ण
तिवारे कोई कहे जे "सुय" शब्द नों अर्थ श्रुत छै सूत्र न थी तो श्रुत नाम तो ज्ञान नो छ। अनं तमे सूत्र श्रुत अने अर्थ श्रुत ए बे भेद करो छो ते किण सूत्र ना
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सूत्रपठनाऽधिकारः।
३६६ अनुसार थी करो छो। इम कहे तेहनो उत्तर-ठाणाङ्गठाणे २ उद्देश्ये १ कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
दुविहे धम्मे पण्णत्ते तं जहा-सुअ धम्मे चेव. चरित्त धम्मे चेवः। सुअ धम्मे दुबिहे पण्णत्ते तं०---सुत्त सुअधम्मे चेव अत्थ सुअ धम्मे चेवः। चरित्त धम्मे दुबिहे पण्णत्ते तं.---आगार चरित्त धम्मे चेव. अणगार चरित्त धम्मे चेव।
... ( ठाणाङ्ग ठा० २ उ० १). :
दु० थे प्रकारे. ध० धर्म. प० परूप्यो. तं० ते को छे। सु० श्रुतधर्म चे० निश्चयः अनें च० चारित्र धर्म. च० निश्चय. । सु० श्रुतधर्म. दु० ब प्रकारे. ५० ५रूप्यो. तं० ते कहे छै. ४० सूत्र श्रुत धर्म. चे. निश्चय. अ० अर्थ श्रुतधर्मः । चे० निश्चय च० चारित्र धर्मः दु० बे प्रकारे प० परूप्यो. तं० ते कहे छै श्रा० भागार चारित्र धर्म ते बारह व्रत रूप अने चे० निश्चय. अ० प्रणगार चारित्र धर्म ते पांच महाव्रत रूप. चे० निश्चयः
अथ इहां श्रुत धर्म ना बे भेद कह्या-एक तो सूत्र श्रुत धर्म बीजो अर्थ श्रुत धर्म ते अर्थ श्रुत धर्म ना जाण श्रावक हुवे तेणे कारणे श्रावका ने "सुयपरिग्गहिया" कह्या । पिण सूत्र आश्री कह्यो न थी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण
तथा बली भगवती श० ८ उ० ८ अर्थ ने श्रुत कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
सुयं पडुच्च तो पडिणीया प० तं०-सुत्त पडिणीया अत्थ पडिणीया तदुभय तदुभय पडिणीया।
(भगवती श०८ उ०८)
४७
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३७०
भ्रमविध्वंसनम्।
मु० श्रुत ने ५० पाश्री त० त्रिण. प. प्रत्यनीक. प० परूप्या. तं०-ते कहे छे. सु० सूत्र मा प्रत्यनोक. अः अर्थ ना प्रत्यनीक खोटा अर्थ न भाव इत्यादिक त सूत्र अमें अर्थ ते बिहूंना प्रत्यनीक बैरी.
__ अथ इहां पिण श्रुत आश्री तीन प्रत्यनीक कह्या। सूत्र ना १ अर्थना २ अने विहूंना ३ । तिण में अर्थ ना प्रत्यनीक ने श्रुत प्रत्यनीक कह्यो तथा ठाणाङ्ग ठाणे ३ पिण इम हिज श्रुन आश्री तोन प्रत्यनीक कह्या तिहां पिण अर्थ ने श्रुत कह्यो इत्यादिक अनेक ठामे अर्थ ने श्रुत कह्यो छे। तेणे कारणे अर्थ ना जाण होवा माटे श्रावक ने "श्रुत परिग्रहीता" कहो पिण “सूत्र परिग्रहीता" किहां ही कह्यो न थी। डाहा हुवे तो विचार जोईजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण
तथा बली पत्नवणा पद २३ उ०२पंचेन्द्रिय ना उपयोग में श्रुत कह्यो छ ते पाठ लिखिये छै।
केरिसए नेरइये उक्कोस कालद्वितीयं णाणावरणिज्ज कम्म बंधति गोयमा ! सरणी पंचिंदिए सव्वाहिं एजती हिंपज्जत्ते सागारे जागरे सूतो वडते मिच्छादिट्ठी कण्ह लेसे उक्कोस संकिलिट्र परिणामे ईसि मज्झिम परिणामे वा एरिस एणं गोयमा ! णेरइए उकोस काल द्वितीयं णाणा वरणिज कम्मं बंधति ॥ २५ ॥
(पन्नवणा पद ०३ उ०२)
के कहवा थको यो नारकी. उ. उत्कृष्ट काल स्थिति नं. ण झाना नरणीय कर्म बांधे. गो. हे गोतम! स. संज्ञी पंचेन्द्रिय. स. सर्व पर्याप्तो. साकारोप योगवन्त जा० जागतो लिखा रहित नारकी ने पिण किवारेक निद्रा नो अनुभव हुई ते माटे जात वह्यो. सु० श्रतोययुक्त
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सूत्रपठनाऽधिकारः।
पंचेन्द्रिय ना उपयोगवन्त. मि. मिथ्या दृष्टि. क. कृष्ण लेश्यावन्त. उ० उत्कृट आकार. संक्लिष्ट परिणामवन्त इ० अथवा लिगारेक मध्यम परिणाम वन्त. ए० एहवो थको गो. हे गोतम ! थे. नारको उ० उत्कृष्ट काल नी स्थिति न० ज्ञाना दरणीय कर्म. ब० बांधे.
____ अथ इहां कह्यो-जे सन्नी पंचेन्द्रिय ‘पर्याप्तो जागरे सुत्तो वडत्ते" कहितां जागतो थको श्रुतोपयुक्त अर्थात् उपयोगवन्त ते मिथ्या दृष्टि कृष्ण लेश्यी उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम ना धनी तथा किश्चित मध्यम परिणाम ना धणी उत्कृष्ट स्थिति नों शाना वरणीय कर्म बांधे। इहां पंचेन्द्रिय ना अर्थना उपयोग ने श्रुत करो ते श्रुत नाम अनेक ठिकाणे अर्थनो छ। ते अर्थ ना जाण श्रावक होवा थी “सुय परिग्गहिया"कह्या छै। डाहा हुवे तो विचारि जोई जो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण
तथा वली आवश्यक सूत्र मा अर्थ ने आगम कह्यो अने अनुयोग द्वार मा भावश्रुत ना दश नाम परूप्या तिहां आगम नाम श्रुत नो कह्यो छै ते पाठ लिखिए छ।
सेतं भाव सुयं तस्सणं इमे एगट्रिया णाणा घोसा णाणा वंजणा नाम धेजा भवंति तं जहा
सुयं सुत्तं गंथं सिद्धति सासणं आणत्ति वयण उवएसो। पण्णवणे आगमेऽविय एगढा पजवासुत्ते । स तं सुयं ॥४२॥
( अनुयोगद्वार।
से ते भा० भावश्रुत कहिए त ते भा३श्रुत ने. इ. एप्रत्यज्ञ ए० एकार्थक ना० जुदा जुदा घोष उदात्तादिक. ना. जुदा जुदा व्यंजनाज्ञर. णा० नाम पर्याय. प० परूया. तं० ते कहे छसु श्रुत. सु. सूत्र. गं० ग्रन्थ. सि. सिद्वान्त. सा० शासन. पा. पाता. व. प्रवचन उ० उपदेश. प. पूज्ञापन प्रा० अागम ए० एकार्थ प० पर्याय नाम सूत्र ने वित्र से ते. मु. सुत्र कहिई।
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भ्रमविध्वंसनम् ।
इहां श्रुत ना दश नाम कह्या तिण में आगम नाम श्रुत नो कह्यो । अने अनुयोग द्वार मा अर्थ ने आगम कह्यो ते कहे छै । “तिविहे आगमे प० तंत्र - सुत्तागमे अत्यागमे तदुभयागमे " ए अर्थ रूप आगम कहो भावे अर्थ रूप श्रुत कहो आगम नाम श्रुतनों हीज छै । इत्यादिक अनेक ठामे अर्थने श्रुत कह्यो ते माटे श्रावकां ने अर्थ रूप श्रुत ना जाण कहीजे ।
३७२
तिवारे कोई कहे - जे तमे कहो छो श्रावकां ने सूत्र भणवो नहीं तो आवश्यक अ० ४ श्रावक पिण तीन आगम ना चवदे अतीचार आलोवे तो जं श्रावक सूत्र भणे इज नहीं तो अतीचार किण रा आलोवे तेहनों उत्तरए. सूत्र रूप आगम तो श्रावक रे आवश्यक सूत्र अर्थात् प्रतिक्रमण सूत्र आश्रयी है । तिवारे कोई कहे जो श्रावक ने सूत्र भणवो इज नहीं तो आवश्यक अर्थात् प्रतिक्रमण क्यूं करे तेहनों उत्तर- आवश्यक सूत्र भणवारी तो श्रावक नें अनुयोग द्वार सूत्र में भगवान् नी आज्ञा छै । ते पाठ कहे छै I
1
"समणे णं सावएणय अवस्सं कायव्वे हवइ जम्हा अन्तो अहो निसस्साय तम्हा आव वस्सयं नाम० " साधु तथा श्रावक ने बेहूं टंक अवश्य करवो तेह थी आवश्यक नाम कहिए। तेणे कारणे आवश्यक सूत्र आश्रयी सूत्रागम ना अतीचार आलोवे पिण अनेरा सूत्र आश्रयी न थी । तथा अनेरा सूत्र पाउना रसा कसा वैराग्य रूप केई एक गाथा श्रावक भणे तो पिण आज्ञा बाहिर जणाता न थी । ते किम तेह नों न्याय कहे छै । साधु ने अकाल में सूत्र नहीं वाँचचो पण रसा कसा रूप एक दोय तीन गाथा वांचवारी आज्ञा निशीथ उद्देश्ये १६ दीनी छै । तिम श्रावक पिण रसा कसा रूप सूत्र नी गाथा तथा बोल बांचे तो आज्ञा बाहिरे दीसे नहीं। तथा ज्ञान ना चवदे अतोचार मा कह्यो “अकाले कओ सिकाओ काले न कओ सिज्झाओ" ते पिण आवश्यक सूत्र आश्रयी जणाय है ।
तिवारे कोई कोई कहे - श्राबक न सूत्र नहीं भणवो तो राजमती ने बहुश्रुति क्यूं कही अनें पालित आवक ने पण्डित क्यूं कह्यो इम कहे तेहनो उत्तर--प पिण अर्थ रूप आश्रयी बहुश्रुति तथा पण्डित कह्यो दीसे छे । पिण सूत्र आश्रयी कह्यो दीसे नहीं | क्यूं कि कालिक उत्कालिक सूत्र अनुक्रम भणवो तो साधु ने हीज को छै पिण श्रावक ने कह्यो न थी । अनें गोतमादिक साधां में कोई चवदे पूर्व
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सूत्रपठनाऽधिकारः ।
३७३
भयो कोई इग्यार अङ्ग भण्यो एहवा अनेक ठामे पाठ छै । पिण अमुक श्रावक एतला सूत्र भयो पहवो पाठ किहां ही चाल्यो न थी । ते माटे सिद्धान्त भणवारी आशा साधु ने हीज छै । पिण अनेरा गृहस्थ पासत्यादिक में सिद्धान्त भणवार आज्ञा श्री वीतराग नी न थी । डाहा हुवे तो विचारि जोई जो ।
इति १३ बोल सम्पूर्णा
इति सूत्र पठनाऽधिकारः
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Name
अथ निरवद्य क्रियाधिकारः।
केतला एक अजाण आज्ञा वाहिरली करणी थो पुण्य बंधतो कहे। ते सूत्र ना जाणणहार नहीं। भगवन्त तो ठाम २ अज्ञा माहिली करणी थी पुण्य बंधतो कह्यो। ते निर्जरा री करणी करतां नाम कर्म उदय थी शुभ योग प्रवर्ते तिहां इज पुण्य बंधे छ। ते करणी शुद्ध निरवद्य आज्ञा माहिली छै । पुण्य बंधे तिहां निर्जरा री नियमा छे। ते संक्षेप मात्र सूत्र पाठ लिखिये छै ।
कहणणं भंते ! जीवाणं कल्लाण कम्मा कज्जति कालोदाई! से जहा नामए केइ पुरिसे मागणं थाली पाप सुद्धं अहारस वंजणा उलं ओसह मिस्सं भोयणं भंज्जेजा तस्सणं भोयरस आबाए नो भदए भवइ तत्रोपच्छा परिणम माण २ सुरूवत्ताए सुवरणत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइ वाय वेरमणे जाव परिगाह वेरमणे कोह विवेगे जाव मिच्छा दंसण सल्ल विवेगे तस्सणं आवाए नो भदए भवइ तोपच्छा परिणममाणे २ सुरूवत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुजो २ परिणमइ. एवंखलु कालोदाई जीवाणं कमाण कम्मा जाव कज्जीत।
(भगवती श. ७ उ०१०)
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निरवद्य क्रियाधिकारः ।
क० किम भ० भगवन्त ! जी० जीव ने क० कल्याण फल विपाक संयुक्त. क० कर्म. क० हु का हे कालोदायी ! से० ते. यथानामे यथा दृष्टांते. के० कोइक पुरुष. म० मनोश था० हांडली पाके करी शुद्ध निर्दोष. ० १८ भेद व्यज्ञ्जन शाक तक्रादिक तेणें करी युक्त उ० औौषध महातिक्त घृतादिक तियों मिश्र भो० भोजन प्रति भोगवे. ते भोजन नो. श्रा० आपात कहितां प्रथम ते रूडूं न लागे. त० तिवारे पछे औषध परिणमता ते सुरूप पणे सु० सुवर्ण पणे यावत्. ० सुख पणे. गो० नहीं. दु० दुःख पणे. भु० वार २ परिणमे ते० ए० औषध मिश्रित भोजन नी परे. का० कालोदाई. जी० जीव में. पा० प्राणातिशत वे० वेरमण थकी जा० यावत् प० परिग्रह वेरमण थकी. को० क्रोध विवेक थकी. यावत्. मि० मिथ्यादर्शन शल्य विवेक थकी. त० तेहने प्रथम न हुई सुख में अर्थे इन्द्रिय में प्रतिकूल पणा थी. त० तिवारे पछे प्राणातिपात. बेरमण थी उपनूं जे० पुण्य कर्म ते परिणामते छते शु० सुरूप पणे जा० यावत् णो० नहीं दुःख परि मे ए इस निश्चय का कालोदाई. जी० जीव ने क० वल्याण फल. जा० यावत्. क हुई.
३७५
1
अथ इहां कह्यो १८ पाप न सेव्यां कल्याणकारी कर्म बी । पाछले आलावे १८ पाप सेव्यां पाप कर्म नो बन्ध कह्यो । ते पाप नों प्रतिपक्ष पुण्य कहो. भावे कल्याणकारी कर्म कहो । ते १८ पाप न सेव्यां पुण्य बंधतो कह्यो । ते माटे १८ पाप न सेवे ते करणी निरवद्य आज्ञा मांहिली छै ते करणी सूं इज पुण्य रो बन्ध कह्यो । तथा समवायाङ्ग ५ मे समवाये कह्यो ।
"पञ्च निजरठाणा. प० पारणाइवायाओ वेरमणं मुसावाया अदिन्ना दाणा, मेहुणओ वेरमणं परिग्गहा वेरमणं”
इहां ५ आश्रव थी निवर्त्ते ते निर्जरा स्थानक वह्या । जे त्याग विनाइ पांच आश्रव टाले ते निर्जरा स्थानक ते निर्जरारी करणी छे। अने भगवान् पिण कालोदाई में इण निर्जरा री करणी थी पुण्य बंधतो कह्यो छै । पिण सावद्य आज्ञा वाहिली करणी थी पुण्य बंधतो न कह्यो । डाहा हुंवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण
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भ्रमविध्वंसतम्।
तथा उत्तराध्ययन अ० २६ कह्यो ते पाठ लिखिये छ ।
वंदण एणं भंते ! जीवे किं जणयइ वंदणएणं नीया. गोयं कम्मं खवेइ उच्चागोयं कम्मं निबंधइ, सोहग्गंच णं अपडिहयं प्राणा फलं गिवत्तेइ दाहिणा भावं चणं जणयइ ॥१०॥
( उत्तराध्ययन भ० २६)
वं. गुरु ने वन्दना करके करी. भ. हे पूज्य ! जी० जीव. कि० किसो फल उपार्जे. इम शिष्य पूच्या थकां. गुरु कहे छै. वे० गुरु में वंदना करवे करी करी ने. नी० नीचा गोल मीचा कुल. पामवाना कर्म. खः खपावे. ऊ० ऊंचा कुल पामवाना. कर्म. प्रि० वांधे. सौभाग्य भने भ० तिण री. अप्रतिहत प्रा० माज्ञा रो फल. नि० प्रवले. दा. दाजिण्य भाव उपार्जे
अथ इहां कह्यो-वन्दना ई करी नीच गोत्र कर्म खपावे ए तो निर्जरा कही अनें ऊंच गोत्र कर्म बंधे, ए पुण्य नों बन्ध कह्यो। ते पिण आज्ञा माहिली निर्जरा री करणी तूं पुण्य नों बन्ध कह्यो । डाहा हुवे तो विचारे जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण
तथा उत्तराध्ययन अ० २६ वो० २३ कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
धम्म कहाएणं भंते । जावे किं जणयइ. धम्म कहाएणं निजरं जणयइ. धम्म कहाएणं एयणं पभावेइ. पवयणं पभावे णं जीवे आगमेसस्स भदत्ताए कम्म निबंधइ. ॥२३॥
( उत्तराध्ययन अ०२६
५० धर्म कथा कहिवे करो. भ० दे भगवन ! जीव किसोफल. ज. उपार्जे. इम शिष्य पछे छते गुरु कहे . ध धर्म कथा कहिवे करी. नि. निर्जरा करवा नी विधि उपार्जे. ध धर्म कथा
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- निरवद्य क्रियाधिकारः ।
३७७
कहवे करी. सि. सिद्धांत नी प्रभावना करे. सिद्धांत ना गुण दिपावे सिद्धांत ना गुण दिपावे करी. जी० जीव. प्रा० अागले. भ० कल्याण पणे शुभ पणे. क० कर्म बांधे.
__ अथ इहां पिण धर्म कथाइं करी शुभ कर्म नों बन्ध कह्यो। ए धर्म कथा पिण निर्जरा ना भेदां में तिहां जे शुभ कर्म नों बंध छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण
।
तथा उत्तराध्ययन अ० २६ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ।
वेयावच्चेणं भंते! जीवे किं जणइय. वेयावच्चेणं तित्थयर णाम गोसं कम्मं निबंधइ ॥४३॥
(उत्तराध्ययन प्र०२६)
वे० प्राचार्यादिक नो वैयावच करते करी. भ. हे पूज्य ! जी. जीव. कि० किसो ज. फल उपार्जे. इम शिष्य पूछे छते गुरु कहे छै. वे० प्राचार्यादिक नी वैयावच करके करी. ति. तीर्थ कर नाम गोत्र कर्म. नि० बांधे.
अथ इहां गुरु नी व्यावच कियां तीर्थङ्कर नाम गोत्र कर्म नो बन्ध कह्यो। ए व्यावच निर्जरा ना १२ भेदां माहि छै। तेह थी तीर्थङ्कर गोत्र पुण्य बंधे कह्यो, ए पिण आज्ञा माहिली करणी छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा भगवती श० ५ उ०.६ कह्यो ते पाठ लिखिये है।
४८
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कहां भंते! जीवा सुभ दीहाउ यत्ताए कम्मं पकरंति गोयमा ! नो पाणे अइवाएत्ता नो मुसं वइत्ता तहा रूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता प्रणयरे म पीइकारणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिला - भित्ता एवं खलु जीवा जाव पकरंति ॥४४॥
( भगवती श०५ उ०६/
३७८
क० किम. जी० जीव. मं० भगवन्! शु० शुभ दीर्घ आयुषा नों कम बांधे, गो० है गौतम ! खो० नहीं जीव प्रति हणे. गो० नहीं. मृजा प्रति बोले. त० तथा रूप स० श्रमणप्रति मा० माहण प्रति वं० वांदी ने यावत. प० सेवा करी ने अ० अनेरो म० मनोज्ञ. पी० प्रीति कारी इ' भले भावे करी. अ० अवन पान खादिम स्वादिने करी ने प्रतिलाभे ए० इम. निश्चय जीव यावत् शुभ दीर्घायुषो बांधे.
यहां जीवन हण्या. झूठ न वोल्यां तथा रूप श्रमण माहण. नें वन्दनादिक करी. अशनादिक दियां. शुभ दीर्घ आयुषा नों बन्ध कह्यो । शुभ दीर्घ आयुषो ते तीन वोल निरवद्य थी बंधतो कह्यो 1 तथा ठाणाङ्ग ठा० ६ साधु ने अन्नादिक दियां पुण्य कह्यो । अनें भगवती श० ८ उ० ६ साधु ने दीधाँ निर्जरा कही । ते आज्ञा माहिली करणी छै । डाहा हुए तो विचारि जोइजो !
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा ठाणाङ्ग ठा० १० बोल दश करो ने कल्याणकारी कर्म नों बन्ध कह्यो । से पाठ लिखिये छै ।
दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसि भद्दत्ताए कम्मं पगरति तं प्रति दाण्याए दिट्टि संपन्नयाए. जोग वहिययाए.
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निरवद्य क्रियाधिकारः।
खंति खमणयाए. जीइंदियाए. अमाइल्लयाए. अपासत्थयाए. सुसामन्नयाए. पवयण वच्छल्लयाए. पबयण उज्झावणयाए ॥११४॥
(ठाणांग ठा. १०)
भागमोई भवांतरे रूडूं देव पणो तदनंतर रूडू मनुष्य पणू पाम द० दश स्थानके करी जीव अने मोक्ष ने पामवे कल्याण छै तेहने एो अर्थे. क० कर्म शुभ प्रकृति रूप. ५० बांधे ८० ते कहे छै. ए दश बोल भद्र कर्म जोडवू. अ० छेदे जेणे करी आनन्द सहित मोक्ष फलवर्ती ज्ञानादिक नी आराधना रूप लता, देवेन्द्रादिक नी ऋद्धि नूं प्रार्थवा रूप अध्यवसाय ते रूप कुहाड़े करी ते नियाणू ते नथी जेहने ते अनिदान तेणे करी १ सम्यक्त्व दृष्टि पणे करी २ जो सिद्धान्त ना योग में वहिवे अथवा सगले उछरङ्ग पणा रहित जे समाधि योग. तहने. करखे करी ख० खमाई करी परिषह खमवे करी क्षमानु ग्रहण कहिउ ते असमर्थ पणे खमवा नं निषेध भणो समर्थ पणे खमे. इ० इन्द्रिय में निग्रहवे करी. अ. मायावी पणा रहिव. अ० ज्ञानादिक ने देश थको सर्व थकी वाहिर तिष्ठे ते पार्श्वस्थ देश थकी ते शय्यातर पिण्ड अभिहड नित्यपिण्ड अग्रपिण्ड निकारणे भोगवे. सु० पार्शस्थादिक ने. दोष ने वर्ज वे करी शोभन श्रमण पण तेणे करी भद्र. ५० पवयण प्रकृष्ट अथवा प्रशस्त वचन आगम ते प्रवचन द्वादशाङ्गी अथवा तेहनों अाधार सङ्घ तेहनों वात्सल्य हितकारी पणे करी प्रत्यनीक पण टालिबूं तेणे करी भद्र. ५० द्वादशांगी ने प्रभाव यूँ ते० धर्म कथावाद नी लब्धि करी यश, उपजावि वू. तेणे करी भद्र कर्म करे. ए भद्र कल्याण कर्म करणहार ने
__ अथ-अठे १० प्रकारे कल्याणकारी कर्म बंधता कह्या-ते दसुइ बोल निरवद्य छै । आज्ञा माहि छै। पिण सावध करणी आज्ञा वाहिर ली करणी थी पुण्य बंध कह्यो न थी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा भगवती श० ७ उ०६ अठारह पाप सेव्यां कर्कश वेदनी बंधे, अनें १८ पाप न सेव्यां अकर्कश वेद नी बंधे इम कह्यो। ते पाठ लिखिये छै।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कहाणं भंते ! जीवाणं ककस वेयरिणज्जा कम्मा कज्जति गोयमा ! पाणाइवाए णं जाव मिच्छा दंसण सल्लेणं एवं खल गोयमा जीवाणं कक्स वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ।
( भगवती श• 5 उ०६)
क० किम भट्टे भगवन् ! जी० जीव. क० कर्कश वेदनीय कर्म प्रति उपाजे छ हे गोतम ! पा० प्राणातिपाते करी. यावत, मि० मिथ्या दर्शन शल्ये करी ने १८ पाप स्थानके ए. इम निश्चय. गो. हे गोतम ' जीव ने कर्कश वेदनी कर्म हुवे छै.
अथ इहां १८ पाप सेव्यां कर्कश वेद नी कर्म नों वन्ध कह्यो। ते करणी सावध आज्ञा वाहिर ली छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा अर्ककश वेदनी आज्ञा माहि ली करणी थी बंधे इम कह्यो। ते पाट लिखिये छ।
कहाणं भंते ! जीवाणं अकाल वेयणिज्जा कममा कजन्ति गोयमा ! पाणाइवाय वेरमणेणं जाव परिग्रह वेरमगणं कोह वियेगेणं जाव मिच्छा दसण सल्ल विवेगेणं एवं खल गोयमा । जीवोणं अकस बेयणिजा कममा कजन्ति ।
(भगवती श०६ उ०७ ।
क० किम. भ भगवन्त ! जीव अकर्कश वेदनी कर्म प्रति उपार्ज छ. गो गोतम ! पाः प्राणातिपात रमण करी ने संयमई करी यावत परिग्रह रमण करी ने क्रोध ने वेस
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निरवद्य क्रियाधिकारः ।
करी ने जा० यावत् मिथ्या दर्शन शल्य वेरमणे करी ने १८ पाप स्थानक वर्जवे करो ए० ए निश्रय गो० हे गोतम ! जीव ने प्र० अकर्कश वेदनीय कर्म उपजे हैं.
