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भ्रम विध्वंसनम् ।
किम सरावे। तथा उपासक दशा अ० १ श्रावक ने संलेखना ना ५ अतीचार जाणवा योग्य पिण आदरवा योग्य नहीं पहबूं कह्यो तिहां परलोक नी वांछा करणी श्रावक में पिण वर्जी तो स्वर्ग तो परलोक छै तेहनी वांछा भगवान् किम सरावे। ए ५ अतीचार आदरवा योग्य नहीं एहवो कहां माटे परलोक नी वांछा पिण आदरवा योग्य नहीं। तो परलोक नी वांछा किम कहीजे । इन्द्रादिक पदवी नी वांछा ते परलोक नी वांछा, ते इन्द्रादिक पदवी तो पुण्य थी पावे छै। जे परलोक नी वांछा आदरवा योग्य नहीं, तो पुण्य पिण आदरवा योग्य किम हुवे। इन्द्रादिक पदवी तो पुण्य थीज पावे छै, ते माटे इन्द्रादिक पद. अनें पुण्य. बिहूं आदरवा योग्य नहीं। इणन्याय पुण्य नी वांछा अनें स्वर्ग नो वांछा भगवान् सरावे नहीं। वली कह्यो एक निर्जरा टोल और किणही ने अर्थे तपस्या न करणी तो पुण्य ने अर्थे तपस्या किम करणी। पुण्य ने अर्थे तपस्या न करणी तो पुण्य ने आदरवा योग्य किम कहिए । तथा उत्तराध्ययन अ० १० गा० १५ में कह्यो “एवं भय संसारे संसरइ सुभासुभेहिं कम्मेहिं" इहाँ पिण शुभ अशुभ ते पुण्य. पाप. कर्मे करी संसरता ते पचता कया। इम पुण्य. पाप. ना विपाक ने निषेध्या छै। ते पुण्य पाप में भादरवा योग्य किम कहिए । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति १ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक अजाण कहे-जे चित्तजी ब्रह्मदत्त ने कह्यो। जे तूं पुण्य न करसी तो मरणान्ते घणो पिछतावसी इम कहे ते एकान्त मृषावादी छै। तिहां तो पहवो पाठ कह्यो छै ते लिखिये छै। इह जीविए राय असासयम्मि,
धणियं तु पुण्णाइ अकुब्वमाणे । सेसीयइ मच्चुमुहोवणीए,
धम्मं अकाऊण परम्मिलोए ॥२१॥
उत्तराध्ययन भ. १३ गा.२१)