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यद्यपि यह ग्रन्थ पहिले भी किसी मुम्बई के प्राचीन ढङ्ग के यन्त्रालय में छप चुका है । तथापि वह किसी प्रयोजन का नहीं हुआ छपा न छपा एकसा ही रहा। एक तो टायप ऐसा कुरूप था, दीख पड़ता था कि मानों लियो का ही छपा हुआ है। दूसरे प्रूफ संशोधन तो नाममात्र भी नहीं हुआ समस्त शब्द विपरीत दशा में ही छपे हुए थे। कई २ स्थान पर पंक्तियां हो छोड़ दी थीं दो एक स्थान पर एक दो पृष्ठ भी छूटा हुआ मिला है । सारांश यह है कि एक पंक्ति भी शुद्ध नहीं छापी गई। ऐसी दशा में जयाचार्य का सिद्धान्त इस पूर्व छपे हुर पुस्तक से जानना दुर्लभ ही हो गया था। ऐसी व्यवस्था इस अपूर्व ग्रन्थ की देख कर तेरापन्थ समाज को इसके पुनरुद्धार करने की पूर्ण ही चिन्ता थी । परन्तु होता क्या मूल पुस्तक जो कि जयाचार्य की हस्तलिखित है साधुओं के पास थी बिना मूल पुस्तक से मिलाये संशोधन कैसे होता । शुद्ध साधुओं की यह रीति नहीं कि गृहस्थ ! समाज को अपनी पुस्तक छपाने को अथवा नक़ल करने को देवें । ऐसी अवस्था में इस ग्रन्थ का संशोधन असम्भव सा ही प्रतीत होने लगा था । समय वलवान् है पूज्य श्री १००८ कालू गणिराज का चतुर्मास सं० १९७६ में बीकानेर हुआ । वहां पर साधुओं के समीप मूल पुस्तकमें से धार धार कर अपने स्थानमें आकर त्रुटियां शुद्ध कीं । ऐसे गमनागमन में संशोधन कार्य के लिये जितना परिश्रम और समय : लगा उसको धारनेवाले का हो आत्मा वर्णन कर सक्ता है। इसमें कुछ संशोधक. की प्रशंसा नहीं किन्तु यह प्रताप श्रीमान् कालू गणिराज का ही है जिन के कि शासन में ऐसे अनेक २ दुर्लभ कार्य सुलभता को पहुंचे हैं । कई भाइयों की ऐसी इच्छा थी कि इस ग्रन्थ को खड़ी बोली में अनुवादित किया जावे परन्तु जैसा रस असल में रहता है वह नकुल में नहीं । इस ग्रन्थ की भाषा मारवाड़ी है थोड़े पढ़े लिखे भी अच्छी तरह समझ सकते हैं यद्यपि इस ग्रन्थ के प्रूफ संशोधन में अधिक से are भी परिश्रम किया गया है. तथापि संशोधक की अल्पज्ञता के कारण जहां कहीं कुछ भूलें रह गई हों तो विज्ञ जन सुधार कर पढ़ें। भूल होना मनुष्यों का स्वभाव है । टायप भी कलकत्ते का है छापते समय भी मात्राऐं टूट फूट जाती हैं. कहीं २ अक्षर भी दबनेके कारण नहीं उघड़ते हैं अतः शुद्ध किया हुआ भी असंशो धित सा ही दीखने लगता हैं इतना होनेपर भी पाठकों को पढ़ने में कोई अड़चन नहीं होगी। इस में सब से मोटे २ अक्षरों में सूत्र पाठ दिया गया है और सबसे छोटे अक्षरों में अर्थ है । मध्यस्थ अक्षरों में वार्त्तिक अर्थात् पाठ का न्याय
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