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प्रायश्चित्ताऽधिकार।
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सब्वेविणं भंते ! भव सिद्धिया जीवा सिझिस्संति हता जयंती! सव्वेविणं भवसिद्धिया जीवा सिझिसंति।
( भगवती श० १२ उ० २)
स० सर्व पिण. भ. हे भगवन्त ! भ० भव सिद्धिक. जीव सीझस्ये. हं० हां ज० जयन्ती माविका ! स० सर्व पिण. भ० भवसिद्धिक. जी. जीव. सि० सीजस्ये ।
अथ इहां इम कह्यो-सर्व भवी जीव मोक्ष जास्ये। ते मोक्ष जावा योग्य भवी लिया. पिण और अनन्ता भवी मोक्ष न जाय. ते न कह्या। मोक्ष जावा योग्य सर्ब भवी जीवां आश्री सर्ब भवी सीजस्ये इम कह्यो। तिम कषाय कुशील अपडिसेवी कह्यो। ते पिण विशिष्ट परिणाम नों धणी अप्रमत्त तुल्य अपडिसेवी कह्या जणाय छै। तथा दीक्षा लेतां अथवा पुलाक वक्कुस पडिसेवणा तजी कषाय कुशोल में आवे ते वेलां आश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया अपडिसेवी न थी जणाय। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो। .
इति १४ बोल सम्पूर्ण।
तथा भगवती श० १२ उ०५ में कह्यो । ते पाठ लिखिये छै। धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलित्थकाए एए सब्बे अवण्णा जाव अफासा णवरं पोग्गलित्थकाए पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अटफासे पण्णत्ते ॥ १५ ॥
(भगवती श० १२ उ०५)
ध० धर्मास्तिकाय. जा० यावत. पो० पुद्गलास्तिकाय. ए. ए. स० सर्व प्र० वर्ण रहित छ । जा० यावत. भ० स्पर्श रहित छ. ण. एतलो विशेष. पो० पुद्गलास्ति काय में. पं० पांच प्रा. पं. पांच रस. दु० ये गन्ध. भ. पाठ स्पर्श परूया।