३८१
अथ इहां १८ पाप न सेव्यां अकर्कश वेद नी पुण्य कर्म नों बन्ध कह्यो । ते करणी निरवद्य आज्ञा माहि ली छै । पिण सावद्य आज्ञा वाहर ली सूं पुण्य नों बन्ध न कह्यो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
तथा २० वोलां करी तीर्थङ्कर गोत्र बंधतो कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
I
इमे हिया वीसाहिय कारणेहिं असविय बहुलीकएहिं तित्थयर णामगोयं कम्मं निव्वतेसु तंजहा
अरिहंत सिद्धपवयण, गुरु थेरे बहुस्सुए तवस्सीसु । वच्छलयाय तेसिं, अभिक्ख गावोगेह ॥ १ ॥ दंसण विरय आवस्एय, सीलव्वए यणिरवइयारे । खणलव तवच्चियाए, बेयावच्चे समाहीयं ॥ २ ॥ अपुव्वणाणा गहणे, सुयभत्ती पवयणेप्पभावणया । एहिं कारणेहिं, तित्थयर त्तं लहइ जीवो ॥३॥
( ज्ञाता श्र० ८ )
इ० ए प्रत्यक्ष आगले. वी० वीस २० भेदां करी नें, ते भेद केहवा है. श्र० आसेवित है. मर्यादा करी ने एक वार करवा थकी सेव्या है. व० घणी वार करवा थकी घणी वार सेव्या. वीस स्थानक ते करी. तीर्थ कर नाम गोत्र कर्म नि० उपार्जन करे. बांधे. ते महाबल गारसेव्या ते स्थानक केहवा है. श्र० अरिहन्त नी श्राराधना ते सेवा भक्ति करे. सि० सिद्ध नी
-
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भ्रम विध्वंसनम् ।
श्राराधना ते गुणग्राम करवो पत्र प्रवचन सु० श्रुत ज्ञान सिद्धान्त नों बखायवो. गु० धर्मोपदेश गुरु नों विनय करे. थि० स्थविरां नों विनय करे. बहुश्रुति घणा श्रागम नों भानहार. एक २ अपेक्षाय करी ने जाणवो. त० तपस्वी एक उपवास आदि देई घणा तप सहित साधु तेहनी सेवा भक्ति ० अरिहन्त सिद्ध. प्रवचन गुरु. स्थविर. बहुश्रुति तपस्वी. ए सात पदावत्सलता पणे. भक्ति करी ने अने जे अनुरागी छतां ज्ञान नों उपयोग हुन्तो तीर्थ कर कर्म बांधे. दं० दर्शन ते सम्यक्त्व निर्मली पालतो, ज्ञान नों विनय भा० आवश्यक नों करवो
कम करो fro निरतिचार पणे करिये. सी० मूल गुण उत्तर गुण नें निरतिचार पालतो थको तीर्थकर नाम कर्म बांधे. ख० क्षीणलवादिक काल ने विषे सम्वेग भाव ना ध्यान रा सेवा थको बंध. त० तप एक उपवासादिक. नप सूं रक्त पणा करी. चि० साधु ने शुद्ध दान देई नं. ० १० विध व्यावच करतो थको गु० गुर्वादिक ना कार्य करके गुरु ने सन्तोष उपजात्रे करी में तीर्थ. कर नाम गोत्र बांधे. अ० अपूर्व ज्ञान भणतो थको जीव तीर्थंकर नाम गोत्र बांधे. सु० सूत्र ना भक्ति सिद्धान्त नी भक्ति करतो थको तीर्थंकर नाम कर्म बांधे प० यथाशक्ति साधु मार्ग नें देखावेकरी. प्र.चन नी प्रभावना तीर्थकर ना मार्ग ने दीपावे करी. ए तीर्थकर पणा ना कारण थकी २० भेदी बंधतो को
३८२
अथ अठे वीसुंइ वोलां नो विचार कर. लेवो ।
तीर्थङ्कर नाम कर्म ए पुण्य
छै ।
एपिण शुभ योग प्रवर्त्ततां बंधे छै । ए वीसुंइ वोल सेवण री भगवन्त नी आज्ञा है । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
तथा विपाक सूत्र में सुमुख गाथा पति साधु ने दान देई प्रति संसार करी मनुष्य नों आयुषो बांध्यो को छै । करणी आज्ञा महिली छै । इम दसुंइ जणा सुपात्रदान थी प्रति संसार कियो. अनें मनुष्य नों आयुवो वांध्यो. ते करणी निरव छै । सावध करणी थी पुण्य बंधे नहीं । तथा भगवती श० ७ उ० ६ प्राण. भूत. जीव. सत्व. नें दुःख न दियां साता वेद नी रो बन्ध कह्यो । ते पाठ : लिखिये छै ।
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३८३
निरवद्य क्रियाधिकारः। अस्थिणं भंते ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति, हंता अत्थि। कहणणं भंते ! साया वेयणिज्जा कम्मा कउजंति, गोयमा! पाणाणुकंपयाए. भूयाणुकंपयाए. जीवाणुकंपयाए. सत्ताणुकंपयाए. बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए. असोयणयाए. अजूरणयाए. अतिप्पणयाए. अपिट्टणयाए. अपरियावणयाए. एवं खलु गोयमा ! जीवाणं साया वेयणिज्जा कम्मा कज्जति एवं नेरइया णवि जाव वेमाणियाणं । अत्थिणं भंते ! जीवाणं असाया वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति, हंता अत्थि। कहणं भंते ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कजन्ति, गोयमा ! परदुक्खणयाए. परसोयणयाए. परजूरणयाए. परतिप्पर याए. परपिट्टणयाए परपरितावणयाए, वहूणं पाणाणं भूयाणं. जीवाणं. सत्ताणं. दुक्खणयाए. सोयणयाए. जाव परियावणयाए, एवं खलु गोयमा! जीवाणं असाया वेयणिज्जा कम्मा कजन्ति. एवं नेरइयाणवि. जाव वेमाणियाणं. ॥ १० ॥
( भगवती श०७ उ०६)
अ० अहो भगवन् ! जीव साता वेदनीय कर्म करे है. हं० हाँ गोतम ! जीव साता वेदनीय कर्म करे है. क० किम. भ० भगवन् ! जीव. सा० साता वेदनीय कर्म बांधे. ( भगवान् कहे ) गो० हे गोतम ! पा० प्राणी नो अनुकम्पा करी ने. भू० भूत नी अनुकम्पा करो. जी० जीवनी अनुकम्पा करी. स० सत्व नी अनुकम्पा करी. व० घणा प्राणी भूत. जीव सत्य ने दुःख न करवे करी. अशोक न उपजावे. अझरावे नहीं. अ. आंसूपात न करावे. अ० ताडना न करे. अ० पर शरीर ने ताप न उपजावे. दुःख न देवे. इम निश्चय. गो. हे गोतम ! जी० जीव सातो वेदनी कर्म उपजावे. ए० एणे प्रकार नारकी सूं वैमानिक पर्यन्त चौवीसुंइ दण्डक जाणवा. अ. अहो भ० भगवन् ! जी. जीव असाता वेदनी कर्म उपाजें छै. ह. (भगवान् वोल्या ) हां उपार्जे. क.
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भ्रम विध्वंसनम् ।
किम. भ० भगवन् ! जी जीव असाता वेदनी कर्म उपजावे. गो० गोतम ! ५० पर ने दःख करी. प० परने शोक करी. १० पर ने झुरावे करी. प० परने अश्रुपात करावे करी. प. परने पीटण करी पर ने परितापना उपजावे करी. व.घया प्राणी ने यावत. स. सत्व ने दुःख उपजावे करी. सोशोक उपजाये करी. जीव ने परिताप ना उपजावे करी. ए. इम निश्चय करी ने गो गोतम! जीव असाता बंदनी कर्म उपजावे छै. ए. इमज नारकी ने पिण वावत वैमानिक लगे.
अथ इहां कह्यो-साता वेदनी पुण्य छै ते प्राणी नी अनुकम्पा करी. भूत नी अनुकम्पा करी. जीव नी सत्व नी अनुकम्पा करी. घणा प्राणी भूत. जीव सत्व ने दुःख न देवे करी. इत्यादिक निरवद्य करणी सूं नीपजे छै। ते निरवद्य करणी आज्ञा माहिली इज छै। अनें असाता वेदनी कही ते पर ने दुःख देवे करी. इत्या. दिक सावध करणी सूं नीपजे छै। ते आज्ञा वाहिर जाणवी। ते माटे पुण्य नी करणी आज्ञा माहिली छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण।
वली आठों इ कम बंधवा री करणी रे अधिकारे एहवा पाठ छ। ते पाठ लिखिये छै ।
कम्मा शरीरप्पभोग बंधेणं भंते ! कइविहे पणणते गोयमा ! अट्ट विहे पण त्ते तं जहा-नाणा वणिज कम्मा शरीरप्पभोग बंधे जाव, अंतराइयं कम्मा शरीरणोग बंधे। णाणा वरणिज कममा सरीर प्पओग बंधे णं भंते: कस्स कम्मरस उदए गोयमा ! नाण पडिगोययाए नापण निराह वगयाए नाणंनरारणं नाणपदोसेणं णाणच्चासाय एणं नाण विसंवादणा जोगेणं नाणावरणिज्ज कममा सरीरप्पनोग
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निरषद्य क्रियाधिकारः। नामाए कम्मस्स उदएरगं नाणावरजि कम्मा शीपयोग बंधे ॥ ३७॥ दरिसणा वरणिज कम्मा सरीरप्पभोग बंधेणं भंते ! कस्ल कम्मस्स उदएणं गोयगा ! देसण पडिणीययाए एवं जहा नाणावरणिज्जं नवरं दसरा नाम धेयब्बं . जाव दंसण विसंवायणा जोगेणं दंसणावरणिज कम्मा सरीरप्पोगणामाए कम्मस उदएणं जावोग बंधे ॥३८॥ - साया वेयणिज कम्मा सरीरप्पोज बंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्त उदएणं गोयमा ! पाणाणुकंपथाए. भूयाणु कंपयाए. एवं जहा सत्तामसए दुस्समाउद्देसए जाब अपरियावणयाए। सायावेयणिज्ज कम्मा सरीरप्पभोग नामाए कम्मरस उदएणं साया वेयणिज जाव बंधे। असाया वेय. णिज्ज पुच्छा गोयमा! पर दुःखणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव परितापणयाए असाया वेयणिज कम्मा जावपयोग बंध ॥ ३९ ॥ .. मोहणिज कम्मा सरीर पुच्छा गोयमा ! तिव्व कोहयाए तिबमाणयाए. तिवमाययाए. तिव्वलोहयोए. तिव्वदंसण मोहरिणजयाए तिव्वचरित्तमोहणिजयाए. मोहणिज्ज कम्मा सरीरप्पभोग जाप्पभोग बंधे ॥ ४० ॥
____ इया उयकम्मा सरीरप्पभोग बंधेणं भंते ! पुच्छा गोयमा ! महारंभयाए. महा परिग्गहियाए. पंचिंदिय वहेणं. कुणिमाहारेणं, रोरइया उयकम्मा सरीरप्पओग णामाए कम्मस्स उदएणं रोरइया उपकम्मा सरीरप्वोग
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३८६
भ्रम विध्वंसनम् ।
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जाव बंधे। तिरिक्ख जोणिया उयकम्मा सरीरपुच्छा गोयमा! माइल्लयाए. निवडिल्लयाए. अलियबयणेणं कूड तुल्ल कूड माणेगां तिरिक्ख जोणियाउय कम्मा जावप्प ओग बंधे। 'मणस्सा उयं कम्मा सरीर पुच्छा गोयमा ! पगइ भदयाए पगइ विणीययाए. साणकोसणयाए. अमच्छरियत्ताए. म. णुस्ता उयकममा जावप्पभोग बंधे। देवा उयकममा सरीर पुच्छा गोयमा! सराग संजमेणं संजमासंजमेणं वालतवो कम्मेणं अकाम णिजराए देवाउय कममा सरीर जावप्प ओग बंधे ॥४१॥
सुभ नाम कममा सरीर पुच्छा गोयमा! काउन्जुययाए भाबुजुययाए भासुज्जुययाए. अविसंवादणा जोगेणं सुभ रणाम कममा सरीर जावप्पभोग बंधे असुभ नाम कममा सरीर पुच्छा गोयमा ! काय अणजुययाए जाव विसंवादणा जोगेणं असुभणाम कममा सरीर जावप्प ओग बंधे ॥ ४२ ॥
उच्चा गोय कममा सरीर पुच्छा गोयमा! जाति अमदेणं. कुल अमदेणं. बल अमदेणं. रूब अमदेणं. तव अमदेणं. लाभ अमदेणं. सुअ अमदेणं. इस्सरिय अमदेणं. उच्चा गोय कममा सरीर जावप्पयोग बंधे णीणा गोय कममा सरीर पुच्छा गोयमा ! जाति मदेणं. कुल मदेणं. बल मदेणं. जाव इस्सरिय मदेणं. णीयागोय कममा सरीरजावप्पोग बंधे ॥ ४३॥
अंतराइय कममा सरीर पुच्छा गोयमा ! दाणंतराएणं.
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निरवद्य क्रियाधिकारः ।
૨૮૭
लाभंतराएणं. भोगंतराएणं. उवभोगंतराएणं. बीरियंत राएणं. अन्तराइय कम्मा सरीरपयोग सामाए कम्मस्स उदएं अन्तराइय कम्मा सरीरप्पोग बंधे ॥ ४४ ॥
( भगवती श० ८ उ० ६ )
कर्म शरीर प्रयोग करी
हिवें कार्मण्य शरीर प्रयोग बन्ध अधिकारे करो कहे. क० कार्मगय शरीर प्रयोगबन्ध म० भगवन्त ! केतला प्रकारे प० परूप्यो. गो० हे गौतम! अ० आठ प्रकारे कह्यो । ना० ज्ञानावरणीय कर्म. शरीर प्रयोग बंधे जाव० यावत् श्र० अन्तराय बांधे उपाजें । णा० ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंधे भ० भगवन् ! क० कुण कर्म ना उदय श्री. गो० हे गौतम! या० ज्ञान तथा ज्ञानवन्त सूत्र प्रतिकूल तिखे करी ज्ञान मों गोपवो ते दिवो णा० ज्ञान भगतो होय तेहने अंतराय करे तथा ज्ञानवन्त सूं द्वेष करे. ज्ञान तथा ज्ञानवंत नी असातना करी ने पा० ज्ञान तथा ज्ञानवंत ना. वि० अववाद तेणे करी ने. ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोगबन्ध नाम कर्म ने उदय करी. गा० ज्ञानावरणीय २ कर्म शरीर प्रयोग बंधे । द० दर्शना वरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंधे. भ० हे भगवन्त ! कुण कर्म ने उदय करी. गो० हे गोतम ! द० दर्शन ते द० ज्ञाना वरणी नी परे जाणवो। न० एतलो विशेष द० दर्शन एहवो नाम की ने जाणवो. जा० यात्रत् ज्ञाना वरणी नी परे. द० दर्शन ना. वि० विसम्बाद योगेकरी द० दर्शना वरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंधे ॥३८॥ सा० साता वेदनी कर्म बंधे शरीर प्रयोग बंधे. भ० भगवन्त ! गोतम ! पा० प्राणी नी अनुकम्पा करी. भु० भूत नी दया करी. ए० इम जिम सातमे शतके दुःसम नामा छठे उद्देश्ये कह्यो तिम जावो. जा० यावत्. अ० परितापे करो में सा० साता वेदनी कर्म शरीर प्रयोग कर्म ना उदय थी सा० सातावेदनी कर्म. जा० यावत् वं० बंधे । अ० असाता वेदनी कर्म नी पृच्छा प० पर दुःख पमड़ावे करो. प० पर ने शोक पमाड़वे करी. ज० जिम सातमे शतके दशम उद्देश्ये को तिमज जाणवो. जा० यावत् पर नें परिताप उपजावे तिवारे. अ० असाता बेदनी कर्म नो यावत प्रयोग बंध हुवे ॥ ३६ ॥ मो० मोह नी कर्म शरीर प्रयोग नी पृच्छा गा० हे गोतम ! ति० ती लाभे करी. ति० तीब्र दर्शन मोहनीय करी. ति० लोब चारित्र मोहनी. अनें नौ कषाय नों लक्षण इहां चारित्र मोहनी कर्म शरीर प्रयोग बन्ध होय. ॥४०॥ ने० नारकी नों श्रायुषो कर्म शरीर प्रयोग बन्ध किम' होय. पृच्छा. गो० हे गोतम ! म० महा शारम्भ कर्मादिक करी. म० महापरिग्रहवन्त तृष्णा तेथे करी. पं० पंचेन्द्रिय नी घातकरी ने . कु० मांस न भक्षण करखे करो. ने० नारकी न श्रायुषो कर्म शरीर प्रयोग बन्ध नाम कर्म नें उदय करी नारकी नों आयु कर्म शरीर प्रयोग ध होय । ति० तिर्यञ्च योनि मर्म शरीर नी. पृच्छा. गो० हे गोतम ! मा०
कुण कर्म नें उदय थी. गो० हे
ने
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२८८
भ्रम विश्वसनम् ।
माया काटाई करी जं. नि. पर में वन्वये करी गूढ माया करी. अ. झूठा वचन बोल करी. कु० छुड़ा सोला कूड़ा मा पा करी ने, ति तिर्यञ्च नों यायु कर्म बन्ध होय. म. मनुष्य नो अायु कम नो पृच्छा. गोल गोतम ! ५० प्रकृति भट्टोक. ५० प्रकृति नो विनीत. सा. दाया ना परिगामे करी. श्र० . गरम पाता करी ने म मनुष्य नों घायुषो. जा. यावत कर्म प्रयोग बंधे । दे० देवता ना पाकर पीर नी पृच्छा. गो हे गोतम ! स० संयम ते सराग संयमे करो. संयमा संयम ते श्रावक पथा करी बाल तप करी तापसादिक. अ० अकाम निर्जरा करी. दे० देवता नों श्रायु कर्म ना शरीर प्रशाय बंधे. ॥४१॥ सु० शुभ नाम कर्म पृच्छा. गो हे गोतम ! का काया ना सरल एगे की भावशा सरल पकरी भा० भाषा नों सरल परमो. अ. गीतार्य कहे तेहवो करको विमान कझो तेथे करी. सुः शुभ नास कर्म शरीर जा. याप्त प्रयोग वधे. अ० अशुभ नामक पुः पृच्छा. गो गौतम ! का काया नों वक्र पणो. भा. भाव रो चक्र पयो मा मामाचक्र प. वि०विराम्बाद ते विपरीत करतो. अ.अशुभ नाम कर्म. मा० यावत प्रयोग वधे ॥४२॥ हु० उच्च गोत्र कर्म शरीर नी पृच्छा. गो. गोतम ! जा० जाति नों मद नहीं करे कु कुल नों मद नहीं करे. ब० बलनों मद नहीं करे. त• तप नों मद नहीं करे. सु० सूत्र नों सद न करे ई श्वर गद ते टकराई ना मद न करे. णा ज्ञान ते भणवा नों मद नहीं करे. उ० एतला बोने करी ऊन गोल वधे. नी० नीच गोत्र कर्म शरीर. जा. यादत. प० प्रयोग बंधे ॥४३॥ शंः अन्तराय कर्म नी पृच्छा. गो. हे गोतम ! दा० दान नी अन्तराय करी. ला० लाभ नी अन्तराय करी. मो. मोगनी अन्तराय करी. उ० उपभोग नी अन्तराय करी. वी. वीर्य अन्तराय को. गन्तराय कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म में. उ० उदय करी. अं० अन्तराय कमी शरीर प्रयोग बरे ॥४॥
अ आ निपजाबा री करणी सर्व जुदी २ कही छै। तिणमें ज्ञानावर परि. दर्शावरणीय. गोहनी, अन्तराय, ४ ए कर्म तो घण घातिया छै. एकान्त पाप छै। अमें एकान्त सावध करणी थी निएजे छै । तिण करणी री तीर्थङ्कर नी आमा नहीं। असाता पदनी. अशुभ आयुषो. अशुभ नाम. नीच गोत्र. ए ४ कर्मणि एकान पाप छै. ए पिग एकान्त सावध करणी सू निपजे छै। ते मर्च पाप कर्म सापा! ते तो १८ पाप स्थानकव्या लागे छै। अने साता वेदना. शुभायुमो. शुभ नाम ऊब गोत्र. ए ४ कम पुणय छ । शुभ योग प्रया ' लागे छ । ते करणी निरा री छ। जे करतां पाप कटे तिण करणी में तो शुभ योग निर्जरा कहीजे। शुभ योग प्रवर्ती नाही रा उदा खू महजे जोरी दावे घुगाय बंधे। जिम गेहूं निपजतां स्वाखलो सहजे निपजे छ। लिम दवादिक भली भारणा करताभ योग प्रवर्तका युगध सहजेइ लागे छ। तिम निर्जरा री करणी
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निरवद्य क्रियाधिकारः ।
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करतां कर्म कटे अने पुगय बंधे। पिण सावध करणी करता पुणय निपजे नहीं। ठाम २ सूत्र में निरवद्य करणो सम्बर. निर्जरा नी कही छै। पुणय तो जोरी दावे विना वाञ्छा लागे छै। ते किम शुद्ध साधु में अन्नादिक दोधो तिवारे अब्रत माहि लं काढ्यो व्रत में घाल्यो। तेहथी व्रत नीपन्यो. शुभयोग प्रवा. तिण सूं निर्जरा हुवे । अनें शुभयोग प्रवर्ते तठे पुणय आपेही लागे छै। तिण तूं आठ कर्म अने ८ कर्म नी करणी उत्तम हुवे। ते ओलख में निर्णय करे। सूत्र में अनेक ठामे निर्जरा सं. इज पुणध रो बन्ध कह्यो ते करणी निरवद्य आज्ञा माहि छ। पिण सावध आज्ञा वाहिर ली करणी थी पुणय बंधतो किहां इज कह्यो नथी। जे धन्नो अणगार विकट तप करी सर्वार्थ सिद्ध उपन्यो। एतला पुणय उपाया। ए पुणय भली करणी थी बंध्या के आज्ञा वाहिर ली करणी थी बंध्या। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक आज्ञा वाहिरे धर्म ना थापणहार कहे जो आज्ञा बाहिरे धम न हुवे तो धर्म रुचि ने गुरां तो कडुमो तुम्बो परठण री आज्ञा दीधी। अनें धर्म'रुचि पीगया। ए आज्ञा वाहिर लो कान कीघो तो पिण सर्वार्थ सिद्ध गया आराधक थया, ते माटे आज्ञा बाहिरे पिण धर्म छै। तत्रोत्तरम्- -
धर्म रुचि तो :आज्ञा लोपी नहीं. ते आज्ञा माहिज छै। ते किम् गुरां • कह्यो ए तुम्बो पीधो तो अकाले मरण पामसी। ते माटे एकान्त परठो इम मरवा
नों भय बतायो । पिण इम न कह्यो । जे तुम्बो पीधो तो विराधक थास्यो। इम तो कह्यो नहीं। गुरां तो मरवा नों कारण कही परठण री आज्ञा दीधी छै। ते पाठ लिखिये छ।
ततेणं धम्मघोसे थर तस्स सालतियस्स हावगाढस्त गंधेणं अभि भूय समाणा ततो सालाइयातो
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भ्रम विध्वंसनम् ।
हावगाढाओ एक बिंदुयं गहाय करयलंस आसादेइ तित्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्जं विस भूतिं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी - जतिगं तुमं देवाण प्पिया ! एयं सालतियं जाव हावगाढं आहारेसि तेगं तुमं काले चेव जीवियाओ ववरो विज्जसि, तंमाणं तुमं देवागुप्पिया ! इमं सालइयं जाव हारेसि माणं तुमं अकाले चैव जीवि - याओ व विज िस तं गव्यां तुमं देवाप्पिया ! इमं सालातियं एगंत मरणवाते अचित्ते थंडिले परिवेति २ अर फासुयं एसणिज्जं असणं ४ पडिगाहेत्ता आहार आहारेति
॥ १५ ॥
३६०
( ज्ञाता श्र० १६ )
त० तिरे ध० धर्म घोष थे० स्थविर. त० ते सा० शाक यो० स्नेह छै मिल्यो थको जेहनें विषे. तियरी. गं० गंधे करी. श्र० पराभूत हुवो थको ति० तिा. सा० शाक नों ये. मेह है मिल्यो थको जेहनें विषे. तिथ सूं ए० एक विन्दु ग० ग्रही ने क० हाथ में विषे. ० आस्वादन कोधो ति० तिक्तक. क्षार क० कडुवो. अ० अखाद्य अ० श्रभोज्य. वि० विष भूत एहवो. जा० जाणी नं. ० धर्मरुचि अणगार ने ए० इम कद्दे. ज० जो हे धर्म रुचि साधु देवानुप्रिय ! ए० ए क्षार रस युक्त वधारया वीगरयो थाहार जीमसी तो तो० तूं. अ० कालेज जीवतय थी रहित थासी तं० ते माठे मा० रखे तूं हे देवानुप्रिय इण शाक नों आहार करसी मा० रखे
काले जीवितव्य थी रहित थासी ते मोटे ज० जाउ तु० तुम्ह देवानुप्रिय ! ए० ए क्षार रसयुक्त व्यञ्जन. ए० एकान्त कोई नो दृष्टि पडे नहीं ए हवे निर्जीव स्थंडिले परिठवो २ अ० अन्य फा० प्राशुक. ए० एवणीय था० आहार प्राणी नें. आहार करो.
अथ अठे तो मरवा रो कारण कही परउण री आज्ञा दीधी छै । अने तुम्वो खावो बज्यों ते पिण मरण रा भय माटे वय छै । पिण विराधक रे कारण वय न थी । जे गुरां तो मरण से कारण कही तुम्बो पीणो वज्र्यो । अनें धर्म चि पंडित मरण आरेकरी में विशेष निर्जरा जाणी ने पी गया । तिण सूं आज्ञा मांहिज
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निरवद्य क्रियाधिकारः।
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है। ए तो उत्कृष्टा ई कीधी छै। पिण आशा लोपी नहीं। मनें जो माझा बाहिरे ५ कार्य हुवे तो . विराधक कहिता अविनीत, कहिता भने गुरां तो धर्म रुचि ने विनीत कह्यो। ते पाठ लिखिये छै।
ततेणं धम्मघोषा थेरा पुब्वगए उवओगं गच्छति उवोगं गच्छित्ता समणे णिग्गंथे णिग्गंथीओय सदावेति २ त्ता एवं वयासी–एवं खलु अजो मम अंतेवासी धम्मरुई णामं अणगारे पगइ भदए जाव विणीए मासं मासेण अणिक्वत्तेणं तवो कम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपवितु। ततेणं सा नागसिरी माहणी जाव णिसिरइ। तएणं धम्मई अणगारे अहपजत्तमितिकटु जाव कालं अणवकंखमाणा विहरति । सेणं धम्मरुई अणगारे वहूणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता। आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढ्जाव सम्बटू सिद्धि महा विमाणे देवताए उववरणे ।
(ज्ञाता श्र०१६)
तिवारे ते. ध० धर्म घोष स्थविर. पू० चउदे पूर्व माहे उपयोग दीधो ज्ञाने करी जाण्यो. स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थ ने. माधवीया ने. स० तेडावे तेडावी में. ए० इम कहे. ख० निश्चय हे पार्यो माहरो शिष्य अंतेवासी. धर्म रुचि नामे साधु. अ. भणगार प० प्रकृति स्वभावे करी. भ० भद्रीक. ५० परिणाम नों धणी जा० यावत तपस्वी. वि० विजयवन्त मा० मास क्षमण निर. न्तर तप करतो. त० तप करी ने जा० यावत. ना० नागश्री ब्राह्मणी रे घरे आहारार्थ. अ० गयो. त० तिवारे. ना० नागश्री ब्राह्मणो आहार प्राप्यौ. जा. यावत् ग्रही में निसरे. त० तिवारे. ध० धर्म रुचि अणगार. अ. अथ पर्याप्त. जाणो नें यावत. का० काल को अपेक्षा रहित विहलो. ध० धर्म रुचि अणगार. व० बहु वर्ष पर्यन्त साधु पो. पाली में भा० भालोचना प्रतिक्रमण करी में समाधि सहित. काल ना अवसर ने विषे. काल करके ( मृत्यु पामी ने ) उ० अर्ध्व स्वार्थ सिद्ध विमान ने विषे देवता पणे उपयो.
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३६२
- श्रमविध्वंसनम् ।
अथ इहां धर्म घोष स्थविर धर्मरुचि ने भद्रीक अमें विनीत को छै। इग न्याय धर्मरुचि तुम्बो पोधो ते आज्ञा माहि छै, पिण बाहिर नहीं। डाहा हुवै तो विचारि जोइजो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण ।
इमहिज सर्वानुभूति सुनक्षन ने बोलको बर्यो। ते पिण बोलवा रा कारण माटे अने दोनूं साधु पंडित मरण पारे कर लीवो ते माटे आज्ञा माहि छै। जब कोई कहे-वालवा रो कारण तो कह्यो नथी तो. वालवा रो क रण किम जाणिये इम कहे तेहनों उत्तर-जिबारे आनन्द स्थविर गोचरी गया अनें गोशाले गाणिया रो दृष्टान्त देइ आनन्द स्थविर ने कह्यो। तू वोर में जाय ने कहीजे जे म्हारी बात करसी ते हूं बाल ना खस्यूं। अनें तूं जाय वीर ने कहिसी तो तोने वालू नहीं । तिवारे आनन्द स्थविर बीर में आवी कह्यो। भगवान् कहो हे आनन्द ! गौतमादिक साधां ने जाय में कहो। गोशाला सूं धर्मचोयणा कोई कीजो मती गोशाले साधां तूं मिथ्यात्व पविजो छै। ने भणी तिवारे आनन्द गौतमादिक साधां ने कह्यो। जे गोशाले कह्यो म्हारी बात कीधी. तो बाल नाखस्यूं। ते भणी भगवान् कह्यो छै। गोशाला थी धमचोयणा करज्यो मती। गोशाले साधां सूं मिथ्यात्व पड़िवजो छै ते साटे इहां गोशाले कलयं बाल नाखस्यं। ते वालवा रा कारण माटे भगवान् बज्यो छै। पछे गोशालो आयो लेश्या थी खाली ६यो पछे वलवा रो भय मिट गयो। तिवारे भगवान साधां ने एहयो कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
एवामेव गाशाला वि मंलिपुत्ते ममं बहाए सरीरगंसि गेयं णिसिरित्ता हततये जाब विखट तेये तच्छंदेणं अज्जोतुम्भे गोसालं मं बलिपुत्तं धम्मियाए पड़िचोयणाए पडि- .
