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भ्रम विध्वंसनम् ।
नो० न कल्पे. नि० साधु ने तथा नि० साध्वी नें. अं० गृहस्थ ना अन्तर घर में विषे. चि० उभो रहवी. नि० बैठवो. तु० सुयवो. नि० थोड़ी निद्रा करवी. प० विशेष निद्रा करवी. अ. अशन. पान. खादिम स्वादिम. आहार खावो. तथा. उ० वडी नीति पा० छोटी नीति खे० वलखादिक. सि० नासिका नों मल परिठवो. तथा. सा. स्वाध्याय करवो. मा० ध्यान ध्यावो. का० केयोत्सर्ग करवो. ठा० स्थान ठावो. नाकल्पे. अ० हिवे. पु० वली. ए. इम जाणवा. ज. जरा जोर्ण वा० रोगियो. थे० वृद्ध. त० तपस्वी. दु० दुर्वल. कि० क्लामना पाम्यो थको. मुमूर्छा पाम्यो. प० पड़तो थको. ए० एहवा नें. क० कल्पे. अं० गृहस्थ ना घर ने विचाले. आ० वसवो सुयवो जाव कहितां योवत स्थान ठायवो.
अथ इहां कह्यो-गृहस्थ ना अन्तर घर में विषे साधु ने स्वाध्यायादिक निद्रा पिण न कल्पे। जे अन्तर घर में विषे न कल्पे तो अन्तर घर बिना अनेरा घर ने विषे तो स्वाध्यायादिक निद्रादिक कल्पे छै। ते माटे अन्तर गृह में ए बोल बा छ। जिम स्वाध्याय ध्यानादिक और जगां कल्पे तिम निद्रा पिण कल्पे छै। भने जे व्याधिवन्त. स्थविर ( वृद्ध ) तपस्वी छ, तेहने ए सब बोल अन्तर घर में विषे पिण कल्पे छै। तिण में निद्रा पिण लेणी कही, तो जे निद्रा प्रमाद हुवे तो प्रमाद नी तो रोगी. तपस्वी. बृद्ध ने पिण आशा देवे नहीं। ते माटे ए द्रव्य निद्रा प्रमाद नहीं। अन्तर घर ते रसोढ़ादिक घर विचाले जगां ने कह्यो छै । अन्तर शब्द मध्यवाची छ। ते घरे रोगियादिक ने पिण निद्रा लेवी कही। ते माटे ए द्रव्य निद्रा प्रमाद नहीं, प्रमाद तो भाघ निद्रा छ। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ६ बोल सम्पूर्ण ।
तिवारे कोई कहे-द्रव्य निद्रा किहाँ कही. तेहनों उत्तर-सूत्र पाठ थी कहे छ ।
सुत्ता अमुणीसया। मुणिणो सया जागरंति ॥ १॥
(प्राचाराङ्ग म०३ उ.१)