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লিঙ্গ খ লিখিন্ধা।
सु० मिथ्यात्व अज्ञान रूप मोह निद्राई करी "सुत्ता" ते. अ० मिथ्यादृष्टि जाणवो. मुखी. तत्व ज्ञान ना जाणणहार मुक्ति मार्ग नों गवेषक. स० सदा निरन्तर. जा जागे हित समाचरे अहित परिहरे. यदपि बीजी पौरसी श्रादि निद्रा करे तथापि भाव निद्रा में प्रभावे ते जागता इज कहिइ.
___ अथ इहां कह्यो-मिथ्यात्व अज्ञान रूप मोह निद्रा करी सुत्ता अमुणी मिथ्यादृष्टि कह्या। अने साधु ने जागता कह्या। ते निद्रा लेवे तो पिण भाव निद्रा ने अभावे जागता कह्या। ते भाव निद्रा थी अहेत कह्यो। पिण द्रव्य निद्रा थी अहित न कह्यो। ते माटे द्रव्य निद्रा थी अहित नथी। तथा भगवती श०१६ १०६ “सुत्ताजागरा” ने अधिकारे अर्थ में द्रव्य निद्रा भाव निद्रा कही छै। तिहां भाव निद्रा थी तो पाप लागो छ। अने द्रव्य निद्रा थी तो जीव दवे छ। पिण पाप न लागे। एक मोहनी रा उदय बिना और कर्म रा उदय थी पाप न लागे। निद्रा में स्वप्नो आवे ते मोहनी रा उदय थी, ते भाव निद्रा छै, तेहथी पाप लागे। "थिणद्धि" निद्रा तो दर्शनावरणी रे उदय । अर्द्ध वासुदेव नों बल ते अन्तराय कर्म ना क्षयोपशम थी, माठा कार्य करे ते मोहनी रा उदय थी, जेतला मोह कर्म मा उदय थी कार्य करे ते सर्व भाव निदा छै कर्म बन्ध नों कारण छै। पिणे दुव्य निद्रा पाप नों कारण नथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ७ बोल संपूर्ण ।
इति निर्ग्रन्थ निद्राऽधिकारः।