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________________ ८२ भ्रम विधंसनम् । हे पूज्य ! पु० ए पुरुष. पु० पूर्व जन्मान्तरे. के० कुण हुन्सो. कि० किम्यूमाम हुन्तो. किल्यूगोत्र हुन्तो. क. कुण. गा० ग्रामे यस्तो न० कुण नगर ने विर्षे वस्तो कि० कुण अशुख तथा फुपान दान दीधो. पू० पूर्वले. दु० दुश्चीर्ण कमें करी प्राणातिपातादिक रूढी परे पालोवणा निन्दवा सन्देह रहित. तथा प्रायश्चित्त करी टाल्या नहीं अशुभना हेतु. पा. दुष्ट भावनों ज्ञानावरणीय श्रादिक कर्म नों फ० फलरूप विशेष भोगवतो थको विचरे. किं० कुण व्यसमादिक क्रोध लोभादि समाचा. के० पूर्व कुण कुशीलादि करी अशुभ कर्म उपाा कुण अभक्ष्य मांसादि भोगव्या । ___ अथ इहां गोतम भगवन्त ने पूछयो। इण मृगालोढे पूर्व काई कुकर्म कीधा , कुपात्र दान दीधा । तेहना फल ए नरक समान दुःख भोगवे छै। तो + पाठकगण ! कई हस्त लिखित सूत्र प्रतियों में सर्वथा ऐसा ही पाठ है जैसा कि जयाचार्य ( जीतमल जी महाराज ) ने उधृत किया है । और कई प्रतियों में नीचे लिखे हुए प्रकारसे भी है। "सेणं भंते ! पुरिसे पुब्बभवे के पासी विणामएवा किंगोएवा कयरंसि गामंसिवा किवादच्या किंवा भोचा किंवा समायरत्ता केसिवा पुरापोराणाणं दुच्चिगणाणं दुप्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं फल वित्ति घिसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ । इस पाठ को मिलाने से जयाचार्य उद्धृत पाठ के बीचमें किवा दश्चा के प्रागे "किंवा भोच्चा. किंवा समायरत्ता" ये पाठ नहीं है। इसीपर "प्रत्युत्तर दीपिका” चोर लिया. चोर लिया कह कर आसु बहाती है । ये केवल स्वाभाविक ही "प्रत्युसर दीपिका" का स्त्री चरित्र है। पाठक गण ? ज्ञान चक्षु से विचारिये । इस पाठ को न रखने से क्या लाभ और रखने से जयाचार्य को क्या हानि निज सिद्धान्त में प्रतीत हुई। अस्तु-प्रत्युत, इस पाठ का होना तो जयाचार्यकी श्रद्धा को और भी पुष्ट करता है । जैसे कि "किंवा भोचा" क्या २ मांसादि सेवन किया, "किंवा समायरित्ता" क्या २ व्यमन कुशीलावि का समाचरण किया। इससे तो यह सिद्ध हुआ कि “किंवा दचा किंवा भोच्चा. किंवासमायरित्ता" ये तीनों एक फलके देनेवाले हैं। अर्थात-कुपात्र दान. मांसादि सेवन. व्यसन कुशलादिक. ये तीनों ही पक मार्गकेही पथिक हैं । जैसे कि "चोर-जार-ठग ये तीनों समान व्यवसायो हैं। तैसे ही जयाचार्य सिद्धान्तामुसार कुपात्र दान भी मांसादि सेवन व्यसन कुशीलादिक की ही श्रेणी में गिनने योग्य है। अब तो आप "प्रत्युत्तर दीपिका" से पूछिये कि हे मञ्जुभाषिणि ? अब तेरा ये पालाप किस शास्त्र के अनुगत होगा। अस्तु-यदि किसी भ्रातृवर को इस पाटके परिवर्त्तन ( एक फेर । का ही विचार हो तो सो जिस हस्त लिखित प्रति में से जयाचार्य ने ये पाठ उद्धृत किया है। उस सूत्र प्रति को श्राप श्रीमान् जिनाचार्य पूज्य कालरामजी महाराज के दर्शन कर उनके समीप यथा समय देख सकते हैं, जो कि तेरापन्थ नायक भिक्षु स्वामीजी से जन्म के भी पूर्व लिखी गई है। "संशोधक
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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