चोएह ।
भगवती १० १५ ।
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निरवद्य क्रियाधिकारः।
ण इण पूर्वले दृष्टांते. गो० गोशालो. म० मखलिपुत्र. म० माहरा ५० वध ने अर्थे. स० शरीर में विषे ते तेज लेश्या प्रति मूकी नें. ह. हत तेज थयो. जा. यावत. वि. विनष्ट तेम थयो. त० ते भणी. छा० छांदे. स्वाभिप्राये करो ने यथेच्छाई करी में. तु तुम्हें. गो. गोशाला. म० मंखलीपुत्र प्रति. ध० धर्मचोयणा तिणें करी ने प० पड़िचोयणा घो।।
अथ इहां भगवान् साधां ने कह्यो–जे गोशाले मोने हणवा ने तेजू लेश्या शरीर थी काढी. ते माटे हिवे तेजू लेश्या रहित थयो छ। तिण सूं तुमारे छांदे छै। हे साधो ! गोशाला सूं धर्मचोयणा करो तेजू लेश्या रो भय मिट्यो। जद धर्म चोयणा रो उदेरी ने कह्यो। अने पहिला बा ते बालवा रा कारण माटे । पिण गोशाला संबोल्यां विराधक थास्यो इम कह्यो नहीं। ते माटे सर्वानुभूति सुनक्षत्र पिण पंडित मरण आरे करी में बोल्या छै। अने जो आज्ञा बाहिरे हुवे तो भगवान् तो पहिला जाणता हुन्ता, जे हूं वरजू छं। पिण ए तो बोलसी तो आज्ञा बाहिरे थासी, इम बोल्यां आज्ञा .बाहिरे जाणे तो भगवान् बोलवा रो ना क्या ने कहे। जो आज्ञा बाहिरे हुन्ता जाणे, तो भगवान् साधां ने आज्ञा बाहिरे क्यूं कीधा। तथा वली बोल्यां पछे निषेधता। जे म्हारी आज्ञा बाहिरे बोल्या. इसो काम कोई साधु करज्यो मती। इम कहिता, इम पिण कह्यो नहीं। भगवन्त तो अपूठा दो साधां ने सराया विनीत कह्या छै। ते पाठ लिखिये छै।
___ एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी पाईण जाणवए सब्बाणुभूई णामं अणगारे पगइ भदए जाव विणीए सेणं तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं भासरासी करेमाणे उड्ढं चंदिम सूरिय जाव वंभलंतग महा सुक्के कप्पे वीई वइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववण्णे।
.
(भगवती श०१५ )
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भ्रम विध्वंसनम् ।
५० इम. ख० निश्चय. गो० हे गौतम! ममाहरो. अं० श्रन्तेवासी ( शिष्य प्राचीन जानपदी स० सर्वानुभूति नामे अणगार पर प्रकृति भद्री जा० यावत् वि० विनीत. से० ते. त० तिवारे गोशाला मंखलि पुत्रे करो. भ० भस्म हुवो थको. उ० ऊर्ध्व चन्द्र, सूर्य यावतू. म aar. महाशुक्र विमान नं. बी० उल्लंघी नें स० सहस्सार कल्प देवता नें विषे.
० उत्पन
दुबो.
३६४
हां भगवन्ते सर्वानुभूति ने प्रशंस्यो घणो विनीत कह्यो ।
ली इमज सुनक्षत्र मुनि ने पिण विनीत कह्यो । अनें जो आशा बाहिरे हुवे तो भविनीत कहिता । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा उत्तराध्ययन में आज्ञा प्रमाणे कार्य करे ते शिष्य ने विनीत कह्यो । भ भाज्ञा लोपे तेहने अविनीत कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
प्रारणा निदेश करे गुरु मुवाय कारए । इंगियागार संपणे से विणीपत्ति बुच्चइ ||
॥
उत्तराध्ययन ० १ गा० २ )
० गुरू नी आशा. नि० प्रमाण नूं करणहार रहिवो एहवा कार्य नूं करणहार इं० सूक्ष्म अङ्ग भमुरादिक सहित एहवं. हुइ तेहने विनीत कहिये.
गु०
गुरुनी दृष्टि वचन तेहने विषे. अवलोकना चेष्टा ना जाणपणा
अथ इहां गुरु नी आज्ञा प्रमाणे कार्य करे गुरु नी अङ्ग चेष्टा प्रमाणे व
सर्वानुभूति सुक्षत्र मुनि में
विनीत कहिये । प विनीत रा लक्षण कह्या भने
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निरषय क्रियाधिकारः।
manand
भगवन्त विनीत कह्यो। ते माटे ए बोल्या ते आला माहिज छै । आज्ञा लोपी ने न बोल्या। आज्ञा लोपी ने बोल्या हुवे तो विनीत न कहिता । साहा हुवे तो विचारि नोइजो।
इति १४ बोल सम्पूर्ण ।
इति निरवद्य क्रियाऽधिकारः।
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अथ निर्ग्रन्थाऽऽहाराधिकारः ।
1
केतला एक अजाण जीव-साधु आहार. उपकरणादिक भोगवे तेहमें प्रमाद तथा अत्रत कहे छे । पाप लागो श्रद्ध है । अनें साधु आहार. उपकरण. आदिक भोगवे ते सूत्र में तो निर्जरा धर्म को छै । भगवती श० १ ० ६ कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
फासु एसणिज्जं भंते । भुंजमाणे किं बंध जाव उवचिणाइ. गोयमा ! फासु एसणिज्जं भुंजमाणे प्राउय बजाओ सत्तम्म पगडीओ धणियबंधन वद्धा । सिढिल बंधण बद्धा पकरेइ. जहा से संबुडेणं वरं आउयं चणं कम्मंसि वन्धइ. सिय नो बन्धइ. सेसं तहेब जाव वीई वयइ ॥
( भगवती श० १ ०६४
फा० प्राशुक. ए० एषणीय निर्दोष. भ० हे भगवन् ! भु शाहार करतो थको स्यू बांध. जा० यावत स्यूं उ० संचय करे. गो० हे गोतम ! फा० प्राशुक एषणी भोगवतो आहार करतो. ० श्रायुषा वर्जित ७ कर्म नी प्रकृति ध० गाढा बन्धन बांधी होइ ते सि० शिथिल बन्ध ने करी करे. ज० जिम सम्वृत अणगार नों. अधिकार तिमज जाणवो. एतलो विशेष. या
कर्म बांधे काचित् सि० कदाचित न बांधे. से० शेष तिमज जाणवो जा० यावत् संसार श्री घंटे मोक्ष जावं.
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সিঙ্গ থs্যাহমিদা
३९
अथ इहां साधु :प्राशुक. एषणीक आहार भोगवतो ७ कर्म गाढा बंध्या हुचे तो ढीला करे। संसार में अतिक्रमी मोक्ष जाय. कह्यो। पिण पाप न कह्यो। राहा हु तो विचारि जोइजो
इति १ बोल सम्पूर्ण।
तथा ज्ञाता अ० २ कह्यो ते पाठ लिलिपे छ।
एतामेव जंवू । जेणं अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव पव्वति ते समाणे ववगय रहाण भदण पुप्फगंध मल्लालंकारे विभूसे इमस्स ओरालियस्स सरीरस्स नो वन्न हेउवा रूवं हेउवा विसय हेउंवा तं विपुलं असणं णाणं खाइम साइमं आहार माहारेति, नन्नत्थ णाण दंसण चरित्ताणं.. वहणट्टयाए।
(ज्ञाता भ०२)
... ए० एणी प्रकारे. पूर्व ले दृष्टान्त. जं. हे जम्बु ! अ० म्हाराः णि साधु...णि साध्वी. जा. यावत्. ५० प्रव्रज्या ग्रही ने. ३० त्याग्यो छ. यहा० स्नान. मर्दन, पुष्प. गन्ध. माल्य. अलकार विभूषा. जेहनें एहवा थका. इ० एह औदारिक शरीर में. नो० नहीं. वर्ण निमित्तो. रू. नहीं रूप निमित्ते. वि० नहीं विषय निमित्ते. वि० घणो अशन पान. खादिम स्वादिम. आहार देवे छै. त० केवल शान. दर्शन. चारित्र पालवा ने काजे आहार करे छै.
अथ इहां वर्ण. रूप. ने अर्थे आहार न करिवो, ज्ञान. दर्शन. चारित्र वहपाने अर्थे आहार करणो कह्यो। ते ज्ञानादिक वहण रो उपाय ते निरवद्य निर्जरा री करणी छै। पिण सावद्य पाप नों हेतु नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
.. इति २वोल सम्पूर्ण ।
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३६८
भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा ज्ञाता अ० १८ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ ।
एवामेव समणाउसो अम्ह णिग्गंथी वा इमस्स ओरालिय सरीरस्स वंतासवस्त पित्तासवस्त सुझासवस्स शोणियासवस्स जाव अवस्त विप्प जहियस्स णो वरण हेउंवा णो रूव हेउवा णो वल हेउं वा णो विसय हेउवा आहारं आहारेति नन्नत्य एगाए सिद्धिगमणां संपावणटाए ।
(ज्ञाता अ०१८)
५० एणी प्रकारे. पूर्वले दृष्टांते स० हे आयुष्यवंत श्रमणो! अम्हारा णि साधु. णि साध्वी. इ. एह औदारिक शरोर ने. वन्ताश्रव. पिताश्रव. शुक्राश्रव. शोणिताश्रव. एहवा ने. जा० यावत्. अ० भवभ्य त्यागवा योग्य ने. णो नहीं वर्ण निमित्ते णो० नहीं रूप निमित. या नहीं बल निमित्ते. गो. नहीं. वि०विषय निमित्त. माहार देवेई. न केवल १० एक सि. मोक्ष प्राप्ति निमिस्ते देवे के.
भय इहाँ कयो-जे वर्ण. रूप. बल. विषय. हेते आहार न करिवो। एक सिद्धि ते मोक्ष जावा में अर्थे आहार करिवो। जो साधु रे आहार कियां में प्रमाद. पाप. अत्रत. हुवे तो मोक्ष क्यूं कही। ए तो कार्य निरवद्य छै. शुभ योग निर्जरारी करणी छै । ते माटे मुकि जावा अर्थे भाहार करिवो कह्यो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वंशकालिक मकयो । ने पाठ सिलिये।
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निर्ग्रन्थाऽऽहाराधिकारः।
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जयंचरे जयं चिटु जयमासे जयंसए । जयंभुज्जती भासंतो पाव कम्मं न बंधइ ॥
( दशकालिक भ० ४ गा०८)
हिवै गुरु शिष्य प्रते कहे छे. जे. जयणाई. च. चाले ज. जयणा उभो रहे. ज. जयणाई वैसे. ज० जयणाई सूवे. ज० जयणाई जीमे. ज. जयणाई. भा० बोले तो. पा० पाप कर्म न बंधे.
__ अथ इहां जयणा सूं भोजन करे तो पाप कर्म न बंधे एहy कह्यो तो भाहार कियां प्रमाद. अब्रत. किम कहिए। प्रमाद थी तो पाप बंधे अनें साधु भाहार कियां पाप न बंधे कह्यो ते माटे । डाहा हुए तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा दश बैकालिक अ० ५ कयो. ते लिखिये छ। अहो जिणेहिं असावजा वित्ती साहूण देसिया । मोक्ख साहण हेउस्स साहु देहस्स धारणा ॥
(दशकालिक अ०५ ०१ गा०६२)
भ० तीर्थदूर असावद्य ते पाप रहित. वि० बृत्ति प्राजीविका. सा० साधु ने देखाड़ी को छ. मो० मोक्ष साधवा ने निमित्ते. स० साधु नी देह री धारणा छै.
अथ इहां कह्यो-साधु नी आहार नी वृत्ति असावद्य मोक्ष साधवा नी हेतु श्री जिनेश्वर कही । ते असावद्य मोक्ष ना हेतु में पाप किम कहिए। ए आहार नी वृत्ति निरवद्य छै । ते माटे असावद्य मोक्ष नी हेतु कही छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
तथा दश वैकालिक अ० ५ उ० १ कह्यो । ते पाठ लिखिये छ । दुल्लहानो मुहादाई मुहाजीवीवि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी दोवि गच्छंतिसुग्गइ॥१०॥
(दशवैकालिक अ० ५ उ० १ गा० १०० )
दु० दुर्लभ निर्दोष आहार ना दातार. मु० निर्दोष पाहारे करी जीवे ते पिण साधु दुर्लभ मु. निर्दोष आहार ना दातार. मु. अने निर्दोष माहार ना भोक्ता ए दो. ग. जावे छै. सु० मोक्ष में विषे.
__ अथ इहां कह्यो-निर्दोष आहार ना लेणहार. अनें निर्दोष आहार ना दातार. ए दोनूं मरी शुद्ध गति में विषे जावे छै। निर्दोष आहार ना भोगवण वाला ने सद्गति कही, ते माटे साधु नों आहार पाप में नहीं। पर मोक्ष नों मार्ग छै । पाप नों फल तो कडुवा हुवे छै । अनें इहां निर्दोष आहार भोगव्यां सद्गति कही, ते माटे निर्जरा री करणी निरवद्य आज्ञा माहि छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा ठाणाङ्ग ठा० ६ कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
छहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे आहार माहारेमाणे णाइकमइ तं० वेयण वेयावच्चे. इरियढाए. य संजमाए. तहपाणवत्तियाए. छ पुण धम्म चिंत्ताए.
(गणांग ठा०६ उ. १)
छ० ६ स्थान के करी ने स० श्रमण. नि. निग्रंथ. श्रा० श्राहार प्रते. मा० करतो थको. णा. प्राज्ञा अतिक्रमे नहि. त• तु स्थामक कहे छ. मे, वेदनी रो शांति रे निमित्त. वे वैयावच
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निरश्रन्थाऽऽहाराधिकारः ।
દ્રુશ્
निमित्त. इ० मत निमित्त स० संयम निमित्त स० प्राण रक्षा निमित्त. छ० को धर्म चितवना निमित्त..
निर्ग्रन्थ आहार करतो आज्ञा १२ में संयम यात्रा में अर्थे तथा
arti को । ६ स्थानके करी श्रमण अतिक्रमे नहीं । तथा उत्तराध्ययन अ० ८ गा० ११ शरीर निर्वाहवा ने अर्थे आहार भोगविवो कह्यो । तथा आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ३ उ० २ संयम यात्रा निर्वाहवा आहार भोगविवो कह्यो । तथा प्रश्न व्याकरण अ० १० धर्म उपकरण अपरिग्रह कह्या । पिण धर्म उपकरण में परिग्रह में कहो न थी । साधु उपकरण राखे, ते पिण ममता नें अभावे परिग्रह रहित कहाा । तथा दश वैकालिक अ० ६ गा० २१ वस्त्र पात्रादिक साधु राखे मूर्च्छा रहित पणे, ते परिग्रह नहीं. वूं । तथा ठाणाङ्ग ठा० ४ उ० २ साधु ना उपकरण निष्परिग्रह कहाा । च्यार अकिंचणया ते मन, वचन काया अनं उपकरण कह्या ते माटे । तथा ठाणाङ्ग ठा० ४ उ० १ व्यार सु प्रणिधान ते भला व्यापार कह्या । मन. वचन. काया. सुप्रणिधान अनें उपकरण सु प्रणिधान ए ४ भला व्यापार साधु नें इज का | पिण अनेरा नें भला न कह्या । तथा उत्तराध्ययन अ० २४ साधु आहार भोगवे ते एषणा तीजी सुमति कही । भनें प्रमाद हुवे तो सुमति किम कहिये । इत्यादिक अनेक ठामे साधु उपकरण राखे तथा आहार भोगवे तेहनों धर्म कह्यो, पिण पाप न कह्यो । तिवारे कोई कहे जो आहार कियां धर्म छे तो आहार ना पचक्खान क्यूं करे | आहार कियां पाप जाणे छै । तिण सूं आहार ना त्याग करे छै 1 इम कहे - तिण रे लेखे साधु काउसग्ग में चालवा रा. निरवद्य वोलवारा. त्याग करे तो ए पिण पाप रा त्याग कहिणा । कोई साधु वोलवारा. वखाणारा. शिष्य करणारा. साधु री व्यावच करणरा. अनें करावण रा. कोई साधु नें आहार देरा. अनें तिण कर्ने लेवारा. त्याग करे तो ए पिण तिणरे लेखे पाप रा त्याग कहिणा । पिणए पाप रा त्याग नहीं। ए आहारादिक भोगवण रा त्याग करे ते विशेष निर्जरा नें अर्थे शुभ योग रा त्याग करे छै । केवली पिण आहार करे छै । त्यांने तो पाप लागे इज नहीं । ते पिण सन्धारो करे छै । भरत केवली आदि सन्धारा किया ते विशेष निर्जरा ने अर्थे, पिण पाप जाण नें आहार ना त्याग न कीधा । तथा कोई कहे आहार कियां धर्म छै इम कहे तेहनों उत्तर -- साधु नें १ प्रहर तां
तो घणो खायां घणो धर्म होसी । ऊंचे शब्दे वखाण दियां धमं छै
५१
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४०२
भ्रम विध्वंसनम्।
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तो तिण रे खे आखी रात रो वखाण दियां धर्म कहिणो। तथा पडिले. लेहन कियां धर्म छै तो तिण रे लेछे आखोइ दिन पडिलेहन कियां धर्म कहिणो। जो मर्यादा :प्रमाण वखाण दियां तथा पडिलेहन कियां धर्म छै तो आहार पिण मर्यादा संकियां धर्म छै। पिण मर्यादा उपरान्त आहार कियां धर्म नहीं। अर्ने साधु आहार किया प्रमाद हुवे तो दातार ने धर्म किम हुवे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
इति निर्ग्रन्थाऽऽहाराधिकारः।
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अथ निर्ग्रन्थ निद्राधिकारः .
केतला एक अज्ञानी-साधु नींद लेवे तिण ने प्रमाद कहे-आज्ञा · बाहिर कहे। तिण ने प्रमाद री ओलखणा नहीं। प्रमाद तो मोहनी कर्म रा उदय थी भाव निद्रा छै। ए द्रव्य निद्रा तो दर्शनावरणीय रा उद्य थी छै। ते माटे प्रमाद नहीं प्रमाद तो आज्ञा बाहिर छै। अने साधु निद्रा लेवे तेहनी घणे ठामे भगवन्त आज्ञा दीधी छै । दश वैकालिक अ० ४ गा० ८ में कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयंसये । जयं भुजंतोभासंतो पाव कम्मं न बंधइ ॥८॥
. (दश वैकालिक अ० ४ गा०८)
ज० जयणाई चाले. ज० जयणाई उभौरहे. ज० जयणाई बेठे. ज० जयणाई मुवै. ज. जयणाई जीमे. ज० जयणाई बोले तो ते साधु ने पाप कर्म न बंधे.
अथ इहां जयणा थी सूतां पाप कर्म न बंधे इम कह्यो। ए द्रव्य निद्रा प्रमाद हुवे तो सोवण री आज्ञा किम दीधी। अने पाप न बंधे इम क्यूं कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे ए तो सोवण री आज्ञा दीधी पिण निदा रो नाम न कह्यो - तेहनों उत्तर-ए सूता कहो भावे द्रव्य निद्रा कहो एकहिज छै । दशवकालिक अ० - ४ कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
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४०४
भ्रम विध्वंसनम् ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय पडिहय पवक्खए पावकम्मे दिया वा राओ वा एगमो वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा ।
( दश वकालिक प्र. ४
सै० ते. पूर्व कला ५ महावत सहित. भि. साधु अथवा. भि. साध्वी. सं० संयमवन्त वि० निवां छै सब सायद्य थकी. ५० पचक्खाणे करी पाप कर्म आवता रोक्या है. दि० दिवस में विषे. रात्रि में विषे अथवा. ए० एकाकी थको. अथवा. ५० पर्षद माही बैठो थको अथवा, म. रात्रि में विष सुतो थको. जा. जागतो थको.
अथ इहां “सुत्ते" ते निद्रालेता. "जागरमाणे” ते जागता कह्या! ते माटे "सुत्ते” नाम निद्रावन्त नों छै । साधु निद्रा लेवे ते आज्ञा माहि छै। ते माटे पाप नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
जा ।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा भगवती श० १६ उ० ६. कह्यो। ते पाठ लिखिये है।
सुत्तणं भंते ! सुविणं पासइ जागरे सुविणं पासइ सुत्तजागरे सुविणं पासइ गोयमा ! णो सुत्तै सुविणं पासइ णो जागरे सुविण पासइ सुत्त जागरे सुविणं पासइ ॥२॥
। भगवती श०१६ उ.६
सुः सुत्ता. भ भगवन् ! सुः स्वन. पा. देखे. जा. जागतो स्यानो देख. सु० प्रथा कोई सृतो काई जागतो वो दखे. गो० हे गोतम ! णो० नहीं सूतो स्बम देखे. गो. नहीं जागतो FEA देग्वे. स० काइप सूनी कांदक जागतो स्वप्न देखे.
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निर्ग्रन्थ पिदाधिकारः ।
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अथ इहाँ कह्यो-सूतो स्वप्नो न देने जागतो पिण न देखे। काइक सूतो कांइक जागतो स्वप्नो देखतो कह्यो। ते 'सुत्ते' ' नाम निद्रा नों 'आगरे" नाम नाम जागता नों छै। पिण भाव निद्रा नी अपेक्षाय ए "सुत्ते” न कह्यो। द्रव्य निद्रा नी अपेक्षाय इज कह्यो छै। तेहनी टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये
__ "नाति सुप्तो नाति जाग्रदित्यर्थः। इह सुप्तो जागरश्च द्रव्यभावाभ्यां स्यात् तत्र द्रव्य निद्रापेक्षया भावतश्चा विरत्यपेक्षया । तत्र स्वप्न व्यतिकरो निद्रापेक्ष उक्तः ।
इहां पिण द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही छै। ते भाव निदा थी पाप लागे पिण द्रव्य निद्रा थी पाप न लागे। अनेक ठामे सूवणो ते निद्रा नों नाम कह्यो छै। ते माटे जयणा थी सूतां पाप न लागे, सूवण री आज्ञा छै ते मारे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० २६ कह्यो ते पाठ लिखिये छ। पढ़मं पोरिसि सज्झायं वीतियं झाणं झियायई । तइयाए निदमोक्खंतु चउत्थी भुजो वि सज्झायं ॥
(उत्तराध्ययन अ० २६ गा० १८).
५० पहिलो पौरिसी में. स. स्वाध्याय करे. वि० बीजी पौरसी में ध्यान ध्यावे. तक तोजी पौरसी में. नि. निद्रा मूके. च० चौथी पौरसी में भु० वली स० स्वाध्याय करे.
- अथ इहां अभिग्रह धारी साधु पिण तीजी पौरसी में निद्रा मूके कह्यो। ते देशी भाषाई करी किहांइ निद्रा काढ़े किहांइ निद्रा लेधे कहे। किहांइ निद्रा मूके
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भ्रमविध्वंसनम् ।
इम कहे। ए तीजी पौरसीइ निद्रा नी आज्ञा अभिग्रहधारी ने पिण दीधी । अर्ने प्रमाद नी तो एक समय मात्र पिण आज्ञा नहीं। “समयं गोयमा ! मापमायए" एहबू उत्तराध्ययने कह्यो ते माटे ए द्रव्य निद्रा प्रमाद नहीं। परं आज्ञा माहि छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण।
तथा बृहत्कल्प उ० १ कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
नो कप्पइ निगंथाणं वा निगंथीणं वा दगतीरंसीचिद्वित्तएवा. निसीइत्तएवा. तुयद्वित्तएवा. निदाइत्तएवा. पयलाइत्तएवा. असणंवा. पाणंवा. खाइसंवा. साइमंवा. आहार माहारेत्तए, उच्चारंवा. पासवणंवा. खेलवा. सिवाणं वा. परिवेत्तए. सज्झायंवा. करेत्तए. झाणंबा झाइत्तए काउसग्गंवा डावा हाइत्तए ॥ १८ ॥
। वृहत्कल्प उ०१॥
नो० नहीं कल्प नि० साधु ने. तथा. नि० साध्वी ने. द. पाणी ने तीरे अर्थात नदी तलाव प्रमुख ने तीरे ऊभौ रहिवौ. नि० अथवा वैसवो. तु० अथवा शयन करवो. अथवा. नि० थोड़ी निद्रा लेवी. प. अथवा विशेष निद्रा लेवी. अ० अशन. पा० पान. खा० खादिम. सा. स्वादिमः श्रा० अाहार खावो. उ० बड़ी नोत. पा० छोटी नीत. खे० खेल कहितां वलखादिक. सि. नासिका नों मल. प० परिवो न कल्पे. स० स्वाध्याय करवी न कल्पे. झा० ध्यान ध्यावो न कल्पे. का० कायोत्सर्ग करवो. ठा० तिहां पाणी ने तीरे साधु साध्वी न रहे तिहां पाणी पीवा नां मन थाय तथा लोक इम जाणे जे पाणी पीवा वैठो छै तथा जलचर जीव जल माहिला त्रास पामे. ते माटे न कल्पे.
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निम्रन्थ निदाऽधिकारः।
४०७
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अथ इहां कह्यो-पाणी ना तीरे ऊभो रहिवो. वैसवो. मिदादि लेवी स्वाध्याय ध्यानादिक न कल्पे। ए सर्व पाणी ना तीरे बा। पिण और जगां ए बोल बा नहीं। जिम अनेरी जगां स्वाध्याय. ध्यान. अशनादिक करणा कल्पे। तिम अनेरी जगां निदा पिण लेवी कल्पे। ए तो सर्व बोलां री जिन आज्ञा छ, तिण में प्रमाद नहीं। जिम स्वाध्याय. ध्यान. अशनादिक में पाप नहीं तो निदा में पाप किम कहिए। ए सर्ब बोलां री आज्ञा छै ते माटे तथा बृहत्कल्प उ० ३ कह्यो। न कल्पे साधु ने साध्वी ने स्थानक विकट वेलाई स्वाध्यायादिक करवी. निदा लेवी. इम कह्यो। पिण अनेरे ठामे स्वाध्याय निदादिक वर्जी नथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा वृहत्कल्प उ० ३ कह्यो ते पाठ लिखिये छै ।
नो कप्पइ निगंथाणं वा निग्गंथीणं वा अंतरगिर्हसि आसइत्तएवा चिट्टित्तएवा निसीइत्तएवा तुयहित्तएवा निदाइत्तएवा पयलाइत्तएबा असणंवा पाणंवा खाइमंवा साइमंवा आहार माहारित्तए. उच्चारंवा पासवणंवा खेलंवा सिंघाणं वा परिद्ववेत्तए सज्झायंवा करेत्तए. झाणंवा झाइत्तए. काउसग्गंवा करित्तए ठाणं वा ठाइत्तए अहपुण एवं जाणेजा जराजुगणे वाहिए. तवस्सी दुब्बले किलं ते मुच्छेजवा पवडेजवा एवं से कप्पइ अंतरागिहंसि आसइत्तएवा जाव ठाणंवा ठाइत्तए ॥ २२॥
(बृहत्कल्प उ०३)
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भ्रम विध्वंसनम् ।
नो० न कल्पे. नि० साधु ने तथा नि० साध्वी नें. अं० गृहस्थ ना अन्तर घर में विषे. चि० उभो रहवी. नि० बैठवो. तु० सुयवो. नि० थोड़ी निद्रा करवी. प० विशेष निद्रा करवी. अ. अशन. पान. खादिम स्वादिम. आहार खावो. तथा. उ० वडी नीति पा० छोटी नीति खे० वलखादिक. सि० नासिका नों मल परिठवो. तथा. सा. स्वाध्याय करवो. मा० ध्यान ध्यावो. का० केयोत्सर्ग करवो. ठा० स्थान ठावो. नाकल्पे. अ० हिवे. पु० वली. ए. इम जाणवा. ज. जरा जोर्ण वा० रोगियो. थे० वृद्ध. त० तपस्वी. दु० दुर्वल. कि० क्लामना पाम्यो थको. मुमूर्छा पाम्यो. प० पड़तो थको. ए० एहवा नें. क० कल्पे. अं० गृहस्थ ना घर ने विचाले. आ० वसवो सुयवो जाव कहितां योवत स्थान ठायवो.
