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पुण्याधिकारः ।
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३० मनुष्य सम्बन्धी जी० श्रायुषो रा० हे राजन् श्र० अशाश्वत ( अनित्य ) तेहनें विषे ध० प्रतिहि पु० पुराय नी हेतु शुभ अनुष्ठान ते. अ० श्रणकरण हारो जे जीव. से० ते. सो० सोचे पश्चात्ताप करे. म० मृत्यु ना ' मुखे पहुन्तो तिवारे ध० धर्म. ० की थ सोचे. प० परलोक नें विषे.
अथ इहां तो को-हे राजन् ! अशाश्वत जीवितव्य ने विषे गाढा पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान शुभ करणी न करे ते मरणान्त ने विषे पश्चात्ताप करे । इहां पुण्यशब्दे पुण्य नो हेतु शुभ अनुष्ठान ने कह्यो । तिहां टीका में पिण इम कह्यो ते टीका लिखिये छै ।
“पुराणा इं अकुव्वमाणेति - पुण्यानि पुण्य हेतु भूतानि शुभानुष्ठानानि श्रकुर्वाणः”
इहां टीका में पिणको - पुण्य ते पुण्य ना हेतु शुभ अनुष्ठान अणकरे तो मरणान्ते पिछतावे । इहां कोई कहें पुण्य शब्द पुण्य नो हेतु. शुभ अनुष्ठान. हवो पाठ में तो न कह्यो । ए तो अर्थ में कह्यो । अने पाठ में तो पुण्य करे नहीं ते पिछतावे इम को छै । इम कहे तेहनों उत्तर - पुण्य शब्दे
को ते अर्थ मिलतो छै । अनें तूं पुण्य हां पुण्यशब्देकरी पुण्य ना हेतु शुभ विचारि जोइजो ।
पुण्य नो हेतु अर्थ में कर पहवो तो पाठ में कह्यो नथी । अने अनुष्ठान में ओलखायो है । डाहा हुवे तो
इति २ बोल सम्पूर्ण ।
तथा उत्तराध्ययन अ० १८ गा० ३४ में पिण इम कह्यो छे ते पाठ लिखिये छै ।
एयं पुण्यपयं सोच्चा भरो विरहं वासं
अत्थ धम्मो वसोहियं । चिच्चा कामाइ पव्व ॥ ३४॥
उत्तराध्ययम उ०१८ )