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भ्रमविध्वंसनम्।
मु० श्रुत ने ५० पाश्री त० त्रिण. प. प्रत्यनीक. प० परूप्या. तं०-ते कहे छे. सु० सूत्र मा प्रत्यनोक. अः अर्थ ना प्रत्यनीक खोटा अर्थ न भाव इत्यादिक त सूत्र अमें अर्थ ते बिहूंना प्रत्यनीक बैरी.
__ अथ इहां पिण श्रुत आश्री तीन प्रत्यनीक कह्या। सूत्र ना १ अर्थना २ अने विहूंना ३ । तिण में अर्थ ना प्रत्यनीक ने श्रुत प्रत्यनीक कह्यो तथा ठाणाङ्ग ठाणे ३ पिण इम हिज श्रुन आश्री तोन प्रत्यनीक कह्या तिहां पिण अर्थ ने श्रुत कह्यो इत्यादिक अनेक ठामे अर्थ ने श्रुत कह्यो छे। तेणे कारणे अर्थ ना जाण होवा माटे श्रावक ने "श्रुत परिग्रहीता" कहो पिण “सूत्र परिग्रहीता" किहां ही कह्यो न थी। डाहा हुवे तो विचार जोईजो।
इति ११ बोल सम्पूर्ण
तथा बली पत्नवणा पद २३ उ०२पंचेन्द्रिय ना उपयोग में श्रुत कह्यो छ ते पाठ लिखिये छै।
केरिसए नेरइये उक्कोस कालद्वितीयं णाणावरणिज्ज कम्म बंधति गोयमा ! सरणी पंचिंदिए सव्वाहिं एजती हिंपज्जत्ते सागारे जागरे सूतो वडते मिच्छादिट्ठी कण्ह लेसे उक्कोस संकिलिट्र परिणामे ईसि मज्झिम परिणामे वा एरिस एणं गोयमा ! णेरइए उकोस काल द्वितीयं णाणा वरणिज कम्मं बंधति ॥ २५ ॥
(पन्नवणा पद ०३ उ०२)
के कहवा थको यो नारकी. उ. उत्कृष्ट काल स्थिति नं. ण झाना नरणीय कर्म बांधे. गो. हे गोतम! स. संज्ञी पंचेन्द्रिय. स. सर्व पर्याप्तो. साकारोप योगवन्त जा० जागतो लिखा रहित नारकी ने पिण किवारेक निद्रा नो अनुभव हुई ते माटे जात वह्यो. सु० श्रतोययुक्त