अथ इहां कह्यो-गृहस्थ ना अन्तर घर में विषे साधु ने स्वाध्यायादिक निद्रा पिण न कल्पे। जे अन्तर घर में विषे न कल्पे तो अन्तर घर बिना अनेरा घर ने विषे तो स्वाध्यायादिक निद्रादिक कल्पे छै। ते माटे अन्तर गृह में ए बोल बा छ। जिम स्वाध्याय ध्यानादिक और जगां कल्पे तिम निद्रा पिण कल्पे छै। भने जे व्याधिवन्त. स्थविर ( वृद्ध ) तपस्वी छ, तेहने ए सब बोल अन्तर घर में विषे पिण कल्पे छै। तिण में निद्रा पिण लेणी कही, तो जे निद्रा प्रमाद हुवे तो प्रमाद नी तो रोगी. तपस्वी. बृद्ध ने पिण आशा देवे नहीं। ते माटे ए द्रव्य निद्रा प्रमाद नहीं। अन्तर घर ते रसोढ़ादिक घर विचाले जगां ने कह्यो छै । अन्तर शब्द मध्यवाची छ। ते घरे रोगियादिक ने पिण निद्रा लेवी कही। ते माटे ए द्रव्य निद्रा प्रमाद नहीं, प्रमाद तो भाघ निद्रा छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
तिवारे कोई कहे-द्रव्य निद्रा किहाँ कही. तेहनों उत्तर-सूत्र पाठ थी कहे छ ।
सुत्ता अमुणीसया। मुणिणो सया जागरंति ॥ १॥
(प्राचाराङ्ग म०३ उ.१)
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লিঙ্গ খ লিখিন্ধা।
सु० मिथ्यात्व अज्ञान रूप मोह निद्राई करी "सुत्ता" ते. अ० मिथ्यादृष्टि जाणवो. मुखी. तत्व ज्ञान ना जाणणहार मुक्ति मार्ग नों गवेषक. स० सदा निरन्तर. जा जागे हित समाचरे अहित परिहरे. यदपि बीजी पौरसी श्रादि निद्रा करे तथापि भाव निद्रा में प्रभावे ते जागता इज कहिइ.
___ अथ इहां कह्यो-मिथ्यात्व अज्ञान रूप मोह निद्रा करी सुत्ता अमुणी मिथ्यादृष्टि कह्या। अने साधु ने जागता कह्या। ते निद्रा लेवे तो पिण भाव निद्रा ने अभावे जागता कह्या। ते भाव निद्रा थी अहेत कह्यो। पिण द्रव्य निद्रा थी अहित न कह्यो। ते माटे द्रव्य निद्रा थी अहित नथी। तथा भगवती श०१६ १०६ “सुत्ताजागरा” ने अधिकारे अर्थ में द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही छै। तिहां भाव निद्रा थी तो पाप लागो छ। अने द्रव्य निद्रा थी तो जीव दवे छ। पिण पाप न लागे। एक मोहनी रा उदय बिना और कर्म रा उदय थी पाप न लागे। निद्रा में स्वप्नो आवे ते मोहनी रा उदय थी, ते भाव निद्रा छै, तेहथी पाप लागे। "थिणद्धि" निद्रा तो दर्शनावरणी रे उदय । अर्द्ध वासुदेव नों बल ते अन्तराय कर्म ना क्षयोपशम थी, माठा कार्य करे ते मोहनी रा उदय थी, जेतला मोह कर्म मा उदय थी कार्य करे ते सर्व भाव निदा छै कर्म बन्ध नों कारण छै। पिणे दुव्य निद्रा पाप नों कारण नथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल संपूर्ण ।
इति निर्ग्रन्थ निद्राऽधिकारः।
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अथ एकाकिसाधुअधिकारः।
केतला एक अज्ञानी कहे-कारण बिना पिण साधु ने एकलो बिचरणो कल्पे इम कहे ते सूत्र ना अजाण छै। कारण बिना एकलो फिरे तिण ने तो भगवन्त सूत्र में ठाम २ निषेध्यो छै। तथा व्यवहार उ० ६ कह्यो ते पाठ लिखिये छै ।
से गामंसिवा जाव संनिवेसंसि वा अभिगिणवगडाए, अभिगिण दुवाराए अभि णिक्खमण पेसवाए नोकप्पति बहुसुयस्स वभागमस्स एगाणिधस्स भिक्खुस्सवथए. किमं गपुण अप्पसुयस्स अप्पागमस्स ॥१४॥
( व्यवहार उ०६
संत ग्राम ने विष. जा० यावत. सं० सन्निवेश सराय प्रमुख ने विषे. अ० प्रत्येक कोट में वाड़ी वरंडो हुवे. अ० जुना २ वारणाहुइ प्रत्येक जुदा २ निकलवा ना मार्ग है. ५० प्रवेश करवा मा मार्ग है. तिहां. नोन कल्पे. ब. बहुश्रुति ने. व० घणा पागम ना जाण . ए० एकाकी पणे. भि० साधु ने व० रहिवो. जो बहुश्रुति ने एकलो रहिवो. तो. कि. किस्यूं कहिवो. पुरु वली अल्प आगम ना जाण. भि० साधु ने जे ग्रामादिके घणा जुदा २ वारणा जुदा २ ठाम होय घणा फेर मा होय. तिहां एककी बहुश्रुति थको पिण पाप अनाचार सेवा लहे अने जो एक ठां हुई तो बहुश्रुति तिहां बसतो थको पाप अनाचार लजाइ न सेवो सके.
अथ इहां कह्यो-जे प्रामादिक ना घणा निकाल पैसार हुवे। तिहां बहुश्रुति घणा आगम ना जाण ने पिण एकाकी पणे न कल्पे तो किस्यूं कहिवो अल्प आगम ना जाण ने इहां तो प्रत्यक्ष एकलो रहिवो बज्यो छै। ते माटे एकलो रहे तेहनें साधु किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
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एकाकिसाध्वऽधिकारः।
तिवारे कोई कहे--ए तो एक जगां स्थानक ना घणा निकाल पैसार हुवे तिहां ए रहिवो बो छै। तेहनों उत्तर-जे प्रामादिक ना घणा निकाल पैसार हुवे तिहां “अगड़सुया" साधु ने रहिवो न कल्पे । तिहां पिण एहवो इज कह्यो छै। वे पाठ लिखिये छै।
से गामंसिवा जाव सन्निवेसंसिवा. अभिण्णिवगडाए अभिनिदुवाराए. अभिनिक्खमण प्पवेसणाए नोकप्पति बहुणं अगड सुयाणं एगयोवत्थए ॥१३॥
(न्यवहार उ०६)
से० ते ग्राम में विफे. जा. यावत. स. सन्निवेश सराय प्रमुख ने विषे. अ० प्रत्येक २ जुदा २ कोटादिक होइ जुदा २ परिक्षेत्र हुई स्थापना घणा निकलवा ना मार्ग है. घणा पेसवा मार्ग छै तिहाँ. नो० न कल्पे. घणा अगीतार्थ में एकला रहिवो.
___ अथ इहां पिण प्रामादिक ना घणा दरबाजा हुवे, तिहां घणा अगड़सुया ते निशीथ ना अजाण तेहनें न कल्पे, इम कह्यो। तो तेहने लेखे ए पिण एक जगां घणा बारणा कहिवा । अनें जो प्रामादिक ना घणा वारणा छै। तिण प्रामादिक में अगडया ने न कल्पे तो तिहाँ एकला बहुश्रुति ने पिण बर्यो छै। ते माटे ते प्रामादिक ना घणा वारणा छै ते प्रामादिक में बहुश्रुति ने एकलो रहिवो नहीं। एक निकाल ते प्रामादिक में पिण अगडसुया न बज्यों छै। अनें बहुश्रुति एकला में अहोरात्र सावधान पणे रहिवू कह्यो छै। ते प्रामादिक आश्री छै। पिण स्थान पाश्री नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वृहत्कल्प उ.१ कह्यो-जे प्रामादिक ना एक निकाल तिहां साधु साध्वी ने एकठा न रहिवा। अनें घणा वारणा तिहां रहिवो कह्यो। ते पाठ लिखिये छै
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४१२
भ्रम विध्वंसनम् ।
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से गामंसि वा जाव राय हाणिसिवा अभिनिवगडाए. अभिनिदुबाराए. अभिनिक्खमण पवेसाए. कप्पइ निग्गंथाणय निग्गंधीणय एकत्तउवत्थए ।
(वृहत्काल उ० १ वो० ११)
से० ते गा ग्रामादिक ने विषे जा० यावत पाछला वोल लेवा. राजधानी. तिहां अ० जुदा २ गढ़ हुवे. अ० जुदा २ वारणा हुवे. जुदा २ निकलवा ना पेसवा ना मार्ग हुवे. तिहां. कल्पे साधु ने साध्वी ने एकठा वसवा.
अथ इहां घणा वारणा ते प्रामादिक में साधु साध्वी ने रहिवा कह्या। ते प्रामादिक ना घणा निकाल आश्री पिण स्थानक ना घणा वारणा आश्री नहीं। तिम बहुश्रुति एकला ने घणा वारणा निकाल पैसार हुवै ते प्रामादिक में न रहिवो। ए पिण ग्राम ना घणा निकाल आश्री कह्या। पिण स्थानक आश्री नहीं। अने जे एक स्थानक ना घणा बारणा हुवे तिहां एकल बहुश्रुति ने न रहिवू इम कहे तिण रे लेखे एक स्थानक ना घणा निकाल हुवे ते स्थानक साधु साध्वी ने पिण भेलो रहिवू । पिण ए तो प्रामादिक ना घणा दरबाजा तिहां बहुश्रुति ने एकलो रहिवू बर्यो छै, तो अल्पश्रुति ने किम रहिवो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा एकलो रहे तेहमें ८ अवगुण कह्या ते पाठ लिखिये छ ।
पासह एगे रूवेषु गिद्धे परिणिजमाणे एत्थ फासे पुणो पुणो. आवंतिकेआवंति लोयंसी आरंभजीवी ॥७॥ एएसु चेव आरंभजीवी एत्थविबाले परिपञ्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं असरणं सरणंति मण्णमाणे ॥८॥ इह मेगेसिं एग
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एकाकिसाध्वधिकारः।
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चरिया भवति । से बहु कोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहेबहुरए बहुननेड बहुसढे बहुसंकप्पे आसव सकी पलिओछन्ने उट्ठिय वायं पवयमाणे “मा मेकेइ अदक्खू” अन्नाण पमाय दोसेणं सततं मूढे धम्मं णाभिजाणाति ॥६॥ अट्ठापया माणव कम्मकोविया जे अणुवर या अविजाए पलिमोक्खमाहु अवदृमेव मणुपरियति त्तिवेमि।
(आचाराङ्ग श्रु० १ ० ५ उ०१)
पा० देखो. ए० केतलाक. रू० रूप में विषे बृद्ध. प० परिणमता थका. ए० इहां. फ० स्पर्श पु० वारम्वार. प्रा० जेतला. के० ते माहि थकी केइ. लो० लोक मनुष्य लोक ने विषे. प्रा. सावद्य अनुष्ठाने करी. जी० आजीविका करे ते दुःख भोगवे. एतले गृहस्थ देखाड्या वली अनेरा ने देखाडे छै. ए० ए सावद्य प्रारम्भ ने विषे प्रवर्त्तता गृहस्थ तेहने विषे शरीर निर्बाह ने काजे प्रवततो. अनय तीर्थी तथा पासत्यादिक द्रव्य लिंगी थई प्रारम्भ जीवी थाइ'. सावद्य अनुठाने वर्ते ते पिण एहवा दुःख पामे तथा. गृहस्थ पिण वेगला रहो. तीर्थक भने दर्शनी ते पिण वेगला रहो जे संसार समुद्र ने तीर सम्यक्त्व पामी वीर परिणाम लही कर्म ने उदय ते पिण सावद्य अनुष्ठान ने विषे प्रवर्गे तो. अनेरा नों कियूं कहिवो इम देखाडे छै. ए. एणे अरिहन्त भाषित संयम ने विषे. वा. बाल अज्ञानी राग द्वष व्याकुल चित्त विषय तृष्णा पीड़ातो छतो. र० रमे रति करे. पा० पार कर्मे करी सावद्य अनुष्ठान ने न्यूं जागतो छतो करे. ते कहे है। अ० जे जीवां ने दुर्गति पड़तां शरण न थाइ ते अशरणक सावद्य अनुष्ठान तेहिज. स० शरण सुख , कारण. म. मानतो थको. अनेक बेदना नारकादिक ने विषे भोगवे. वली एहिज नों विशेष कहे छै. इण मनुष्य लोक ने विषे. एकएक विषय. कषाय निमित्ते. ए. एकाकी पणे भ्रमवो थाई. घणा परिवार माहि रहिता परिवार नी शंकाई विषय सेवी न सके ते भणी एकलो हीडे. स्वेच्छाचारी थाई. केहवो हुवे. ते कहे छै. से. ते विषय गृध्र एकलो भ्रमतो अकालचारी देखी लोके पराभवतो .ब० घणो क्रोध वत्ते. व० अणवांदतो मानव है। तूं किस्यूं वांदसी भुझ ने घणाई वांदे छ इम मानें वत्ते. व० तप अकरबे तप कहे. तथा रोगादिक कारण बिना इ कहि लावे घणी माया करे. ब० सर्व आहार शुद्ध अशुद्ध ने लेवे बहुलोभ एहवो छतो. व० बज्न पाप जाणवो तथा ३ घणा प्रारम्भ ने विषे रत. न० नटनी परे भोग नो अर्थी थको बहु वेष धरे. ब० घणे प्रकारे करी मूर्ख. ब० घणा मन ना अधयवसाय ने विषे वर्ते एहवो छतो हिंसादिक आश्रव ने विषे. स. आसक्त तथा. ५० कमें करी आच्छायो एहवो
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भ्रम विश्वसनम्।
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पिण स्यूं बोले ते कहे छै. मु. पापणपे धर्म आचरण ने विषे उठ्यो उद्यमवन्त. इम वाद बोलतो एतावता हू "चरित्रियो छु” एहवो बोलतो परं अशुद्ध वर्ते इम करतो आजीविकाय नों बहितो किम प्रवर्ते. ते कहे छै. मा० मुझनें. के० केइ अकार्य करता देखे एह भणी छानों अकार्य करे. अ० अज्ञान प्रमाद ने दो० दोषे करी. स. निरन्तर मू० मूढ़ मूर्ख मोह्यो छतो. ध धर्म न जाणे अधम्म प्रवर्ते. अ. विषय कषायादिक री आर्त व्याकुल एहवा थया जीव. भा० अहो मानव ! क. ते कर्म अष्ट प्रकार बांधवा में विषे. को० पण्डित परं धम अनुष्ठान ने विषे पण्डित न थी. जे० पाप अनुष्ठान थकी भनिवृत्त. भ० ज्ञान चारित्र थको विपरीत मार्गे. प० संसार नों उत्तरण मोक्ष. मा० कहे ते पर सत्य धर्म न जाणे. ते धर्म अजाण तो स्यूं पामे. ते भाव कहे छै. प्रा० ससार तेहने विष अरहद घटिका ने न्याय प्रण तेणे नरकादि गति ते विषे वली २ भ्रमण करे. श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी प्रति कहे छै.
अथ इहां पिण एकलो रहे तिण में आठ दोष कह्या । बहुक्रोधी, मानी. मायी. लोभी. कह्यो। घणो पाप करवे रक्त घगो नटनी परे वेष धरे. घणो धूर्त. पणो सङ्कल्प. कलेश. घणो कह्यो। वली पाप कर्म बाँधण में पण्डित कह्यो ।
चित् कोई माहरो अकार्य देखे इम जाणो ने छाने २ अकार्य करे। इत्यादिक एकला में अनेक अवगुण कह्या । ते माटे एकलो रहे तिण ने साधु किम कहिए । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ५ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ ।
गामाणु गामं दूइज माणस्स दुजातं दुप्परिक्कतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥१॥ वयसावि एग चोइया कुप्पंति माणवा उन्नय माणेय णरे महता मोहेण मुज्झति संबाह बहवो भुजो दुरतिकमा अजाणतो अपासतो एयंते माउ होउ एयं कुसलस्स दंसणं ॥२॥ तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तपुरकारे तस्सनी तन्नीवेसणे जयं विहारी चित्त णिवाति पंथ णि
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earfaraधिकारः ।
जाती वलि वाहिरे पासिय पाणे गच्छेजा । से अभिक्कमपसारे माणे विणिय मागे संपलिमज
माणे संकुंच माणे माणे ॥३॥
( श्राचारांङ्ग श्रु० १ श्र० ५ उ०४ )
४१५
गा० ग्रामानुग्राम विचरतां एकाकी साधु ने दु० दुष्ट मन थाई जावतां भावतां - गमतां उपसर्ग ते उपजे अरहन्नक नी परे भलौ न थाइ तथा. दु० दुष्ट पराक्रम नों स्थानक एकाएकी ने भ० थाइ एतावता एकाकी स्थानक न पामे स्थूल भद्र वेश्या ने घरे गया साधु नो परे इम समस्त ने थाइ किन्तु जेहवा न होइ ते कहे है. अ० अव्यक्त साधु ने जे सूत्रे करी अव्यक्त तथा वय करी अव्यक्त सूत्रे करी अव्यक्त ते कहि. जिया श्राचाराङ्ग पुरो सूत्र थकी भगयो न दु गच्छ में रह्या साधु नी स्थिति अनें गच्छ थकी निकल्या ने नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भणी न होई ते सूत्र अव्यक्त तथा वय करी अव्यक्त ते कहिये जे गच्छ माहि रह्यो १६ वर्ष में व अने गच्छ बाहिर ३० वर्ष माहि ते वय अव्यक्त हुई. इहां अव्यक्त नी चउभङ्गी है. सूत्र अ वये करी अव्यक्त तेनें एकलो रहिणो न कल्पे. संयम अनें आत्मा नौ विराधना थाइं ते भयी पहिलो भांगो थाइ तथा सूत्रे करी अव्यक्त वये करी व्यक्त ते हनें पिया एकल पणो न कल्पे. अगीतार्थ पणे संयम अनें आत्मा नी विराधना थाइ ए बीजो भांगो तथा सूत्रे करी व्यक्त अनें बय करी अव्यक्त तेहनें पिया एकलो न कल्पे बाल पथा ने भावे सर्व लोक पराभववानों ठाम थाह तीज भांगा तथा सूत्र ने वये करी व्यक्त एहनें गुरु ने आदेशे एकलचर्या कल्पे. पिया आदेश बिना न कल्पे. जे भी गुरु आज्ञा बिना एक्लो रहे तेहवा ने पिया घणा दोष उपजे. परं ते दोष गच्छ माहि रह्या ने न उपजे गुरु ने आदेशे प्रवर्त्ततां घणा गुण उपजे तिणे दोष नहीं. भि० साधु ने वली कर्म वशी एक गुरु नों पिण वचन न मानें ते कहे है. व० कियहि एक तप संयम ने विषे सीदावता हुंता श्री गुरु धर्मवचने. ए० एक अज्ञानी चोया प्रेरया हुता. कु० क्रोध ने' वशी हुवे. म० मनुष्य इम कहे हु घणा एतला साधु माहि रहि न सकूं कांई में स्यूं करस्यो पण सहू इम वर्त्ते छे तेहने स्यूं न कहो एणी परे ते. उ० अभिमान ने आपणपो मोटो मानतो. न० मनुष्य. मो० प्रवल मोहनीय ने उदय मूरको कार्य अकार्य विवेक विकल थाइ ते मोहे माहितो छतो मान पर्वते चढ्यो अति क्रोधे करो गच्छ थकी निकले तेहने ग्रामानुग्राम एकाकीपणे हिंडता जे हुइ ते कहे छे. सं० जे अव्यक्त एकाकी हिडता ने बाधा पीड़ा ते उपसर्ग थकी ऊपनी घणी थाइ मु० चली २ उल्लंघता दोहिली. केहवा ने दुरतिक्रम कहिये ए अर्थ. अ० ते पीड़ा अहियासवा नों अजाणता अणदेखता ने पीड़ा लांघतां खमतां दोहिली हो वो देखाड़ी भगवान् वली शिष्य प्रते कहे है. ए० एकला रझा ने आवाधा अतिक्रमतां
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भ्रम विध्वंसनम् ।
दुर्लभ पणो माहरे उपदेशे वर्त्ततां ते तुझ ने. मा० मा हुज्यो आगमानुसारे सदागच्छ मध्यवर्ती थाइ श्री वर्धमान स्वामी कहे छै. ए पूर्वे कह्यो ते. कु० श्री वर्द्धमान स्वामी नों दर्शन अभिप्राय जाणवो एकलो विवरे तेह ने घणा दोष. इम जाणी सदा प्राचार्य गुरु समीपे. वत्ततां ने घणा गुण कै. हिवे प्राचार्य समीपे किम प्रवर्ते ते कहे है. त० ते अचार्य गुरु ने दृष्टि अभिप्राय चाले प्रवर्ते. त० मुक्त सर्व संग विरति तेणे करी सदा यत्न करवो. एतावता लोभ रहित. त० ते प्राचार्य नों पुरस्कार सर्ब धर्मकार्य में विषे भागिल स्थापवी एहवो छते प्रवर्तवो. त० ते श्राचार्य नी. सं० संज्ञा ज्ञान तेणे वलें मतु आपणी मति प्रवर्तीवी में कार्य करवो. त० ते श्राचार्य नों स्थानक छै. जेहने एतावता गुरुकुल वासे वसिवो. तिहां वसतो केहवों थाइते कहे छै. ज० जयणाई. वि. विचरे. एतावता जीव हिसा टालतो पडिलेहणादि क्रिया करे. चि० प्राचार्य ना चित्त ने अभिप्राये वर्त्त तथा प० गुरु किहांइ पोहता हुई तेहनों पन्थ जोवे तथा शयन करवा बांछतो जाणी संथारो करे तथा क्षुधा जाणो श्राहार गवेषे. इत्यादिक गुरु नों श्राराधक थाई. ५० गुरु नी अवग्रह थकी कार्य बिना बाहिर न रहे. अवग्रह मांहि रहतां सदाइ वन्दना वेयावचादि कार्य बिना बाहिर असातना थाइ. इस्यो जाणी अवग्रह वाहिर न रहे पा० गुरु किहांइ मोकल्यो हुवे तो झूसर प्रमाणे पन्थ में विषे. पा० प्राणी जीव. पा० दृष्ट जोवतो. ग० जाइ पर विध्वंस पणे न हीडे. ईर्यासमति सू चाले. से० ते. अ० अावे. ५० जावे. स. संकोचन कर. प० प्रसार करे. वि० निवळे. प० प्रमार्जन करे.
__ अथ इहां अव्यक्त दुष्ट रहिवो स्थानक ने विषे अनें दुष्ट गमन विचरवो पिण दुष्ट कह्यो ते अव्यक्त नों अर्थ इम कह्यो छै। जे १६ वर्ष मांहि ते वय अव्यक्त, अनें निशीथ नों अजाण ते सूत्र अव्यक्त, ए तो गच्छ माहि रह्या नी स्थिति। अनें गच्छ माहि थी निकल्या ने ३० वर्ष माहि वय अव्यक्त अनें नवमा पूर्व नी तीजी वत्यु भण्यो नहीं ते सूत्र अव्यक्त । ते व्यक्त अव्यक्त नींचो भंगी श्रुत अव्यक्त. अने व्यक्त. तेहनें एकलो रहिवो न कल्पे। तथा वय अव्यक्त अने सूत्र व्यक्त तेहने पिण एकल पणो न कल्पे। तथा सूत्र अव्यक्त अनें वय अव्यक्त ने पिण एकल पणो न कल्पे। अनें सूत्र करी व्यक्त अनें वय करी व्यक्त गुरु ने आदेशे तेहनें एकल पणो कल्पे । इहां पिण नवमा पूर्व नी तीजी पत्थु भण्या बिना अव्यक्त ने एकल रहिवो विचरवो बर्यो। तो जे श्री वीतराग नी आज्ञा लोपी ने एकल रहे त्यां ने साधु किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
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एकाकिसाध्यधिकारः ।
तथा ठाणाङ्ग ठा० ८ कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
अहिं ठाणेहिं सम्पन्ने अणगारे अरिहइ एगल्ल बिहार
पडिमं उवसंपजित्ताणं वित्तिय तं सच्चे पुरिसाए मेहावी पुरिसजाए सत्तिमं पाहिगरणे धिइमं वीरिय
सड्डी पुरिस जाए, बहुस्सुए पुरिसजाए संपन्ने ॥ १ ॥
(ठाणांग ठा० ८ )
૪૨૭
० आठ ठा० स्थानक गुण विशेष करी संयुक्त. अ० अणगार ग्रह योग्य थाइ ए एकाकी नूं. वि० ग्रामादिक में बिषे जावू. ते प० प्रतिमा अभिग्रह ते एकाकी विहार प्रतिम अथवा जिन कल्पिक ने प्रतिमा अथवा मासादिक भिक्खु नी प्रतिमा पडिवजी नें. वि० ग्रामादिक ने विषे विचरा योग्य थाइं तें कहे है. श्रद्धा तत्व श्रद्धवो अथवा अनुष्टान में विषे अभिलाष ते सहित सं० सर्व इन्द्रादिक पिण चाली न सके सम्यक्त्वं चोर थकी, पुरुष जाति ते पुरुष प्रकार ए अर्थ. स० सत्यवादी प्रतिज्ञा शूर पणा थकी मेहावी श्रुत ग्रहवानी शक्ति सहित. मर्यादावर्त्ती एहिज भणी. व० सूत्र अर्थ थको आगम झाझो छै जेहनें जवम्य तो नवमा पूर्व नी त्रीजी बस्तु नों जाण उत्कृष्टो असम्पूर्ण दर्श पूर्वघर स० समर्थ ५ विधे तुलना कोधी तप श्रुत. एकल पणू सत्वें करी नें शरीर नी समर्थाई करी जिन कल्पी ने ए ५ प्रकार नी तुल्यता करवी. अ० कलहकारी नहीं चित्तना स्वास्थ पणा सहित अरति रति अनुलोम प्रतिलोम उपसर्ग नूं सहणहार अधिक उत्साह सहित इहां जे देहला ४ शब्द ने पुरुष जाति शब्द मैत्री. पण कुरला चौकडाने विषे . तेह भगी इहां पिण जाया.
