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भ्रम विध्वंसनम् ।
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परिषह मांहि थी निकलवो कहे, ते कृपावादी छै । प्रथम तो सूत्र में कह्यो । “वहाय गहाय” वध ते हवा में अर्थे शस्त्र प्रहो में हणे इम कह्यो। ते पाठ उत्थापी में "वाहाय गाहाय' पाठ थापे। ए वांहि रो पाठ तो कह्यो इज नथी । ते विरुद्ध पाठ लिखी ने अजाण ने भरमावे छै । टीका में पिण बध नों अर्थ कियो । पिण बांहि नों मर्थ कियो नहीं। तो ए वांहि रो पाठ किम थापिये। एहवी झूठी थाप करे तेहनें परलोके जिह्वा पामणी दुर्लभ छै। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ५ बोल सम्पूर्ण ।
तथा वली साधु उपदेश देवे ते पिण जीवण रे अर्थे जीवां रो राग आणी में उपदेश पिण न देणो एह कह्यो ते पाठ लिखिये छै।
अस्सेसं अक्खयं वावि सव्व दुक्खेति वा पुणो। वज्झापाणा उवझति इतिवायं न नीसरे ॥३०॥
(सुयगडांग श्रु० २ १०५ गा० ३०)
अ० जगत माहि समस्त बस्तु घट पटादिक एकान्त. अ० नित्य सासताइज है। इसो पचन न बोले। स० तथा वली सगलो जगत् दुःखात्मक छै इस्यूं पिण न बोले. इण कारण जग माहो. एकैक जीव ने महा सुखो बोल्या कै. यतः "तण संथार निविठो-मुणिवरो भग्ग रागगय मोहो। जे पावइ मुत्तिमुहं-कत्तोतं चकवट्टीवि" इति बचनात्। तथा वध विनाशवा योग्य चोर परदारक तेहनें. तथा ए पुरुष. अ० बधवा योग्य नथी. ए पिण न कहे । इम कहितां तेहनी कर्म नी अनुमोदना लागे। इणि परे सिंह व्याघ्र मार्जार मादिक हिसक जीव देखी चारित्रिया मध्यस्थ रहे. इ० एहवो बचन नहीं बोले ।
अथ अठे कह्यो-जीवां ने मार तथा मत मार एह पिण बचन न कहिणो। इहां ए रहस्य महणो २ तो साधु नो उपदेश छ। ते तारिवा ने अर्थे उपदेश देवे। मन इहाँ बर्यो. द्वेष आणी ने हणो इम न कहिणो। अने त्यां जीवा रो राग आणी में मत हणो इम पिण न कहिणो। मध्यस्थ पणे रहिवो। इहाँ शीलाक्षाचार्य कृत