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________________ भ्रम विध्वंसनम् । तथा उवाई में पिण "पडिसंलिणया' तप कह्यो-तिहां एहवा पाठ कह्या छ । लिखिये छै । ३२२ से किं तं मण जोग पडिसंलिण्या, मग जोग पडिसंलिया. अकुसल मण निरोधोवा. कुसल मण उदरिणं वा सेतं मरण जोग पडिसंलिया । (वाई) से० तं कि कौण मःमन योग मन नो व्यापार तेहनों अतिशय स्यूं सं० संलीनता. संवरिवो अकुशल मन तेहनों नि० निरोध संधिवो कुः कुशल भलो जे मन तेहनी उदीरणा प्रवर्त्ताविवो से ते मन जोग पड़िसंलियाया अथ इहां अकुशल मन ते माठा मन ने रूधवो कह्यो । कुशल मन प्रवतवणो कह्यो । इम वचन पिण कह्यो । अकुशल मन रुवो कह्यो । ते अजीव । छै । किम रू. पिए तो जोव छै । अकुशल मन ते भावे मन रो योग छै । तेहनें रूवो कह्यो । कुशल मन ते पिण भलो भाव मन योग प्रवर्त्ताविवो कह्यो । अजीव नो कुशल अकुशल पण किम हुवे | ए कुशल योग नों उदीरखो ते भाव यांग छै. ते जीव छै । ए योग आश्रव छै आश्रव जीव ना परिणाम छे । ते घणे संक्षेप थी कहं छै। ठाणाङ्ग ठा० २ उ० १ जीव क्रिया ना २ भेद कह्या । सम्यक्त्व क्रिया. मिथ्यात्व क्रिया. कही । मिथ्यात्व क्रिया ते मिथ्यात्व आश्रव छै । तथा भगवती श० १२ उ० ५ मिथ्यादृष्टि अनें ६ भाव लेश्या ने अरूपी कही । तथा भगवती श० १७३०२ अठारह पाप में वर्त्ते तेहने जीवात्मा कही । तथा भगवती श० १२० १० कषाय योगां नें आत्मा कही । तथा अनुयोग द्वार में ६ लेश्या ४ कपाय. मिथ्यादृष्टि, अव्रती सयोगी ने जीव उदय निष्पन्न कह्या । तथा ठाणाङ्ग १० पायी मिथ्यादृष्टि, अब्रती सजोखी ने जीव उदय निष्पन्न ह्या । तथा ठाणाङ्ग ठा० १० कषाय अमें योग ने जीव परिणामी कह्या । तथा भगवती श० १२ उ० ५ उत्थान कर्म वल. वीर्य पुरुषाकार पराक्रम ने अरूपी कथा । तथा अनुयोग द्वार तथा आवश्यक में योगां ने सावद्य कया । तथा उचाई
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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