अथ इहां आठ गुणा सहित नें एकल पड़िमा योग्य कह्यो ते आठ गुण, मेधावी ते मर्यादावान् "बहुतीजी वत्थु न जाण. शक्तिएआठ गुणा में नवमी पूर्व
श्रद्धा में सैंठो देव . डिगायो डिगे नहीं. सत्यवादी. प" नो अर्थ इम कह्यो - जे जघन्य नवमा पूर्व नी चान्. कलहकारी नहीं, धैर्यवन्त उत्साह वीर्यवान् नी तीजी वत्थु ना जाण ने सकल पडिमा योग्य रहिवो कह्यो । ते माटे नवमा पूर्व तीजी वत्थु भण्याविना एकल फिरे ते जिन आज्ञा बाहिरे है । तिवारे कोई ६ गुणा नाणी ने गण धारणो कह्यो तिण में पिण "वहुस्सुरवा" पाठ को छै । ते माटे नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भण्या विना एकल पणो न तो नवमा पूर्व नी
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श्रम विध्वंसनम् ।
तीजी वत्थु भण्या विना गण धारवा योग न कह्यो ते माटे टोलो करणो पिणन कल्पे । इम कहे तेहमीं उत्तर- छ गुणा सहित साधु नें गण धरवो कह्यो ते "गणं गच्छं धारयितुं" ते गण गच्छ नों धारवो ते पालबो अर्थ कियो छै । तै गणं गच्छ नों स्वामी ६ गुणा रा धणी नें कह्यो । तिहां ६ गुणा में "वहुस्सुए" नो अर्थ घणा सूत्र नों जाग पहं अर्थ कियो पिण नवमा पूर्व नों नाम न थी चाल्यो । अनें ८ गुण एकला ना कहा । तिण में "बहुस्सुए" नों अर्थ नवमा पूर्व नी तीजी वस्तु कही छे । ते माटे गच्छ ना स्वामी ने नवमा पूर्व नों नियम न थी । डाहा हुए तो विचारि जोजो |
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
४१८
1
तिबारे कोई कहे - ६ गुणामें अने आठ गुणा में पाठ तो एक सरीखा है। अने अर्थ में ८ गुणा में तो नवमा पूर्व नों जाण ते बहुस्सए भने ६ गुणा में घण सूत्र नों जाण ते बहुस्सुए पिण पूर्व न कह्या । एहवो अर्थ में फेर क्यूं एक सरीखा पाठ नो अर्थ पिण एक सरीखो कहिणो । इम कहे तेहनों उत्तर उवाई में प्रश्न २० २१ में साधु ने अनें श्रावक ने पाठ एक सरीखा कह्या । ते पाठ लिखिये !
धम्मिया धम्माया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मपलोइ धम्म पालज्जणा धम्म समुदायरा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा सुसीला सुधया सुपडियारांदा साहु ॥ ६४ ॥
( उचाई प्रश्न २०-२१ )
• धम श्रुत चारित्र रूप ना करणहार ध० धर्मश्रुत चारित्र रूप ने केडे चाले ६० धर्म नी चेष्टा रूडी है. ध० धर्मश्रुत. चारित्र रूप में संभलावे ते धर्मख्यात कहिव. ध० चारित्र रूप में ग्रहवा योग्य जाणी वार बार तिहां दृष्टि प्रवर्त्ताचे घ० धर्मश्रुत चारित्र
धर्म
ने बिषे प्रकर्षे सोवधान है अथवा धर्म ने रागे रंगाया है. ध० धर्म में विषे प्रमाद रहित है आचार जेनां धर्मश्रत चारित्र ने अखंड पालवे. श्रुत ने आराधवे इज वि० आजीविका
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বাজি-অগিন্ধা।
४१६
कल्पना करता थका. सु० भला शील आधार छै जेहनों. मु० भला प्रत. द्रब्य रूप जेहनों सु० आहलाद हर्ष सहित चित्त है. साधु ने विषे जेहना. सा० साधु श्रेष्ठ वृत्तिवन्त.
अथ इहाँ साधु. श्रावक. बिहूं ने धर्म ना करणहार कह्या । ते साधु सर्व धर्म ना करणहार अनें श्रावक देश थकी धर्म नों करणहार। पली साधु अनें श्रावक ने "सुब्बया" कह्या। ते भला ब्रत ना धणी कह्या। ते साधु सर्व व्रती ते माटे सुब्रती. अनें श्रावक देश थकी ब्रती ते माटे सुव्रती. ए साधु श्रावक नों पाठ एक सरीखो पिण अर्थ एक सरीखो नहिं तिम ६ गुणा में "बहुस्सुए" ते घणा मूत्र नों जाण अनें एकल ना ८ गुणा में “बहुस्सुए” ते नवमा पूर्व नी तीजी बत्थु नों जाण एहवो अर्थ कियो ते मानवा योग्य छै। ते माटे बीजा साधु छतां नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भण्या विना एकल फिरे। ते वीतराग नी आज्ञा बाहिर छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा बृहत्करुप उ० १ कह्यो । ते पाठ लिखिये है।
नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियार भूमि वा विहार भूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तएवा ॥
(वृहत्कल्प उ० १ बो० ४७ )
न० न कल्पे. नि. साधु ने. ए० एकलो उठवो. जायवो. रा० रात्रि में विषे. वि० सूम अस्त पामते छते. संध्या न विषे. २० बाहिर. स्थंडिल भूमिका में विषे. वि० स्वाध्याय भूमि न विष नि० स्थानक थकी बाहिर निकलवो. स्वाध्याय प्रमुख करवा ने पेसवो न कल्पे ।
___ अध इहां पिण कह्यो । घणा साधां में पिण रात्रि में तथा विकाल में विषे एकला में दिशा न जाणो, तो जे एकलो इज रहे ते किण ने साथे ले जावे। ते माटे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
कारण विना एक पहियो नहीं पहवी आशा छै । डाहा हुए तो विचारि जोइजो !
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
४०
तथा केतला एक उत्तराध्ययन अ० ३२ मा रो नाम लेई कहे, जे चेलो न मिले तो एकलो इज विचरणो, इम कहे. ते गाथा लिखिये छै
!
आहार मिच्छे मियमसणिज्जं, सहाय मिच्छे निउत्थ बुद्धि । निकेय मिच्छेज विवेक जोगां,
समाहि कामे सम तवस्ती ॥४॥
नवा भेजा निउ सहायं,
गुणाहियं वा गुण समंवा । एगो faurats विवज्जयंतो,
विहरेज कामेसु सजमाणे ॥५॥
उत्तराध्ययन अ० ३२ )
EXTO
साधु एहवो श्राहार. मि० बांछे. मात्राइ मानपित ए० एषणीक ४२ दोष रहित निर्दोष. वली मध्यवर्त्ती छतो. स०सखाया ने बांछे केहवा ने नि भली है. ठ जीवादिक अर्थ विषे बुद्धि जेहनी एहवा नं., चली ते साधु नि० उपाश्रय ने बांछे केहवा न खो संसर्गादिक ना अभाव नों योग्य एतले तेहना आतापादिक में असम्भव करी केहवो हुवे ते कहे . सं ज्ञानादिक समाधि पामत्रा नों कामी वांक. स श्रमण चारित्रियो त० तपस्वी होती ॥४॥
० अथवा कदाचन न पामे निपुण बुद्धिवन्त स० सरवाइयो बली केहवो गु० ज्ञानादिक गुणे करो कि वा श्रथवा पोता ना गुण श्राश्री स० समतुल्य एहवी. एहवो न पाये तो यूं करियो एकलो सखाइया रहित पिण पार हेतु अनुष्ठान ने वर्जतो परिहरतो. वि विचरे, संयम माग केही काम भोग ने विषे प्रतिबन्ध करतो
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একাকিলামিস্কাৰ:।।
४२१
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........
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अथ अठे तो कह्यो। जे ज्ञानादिक में अर्थ गुर्वादिक नी सेवा करे ते गच्छ मध्यवर्ती साधु निपुण सखाइयो बांछै। ते सहाय नों देणहार सखाइयो मिलतो न जाणे तो पाप कर्म वर्जतो थको एकलोइ विचरे। इहां गच्छ मध्यवर्ती थको एहवो चेलो वांछै, इम कह्यो। न मिले तो एकलो रहे। ते चेला ने अभावे एकलो कह्यो। परं गच्छ मध्य कह्यां माटे गुरु. गुरुभाई आदि समुदाय सहित जणाय छै । तिवारे कोई कहे गच्छ मध्यवर्ती ए तो अर्थ में कह्यो, पिण पाठ में नहीं। इम कहे तेहनों उत्तर-ए अर्थ पाठ सूं मिलतो छै। ते माटे मानवा योग्य छै। जिम आवश्यक सूत्रे पाठ में तो कह्यो छै "छप्पइ संघट्टणयाए" छप्पइ कहितां जूं तेहनों संघटो करणो नहीं, इहां पाठ में तो जू नों संघटो किम न करे । अने एहनों अर्थ इम कियो जे जू नों अविधे संघटो करणो नहीं। ए अविध रो नाम तो अर्थ में छै ते मिलतो छै। तिम ए पिण अर्थ मिलतो छै। तथा आवश्यक अ० ४ कह्यो। “परिकमामि पंचहिं महब्बएहि" इहां पञ्च महाव्रत थी निवर्तयो कह्यो। ते महाव्रत थी किम निवर्त। महाव्रत तो आदरवा योग्य छै। एहनों अर्थ पिण इम कियो छै। ते पंच महाव्रतां मे अतीचारादिक दोष थी निवर्तवो। ए पिण अर्थ मिलतो छै। इत्यादिक भनेक अर्थ मिलता मानवा योग्य छै। एहनी ज अवचूरी में एहवो कह्यो । ते अवचूरी लिखिये छ।
श्राहार मशनादिकम् अपे र्गम्यत्वा दिच्छे दभिलषे दपिमित मेषणीय मेवा दान भोजने तद्रा पास्ते. एवं विधाहार एवहि प्रागुक्त गुरु वृद्ध सेवादिज्ञान कारणान्याराधयितुं क्षमः। तथा सहायं सहचरमिच्छेद्गच्छान्तर्वर्ती सन् शत गम्यं । निपुणाः कुशलाः अर्थेषु जीवादिषु बुद्धि रस्येति निपुणार्थ बुद्धिस्ते अतिदृशोहि स यः स्वाच्छन्द्योपदेशादिना ज्ञानादि हेतु गुरु वद्ध सेबादि भ्रंशभेव कुर्यात् । निकेतनाश्रय मिच्छेत् । विवेकः स्त्रयादि संसर्गाभाव स्तस्मैभ योग्य मुचितं तदा पाताद्य संमवेन विवेक योग्यं अविविक्ता श्रयोहि स्त्रयादि संसर्गाचित्त विप्लवोत्पत्तौ कुतो गुरु वृद्ध सेवादि ज्ञानादि कारण संभवः समाधिआनादीनां परस्पर मवाधनया वस्थानं तं कामयतेऽभिलषति समाधिकामो ज्ञानाद्या वास्तु काम इत्यर्थः श्रमण स्तपस्वी ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
अथ इहां अवचूरी में विण कह्यो । निर्दोष मर्यादा सहित आहार वांछे । एहवे आहार लाधे छते गुरु वृद्ध नी सेवा ज्ञानादिक नों कारण छै । ते भारावा समर्थ हुई । तथा गच्छ मध्ये रह्यो छतो निपुण सखाइयो वाँछे। पहवो सखाइयो मिल्ये छते ज्ञानादिक ना हेतु गुरु वृद्ध नी सेवा छै । ते अति हो करणी आवे तथा स्त्रयादिक संसर्ग रहित उपाश्रय वांछे जो स्त्रियादिक सहित उपाश्रये रहे तो तेहनों संसर्ग चित्रा ना विप्लव नी उत्पत्ति थकी गुरुवृद्ध नी सेवा ज्ञानादिक ना कारण fati थकी निपजे । हां गुरु बृद्धनी सेवा नें अर्थे शिष्य वाणो को । ए तो गच्छ माही रह्या साधु नी विधि कही । निकलवानी विधि कही न दीसे । अनें एहवो शिष्य न मिले तो एकलो पाप रहित विवरणो कह्यो । ते चेलां नें अभावे गुरु गुरु भाई सहित नें बिण एकलो कह्यो । तथा राग द्वेष ने अभावे एकलो कहोजे । राग द्वेव रूप बीजा पक्ष में न वर्त्ते ते घणा मैं रहितो पण एकलो कहि ।
सहाय नों दणहार
पिण गच्छ बाहिर
तथा उत्तराध्ययन अ० ३२ वे गाथा कही, ते लिखिये छै ।
४२२
नाणस्स सब्वस पगासणाए,
अन्ना मोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसरस य संखणं,
एगंत सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२॥ तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा,
विबजरणा बाल जणस्स दूरा ।
साय एगंत निसेवरणाय,
सुतत्थ संचियाधि ई ॥ ३ ॥
उत्तराध्ययन ० ३२ )
ना० मतिज्ञानादिक. स० सर्व ज्ञान मे विषे प० निर्मल करने करो ने अ० मति प्रशाव० वर्जवे करी. रा० राग श्रनं दो० द्वेष सम्यक प्रकारे पायें मु० मोक्ष ॥२॥
त० ते
नादिक. अन मा० दर्शन मोहनी में वि० विशेष. तेहने सावे सन जय करो से ए० एकान्ती
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एकाकिसावधिकारः।
४२३
मोक्ष पामवानों. ए० भागलि कहिल्ये. म० ते मार्ग गु० गुरु शामादिके के करी गुण बड़ा तेहनी. से० सेवा करवी. वि० विवर्जना करवी पासत्यादिक अज्ञानियानी दु० दूर थको स०स्वाध्याय एकान्त स्थान के नि० करवी मु० सूब अन सूत्रार्थ साचे मने करी चिन्तविवो एकाग्र चित्त पणे.
अथ भठे कह्यो-ज्ञान. दर्शन. चारित्र. ए मोक्ष ना उपाय कह्या । ते शानादिक पामवा नों मार्ग गुरु बृद्ध ते ज्ञान बृद्ध दीक्षा बृद्ध साधु नी सेवा करतो शुद्ध आहार शिष्य वांछतो कह्यो। ए गुरु वृद्ध घणा साधु नी समुदाय रूप गच्छ छै ते माहे रह्यो थको ज निपुण सखायो वांछणो कह्यो। पिण गच्छ बाहिरे निकलबो न कह्यो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
तथा राग द्वेष ने मभावे एकलो तो घणे ठामे कह्यो ते केतला एक पाठ लिखिये है।
माय चंडालियं कासी बहुयं माल आलवे । कालेणय अहिजित्ता तेश्रो माइज एगो ॥१०॥
। उत्तराध्ययन अ०१)
मा० कदाचित क्रोधादिक ने वशे हिसादिक घोर कार्य न करिवो. बघण २ स्त्री कथादिक न बोलवो. का प्रथम पौरसी प्रमुखे सिद्धान्त भणी ने गुरु समीपे तिवारे पछे धर्म ध्याना. दिक ध्यावो. ए० एकलो राग द्वेष रहिन छतो.
अथ अठे पिण एकलो ध्यान ध्यावे एगुरां समीपे ते पिण एकालो कह्यो ते भाव थी राग द्वेष ने भभावे एकलो पहवो अर्थ कियो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १० बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
-
तथा उत्तराध्ययन अ० १ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ। नाइदूर मणासन्ने नन्नेसिं चक्खु फासो। एगो चिटुंजा भत्तट्टा लंघित्ता तं नाइकम्मे ॥३३॥
( उत्तराध्ययन अ० १)
ना० भिक्षाचर ऊभा हुई तिहां अति दूर ऊभी न रहे. म० अति समीप उभो न रहे. जिहां गोचरी जाय तिहां. न० नहीं ऊभो रहे भिखारी नी तथा गृहस्थ नी दृष्टिगोचर भावे तिहां ए० एकलो राग द्वेष रहित. चि० उभो रहे अशनादिक ने अर्थे. लं० अनेरा भिखारी ने उल्लडी ने प्रवेश न करे. ते दातार ने अप्रतीत उपजे ते भणी.
अथ इहां पिण कह्यो। राग द्वेष ने अभावे एकलो ऊभो रहे पिण भिख्यासां में उल्लंघी न जाय इम कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग ध्रु० १ ० ४ उ० १ कह्यो। ते पाठ लिखिये छै।
जे मायरं च पियरं च विप्पजहा य पुव्व संयागं एगे सहिए चरिस्सामि आरत मेहुणो विवित्तेसी ॥१॥
(सूयगडांग अ०४ उ०१ गा०१)
जे मा० है माता ना पिता ना पूर्व संयोग छांडी न. ए० एकलो ही राग द्वेष रहिता ज्ञानादि सहित छांड्या छै मैथुन जेणे. वि० स्त्री पुरुष पंडग पशु रहित स्थान नो गवेषणहार...
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काकी साधु अधिकारः ।
अथ इहां कह्यो–जे हूं राग द्वेष नें अभावे ज्ञानादि सहित एकलो विचरस्यूं । इम विचारि दीक्षा ले इहां पिण राग द्वेष नों भाव नथी ते माटे एकलो को । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १२ बोल सम्पूर्णा ।
तथा उत्तराध्ययन भ० १५ पिण राग द्वेष में अभावे एकलो विवरणो को ते पाठ लिखिये छै ।
असिप्प जीवी अहेि अमित्ते,
जिइंदिए सव्व विप्प मुक्को ।
कसाई लहुप्प भक्खो,
४२५
चिच्चाहिं एक चरेस भिक्खू ॥
(उत्तराध्ययन अ० १५ )
० चित्रकार नी कलाइ न जीवे. गृध्र पणा रहित अ० शत्रु मित्र नहीं है जेहने एहवो थको जि० जितेन्द्रिय स० सर्व वाह्य आभ्यन्तर परिग्रह थी मुकाणा है. अ० थोड़ी कषाय उत्कर्ष रहित. लघु आहारी. चि० छांडो न गृ० घर. ए० एकलो. राग द्वेष रहित. बिचरे. भि० साधु.
अथ इहां . पिण कह्यो - घर छांडी राग द्वेष नें अभावे एकलो विचरे । इत्यादिक अनेक ठामे घणा साधां में रहिता पिण राग द्वेष नें अभावे भाव थी एकलो कह्यो । चेला न मिले तो ते साधु चेलां नें अभावे तथा राग द्वेव नें अभावे को बिच वूं को दीसे छै । पिण एकलो अव्यक्त रहे तिण नें साधु किम कहिए । तिवारे कोई कहे - जे ३ मनोरथ में चिन्तवे जे किवारे हूं एकलो थइ दश विध यति धर्मधारी विचरस्यूं इम क्यूं कह्यो । इम कहे तेहनों उत्तर
५४
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४२६
भ्रम विध्वंसनम् ।
इहां एकलो कह्यो ते एकल पडिमा धारवा नी भावना भावे इम कह्यो ते एकल पडिमा तो जघन्य नवमा पूर्व नी तीजी:वत्थु ना जाण ने कल्पे । इम ठाणाङ्ग ठा० ८ को छै ते पूर्व नों ज्ञान अनें एकल पडिमा बेहु हिवड़ा नथी । अने पूर्व नों ज्ञान विच्छेद अनें पूर्व ना जाण बिना एकल पडिमा पिण विच्छेद छै। ए साधु ना ३ मनोरथ में प्रथम मनोरथ इम कह्यो। जे किवारे हूं थोड़ो घणो सूत्र भणसूं । दूजो मनोरथ जे किवारे हूं एकल पडिमा अङ्गीकार करस्यूं। तीजो मनोरथ किवारे हूं सन्थारो करस्यूं। इहां प्रथम तो सिद्धान्त भणवा नी भावना भावे ते पिण मर्यादा व्यवहार सूत्रे कही ते रीते भणे पिण मर्यादा लोपी न भणे अनें मर्यादा सहित सूत्र भणी ने पछे दूजो मनोरथ एकल विहार पडिमा नी भावना कही। ते पिण ठाणाङ्ग ठा० ८ कही ते प्रमाणे पूर्व भणी ने एकल पडिमा पिण अङ्गीकार करे। जिम सूत्र भणवा नों मनोरथ कह्यो। पिण १० वर्ष दीक्षा पाल्यां पछे भगवती सूत्र भणवो कल्पे पहिलां न कल्पे। इम अन्य सूत्र पिण मर्यादा प्रमाणे भणवो कल्पे। तिम एकल पडिमा रो मनोरथ कह्यो। ते एकल पडिमा पिण नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भण्या पछे कल्पे पहिलां न कल्पे। इम हिज आचारांग में पिण नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भण्या विना एकल पडिमा न कल्पे कह्यो। ते माटे ३ मनोरथ रो नाम लेइ एकल पडिमा थापे ते पिण न मिले जिम सूत्र भणवा ना मनो. रथ नो नाम लेइ १० वर्ष पहिलां भगवती भणवो थापे तो न मिले तिम नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भणवा विना एकल पडिमा थापे ते पिण न मिले। तथा कोई कहे दश वैकालिक अ. ४ कह्यो। “से भिक्खू वा भिक्खुणीवा जाव एगोवा परिसागओवा" इहाँ साधु ने एकलो क्यूं कह्यो, इम कहे तेहनों उत्तर-इहां साधु ने साध्वी ने बेहं ने एकला कह्या छै। "भिक्खूवा भिक्खुणीवा" ए पाठ कह्यां माटे जो इम छै तो साध्वी एकली किम रहे। वली “एगोवा परिसागओवा' कह्यो है। परिषदा में रह्यो थको तथा परिषदा ने अभावे एकलो रह्यो थको इहां साधु साध्वी ने परिषदा ने अभावे एकला कह्या छै। पिण एकल पणो विचरवो पाठ में कयो नथी। तिवारे कोई कहे और साधु मरतां २ एकलो रहि जाय तिण में साधु पणो हुवे के नहीं। तथा और भागल हुवे ते माहि थी कोई न्यारो थइ साधु पणो पाले तिण ने साधु किम न कहिए। इम कहे तेहनों उत्तर
जिम मरतां २ साध्वी एकली रहे तो :स्यूं करे तथा घणा भागल माहि थी एकली साध्वी न्यारी हुवे तेहनें साधु पणो निपजे के नहीं। इम पूछयां जवाब
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एकाfhary - अधिकारः ।
1
उत्तम
देवा असमर्थ जद अकबक बोले पिण अन्यायी हुवे ते लीधी टेक छोड़े नहीं जे कारण पढ्यां एकल पणे रहे तो जिम पोता नों संयम पले तिम करे । जीव हुवे ते थोड़ा दिन में आत्मा नों कार्य सवारे पिण किञ्चित् दोष लगावे नहीं । तिवारे कोई कहे - कारण पड्यां तो एकला में पिण साधु पणो पावे छै तो एकल रहे ते भ्रष्ट पहवी परूपणा किम करो छो । इम कहे तेहनों उत्तर गृहस्थ
1
घरे वैसे तेहनें भ्रष्ट कहीजे । मास चौमास उपरान्त रहे तिण नें भ्रष्ट कहीजें । पहिला प्रहर से आयो आहार छेहले प्रहर भोगवे तेहनें पिण भ्रष्ट कहीजे । मर्दन करे तेहनें पिण भ्रष्ट कहीजे । इत्यादिक अनेक दोष सेवे तिण नें भ्रष्ट कह्यो । अनें कारण पड्या पाछे कह्या ते बोल सेवणा कह्या तिण में दोष नहीं तो पिण धोक मार्ग में परूपणा तो ए बोल न सेवण री ज करे, कारणे सेवे तो ए बोलां री थाप धोक मार्ग में नहीं। धोक मार्ग में तो ते बोल सेव्यां दोष इज कहे। कारण री पूछे जब कारण रो जबाव देवे मर्दन कियां अनाचारी दशवैकालिक में कह्यो । अनें बृहत्कल्प में कारणे मर्दन करणो कह्यो । ते तो बात न्यारी, पिण मर्दन कियां अनाचारी ए परूपणा तो विगटे नहीं तिम सकल पणे विचरे तिण में भ्रष्ट कहीजे । ए धोक मार्ग में परूपणा छै । अनें कारण में एकल पणे रह्यां ते परूपणा उठे नहीं । ऐकली साध्वी विचरे तिण नें भ्रष्ट कहीजे । एकली गोचरी तथा दिशा जाय ते पिण भ्रष्ट. एकलो साधु स्थानक : बाहिरे रात्रि दिशा जाय ते पिण भ्रष्ट कहीजे । अर्ने कारणे सर्व एकल पणे संयम निर्वहे तो धोक मार्ग में तेहनी थाप नहीं । ते मा परूपणा में दोष नहीं । तिम एकल नें धोक मार्ग में भ्रष्ट कहीजे । अनें कारण री बात न्यारी छै । कारण पड्यां भगवन्त कह्यो ते प्रमाणे बिचलां दोष नहीं । अनें केतला एक एकल अपछन्दा कहे छै ते साधु एकल बिचलां दोष नहीं । एहवी परूपणा करे छै ते सिद्धान्त ना अजाण छै । सिद्धान्त में तो एकल पणे विचरवो घणे ठामे बर्ज्या छै । प्रथम तो व्यवहार उ० ६ घणा निकाल पैसारे हुवे ते प्रामादिक में एकला बहुश्रुति नें रहिवो न कल्पे कह्यो । तथा आचारांग श्रु० १ अ० ५ उ० १ एकला में आठ अवगुण कह्या । तथा आचाराङ्ग श्रु० १ अ०५ उ०४
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अ
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४२८
भ्रम विध्वंसनम् ।
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भव्यक्त ने एकलो विचरवो रहिवो बर्यो। तथा ठाणाङ्ग ठा० ८ आठ गुण बिना एकलू रहिवू नहीं। तथा आचाराङ्ग श्रु०१ अ० ५ उ० ४ गुरु कहे हे शिष्य ! तोने एकल पणो मा होईजो। तथा बृहत्कल्प उ०१ रात्रि विकाले स्थानक बाहिरे एकला ने दिशा जायवो न कल्पे कह्यो। इत्यादिक अनेक ठामे एकलो रहिवो कारण बिन बर्यो छै। ते माटे एकल रहे तिण ने साधु किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइसो।
इति १३ बोल सम्पूर्ण।
इति एकाकी साधु-अधिकारः ।
SANENERAL
TRIPATH
य
M
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अथ उच्चार पासवणाऽधिकारः ।
केतला एक पाखंडी कहे - साधु न गृहस्थ देखतां मात्रो परठणो नहीं । अते. कहे - जे सूत्र निशीथ उ० १५ कह्यो “ बाजार में उच्चार. ( बड़ी नीति ) पासवण ( छोटी नीति ) परठ्यां चौमासी प्रायश्चित्त आवे" ते माटे गृहस्थ देखतां मात्र परठणो नहीं । इम कहे, तेहनों उत्तर
ए उच्चार पासवण परठण रो बर्ज्या ते उच्चार आश्री बज्यों छै । पासवण तो उच्चार रे सहचर हुवे ते माटे भेलो शब्द कह्यो छै । ते पाठ लिखिये छै ।
जे भिक्खू 'उच्चार पासवणं परिवेत्ता न पुच्छेइ न पुच्छन्तं वा साइज्जइ ॥ १६९ ॥
(निशीथ उ०४ )
जे० जे कोई साधु साध्वी. उ० वड़ी नीति पा० लघु नीति प० परिठवी नें. म० नहीं वस्त्रे करी. पू० पूछे. न० नहीं. वस्त्रे करी. पू० पूछता में अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त.
