Book Title: Bhram Vidhvansanam
Author(s): Jayacharya
Publisher: Isarchand Bikaner

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Page 512
________________ अल्पपाप वहु निजराऽधिकारः । श्रा० लोहारशाला यावत् भ० भवन घर म० महा. पु० पृथ्वी कायना आरम्भ करी. जा० यावत ० श्रभिकाय. पु० पहिलां प्रज्वालित भ० हुई. जे० जे साधु त० तथा प्रकार. प्रा० लोहारशाला. यावत् भ० भवन घर उ० जावे. इ० इम पा० ढक्या मकान में विषे. व० रह्यां थकां ए० एक पक्ष कर्म. से० सेवे तो श्र० आयुष्मन् ! अल्प (नहीं सा० सावय क्रिया भ० हुई ॥ १६ ॥ ४५५ अथ इहां कह्यो - साधु रे अर्थे कियो उपाश्रयो भोगवै तो महासाघद्य क्रिया लागे । दोय पक्ष रो सेवणहार केह्यो । अनें गृहस्थ पोता में अर्थे कीधा उपाश्रय साधु भोगवे तो एक शुद्ध पक्ष से सेवणहार कह्यो । अर्ने अल्प सावध क्रिया कही । ते सावध क्रिया नहीं इम कह्यो । जे बहुत निर्जरा नी अपेक्षाय अल्प थोड़ो पाप कहेत्यांरे लेखे इहां आधा कम स्थानक भोगव्यां महा सावद्य क्रिया कही । तिम महा मी अपेक्षाय शुद्ध उपाश्रय भोगव्यां अल्प सावद्य ते थोड़ी सावध क्रिया तिरे लेखे कहिणी । अनें इहां अल्प थोड़ो सावद्य न सम्भवे, तो तिहां पिण अल्प थोड़ो पापन सम्भवे अनें निर्दोष उपाश्रय भोगव्यां थोड़ो सावध लागे तो किस्यो उपाश्रय भोगव्यां सावध न लागे । तिहाँ टीकाकार पिण. अल्प सावद्य ते "सावध न थी" इम कह्यो । पिण महा सावध नी अपेक्षाय थोड़ो सावद्य इम न कह्यो । तिम बहुत निर्जरा रे ठामे अल्प थोड़ो पाप न सम्भवै । वहुत निर्जरा नी भपेक्षा अल्प थोड़ो पाप कहे ए अर्थ अण मिलतो सम्भवै छै । ते माटे अप्राशुक अनेपणीक भाहार क्षण जाणतां दियां बहुत निर्जरा हुवे अनें पाप न हुवे | एम न्यायं सूं मिलतो छै । वली ए पाठ नों अर्थ केवली कहै ते सत्य छै । डाहा हुवे तो विचारी जोइ जो । इति १० बोल सम्पूर्ण | इति अल्पपाप बहु निर्जराऽधिकारः !

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