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आज्ञाऽधिकारः ।
व० वाहिर वि० स्थंडिले जाइवो. वि० स्वाध्याय करिवा नी भूमिका में विषे जायवो. पा० पेसवो.
अथ अठे पिण कह्यो-रात्रि तथा विकाले "विकाल ते सन्यादिक केतलीक वेला ताई विकाल कहिई ) न कल्पे एकला साधु ने स्थानक बाहिरे दिशा जाइबो तथा स्थानक बाहिर स्वाध्याय करवा जाइवो। अन आप सहित बे जणा ने तथा तीन जणा में स्थानक वाहिरे दिशा जाइ वौ तथा स्वाध्याय करवा जायवो कल्पे। इहां पिण रात्रि में विषे स्थानक वाहिरे दिश जावारी तथा स्वाध्यायकरवारी आज्ञा दीधी। तिहां रात्रिमें अपकाय वर्षे ते माटे इहां पिण जीवरी घात छै। जो नदी उतसां जीव मरे तिण रो पाप कहै तौ रात्रिमें स्थानक वाहिरे दिशा जावै तथा स्वाध्याय करवा जावै तिहां पिण तिण रे लेखे पाप कहिणौ। अने रात्रिमें दिशा जाय तथा स्वाध्याय करवा जाय तिहां पाप नहीं तो नदी उतसां पिण पाप नहीं। तथा स्थानक बाहिरे दिशा जाय तथा स्वाध्याय करवा जाय ए बिहूं ठिकाणे जीव री घात छै अनें बिहूं ठिकाणे जिन आज्ञा छै। जो इण कार्य में पाप हुवे तो उदेरी ने स्वाध्याय करवा क्यूं जाय, पिण इहां जिन आज्ञा छै ते माटे पाप नहीं। तिम नदी उतखां पिण पाप नहीं। जो वीतराग री आज्ञा में पाप हुवे तो किण री आज्ञा में धर्म हुवे। अने जे कार्य में पाप हुवे तिण री केवली आज्ञा किम देवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
इति आज्ञाऽधिकारः।