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________________ arutsधिकारः । KAL अन टीका में कह्यो — लेश्या ना असंख्याता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण मध्यवसाय ना स्थान छै । तिण में कृष्णं नील कापोत ना नंदानुभाव अध्यवसाय स्थानक प्रमत्त संयती में लाभे-तिण में मन पर्यव ज्ञान सम्भवे, इम कह्यो । प म व्यवसाय रूप भाव लेश्या छै । ते भणी मन पर्यन ज्ञानी में पिण माठी लेश्या पावे है। तथा भगवती श० ८ डं० २ कृष्ण नील कापोत लेश्या में ४ ज्ञान नी भजन कही । इत्यादिक अनेक ठामे साधु में ६ लेश्या कही छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति ३ बोल सम्पूर्ण । fart कोई कहे भगवती में को-प्रसादी अप्रमादी में कृष्णादिक ३ लेश्या न कहिणी । ते माटे साधु में माठी लेखा न पावे । तेहनों उत्तर- तिर्ण डा पहवी पाठ छै ने लिखिये छै । कह लेस्सस्स नील लेस्सस्स काउ लेस्सरत जहां ओहिया जीवा वरं पत्ता पमत्ता ण भाणियज्वा । ( भगवती श० १ ० १ ) क० कृष्णां लेश्या. नी० मील लेण्या. कापोत लेश्या ज० जिम. प्रो० श्रधिक सर्व जीव. म० पिण एतले विशेष प० प्रमत्त श्रप्रमत्त न कहियो अथ अठे तो इम को-कृष्ण. नील. कापीत. लेश्यी जिम ओधिक ( समूचे जीव ) तिम कहियो । पिण एतलो विशेष प्रनादी. अप्रमादी. प वे भेद संतरा न करवा । जे अधिक पाठ में संयती रा वे भेड़ किया ते वे भेद कृष्ण. नील.. कापोतले संपतीरान हुवे । ते कृष्णादिक ३ प्रतादी में है | अनें अप्रमादी में नथी । ते माडे वे भेद करवा नथी। बाकी भोधिक नों पाठ को.. तिम कवि । ते अधिक नों पाठ लिखिये छै । / ३१
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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