________________
अथ संवराऽधिकारः।
केतला एक अज्ञानी संवर ने अजीव कहे छ। अनें संवर ने तो घणे ठामे सूत्र में जीव कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छै !
पंच संवर दारा प० तं सम्मत्तं १ विरइ २ अप्पमादे ३ अकसाया ४ अजागया ५ ।
(ठाणाङ्ग ठा०५ उ०० तथा समवायाङ्ग)
श्राप पांच सः सबर ते नोव रूप तनाय ने विप कम रूप जल ना अागमन रूंधवो. दातहना वारणा नो पर वार गा ते रूंधवा नों उपआय ५० परूया. तं ते कहे है. स. सम्यक्व पणे करी न रूमिथ्यात्व रूप पार ने वि. वितिर अप्रमाद ३ अ. अकषाय ४ अ. अजोग पणो'।
अथ अठे सम्यक्त्व संवर सम्यग्दृष्टि शुद्ध श्रद्धा ने ऊधी श्रद्धण रा त्याग ॥१॥ व्रत ते सर्व चारित्र देश चारित्र रूप ॥२॥ अप्रमाद ते प्रमाद रहित ॥३॥ अकषाय ते उपशान्त कवाय ने तथा क्षीण कवाय ने हुई ॥ ४॥ अयोग ते मन वचन काया नों योग धे च उदमे गुणठाणे हुई ॥ ५ ॥
इहाँ सम्यक्त्व शुद्ध श्रद्धा ने ऊधो श्रद्धण रा त्याग, ते सम्यग्दृष्टि ने सम्यक्त्व सम्बर कह्यो। तथा टागाङ्ग ठा० २ उ० १ जीव किरिया दुविहा प० त० सम्मत्त किरिया. मिच्छ त किरिया.' इहां सम्यक्त्व मिथ्यात्व में जीव कह्यो। मिथ्यात्व क्रिया में मिथ्यात्य आश्रय, अनें सम्यक्त्व क्रिया ऊधो श्रद्धण रा त्याग. अनें शुद्ध श्रद्धा रूप सम्यक्त्व संवर कहीजे। इणन्याय सम्यक्त्व संवर जीव छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति १ बोल सम्पूर्ण।