अथ इहां कह्यो - उच्चार ( बड़ी नीति ) पासवण ( छोटी नीति ) परिठवी (करी) नें वस्त्रे करी न पूंछे तो प्रायश्चित्त कह्यो । तो पासवण रो कांई पूंछे. ए तो उच्चार नों पूंछणो कह्यो छै उच्चार करतां पासवण हुवे ते माटे बेहूं भेला कला छै । परं पूछे ते उच्चार नें, पासवण नें पूंछे नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
तथा तिणहिज उद्दे श्ये एहवा पाठ कह्या छै । ते लिखिये छै ।
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भ्रम विध्वंसनम् ।
जे भिक्खू उच्चार पासवरणं परिद्ववेत्ता कठेण वा कविलेण वा अंगुलियाए वा सिलागए वा पुच्छइ पुच्छंतं वा साइ
जइ ॥ १६२॥
४३०
( निशीथ उ०४ )
जे जे कोई साधु साध्वी. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति प० परिठवो नें. का करी. क० बांस नी खांपटी करो नं. अं० अंगुलिई करो वा. सि० अनेरा काष्ठ नी शलाका करी नें. पु० पूंछे वा पू० पूंछता ने अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित.
अथ इहां उच्चार, पासवण परठी काष्ठादिके करी पूंछयां प्रायश्चित्त कह्यो । ते पिण उच्चार आश्री, पिण पासवण आश्री नहीं । तिम बाजार में उच्चार. पासवण परठ्यां प्रायश्चित्त कह्यो । ते पिण उच्चार आश्री छे, पासवण आश्री नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्णा ।
तथा तिणहि उद्देश्ये एहवा पाठ कह्या—ते लिखिये छै ।
जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिवेत्ता. णायमइ. गायमंत वा साइजइ ॥ १६३॥
जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिद्ववेत्ता तत्थेव आयमंति आयमंतं वा साइज्जइ ॥ १६४॥
जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिवेत्ता अदूरे आयमइ. अइदूरे आयमंतं वा साइजइ ॥ १६५॥
( निशीथ उ०४ )
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उच्चार पासवणाऽधिकारः ।
जे० जे कोई. भि० साधु साध्वी. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति प० परठी (करी) नें ० शुचि न लेवे अथवा णा० शुचि न लेतां नें अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त ॥ १६३॥ जे० जे कोई. भि० साधु साध्वी. उ० बड़ी नीति पा० छोटी नीति प० परठी नें. त० तठेई (तिया ऊपरेइज) आ० शुचिलेवे. वा. ० शुचि लेता ने अनुमोदे तो पूर्ववत् प्राय - श्चित्त ॥ १६४ ॥
४३१
जे जे कोई साधु साध्वी. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति प० परठी नें. अ० प्रति दूरे to शुचि लेवे अथवा अतिदूरे शुचि लेतां नें अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त ॥ १६५ ॥
अथ इहां कह्यो – उच्चार पासवण परठी ( करी ) नें शुचि न लेवे, अथवा तठे ई उच्चार रे ऊपर इज शुचि लेवे अथवा अति दूर जाई नें शुचि लेवे तो प्रायचित्त आवे । ते पिण उच्चार आश्री शुचि लेणों कह्यो । पासवण तो पोते शुचि छै तेही शुचि कांई लेवे । इहां उच्चार पासवण परठगो नाम करवा नो छै । जिम दिशा जाय नें शुचि न लेवे तो दण्ड कह्यो, तिम गृहस्थ देखतां दिशा जाय तो दण्ड जाणवो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा निशीथ उ० ३ कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
जे भिक्खू सपायंसि वा परपायंसि वा दियावा. ओवा. वियाले वा उच्चाहिमाणे सपायं गहाय जाइत्ता उच्चार पासवणं परिवेत्ता अगुग्गए सूरिए एडेइ. एडतं वा.. साइजइ ॥८२॥ तं सेवमाणे आबज्जइ मासियं परिहार होणं प्रोग्घाइयं ॥
(निशोथ उ० ३ )
to जे कोई साधु साध्वी में. स० आपणा पाना ते पानिया ने विषे. प० अन्य साधु ना पात्रा ने विषे. दि० दिन में विषे, रा० रात्रि में विषे. वि० विकाल नें विषे उ० प्रवल यो वला
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मम विध्वंसनम् ।
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कारे उच्चार वाधा करी पोड्यो थको. सं० पोता नों पात्रो ग्रही ने तथा प० पर पात्रो याची में १० बड़ी नीति. पा० छोटी नीति. प० ते करी ने. अ० सूर्य नों ताप न पहुंचे तिहां ए परिठ. न्हांखै. ए परिठवता ने अनुमोदे तो मासिक प्रायश्चित्त प्रावे.
अथ इहां कह्यो-दिवसे तथा रात्रि तथा .विकाले पोतारे पात्रे तथा अनेरा साधु ने पात्रे उच्चार पासवण परठवी ने सूर्य रो ताप न पहुंचे तिहां न्हांले तो दण्ड आवे । इहां उच्चार. पासवण. परठणो नाम करवा नों कह्यो छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा ज्ञाता म०:२ कयो ते पाठ लिखिये छै ।
तत्तेणं से धरणे विजएणं सद्धिं एगते अवकमइ २ त्ता उच्चार पासवणं परिवेइ।
(ज्ञाता प्र०२)
त. तिवारे. धन्नो सार्थवाह विचेय सङ्घाते. ५० एकाम्ते. भ० जावे. जावी में. उ० बड़ी नीति. पा० लधुनोति. मात्रो. प० परिठवे.
अथ इहां धन्नो सार्थवाह विजय चोर साथे एकान्ते जाइ उच्चार पास. घण परठयो कह्यो। इहां पिण उच्चार. पासवण, परठणो नाम करवा रो कह्यो छ। इत्यादिक अनेक ठामे परठणो नाम करवा नों कह्यो छै। ते माटे गृहस्थ देखतां अङ्ग उपाङ्ग उघाड़ा करी में उच्चार पासवण परठणो ते करणो नहीं। तथा उत्तराध्ययन अ० २४ करो। भचार. पासवण. खेल ते बलखो. संघाण ते नाक नों मल अश. नादिक ४ आहार. जीव रहित शरीर. इत्यादिक द्रब्य कोई आवे नहीं देखे नहीं, तिहां परठणा कहा। ते पिण किणहिक द्रव्य आश्री कह्यो छै। पिण सर्व द्रव्य भाश्री नहीं। जिम मनुष्य में उपयोग १२ पाने पिण एक मनुष्य में १२ नहीं ।
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उच्चार पासवणाऽधिकारः ।
४३३
जिम साधु में लेश्या ६ पावे पिण सर्व साधु में नहीं। लिम कोई आवे नहीं देखे नहीं तिहाँ उच्चारादिक परठे कह्या । ते पिण किणहिक द्रव्य आश्री छै। वली १० दोष रहित क्षेत्र में परठणो कह्यो छै। कोई आवे नहीं देखे नहीं. संयम प्रचारी विराधना न हुवे. सम बरोवर भूमि. तृणादिक रहित. बहु काल थयो भूमि में अचित्त थया ने. विस्तीर्ण भूमि. ४ अंगुल ऊपरली अचित्त. प्रामादिक थी दूर. ऊंदरादिक ना विल धावे नहीं. त्रस बीजादिक रहित. ए १० बोल हुवे तिहां परठणो कह्यो। ते समचे द्रव्य परठण रा १० बोल कह्या। पिण १.१ द्रव्य परठे ते ऊपर १० बोल रो नियम नहीं । तिम उच्चार पासवण परठी न पूंछे तो प्रायश्चित्त कह्यो ते उच्चार ने पूंछणो छै। पिण पासवण रो पाठ कह्यो ते तो उच्चार रे सहचर हुवे ते माटे भेलो पाठ कह्यो छै। तिम १० दोष रहित क्षेत्र में उच्चारादिक द्रव्य परठणा कया। ते पिण किणहिक द्रव्य आश्री दश दोष रहित क्षेत्र कह्यो। पिण सर्व द्रव्यां ऊपर १० बोल नहीं। बृहत्कल्प ३१ कह्यो साधु ने बाजार में उतरणो ते माटे बाजार में उतरसी. तो मात्रादिक किम न परठसी। भनें जो गृहस्थ देखता मात्रो न परठणो तो पाणी रोकडदो. रेत. राख. भाटो. ढलियो. लूहणादिक नों धोवण, पगारे गोवरादिक लागो. इत्यादिक सीत मात्र कांई परठणो नहीं। तिहां तो सर्ब द्रव्य बा छै। जिम एक सीत मात्र परठे ते ऊपर १० दोष रहित क्षेत्र न मिले। तिम मात्रो परठे तिहां पिण १० दोष रहित क्षेत्र नों नियम नथी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
इति उच्चार पासवणाऽधिकारः।
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or कविताऽधिकारः ।
केतला एक अज्ञानी कहे- साधु नें जोड़ करणो नहीं। जोड़ किया मृ भाषा लागे, इम कहे तो तेहने लेखे साधु ने बखाण देणो नहीं। जो जोड़ कियां मृषा लागे तो वखाण दियां पिण मृषा लागे । वली धर्मचर्चा करता. ज्ञान सीखतां. पिण उपयोग चूक झूठ लग जाये तो तिण हे लेखे साधु ने बोलणो इज नहीं । अनें जो बखाण दियां. धर्मचर्चा कियां. दोष नहीं तो निरवद्य जोड़ कियाँ पिण दोष नहीं । अनें जे कहे जोड़ न करणी तेहनों जवाब कहे छै । नन्दी सूत्र में जोड़ करण रो न्याय कह्यो छै । ते पाठ लिखिये छै ।
एव माइ याइं चउरासिई पइन्नग सहस्साई भगवओ अरह उस सामियस्स आइतित्थयरस्स तहा संखिजाई पइरणग सहस्साइ मज्झिमगाणं जिणावराणं चोदस पन्नग सहस्साणि भगवत्र वद्धमान सामिस्स अहवा जस्स जत्तियासीसा उप्पत्तियाए. विणइयाए कम्मियाए, परिणामियाए. चविहीए. बुद्धिए उचवाए त्तस्स तत्तियाइ' पन्नग सहस्साई ' पत्तेय बुद्धावि तत्तिया चैत्र । से तं कालिय ।
1
।
( नन्दी - पञ्चज्ञानवर्णन )
च० चौरासी हजार प० पइन्ना कालिक सूत्र. भ० भगवन्त श्र० अरिहन्त उ० ऋषभ देव स्वामी ने होइ. आ० धर्म नी आदि ना करणहार. त० तथा संख्याता हजार प० पइन्ना कालिक सूत्र. म० मध्यम. जि० जनवर तीर्थङ्कर में होई. च० १४ हजार प० पइन्ना कालिक सूत्र. भ० भगवन्त च० वर्द्धमान स्वामी ने होइ. ज० जेहना जेतला शिष्य हुवा. ते. उ० श्रौत्पातिक करो. वि० विनय बुद्धि करी. क० कार्मिक बद्धि करी. ५० परिणामिक बुद्धि करी. च
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कविताऽधिकारः।
४३५
च्या प्रकार नी बुद्धि करी. त० तेहना तेतला हजार इज पइन्ना हुवे. प० प्रत्येक बुद्धि पिण जेतला हुई. तेतलापइन्ना करे ते कालिक सूत्र.
अथ इहां कह्यो-तीर्थङ्कर ना जेतला साधु हुई ते ४ बुद्धिई करी तेतला पइन्ना करे, तो साधु ने जोड़ न करणी तो ते साधां पइन्ना नी जोड़ क्यूं कीधी। अने जो पइन्ना जोड्यां तेहनें दोष न लागे। तो अनेरा साधु निरवद्य जोड़ करे तेहनें दोष किम लागे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली नन्दी सूत्र में कह्यो ते पाठ लिखिये छ ।
से किं तं आभिणिबोहियणाणं, आभिणिबोहियनाणं दुबिहं पण्णत्तं तं जहा सुयं निस्सयं च असुय निस्सियं च । से किंतं असुय निस्सियं असुय निस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं ।
उप्पत्तिया. वेणइया, कम्मया. पारिणामिया। बुद्धि चउव्विहावुत्ता, पंचमा नोवलब्भइ ॥१॥ पुव मदिटुमूसुयं मवेइ अतक्खण विशुद्ध गहिअत्था । अव्वाय फल जोगा बुद्धि ओप्पतिया नाम ॥२॥
(नन्दी )
से० ते. भगवन्. कि केतला प्रकारे. प्रा० मतिज्ञान. ( भगवान् कहे है ) श्रा० मतिज्ञान. दु० ये प्रकारे. प० परूप्या. त० ते कहे छै. सुश्रुत निश्चित. अने. अ० अश्रुत निश्चित. भगवन्. कि० केतला प्रकारे. अ० अश्रुत निश्चित. (भगवान् कहे छै ) अ० अश्रुत निश्चित. च०४ प्रकारे. प० परूप्या. यथा-उ० प्रोत्पत्तिक वुद्धि. वि० वैनयिक बुद्धि. क० कार्मि बुद्धि. पा० परिणा. मिक बुद्धि. च० ४ प्रकारे. दु० कही. पं० पञ्चम बुद्धि. नो० नहीं है. पु० पहिला. म० देख्या न होई. अ० सुण्या न होई. म. वेद्या न हो तथापि. म० जाणे त० तत्काल. वि. निर्मल भावाथ अ.नहीं हणवा योग्य छै फलयोग जेहनों इहवी. वु० प्रोत्पत्तिकी बुद्धि है।
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४३६
भ्रमविध्वंसनम् ।
अथ इहां मतिज्ञान ना बे भेद किया। श्रुत निश्चित. अश्रुत निश्चित. तिहां जे सूत्र बिना ही ४ बुद्धिई करी सूत्र सूं मिलतो अर्थ ग्रहण करे । सूत्र बिना ही बुद्धि फैलावे। ते अश्रुत निश्चित मतिज्ञान नो भेद कह्यो छै। वली कह्यो-पूर्वे दीठो नहीं सुण्यो नहीं ते अर्थ तत्काल प्रहण करे ते उत्पात नी बुद्धि अश्रुत निश्चित मतिज्ञान नों भेद कह्यो। सो जोड़ सूत्र सूं मिलती करे ते तो उत्पात नी बुद्धि छै। अश्रुत निश्चित भेद में छै। तो ते जोड़ ने खोटी किम कहिये। तथा “सम्मदिहिस्सभइमइ नाणं” ए पिण मन्दी सूत्रे कह्यो। समदृष्टि नी मति में मति. शाम कहो तो जे साधु मतिज्ञान थी बिचारी निरवध जोड़ करे तेहनें दोष किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वलो नन्दी सूत्र में कह्यो। ते पाठ लिखिये छ ।
से किं तं मिच्छ सुयं, मिच्छ सुयं जं इमं अण्णाणि एहिं मिच्छ दिदि एहिं. सच्छंद बुद्धि मइ बिग्गप्पियं तं जहा भारहं रामायणं, भीमा. सुरूवखं. कोडिल्लयं. सगडं भद्दियाओ. सभगंदियाओ. खंडामुहं. कप्पासियं. नाम सुहुमं कणगसत्तरी वइसासियं बुद्ध वयणं तेसियं वेसियं लोगाययं सटूितं तं माठरं पुराणं वागरणं भागवयं पायपुंजलो पुस्स देवयं लेहं गणियं सउण रूयं नडयाई अहवा बावत्तरिं कलाओ चत्तारिवेया संगो वंगाए याई मिच्छदिद्विस्स मिच्छत्त परिग्गहियाइ. मिच्छसुयं एयाईचेव. सम्मदिटुस्स सम्मत्त परिगाहिया सम्मदिट्टी सम्मसुयं ।
( नन्दी सूत्र )
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कविताऽधिकारः।
४३७
से ते. कि० केहो. मि. मिथ्यात्व श्रुत. ज. जे प्रत्यक्ष. अ० अज्ञानी ना कीधा. मि० मिथ्यात्वी ना कीधा. स. पापणी कल्पना करी. धुद्धिमति इनिपाया. तं. ते कहे है. भा० भारत. रा० रायायण. भी० भीम स्वरूप. को० कोडिलीय. स० सगड़ भद्र कल्पनीक शास्त्र. ख. बंडा सुख. क. कपासीय. ना० नाम सूक्ष्म. क० कणग सतरी. व० वैशेषिक. बु० बुद्धि वचन शस्त्र. वि. विशेष का० कायिक शास्त्र. लोगापाय. सं० साठितंत शास्त्र. म० माठर पुराण. वा० व्याकरण भा० भागवत. पा० पाय पूंजली. पु० पुरुष देवता. ले० लिखवानी कला. ग. गणित कला. स. शकुल. शास्त्र. ना० नाटक विधि शास्त्र. अ० अथवा ७२ कला. च० च्यारवेद. स. अजोपाङ्ग सहित. भारतादिक. ए जे. मि० मिथ्यात्वी ने मिथ्यात्व पडोग्रह्या थका. मि० मिथ्यात्व होय परिणामे ए. भारतादिक शास्त्र सम्यग् दृष्टि ने सांभलता भणतां सम्यक्त्व भावाथको परिणामे.
अथ इहां कह्यो–जे भारत रामायणादिक ४ वेद मिश्यावृष्टि रा कीधा मिथ्यादृष्टि रे मिथ्यात्व पणे प्रह्या मिथ्या सूत्र अनें एहिज भारत रामायणादिक सम्यग्दृष्टि रे सम्यक्त्व पणे ग्रह्या छै ते माटे सम्यक्त्व सूत्र छै। जे सम्यग्दृष्टि ते खरां में खरो नाणे खोटा ने खोटो जाणे, ते माटे भारतादिक तेहने सम्यक सूत्र कह्यो। इहां मिथ्यात्वी रा कीधा प्रन्थ पिणसम्यग्दृष्टि रे सम्यक् सूत्र कह्या जेहवा छै तेहवा जाणे ते माटे तो बहुत विचारी जोड़ करे तेहमें सावध किम आणे। अनेरा ना कीधा पिण सम पणे परिणमे तो पोते निरवद्य जोड़ करे तेहनें दोष किम कहिये। खोटी जोड़ किम कहिये । डाहा हुए तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
तथा केतला एक कहे-साधु ने राग काढी गावणो नहीं। ते सूत्र मा अजाण छै। ठाणाङ्ग ठा० ४ उ० ४ कह्यो । ते पाठ लिनिये । चउबिहे कब्वे पण्णत्ते गद्दे. पहे. कत्थे. गेए ।
(ठाणाङ्ग ठा० ४ उ०४)
च०४ प्रकारे काव्य ते ग्रन्थ परूप्या. ग० गछ छन्द विना'बांध्यो, शास्त्र परिज्ञाध्ययन मो परे. पछ. छन्दे करी वांधयो विमुक्ताधययन नी परे. क० कथा करी बांधयो ज्ञाताधययन नी परे. गे गान योग्य एतले गाबायोग्य.
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४३८
भ्रम विध्वंसनम् ।
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___अथ इहां ४ प्रकार ना काव्य कहा। गद्य वन्ध. पद्यवन्ध. कथा करी. गायो करो. ए ४ निरवध काव्य करी मार्ग दिपायां दोष नहीं। तथा भगवान् रा ३५ वचन रा अतिशय में राग सहित तीर्थकर नी वाणी कही छै । अनें गायां दोष छे तो सूत्रादिक नो गाथा काव्य में राग छै। ते माटे ए पिण कहिणी नहीं। अनें जो खुन नी गाथा काव्यादिक राग सहित गायां दोष नहीं तो और निरबद्य वाणी पिण राग सहित गावां दोप नहीं। हे देवानुप्रिया ! एहवा कोमल आमन्त्रण में दोष नहीं। तिज राग में विण दोष नहीं उत्तम जीव विचारि जोइजो । केतला एक कहे च्यार काव्य समचे कशा पिण साधु ने आदरया एहवो:न व हो। इम कहे तेहनों उत्तर-ए च्यार कायनों एहबो अर्थ कियो छै। “गद्दे कहितां गद्य ते छन्द विना “शास्त्र परिज्ञाध्ययन" नी परे । “पद” कहितां पय ते पद करि वांध्यो ते गाथा वन्ध “ विमुक्त अध्ययन" नी परे । “कत्ये” कहितां साधु नी कथा "ज्ञाताध्ययन" नी परे । “गेर" कहितां गावा योग्य, एहबूं अर्थ कियो छै।.ते माटे च्यारू निरवद्य काव्य साधु ने आदरया योग्य छ । तिवारे कोई:कहे ए “गद्द. पद्दे. कत्थे.” तो आदरवा योग्य छै। पिण "गे" आदरवा योग्य नहीं । इम कहे तेहनों उत्तरए गद्य. पद्य. बे काव्य ने अनाभूत कथा. अने गेय कह्या छै। विशिष्ट धर्म माटे जुदा कह्या जणाय छै। मिण गद्य पद्य ने अन्तर इज छै। तिहां टीकाकार पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छै।
''काव्यं ग्रन्थः-गद्य मच्छन्दोनिवद्धं. शास्त्रपरिज्ञाध्ययन वत् । पद्यं छन्दो निवद्धं. विमुक्ताध्ययनवत् कथायां साधु कथ्यं. झाताध्ययनादिवत् । गेयं गान योग्यम् । इह गद्य पद्यान्तर भावे पि कथा. गानयोधर्म विशिष्टतया विशेषो विवक्षितः"
___ इहां टीका में “कत्थे-गेर" ए गद्य पद्य ने अन्तर कह्या। अने गद्य ते शस्त्र परिज्ञाध्ययन नी परे। पद्य ते विमुक्ताध्ययन नी पर कह्या छै। ते माटे "कत्थे गेए” पिण निरवद्य आदरवा योग्य छै। तिवारे कोई कहे ए तो च्यारू काव्य सूत्र नी भाषाई कह्या छै। ते माटे “गेए” पिण सूत्र नी भाषांई कहिचूं। पिण अनेरी भाषाई ढाल रूप राग कहियो न थी। इम कहे तेहनों उत्तर- जे गेय अनेरी भाषाई कहि नहीं तो गद्य, पद्य. कथा. पिण अनेरी
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कविताऽधिकार।
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भाषाई कहिवी नहिं । जे सूत्र नो अर्थ छन्द विना कहिवो तेहने गद्य कहिइ। तो तेहने लेखे अर्थ पिण कहिवो नथी। तथा सूत्र ना अर्थ किणहि छन्द रूप भाषाई रच्या ते पद्य कहिई तो तेहने लेखे वे निरवद्य पद्य पिण कहिया नथी। तथा अनेरी नन्दी सूत्र नी कथा तथा ज्ञातादिक में ए जो साधु नी कथा ते पिण पाठ थी कहिणी पिण अनेरी भाषाई कथा रूप कहिणी नथी। जे अनेरी भाषाई “गेए" कहिणी नथीं । तो अनेरी भाषाई गद्य. पद्य. कथा. पिण कहिणी न थी। अने जो सूत्र नो भाषा थी अनेरी भाषाई गद्य पद्य शुद्ध कथा कहिणो तो अनेरी भाषाई पिण गावा योग्य निरवद्य कहिलूं। इहां गद्य ते शास्त्रपरिज्ञाध्ययन नी परे कह्या
छै। ते भणी शास्त्र परिज्ञा ध्ययन पिण गद्य छै, अने तेहनी परे ह्यां माटे अनेरी भाषाई निरवद्य छन्द विना सर्व गद्य में आयो, पद्य ते विमुक्त अध्ययन नी परे कह्यां माटे विमुक्त अध्ययन पिण पद्य में आयो । अन तेहनी परे कह्या माटे ते अनेरी छन्द रूप भाषा में पद्य में निरवद्य जोड़ पिण पद्य में कहिये। अनें कथा. गेय. ए घे भेद छै ते कथा तो गद्य में अनें गेय ते पद्य में. इस कथा. गेय. ए बेहूं गध. पद्य. में आवे। ते माटे सूत्र नी भाषाई तथा सूत्र विना अनेरो भाषाई गद्य. पद्य. कथा. गेय कह्यां दोष नहीं। सावध गद्य. पद्य. कथा. गेय. कहिणा नहीं। अने जे सूत्र विना अनेरो भाषाई गद्य. पद्य, कथा. गेय. न कहिवा, तो नन्दी सूत्र में मतिज्ञान ना वे भेद क्यूं कह्या। श्रुत निश्चित. अनें अश्रुत निश्चित. ए वे भेद किया है। तिहां जे श्रुत निश्चित विना बुद्धि फैलावे ते मतिज्ञान रो अश्रुत निश्चित भेद कह्यो छै। ते पिण साधु ने आदरबा योग्य कह्यो छै। तथा अश्रुत निश्चित ना ४ भेदां में ओत्पातिक बुद्धि जे अणदीठो. अणसांभल्यो. तत्काल मन थी उपजावी शुद्ध जवाव देवे, ते पिण मतिज्ञान रो भेद श्रुत निश्चित विना कह्यो छै। ए पिण साधु में आदरवा योग्य छै। ते माटे सूत्र नी भाषा थी अनेरी भाषाई पिण गद्य. पद्य. कथा. गेय. कह्यां दोष न थी। ते माटे अनेरी भाषाई गेय ते गायवा योग्य ते शुद्ध आदरवा योग्य छै। डाहा हुए तो विचारि जोइजो।
इति ४ बोल संपूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन कह्यो ते पाठ लिखिये छै।
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४४०.
भ्रम विध्वंसनम् ।
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2520manar
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मयत्थ रूवा वयणप्प भूया गाहाणगीया नर संघ मज्झे। जंभिक्खुणो सील गुणेववेया इहजयंते समणो मिजाओ ॥
.. -- ( उत्तराध्ययन भ० १३ गा० १२ )
म. मोटो घणो अर्थ द्रव्य. पर्याय रूप. ५० बचन अल्प मात्र. गा• धर्म कहिवा रूप गाथा. भा० कहिइ स्थविर मनुष्य ना समुदाय माही जे गाथा सांभली में. भि. चारित्र अमें ज्ञानादि गुणे करी ए बेहूं गुणे करी. व० सहित साधु. इ० जग माहीं अथवा जिन वचन में विषे. ज• यत्नवन्त हुया अथवा भणवे करी. अ. अनुष्ठान कर वे करी लाम ना उषजावणहार. स० हूँ तपस्वी. साधु. जा० हुयो.
. अथ गांथाई करी वाणी करी वाणी कथी एहवू का. ते गाथा तो छन्द रूप जोड़ छ। तिहां ठीका में गाथा मो शब्दार्थ इम कियो छै “गोयत इतिगाथा" गावी जाय ते गाथा इम कह्यो । ते माटे निरवद्य गेय ने दोष नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे जो राग संयुक्त गायां दोष नहीं तो निशीथ में साधु ने गावणो क्यूं निषेध्यो, इम कहे तेहनों उत्तर-निशीथ में तो वाजारे लारे गावे तेहनों दोष कह्यो छै, ते पाठ लिखिये छै।
जे भिक्खू गाएजा. वाएजवा. नच्चेजवा. अभिणच्चेजवा. हय हिंसेजवा. हत्थि गुलगुलायंतं उकिट्ट सीहणाय करेइ. करंतं वा साइज्जइ।
( मिशीथ अ० १७ वो० १४०)
जे. जे कोई. भि. साधु साध्वी. गा• गा गीत राग अलापी में. वा० वजावे वीणा ढोल तालादिक न० नाचे थेइ २ करे. भ. अत्यन्त नाचे. ह० घोड़ा नी परे हीसे. हणहणाहट करे
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कविताऽधिकारः ।
कोई विषय पीड़तो को, ह० हाथी नी परे. गृ० गुलगुलाहट करे. विषय पीड्यो थको. ते उत्कृष्ट सिंहनाद करे. विषय पीड्यो थको क० करता ने अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित.
