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दानाऽधिकारः।
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माग नतुओं' नों तथा अम्बड नों जेहवो कल्प आचार हुन्तो. ते बतायो , पिण जिन आज्ञा नहीं। तो पडिमाधारी ने न्यातीला रे घरे वहिरवो कल्पे, एह पिण तेहनो जे कल्प ( आचार ) हुन्तो ते बतायो पिण आज्ञा नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ३६ बोल सम्पूर्ण।
तथा वली उत्तराध्ययन में कह्यो। सर्व श्रावक थकी पिण साधु चारित्र फरी प्रधान छै । इम कह्यो, ते पाठ कहे छै ।
संति एगेहिं भिक्खूहिं गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहिं सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥
( उत्तराध्ययन अ०५ गा०२०)
सं० छै. ए० एकक. भी० पर पाषंडी कापडीयादिक ना भिक्षु थी. गा० गृहस्थ नो १२ व्रत रूप सं० संयम. उ० प्रधान. गा० गृहस्थ. स. सगलाई देशवती थकी सा० साधुनों सर्बव्रती ५ महाव्रत रूप. संयम करी उ० प्रधान छ ।
अथ इहां इम कह्यो-जे एकैक भिक्षाचर अन्यतीर्थी थकी गृहस्थ श्रावक देशव्रते करी प्रधान अनें सर्व गृहस्थ थकी साधु सर्व व्रते करी प्रधान । तो जोवोनी सर्व गृहस्थ थकी पिण सर्व व्रते करी साधु ने प्रधान कह्यो। तो पडिमाधारी श्रावक साधु रे तुल्य किम आवे। सर्व गृहस्थ में तो पडिमाधारी पिण आयो । ते श्रावक पडिमाधारी पिण देशब्रती छै। ते माटे सर्व व्रती रे तुल्य न आवे । इणन्याय “समणभुए" पडिमांधारी श्रावक ने कह्यो। ते देशथकी व्रता रे लेखे उपमा दीधी छै। परं तेहनों खाणो पीणो तो ब्रत नथी। तेहनी तपस्या में. धर्म है, परं पारणा में धर्म नथी। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ४० बोल सम्पूर्ण ।