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भ्रम विध्वंसनम्।
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प्रतिकूल उपसर्ग करता ने वारे तेथी ते उपसर्ग करवा रूप अकार्य नू सेवणहार न हुई अने साधु पिण उपसर्ग में प्रभाव कार्य अकार्य करे उपसर्ग करतो वारयो 'तो ते थकी साधु पिण अकार्य थी राख्यो अने उपसर्ग थकी पिण आत्मा राख्यो. अथवा तु० साधु अणबोल्यो रहे निरापेक्षो थकां अने वारी न सके अबोल्यो पिण रही न सके तो तिहां थी उठी ने. आपण पे. ए. एकान्त भाग ने विषे मा जाई.
अथ अठे पिण कह्यो। हिंसादिक अकार्य करता देखी धर्म उपदेश देई समझावणो तथा अणवोल्यो रहे। तथा उठि एकान्त जावणो कह्यो। पिण जवरी सूं छोडावणो न कह्यो। तो रजोहरण ( ओघा ) थो मिनकी ने डराय ने उंदरां ने बचावे । तथा माका ने हटाय माखी ने बचावे । त्यांने आत्म-रक्षक किम कहिये। अने जो त्रस काय जवरी छोड़ावणी तो पंच काय हणता देखी ने क्यूं न छोडावणी नीलण फूटण माछल्यादिक सहित पाणीका नाड़ा ऊपर तो भैस्यां आवे । सुलिया धान्य रा ढिगला में सुलसुलिया इडादिक घणा छ। ते ऊपर वकरा भावे । जमीकन्दरा ढिगला ऊपर वलद आये। अलगण पाणी रा माटा ऊपर गाय आवे ऊकड़ री लटां सहित छै सेहनें पक्षी चुगै छै। उंदरा ऊपर मिनकी आवे । माखिया ऊपर माका आवे। हिवे साधु किण ने छुड़ावे। साधु तो छकाय नो पीहर छै । जे उंदरा ने माख्यां ने तो बचावे अनेरा ने न वंचावे ते कांई कारण। ए जवरी सूं बचावणो तो सूत्र में चाल्यो नहीं । भगवन्त तो धर्मोपदेश देइ समझाव्यां, तथा मौन राख्यां, तथा उठि एकान्त गयाँ, आत्म-रक्षक कह्यो। पिण असंयती रो जीवणो वांछयां आत्म-रक्षक न कह्यो। तो मिनकी ने डरायनें ऊदरा ने बचावे तेहनें आत्म-रक्षक किन कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २५ बोल सम्पूर्ण।
तथा अनेरा ने भय उपजावे ते हिंसा प्रथम आश्रव द्वारे “प्रश्नव्याकरण' में कही छै। तो मिनकी ने भय किम उपजावणो। वली भय उपजायां प्रायश्चित कहो। ते पांठ लिखिये है।