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निर्ग्रन्थ पिदाधिकारः ।
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अथ इहाँ कह्यो-सूतो स्वप्नो न देने जागतो पिण न देखे। काइक सूतो कांइक जागतो स्वप्नो देखतो कह्यो। ते 'सुत्ते' ' नाम निद्रा नों 'आगरे" नाम नाम जागता नों छै। पिण भाव निद्रा नी अपेक्षाय ए "सुत्ते” न कह्यो। द्रव्य निद्रा नी अपेक्षाय इज कह्यो छै। तेहनी टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये
__ "नाति सुप्तो नाति जाग्रदित्यर्थः। इह सुप्तो जागरश्च द्रव्यभावाभ्यां स्यात् तत्र द्रव्य निद्रापेक्षया भावतश्चा विरत्यपेक्षया । तत्र स्वप्न व्यतिकरो निद्रापेक्ष उक्तः ।
इहां पिण द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही छै। ते भाव निदा थी पाप लागे पिण द्रव्य निद्रा थी पाप न लागे। अनेक ठामे सूवणो ते निद्रा नों नाम कह्यो छै। ते माटे जयणा थी सूतां पाप न लागे, सूवण री आज्ञा छै ते मारे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३ बोल सम्पूर्ण।
तथा उत्तराध्ययन अ० २६ कह्यो ते पाठ लिखिये छ। पढ़मं पोरिसि सज्झायं वीतियं झाणं झियायई । तइयाए निदमोक्खंतु चउत्थी भुजो वि सज्झायं ॥
(उत्तराध्ययन अ० २६ गा० १८).
५० पहिलो पौरिसी में. स. स्वाध्याय करे. वि० बीजी पौरसी में ध्यान ध्यावे. तक तोजी पौरसी में. नि. निद्रा मूके. च० चौथी पौरसी में भु० वली स० स्वाध्याय करे.
- अथ इहां अभिग्रह धारी साधु पिण तीजी पौरसी में निद्रा मूके कह्यो। ते देशी भाषाई करी किहांइ निद्रा काढ़े किहांइ निद्रा लेधे कहे। किहांइ निद्रा मूके