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________________ বাজি-অগিন্ধা। ४१६ कल्पना करता थका. सु० भला शील आधार छै जेहनों. मु० भला प्रत. द्रब्य रूप जेहनों सु० आहलाद हर्ष सहित चित्त है. साधु ने विषे जेहना. सा० साधु श्रेष्ठ वृत्तिवन्त. अथ इहाँ साधु. श्रावक. बिहूं ने धर्म ना करणहार कह्या । ते साधु सर्व धर्म ना करणहार अनें श्रावक देश थकी धर्म नों करणहार। पली साधु अनें श्रावक ने "सुब्बया" कह्या। ते भला ब्रत ना धणी कह्या। ते साधु सर्व व्रती ते माटे सुब्रती. अनें श्रावक देश थकी ब्रती ते माटे सुव्रती. ए साधु श्रावक नों पाठ एक सरीखो पिण अर्थ एक सरीखो नहिं तिम ६ गुणा में "बहुस्सुए" ते घणा मूत्र नों जाण अनें एकल ना ८ गुणा में “बहुस्सुए” ते नवमा पूर्व नी तीजी बत्थु नों जाण एहवो अर्थ कियो ते मानवा योग्य छै। ते माटे बीजा साधु छतां नवमा पूर्व नी तीजी वत्थु भण्या विना एकल फिरे। ते वीतराग नी आज्ञा बाहिर छै । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो। इति ७ बोल सम्पूर्ण। तथा बृहत्करुप उ० १ कह्यो । ते पाठ लिखिये है। नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियार भूमि वा विहार भूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तएवा ॥ (वृहत्कल्प उ० १ बो० ४७ ) न० न कल्पे. नि. साधु ने. ए० एकलो उठवो. जायवो. रा० रात्रि में विषे. वि० सूम अस्त पामते छते. संध्या न विषे. २० बाहिर. स्थंडिल भूमिका में विषे. वि० स्वाध्याय भूमि न विष नि० स्थानक थकी बाहिर निकलवो. स्वाध्याय प्रमुख करवा ने पेसवो न कल्पे । ___ अध इहां पिण कह्यो । घणा साधां में पिण रात्रि में तथा विकाल में विषे एकला में दिशा न जाणो, तो जे एकलो इज रहे ते किण ने साथे ले जावे। ते माटे
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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