SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः ! केतला एक अज्ञानी कहे - साधु नें असूजतो अशनादिक जाणी नें श्रावक देवे तेहनों पाप थोड़ो अने निर्जरा घणी निपजे । ते अनेक कुयुक्ति लगावी अशुद्ध आहार री थाप करे। वली भगवती रो नाम लेई विपरीत कहें है । ते पाठ लिखिये ! समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुरणं अणिसणिज्जेणं असण पाणखाइम साइमे पड़िलाभेमाणस्स किं कज्जइ गोयमा ! वहुतरिया से निजरा कज्जइ. अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । (भगवती श० ८ ४० ६ ) स० श्रमणोपासक नें भ० भगवन् ! त० तथारूप. श्रमण प्रते. मा० ब्रह्मचारी प्रते. छा० प्राशुक सचित्तं. अ० अनेषणीक दोष सहित अ० अशन. पान खादिम स्वादिम प० प्रतिलाता . ० स्यूं फल हुइ. गो० गोतम ! घ० घणी निर्जरा हुइ अ० अल्प थोडूं पाप कर्म हुई: अथ इहां इम को - जे श्रावक साधु ने सचित्त अनें असूजतो देवे तो अल्प पाप बहु निर्जरा हुवे । ए पाठ नों न्याय टीकाकार पिण केवली ने भलायो छै । तो ए अशुद्ध आहार री थाप किम करणी । अशुद्ध आहार री थाप कियां ठाम २ सूत्र उत्थपता दीसे छै। सूत्र में तो अशुद्ध आहार नें ठाम ठाम निषेध्यो छै । ते अशुद्ध आहार नी थाप न करणी । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति १ बोल सम्पूर्ण ।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy