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अनुकंपाऽधिकारः।
जे भिक्खू अण्ण उत्थियाणं वा गारस्थियाणं वा गहाणं मूढाणं विप्परियासियाणं मग्गं वा पवेदेइ संधिं पवेदेइ मग्गाणं वा संधिं पवेदेइ संधिं उ वा मग्गं पवेदेइ. पवेदंतं वा साइजइ.
(निशीथ उ० १३ बोल २७ )
जे जे साधु. अ० अन्यतीर्थिक ने तथा. गा० गृहस्थ नें. ण पंथ थकी नष्टां में. मू० अटवी में दिशा मूढ हुवा ने. वि० विपरीत पणु पाम्या ने मार्ग नों. ५० कहिवो. स० संधि नो कहिवो म मार्ग थकी. स० संधि. प० कहिवो. सं संधि थकी. म० मार्ग नों. प० कहिवो. तथा घणा मार्ग नी संधि प० कहे कहता ने सा० अनुमोदे। तो पूर्ववत् प्रायश्चित्त.
अथ अठे गृहस्थ प्रथा अन्य तीर्थी ने मार्ग भूला ने दुःखी अत्यन्त देखी. मार्ग बतायां चौमासी प्रायश्चित कह्यो। ते माटे असंयती री सुखसाता बांछयां धर्म महीं। गृहस्थ नी साता पूछयां दशवैकालिक अ० ३ में सोलमो अनाचार कह्यो ।
तथा वली व्यावच कियां करायां अनुमोद्यां अट्ठावीसमों अनाचार कयो। पिण धर्म न कह्यो। ते माटे असंयती शरीर नो जावता कियां धर्म नहीं । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति २४ बोल सम्पूर्ण ।
तथा धर्म तो उपदेश देइ समझायाँ कह्यो छै। ते पाठ लिखिये छ।
तो आयक्खा प० तं० धम्मियाए पडिचोयणाए भवइ १ तुसिणीए वासिया २ उद्वित्ता वा आया एगन्त मवकमेजा ३
-(ठामाङ्ग ठाणा ३ उ०४)
स० निण. मा० आत्म रक्षक ते राग द्वषादिक अकार्य थकी अथवा भवकूप थकी प्रात्मा ने राखे ते आत्म रक्षक ध० धर्म नी. ५० बोइगाइ करी ने पर ने उपदेशे जिम अनुकल