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________________ ५२ भ्रम विध्वंसनम्। च बतायां अन्तराय लागे तो मिथ्या दृष्टिरो सम्यग्दृष्टि किम हुवे । धर्म अधर्म री ओल. खना किम आवे ओलखणा तो साधुरी बताई आवे छै। डाहा हुवे तो विद्यारिः जोइजो। इति १ बोल सम्पूर्ण। हिवे जे असंयती अन्यतीथीं ना दान रा फल कडुआ सूत्र में कह्या छ । ते पाठ मरोड़ी विपरीत अर्थ केतला एक कर छ। ते ऊधा अर्थरूप भ्रम मिटावा ने सिद्धान्त ना पाठ न्याय सहित देखाड़े छै। प्रथम तो आनन्द श्रावक नो अभिग्रह कहे छ। ताएणं से आणंदे गाहावइ समणस्स भगवो महावीररस अंतिए पंचाणबईयं सत्त सिक्खावइयं दुवाल सविहं. सावागधाम पडिवजहि २ तासमणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–णो खलु मे भंते ! कप्पइ अजप्पभइओ अण्ण उस्थिएवा अणउत्थिय देव यारिणवा अण उत्थिय परिग्गहियाणिवा अरिहन्त चेइयाति १ बंदित्तएवा नससित्तएवा पुब्बिं अणालवित्तेणं आलवित्त:: एवा संलवित्त एवा तेसिं असणं वायाणंवा खाइमंवा साइमंवा दाउवा अणुप्पदाउवा नन्नस्थ रायाभिओगेणं, गणाभियोगेणं, वलाभिन्नोगेणं देवाभियोगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्ती कतारेणं । . (उपासक दशा ०१)
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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