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भ्रम विध्वंसनम् ।
अथ इहां अवचूरी में विण कह्यो । निर्दोष मर्यादा सहित आहार वांछे । एहवे आहार लाधे छते गुरु वृद्ध नी सेवा ज्ञानादिक नों कारण छै । ते भारावा समर्थ हुई । तथा गच्छ मध्ये रह्यो छतो निपुण सखाइयो वाँछे। पहवो सखाइयो मिल्ये छते ज्ञानादिक ना हेतु गुरु वृद्ध नी सेवा छै । ते अति हो करणी आवे तथा स्त्रयादिक संसर्ग रहित उपाश्रय वांछे जो स्त्रियादिक सहित उपाश्रये रहे तो तेहनों संसर्ग चित्रा ना विप्लव नी उत्पत्ति थकी गुरुवृद्ध नी सेवा ज्ञानादिक ना कारण fati थकी निपजे । हां गुरु बृद्धनी सेवा नें अर्थे शिष्य वाणो को । ए तो गच्छ माही रह्या साधु नी विधि कही । निकलवानी विधि कही न दीसे । अनें एहवो शिष्य न मिले तो एकलो पाप रहित विवरणो कह्यो । ते चेलां नें अभावे गुरु गुरु भाई सहित नें बिण एकलो कह्यो । तथा राग द्वेष ने अभावे एकलो कहोजे । राग द्वेव रूप बीजा पक्ष में न वर्त्ते ते घणा मैं रहितो पण एकलो कहि ।
सहाय नों दणहार
पिण गच्छ बाहिर
तथा उत्तराध्ययन अ० ३२ वे गाथा कही, ते लिखिये छै ।
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नाणस्स सब्वस पगासणाए,
अन्ना मोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसरस य संखणं,
एगंत सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२॥ तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा,
विबजरणा बाल जणस्स दूरा ।
साय एगंत निसेवरणाय,
सुतत्थ संचियाधि ई ॥ ३ ॥
उत्तराध्ययन ० ३२ )
ना० मतिज्ञानादिक. स० सर्व ज्ञान मे विषे प० निर्मल करने करो ने अ० मति प्रशाव० वर्जवे करी. रा० राग श्रनं दो० द्वेष सम्यक प्रकारे पायें मु० मोक्ष ॥२॥
त० ते
नादिक. अन मा० दर्शन मोहनी में वि० विशेष. तेहने सावे सन जय करो से ए० एकान्ती