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अथ इहां तो बाजारे लारे ताल मेली गायां दण्ड कह्यो छे । गावे वा बजावे ए नाटक नों प्रायश्चित्त कह्यो छे । पिप एकलो निरवद्य गायवो नथी बज्र्यो । ए तो नाटक में गावे तेहनों दण्ड कह्यो छै । जिम निशीथ उ० ४ कह्यो । उच्चार पासवण परठी शुचि न लेवे तो प्रायश्चित्त आवे ते पासवण परठी ने शुचि किम लेवे ते पालवण तो पोतेइ शुचि छै ते शुचि तो उच्चार री छै । पिण उच्चार करे तिवारे पासवण पण लारे हुवे ते माटे बेहूं पाठ भेला कह्या छै । ते उच्चार. पासवण बेहूं करी नें उच्चार री शुचि न लेवे तो प्रायश्चित्त है । पिण एकलो पासवण परठवी ( करी) नें शुचि न लेवे तो प्रायश्चित्त नहीं । तिम गावे बजावे नाचे तो प्रायश्चित्त कह्यो । ते पिण बाजारे लारे तान मेली गावे तेहनों प्रायश्चित्त छै । तथा सावध गावा रो प्रायश्चित्त छै पिण निरवद्य गावा से प्रायश्चित्त नहीं । तथा भगवती श० १ उ० २ तेजू लेशी ने “सरागी वीतरागी न भाणिपन्चा" पहचं कहूयूँ तो तेजू लेशी नें सरागी किम न कहि । पिण इहां तो कह्यो- तेजू, पद्म, लेशी रा सरागी. वीतरागी. ए वे भेद न करवा, ते किम - तेजू. पद्म, सरागी में में छे, वीतरागी में नथी । ते माटे सरागी. वीतरागी ए बे भेद भेला बर्ज्या । पण एकलो सरागी बयों नहीं । तिम गावे बजावे तो दण्ड कह्यो, ते पिण नाटक में बाजारे लारे गावणो संलग्न छै । ते माटे गायां बजायां दण्ड कह्यो छै । पण एकलो गावणो न बयों । तिण सूं निरवद्य गायां दोष नहीं । इम संलग्न पाठ घणे ठिकाणे कह्या । तेहनों न्याय तो उत्तम जीव विचारे । अनें जो निशीथ रो नाम लेई ने सर्व गावणो निषेधे - तेहनें लेखे तो सूत्र नी गाथा. काव्य, पिण गायने न कहिणा । जो घणी राग में घणो दोष कहे तो थोड़ी राग में थोड़ो दोष कहिणो । जो इम हुवे तो श्री गणधरे गाथा काव्य छन्द रूप सूत्र क्यूं रच्या । निशीथ में इम तो न कह्यो जे सूत्र री गाथा काव्य राग सहित कहिणा । अनें अनेरो न कहिणो । इम तो न कह्यो । जे जाबक गावण ने निषेधे तेहने लेखे तो . किश्चिन्मात्र पिण राग सहित गाथा कहिणी नहीं इम कह्यां शुद्ध जबाब देवा असमर्थ जब अकवक अव्यक्त वचन बोले, पिण मत पक्षी लीधी टेक छोड़े नहीं । अनें न्यायवादी सिद्धान्त से न्याय मेली शुद्ध श्रद्धा धारे ते सावद्य वचन में दोष जाणे
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भ्रम विध्वंसनम् ।
पिण निरवद्य वचन में दोष श्रद्ध नहीं । ते निरवद्य वाणी वचन मात्र कहो - भावे छन्द जोड़ी राग सहित कहो ते राग में दोष नहीं। प्रथम तो समवायाङ्ग ३५ समवाय नी टीकामें तीर्थङ्कर वाणी राग सहित कही, ग्राम युक्त कही - ते टीका लिखिये हैं
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४४२
उपनीत रागत्वं मालवा केशिक्यादि ग्रामण्य युक्तता
अथ इहां राग सहित मालवा केशिक्यादि ग्राम सहित तीर्थङ्कर नी वाणी मी सातमो अतिशय कह्यो ते माटे निरवद्य वाणी राग सहित गाया दोष नहीं १ तथा ठाणाङ्ग ठा० ४ च्यार काव्य कह्या गद्य, पद्य. कथ्य. गेय. इहां पिण गेय कहितां गावा योग्य कह्यो २ | तथा उत्तराध्ययन अ० १३ गा० १२ कह्यो– मुनीश्वर गाथाई करी धर्म देशना दीधी एहवूं कह्यो । ते गाथा कहिवे जोड़ अर्ने राग बेहूं आवे तिहां टीका में "गावे ते गाथा इम कह्यो ३ । तथा नन्दी सूत्र में सूत्र नी नेश्राय बिना बुद्धि फेलावे ते मतिज्ञान रो भेद कह्यो । तथा अणदीठ्यो अणसांभल्यो जबाब तत्काल उपजावी देवे ते औत्पासिकी बुद्धि मतिज्ञान रो भेद कह्यो ४ । तथा उत्तराध्ययन अ० २६ वो० २२ अर्थ में कवि पणो करी मार्ग दीपावणो कह्यो ५ । तथा नन्दी सूत्र मैं कह्यो - महावीर रा साधु रा १४ हजार पइन्ना कीधा । तथा अनेरा तीर्थङ्कर राजेतला साधु थया त्याँ पोता नी ४ बुद्धिई करी तेतला पइन्ना कीधा ६ । farmeat fur कीधा ग्रन्थ सम्यग्दृष्टि रे समश्रुत कह्या तो साधु पोते जोड़े तेहने मिथ्या श्रुत किम कहिये । तथा गणधरे पिण सूत्र नी जोड़ कीधी तेहमें छन्द काव्यादिक राग सहित छै ८ । इत्यादिक अनेक ठिकाणे जोड़ अने राग सहित 'बाणी निरवद्य कही छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
तथा
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
इति कविता ऽधिकारः ।
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अथ अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः !
केतला एक अज्ञानी कहे - साधु नें असूजतो अशनादिक जाणी नें श्रावक देवे तेहनों पाप थोड़ो अने निर्जरा घणी निपजे । ते अनेक कुयुक्ति लगावी अशुद्ध आहार री थाप करे। वली भगवती रो नाम लेई विपरीत कहें है । ते पाठ लिखिये
!
समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुरणं अणिसणिज्जेणं असण पाणखाइम साइमे पड़िलाभेमाणस्स किं कज्जइ गोयमा ! वहुतरिया से निजरा कज्जइ. अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ ।
(भगवती श० ८ ४० ६ )
स० श्रमणोपासक नें भ० भगवन् ! त० तथारूप. श्रमण प्रते. मा० ब्रह्मचारी प्रते. छा० प्राशुक सचित्तं. अ० अनेषणीक दोष सहित अ० अशन. पान खादिम स्वादिम प० प्रतिलाता . ० स्यूं फल हुइ. गो० गोतम ! घ० घणी निर्जरा हुइ अ० अल्प थोडूं पाप कर्म हुई:
अथ इहां इम को - जे श्रावक साधु ने सचित्त अनें असूजतो देवे तो अल्प पाप बहु निर्जरा हुवे । ए पाठ नों न्याय टीकाकार पिण केवली ने भलायो छै । तो ए अशुद्ध आहार री थाप किम करणी । अशुद्ध आहार री थाप कियां ठाम २ सूत्र उत्थपता दीसे छै। सूत्र में तो अशुद्ध आहार नें ठाम ठाम निषेध्यो छै । ते अशुद्ध आहार नी थाप न करणी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
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भ्रम विध्वंसनम्।
तथा भगवती श० ५ उ०६ साधु ने अप्राशुक अने अनेषणीक आहार ढियां अल्प आयुषो बंधतो कह्यो । ते पाठ लिखिये छ। ___ कहणणं भंते ! जीवा अप्पाउयत्तए कम्मं पकरेंति. गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पा उयत्तए कम्मं पकरेंति । तंजहा-पाणे अइवाइत्ता. मुसं वदित्ता. तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जणं असणं पाणं. खाइमं. साइमं. पडिलाभित्ता भवइ. एवं खलु जीवा अप्पा उयताए कम्मं पकरेंति ।
(भगवती श०५ उ०६)
क० किम. भ० भगवन्त ! जीव. अ. अल्प थोड़ो आयुषो कर्म बांधे. गो. हे गोतम ! ति. त्रिण स्थानके करी ने. जी० जीव. अ० अल्प थोड़ो आयुः कर्म बांधे. तं० ते कहे छै. पा. प्राणी जीव में हणी नें. मु० मृषावाद वोली में. त० तथा रूप दान योग्य पात्र श्रमण में माहण में अ० अप्राशुक सचित्त. अ० असूझतो. अ० अशन. पान. खादिम स्वादिम. ५० प्रतिलाभी ने, ए. इम निश्चय. जीव. अ. अल्प आयुः कर्म बांधे.
अथ इहां तो साधु ने अप्राशुक. अनेषणीक आहार दीधां अल्पायुष बांधे कह्यो इहां तो जे असूजतो देवे ते जीव हिंसा अने झूठ रे बरोवर कह्यो छै। अल्प आयुषो ते निगोद रो छै । जे जीव हण्या. झूठ बोल्या. साधु ने अशुद्ध अशनादिक दीधां. बंधतो कह्यो। इम हिज ठाणाङ्ग ठा० ३ अशुद्ध दियां अल्पआयुषो बंधतो कह्यो । तो अशुद्ध दियां थोड़ो पाप घणी निर्जरा किम हुवे। डाहा हुचे तो विचारि जोइजो।
- इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली भगवती श० १८ कह्यो जे साधु ने अशुद्ध आहार तो अभक्ष्य छ। ते पाठ लिखिये छै
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अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः धण्णा सरिसवा ते दुविहा पण्णत्ता. तंजहा--सत्थ परिणाय. असत्थ परिणाय. तत्थणं जेते असत्थ परिणया तेणं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थणं जेते सत्थ परिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--एसणिज्जाय, अणोसणिजाय। तत्थणं जेते अणेसणिज्जा तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थणं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--जातियाय अजातियाय । तत्थणं जेते अजाइया तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थणं जेते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा. लद्धाय. अलद्धाय. तत्थणं जेते अलद्धा तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थणं जेते लद्धा तेणं समणाणं णिग्गंथाणं भक्खया, से तेणटेणं सोमिला ! एवं वुच्चइ जाव अभक्वेयावि ॥६॥
(भगवती श०१८ उ०१०)
ध० धान सरिसव ते. दु० वे प्रकारे. प० परूप्या. सं० ते कहे छै स० शस्त्र परिणत. अ० अशस्त्र परिणत. त० तिहां जेते. अ० अशस्त्र परिणत. त० ते श्रमण ने नि० निम्रत्थ ने. अ. अभक्ष्य कह्या. त० तिहां जे ते. स० शस्त्र परिणत. ते ते. बे प्रकारे परूप्या. तं ते कहे छै. ए० एषणीक. अ० अनेषणीक. त तिहां जे ते. अ० अनेषणीक ते. स० श्रमण ने. नि. निर्ग्रन्थ ने श्र० अभक्ष्य कह्या. त० तिहां जे ते. ए० एषणीक ते बे प्रकारे परूप्या. तं० ते कहे छै. जा. याच्या अने. अ० प्रणयाच्या. त० तिहां जे अणयाच्या. ते० ते श्रमण में निर्ग्रन्थ में. अ० अभक्ष्य यह्या. त. तिहां जे ते. जा. याच्या. ते दुबे प्रकारे परूप्या. तं० ते कहे है. ल. लाधा. अ० प्रणलाधा त० तिहां जे ते अणलाधा. ते. स० श्रमण निर्ग्रन्थ ने अ० अभक्ष्य कह्या. त० तिहां जे ते लाध्या ते श्रमण ने निर्ग्रन्थ ने. भ० भक्ष्य जाणवा. ते तिण कारणे. सो० सोमिल ! ए० इम कह्या. जा० यावत सरिसव भक्ष्य पिण अभक्ष्य पिण.
अथ इहां श्री महावीर स्वामी सोमिल ने कह्यो। धान सरसव (सर्षप) ना बे भेद कह्या । शस्त्र परिणत अनें अशस्त्र परिणत। अशस्त्र परिणत ते सचित्त
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भ्रम विश्वसनम् ।
ते तो अभक्ष्य छ। अने अशस्त्र परिणत राबे भेद कहा। एषणीक. अनेषणीक । अनेषणीक ते असूझतो ते तो अभक्ष्य। एषणीक रा बे भेद कह्या । याच्यो, अणयाच्यो । अणयाच्यो तो अभक्ष्य छ । याच्या रा बे भेद कह्या । लाधो. अणलाधो. । अणलाधो अभक्ष्य, छै अने लाधो ते भक्ष्य, इम हिज मासा कुलथा. पिण अप्राशुक अनेषणीक. अभक्ष्यः कथा छ। ए तो प्रत्यक्ष सचित्त अने असूजतो आहार तो साधु ने अभक्ष्य कह्यो। ते अभक्ष्य आहार साधु ने दीधां बहुत निर्जरा किम होवे। तथा ज्ञाता अ० ५ में सुखदेवजी ने स्थावर्चा पुत्र पिण इम अनेषणीक आहार अभक्ष्य कह्यो । तथा निरावलिया वर्ग ३ सोमिल ने पार्श्वनाथ भगवान् पिण अप्राशुक. अनेषणोक आहार साधु ने अभक्ष्य कह्यो तो अभक्ष्य साधु ने दियां घणी निर्जरा किम हुवे अने तिहां देवा वालो समणोपासक कह्यो छै। ते माटे श्रावक अप्राशुक अनेषणीक अभक्ष्य आहार जाणी ने साधु ने किम वहिरावे डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण। .
तथा उवाई प्रश्न २० श्रावकां रा गुण वर्णन में एहवो पाठ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ। ___ समणे णिग्गंथे फासुए एसणिज्जेणं असणं पाणं खादिमं सादिमेणं वत्थ परिग्रह कंवल पायपुच्छणेणं उसह भेसजेणं पडिहारिएणं पीढ फलग सेज्जा संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरति ।
( दवाई प्रश्न २० )
स० श्रमण. तपस्वी ने निर्ग्रन्थ ने. फा० प्राशुक. ए० एषणीक. अ० अशन. पान. खादिम. स्वादिम. व० वस्त्र परिग्रह. कं० कम्बल. प० पाय पूंछणो. उ० औषध. शुण्ठ्यादिक. भे० वूटी वाटी. प० पाडिहारो ते धणी ने पालो सूंपे. पीढ़. फलगशय्या. सन्थारा. ५० बहिरावतां थकां वि०विचरे.
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अल्पपाप बहु निर्जराऽअधिकार: ।
श्रावक किम वहिराबे
अथ इहां श्रावकां रा गुण वर्णन में प्राशुक. एषणीक, नों देवो कह्यो । तो जाणी ने अप्राशुक ते सचित्त असूझतो आहार साधु ने तथा भगवती श० २ उ० ५ तुंगिया नगरी ना श्रावक पिण णीक. आहार वहिरावे इम कह्यो । तथा राय प्रसेणी में साधु ने प्राशुक. एषणीक आहार प्रतिलाभतो विचरे जाणी ने असूझतो आहार साधु ने किम विहरावे ।
जोइजो ।
इति ४ बोल सम्पूर्ण ।
साधु ने प्राशुक. एषप्रदेशी पिण तो श्रावक
चित्त अनें
डाहा हुए तो विचारि
इम को
४४७
तथा उपासक दशा अ० १ आनन्द श्रावक कह्यो । ते पाठ लिखिये छै ।
कप्पड़ मे समणे निग्गंथे फासुए एसणिज्जेणं असणं पायां खाडिमं सादिमेणं वत्थ परिग्गह कंबल पाय पुच्छरणं पीढ फलक सेना संथारएणं उस भेसजेणं पडिला भेमाणस्स विहरित तिकट्टु इमं एयारूवं अभिग्गह अभिगिरिहत्ता परिणाइ पुच्छति ।
( उपाशक दशा उ० १ )
क० कल्पे. मे० मुझ में, ० श्रमण ने नि० निर्ग्रन्थ ने फा० प्राशुक. ए० एषणीक. अशन. पान. खादिम. स्वादिम. व० वस्त्र परिग्रह. कं० कम्बल. पा० पाय पूंछणो. पो० पोढ़ फलक शय्या. सन्धारो. ऊ० औषध भे० भेषज, प० दान देतो थको वि० विचरूं. ति० इम करी ने . इ० एहवो. अ० अभिग्रह ग्रह्मो ग्रही ने प्रश्न पूछे है.
अथ इहां आनन्द श्रावक कह्यो । कल्पे मुझ ने श्रमण निन्थ ने प्राशुक. एषणीक अशनादिक देवो । तो अप्राशुक अनेषणीक जाण नें साधु देवे ते श्रावक ने किम कल्पे । इत्यादिक ठाम २ सूत्र में साधु में प्राशुक. एषणीक.
ने
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'४४८
भ्रम विध्वंसनम् ।
अशनादिक ना दातार श्रावक ने कह्या। श्रावक ने तो असूझतो देणो न कल्पे । अने असूझतो लेणो साधु ने न कल्पे, तो असूझतो दियां अल्प पाप बहु निर्जरा किम हुवे। भगवती श० ५ उ० ६ कह्यो आधाकम्मों आदिक असूझतो आहारा ए निरवद्य छै। एहवो मन में धाटे तथा परूपे ते बिना आलोयां मरे तो विराधक कह्यो। तो सचित्त अनेअसूझतो जाण ने साधु ने दियां बहुत निर्जरा पहवी थाप उत्तम जीव किम करे। तथा वली भगवती श० ७ उ० १ कह्यो जे श्रावक प्राशुक एषणीक अशनादिक साधु ने देई समाधि उपजावे तो पाछो समाधि पामे इम कह्यो। पिण अप्राशुक अनेषणीक दियां समाधि पामती न कही। तो अप्राशुक अनेषणीक जाण ने दियां बहुत निर्जरा किम हुवे। केतला एक कहेकारण पड्यां श्रावक अप्राशुक. अनेषणीक. साधु ने बहिरावे तो अल्प पाप. बहुत निर्जरा हुवे। ते पिण विपरीत कहे छै। साधु ने असूझतो देणो श्रावक ने तो कल्पे नहीं। तो ते असूझतो किम देवे। अने कारण पड्यां पिण साधु ने असू. झतो न कल्पे ते किम लेवे। अने कारण पड्यां ई असूझतो लेसी तो सेठो कद रहसी। भगवान् तो कह्यो-कारण पड्यां सेंठो रहिणो पोड़ा अङ्गीकार करणी। पिण कारण पड्यां दोष न लगावे। राजपूत रो पुत्र संग्राम में कारण पड्यां भागे तो ते शूर किम कहिए। सती बाजे ते कारण पड्यां शील खंडे तो ते सती किम कहिये । तिम कारण पड्यां अशुद्ध लेवारी थाप करे तेहने साधु किम कहिए। अने तिहां “अफासु अणेसणिज्जेणं" एहवो पाठ कह्यो छै। ते "अफासु" कहिता सचित्त अनें “अणेसणिजण” कहिता असूजतो ते तो श्रावक शङ्का पड्यां कोई साधुनें न देवै । तो जाण ने अप्राशुक. असूझतो साधु ने किम देवै । अने साधु जाणनें सचित्त असूझतो किम लेवै। ते भणी कारण पड़यां अशुद्ध लेवारी थाप करणी नहीं। टीकाकार पिण केवली ने भलायो छै। ते टीका लिखिये छै।
“यत्पुनरिह तत्वं तत्केवलि गम्यभिति, अथ इहां पिण रीका में ए पाठ नों न्याय केवली ने भलायो ते माटे अशुद्ध लेवारी थाप करणी नहीं। ज्ञानी में भलावणो तथा कोई वुद्धिमान इण पाठरो अनुमान थी न्याय मिलावै पिण निश्चय थाप किम करै, जे अनेरा सूत्र पाठ न उत्थपै। अने ए पिण पाठ न्याये करी थापै एहवू न्याय तो उत्तम जीव मिलावै । तिवारे कोई कहै-एहवू न्याय किम मिले। तेहनों उत्तर-जे
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अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः
रात्रि नों वासी पाणी स्त्री आदिक ना कह्यां सूं श्रावक जाणतो हुन्तो ते वासी पाणी ने किणही अनेरे वावरी लीधो अने ते ठाम में कात्रो पाणी घाल्यो, पिण ते श्रावक ने काचा पाणीरी खबर नहीं ते तो वासी पाणी जाणे छै। एतले साधु भाव्या तिवारे तेणे श्रावक ते वासी पाणी जाणी ने पोता नों व्यवहार शुद्ध निर्दोष चौकस करी ने साधु ने वहिरायो। पाणी तो अमाशुक, अने तेहनी पागड़ी में पक्षी आदिक सचित्त न्हाख्यो तथा सचित्त रजादिक :शरीर रे लागी तेहनी पिण श्रावक ने खबर नहीं, ए अनेषणीक ते असूझतो छै, पिणआपरा व्यवहार में प्राशुक एषणीक, जाणी अत्यन्त चौकस करी घy हर्ष आणीने साधुनें वहिरायो, तेहनें अला पाप, ते पाप तौ नहिंज छै। अनें हर्ष करी दीधां वहुत घणी निर्जरा हुवे। ए न्याय करी पाठ कह्यो हुवे तो पिण केवली जाणे ते सत्य । इम हिज भंगड़ा में धाणी में कोरो अन्न छै, अचित्त दाखां में सचित्त दाख छ। अचित्त स्वादिम में सचित्त स्वादिम है। इम च्यारू आहार सचित्त असूझतो छै, पिण धावक तो शुद्ध व्यवहार करी देवै तो अल्प पाप ते पाप न थी अनें बहुत निर्जरा हुई। ते पिण भचित्त सूझतो जाणी सर्वज्ञ जाणै ए न्याय सूत्र करी मिलतो दीसै छै ।
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
तथा इण हिज न्याय पर गाथा लिखिये छ। अहा कडाणि भुंजंति अण्ण मन्नेस कम्मुणा । उवलित्तिय जाणिजा अणुवलित्तेतिवा पुणो ॥८॥ एते हिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो न विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारंतु जाणए ॥६॥
- (सूयगडाङ्ग श्रु० २ उ० ५ गा०.८६ )
प्रा० जे-साधु श्राश्री ६ काय मदर्दी में बस्त्र भौजन. उपाश्रयादिक. कोधा एतला. भु० उपभोग करे. ते. अ० माहोमाहो. स. पापण कमें उपलिप्त जाणीवा इसो एकान्त न बोले. अथवा कमें
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भ्रम विध्वंसनम् ।
करी उपलिप्त न हुयो इसो पिया न बोले. जिया कारण आधा कर्मी प्रादिक आहार पिण सूत्र ने उपदेशे शुद्ध किसे ने निर्दोष जाणी जीमतो कर्मे न लिपाइ अथवा सूझतो आहार पिण शंका सहित जोमतो कर्म करी लिपाह. इस्यो ते एकान्त वचन न बोलें। ए वि स्थानके करी. • व्यवहार न थी । बिहू स्थानके करी अनाचार जाणे.
४५०
अथ इहां कह्यो - शुद्ध व्यवहार करी ने आधा कम्र्म्मा लियो निर्दोष जाणी नें तो पाप न लागे । तिम श्रावक पिण शुद्ध निर्दोष प्राशुक. एषणीक जाण ने अप्राशुक अनेवणीक दियो तेहनें पिण पाप न लागे । तथा भगवती श० ८८ उ० ८ को वीतराग जोय २ चालै तेहथी कुक्कुटादिक ना अण्डादिक जीव हणीजे तेहनें पिण पाप न लागे । पुण्य नी क्रिया लागे शुद्ध उपयोग माटे । तथा आचाराङ्ग श्रु० १ अ० ४ उ०५ कह्यो जो कोई साधु ईर्याई चालतां जीव द्दणीजे तो तेहने पाप न लागे हणवारो कामी नहीं ते माटे । तिम श्रावक पिण शुक अनेषणीक दियो तेहनें पिण पाप न लागे । अभव्य पिण रहे चौथा व्रत से भागल पिण अजाण पणे भेलो रहे पिण· तेहनों शुद्ध व्यवहार जाणी अनेरा साधु वांदे व्यावच करे । त्याँने पाप न लागे । अनें भभव्य तथा भागल ने जाण नें भेलो राखे तो दोष लागे, तिम श्रावक पिण शुद्ध व्यवहार करी अणजाण्ये अशुद्ध अशनादिक देवे साधु ने पाप न लागे । अनें जाण नें अशुद्ध दियां पाप लागे छै । जोइजो ।
शुद्ध व्यवहार करी अप्राअजाण पणे तो साधु भेलो
तो
ते श्रावक ने पिण
हा हुवे तो विचारि
इति ६ बोल सम्पूर्ण |
तिवारे कोई कहे - अल्प पाप कह्यो ते अल्प शब्द थोड़ो अर्थ वाची कहि पण अल्प अभाव वाची किहां कह्यो छै, अल्प कहितां नथी पहनूं पाठ कहांई को हुवे तो बतावो इम कहे तेहनों उत्तर-पाठे करी लिखिये छै ।
ततेां अहं गोयमा ! अणया कयायी पढम सरद कालसमयंसि अप्पबुद्धि कार्यसि गोसाले गं मंखलिपुत्ते
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अल्पपाप बहु निर्जराऽअधिकारः ।
४५१
सद्धिं सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्भ गाम नगरं संपट्टिए विहाराए॥
(भगवती श०१५)
त तिवारे. अ० हूँ गोतम ! भ० एकदा प्रस्तावे. प० प्रथम शरत्काल समय में विषे माग शीप. अ० अविद्यमान वृष्टि छते. गो० गोशाला मखली पुत्र साथे. सि० सिद्धार्थ ग्राम. न० मगर थकी. कु० कर्म ग्राम नगर प्रते. सं० चाल्या विहार में भर्थे.
अथ इहां कह्यो अल्प वर्षा में भगवान् विहार कियो। तो थोड़ी वर्षा में तो विहार करणो नहीं। पिण इहां अल्प शब्द अभाव वाची छै। अल्प वर्षा ते वर्षा न थी ते समय विहार कीधो। तिहां भगवती री टीका में पिण अल्प शब्द भभाव वाची एहवो अर्थ कियो छै ते टीका लिखिये छै। - "अप्पबुष्ठि कार्यसिति-अल्पशब्दस्याऽभाववचनत्वादविद्यमान वर्षेत्यर्थः"
अथ इहां पिण अल्प शब्द नों अर्थ अभाव कियो। अस्प वर्षा ते अविद्यमान घर्षा :( वर्षा नहीं ) इम टीका में अर्थ कियो छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा पाठ लिखिये छ।
अप्प पाण प्पबीजंमि पडिच्छन्न वुडेम्मिसं समयं संजए भुज्जे, जयं अपरिसाडियं ॥३५॥
(उत्तराध्यान अ० ६ गाय ३५)
अ० अप ( न थी ) प्राणी द्वीन्द्रियादिक. भ. अल्प ( नथी ) बीज. अन्नादिक ना, प. सक्योड़ी. एहवी भूमि में विषे. स० भाचार वन्त. सं० साधु. भु० खा. ज० यत्ना सहित. भ. माहार में भण नाखतौ थको.
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भ्रम विध्वंसनम् ।
। प्राण
इहां पिण कह्यो - अल्प प्राणी अल्प बीज है जिहां ते स्थानके साधु ने आहार करवो । तिहाँ टीका में अल्प शब्द अभाव वाची इन अर्थ कियो छै बीज न हुवे ते स्थानके आहार करियो । “अविद्यमानानिवीजानि" इति टीका । इहां टीका में पिण नहीं छै बीज जिहां एहवो अर्थ कियो ।
डाहा हुवे तो विचारि
जोइजो ।
इति ८ बोल सम्पूर्ण ।
४५२
तथा आचाराङ्ग में पिण अल्प शब्द अभाववाची कह्यो - ते पाठ लिखिये छै 1.
सेय च पड़िगाहिए सिया से तं आयाए एगंत मवक मेजा एगंत मवक्कमित्ता आहे आरामंसिवा हे उरसयंसिवा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए. अपहरीए अपोसे अप्पोदए. अप्पुत्तिंग-पग दग. महिश्र मक्कडा. संताणए. विगिंचिय. २ उम्मीसं विसोहिय २ तो संजया मेव भुंजिजवा पीइजवा.
