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सूत्रपठनाऽधिकारः।
पंचेन्द्रिय ना उपयोगवन्त. मि. मिथ्या दृष्टि. क. कृष्ण लेश्यावन्त. उ० उत्कृट आकार. संक्लिष्ट परिणामवन्त इ० अथवा लिगारेक मध्यम परिणाम वन्त. ए० एहवो थको गो. हे गोतम ! थे. नारको उ० उत्कृष्ट काल नी स्थिति न० ज्ञाना दरणीय कर्म. ब० बांधे.
____ अथ इहां कह्यो-जे सन्नी पंचेन्द्रिय ‘पर्याप्तो जागरे सुत्तो वडत्ते" कहितां जागतो थको श्रुतोपयुक्त अर्थात् उपयोगवन्त ते मिथ्या दृष्टि कृष्ण लेश्यी उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम ना धनी तथा किश्चित मध्यम परिणाम ना धणी उत्कृष्ट स्थिति नों शाना वरणीय कर्म बांधे। इहां पंचेन्द्रिय ना अर्थना उपयोग ने श्रुत करो ते श्रुत नाम अनेक ठिकाणे अर्थनो छ। ते अर्थ ना जाण श्रावक होवा थी “सुय परिग्गहिया"कह्या छै। डाहा हुवे तो विचारि जोई जो।
इति १२ बोल सम्पूर्ण
तथा वली आवश्यक सूत्र मा अर्थ ने आगम कह्यो अने अनुयोग द्वार मा भावश्रुत ना दश नाम परूप्या तिहां आगम नाम श्रुत नो कह्यो छै ते पाठ लिखिए छ।
सेतं भाव सुयं तस्सणं इमे एगट्रिया णाणा घोसा णाणा वंजणा नाम धेजा भवंति तं जहा
सुयं सुत्तं गंथं सिद्धति सासणं आणत्ति वयण उवएसो। पण्णवणे आगमेऽविय एगढा पजवासुत्ते । स तं सुयं ॥४२॥
( अनुयोगद्वार।
से ते भा० भावश्रुत कहिए त ते भा३श्रुत ने. इ. एप्रत्यज्ञ ए० एकार्थक ना० जुदा जुदा घोष उदात्तादिक. ना. जुदा जुदा व्यंजनाज्ञर. णा० नाम पर्याय. प० परूया. तं० ते कहे छसु श्रुत. सु. सूत्र. गं० ग्रन्थ. सि. सिद्वान्त. सा० शासन. पा. पाता. व. प्रवचन उ० उपदेश. प. पूज्ञापन प्रा० अागम ए० एकार्थ प० पर्याय नाम सूत्र ने वित्र से ते. मु. सुत्र कहिई।