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पुण्याधिकारः।
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दुगुञ्छै निन्दे ते दुगुंछा कहिये. एहबोज साधु ते क्षुधावन्त भिनु थयू तिवारे. अ. आपणा. पा. पात्रा ने विषे. गि गृहस्थीइं दी● अशनादिक भोजन करे.
इहां कह्यो-धन धान्याकिक ने नरक ना हेतु देखी ने तृण मात्र पिण आदरे नहीं। इहां पिण नरक ना हेतु धन धान्यादिक ने नरक शब्दे करी ओल. खायो छै । तिम पुणय ना हेतु शुभ अनुष्ठान ने पुणय शब्दे करी ओल खायो छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ७ बोल सम्पूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० १ गा० ५ में कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
कण कुंडगं चइत्ताणं विटुं भुंजइ सूयरे एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमइ मिए ॥५॥
(उत्तराध्ययन अ०१गा०५)
क० कण ( अन्न ) नू कूडो. च० छांडी ने. वि० विष्ठा. भु० भोगवे. सू० सूर. ए० एणी परे अविनीत. सी० भलो आचार ने च० छांडी ने. दु० भूडा आचार ने विषे. र० प्रवर्ते. मि० मृग पशु सरीखू ते अविनीत.
अथ इहां अविनीत ने मृग कह्यो-मृग जिसा अजाण ने मृग शब्द करी ओलखायो छै। तिम पुणय ना हेतु ने पुणय शब्दे करो ओलखायो इत्यादिक एहवा पाठ अनेक ठामे कह्या छै। जिम यश नों हेतु संयम ते यश ने यश शब्दे करी भोलखायो। अयश नों हेतु असंयम ने अयश शब्दे करी ओलखायो। नरक