•
( आचाराङ्ग. श्रु० २ ० १ ० १ )
से० ते ० अकस्मातू. प० अजाणपणे सचित आहार में प० ग्रहण करे सि० कदाचित. से० ते. तं० ति श्रहार नें. श्रा० ग्रहण करी ने ए० निर्जन स्थान ने विषे. म० जावै. ए० एकान्त में. जावी . ० हे. प्रा० वाग ने विषे अ० हेठे उपाश्रय नें विषे. अ० अल्प न थी अण्डा. अल्प नथी. प्राणी. अल्प न थी बीज. श्र० अल्प न थी लोलौती अल्प न थी श्रोस. अल्प न थी जल. अल्प न थी तृणस्थित जल. १० तथा फूलन द० पानी. म० मिट्टी म० मांकड़ी रा. सं० जाला एहवा स्थान ने विधे. वि० काढी काढी नें मि० मिल्या हुवा ने. वि० शोधी नें त० तिवारे. स० साधु खावे तथा पी.
अथ इहां पिण अल्प शब्द अभाववाची कह्यो । प्राण बीजादिक नहीं होवे, ते स्थानके शुद्ध करी आहार करवो । टीका में पिण इहां अल्प शब्द अभाव
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अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः ।
।
चाची को छै । इम अनेक ठामे अल्प कहितां न थी इम कह्यो छै तिम साधु ने सचित असतो अजाण्ये देवे पिण पोता नों व्यवहार शुद्ध करी में दियो ते माटे तेहनें पिण अल्प ते न थी पार अनें घणा हर्ष थी शुद्ध व्यवहार करी दियां बहुत निर्जरा हुवै। एवो न्याय सम्भविये छै । शुभ योगां थी तो निर्जरा अनें पुण्य बंधे पिण शुभ योगां थी पाप न बंधे । अनें थोड़ो पाप घणी निर्जरा बतावे तिण ने पूछी जे - ए किसा योगां थी हुवै । वली च्यारू' आहार सुकता छै । पिण शङ्का सहित दियां पाप बंधे । तिम च्यारू आहार असूझता है. पिण शुद्ध व्यवहार करी सूता जाणी दीघां पाप न बंधे ।
इति ६ बोल संपूर्ण ।
४५३
तिवारे कोई कहै - अल्प शब्द अभाव वाची पिण छै । अनें अल्प नाम थोड़ा नों पिण छै । अठे अल्प पाप बहुत निर्जरा कही ते बहुत नी अपेक्षाय अल्प थोड़ों पाप सम्भवै । पिण अल्प शब्द अभाववाचीन सम्भवे इम कहै तेहनों उत्तर पाठे करी लिखिये छै ।
इह खलु पाई वा जाव उदीरणं वा संते गतिया सढ्ढा भवंति तंजहा गाहा वईवा जाव कम्म करीवा ते सिंचणं आयार गोयरे यो सुणिसंते भवति जाव तं रोय माणे हिं एक्कं समण जायं समुद्दिस्स तत्थ २ आगारी हिं आगाराई चेइयाइं भवंति, तंजहा आएसणाणिवा जाव भवण गिहारिणवा महयापुढविकाय समारंभेणं एवं महया आउ तेउ. वाउ. वणस्सइ तसकाय समारंभेणं महया आरं• भै महया विरूव रूवेहिं पात्र कम्मेहिं तंजहा छाय लेवणओ संथार दुवार पिहणओ सीतोदए वा परिदुविये
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१५४
भ्रमविध्वंसनम् ।
पुवे भवति, अगणिकाए वा उज्जलिय पुवे भवति जे भयंतारो तहप्प गाराई आएस णाणिवा जाव भवणगिहाणिवा उवागच्छंति इतरा तरेहिं पाहुडेहिं वदंति दुपक्खं ते कम्म सेवंति अयमाउसो महा सावज किरिया वि भवइ ॥१५॥ - इह खलु पाईणं वा जाव तंरोयमाणेहिं अप्पणो सयटाए तत्थ २ आगारीहिं आगाराई चेइयाई भवंति तंजहा आएसणाणिवा जाव भवण गिहाणि वा महया पुढविकाया समारंभेणं जाव अगिणिकाय वा उज्जालिय पुवे भवति जे भयं तारो तहप्प गाराइआएसणाणिवा जाव भवण गिहाणि व उवागच्छंति इतरातरेहिं पाउडेहिं वटुंति एगपक्खं ते कम्म सेवंति अयमाउसो अप्पसावजा किरिया वि भवति ॥१६॥
(भाचाराङ्ग श्रु० २ ० २ उ० २)
इ० इहां. ख० निश्चय. पा० पूर्व दिशा में विषे. जा. यावत. उ० उत्तर दिशा में विषे. सं० केइएक. स. श्रद्धावन्त हुवे छे. तं० ते कहे 2. गा० गृहस्थ. जा० यावत्. क. नौकरनी. तं० तिण. मा० भाचार. गो० गोचर. णो० नहीं. १० सुण्या हुई. जा० यावत. तं० ते. रो० रुचिवन्त थई. ए. एक. सा० साधु ने. सा० स० उद्देश्य करी ने. त० तठे. अ० गृहस्थ. अ० घर. चे० वनान्यो
ई. तं० ते कहे छै. भा० लोहारशाला. या० यावत. भ• भवन घर. म. महा. पु० पृथिवी कायना. भा. प्रारंभे करी. म० महा. पानी. ते० अग्नि. वा० वायु. व० वनस्पति. त० त्रस कायाना. सं० प्रारम्भ करी में. म. मोटो. २० चिन्तवन. म० मोटो प्रारम्भ. म. महा. वि० विविध प्रकार पा० पाप कमें करी. छ. छषावे. ले लेपावे. सं० विछाणा करे. दु० द्वार करे. सी० शीतल पाणी छांटे. पु० पहिले. भ० हुई. अ. अग्नि प्रज्वालै. पु० हुई. जे. जे. भ. साधु. त० तथा प्रकार. मा० लोहारशाला. जा० यावत. भ० भवन घर. उ० श्रावे. इ० इम प्रकार. पा० ढक्या मकान में विषे. व० वले. दु० दोनूं पक्ष सम्बन्धी. क. कर्म. लोवे. तो. प्रा० हे आयुष्मन् ! म महा सावध क्रिया. भ० हुई ॥१५॥
• इहां. ख• निश्चय. पा० पूर्व दिशा में विषे. जा० यावत. तं० ते. रुचिकर्ता. भ. पापणे. स. स्वाथ. त० तिहां. भ० गृहस्थ. अ. घर. घे० कराव्या. भ० हुई तं० ते कहे कै. भा.
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अल्पपाप वहु निजराऽधिकारः ।
श्रा० लोहारशाला यावत् भ० भवन घर म० महा. पु० पृथ्वी कायना आरम्भ करी. जा० यावत ० श्रभिकाय. पु० पहिलां प्रज्वालित भ० हुई. जे० जे साधु त० तथा प्रकार. प्रा० लोहारशाला. यावत् भ० भवन घर उ० जावे. इ० इम पा० ढक्या मकान में विषे. व० रह्यां थकां ए० एक पक्ष कर्म. से० सेवे तो श्र० आयुष्मन् ! अल्प (नहीं सा० सावय क्रिया भ० हुई ॥ १६ ॥
४५५
अथ इहां कह्यो - साधु रे अर्थे कियो उपाश्रयो भोगवै तो महासाघद्य क्रिया लागे । दोय पक्ष रो सेवणहार केह्यो । अनें गृहस्थ पोता में अर्थे कीधा उपाश्रय साधु भोगवे तो एक शुद्ध पक्ष से सेवणहार कह्यो । अर्ने अल्प सावध क्रिया कही । ते सावध क्रिया नहीं इम कह्यो । जे बहुत निर्जरा नी अपेक्षाय अल्प थोड़ो पाप कहेत्यांरे लेखे इहां आधा कम स्थानक भोगव्यां महा सावद्य क्रिया कही । तिम महा मी अपेक्षाय शुद्ध उपाश्रय भोगव्यां अल्प सावद्य ते थोड़ी सावध क्रिया तिरे लेखे कहिणी । अनें इहां अल्प थोड़ो सावद्य न सम्भवे, तो तिहां पिण अल्प थोड़ो पापन सम्भवे अनें निर्दोष उपाश्रय भोगव्यां थोड़ो सावध लागे तो किस्यो उपाश्रय भोगव्यां सावध न लागे । तिहाँ टीकाकार पिण. अल्प सावद्य ते "सावध न थी" इम कह्यो । पिण महा सावध नी अपेक्षाय थोड़ो सावद्य इम न कह्यो । तिम बहुत निर्जरा रे ठामे अल्प थोड़ो पाप न सम्भवै । वहुत निर्जरा नी भपेक्षा अल्प थोड़ो पाप कहे ए अर्थ अण मिलतो सम्भवै छै । ते माटे अप्राशुक अनेपणीक भाहार क्षण जाणतां दियां बहुत निर्जरा हुवे अनें पाप न हुवे | एम न्यायं सूं मिलतो छै । वली ए पाठ नों अर्थ केवली कहै ते सत्य छै । डाहा हुवे तो विचारी जोइ जो ।
इति १० बोल सम्पूर्ण |
इति अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः !
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श्रीभिक्षु महामुनिराज कृत अथ कपाटाधिकारः।
फेई पाषण्डी साधु नाम धराय ने पोते हाथ थकी किमाड़. जड़े उघाड़े, अनें सूत्र ना नाम भूठा लेई में किमाड़ जड़वानी अनें उघाड़वानी अणहुँती थाप करैछ। पिण सूत्र में तो ठाम २ साधु ने किमाड जडणो तथा उघाडणो वज्यौं छै। ते सूत्र ना पाठ सहित यथातथ्य लिखिये छ।
मनोहरं चित्त हरं मल्ल धूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरुल्लोवं मणसावि न पत्थए ॥४॥
(उत्तराध्ययन अ० ३५ )
म. सुन्दर. च० चित्रघर. स्त्री प्रादिक ना चित्र युक्त तथा. म० माल्य. पुष्यादिके करी तथा धू० धूपे करी सुगन्धित स० किमाड सहित. पं० श्वेत वस्त्रे करो ढाक्यो एहवा मकान में साधु. म. मन कर पिण न० नहीं. प० वान्छे ।
अथ अठे इम कयो-किमाड सहित स्थानक मन करी ने पिण वांछणो नहीं । तो जड़वो किहां थकी। अने केई एक पाषण्डी इम कहै छै। ए तो विषय कारी स्थानक वज्यों छै । पिण क्रिमांड जड़णो वो नहीं । तेहनों उत्तर-मनोहर चित्राम सहित घर-रहिवा ने अने देखवा ने काम आवै। तथा फूल आदिक संघबाने अने देखवा ने काम आवे । इम इज किमाइ-जड़वा अनें उघाड़वा रे काम आवै छै । ते माटे साधु ने किमाड मने करी पिण जड़णो. उघाड़णो. न वान्छणो। तो किमाड़ जड़े तथा उघाड़े तेहनें साधु किम कहिये। डाहा हुये तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
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कपाटाऽधिकारः।
४५७
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... तथा वलो आवश्यक अ० ४ गोचरिया नी पाटी में कयो। ते पाठ लिखिये छ।
पडिकमामि गोचर चरियाए भिक्खायरियाए उघाड कमाड उघाडणाए।
- (आवश्यक सूत्र मा० ४) ५० प्रति क्रमण करूं ढूं. गो गौ जिम स्थाने २ घास चरे छै तिम हिज स्याने स्थाने जे भिक्षा ग्रहण किये तिण ने गोचरी कहीइ ते गोचरी में विषे दोष हुई ते उ० थोड़ो उघाड़ो विशेष उघाड़ो किमाड़ ने पिण न हुई तेहनों उघाड़वो ते अजयणा तेहथी प्रतिक्रमूं छु।
अथ अठे कह्यो। थोड़ो उघाडणो पिण किमाउ घणो उघाड्यो हुवे तेहनों पिण "मिच्छामि दुकडं” देवे तो पूरो जडणो उघाडणो किहां थकी। साधु थई ने रात्रि में अनेक वार किमाड़ जड़े उघाड़े, अ दिन रा पिण आहारादिक करा किमाड़ जड़े उघाड़े तिण में केइएक तो दोष श्रद्ध, अनें केइ एक दोष श्रद्ध नहीं। एहवो अन्धारो वेष में छै। तथा गृहस्थ किमाइ उघाड़ी ने आहारादिक वहिरावे तो जद तो दोष श्रद्ध, अने हाथां तूं जड़े उघाड़े जद दोष न जाणे । जिम कोई मूर्ख भङ्गी अर्थात् चाण्डाल रा घरनी रोटी तो खावे, पिण भङ्गी री दीधी रोटी न खावे । तिम हिज बाल भज्ञानी पोते किमाड़ जड़े. खोले , अने गृहस्थ खोली ने पहिरावे तो दोष श्रद्ध । ते पिण तेहवा मूर्ख जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडङ्ग में एहवी गाथा कही छै । ते लिखिये छ। णो पिरणाव पंगुणे दारं सुन्न घरस्स संजए। पुटेण उदाहरे वायं ण समुत्थे खो संथरे तणं ॥....
- (सूयगडाङ्ग)
मो० किणहिक कोरणे साधु. सूने घर रह्यो ते घर नों वारणो ढाकै नहीं. यो० किमाइ उघाड़े पिण नहीं. दा. वारणो पिण सूना घर नों न उघाड़े. किणहिक धर्म पूजयो अथवा मार्गा
५८
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भ्रम विध्वंसनम् ।
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दिक पूछयां थकां. ण सावद्य वचन न बोले. जिन कल्पी निरवद्य वचन पिण न बोले. ण तिहां रहितो तृण कचरादि न प्रमार्जे. णो० तृणादिक पाथरे नहीं. ए प्राचार जिन कल्पी नों है.
अथ अठे इम कह्यो और जगां न मिले तो सूना घर ने विषे रह्यो साधु पिण किमाड़ जड़े उघाड़े नहीं तो प्रामादिक में रह्यो किमोड़ किम जड़े उघाड़े ए तो मोटो दोष छै। तिवारे केई अज्ञानी इम कहे । ए आचार तो जिन कल्पी नों छै। स्थविर कल्पी नों नहीं । इम कहे तेहनों उत्तर–इहां पाठ में तो जिन कल्पी नों नाम कहो न थी। अनें अर्थ में ३ पदों में जिन कल्पी अनें स्थविर कल्पी नों भेलो आचार कह्यो छै। अनें चौथा पद में जिन कल्पी नों आचार कह्यो छै। अनें शीलाडाचार्य कृत टीका में पिण इम हिज कह्यो । ते टीका लिखिये छ।
केन चिच्छयनादि निमित्तेन शून्यगृह माश्रितो भिक्षु स्तद्वारं कपाटादिना स्थगयेन्नापि तचालयेत्-यावत्. “णावपंगुणेति' नोद्घाटयेत्तत्रस्थो न्यत्र वा केनचिद्धर्मादिकं मार्गादिकं पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेत् । श्राभिग्राहिको जिन कल्पिकादि निरवद्यामपि न ब्रूयात् । तथा न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं वा प्रमार्जनेन नापनयेत् । नापि शयनार्थी कश्चि दाभिग्रहिकस्तृणादिकं संस्तरेत् । तृणैरपि संस्तारं न कुर्यात् । कम्बलादिना न्योवा सुषिरतृणां न संस्तारेदिति ।
अथ इहां कह्यो शयनादिक ने कारणे सूना घर में रह्यो साधु ते घरना किमाड़ जड़े उघाड़े नहीं। अनें कोई धर्म नी बात पूछै तो पूछयां थकां सावध पाप कारी वचन बोलै नहीं। ए आचार स्थविरकल्पी नों जाणवो। अनें वली जिन कल्पी तो निरवद्य वचन पिण नहीं बोले । तथा तृणादिक कचरो पिण बुहारे नहीं। ए आचार जिन कल्पिकादिक अभिप्रहधारी नो जाणवो। जे पूर्वे ३ पद कह्या, तिण में जिन कल्पी स्थविर कल्पी नों आचार भेलो कह्यो । अनें चौथा पद में केवल जिन कल्पी नों आचार कह्यो। ते माटे इहां सगली गाथा में जिन कल्पी नों नाम लेई स्थविर कल्पी ने किमाड़ जड़णो उघाड़णो थापे ते जिन मार्ग ना अजाण एकान्त मृषावादी अन्यायी छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
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कपाटाधिकारः ।
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तथा वली मूर्ख कोई अज्ञानी आचाराङ्ग सूत्र में कण्टक वोदिया नों नाम लेई साधु ने किमाड़ जड़णो तथा उघाड़णो थापे । ते पाठ लिखिये छै 1
से भिक्खू वा गाहावति कुलस्स दुवार वाहं कंटक वोंदियाए पडि पिहियं पेहाए तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुनविय पडिले हिय अपमजिय हो अव गुणेज्जवा पविसेज्जवा क्खिमेजवा तेसिंपुव्वा मेव उग्गहं अणन्नविय पडिलेहिय २ पमजिय २ तनो संजया मेव अव गुणेजवा पविसेज्जवा क्खिमेज्जत्रा ॥ ६ ॥
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( याचाराङ्ग श्रु० २ ० १०५ )
से० ते भि० साधु साध्वी. ग० गृहस्थ ना घरना वारणा. कं० कांटा नी डाली सूं प० ढंक्यो थको पे० देखी नें. तं० तिस नें. पु० पहिलां. उ० अवग्रह विना लियां अ० विना देख्यां. अ० विना पूज्य. पो० नहीं. उघाड़वो. प० नहीं प्रवेश करवो. णि० नहीं निकलवो. ते० ति री. पु० पहिलां. उ० आज्ञा. अ० मागी नें प० देख २ प० पूंज २ तः वली. ससाधु प्र० उघाड़, प० प्रवेश करे. शि० निकले.
अथ अठे इम कह्यो । कण्टकवोंदिया. ते कांटा नी शाखा करी वारणो ढं क्यो हुवे तो धणी नी आज्ञा मागी नें पूंजकर द्वार उघाड़णो । भने केइएक पावण्डी इम कहै कंटक वोदिया ते फलसो छै । इम झूठ बोले छै पिण कण्टक वोदिया नों नाम फलसो तो किहां ही कह्यो न थी अभयदेवसूरि कृत टीका में पिण कांटा नी शाखा कही । ते टीका लिखिये छै ।
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सेभिक्खू वेत्यादि भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् गृहपति कुलस्य " दुवार
वाहंति" द्वारभागं सकण्टकादि शाखया पिहितं प्रेक्ष्य"
इहां पिण कांटानी शाखा ते डाली कही । पिण फलसो कह्यो नहीं । ते माटे कण्टक वोदिया ने फलसो थापे ते शास्त्र ना अजाण जीवघातक जाणवा । हा हुवे तो विचारि जोई जो ।
इति ४- बोल सम्पूर्णा !
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भ्रम विध्वंसनम्
तथा वली केई वाल अज्ञानी आचाराङ्ग नों नाम लेई ने साधु ने किमाड़ जड़णो उघाड़ो थापे, ते जिनागम नी शैलीना अजाण मूर्ख थका अण हुन्ती थाप करे छे । पिण तहां तो किमाड़ उघाड़वो पड़े एहवी जायगां में साधु रहिवो वज्य छे । ते पाठ लिखिये छै ।
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से भिक्खू २ वा उच्चार पासवणे णं उच्चा हिजमाणे ओवा वियालेवा गावति कुलस्स दुवार वाहं अवगुणेज्जा तेणेय तस्संधियारि अणुविजा तस्स भिक्खूस्स गो कप्पति एवं वदित्तए "अयं तेणे पविसइवा" गोवा पविसइ उवलि - यति गोवा उवलियति आयवतिव गोवा आयवति वदतिवा गोवा वदति तेा हर्ड अणेण हडं तस्स हडं अराणस्स हडं अयं तेणे अयं उवयरए अयं हंता अयं एत्थ मकासी तं तं - वस्तिं भिक्खुं तेणं तेणंति संकति अहभिक्खूणं पुग्वोवदिट्ठा जावणो चेतेज्जा ॥ ४॥
( आचाराङ्ग श्रु० २ ० २ उ०२ )
से० ते. भि० साधु साध्वी. उ० बड़ो नीति पा० छोटी नीति नी. उ० बाधा हुवे. रा रात्रि में विषे. वि० सम्ध्या नें विषे. गा० गृहस्थ ना. कु० घर ना दु० वारणा अ० उघाड़ े . ते० चोर. त० तिहां अन्धकार में. अ० प्रवेश करे. त० ते. भि० साधु नें. गा० नहीं. क० कल्पे. ए० इम बोलवो. "अ० ए तिवारे. ते० चोर. प० प्रवेश करे. छै" गो० नहीं प्रवेश करे छे. उ० छिपाये है. णो० नहीं छिपाये है आ० पढ्यो है. गो० नहीं षड्यो है. व० बोले छे. गो० नहीं बोले छे ते० चोर हरो. अ० अनेरो हरचो. अ० एह चोर. उ० सहायक अ० ए मारणे वालो. अ० एह ठे इम किधो. ते ते. भि० तपस्वी साधु नें. अचोर में चोर इम शङ्का हुवे. भ० भि० साधु पु० पहिला. उपदेश यावत्. णो० नहीं. चे० करे.
अथ इहां कह्यो । एहवे स्थानके साधु नें नहीं रहिबो । तेहनों ए परमार्थ जे उपाश्रय मांही लघुनीति तथा बड़ी नीति परठण री जगां नहीं हुवे, भनें गृहस्थ बाहिरला किमाड़ जड़ता हुवे तिवारे
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कपाटाऽधिकारः।
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रात्रि में विषे अथवा विकाल में विषे आबाधा पीड़ता किमाड़ खोलणा पड़े। ते खुलो देखी माहे तस्का आवे, बताया-न बतायां अवगुण उपजता कह्या । सर्व दोषां में प्रथम दोष किमाड़ खोलवा नों कह्यो। तिण कारण थी साधु ने किमाड़ खोलतो पड़े एहवे स्थानके रहिवो नहीं। तिवारे कोई कहे इहां तो साधु साध्वी बेहूं में रहिवो वयॊ छै । जो साधु ने किमाइ खोल्यां दोष उपजे तो साध्वी ने पिण किमाड़ न खोलणा । इम कहे- तेहनों उत्तर।
इहां “से भिक्खू भिक्खुणीवा" ए साधु रे संलग्न साध्वी रो पाठ कह्यो छै । पिण इहां अभिप्राय साधु नों इज छै। साध्वी नों न सम्भवे। कारण कि इण हिज पाठ में आगल कह्या "तंतवस्सिं भिक्खु अतेणं तेणं तिसंकति” इहां तपस्वी भिक्षु अचोर प्रति चोर नी शङ्का उपजै, ए साधु नों इज पाठ कह्यो। अने साधु रे साथे साध्वी रो पाठ कह्यो ते उच्चारण साथ आयो छै। जिम आचाराङ्ग श्रु० २ अ० १ उ० ३ में कह्यो-साधु साध्वी ने सर्व भण्डोपकरण प्रही गोचरी. विहार. दिशा जावणो कह्यो तिहां अर्थ में जिन कल्पिकादिक कह्यो । तो साध्वी ने तो जिन कल्पिक अवस्था न हुई, पिण साधु रे संलग्न साध्वी रो पाठ कयो छै। तिम इहां पिण साधु रे संलग्म साध्वी रोपाठ आयो जणाय छै । तथा वलो आचारांग श्रु. २ अ० २ उ० ३ एहवो कह्यो-गृहस्थ ना घर मे थई में जाणो पड़े ते उपाश्रय ने विषे साध्वी ने तो रहिवो कल्पे,अनें साधुनें न कल्पे । ते माटे इहां आचाराङ्ग में पह वी जगां रहिवो वो ते साधु नी अपेक्षाय सम्भवै छै । अनें साध्वो नों पाठ कह्यो ते साधु रे संलग्न माटे जणाय छै। तिम इहां पिण "से भिक्खूवा भिक्खुणीवा"ए साधु रे संलग्न साध्वी रो पाठ कह्यो सम्भवै छै। पिण इहां साध्वी रो कथव नहीं जाणवो । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो
इति ५ बोल सम्पूर्ण।
. तथा वली बृहत्कल्प उ० १ कह्यो साध्वी ने तो अभंग दुवार रहिषो कल्पे महीं । भने साधु ने कल्पे कह्यो ते लिखिये छै
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भ्रम विध्वंसनम् ।
नो कप्पइ निग्गंथी अवंगु दुवारिए उवस्सए वत्थए, एगं पत्थारं अंतोकिच्चा, एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडिय चल मिलियागंसि एवराहं कप्पइ वत्थए ॥ १४ ॥ कप्पइ निग्गंथा अवगुंय दुवारिए उवस्सए वत्थए ॥
१५ ॥
( वृहत्कल्प उ० १ )
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नो० नहीं. क० कल्पे नि० साध्वी नें. अ० किमाड़ रहित. उ० उपाश्रय ने विषे. ६० रहिवो. (कदाचित रहिवो पड़ े तो ) ए० एक. प० पड़दो श्र० माहि ने जठे सूवे बठे. कि० वांधी ने. ए० एक प० पड़दो. बा० वाहिर. कि० वांधी ने चि० पछेवड़ी प्रमुख बांधी ने ब्रह्मचर्य यत्र निमित्ते. उ० उपाश्रय में. व० रहिवो. क० कल्पे छै नि० साधु ने अ० किमाड़ रहित. पिया उ० उपाश्रय ने विषे. व० रहियो ।
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अथ अठे इम कह्यो । साध्वी ने उघाड़े वारणे रहणो नहीं । किमाड़ न हुवै तो चिलमिली (पछेवड़ी) बांधी ने रहिणो । पिण उघाड़े वारणे रहिवो न कल्पे तिणरो ए परमार्थ शीलादिक राखवा निमित्ते किमाड़ जड़नों । पिण शीलादिक कारण विना जड़नों उघाड़नों नहीं । अनें साधु ने तो उघाड़े द्वारे इज रहिवो कल्पे इम कह्यो । धर्मं सिंह कृत भगवती ना टब्बा में १३ आंतरा मे आठमा आंतरा नों अर्थ इम कियो ।,, मग्गंतरे हि” कहितां साधु साध्वी ने ५ महाव्रत सरीखा छते साधुनें ३ पछेवड़ी अनें साध्वी नें ४ पछेवड़ी, तथा साधु तो किमाड़ देई न रहे । अनें साध्वी किमाड़ विना उघाड़े किमाड़ न सूबे । तो मार्गमांही एवड़ो स्यूँ फेर । उत्तरसाध्वी तो ४ पछेवड़ी अनें सकिमाड़ रहे ते स्त्री ना खोलिया माटे वीतराग नी आज्ञा ते मार्ग मुक्ति नों इज छै । धर्मसिंह कृत १३ आंतरा में आर्या ने किमाड़ जड़वो कह्यो । अनें साधु ने किमाड़ जडणी वर्ज्यो । ते भणी आवश्यक सूयगडाङ्ग आचाराङ्ग बृहत्कल्प आदि अनेक सूत्रां में साधु ने किमाड़ जड़वो उघाड़बो खुलासा वर्ज्या छतां जे द्रव्यलिङ्गो पेट भरा जिनागम ना रहस्य ना अजाण पोता नों मत थापवानें
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कपाटाधिकारः ।
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काजे अनेक कपोल कल्पित कुयुक्ति लगावी नें साधु ने किमाड़ जड़वो तथा उघावो थापे ते महा मृषावादी अन्यायी अनन्त संसार रा बधावणहार जाणवा । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण |
इति कपाटाऽधिकारः ।
इति श्री जयगणि विरिचितं
भ्रमविध्वंसनम् ।
समाप्त ।
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प्राप्तिस्थान(१) भैरूंदान ईसरचन्द चोपड़ा।
नं० १ पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट,
कलकत्ता।
(२) भैरूंदान ईसरचन्द चोपड़ा।
मु० गंगाशहर।
जिला बीकानेर।
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Yoxide APIOGRAPHAS
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