________________
भ्रम विध्वंसनम् ।
संसपओगे लाभा संसप्पोगे पूया संसप्पयोगे सकारा
संप्पोगे ।
१३८
(ठाणाङ्ग ठा० १० )
६० दश प्रकारे. प्रा० इच्छा तेहनों प० व्यापार ते करिवो. प० परूप्यो तं ते कहे हैं, इह लोक ते मनुष्य लोक नी श्रसंसा जे तप थी हूं चक्रवर्ती श्रादिक होय जो. प० ए तप करण थी इन्द्र अथवा सामानिक होयजो दु० हूं इन्द्र थइ में चक्रवर्ती थायजो अथवा इह लोक ते जन्मेकाइ एक बांछे परलोके कांड एक बांछे बिहूं लोके कांइ एक बांछे. जि० ते चिरंजीवी हॉयजो म० शीघ्र मरण मुझ ने होवजो. का० मनोज्ञ शब्दादिक माहरे होयजो. भो० भोगवन्ध रसादिक माहरे होयजो. ला०ते कीर्त्ति श्लाघादिक नों लाभ मुझ में होयजो । पू० पूजा पुष्पादिक नी पूजा मुझ ने होयजो. स० सत्कार ते प्रधान वस्त्रादिके पूजवो मुझ ने होयजो
अथ अठे पिण कह्यो । जीवणो मरणो आपणो २ वांछणो नही तो पारको नें वांछसी । जीवण मरण में धर्म नहीं धर्म तो पचखाण में है । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति बोल सम्पूर्ण |
।
तथा सूयगडाङ्ग अ० १० में कह्यो । असंयम जीवितव्य बांछणो नहीं । ते पाठ लिखिये छै ।
निक्खम्म गेहा उ निराव कंखी, कायं विउ सेज्ज नियाण छिन्नो ।
नो जीवियं नो मरणा वर्कखी, चरेज भिक्खू बलया विमुक्के ॥
( सूयगडांग श्र० १ ० १० गा० २४ )