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भ्रम विध्वंसनम्।
समणंबा माहणंबा वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता. अण्णयरेणं मणुगोणं पीइकारएणं असणं पाणं खाइमं साइमं पड़िलाभित्ता एवं खलुजीवा आउपकरेंति ।
(भगवती श० ५ उ०६)
___क० किम् भ० हे भगवन्त ! जी० जीव. सु० शुभ दीर्घायुषा नो. क० कर्म व बांधे हे गौतम ! णो जीव प्रति न हणे. णो मृषा प्रति नहीं बोले. तथारूप सः श्रमण प्रति मा० माहण ब्रह्मवारी प्रति. बं. वांदे वांदो ने. जा. यावत ५० सेवा को ने. अ. अनेरो. म० मनोज्ञ. पी० प्रीतिकारी भलो भाव कारी. अ. अशन. पा. पाणी. खा० खादिम सा. स्वादिम. प० प्रतिलाभी ने. ए० इम. ख० निश्चय जी। यावत शुभ दोवायु बांधे।।
अथ अठे इम कह्यो। साधुने उत्तम पुरुष जाणी बन्दना नमस्कार करी सन्मान देई मनोज्ञ प्रीति कारियो अशनादिक प्रतिलाभ्यां शुभ दीर्घायुषो बांधे। इहां “पडिलाभित्ता' पाठ कह्यो । तिम हिज ‘‘पडिलाभित्ता" पाठ पाछिले आलावे कह्यो। जे साधु ने भलो जाणी प्रशंसा करी ने मनोज्ञ आहार देवे । तिहां “पडिलाभित्ता" पाठ कल्यो। तिम साधु ने खोटो जाणी हेलनादिक करी अमनोज्ञ आहार देथे तिहाँ पिण पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो। ए साधु जाणी देवे अने असाधु जाणी ने देवे । ए बिह ठिकाने "पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो । वली मनोज्ञ आहार देवे तथा अमनोज्ञ आहार देथे ए विहूं में “पडिलाभित्ता" पाठ कह्यो। वली वन्दना नमस्कार सन्मान करी देधे, तथा हेला निन्दा अवज्ञा अपमान करी देवे ए बेहूं में “पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो। शुभ दीर्घ आयुषो बांधे तथा अशुभ दीर्घायुषो बांधे ए बिहूं में “पडिलाभित्ता" नाम देवा नो छै। पिण साधु जाणवा रो कारण नहीं. साहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली गुरु जाण्या बिना देवे तिहां पिण “पडिलाभित्ता” पाठ कह्यो है। ते लिखिये छ।