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________________ दानाऽधिकारः। ७६ कहिवे १८ पाप आया। मिथ्यात्वादिक आध्रव कहिवे ५ आश्रव आया। तिम तीर्थङ्करादिक पुणय प्रकृति कहिवे सर्व पुणय नी प्रकृति आई वली कांई पुणय नी प्रकृति बाको रही नहीं। अनेरां ने दीधां अनेरी प्रकृति नो बंध कहो छै। ते साधु थी अनेरो तो कुपात्र छै। तेहनें दीधां अनेरी प्रकृति नोंच ते अनेरी प्रकृति पाप नी छै। पुणय थी अनेरो पाप धर्म सु अनेरो अधर्म लोक थी अनेरो अलोक जीव थी अनेरो अजीव मार्ग थी अनेरो कुमार्ग दया थी अनेरी हिंसा इत्यादिक बोलतूं ओलखिये। इण न्याय पुणय थी अनेरी पाप नी प्रकृति जाणवी. अनें जो अनेरा ने दियां पुणय छै। तो अनेरा ने पाणी पायां पिण पुणय छ। जिम अनेरा में नमस्कार कियां पाप क्यूं कहे छै। अनेरा ने नमस्कार करण रो सूंस देणो नहीं। पाप श्रद्धा नो नहीं तो आनन्द श्रावके अन्य तीर्थी ने नमस्कार न करिबूं। एहवो अभिग्रह क्यू धासो। अनें भगवन्त तो साधु ने कल्पे ते हिज द्रव्य कह्या छै। अनेरा ने दियां पुणय हुवे तो गाय पुण्णे. भैंस पुण्णे. रूपौ पुण्णे. खेती पुण्णे. डोली पुण्णे. इत्यादिक बोल आणता ते तो आंणया नहीं। तथा वली अनेरा ने दियां अनेरी प्रकृति नों बंध टव्वा में छै । पिण टीका में न थी। ते टीका लिखिये छै । “पात्रायान्नदानाद्य स्तीर्थकरादि पुण्यप्रकृति बंधस्तदन्नपुण्यमेव णवर लेणंति लयनं-गृह-शयनं-संस्तारकः” इहां तो अनेरां ने दियां अनेरी प्रकृति नो बंध. एहवू तो ठाणाङ्गनी टीका अभय देव सूरि कीधी तेहमें पिण न थी। इहां तो इम कह्यो जे पात्र ने अन्न देवा थी जे पुणय प्रकृति नों बंध तेहने 'अन्नपुण्णे'' कही जे। इहां अन्न कह्यो पिण अन्य न कह्यो । अन्य कह्यां अनेरो हुवे ते अन्य शब्द न थी अन्नपुणय रो नाम छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो। इति १८ बोल सम्पूर्ण। अनेरा ने दियां तो भगवती श०८ उ०६ एकान्त :पाप कह्यो छै। तथा उत्तराध्ययन अध्ययन १४ गा० १२ भग्गु ना पुत्रां विप्र जिमायाँ तमतमा कही है।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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