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________________ भ्रम विध्वंसनम् । ५० इम. ख० निश्चय. गो० हे गौतम! ममाहरो. अं० श्रन्तेवासी ( शिष्य प्राचीन जानपदी स० सर्वानुभूति नामे अणगार पर प्रकृति भद्री जा० यावत् वि० विनीत. से० ते. त० तिवारे गोशाला मंखलि पुत्रे करो. भ० भस्म हुवो थको. उ० ऊर्ध्व चन्द्र, सूर्य यावतू. म aar. महाशुक्र विमान नं. बी० उल्लंघी नें स० सहस्सार कल्प देवता नें विषे. ० उत्पन दुबो. ३६४ हां भगवन्ते सर्वानुभूति ने प्रशंस्यो घणो विनीत कह्यो । ली इमज सुनक्षत्र मुनि ने पिण विनीत कह्यो । अनें जो आशा बाहिरे हुवे तो भविनीत कहिता । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति १३ बोल सम्पूर्ण । तथा उत्तराध्ययन में आज्ञा प्रमाणे कार्य करे ते शिष्य ने विनीत कह्यो । भ भाज्ञा लोपे तेहने अविनीत कह्यो । ते पाठ लिखिये छै । प्रारणा निदेश करे गुरु मुवाय कारए । इंगियागार संपणे से विणीपत्ति बुच्चइ || ॥ उत्तराध्ययन ० १ गा० २ ) ० गुरू नी आशा. नि० प्रमाण नूं करणहार रहिवो एहवा कार्य नूं करणहार इं० सूक्ष्म अङ्ग भमुरादिक सहित एहवं. हुइ तेहने विनीत कहिये. गु० गुरुनी दृष्टि वचन तेहने विषे. अवलोकना चेष्टा ना जाणपणा अथ इहां गुरु नी आज्ञा प्रमाणे कार्य करे गुरु नी अङ्ग चेष्टा प्रमाणे व सर्वानुभूति सुक्षत्र मुनि में विनीत कहिये । प विनीत रा लक्षण कह्या भने
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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