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________________ विध्वंसनम् । ० पापों स्थानक ए पिएभिः साधु ने ता० गृहस्थ कुल सहित. उ० एहवे उपाश्रय ब० रहतां वसतः इ० इणि उपाश्रय. खः विय. गा० गृहस्थ जा० जाव कर्मकरी जटिलो प्रमुख. ० परसा माहो माहि अनेरा में प्र० चाहोगे ० दंडादिक सुं वधे. रु० रोके उ० उपनेता मारे हिने तेहरे सरूपे भि साधु देखी कदाचित. उ० ऊंची. ० नोवो. म० मन को समाहि इसूं भाव आहे. ए० एह ते ख० निश्चय श्र० माहो माहि. श्र० कोशो मा० एहनें भ करो आक्रोश जा० यावत् म करो. श्र० उपद्रव, ताडे, मारे इहां ऊपर राग द्वेष नो भाव आव्यो अथवा इम जाणे एहनें आक्रोश करो तेह उपरे द्वेष नों भाव व्यो राज द्वेष कर्म बंधनों कारण ते साधु ने न करवा । १३६ य इहांको वृहत्य माहोमाहि लड़े छै । आक्रोश आदिक करे छै । तो इस वित्तो नहीं पहनें आक्रोशो हो रोको उद्वेग दुःख उपजावो । तथा पहनें मत हणो मतको मत रोको उद्वेग दुःख मत उपजावो. इम पिण चिन्तवण नहीं । एह तोर परमार्थ. जे राग आणी जीवणो वांछी इस न चिन्तवणो । ए बापड़ा ने मत हो दुःख उद्वेग मत देवो तो राग में धर्म किहां थी । जीवणो या धर्म कहिये । अनें से हणे तेहनो पाप टलावा में सारिवा नें उपदेश देई हिंसा छोडावे ते तो धर्म है । पिणे राग में धर्म नहीं । असंयती से जीवणो वांछयां धर्म नहीं। डाहा हुवे ते विचारि जोइजो I इति ७ बोल सम्पूर्ण । तथा साधु गृहस्थ में अग्नि प्रज्वाल वुझाव तथा मत वुझाव इम न कहे । इम को ते पाठ लिखिये छै । 1 आयामेयं भिक्खु गाहावतीहिं सद्धिं संवसमारास्स-इह खलु वाहावती अप्पो सट्टा अगणिकार्य उजालेज बनालेजवा विजावेनया ग्रह भिक्खू उच्चावयं मणं रियच्छेना- एतेखलु अगणिकार्य उज्जालेंतुवा मा बा
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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