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भ्रम विध्वंसनम् ।
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तथा उत्तराध्ययन अ० १ कह्यो। ते पाठ लिखिये छ। नाइदूर मणासन्ने नन्नेसिं चक्खु फासो। एगो चिटुंजा भत्तट्टा लंघित्ता तं नाइकम्मे ॥३३॥
( उत्तराध्ययन अ० १)
ना० भिक्षाचर ऊभा हुई तिहां अति दूर ऊभी न रहे. म० अति समीप उभो न रहे. जिहां गोचरी जाय तिहां. न० नहीं ऊभो रहे भिखारी नी तथा गृहस्थ नी दृष्टिगोचर भावे तिहां ए० एकलो राग द्वेष रहित. चि० उभो रहे अशनादिक ने अर्थे. लं० अनेरा भिखारी ने उल्लडी ने प्रवेश न करे. ते दातार ने अप्रतीत उपजे ते भणी.
अथ इहां पिण कह्यो। राग द्वेष ने अभावे एकलो ऊभो रहे पिण भिख्यासां में उल्लंघी न जाय इम कह्यो। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण ।
तथा सूयगडाङ्ग ध्रु० १ ० ४ उ० १ कह्यो। ते पाठ लिखिये छै।
जे मायरं च पियरं च विप्पजहा य पुव्व संयागं एगे सहिए चरिस्सामि आरत मेहुणो विवित्तेसी ॥१॥
(सूयगडांग अ०४ उ०१ गा०१)
जे मा० है माता ना पिता ना पूर्व संयोग छांडी न. ए० एकलो ही राग द्वेष रहिता ज्ञानादि सहित छांड्या छै मैथुन जेणे. वि० स्त्री पुरुष पंडग पशु रहित स्थान नो गवेषणहार...