Book Title: Bhram Vidhvansanam
Author(s): Jayacharya
Publisher: Isarchand Bikaner

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Page 478
________________ একাকিলামিস্কাৰ:।। ४२१ w wwvon. . . ........ . . . . अथ अठे तो कह्यो। जे ज्ञानादिक में अर्थ गुर्वादिक नी सेवा करे ते गच्छ मध्यवर्ती साधु निपुण सखाइयो बांछै। ते सहाय नों देणहार सखाइयो मिलतो न जाणे तो पाप कर्म वर्जतो थको एकलोइ विचरे। इहां गच्छ मध्यवर्ती थको एहवो चेलो वांछै, इम कह्यो। न मिले तो एकलो रहे। ते चेला ने अभावे एकलो कह्यो। परं गच्छ मध्य कह्यां माटे गुरु. गुरुभाई आदि समुदाय सहित जणाय छै । तिवारे कोई कहे गच्छ मध्यवर्ती ए तो अर्थ में कह्यो, पिण पाठ में नहीं। इम कहे तेहनों उत्तर-ए अर्थ पाठ सूं मिलतो छै। ते माटे मानवा योग्य छै। जिम आवश्यक सूत्रे पाठ में तो कह्यो छै "छप्पइ संघट्टणयाए" छप्पइ कहितां जूं तेहनों संघटो करणो नहीं, इहां पाठ में तो जू नों संघटो किम न करे । अने एहनों अर्थ इम कियो जे जू नों अविधे संघटो करणो नहीं। ए अविध रो नाम तो अर्थ में छै ते मिलतो छै। तिम ए पिण अर्थ मिलतो छै। तथा आवश्यक अ० ४ कह्यो। “परिकमामि पंचहिं महब्बएहि" इहां पञ्च महाव्रत थी निवर्तयो कह्यो। ते महाव्रत थी किम निवर्त। महाव्रत तो आदरवा योग्य छै। एहनों अर्थ पिण इम कियो छै। ते पंच महाव्रतां मे अतीचारादिक दोष थी निवर्तवो। ए पिण अर्थ मिलतो छै। इत्यादिक भनेक अर्थ मिलता मानवा योग्य छै। एहनी ज अवचूरी में एहवो कह्यो । ते अवचूरी लिखिये छ। श्राहार मशनादिकम् अपे र्गम्यत्वा दिच्छे दभिलषे दपिमित मेषणीय मेवा दान भोजने तद्रा पास्ते. एवं विधाहार एवहि प्रागुक्त गुरु वृद्ध सेवादिज्ञान कारणान्याराधयितुं क्षमः। तथा सहायं सहचरमिच्छेद्गच्छान्तर्वर्ती सन् शत गम्यं । निपुणाः कुशलाः अर्थेषु जीवादिषु बुद्धि रस्येति निपुणार्थ बुद्धिस्ते अतिदृशोहि स यः स्वाच्छन्द्योपदेशादिना ज्ञानादि हेतु गुरु वद्ध सेबादि भ्रंशभेव कुर्यात् । निकेतनाश्रय मिच्छेत् । विवेकः स्त्रयादि संसर्गाभाव स्तस्मैभ योग्य मुचितं तदा पाताद्य संमवेन विवेक योग्यं अविविक्ता श्रयोहि स्त्रयादि संसर्गाचित्त विप्लवोत्पत्तौ कुतो गुरु वृद्ध सेवादि ज्ञानादि कारण संभवः समाधिआनादीनां परस्पर मवाधनया वस्थानं तं कामयतेऽभिलषति समाधिकामो ज्ञानाद्या वास्तु काम इत्यर्थः श्रमण स्तपस्वी ।

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