SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्याधिकारः । ३०१ ३० मनुष्य सम्बन्धी जी० श्रायुषो रा० हे राजन् श्र० अशाश्वत ( अनित्य ) तेहनें विषे ध० प्रतिहि पु० पुराय नी हेतु शुभ अनुष्ठान ते. अ० श्रणकरण हारो जे जीव. से० ते. सो० सोचे पश्चात्ताप करे. म० मृत्यु ना ' मुखे पहुन्तो तिवारे ध० धर्म. ० की थ सोचे. प० परलोक नें विषे. अथ इहां तो को-हे राजन् ! अशाश्वत जीवितव्य ने विषे गाढा पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान शुभ करणी न करे ते मरणान्त ने विषे पश्चात्ताप करे । इहां पुण्यशब्दे पुण्य नो हेतु शुभ अनुष्ठान ने कह्यो । तिहां टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छै । “पुराणा इं अकुव्वमाणेति - पुण्यानि पुण्य हेतु भूतानि शुभानुष्ठानानि श्रकुर्वाणः” इहां टीका में पिणको - पुण्य ते पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान अणकरे तो मरणान्ते पिछतावे । इहां कोई कहें पुण्य शब्द पुण्य नो हेतु. शुभ अनुष्ठान. हवो पाठ में तो न कह्यो । ए तो अर्थ में कह्यो । अने पाठ में तो पुण्य करे नहीं ते पिछतावे इम को छै । इम कहे तेहनों उत्तर - पुण्य शब्दे को ते अर्थ मिलतो छै । अनें तूं पुण्य हां पुण्यशब्देकरी पुण्य ना हेतु शुभ विचारि जोइजो । पुण्य नो हेतु अर्थ में कर पहवो तो पाठ में कह्यो नथी । अने अनुष्ठान में ओलखायो है । डाहा हुवे तो इति २ बोल सम्पूर्ण । तथा उत्तराध्ययन अ० १८ गा० ३४ में पिण इम कह्यो छे ते पाठ लिखिये छै । एयं पुण्यपयं सोच्चा भरो विरहं वासं अत्थ धम्मो वसोहियं । चिच्चा कामाइ पव्व ॥ ३४॥ उत्तराध्ययम उ०१८ )
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy