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अथ निर्ग्रन्थ निद्राधिकारः .
केतला एक अज्ञानी-साधु नींद लेवे तिण ने प्रमाद कहे-आज्ञा · बाहिर कहे। तिण ने प्रमाद री ओलखणा नहीं। प्रमाद तो मोहनी कर्म रा उदय थी भाव निद्रा छै। ए द्रव्य निद्रा तो दर्शनावरणीय रा उद्य थी छै। ते माटे प्रमाद नहीं प्रमाद तो आज्ञा बाहिर छै। अने साधु निद्रा लेवे तेहनी घणे ठामे भगवन्त आज्ञा दीधी छै । दश वैकालिक अ० ४ गा० ८ में कह्यो ते पाठ लिखिये छ।
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयंसये । जयं भुजंतोभासंतो पाव कम्मं न बंधइ ॥८॥
. (दश वैकालिक अ० ४ गा०८)
ज० जयणाई चाले. ज० जयणाई उभौरहे. ज० जयणाई बेठे. ज० जयणाई मुवै. ज. जयणाई जीमे. ज० जयणाई बोले तो ते साधु ने पाप कर्म न बंधे.
अथ इहां जयणा थी सूतां पाप कर्म न बंधे इम कह्यो। ए द्रव्य निद्रा प्रमाद हुवे तो सोवण री आज्ञा किम दीधी। अने पाप न बंधे इम क्यूं कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।
तिवारे कोई कहे ए तो सोवण री आज्ञा दीधी पिण निदा रो नाम न कह्यो - तेहनों उत्तर-ए सूता कहो भावे द्रव्य निद्रा कहो एकहिज छै । दशवकालिक अ० - ४ कह्यो ते पाठ लिखिये छ।