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श्रम विध्वंसनम् ।
जी० जीव. भ० हे भगवन् ! श्र० श्राहारिक शरीर प्रते णि० निपजावतो तो कियूं अधिकरण एप्रन गो० हे गोतम ! अ० अधिकरणी पिण. अ० अधिकरण पिण. से ० से. के० केहे थे. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. गो० हे गोतम ! प० प्रमाद प्रते आश्रयी नें. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. ए० एम. मनुष्य पिण जाणवो.
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अथ अठे पिण आहारिक लब्धि फोडवी नें आहारिक शरीर करे तिण नें प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो । तो ए लब्धि फोड़े ते कार्य केवली री आज्ञा बाहिर कहीजे के आज्ञा माहि कहीजे । बिवेक लोचने करि उत्तम जीव विचारे । श्री भगवन्ते तो आहारिक लब्धि फोडे ते प्रमाद कह्यो ते प्रमाद तो अशुभ योग आव छैणि धर्म नहीं। डाहा हुये तो विचारि जोइजो ।
इति ३ बोल सम्पूर्ण ।
वली ए लब्धि फोड्यां पांच क्रिया लागती कही. ते पांच क्रिया लागे ते कार्य में धर्म नहीं । वली लब्धि फोडे तिण ने मायी सकपायी कह्यो छै ते पाठ लिखिये छै ।
से
माइ विकुव्वति यो अमाइ विकुव्वति ।
! किं माई विम्बइ. अमाइ विकुव्वइ गो०
( भगयती श० ३ उ०४ )
से० ते ० हे भगवन् ! कि स्यूं मायी वैक्रिय रूप को य० के अमायी वि० वैकिय रूप करे. गो० हे गोतम ! मायी विकू खो० पि श्रमायी न विकू श्रप्रमत्त गुणठाणा रो
धणी ।
अथ अठे वैकिय लब्धि फोडे सिंण नें मायी कह्यो । ते माटे सावद्य कार्य में धर्म नहीं ।
वली लब्धि फोडे ते बिना आलोयां मरे तो विराधक को छै । ते पाठ लिखिये छै ।