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ने इस स्वप्न को सहर्ष स्वीकार किया और कहा कि यह स्वप्न चतुर्दश १४ स्वप्नों के अन्तर्गत है। अतः यह तुम्हारा पुत्र देश देशान्तरों में भ्रमण करता हुआ सिंह समान ही गर्जेगा इसकी दीक्षा होने में विलम्ब मत करो। माता जीका विचार पवित्र हुआ और आत्मज ( भिक्षु ) के आत्मोद्धार के लिये आज्ञा दे दी।
उस समय भगवान् के निर्मल सिद्धान्तों को स्वार्थान्ध पुरुषों ने विगाड़ रक्खाथा । भिक्षु किस के समीप दीक्षा लेते निग्रन्थ गुरु होनेका कोई भी अधिकारी नहीं था । तथापि अप्राप्ति में रघुनाथ जी के ही सभीप भिक्षु द्रव्य दीक्षा लेकर अपने भावि कार्य में प्रवृत्त हुए। यह द्रव्यदीक्षा द्रब्यगुरु रघुनाथ जी से भिक्षु स्वामी ने सम्वत् १८०८ में ग्रहण की। आपको बुद्धि भावितात्म होनेके कारण वाः ही तीव्र थी अतः आपने अनायास ही समस्त सूत्र सिद्धान्तका अध्ययन कर लिया। केवल अध्ययन ही नहीं किया किन्तु सूत्रों के उन २ गम्भीर विषयों को खोज निकाला जिनको कि वेषधारी साधु स्वप्न में भी नहीं समझते थे। और विचारा कि ये सम्प्रदाय जिन में कि मैं भी सम्मिलित हूं पूर्णतया ही जिन आज्ञा पर ध्यान नहीं देते और केवल अपने उदर की ही पूर्ति करने के लिये नाम दीक्षा धारण किये हुए हैं । ये लोक न स्वयं तर सक्त हैं न दूसरों को ही तार सक्त हैं। वना बनाया घर छोड़ दिया है और अव स्थान २ पर स्थानक वनवाते फिरते हैं। भगवान् की मर्यादा के उपरान्त उपधि वस्त्र. पात्र. भादिक अधिकतया रखते हैं। आधा कर्मी आहार भोगते और आज्ञा विना हो दीक्षा देते दीख पड़ते हैं। एवं प्रकार के अनेक अनाचार देख करके भिक्षु का मन सम्प्रदाय से विचलित होने लगा। इसके अनन्तर-इसी अवसर में मेवाड़ के “राजनगर" नामक नगर में पठित महाजनो ने सूत्र सिद्धान्त पर विचार किया और वर्तमान गुरुओंके आचार विचार सूत्र विरुद्ध समझ कर उनकी वन्दना करनी छोड़ दी। मारवाड़ में जब यह वात रघुनाथजी को विदित हुई तो सर्व साधुओंमें परम प्रवीण भिक्षु स्वामी को ही समझकर और उनके साथ टोकरजी. हरनाथजी. बीरभाणजी.
और भारीमालजी. को करके भेजा। राजनगर में यह भिक्षु स्वामीका चौमासा सम्बत् १८१५ में हुआ। चर्चा हुई लोकों ने स्थानकवास. कपाट जड़ना खोलना. आदिक अनेक अनाचारों पर आक्षेप किया और यही कारण वन्दना न करने का बतलाया। भिक्षु खामी ने अपने द्रव्य गुरु रघुनाथजी के पक्ष को रखने के लिये अपनी बुद्धि चातुर्यता से लोगों को समझाया और वन्दना कराई । किन्तु लोगों ने