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दानाऽधिकारः
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तएणं से गोयमे आणंदे समणोवासए एवं वयासी–अस्थि आणंद ! गिहिणो जाव समुपज्जति णो चेव णं एवं महालए तेणं तुम्हं आणन्दा ! एयरस ट्ठाणस्त आलोएहि जाव तवोकम्म पड़िवज्जहि ॥ ५ ॥
( उपासक दशा अ०१) -
तिबारे पहे. अानन्द श्रमणोपासक ने. भ० भगवान् गोतम ने. ति विशवार. मु० मस्तके करी. पा० चरणा ने. विषे वांदे. ण नमस्कार करे वांदो में नमस्कार करी ने इम बोल्या अ०है. भ० हे पूज्य भगवन् ! गि गृहस्थ में. गि गृहवास. म० माहे. व० वसता ने प्रो० अवधि ज्ञान स० ऊपजै हं० हां आनन्द ! उपजे. जं. जो. भ० हे पूज्य भगवन् ! गि गृहस्थ में गि० गृहवास माहे. व० वसता ने श्रो० अवधि ज्ञान उपजे. ए. इम. ख. निश्चय करी ने. भ. हे भगवन्त ! म० मुझने पिण गि० गृहस्थ ने. गि गृहवास माहे. व० वसता ने. प्रो० अवधि ज्ञान. स. उपनो छै. पू० पूर्वदिश ल० लवण. स. समुद्र माहे. प० पांच सौ योजन लगै जाण-देखू. इम दक्षिण में पश्चिम उ तर चूल हेमवन्त पर्वत ऊंचो सुधर्म देवलोक लगै. जा. यावत् लो० लोलुच पाथड़ो नोचो पहिलो नरक नों नरकाबासो जाणू छू। त० तिवारे पछे. से० ते. भगवन्त. गोः गोतम. श्रा० अानन्द. स० श्रावक प्रते. ए• इम. प० बोल्या. श्रा० उपजे तो है. श्रा० हे पालन्द ! गि गृहस्थबास. म. माहे. व० वलता ने. स० श्रावक ने श्रो० अवधि ज्ञान स० उपजे छे. पिण णो नहीं उपजे छ निश्चय एवड़ो मोटो अवधि ज्ञान त० तिण कारण. तु० तुम्हे. पा० ग्रहो श्रागान्द ! ए. ए. ठा० स्थानक झूठ नो. प्रा० अालोवो. निन्दवो. जा० यावत. त० तपकर्म. १० अंगीकार करो ।
अथ इहां आनन्द श्रावके सन्थारा में पिण गोतम ने कह्यो-जे हूं गृहस्थ छ. अनें घर मध्ये वसता ने एतलूं अवधि ज्ञान उपनो छै। तो जोवोजी संथारा में पिण आनन्द में गृहस्थ कहिये। घर मध्ये वसतो कहिये। तो पडिमा में घर मध्ये वसतो गृहस्थ किम न कहिये। इण न्याय पडिमाधारी श्रावक में गृहस्थ कहिये। अनें “निशीथ उ० १५' गृहस्थ में अशनादिक दियां देता ने अनुमोद्यां चौमासो दंड कह्यो। तो पडिमाधारी पिण गृहस्थ छै, तेहनां दाल ने साधु अनुमोदे तो तेहनें दंड आवे तो देण वाला ने धर्म किम हुवे। तिबारे कोई कहे गृहस्थ नों दान साधु ने अनुमोदनों नहीं ते माटे साधु अनुमोदे तो तिण ने दण्ड आवे। पिण गृहस्थ में धर्म हुवे। इम कहे, तेहनो उत्सर-ए निशीथ १५ उद्देशे