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प्रायश्चित्ताऽधिकार।
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अणुत्तरोववाइयाणं भंते ! देवा किं उदिण्ण मोहा उवसंत मोहा खीण मोहा, गोयमा! नो उदिगण मोहा. उवसंत मोहा. णो खीण मोहा.
(भगवती श०५ उ०४)
भ० अनुत्तरोपपात्तिक. भ. हे भगवन्त देव ! किं स्यूं उत्कट घेद मोहनी 2. उ० उपशान्त मोहनी छै. अमुत्कट वेद मोहनी, गो० गोतम ! यो० नहीं उ० उत्कट वेद मोहनी. उ. उपशान्त मोहनी है. णो नहीं क्षीण मोहिनी।
अथ इहां कह्यो-अनु तर विनि ना देवता उदीर्ण मोह न थी। अनें क्षीण मोह न थी। उपशान्त मोह छै, इम कह्यो। इहां मोह ने उपशमायो कह्यो। अनें उपशान्त मोह तो इग्यारवे ११ गुणठाणे छै। अनें देवता तो चौथे गुगुणठाणे छै, तिहां तो मोह नों उदय छै। तेहथी समय २ सात २ कर्म लागे छै। मोह नों उदय तो दशमे गुणठाणे ताई छै। मैं इहां तो देवता ने उपशान्त मोह कह्यो, ते उत्कट वेद मोहनी आश्री कह्यो। तिहां देवता ने परिचारणा न थी ते माटे वहुल वेद मोहनी आश्री उपशान्त मोह कह्यो। पिण सर्वथा मोह आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या। टीकामें पिण इमेज अर्थ कियो छै। लिण अनुसार विमान ना देवता में उत्कट वेद मोह आश्री उपशान्त मोह कह्या। पिण सर्व मोहनी री प्रकृति रे आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या। तिम कषाय कुशील ने अपडिसेवी कह्यो। ते पिण विशिष्ट परिणाम ना धणी आश्री अपडिसेवी कह्यो। तथा दीक्षा लेता अथवा पुलाक वक्कुस पड़िसवणा तजी कषाय कुशील में आवे ते वेलां आश्री अपडिसेवी कह्यो जणाय छै। पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया मपडिसेवी नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १२ बोल संपूर्ण।
तथा भगवती श० ७ ० ८ पहवो कह्यो ते पाठ लिखिये छ। .
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