SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व क्रियाऽधिकारः । विज्ञानावरणीय कर्म से क्षोपराम करे, इहां शुभ अव्यवसाय शुभ परिणाम विशुद्ध लेखा थी कर्म खपाया। ए शुद्ध करणोथी कर्म खपाया के अशुद्ध करणी थी कर्म खपाया । ए भला परिणाम विशुद्ध लेश्या सावय है के निरवद्य है शुभ योग छै के अशुभ योग है आज्ञा में छे के आज्ञावाहिरे छे । इहां विशुद्ध लेश्या कही ते भाव लेश्या छै । द्रव्य लेपायी तो कर्म खये नहीं लेखा तो अठफश छै ते माटे । अते कर्म खपाया ते धर्मलेश्या जीव ना परिणाम छै तेहथी कर्म ३३ हुये छै । तैजल ( तेजू ) पद्म शुक्ल ए तीन भली लेश्या छै ते विशुद्ध लेश्या कही है । अतें उत्तराध्ययनः अ० ३४ गाथा ५७ ए तीन भी लेखाने नर्मळे कही छै | अने इहां वraat विशुद्ध लेश्याथी कर्म खपाया ते धर्माथी खाया छै अधर्म लेश्याथी तो कर्म क्षय हुवे नहीं । अने धर्मलेश्या तो आज्ञामें छै तेही कर्म खपाया है । वली “ईहापोह मग्गण गवेसणं करे भाणस्तु" ए पाठ कह्या. "ईहा" कहितां भला अर्थ जाणवा सन्मुख थयो "अपोह" कहितां धर्मध्यान वीजा पक्षपात रहित "मगण" कहिनां समूचे धर्मनी आलोचना "गयेसणं" कहितां अधिक धर्मनी आलोचना ए करतां विभंग अज्ञान उपजे । इहां तो धर्मज्ञान धर्मनी आलोचना अधिक धर्मनी आलोचना प्रथम गुण ठाणे कही तो धर्मनी आलोचना ने असे धर्मध्यान में आज्ञा वाहिरे किम कहिये तो आशामाहि है । पछै विभंग अज्ञान थी जघन्यअंगुलने असंख्यात भाग जो देखे । उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन. जाणीने देखे ते विनेरी जीव अजीव जाण्या | तिवारे सम्यग्दृष्टि पामे सम्यग्दृष्टि पामतां विभंग से अधि । पछे चारित लेइ लिङ्ग पड़िवज्जे । एतले गुणारी प्राप्ति थई ते निस्वद्य करणी करतां सम्यग्दृष्टि अनें चारित्र पाया है । जो अशुद्ध करणी हुवे तो सम्यग्दृष्टि अने चारित किम पामे इणे आलावे चौड़े कह्यो प्रथम तो वेलेर तप सूर्यदी आतापना मृदु कोमल उपशान्त निरहंकार सगुण कला पछे शुभ परिणाम शुभ अध्यवसाय विशुद्ध लेश्या कहीं, वली "अपोहन " अर्थ धर्मध्यान कह्यो, धर्म नी आलोचना कही पहवा उत्तम गुण कथा तेहने अवगुण किम कहिए । पहवा गुणा करी सम्यक्त्व पात्रां एहवो कह्यो तो त्यां गुणा ने आज्ञा वाहिरे किम कहिये । जो ए बाल तपस्वी बेले २ तप न करतो तो पतला गुण किम प्रकटता अनें यां गुणा विना शुद्ध अध्यवसाय भला परिणाम भली लेश्या किम आवती । अने यां गुणा विना धर्म ध्यान न ध्यावतो भली विचा
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy